दीध-निकाय
दीध-निकाय ब्रह्मजाल-सुत्त (१।१।१)
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।
१—बुद्धमे साधरण बाते—आरिभक शील, मध्यम शील, महाशील । २—बुद्धमे असाधारण बाते—बासठ दार्शनिक मत—(१) आदिके सम्बन्घकी १८ धारणाये, (२) अन्तके सम्बन्धकी ४४ धारणाये ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओ के बळे सधके साथ राजगृह और नालन्दाके बीच लम्बे रास्तेपर जा रहे थे ।
सुप्रिय परिव्राजक भी अपने शिष्य ब्रह्मदत्त माणवकके साथ० जा रहा था । उस समय सुप्रिय० अनेक प्रकारसे बुद्ध, धर्म और सधकी निन्दा कर रहा था । किन्तु सुप्रियका शिष्य ब्रह्मदत्त ० अनेक प्रकारसे बुद्ध, धर्म और सधकी प्रशसा कर रहा था । इस प्रकार वे आचार्य और शिष्य दोनो परस्पर अत्यन्त विरुद्ध पक्षका प्रतिपादन करते भगवान् और भिक्षु-सधके पीछे-पीछे जा रहे थे ।
तब भगवान् भिक्षु-सधके साथ रात-भरके लिए अम्बलट्ठिका (नामक वाग) के राजकीय भवनमे टिक गये ।
सुप्रिय भी अपने शिष्य ब्रह्मदत्तके साथ० (उसी) भवनमे टिक गया । वहाँ भी सुप्रिय अनेक प्रकासे बुद्ध, धर्म और सधकी निन्दा कर रहा था और ब्रह्मदत्त० प्रशसा । इस प्रकार वे आचार्य और शिष्य दोनो परस्पर विरोधी पक्षका प्रतिपादन कर रहे थे ।
रात ढल जानेके बाद पौ फटनेके समय उठकर बैठकमे इकट्ठे हो बैठे बहुतसे भिक्षुओमे ऐसी बात चली—“आवुस । यह बळा आश्चर्य और अद्भुत है कि सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, अर्हत् और सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् (सभी) जीवोके (चित्तके) नाना अभिप्रायको ठीक-ठीक जान लेते है । यही सुप्रिय अनेक प्रकारसे बुद्ध, धर्म और सधकी निन्दा कर रहा है, और उसका शिष्य ब्रह्मदत्त प्रशसा ।०”
तब भगवान् उन भिक्षुओके वार्तालापको जान बैठकमे गये, और बिछे हुए आसनपर बैठ गये ।
बैठकर भगवानने भिक्षओको सम्बोधित किया—“भिक्षुओ । अभी क्या बात चल रही थी, किस बातमे लगे थे ?”
इतना कहनेपर उन भिक्षुओने भगवानसे यह कहा—“भन्ते(=स्वाभिन्) । रातके ढल जानेके बाद पौ फटनेके समय उठकर बैठकमे इकट्ठे बैठे हम लोगोमे यह बात चली—आवुस । यह बळा आश्चर्य और अद्भुत है कि सर्ववित्, सर्वद्रष्टा, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् (सभी) जीवोके (चित्तके) नाना अभिप्रायको ठीक-ठीक जान लेते है । यही सुप्रिय० निन्दा कर रहा है और ब्रह्मदत्त प्रशसा ०। इस तरह ये पीछे-पीछे आ रहे है । भन्ते । हम लोगोकी बात यही थी कि भगवान् पधारे ।”
(भगवान् बोले—) “भिक्षुओ । यदि कोई मेरी निन्दा करे, या धर्मकी निन्दा करे, या सधकी निन्दा करे, तो तुम लोगोको न (उससे) वैर, न असन्तोष और न चितमे कोप करना चाहिए ।
ब्रह्मजाल-सुत
“भिक्षुओ । यदि कोई मेरी, धर्मकी या सघकी निन्दा करे, और तुम (उससे) कुपित या खिन्न हो जाओगे, तो ईसमे तुम्हारी ही हानि है|
“भिक्षुओ । यदि कोई मेरी, धर्मकी या सघकी निन्दा करे, तो क्या तुम लोग (झट) कुपित ओर खिन्न हो जाओगे, और ईसकी जाँच भी न करोगे कि उन लोगोके कहनेमे क्या सच बात है और क्या झूठ?”
“भन्ते ऐसा नही ।”
“भिक्षुओ । यदि कोई◦ निन्दा करे, तो तुम लोगोको सच और झूठ बातका पूरा पता लगाना चाहिए—क्या यह ठीक नही है, यह असत्य है, यह बात हम लोगोमे नही है, यह बात हम लोगोमे बिलकुल नही है?
“भिक्षुओ । और यदि कोई मेरी, धर्मकी या संघकी प्रशंसा करे, तो तुम लोगोको न आनन्दित, न प्रसन्न और न हर्षोत्फुल्ल हो जाना चाहिए।◦ यदि तुम लोग आनन्दित, प्रसन्न और हर्षोत्फुल्ल हो जाओगे, तो उससे तुम्हारी ही हानि है ।
“भिक्षुओ । यदि कोई प्रशंसा ० करे तो, तुम लोगोको सच और झूठ बातका पूरा पता लगाना चाहिए-क्या यह बात ठीक है, यह बात सत्य है, यह बात हम लोगोमे है और यथार्थमे है ।
१–बुद्ध में साधारण बातें
(१) आरम्भिक शील
“भिक्षुओ । यह शील तो बहुत छोटा और गौण है, जिसके कारण अनाळी लोग (==पृथग् जन) मेरी प्रशंसा करते है । भिक्षुओ । वह छोटा और गौण शील कौनसा है, जिसके कारण अनाळी मेरी प्रशंसा करते है?—(वे ये है)—श्रमण गीत म जीवहिंसा (==प्राणातिपात) को छोळ हिंसासे विरत रहता है । वह दड और शस्त्रको त्यागकर लज्जावान, दयालु और सब जीवोका हित चाहनेवाला है ।
“भिक्षुओ । अथवा अनाळी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते है—श्रमण गौतम चोरी (=अदत्तादान) को छोळकर चोरीसे विरत रहता है । वह किसीसे दी-गई चीजको ही स्वीकार करता है (=दत्तादायी), किसीसे दी गई चीजहीकी अभिलाषा करता है (=दत्ताभिलाषी), और इस तरह पवित्र आत्मावाला, होकर विहार करता है ।
“भिक्षुओ । अथवा अनाळी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते है—व्यभिचार छोडकर श्रमण गौतम निकृष्ट स्त्री-संभोगमे सर्वथा विरत रहता है ।
“भिक्षुओ । अथवा०—मिथ्या-भाषणको छोड श्रमण गौतम मिथ्या-भाषणसे सदा विरत रहता है । वह सत्यवादी, सत्यव्रत, दृढवक्ता, विश्वास-पात्र और जैसी कहनी वैसी करनीवाला है ।
“भिक्षुओ । अथवा०—चुगली करना छोड श्रमण गौतम चुगली करनेसे विरत रहता है । फूट डालनेके लिए न इधरकी बात उधर कहता है और न उधरकी बात इधर, बल्कि फूटे हुए लोगोको मिलानेवाला, मिले हुए लोगोके मेलको और भी दृढ करनेवाला, एकता-प्रिय, एकता-रत, एकतासे प्रसन्न होनेवाला और एकता स्थापित करनेके लिये कहनेवाला है ।
“भिक्षुओ । अथवा०—कठोर भाषणको छोड श्रमण गौतम कठोर भाषणसे विरत रहता है । वह निर्दोष, मधुर, प्रेमपूर्ण, जँचनेवाला, शिष्ट और बहुजनप्रिय भाषण करनेवाला है ।
“भिक्षुओ । अथवा०—निरर्थक बातूनीपनको छोड श्रमण गौतम निरर्थक बातूनीपनसे विरत रहता है । वह समयोचित बोलनेवाला, यथार्थवक्ता, आवश्यकोचित वक्ता, धर्म और विनयकी बात बोलनेवाला तथा सारयुक्त बात कहनेवाला है ।
