दीध-निकाय

12. लोहिच्च-सुत्त (१।१२)

१—धर्मोपर आक्षेप । २—सभीपर आक्षेप ठीक नही । ३—झूठे गुरु । ४—सच्चे गुरु— (१) शील; (२) समाधि; (३) प्रज्ञा ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओके बळे भिक्षुसंघके साथ कोसल (देश) मे चारिका करते हुए जहाँ सालवतिकाथी वहाँ पहुँचे । उस समय लोहिच्च (लोहित्य) ब्राह्मण राजा प्रसेनजित् कोसल द्वारा प्रदत्त, राजदाय, ब्रह्मदेय, जनाकीर्ण, तृण-काष्ठ-उदक-धान्य-सम्पन्न राज्य-भोग्य सालवतिकाका स्वामी होकर रहता था ।

१—धर्मोंपर आक्षेप

उस समय लोहिच्च ब्राह्मणको यह बुरी घारणा उत्पन्न हुई थी । ‘संसारमे (ऐसा कोई) श्रमण या ब्राह्मण नही, जो अच्छे धर्मोको जाने, (और) जानकर अच्छे धर्मको दूसरेको समझावे । (भला) दूसरा दूसरेके लिए क्या करेगा ? जैसे एक पुराने बन्धनको काटकर दूसरा एक नया बन्धन डाल दे, इसी प्रकार मैं इस (श्रमणो या ब्राह्मणोके समझाने) को पाप(=बुरा) और लोभकी बात समझता हूँ । (भला) दूसरा दूसरेके लिए क्या करेगा ?”

लोहिच्च ब्राह्मणने सुना—‘श्रमण गौतम, शाक्यपुत्र, शाक्यकुलसे प्रव्रजित हो पाँच सौ भिक्षुओके बळे भिक्षुसंघके साथ ० सालवतिकामे आये हुए है । उन गौतमकी ऐसी कल्याणकारी कीर्ति फेली हुई है—‘वे भगवान्, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध ०१ । इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है ।’

तब लोहिच्च ब्राह्मणने रोसिक नामक नाईको बुलाकर कहा—“सुनो भद्र रोसिक । जहाँ श्रमण गौतम है वहॉ जाओ । जाकर मेरी ओरसे श्रमण गौतमका कुशल क्षेम पूछो—‘हे गौतम । लोहिच्च ब्राह्मण भगवान् गौतमका कुशल मंगल पूछता है’, और ऐसा कहो—‘भगवान् अपने भिक्षुसंघके साथ कल लोहिच्च ब्राह्मणके घरपर भोजन करना स्वीकार करे ।’”

रोसिक नाई लोहिच्च ब्राह्मणकी बात मान—‘बहुत अच्छा’ कह जहाँ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर भगवान् को अभिवादन करके एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे हुये रासिक नाईने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । लोहिच्च ब्राह्मण भगवानका कुशल मंगल पूछता है, और यह कहता है—‘भगवान् अपने भिक्षु-संघके साथ ० स्वीकार करे ।’

भगवानने मौन रह स्वीकार कर लिया । तब रोसिक नाई भगवानकी स्वीकृतिको जान, आसनसे उठ, भगवानको अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर जहाँ लोहिच्च ब्राह्मण था वहॉ गया । जाकर

लोहिच्च ब्राह्मणसे बोला — ‘मैने आपकी ओरसे भगवान् से कहा—‘भन्ते । लोहिच्च ब्राह्मण भगवान् का ० । भगवान् अपने भिक्षु-संघके साथ ० ।’ और भगवान् ने स्वीकार कर लिया ।”

तब लोहिच्च ब्राह्मणने उस रातके बीतनेपर अपने घरमे अच्छी अच्छी खाने पीनेकी चीजे तैयार कराके रोसिक नाईको बुलाकर कहा—‘सुनो भद्र रोसिक । जहाँ श्रमण गौतम है वहॉ जाओ, जाकर श्रमण गौतमको समयकी सूचना दो—‘हे गौतम । (भोजनका) समय हो गया । भोजन तैयार है ।”

