दीध-निकाय

11. केवट-सुत्त (१।११)

१—ऋद्धियो का दिखाना निषिद्ध । २—तीन ऋद्धि भी अन-प्राति हार्य । ३—चारो भूतोका निरोध कहॉ पर ?—(१) सारे देवता अनभिज्ञ; (२) अनभिज्ञ ब्रह्माकी आत्म-वचना; (३) बुद्धही जानकार

ऐसा मैने सुँना—एक समय भगवान् नालन्दाके पास पावारिक आम्रवनसे विहार करते थे ।

तब केवट्ट गृहपतिपुत्र जहाँ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठ केवट्ट गृहपति-पुत्रने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । यह नालन्दा समृद्ध, धनधान्यपूर्ण, और बहुत धनी बस्तीवाली है । यहाँके मनुष्य आपके प्रति बहुत श्रद्धलु है । भगवान् कृपया एक भिक्षुको कहे कि अलौकिक ऋद्धियोको दिखावे । इससे नालन्दाके लोग आप भगवानके प्रति और भी अधिक श्रद्धालु हो जायेगे ।”

१—ऋद्धियोंका दिखाना निषिद्ध

ऐसा कहनेपर भगवानने केवट्ट ० से यह कहा—“केवट्ट । मैं भिक्षुओको इस प्रकारका उपदेश नही देता हूँ कि—भिक्षुओ । आओ, तुम लोग उजले कपळे पहननेवाले गृहस्थोको अपनी ऋद्धि दिखलाओ ।”

दूसरी बार भी केवट्ट ० ने भगवानसे यह कहा—“मै भगवानको छोटा दिखाना नही चाहता हूँ किन्तु ऐसा कहता हूँ—‘भन्ते । यह नालन्दा समृद्ध ० इससे नालन्दाके लोग आप भगवानके प्रति और भी अधिक श्रद्धालु हो जायेंगे ।”

दूसरी बार भी भगवानने केवट्ट ० से यह कहा—“केवट्ट । मैं भिक्षुओको ० ।

तीसरी बार भी केवट्ट ० ने भगवानसे यह कहा—“मै भगवानको ० । किंतु ऐसा कहता हूँ—भन्ते । यह नालन्दा समृद्ध ० इससे नालन्दाके लोग ० ।”

२—तीन ऋद्धि प्रातिहार्य

“केवट्ट । तीन प्रकारके ऋद्धि-बल (ऋद्धियाँ=दिव्यशक्तियाँ) है, जिन्हे मैने जानकर और साक्षात्कर बतलाया है । वे कौन से तीन ? ऋद्धिप्रातिहार्य (=ऋद्धियोका प्रदर्शन), आदेशना-प्राति-हार्य, अनुशासनी-प्रातिहार्य ।

“(१) केवट्ट । ऋद्धि-प्रातिहार्य कौन सा है ? केवट्ट । भिक्षु अपने ऋद्धिबलसे अनेक प्रकारके रुप धारण करता है—एक होकर बहुत हो जाता है, बहुत होकर एक हो जाता है ०।१

उसे देखकर वह श्रद्धालु=प्रसन्न हो, दूसरे श्रद्धारहित=अप्रसन्न पुरूषको कहता है—‘अरे । आश्यर्य, है, अद्भुत है, श्रमणका ऋद्धिबल और उसकी महानुभावता । मैने भिक्षुको अनेक प्रकारसे अपने ऋद्धिबल दिखाते हुये देखा—एक होकर अनेक ० । श्रद्धारहित=अप्रसन्न मनुष्य उस श्रद्धालु=प्रसन्न मनुष्यको ऐसा कह सक्ता हे—‘हॉ । गान्धारी नामक एक विद्या है, उसीसे भिक्षु अनेक तरहके ऋद्धिबल दिखाता है—एक होकर ० । तब केवट्ट । क्या समझते हो, वह श्रद्धारहित=अप्रसन्न मनुष्य उस श्रद्धालु=प्रसन्न मनुष्यको ऐसा कहेगा या नही ?”