“भिक्षुओ । अथवा०—श्रमण गौतम किसी बीज या प्राणी के नाश करनेसे विरत रहता है, एकाहारी है, और बेवक्तके खानेसे, नृत्य, गीत, वाध और अश्लील हाव-भावके दर्शनसे विरत रहता है । माला, गन्ध, विलेपन, उबटन तथा अपनेको सजने-धजनेसे श्रमण गौतम विरत रहता है । श्रमण गौतम ऊँची और बहुत ठाट-बाटकी शय्यासे विरत रहता है । ० कच्चे अन्नके ग्रहणसे विरत रहता है । ० कच्चे मॉसके ग्रहणसे विरत रहता है । ० स्त्री और कुमारीके ग्रहणसे विरत रहता है । ० दास और दासीके ग्रहणसे विरत रहता है । बकरी या भेळके ग्रहणसे विरत रहता है । ०कुत्ता और सूअरके ग्रहणसे विरत रहता है । ० हाथी, गाय, घोळा और खच्चरके ग्रहणसे०।० खेत तथा माल असबाबके ग्रहण से०।० दूतके काम करनेसे ०।० खरीद-बिकिके काम करनेसे ०।० तराजू, पैला और बटखरेमे ठगबनीजी करनेसे ०। दलाली, ठगी और झूठा सोना-चॉदी बनाना (=निकति) के कुटिल कामसे, हाथ-पैर काटने, बध करने, बॉधने, लूटने-पीटने और डाका डालनेके कामसे विरत रहता है ।
“भिक्षुओ । अनाळी तथागतकी प्रशसा इसी प्रकार करते है ।
(२) मध्यम शील
“भिक्षुओ अथवा अनाळी मेरी प्रशसा इस प्रकार करते है—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण (गृह्स्थोके द्वारा) श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजनको खाकर इस प्रकारके सभी बीज और सभी सभी प्राणीके नाशमे लगे रहते हे, जैसे—मूलबीज (=जिनका उगना मूलसे होता है), स्कन्धबीज (=जिनका प्ररोह गाँठसे होता है, जैसे—ईख), फलबीज और पाँचवॉ अग्रबीज (=ऊपरसे उगता पौधा) । उस प्रकार श्रमण गौतम बीज और प्राणीका नाश नही करता।
“भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकारके जोळने और बटोरनेमे लगे रहते है, जैसे—अन्न, पान, वस्त्र, वाहन, शय्या, गन्घ तथा और भी वैसी ही दूसरी चीजोका इकट्ठा करना, उस प्रकार श्रमण गौतम जोळने बटोरनेमे नहि लगा रहता ।
“भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० इस प्रकारके अनुचित दर्शनमे लगे रहते हे, जैसे—नृत्य, गीत, बाजा, नाटक, लीला, ताली, ताल देना, घळापर तबला बजाना, गीत-मण्डली, लोहेकी गोलीका खेल, बाँसका खेल, धोपन,१ हस्ति-युद्ध, अश्व-युद्ध, महिष-युद्ध, वृषभ-युद्ध, बकरोका युद्ध, भेळोका युद्ध, मुर्गोका लळाना, बत्तकका लळाना, लाठीका खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, मार-पीटका खेल, सेना, लळाईकी चाले इत्यादि उस प्रकार श्रमण गौतम अनुचित दर्शनमे नहि लगा रहता है।
“भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० जूआ आदि खेलोके नशेमे लगे रहते है, जैसे—२ अष्टपद, दशपद, आकाश, परिहारपथ, सन्निक, खलिक, घटिक, शलाक-हस्त, अक्ष, पगचिर, वकक, मोक्खचिक, चिलिगुलिक, पत्ताल्हक, रथकी दौळ, तीर चलानेकी बाजी, बुझौअल, ओर नकल, उस प्रकार श्रमण गौतम जूआ आदि खेलोके नशेमे नही पळता है ।
“भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० इस तरहकी ऊँची ओर ठाट-बाटकी शय्यापर सोते है, जैसे—दीर्घ आसन, पलग, बळे बळे रोयेवाला आसन, चित्रित आसन, उजला कम्बल, फूलदार बिछावन, रजार्इ, गद्दा, सिह-व्याघ्र आदिके चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, काम किया हुआ आसन, लम्बी दरी, हाथीका साज, घोळेका साज, रथका साज, कदलिमृगके खालका बना आसन, चँदवादार आसन, दोनो ओर तकिया रखा हुआ (आसन) इत्यादि, उस प्रकार श्रमण और गौतम ऊँची और ठाट-बाटकी शय्यापर नही सोता ।
२ ब्रह्मजाल-सुत्त
"भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकार अपनेको सजने-वजनेमे लगे रहते है, जैसे—उबटन लगवाना, शरीरको मलवाना, दूसरेके हाथ नहाना, शरीर दबवाना, दपॅण, अजन, माला, लेप, मुख-चूर्ण(=पाउडर), मुख-लेपन, हाथको आभूषण, शिखामे कुछ बाँधना, छळी, तलवार, छाता, सुन्दर जूता, टोपी, मणि, चँदर, लम्बे-लम्बे झालरवाले साफ उजले कपळे इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम अपनेको सजने-धजनेमे नही लगा रहता ।
"भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकारकी व्यर्थकी (=तिरश्चीन) कथामे लगे रहते है, जैसे—राजकथा, चोर, महामंत्री, सेना, भय, युद्ध, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, माला, गन्घ, जाति, रथ, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, सूर, चोरस्ता (=विशिखा), पनघट, और भूत-प्रेतकी कथाये, संसारकी विविध घटनाएँ, सामुद्रिक घटनाएँ, तथा इसी तरहकी इघर-उघरकी जनश्रुतियॉ, उस प्रकार श्रमण गौतम तिरश्चीन कथाओमे नही लगता ।
"भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकारकी लळाई-झगळोकी बातोमे लगे रहते है, जैसे—तुम इस मत(=धर्मविनय) को नही जानते, मै० जानता हूँ, तुम० क्या जानोगे ? तुमने इसे ठीक नही समझा है, मै इसे ठीक-ठीक समझता हूँ, मै धर्मानुकूल कहता हूँ, तुम धर्म-विरुद्ध कहते हो, जो पहले कहना चाहिए था, उसे तुमने पीछे कह दिया, और जो पीछे कहना चाहिए था, उसे पहले कह दिया, बात कट गई, तुमपर दोषारोपण किया गया, तुम पकळ लिये गये, इस आपत्तिसे छूटनेकी कोशिश करो, यदि सको, तो उत्तर दो इत्यादि, इस प्रकार श्रमण गौतम लळाई-झगळेकी बातमे नही रहता।
"भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० (इधर-उधर) जैसे—राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मणो, गृहस्थो, कुमारोके दूतका काम करते फिरते है, वहाँ जाओ, यहाँ आओ, यह लाओ, यह वहाँ ले जाओ इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम दूतका काम नही करता ।
"भिक्षुओ । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० पाखडी और वचक, बातूनी, जोतिषके पेशावाले, जादू-मन्त्र दिखानेवाले और लाभसे लाभकी खोज करते है, वैसा श्रमण गौतम नही है ।
(३) महाशील
जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजनको खाकर इस प्रकारकी हीन (=नीच) विद्यासे जीवन बिताते है, जैसे—अगविद्या, उत्पाद०, स्वप्न०, लक्षण०, मूषिक-विष० अग्नि-हवन, दर्वी-होम, तुष-होम, कण-होम, तणडल-होम, धृत-होम, तैल-होम, मुखमे घी लेकर कुल्लेसे होम, रधिर-होम, वास्तुविद्या, क्षेत्रविद्या, शिव०, भूत०, भुरि०, सर्प०, विप०, बिच्छुके झाळ-फूँक्की विद्या, मूषिक विद्या, पक्षि०, शरपरित्राण (मन्त्र जाप, जिससे लळाईमे बाण शरीरपर न गिरे), और मृगचक्र, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विघासे निन्दित जीवन नही बितता |