रोसिक नाई लोहिच्च ब्राह्मणकी बात मान ‘बहुत अच्छा’ कहकर जहॉ भगवान् थे वहॉ गया ।

जाकर भगवान् को अभिवादनकर एक ओर खळा हो गया । एक ओर खळा हो रोसिक नाईने भगवान् से

कहा—‘भन्ते । समय हो गया, भोजन तैयार है । तब भगवान् पूर्वाह्ण समय तैयार हो, पात्र और चीवर ले भिक्षु-संघके साथ जहॉ सालवतिका थी, वहॉ गये । उस समय रोसिक नाई भगवान् के पीछे पीछे आ रहा था ।

तब रोसिक नाईने भगवान् से कहा,—“भन्ते । लोहिच्च ब्राह्मणको इस प्रकारकी बुरी धारणा (=पापदृष्टि) उत्पन्न हुई है—यहॉ (कोई ऐसा) श्रमण या ब्राह्मण नही, जो अच्छे धर्मको जाने ०। भन्ते । भगवान् लोहिच्च ब्राह्मणको इस पापदृष्टिसे अलग करा दे ।”

“एसा ही हो रोसिक । ऐसा ही हो रोसिक ।”

तब भगवान् जहॉ लोहिच्च ब्राह्मणका घर था वहाँ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठ गये । तब लोहिच्च ब्राह्मणने बुद्धसहित भिक्षुसंघको अपने हाथसे अच्छी अच्छी खाने और पीनेकी चीजे परोस परोसकर खिलाई । तब लोहिच्च ब्राह्मण भगवान् के भोजन समाप्तकर पात्रसे हाथ हटा लेनेके बाद स्वयं एक दूसरा नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे लोहिच्च ब्राह्मणसे भगवान् ने यह कहा—

२—सभीपर आक्षेप ठीक नहीं

“लोहिच्च । क्या यह सच्ची बात है कि तुम्हे इस प्रकार की बुरी धारणा उत्पन्न हुइॅ है—‘यहॉ (कोई ऐसा) श्रमण या ब्राह्मण नही, जो अच्छे धर्मको जाने ० दूसरा दूसरेके लिये क्या करेगा ॽ”

“हे गौतम । हॉ ऐसीही बात है ।”

“लोहिच्च । तब क्या समझते हो तुम सालवतिकाके स्वामी हो न ॽ” “हॉ, हे गौतम ।”

“लोहिच्च । जो कोई ऐसा कहे—‘लोहिच्च ब्राह्मण सालवत्तिकाका स्वामी है । जो सालवत्तिकाकी आय है उसे लोहिच्च ब्राह्मण अकेला ही उपभोग करे, दुसरोको (कुछ) नही देवे ।’ तो ऐसा कहनेवाला मनुष्य, जो लोग तुमपर आश्रित होकर जीते है, उनका हानिकारक है या नही ॽ”

“हॉ, वह हानिकारक है, हे गौतम ।”

“हानिकारक होनेसे वह उनका हित चाहनेवाला होता है या अहित चाहनेवाला ॽ”

“अहित चाहनेवाला, हे गौतम ।”

“अहित चाहनेवालेके मनमे उनके प्रति मित्रताका भाव रहता है या शत्रुताका ॽ”

“शत्रुताका, हे गौतम ।”

“शत्रुताका भाव रहनेमे बुरी धारणा (=मिथ्या-दृष्टि) रहती है या अच्छी धारणा (=सम्यग्-दृष्टि) ॽ” “मिथ्या दृष्टि, हे गौतम ।”

“हे लोहिच्च । मिथ्या-दृष्टि रखनेवालेकी दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नही — नरक या नीच योनिमे जन्म ।”

“लोहिच्च । तब क्या समझते हो, राजा प्रसेनजित् कोसल और काशी कोसल (देशो) का स्वामी है कि नही ॽ”

“हॉ, हे गौतम ।”

“लोहिच्च । जो ऐसा कहे—‘राजा प्रसेनजित् काशी और कोसलका स्वामी है । काशी और कोसलकी जो आय है ० ।

“अत लोहिच्च । जो ऐसा कहे—‘लोहिच्च ब्राह्मण सालवतिकाका स्वामी है । जो सालवतिकाका आय है उसे लोहिच्च अकेला ही उपभोग करे, किसी दूसरेको नही देवे । ऐसा कहनेवाला वह जो उसके आश्रित होकर जीते है उनका हानिकारक होता है । हानिकारक होनेसे अहित चाहनेवाला होता है, अहित शत्रुताके भाव उत्पन्न होते है, (और) शत्रुताके भाव उत्पन्न होनेसे वह मिथ्यादृष्टि होती है ।