“भन्ते । वह ऐसा कहेगा ।” “अत केवट्ट । ऋद्धिबलके दिखानामे मै इसी दोषको देखकर ऋद्धिबलके दिखानेसे हिचकता हूँ, संकोच करता हूँ, ओर घृणा करता हूँ ।

(२) “केवट्ट । आदेशना-प्रतिहार्य कौन सा है ? केवट्ट । भिक्षु दूसरे जीवो और मनुष्योके चित्तको बतला देता है ० १ ‘तुम्हारा मन ऐसा है, तुम्हारा चित्त ऐसा है’ । कोई श्रद्धालु और प्रसन्न मनुष्य उस भिक्षुको दूसरे जीवो और मनुष्योके चित्त० को बतलाते देखता है । वह श्रद्धालु ० दूसरे श्रद्धारहित० से कहता है—‘अहो आश्चर्य है । अहो अद्भुत है, श्रमणके इस बळे ऋद्धिबल और उसकी महानुभावताको । मैने भिक्षुको दूसरेके० चित्त० को बतलाते देखा है । वह श्रद्धा-रहित० उस श्रद्धालु० को ऐसा कहे—‘हॉ चिन्तामणि नामकी एक विद्या है, उसीसे भिक्षु दूसरे जीवो और मनुष्योके चित्त को बतला देता है’ । केवट्ट । तब तुम क्या समझते हो—वह श्रद्धारहित० श्रद्धालु० को ऐसा क्या नही कहेगा ?” “भन्ते । कहेगा ।”

“केवट्ट । आदेशना-प्रातिहार्यके इसी दोषको देखकर मै आदेशना-प्रातिहार्यसे हिचकता० ।

(३) “केवट्ट । कौनसा अनुशासनी-प्रातिहार्य है ? भिक्षु ऐसा अनुशासन करता है—‘ऐसा विचारो, ऐसा मत विचारो, ऐसा मनमे मत करो, इसे छोळ दो, इसे स्वीकार कर लो । केवट्ट । यही अनुशासनी-प्रातिहार्य कहलाता है । जब संसारमे तथागत अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध०१ , उत्पन्न होते है, ० केवट्ट । इस तरहसे भिक्षु शीलसम्पन्न होता है । ०१ प्रथम ध्यानको प्राप्त कर विहार करता है । केवट्ट । यह भी अनुशासनी प्रातिहार्य कहलाता है । ० द्वितीय ध्यान ० । ० तृतीय ध्यान ० । ० चतृर्थ ध्यानको प्राप्त होकर विहार करता है । केवट्ट । यह भी अनुशासनी-प्रातिहार्य कहलाता है । ० ज्ञानदर्शनके लिये अपने चित्तको नवाता है०१ केवट्ट । यह भी ० । आवागमनके और किसी कारणको नही देखता है ० केवट्ट । यह भी ० ।—केवट्ट । इन तीन ऋद्धिबलोको मैने जानकर और साक्षात् कर बतलाया है ।

३—चारों भूतोंका निरोध कहॉ पर ?

(१) सारे देवता अनभिज्ञ

“केवट्ट । बहुत पहले इसी भिक्षु-संघमे एक भिक्षुके मनमे यह प्रश्न उत्पन्न हुआ—‘ये चार महाभूत—पृथ्वी-धातु, जल-धातु, तेजो-धातु वायुधातु—कहॉ जाकर बिल्कुल निरूद्ध हो जाते है ?’ तब केवट्ट । उस भिक्षुने उस प्रकारकी समाधिको प्राप्त किया जिससे कि समाहित चित्त होनेपर उसके सामने देवलोक जानेवाले मार्ग प्रकट हुये । केवट्ट । तब वह भिक्षु जहाँ चातुर्महागजिक देवता रहते है, वहॉ गया; जाकर चातुर्महाराजिक देवताओसे यह बोला—‘आवुसो । ये चार महाभूत—० कहाँ जाकर बिल्कुल निरूद्ध हो जाते है ?’ केवट्ट। (उस भिक्षुके) ऐसा कहनेपर चातुर्महाराजिक देवताओ

ने उस भिक्षुसे यह कहा—‘हे भिक्षु । हम लोग भी नही जानते है कि कहाँ जाकर चार महाभूत—० बिल्कुल निरूद्ध हो जाते है । हे भिक्षु । हमसे भी बढ चढकर चार महाराजा है । वे शायद इसे जानते हो, कि कहाँ जाकर कि ये चार महाभुत—०।’ ।