"भिक्षुओ | अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकारकी हीन विद्यासे निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—मणि-लक्षण, वस्त्र०, दण्ड०, असि०, बाण०, धनुष०, आयुध०, स्त्री०, पुरुष०, कुमार०, कुमारी०, दास०, दासी०, हस्ति०, अश्व०, भैस०, वृषभ०, गाय०, अज०, मेष०, मुर्गा०, बत्तक०, गोह०, कर्णिका०, कच्छप० और मृगलक्षण, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विद्यासे निन्दित जीवन नही बिताता |
"भिक्षुओ | अथवा०—जिस प्रकार० निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—राजा बाहर निकल जायेगा नही निकल जायेगा, यहाँका राजा बाहर निकल जायगा, बाहरका राजा यहॉ आयेगा,
बासठ दार्शनिक मत
यहाँके राजाकी जीत होगी ओर बाहरके राजाकी हार, यहॉके राजाकी हार होगी और बाहरके राजाकी जीत, इसकी जीत होगी और उसकी हार, श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विधासे निन्दित जीवन नही बिताता ।
“भिक्षुओ । अथवा०—निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—चन्द्र-ग्रहण होगा, सूयॅ-ग्रहण, नक्षत्र-ग्रहण, चन्द्रमा और सूर्य अपने-अपने मार्ग ही पर रहेगे, चन्द्रमा और सूर्य अपने मार्गसे दूसरे मार्गपर चले जायेगे, नक्षत्र अपने मार्गपर रहेगा,० मार्गसे हट जायेगा, उल्कापात होगा, दिशा दाह होगा, भूकम्प होगा, सूखा बादल गरजेगा, चन्द्रमा, सूर्य ओर नक्षत्रोका उदय, अस्त, सदोप होगा और शुद्ध होना होगा, चन्द्र-ग्रहणका यह फल होगा,० चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रके उदय, अस्त सदोप या निर्दोष होनेसे यह फल होगा, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विद्यासे निन्दित जीवन नही बिताता |
“भिक्षुओ । अथवा०—निन्दित जीवन बिताते है, जेसे—अच्छी वृष्टि होगी, बुरी०, सस्ती होगी, महँगी पळेगी, कुशल होगा, भय होगा, रोग होगा, आरोग्य होगा, हस्तरेखा-विघा, गणना, कविता पाठ इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम० नहि० ।
“भिक्षुओ । अथवा०—निन्दित जीवन बिताते है, जेसे—सगाई, विवाह, विवाहके लिऐ उचित नक्षत्र बताना, तलाक देनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, उघार या ऋणमे दिये गये रुपयोके वसूल करनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, उघार या ऋण देनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, सजना-धजना, नष्ट करना, गर्भपुष्टि करना, मन्त्रबलसे जीभको बॉघ देना,० ठुङ्ङीको बाँघ देना,० दुसरेके हाथको उलट देना,० दुसरके कानको बहरा बना देना,० दर्पणपर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, कुमारीके शरीरपर और देव वाहिनीके शरीरपर देवता बुदाकर प्रश्न पूछना, सूर्य-पूजा, महाब्रह्म-पूजा, मन्त्रके बल मुँहसे अग्नि निकालना, उस प्रकार श्रमण गौतम० नही० |
“भिक्षुओ | अथवा० निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—मिन्नत मानना, मिन्नत पुराना, मन्त्रका अभ्यास करना, मन्त्रबलसे पुरुषको नपुसक और नपुसकको पुरुष बनाना, इन्द्रजाल, बलिकर्म, आचमन, स्नान-कार्य, अग्नि-होम, दवा देकर वमन, विरेचन, उर्ध्वविरेचन, शिरोविरेचन कराना, कानमे डालने के लिए तेल तैयार कराना, ऑखके लिये०, नाकमे तेल देकर छिकवाना, अजन तैयार करना, छुरी-काँटाकी चिकित्सा करना, वैद्यकर्म, उस प्रकार श्रमण गौतम० नही० |
“भिक्षुओ | यह शील तो बहुत छोटे और गौण है, जिसके कारण अनाळी मेरी प्रशसा करते है |
२—बुद्धमे श्रसाघारण बाते
बासठ दार्शनिक मत
“भिक्षुओ | (इनके अतिरिक्त) और दूसरे घर्म है, जो गम्भीर, दुर्ज्ञेय, दुरनुबोध, शान्त, सुन्दर, अतर्कावचर (=जो तर्कमे नही जाने जा सकते), निपुण और पडितोके समझने योग्य है, जिन्हे तथागत स्वय जानकर और साक्षातकर कहते है, (और) जिन्हे तथागतके यथार्थ गुणको ठिक-ठिक कहने वाले कहते है |
(१) श्रादिके सम्बन्घकी १८ धारणाये
“भिक्षुओ | वे ० धर्म कौन से है ?
“भिक्षुओ | कितने ही श्रमण और ब्राह्मण है, जो १८ कारणोसे पूर्वान्त-कल्पिक=आदिम छोरवाले मतको माननेवाले और पूर्वान्तके आधारपर उनके (केवल) व्यहवहारके शब्दोका प्रयोग करते है। वे० किस कारण और किस प्रमाणके बल पर० पूर्वान्तके आधारपर उनेक व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है |
१-ब्रह्मजाल-सुत्त
“भिक्षुओ । कितने ही श्रमण और ब्राह्मण नित्यवादी (=शाश्वतवादी) है, जो चार कारणोसे आत्मा और लोक दोनोको नित्य मानते है ? वे० किस कारण और किस प्रमाणके बल पर० आत्मा और लोकको नित्य मानते है ?
१—शाश्वत-वाद— (१) “भिक्षुओ । कोई भिक्षु सयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर-चित्तसे उस प्रकार चित्तसमाधिको प्राप्त करता है, जिस समाधिप्राप्त चित्तमे अनेक प्रकारके—जेसे एक सौ० हजार० लाख, अनेक लाख पुर्वजन्मोकी स्मृति हो जाती है—मै इस नामका, इस गोत्रका, इस रगका, इस आहारका, इस प्रकारके सुखो और दुखोका अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीने वाला था । सो मै वहॉ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । वहॉ भी मै इस नामका० था । सो मै वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्वजन्मके सभी आकार प्रकारका स्मरण करता है । वह (इसीके बलपर) कहता है—आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल है । प्राणी चलते, फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते है, (किन्तु) अस्तित्व नित्य है।
“सो कैसे ? मै भी ० उस प्रकारकी चित्तसमाघिको प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्तमे अनेक प्रकारके० पूर्वजन्मोकी स्मृति हो जाती है । अत ऐसा जान पळता है, मानो आत्मा और लोक नित्य० है।
“भिक्षुओ । यह पहला कारण है, जिस प्रमाणके आघार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा ओर लोकको नित्य बताते है ।
“(२) दूसरे, वे किस कारण और किस प्रमाणके आधार पर ० आत्मा और लोकको शाश्वत मानते है ?
“भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण० उस प्रकारकी चित्तसमाघिको प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्तमे अनेक प्रकारके पूर्वजन्मोको जैसे—एक सवर्त-विवर्त (कल्प)०, दस सवर्त—मै इस नामका० था०, स्मरण करता है, सो मै वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्व जन्मके सभी आकार-प्रकारोको स्मरण करता है । अत वह (इसी के बलपर) कहता है—आत्मा और लोक दोनो नित्य है । प्राणी० मर जाते है, किन्तु अस्तित्व नित्य है । सो कैसे ? मै भी ० उस प्रकारकी चित्तसमाघिको प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्तमे अनेक प्रकार के पूर्व जन्मोकी स्मृति हो जाती है०। अत ऐसा जान पळता है, मानो आत्मा और लोक नित्य है ।
“भिक्षुओ । यह दूसरा कारण है० ।
(३) “तीसरे, वे किस कारण ० आत्मा ओर लोकको नित्य मानते है ?
“भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण० उस चित्तसमाधिको प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त मे अनेक प्रकारके पूर्व जन्मोको स्मरण करता है, जैसे—दस सवर्त-विवर्त, बीस०, तीस०, चालीस सवर्त-विवर्त—मै इस नामका० था०, सो मै वहॉ मरकर यहॉ उत्पन्न हुआ । अत वह (इसीके बलपर) कहता है—आत्मा और लोक दोनो नित्य है । प्राणी० मर जाते है, किन्तु अस्तित्व नित्य है ।
“सो केसे ? मै भी ० उस चित्त-समाधिको प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्तमे अनेक प्रकारके पूर्वजन्मोकी स्मृति हो जाती है० । अत ऐसा जान पळता है, मानो आत्मा और लोक नित्य ० है ।
“भिक्षुओ यह तीसरा कारण है० ।
(४) “चौथे, वे किस कारण० आत्मा और लोकको नित्य मानते है ?
“भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण तर्क करनेवाला है । वह अपने तर्कसे विचारकर ऐसा मानता
नित्तयता-अनित्तयता-वाद
है—आत्मा और नित्य० है। प्राणी० मर जाते है, किन्तु अस्तित्व नित्य है ।
“भिक्षुओ । यह चौथा कारण है०।
“भिक्षुओ । इन्ही चार कारणोसे शाश्वतवादी श्रमण और ब्राह्मण आत्मा और लोकको नित्य मानते है । जो कोई ० आत्मा और लोकको नित्य मानते है, उनके यही चार कारण है। इनको छोळ और कोई कारण नही है।
“तथागत उन सभी कारणोको जानते है, उन कारणोके प्रमाण और प्रकारको जानते है, और अधिक भी जानते है, जानकर भी “मै जानता हूँ” ऐसा अभिमान नही करते । अभिमान न करते हुए स्वय मुक्तिको जान लेते है। वेदनाओकी उत्पत्ति (=समुदय), अन्त, रस (=आस्वाद), दोष और निराकरणको ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते है। भिक्षुओ । वे धर्म गम्भीर, दुर्ज्ञेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, अतकविचर, निपुण और पडितोके समझने योग्य है, जिन्हे तथागत स्वय जानकर और साक्षातकर कहते है, जिसे कि तथागतके यथाथॅ गुणको कहने वाले कहते है।
(इति) प्रथम माणवार ।।१।।
२—नित्त्यता-अनित्त्यता-वाद (५)—“भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण है, जो अशत नित्य अशत नित्य अशत अनित्य माननेवाले है। वे चार कारणोसे आत्मा और लोकको अशत नित्य और अशत अनित्य मानते है । वे० किस कारण और किस प्रमाणके बलपर० आत्मा और लोकको अशत नित्य और अशत अनित्य मानते है ?
“भिक्षुओ । बहुत वर्षोके बीतनेपर एक समय आता है, जब इस लोकका प्रलय (=सवर्त) हो जाता है । प्रलय हो जानेके बाद आभास्वर ब्रह्मलोकके रहनेवाले वहॉ मनोमय, प्रीतिभक्ष (=समाधिज प्रीतिमे रत रहनेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र ओर आभरणसे युक्त बहुत दीर्ध काल तक रहते है।
“भिक्षुओ । बहुत वर्षोके बीतनेपर एक समय आता है, जब इस लोकका प्रलय हो जाता है ।० प्रलय हो जानेके बाद सूना (=शून्य) ब्रह्मविमान उत्पन्न होता है । तब कोई प्राणी आयु या पुण्यके क्षय होनेसे आभास्वर ब्रह्मलोकसे गिरकर ब्रह्मविमानमे उत्पन्न होता है। वह वहॉ मनोनय ० । वहॉ वह अकेले बहुत दिनो तक रहकर ऊब जाता है, और उसे भय होने लगता है—अहो । यहॉ दुसरे भी प्राणी आये ।
“तब (कुछ समय बाद) दूसरे भी आयु ओर पुण्यके क्षय होनेसे आभास्वर ब्रह्मलोकसे गिरकर ब्रह्मविमानमे उत्पन्न होते है । वे उस (पहले) सत्वके साथी होते है । वे भी वहॉ मनोमय०।
“वहॉ जो सत्त्व पहले उत्पन्न होता है, उसके मनमे ऐसा होता है —मै ब्रह्मा, महाब्रह्मा, अभिभू, अजित, सर्वद्रष्टा, वशवर्ती, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, महायशस्वी, वशी और हुए और होनेवाले (प्राणियो) का पिता हूँ, ये प्राणी मेरे ही द्वारा निर्मित हुए है। सो कैसे ? मेरे ही मनमे पहले ऐसा हुआ था—अहो । दुसरे भी जीव यहॉ आवे । फिर मेरी ही इच्छासे ये सत्व उत्पन्न हुए है ।
“जो प्राणी पीछे उत्पन्न हुए थे, उनके मनमे भी ऐसा हुआ—यह ब्रह्मा, महाब्रह्मा० है । हम सभी इसी ब्रह्मा द्वारा निर्मित किये गये है। सो किस हेतु ? इनको हम लोगोने पहले ही उत्पन्न देखा, हम लोग तो इनके पीछे उत्पन्न हुए। अत जो (हम लोगो से) पहले ही उत्पन्न हुआ, वह हम लोगोसे दीर्ध आयुका, अधिक गुणपूर्ण और अधिक यशस्वी है, और जो (हम सब) प्राणी उसके पीछे हुए वे अल्प आयुके, अल्पगुणो से युक्त और अल्प यशवाले है।
“भिक्षुओ । तब कोई प्राणी वहाँसे च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है। यहाँ आकर वह घरसे बे-घर हो साधु हो जाता है। वह ० उस चितसमाधिको प्राप्त करता है, जिस समाहित चितमे वह अपने
पहले जन्मको स्मरण करता है, उससे पहलेकी नही,० । वह ऐसा कहता है—जो ब्रह्मा, महाब्रह्मा है०, जिनके द्वारा हम लोग निर्मित किये गये है, वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिणामधर्मा और अचल है, और ब्रह्माके निर्मित किये गये हम लोग अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील है ।
