दीध-निकाय

10. सुभ-सुत्त (१।१०)

धर्म के तीन स्कंध—(१) शील-स्कंध । (२) समाधि-स्कंध । (३) प्रज्ञा-स्कंध ।

ऐसा मैने सुना—एक समय आयुष्मान् आनन्द भगवानके परिनिर्वाणके कुछ ही दिन बाद श्रावस्तीमे अनाथ-पिण्डिकके आराम जेतवनमे विहार करते थे, ।

उस समय किसी कामसे तोदेय्य पुत्त शुभनामक माणवक भी श्रावस्तीहीमे वास करता था । तब तोदेय्यपुत्त शुभ माणवकने किसी दूसरे माणवकसे कहा—“हे माणवक, सुनो । जहाँ आयुष्मान् आन्नद है वहॉ जाओ, जाकर आयुष्मान् आनन्दको मेरी ओरसे कुशल समाचार पूछो—‘तोदेय्यपुत्त शुभ माणवक आप आनन्दका कुशल समाचार पूछता है’ । और ऐसा कहो, आप कृपाकर तोदेय्यपुत्त शुभ माणवकके घरपर चले ।”

“बहुत अच्छा” कहकर वह माणवक ० शुभ माणवकके कहे हुयेको स्वीकारकर जहॉ आयुष्मान् आनन्द थे वहॉ गया । जाकर आयुष्मान् आनन्दसे स्वागतके शब्द कहे । स्वागतके शब्द कहकर वह एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे हुये उस माणवकने आयुष्मान् आनन्दसे यह कहा—“शुभ माणवक आप आनन्दका कुशल समाचार पूछता है, और ऐसा कहता है,—‘आप कृपाकर वहॉ चले, जहॉ ० शुभ माणवकका घर है ।”

उसके ऐसा कहनेपर आयुष्मान् आन्नदने उस माणवकसे कहा,—“माणवक । यह समय नही है, आज मैने जुलाब लिया है, कल उचित समय देखकर आऊँगा ।”

“वह माणवक आयुष्मान् आनन्दके कहे हुयेको मान “बहुत अच्छा” कह आसनसे उठकर वहॉ गया जहाँ ० शुभ माणवक था । जाकर ० शुभसे यह कहा—“श्रमण आनन्दको मैंने आपकी ओर से कहा—शुभ ० आप आनन्द ० । और ऐसा कहा—आप कृपाकर ० । ऐसा कहनेपर श्रमण आनन्दने मुझे यह कहा—‘माणवक । यह समय ०।’ इतना पर्याय्त है (क्योकि इतनेसे) आप आनन्दने कल आनेको स्वीकारकर लिया ।”

तब आयुष्मान् आनन्द उस रातके बीत जानेपर सुबह ही तैयार हो, पात्र और चीवर ले चेतक भिक्षुको साथ ले जहॉ ० शुभ माणवकका घर था, वहॉ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठ गये ।

तब ० शुभ माणवक जहॉ आयुष्मान् आनन्द थे वहॉ गया । जाकर आयुष्मान् आन्नदसे स्वागतके वचन कहे । स्वागतके वचन कहनेके बाद एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे ० शुभ माणवकने आयुष्मान् आनन्दसे यह कहॉ—‘आप (आन्नद) भगवान् गौतमके बहुत दिनो तक सेवक और पासमे रहनेवाले रह चुके है । आप आनन्द जानते है जिन धर्मोकी प्रशंसा भगवान् गौतम किया करते थे, जिन (धर्मो) को वे जनताको सिखाते पढाते और (जिनमे) प्रतिष्ठित करते थे । हे आनन्द । भगवान् गौतम किन धर्मोकी प्रशंसा किया करते थे, किन (धर्मो) को वे जनताको सिखाते पढाते और (उनमे) प्रतिष्ठित करते थे ?”

धर्मके तीन स्कन्ध

“वे भगवान् तीन स्कन्धो१ (=समूहो) की प्रशंसा करते थे । जिससे वे जनता ० । किन तीनो की ॽ आर्य़ शीलस्कन्ध (=उत्तम सदाचार-समूह)की, आर्य़ समाधिस्कन्धकी, (और) आर्य़ प्रज्ञास्कन्धकी । हे माणवक । भगवान् इन्ही तीन स्कन्धोकी प्रशंसा किया करते थे, जिससे वे जनता ०।”

१—शील-स्कन्ध

“हे आनन्द । वह आर्य़ शील-स्कन्ध कौन-सा है जिसकी भगवान् प्रशंसा करते थे, और जिसको वे जनता ० ॽ”

“हे माणवक । जब संसारमे तथागत अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध ० २ उत्पन्न होते है । ० शीलसम्पन्न, ० । इन्द्रियोको वशमे रखनेवाला, भोजनकी मात्रा जाननेवाला, स्मृतिमान्, सावधान ओर संतुष्ट रहता है ।

“माणवक । भिक्षु कैसे शीलसम्पन्न, (=सदाचारयुक्त) होता है ॽ

“माणवक । भिक्षु हिंसाको छोळ ०३ — वह इस उत्तम सदाचार-समूह (=आर्य शील-स्कन्ध) से युक्त हो अपने भीतर निर्दोष सुखको अनुभव करता है । माणवक । इस तरह भिक्षु शील-सम्पन्न होता है । माणवक । यही शील-स्कन्ध है जिसकी प्रशंसा भगवान् करते थे और जिससे जनता ० । (किन्तु) इससे और ऊपर भी करना हे ।”

“हे आनन्द । आश्चर्य है, हे आनन्द अद्भुत है । हे आनन्द । वह आर्य शील-स्कन्ध पूर्ण है अपूर्ण नही है । हे आनन्द । इस प्रकारका परिपूर्ण आर्य-शील-स्कन्ध मै तो इस (धर्म) के बाहर और किसी दूसरे श्रमण या ब्राह्मणमे नही देखता । हे आनन्द । इस प्रकारके परिपूर्ण आर्य-शील-स्कन्ध इसके बाहर दूसरे श्रमण और ब्राह्मण यदि अपनेमे देखे तो वे इतनेसे संतुष्ट हो जावे—‘बस, इतना काफी है, श्रमण-भावके लिये इतना पर्य़ाप्त है, अब और कुछ करना बाकी नही है’ । किन्तु आप आनन्दने तो कहा है—‘इसके ऊपर और करना है’ ।

२—समाधि-स्कन्ध

“हे आनन्द । वह श्रेष्ठ समाधि-समूह (=आर्य समाधि-स्कन्ध) कोन-सा है, जिसकी प्रशंसा भगवान् किया करते थे, जिसको वे जनता ० ॽ”

३—प्रज्ञा-स्कन्ध

“हे माणवक । भिक्षु कैसे इन्द्रियोको वशमे रखनेवाला होता है ॽ माणवक । भिक्षु ऑखसे रूपको देखकर ० ० ४ —अब यहॉ करनेके लिये नही रहा ।”

“आनन्द । आश्चर्य है, आनन्द । अद्भुत है । यह आर्य-प्रज्ञा-स्कन्ध परिपूर्ण ० ।

“आश्चर्य है हे आनन्द । अद्भुत है हे आनन्द । जैसे उलटको सीधा करदे ५ ० । इसी तरहसे आप आनन्दने अनेक प्रकारसे धर्म प्रकाशित किया । हे आनन्द । यह मै भगवान् गौतमकी शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघकी भी । हे आनन्द । आनन्द । आजसे आप मुझे जन्म भरकेलिये अजलिवद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करे ।”