“केवट्ट । तब वह भिक्षु जहाँ चार महाराज थे, वहाँ गया, जाकर चारो महाराजासे यह पूछा,—‘ये चार महाभूत—० कहाँ जाकर ०ॽ केवट्ट । (उसके) ऐसा पूछनेपर चार महाराजोने उस भिक्षुसे यह कहा—‘हे भिक्षु । हम लोग भी नही जानते । हे भिक्षु । हम लोगोसे भी बढ-चढकर त्रायस्त्रिश नामक देवता है । वे शायद ०।’ —

“केवट्ट । तब वह भिक्षु जहाँ त्रायस्त्रिश देवता थे, वहाँ गया । जाकर त्रायस्त्रिश देवताओसे यह पूछा—‘ये चार महाभुत— ०कहॉ जाकर ० ॽ’ केवट्ट । ऐसा पूछनेपर उन त्रायस्त्रिश देवताओने उस भिक्षुसे यह कहा—‘हे भिक्षु । हम लोग भी वही जानते । ० हम लोगोसे बढ०देवताओका अधिपति शक्र है । वह शायद जान सके ०।’

“केवट्ट । तब वह भिक्षु जहाँ देवताओका अधिपति शक था वहाँ गया । जाकर शक ० से यह पूछा—‘ये चार महाभूत—० कहाँ जाकर ०ॽ’ उसके ऐसा पूछनेपर शकने उस भिक्षुसे यह कहा—‘हे भिक्षु । मैं भी नही जानता ० । हे भिक्षु । हमसे भी वट० याम नामक देवता है । वे शायद ०।”

“केवट्ट । तब वह भिक्षु जहाँ याम देवता थे ० ।—० जहाँ सुयाम नाम देवपुत्र था ० ।—० जहाँ तुषित नामक देवता थे ० ।—० जहाँ संतुषित नामक देवपुत्र था ० । ।— ० जहाँ निम्मॉण-रति नामक देवता थे ० ।— ० जहाँ सुनिम्मित नामक देवपुत्र था । ० — ० जहाँ परनिम्मितवशवर्ती नामक देवता थे ० । — ० जहाँ वशवर्ती नामक देवपुत्र था । ०— ० जहॉ ब्रह्मकायिक नामक देवता थे ०— “ ० हे भिक्षु । हमसे बहुत बढ चढकर ब्रह्मा है, (वे) महाब्रह्मा, विजयी (=अभिभू), अपराजित (=अनभिभूत), परार्थ- द्रष्टा, वशी, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, और सभी हुए और होनेवाले (पदार्थो)के पिता (है) । शायद वे जान सके, कि ये चार महाभूत — ० कहाँ जाकर बिल्कुल निरूद्ध हो जाते है ॽ (भिक्षुने कहा—) ‘तो आवुसो । वे ब्रह्मा अभी कहॉ हे ॽ’—‘ हे भिक्षु । हम नही जानते हे कि वह ब्रह्मा कहाँ रहते है । किन्तु लोग ऐसा कहते है कि वहुत आलोक और प्रभाके प्रक़ट होनेके बाद ब्रह्मा प्रक़ट होते है । ब्रह्माके प्रक़ट होनेके ये पूर्व-लक्षण है, कि (उस समय) बहुत प्रकाश होता है और वळी भारी प्रभा उत्पन्न होती है’ ।

२ —अनभिज्ञ ब्रह्माकी आत्मवंचना

“केवटट । इसके बाद शीघ्र ही महाब्रह्मा भी प्रकट हुआ । केवटट । तब वह भिक्षु जहाँ महाब्रह्मा था वहॉ गया । जाकर (उसने) महाब्रह्मासे यह कहा—‘आवुसो । ये चार महाभूत ०ॽ ’ केवटट । ऐसा कहने पर महाब्रह्माने उस भिक्षुसे यह कहा—‘हे भिक्षु । मै ब्रह्मा, महाब्रह्मा ० ईश्वर०पिता हूँ । केवटट । दूसरी बार भी उस भिक्षुने उस महाब्रह्मासे यह कहा—‘आवुसो’ मैं तुमसे यह नही पूछता हूँ कि तुम ब्रह्मा, महाब्रह्मा ० ईश्वर ० हो । आवुसो । मैं तुमसे यह पूछता हूँ—ये चार महाभूत—० कहॉ ० ॽ’ केवटट । दूसरी बार भी उस भिक्षुने उस महाब्रह्माने उस भिक्षुसे कह—‘भिक्षु । मै ब्रह्मा, महाब्रह्मा ० ईश्वर हूँ ।’ केवटट । तीसरी बार भी ० ।