“भिक्षुओ । यह पहला कारण है, जिसके प्रमाणके बलपर वे◦ आत्मा और लोकको अशत नित्य और अशत अनित्य मानते० है ।
(६) “दूसरे ० ॽ क्रीडा प्रदूषिक नामके कुछ देव है । वे बहुत काल तक रमण कीडामे लगे रहते है । उससे उनकी स्मृति क्षीण हो जाती है। स्मृतिके क्षीण हो जानेसे वे उस शरीरसे च्युत हो जाते हे, और यहाँ उत्पन्न होते है । यहाँ आकर साधु हो जाते है ।० साधु हो◦ उस चित्तसमाधिको प्राप्त करते है, जिस समाहित चित्तमे अपने पहले जन्मको स्मरण करते है, उसके पहलेको वह ऐसा कहते है-जो क्रीडाप्रदूषिक देव नही होते है, वे बहुत काल तक रमण-क्रीडामे लगे होकर नही विहार करते ।० इससे उनकी स्मृति क्षीण नही होती । स्मृतिके क्षीण न होनेके कारण वे उस शरीरसे च्युत नही होते, वे नित्य, ध्रुव रहते है, और जो हम लोग क्रीडा-प्रदूषिक देव है, सो बहुत काल तक रमण-क्रीडामे लगे होकर विहार करते रहे, जिससे हम लोगोकी स्मृति क्षीण हो गई । स्मृतिके क्षीण होने से हम लोग उस शरीरमे च्युत हो गये । अत हम लोग अनित्य, अध्रुव मरणशील है ।
“भिक्षुओ । यह दूसरा कारण हे, जिसके प्रमाणके बलपर वे० आत्मा और लोकको अशत नित्य अशत अनित्य० मानते है ।
“(७) तीसेर ०ॽ भिक्षुओ । मन प्रदूषिक नामके कुछ देव है । वे बहुत काल तक परस्पर एक दूसरेको क्रोधसे देखते है । उससे वे एक दूसरेके प्रति द्वेष करने लगते है । एक दूसरेके प्रति बहुत काल तक द्रेष करते हुए शरीर और चितसे क्लान्त हो जाते है, अत वे देव उस शरीरसे च्युत हो जाते है ।
“भिक्षुओ तब कोई प्राणी उस शरीरसे च्युत होकर यहाँ (=इस लोकमे) उत्पन्न होते है । यहाँ आकर० साधु हो जाते है ।० साधु हो० उस समाधिको प्राप्त करते है, जिस समाहित चित्तमें अपने पहले जन्मको स्मरण करते है, उसके पहलेका नही । (तब) वह ऐसा कहते है–जो मन प्रदूषिक देव नही होते, वे बहुत काल तक एक दूसरेको क्रोधकी दृष्टिसे नही देखते रहते, जिससे उनमे परस्पर द्रेष भी नही उत्पन्न होता।० द्रेष नही करनेसे वे शरीर और चितसे क्लान्त भी नही होते । अत वे उस शरीरसे च्युत भी नही होते । वे नित्य, ध्रुव० है ।
और जो हम लोग मन प्रदूषिक देव ये, भी० क्रोध० द्रेष करते रहे, (और) ० मन तथा शरीरसे थक गये । अत हम लोग उस शरीरसे च्युत हो गये । हम लोग अनित्य, अध्रुव० है ।
“भिक्षुओ । यह तीसरा कारण है ।
“(८) चौथे ० ॽ भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण तर्क करनेवाले है ॽ वे तर्क और न्यायसे ऐसा कहते है—जो यह चक्षु, श्रोय, नासिका, जिह्ना और शरीर है, वह अनित्य, अध्रुव० है, और (जो) यह चित, मन या विज्ञान है (वह) नित्य, ध्रुव ० है ।
“भिक्षुओ । वह चौथा कारण है ० ।
“भिक्षुओ । वे ही श्रमण और ब्राह्मण अशत नित्य और अशत अनित्य० मानते है० । वे सभी इन्ही चार कारणोसे ऐसा मानते है, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही है।
“भिक्षुओ । तथागत उन सभी कारणोको जानते है०।
३—मान्त-अनन्त-याद—(९) “भिक्षुओ जितने श्रमण और ब्राह्मण चार कारणोसे अन्नानन जाते है, वे लोको शान्त और अनन्त मानते है । वे० जिस कारण मानते हैॽ
“भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण० उस चित्तसमाधिको प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्तमे ‘लोक सान्त है’ ऐसा भान होता है । वह ऐसा कहता है—यह लोक सान्त और परिछिन्न है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्तमे ‘लोक सान्त है’, ऐसा भान होता है, इसीसे मै समझता हूँ कि लोक सान्त और परिच्छिन्न है।
“भिक्षुओ । यह पहला कारण है कि जिससे वे० लोकको सान्त और अनन्त मानते है ।
“(१०) दूसरे ० ? भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण० समाहित चित्तमे ҅लोक अनन्त है ।
ऐसा भान होता है । वह ऐसा कहता है—यह लोक अनन्त है, इसका अन्त कही नही है । जो० ऐसा कहते है कि यह लोक सान्त और परिच्छिन्न है, वे मिथ्या कहनेवाले है । (यथार्थमे) यह लोक अनन्त है, इसका अन्त कही नही है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्तमे ‘लोक अनन्त है’ ऐसा भान होता है, अत मै समझता हूँ कि यह लोक अनन्त है० ।
“भिक्षुओ । यह दूसरा कारण है कि जिससे वे० लोकको सान्त और अनन्त मानते है ।
“(११) तीसरे ० ? भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण० समाहित चित्तमे ‘यह लोक ऊपरसे नीचे सान्त और दिशाओकी ओर अनन्त है, ऐसा भान होता है । वह ऐसा कहता है—यह लोक सान्त और अनन्त दोनो है । जो लोकको सान्त बताते है और जो अनन्त, दोनो मिथ्या कहनेवाले है । (यथार्थमे) यह लोक सान्त और अनन्त दोनो है । सो कैसे ? मुझे समाहित चितमे ० ऐसा भान होता हूँ, जिससे मै समझता हूँ कि यह लोक सान्त और अनन्त दोनो है ।
“भिक्षुओ । यह तीसरा कारण है कि जिससे वे ० लोकको सान्त है और न अनन्त मानते है ।
“(१२) चौथे ०? भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण तर्क करनेवाला होता है । वह अपने तर्कसे ऐसा समझता है कि ‘यह लोक न सान्त है और न अनन्त ।҆ जो ० लोककी सान्त, या अनन्त, (=सान्तान्त) मानते है, सभी मिथ्या कहनेवाले है । (यथार्थ मे) यह लोक न सान्त और न अनन्त है ।
“भिक्षुओ । यह चौथा कारण है कि जिससे वे० लोकको सान्त और अनन्त मानते है ।
“भिक्षुओ । इन्ही चार कारणोसे कितने श्रमण अन्तानन्तवादी है, लोकको सान्त और अनन्त बताते है । वे सभी इन्ही चार कारणोसे ऐसा कहते है । इन्हे छोळ और कोई दूसरा कारण नही है ।
“भिक्षुओ । उन कारणोको तथागत जानते है ०।
“भिक्षुओ । कुछ श्रमण और ब्राह्मण अमराविक्षेप *वादी है, जो चार कारणोसे प्रश्नोके पूछे जानेपर उत्तर देनेमे घबळा जाते है ? वे क्यो घबळा जाते है ?