“इसी तरहसे लोहिच्च । जो ऐसा कहे—‘ यहॉ श्रमण और ब्राह्मण नही, जो कुशल धर्म जाने, और कुशल धर्म जानकर दूसरेको कहे । भला । दूसरा दूसरेके लिये करेगा ॽ जैसे पुराने बन्धनको काटकर नया बन्धन दे दे । मै इसको उनका पाप और लोभधर्म समझता हूँ। (भला ।) दूसरा दूसरेके लिये क्या करेगा ॽ’ ऐसा कहनेवाला उन कुलपुत्रोका हानिकारक होता है, जो (कुलपुत्र कि) संसार (=भव)से निवृत होनेके लिये तथागतके बताये गये धर्ममे आकर इस प्रकारकी विशारदताको पाते है—स्त्रोतआपत्तिफलका साक्षात्कार करते है, सकृदागामीफलका साक्षात्कार करते है, अनागामीफलका साक्षात्कार करते है, अर्हत्वका भी साक्षात्कार करते है, और दिव्यगर्भका परिपाक करते है । हानिकारक होनेसे वह अहित चाहनेवाले होता है ० मिथ्यादृष्टिवालोकी दो ही गतियॉ होती है ० । “लोहिच्च । उसी तरह जो कोई, राजा प्रसेनजित कोसलको काशी और कोसल० । वह उनका हानिकारक ० । हानिकारक होनेसे उनका अहित चाहनेवाले० मिथ्यादृष्टिवाला होता है ।

“लोहिच्च । इसी तरह जो ऐसा कहे—यहॉ श्रमण और ब्राह्मण नही जो अच्छे धर्म जाने० ।’ ऐसा कहनेवाला उन कुलपुत्रोका ० । हानिकारक होनेसे० मिथ्यादृष्टिवाला होता है ।मिथ्यादृष्टिवालो की दोही गतियॉ ० ।

३-भूफ्ठे गुरू

“लोहिच्च । तीन प्रकारके ही गुरू (=शास्ता) संसारमे कहे सुने जा सकते है जिनके यदि आक्षेप लगावे, तो वह आक्षेप सत्य, यथार्थ, धर्मानुकूल और निर्दोष होता है । वे कौनसे तीन ॽ— लोहिच्च । कितने शास्ता यशके लिये घरसे बेघर होकर साधु (=प्रब्रजित) होते है, यह श्रमणभावके लिये उचित नही है । वे श्रमण भावको बिना प्राप्त किये श्रावको (=शिष्यो) को धर्मोपदेश करते है—यह (तुम्हारे) हितके लिये है, यह सुखके लिये है, उनके श्रावक उसे सुननेकी चाह (=सुश्रूषा) नही करते, कान नही देते, चित्त नही लगाते, और उनके उपदेश (=शासन) से विरत रहते है। उसे ऐसा कहना चाहिये —आपने जिस निमित्तसे प्रब्रज्या ली थी वह श्रमणभावके लिये नही है, और आप श्रमणभावको बिना प्राप्त किये श्रावकोको उपदेश देते है,—‘यह हितके लिये० ।’ इसीलिये आपके श्रावक आपके प्रति सुश्रूषा नही० । जैसे, दूर हट गयेको उत्सुक बनानेकी कोशिश करे, मुँह फेर लिये मनुष्यको आलिड्गन करे । ऐसा करनेको मै पापपूर्ण लोभकी बात कहता हूँ । दूसरा दूसरेको क्या करेगा ॽ— लोहिच्च । यह पहले प्रकारका शास्ता है । उस शास्ताके लिये इस प्रकार कहना, सत्य, यथार्थ, धर्मानुसार और निर्दोष कथन है ।