“केवटट । तब उस महाब्रह्माने उस भिक्षुकी बॉह पकळ, एक और ले जाकर उस भिक्षु से कहा— ‘हे भिक्षु । ये ब्रह्मलोकके देवता मुझे ऐसा समझते है—ब्रह्मासे कुछ अज्ञात नही है, ब्रह्मासे कुछ अदृष्ट नही है, ब्रह्मासे कुछ अविदित नही है, ब्रह्मासे कुछ असाक्षात्कृत नही है, इसी लिये मैने उन लोगोके सामने नही कहा । भिक्षु । मै भी नही जानता हूँ, जहॉ कि ये चार महाभूत ०। अत हे भिक्षु । यह

तुम्हारा ही दोष है, यह तुम्हारा ही अपराध है कि तुम भगवान् को छोडकर बाहरमे हस बातकी खोज करते हो । हे भिक्षु उन्ही भगवान् के पास जाओ, जाकर यह प्रश्न पूछो। जेसा भगवान् कहे वैसा ही समजो’।

३-बुद्धही जानकर

“केवट्ट । तब वह भिक्षु जैसे कोइ बलवान् पुरुष (अप्रयास) मोळी बॉहको पसारे और पसारी वाँहको मोळे, वैसे ही ब्रह्मलोकमे अन्तर्धान होकर मेरे सामने प्रकट हुआ । केवट्ट । तब वह भिक्षु मुझे प्रणामकर एक ओर बैठ गया । केवट्ट । एक ओर बैठकर उस भिक्षुने मुझसे यह कहा—‘भन्ते । ये चार महाभूत—०कहॉ जाकर ० ॽ’ केवट्ट । (उस भिक्षुके) एसा पूछने पर मैने उस भिक्षुसे कहा—‘भिक्षु। पूर्व समयमे कुछ सामुद्रिक व्यापारी किनारा देखनेवाले पक्षीको साथ ले, नावपर चढ समुद्रके बीच गये । नावसे तट नही दिखाई देनेके कारण उन्होने तट देखनेवाले पक्षीको छोळा । (वह पक्षी) पूर्व-दिशाकी ओर गया, दक्षिण ०, पश्चिम ०, उत्तर ०, ऊपर ०, अनुदिशाओमे ० । यदि वह कही तट देखता तो वही चला जाता । चूँकि किसी ओर उसने तट नही देखा, इस लिये फिर उसी नाव पर चला आया । भिक्षु । तुम भी इसी तरह इस प्रश्नको सुलझानेके लिये ब्रह्मलोक तक खोजते हुये गये, फिर मेरे ही पास चले आये ।

“भिक्षु । यह प्रश्न ऐसे नही पूछना चाहिये— ० भन्ते । ये चार महाभूत—० कहॉ जाकर बिल्कुल निरुद्ध हो जाते है । भिक्षु । यह प्रश्न इस प्रकार पूछना चाहिये—

कहॉ जल, पृथ्वी, तेज और वायु नही स्थित रहते हैॽ

कहाँ दीर्घ, हरस्व, अणु, स्थूल, (और) शुभ, अशुभ, नाम और रुप विल्कुल खतम हो जाते है ॽ ॥१॥

“इसका उत्तर यह है —

“अनिदर्शन (उत्पत्ति, स्थिति और नाशकी जहॉ बात नही है), अनन्त, और अत्यन्त प्रभायुक्त निर्वाण जहॉ है, वहाँ जल, पृथ्वी, तेज और वायु स्थित नही रहते ॥२॥

वहॉ दीर्घ-ह्रस्व, अणु-स्थूल, शुभ-अशुभ, नाम और रुप बिल्कुल खतम हो जाते है ।

विज्ञान के निरोधसे सभी वहॉ खत्म हो जाते है ॥३॥

भगवान् ने यह कहा । केवट्ट गृहपतिपुत्रने प्रसन्नचित्त हो भगवान् के भाषणका अभिनन्दन किया।