४—अमराविक्षेप–वाद—(१३) “भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीकसे नही जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा । उससे मनमे ऐसा होता है—मै ठीकसे नही जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरा । तब मै ठीकसे बिना जाने कह दूँ—‘यह अच्छा है’ और ‘यह बुरा’, यदि ‘यह अच्छा है’ या ‘यह बुरा है’ तो यह असत्य ही होगा । जो मेरा असत्य-भाषण होगा, सो मेरा घातक (=नाशका कारण) होगा, और जो घातक होगा, वह अन्तराय (=मुक्तिमार्गमे विघ्नकारक) होगा । अत वह असत्य-भाषण भय और घृणासे न यह कहता है कि ‘यह अच्छा है’ और न यह कि ‘यह बुरा’ ।
“प्रश्नोके पूछे जानेपर कोई स्थिर बाते नही करता—यह भी मैने नही कहा, वह भी नही कहा,
अन्यथा भी नही, ऐसा नही है—यह भी नही, ऐसा नही नही है—यह भी नही कहा । भिक्षुओ । यह पहला कारण है जिससे कितने अमराविक्षेपवादी श्रमण या ब्राह्मण प्रश्नोके पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नही कहते ।
“(१४) दूसरे० ॽ भिक्षुओ । जब कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीकसे नही जानता, कि यह अच्छा है और यह बुरा । उसके मनमे ऐसा होता है—मै ठीकसे नही जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरा तब यदि मै बिना ठीकसे जाने कह दूँ ० तो यह मेरा लोभ, राग, द्वेष और क्रोध ही होगा । लोभ, राग० मेरा उपादान (=संसारकी ओर आसक्ति) होगा । जो मेरा उपादान होगा, वह मेरा घात होगा, और घात मुक्तिके मार्गमे विघ्नकर होगा । अत वह उपादानके भयसे और घृणासे यह भी नही कहता कि यह अच्छा है, और यह भी नही कहता कि यह बुरा है । प्रश्नोके पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नही कहता—मै यह भी नही कहता, वह भी नही ०।
“भिक्षुओ । यह दूसरा कारण है कि जिससे वे० कोई स्थिर बात नही कहते ।
“(१५) तीसरे० ॽ भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण यह ठीकसे नही जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा । उसके मनमे ऐसा होता है —० यदि मै बिना ठीकसे जाने कह दूँ ०, और जो श्रमण और ब्राह्मण पण्डित, निपुण, बळे शास्त्रार्थ करनेवाले, कुशाग्रबद्धि तथा दूसरेके सिद्धान्तोको अपनी प्रजासे काटनेवाले है, वे यदि मुझसे पूछे, तर्क करे, या बात करे, और मै उसका उत्तर न दे सकूँ तो यह मेरा विघात (=दुर्भाव) होगा । जो मेरा विघात होगा, वह मेरी मुक्तिके मार्गमे बाधक होगा । अत, वह पूछे जानेके भय और घृणासे न तो यह कहता है कि यह अच्छा है और न यह कि यह बुरा है । प्रश्नोके पूछे जानेपर कोई स्थिर बाते नही करता—मै यह भी नही कहता, वह भी नही ०।
“भिक्षुओ । यह तीसरा कारण है, जिससे वे० कोई स्थिर बात नही कहते ।
“(१६) चौथे ० ॽ भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण मन्द और महामूढ होता है । वह अपनी मन्दता और महामूढताके कारण प्रश्नोके पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नही कहता । यदि मुझे इस तरह पूछे—҅क्या परलोक है ॽ҆ और यदि मै समझूँ कि परलोक है, तो कहूँ कि ‘परलोक है’ । मै ऐसा भी नही कहता, वैसा भी नही० । यदि मुझे पूछे, ‘क्या परलोक नही है҆० । परलोक है, नही है, और न है, न नही है । औपतातिक (=अयोनिज) सत्व (=ऐसे प्राणी जो बिना माता पिताके सयोगके उत्पन्न हुए हो) है, नही-है, है-भी-और-नही-भी, और-न-है-न-नही-है । सुकृत और दुष्कृत कर्मोके विपाक (=फल) है, नही-है, है-भी-और-नही-भी, और-न-है, न-नही है । तथागत मरनेके बाद रहते है, नही रहते है० । ऐसा भी मै नही कहता, वैसा भी नही ०।
“भिक्षुओ । यह चौथा कारण है जिससे वे० कोई स्थिर बाते नही कहते ।
“भिक्षुओ । ० वे सभी इन्ही चार कारणोसे ऐसा मानते है, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही हे । भिक्षुओ तथागत उन सभी कारणोको जानते है० ।
५—अकारण-वाद— (१७) “भिक्षुओ कितने श्रमण और ब्राह्मण अकारणवादी (=विना किसी कारणके सभी चीजे उत्पन्न होती है, ऐसा माननेवाले) है । दो कारणोसे आत्मा और लोकको अकारण उत्पन्न मानते है । वे किस कारण और किस प्रमाणके आधार पर० ऐसा मानते है ॽ भिक्षुओ ‘अ स ज्ञि सत्व’ (=जो सज्ञासे रहिते है) नामके कुछ देव है । सज्ञाके उत्पन्न होनेसे वे देव उस शरीरसे च्युत हो जाते है । तब, उस शरीरसे च्युत होकर यहाँ (इस लोकमे) उत्पन्न होते है । यहाँ० साधु हो जाते है ।० साधु होकर० समाहित चित्तमे सज्ञाके उत्पन्न होनेको स्मरण करते है, उसके पहलेको नही । वह ऐसा कहते है—अत्मा और लोक अकारण उत्पन्न हुए है । सो कैसे ॽ मै पहले नही था, मै नही होकर भी उत्पन्न हो गया ।
“भिक्षुओ । यह पहला कारण है, जिससे कितने श्रमण और ब्राह्मण ‘अकारणवादी’ हो आत्मा और लोकको अकारण उत्पन्न बतलाते है।
“(१८) दूसरे ०? भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक होता है । वह स्वयं तर्क करके ऐसा समझता है—आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न होते है।
“भिक्षुओ । यह दूसरा कारण है, जिससे कितने श्रमण और ब्राह्मण ‘अकारणवादी’० है।
“भिक्षुओ । इन्ही दो कारणोसे वे० अकारणवादी० है, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही है। भिक्षुओ । तथागत उन सभी कारणोको जानते है० ।
“भिक्षुओ । वे श्रमण और ब्राह्मण इन्ही १८ कारणोसे पूर्वान्तकल्पिक, पूर्वछोरके मतको माननेवाले और पूर्वान्तके आधारपर अनेक (केवल) व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही है।
“भिक्षुओ । उन दृष्टि-स्थानो (=सिद्धान्तो) के प्रकार, विचार, गति और भविष्य क्या है, (वह सब) तथागतको विदित है। तथागत उसे और उससे भी अधिक जानते है। जानते हुए ऐसा अभिमान नही करते—मै इतना जानता हूँ । अभिमान नही करते हुए वे निवृति (=मुकित) को जान लेते है, वेदनाओके समुदय (=उत्पत्तिस्थान), उपशम, आस्वाद, दोष, और निसरण (=दूर करना) को यथार्थत जानकर तथागत उपादान (लोकासक्ति) से मुक्त होते है।
“भिक्षुओ । ये धर्म गम्भीर, दुर्ज्ञेय, दुरनुबोध, शान्त, सुन्दर, तर्कसे परे, निपुण और पण्डितोके जानने योग्य है, जिसे तथागत स्वय जानकर और साक्षात्कर उपदेश देते है, जिन्हे कि तथागतके यथार्थ गुणोको कहनेवाले कहते है।
(२) अन्तके सम्बन्धकी ४४ धारणाये
“भिक्षुओ । कितनेही श्रमण और ब्राह्मण है, जो ४४ कारणोसे अपरान्तकल्पिक, अपरान्त मत माननेवाले और अपरान्तके आधारपर अनेक (केवल) व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है। वे० किस कारण और किस प्रमाणके बलपर० अपरान्तके आधारपर अनेक व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करके है ?