“और फिर लोहिच्च । (दूसरे) कितने शास्ता यशके लिये घरसे बेघर हो० । वे श्रमणभावको बिना पाये हुए ० । उनके श्रावक उसके प्रति सुश्रुषा नही० ।—उस (शास्ताको) ऐसा कहना चाहिये—‘आप जिस निमित्तसे० । आप श्रमणभाव बिना प्राप्त किये०—यह हितके लिये० अत आपके श्रावक आपके प्रति सुश्रूषा नही ० ।—जैसे कोई अपने खेतको छोळकर दूसरेके खेतके घासपातको साफ करे, इसे मै पापपूर्ण लोभ की बात कहता हूँ । दूसरा दूसरेका ० ? (उस) शास्ताको जो इस प्रकार कहना, वह निर्दोष, सत्य, यथार्थ, और धार्मिक कथन है ।

“लोहिच्च । फिर भी कितने (दूसरे) शास्ता यशके लिये घरसे बेघर हो०१ ।

ऐसा कहनेपर लोहिच्च ब्राह्मणने भगवानसे यह कहा,—“हे गौतम । संसारमे ऐसे भी कोई शास्ता है जो कहे सुने जानेके योग्य नही है (जिनपर कोई आक्षेप नही किया जा सकता है) ?”

“लोहिच्च । ऐसे शास्ता है जिन्हे कोई ऐसा नही कह सकता ।”

“हे गौतम । वे कौनसे शास्ता है जिन्हे कोई ० ?

४—सच्चे गुरू

१—शील—“लोहिच्च । जब संसारमे तथागत अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध० २ उत्पन्न होते है, लोहिच्च । इस प्रकार भिक्षु शीलसम्पन्न होता है ।

२—समाधि—० ३ प्रथम ध्यानको प्राप्त करके विहार करता है । लोहिच्च । जिस शास्ताके धर्म(=शासन) मे श्रावक विशारदताको पाता है, लोहिच्च । वही शास्ता है जिसे कोई नही ० । जो इस प्रकारके शास्ताके लिये कुछ कहना सुनना है, वह कहना असत्य, अयथार्थ, अधार्मिक और दोषपूर्ण है । “लोहिच्च । और फिर भिक्षु वितर्क और विचारके शान्त हो जानेके बाद अपने भीतरकी शान्ति (=सप्रसाद), चित्तकी एकाग्रतासे वितर्क और विचार-रहित समाधिसे उत्पन्न प्रीतिसुखवाले दूसरे ध्यान० तीसरे ध्यान और ० ४ चोथे ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है । लोहिच्च । जिस शास्ताके धर्ममे श्रावक इस प्रकारकी विशारदताको पाते है, वह भी लोहिच्च । शास्ता है जिसे कोई नही ० । जो इस प्रकारके शास्ताके लिये ० वह कहना असत्य ० ।

३—प्रज्ञा—“वह इस प्रकारके समाहित परिशुध्द, स्वच्छ, पराहित, क्लेशोसे रहित, मृदु, सुन्दर और एकाग्र हुए चित्तसे अपने चित्तको ज्ञानदर्शनकी ओर नवाता है । लोहिच्च । जिस शास्ताके धर्ममे श्रावक ० यह भी लोहिच्च । शास्ता है जिसके लिये कोई नही ० । जो इस प्रकारके शास्ताके लिये ० वह कहना असत्य ० ।—वह इस प्रकार समाहित परिशुद्ध ० आस्त्रवोके क्षयके ज्ञानके लिये चित्तको ० । वह ‘यह दुख है’ अच्छी तरह जानता है ० ५ आवागमनके किसी कारणको नही देखता हे । जिस शास्ताके धर्ममे ० । लोहिच्च । यह भी शास्ता है जिसे कोई नही० । जो इस प्रकारके शास्ताके लिये ० वह कहना असत्य ० ।

ऐसा कहनेपर लोहिच्च ब्राह्मणने भगवान् से यह कहा—“हे गौतम । जैसे कोई पुरूष नरक-प्रपात (नरकके खड्ड) मे गिरते किसी पुरूषको उसका केश पकळकर ऊपर खीच ले और भूमिपर रख दे, उसी तरहसे मैं आप गौतमके द्वारा नरक-प्रपातमे गिरते हुए ऊपर खीचा जाकर भूमिपर रख दिया गया । आश्चर्य हे गौतम । अद्भुत हे गौतम । जैसे उलटेको सीधा कर दे ० ५ । इस तरह अनेक प्रकारसे आप गौतमने धर्म प्रकाशित किया । यह मै भगवानकी शरण० ५ । आजसे जीवन भरके लिये मुझे उपासक ०५ ।