६—मरणान्तर होशवाला आत्मा – (१९—३४) “भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण ‘मरने के बाद आत्मा सझी रहता है’, ऐसा मानते है। वे १६ कारणोसे ऐसा मानते है। वे◦ सोलह कारणोसे ऐसा क्यो मानते है ? ‘मरने के बाद आत्मा रुपवान्, रोगरिहत और आत्म-प्रतीति (सज्ञा=प्रतीति) के साथ रहता है। अरुपवान और रुपवान् आत्मा होता है, न रुपवान्, न अरुपवान् आत्मा होता है। आत्मा सान्त होता है, आत्मा अनन्त होता है, आत्मा सान्त और अनन्त होता है, आत्मा न शान्त और न अन्नत होता है, आत्मा एकात्मसज्ञी होता है, आत्मा नानात्मसज्ञी होता है, आत्मा परिमितसज्ञावाला होता है, आत्मा अपरिमितसज्ञावाला होता है, आत्मा बिल्कुल शुद्ध होता है, आत्मा बिल्कुल दुखी होता है, आत्मा सुखी और दुखी होता है, आत्मा सुख दुखसे रहित होता है, आत्मा अरोग और सज्ञी होता है।
“भिक्षुओ । इन्ही १६ कारणोसे वे० ऐसा कहते है। इनके अतिरिक्त और कोइ दूसरा कारण नही है।
“भिक्षुओ । तथागत उन कारणोको जानते है ०।
७—मरणान्तर बेहोश आत्मा— (३५-४२) “भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणोसे ҅मरनेके बाद आत्मा असज्ञी रहतो है҆, ऐसा मानते है । वे० ऐसा क्यो मानते है ? वे कहते है—मरनेके बाद आत्मा असज्ञी, रुपवान ओर अराग रहता है—अरूपवान०, रूपवान और अरूपवान ० न रूपवान् और न अरूपवान०, सान्त०, अनन्त०, सान्त और अनन्त०, न सान्त और न अनन्त० ।
“भिक्षुओ । इन्ही आठ कारणोसे वे० ҅मरनेके बाद आत्मा असज्ञी रहता है҆, ऐसा मानते है । वे० सभी इन्ही आठ कारणोसे० इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही है ।
“भिक्षुओ । तथागत इन कारणोको जानते है ।
८—मरणान्तर न-होशवाला न-बेहोश आत्मा—(४३–५०) “भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणोसे ҅मरनेके बाद आत्मा नैवसज्ञी, नैवअसज्ञी रहता है҆, ऐसा मानते है । वे० ऐसा क्यो मानते है ?
“भिक्षुओ । मरनेके बाद आत्मा रुपवान्, अरोग और नैवसज्ञी नैवासज्ञी रहता है । वे ऐसा कहते है— अरुपवान् ०।
“भिक्षुओ । इन्ही आठ कारणोसे वे० ҅मरने के बाद आत्मा नैवसज्ञी नैवअसज्ञी रहता है҆, ऐसा मानते है। वे० सभी इन्ही आठ कारणोसे०, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही है ।
“भिक्षुओ । तथागत इन कारणोको जानते है० ।
९—आत्माका उच्छेद—(५१-५७) “भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण सात कारणोसे ҅सत्व (=आत्मा) का उच्छेद, विनाश और लोप हो जाता है҆ ऐसा मानते है । वे० ऐसा क्यो मानते है? भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानते है—यथार्थमे यह आत्मा रुपी=चार महाभूतोसे बना है, और माता पिताके सयोगसे उत्पन्न होता है, इसलिए शरीरके नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाता है । क्योकि यह आत्मा बिल्कुल समुच्छिन्न हो जाता है, इसलिए वे सत्व (=जीव) का उच्छेद, विनाश और लोप बताते है ।
“(जब) उन्हे दूसरे कहते—जिसके विषयमे तुम कहते हो, वह आत्मा है, (उसके विषयमे) मै ऐसा नही कहता हूँ कि नही है, किन्तु यह आत्मा इस तरहसे बिल्कुल उच्छिन्न नही हो जाता । दूसरा आत्मा है, जो दिव्य, रुपी, का मावचर लोकमे रहनेवाला (जहाँ आत्मा सुखोपभोग करता है), और भोजन खाकर रहनेवाला है । उसको तुम न तो जानते हो और न देखते हो । उसको मै जानता और देखता हुँ । वह सत् आत्मा शरीरके नष्ट होनेपर उच्छिन्न और विनष्ट हो जाता है, मरनेके बाद नही रहता । इस तरह आत्मा समुच्छिन्न हो जाता है । इस तरह कितने सत्वोका वह उच्छेद, विनाश और लोप बताते है ।
“उनसे दूसरे कहते है—जिसके विषयमे तुम कहते हो, वह आत्मा है, (उसके विषयमे) ҅यह नही है҆, ऐसा मै नही कहता, किन्तु यह उस तरह बिल्कुल उच्छिन्न नही हो जाता । दूसरा आत्मा है, जो दिव्य, रूपी मनोमय, अग-प्रत्यगसे युक्त और अहीनेन्द्रिय है । उसे तुम नही जानते०, मै जानता० हूँ । वह सत् आत्मा शरीरके नष्ट होनेपर उच्छिन्न० हो जाता है० । ० आत्मा समुच्छिन्न हो जाता है । इसलिये वह कितने सत्वोका उच्छेद, विनाश और लोप बताते है ।
“उन्हे दूसरे कहते है—० वह आत्मा है०, किन्तु उस तरह० नही ०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरहसे रूप और सज्ञासे भिन्न, प्रतिहिसाकी सज्ञाओके अस्त हो जानेसे नानात्म (=नाना शरीरकी) सज्ञाओको मनमे न करनेसे अन्नत आकाशकी तरह अन्नत आकाश शरीरवाला है । उसे तुम नही जानते०, मै जानता० हूँ । वह आत्मा० उच्छिन्न हो जाता है, अत कितने इस प्रकार सत्वका उच्छेद० बताते है ।
“उनमे दूसरे कहते है—० । दूसरा आत्मा है, जो सभी तरहसे अनन्त आकाश-शरीरको अतिक्रमण (=लाँध) कर अनन्त विज्ञान-शरीरवाला है ।
“उन्हे दूसरे कहते है—०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरहसे विज्ञान-आयतनको अतिकमणकर कुछ नही ऐसा अकिचन (=शून्य) शरीरवाला रहता है ।०
“उन्हे दूसरे कहते है—०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरहसे आकिचन्य-आयतनको अतिक्रमण कर शान्त और प्रणीत नैवसज्ञा-न-असज्ञा है।०
“भिक्षुओ । वे श्रमण और ब्राह्मण इन्ही सात कारणोसे उच्छेदवादी हो, जो (वस्तु) अभी है, उसका उच्छेद, विनाश और लोप बताते है। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नही है।
“भिक्षुओ । तथागत उनको जानते है।०
१०—इसी जन्ममे निर्वाण—(५८–६२) “भिक्षुओ । कितने श्रमण और ब्राह्मण पाँच कारणोसे दृष्टधर्मनिर्वाणवादी (=इसी संसारमे देखते-देखते निर्वाण हो जाता है, ऐसा माननेवाले) है, जो ऐसा बतलाते है कि प्राणीका इसी संसारमे देखते-देखते निर्वाण हो जाता है। वे० ऐसा क्यो मानते हैॽ
“भिक्षुओ । कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मत माननेवाला होता है—चूँकि यह आत्मा पाँच काम-गुणो(=भोगो)मे लगकर सांसारिक भोग भोगता है, इसलिए यह इसी संसारमे आँखोके सामने ही निर्वाण पा लेता है। अत कितने ऐसा बतलाते है कि सत्व इसी संसारमे देखत-देखते निर्वाण पा लेता है।
“उनसे दूसरे कहते है— ० । यह आत्मा इस तरह देखते-देखते संसार हीमे निर्वाण नही प्राप्त कर लेता । सो कैसे ॽ सांसारिक काम-भोग अनित्य, दुख और चलायमान है। उनके परिवर्तन होते रहनेसे शोक, रोना पीटना, दुख=दौर्मनस्य और बडी परेशानी होती है।
“अत यह आत्मा कामोसे पृथक् रह, बुरी बातोके छोड, सवितर्क, सविचार विवेकज प्रीति-सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है। इसलिए यह आत्मा इसी संसारमे ऑखोके सामने ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है०।
“उनसे दूसरे कहते है—० । आत्मा इस प्रकार ० निर्वाण नही पाता। सो कैसे ॽ जो वितर्क और विचार करनेसे बडा स्थूल (=उदार) मालूल होता है, वह आत्मा वितर्क और विचारके शान्त हो जानेसे भीतरी प्रसन्नता (=आध्यात्म सम्प्रसाद), एकाग्रचित हो, वितर्क-विचार-रहित समाधिज प्रीति-सुखवाले दूसरे ध्यानको प्राप्त हो विहार करता है।
“इसनेसे यह आत्मा संसारहीमे ऑखोके सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है।०
“उनसे दूसरे कहते है—०। सो कैसेॽ जो प्रीति पा चित्तका आनन्दसे भर जाना है, उसीसे स्थूल प्रतीत होता हे। क्योकि यह आत्मा प्रीति और विरागसे उपेक्षायुक्त (=अनासक्त) होकर विहार करता है, तथा ज्ञानयुक्त पण्डितोसे वर्णित सभी सुखको शरीरसे अनुभव करता है, अत उपेक्षायुक्त स्मृतिमान् और सुखविहारी तीसरे ध्यानको प्राप्त करता है।
“इतनेसे ◦ निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
“उनसे दूसरे कहते है—०। जो वहाँ इतनेसे चित्तका सुखोपभोग स्थूल प्रतीत होता हे, यह आत्मा सुख और दुखके नष्ट होनेसे, सौमनस्य और दौर्मनस्य पहले ही अस्त होनेसे, न सुख न दुखवाले, उपेक्षा और स्मृतिसे परिशुद्ध चोथे ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है।०
“इतनेसे० निर्वाण”◦ ।
“भिक्षुओ । इन्ही पॉच कारणोसे वे◦ ‘इसी संसारमे ऑखोके सामने निर्वाण प्राप्त होता है,’ ऐसा मानते है। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नही है।
“भिक्षुओ । तथागत उन कारणोको जानते है ◦।
“भिक्षुओ । श्रमण और ब्राह्मण इन्ही ४४ कारणोसे अपरान्तकल्पिक मत माननेवाले और
अपरान्तके आधारपर अनेक व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नही है।
“भिक्षुओ । ये श्रमण और ब्राह्मण इन्ही ६२ कारणोसे पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक, पूर्वान्त और अपरान्त मत माननेवाले तथा पूर्वान्त और अपरान्तके आधारपर अनेक व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है। इनके अतिरिक्त और दूसरा कोई कारण नही है।
“तथागत उन सभी कारणोको जानते है, उन कारणोके प्रमाण और प्रकारको जानते है, और उससे अधिक भी जानते है, जानकर भी ‘मै जानता हूँ’, ऐसा अभिमान नही करते।
“वेदनाओकी निवृत्ति, उत्पत्ति (=समुदय), अन्त, आस्वाद, दोप और लिप्तताको ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते है। भिक्षुओ । ये धर्म गम्भीर, दुर्ज्ञेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, तर्कसे परे, निपुण और पण्डितोके समझनेके योग्य है, जिन्हे तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते है, जिसे तथागतके यथार्थ गुणको कहनेवाले कहते है।
“भिक्षुओ । जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणोसे नित्यतावादी है तथा आत्मा और लोकको नित्य कहते है, वह उन सांसारिक वेदनाओको भोगनेवाले तथा तृष्णासे चकित उन अज्ञ श्रमणो और ब्राह्मणोकी चचलता मात्र है।
“भिक्षुओ । जो◦ चार कारणोसे अशत नित्यतावादी ओर अशत अनित्यतावादी है, जो ◦ चार कारणोसे आत्मा और लोकको अन्तान्तिक (=सान्त भी और अनन्त भी) मानते है, जो चार कारणोसे प्रश्नोके पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नही कहते, जो अकारणवादी हो दो कारणोसे आत्मा और लोकको अकारण उत्पन्न मानते है, जो ◦ इन अट्ठारह कारणोसे ◦ पूर्वान्तरे आधारपर नाना प्रकारके व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है।
जो◦ सोलह कारणोसे मरनेके बाद आत्मा सज्ञावाला रहता है, ऐसा मानते, जो ◦ आठ कारणोसे ‘मरनेके बाद आत्मा सज्ञावाला नही रहता’, ऐसा मानते है, जो ◦ आठ कारणोसे◦ आत्मा न तो सज्ञावाला और न नही-सज्ञावाला रहता हे, ऐसा मानते है, जो सात कारणोसे उच्छेदवादी ◦ है, जो पॉच कारणोसे दृष्टधर्मनिर्वाणवादी ◦ है, जो◦ इन ४४ कारणोसे ◦ अपरान्तके आधारपर नाना प्रकारके व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है।
“जो◦ इन ६२ कारणोसे पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक ◦ पूर्वान्त और अपरान्तके आधार पर नाना प्रकारके व्यवहारके शब्दोका प्रयोग करते है, वह सभी उन सांसारिक वेदनाओको भोगनेवाले तथा तृष्णासे चकित उन अज्ञ श्रमणो और ब्राह्मणोकी चचलता मात्र है।
“भिक्षुओ जो श्रमण और ब्राह्मण ◦ चार कारणोसे आत्मा और लोकको नित्य मानते है वह स्पर्शके होनेसे ।◦ ।जो ◦ ६२ कारणोसे पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक◦ है, वह स्पर्शके ही होनेसे ।
“भिक्षुओ । जो श्रमण और ब्राह्मण ◦ चार कारणोसे आत्मा ओर लोकको नित्य मानते है, उन्हे स्पर्शके बिनाही वेदना होती है, ऐसी बात नही है◦। ।
“भिक्षुओ । जो श्रमण और ब्राह्मण ◦ चार कारणोसे पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक◦ है, वे सभी छै स्पर्शायतनो (=विषयो)से स्पर्श करके वेदनाको अनुभव करते है। उनकी वेदनाके कारण तृष्णा, तृष्णा ◦ से उपादान, उपादान ◦ से भव, भव ◦ से जन्म और जन्म ◦ से जरा, मरण, शोक, रोना-पीटना, दुख, दौर्मनस्य और परेशानी होती है। भिक्षुओ जब भिक्षु छै स्पर्शायतनोके समुदय, अस्त होने, आस्वाद, दोष और विरागको यथार्थत जान लेता है, तब वह इनसे ऊपरकी बातोको भी जान लेता है।
“भिक्षुओ । ◦वे सभी इन्ही ६२ कारणोके जालमे फँसकर वही बधे रहते है। भिक्षुओ । जैसे
काई दक्ष मल्लाह, या मल्लाहका लळका छोटे-छोटे छेदवाले जालसे सारे जलाशयको हीडे, उसके मनमे ऐसा हो—इस जलाशयमे जो अच्छी-अच्छी मछलियॉ है, सभी जालमे फँसकर बझ गई है, उसी तरहसे०।
“भिक्षुओ । भव-तृष्णा (=जन्मके लोभ) के उच्छिन्न हो जानेपर भी तथागतका शरीर रहता है । जब तक उनका शरीर रहता है, तभी तक उन्हे मनुष्य और देवता देख सकते है । शरीर-पात हो जाने के बाद उनके जीवन-प्रवाहके निरुद्ध हो जानेसे उन्हे देव और मनुष्य नही देख सकते । भिक्षुओ । जैसे किसी आमके गुच्छेकी ढेपके टूट जानेपर उस ढेपसे लगे सभी आम नीचे आ गिरते है, उसी तरह भव-तृष्णाके छिन्न हो जानेपर तथागतका शरीर होता है ।०”
भगवानके इतना कहनेपर आयुष्मान आनन्दने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । आश्चर्य है, अद्भुत है। भन्ते । आपके इस उपदेशका नाम क्या हो ।”
“आनन्द । तो तुम इस धर्म–उपदेशको ҅अर्थजाल’ भी कह सकते हो, धर्मजाल भी०, ब्रह्मजाल भी०, दृष्टिजाल भी०, तथा अलौकिक सग्रामविजय भी कह सकते हो ।”
भगवानने यह कहा । उन भिक्षुओने भी अनुकूल मनसे भगवानके कथनका अभिनन्दन किया । भगवानके इस प्रकार विस्तारपूर्वक कहनेपर दस हजार ब्रह्माड कॉप उठे ।