दीध-निकाय

13. तेविज्ज-सुत्त (१।१३)

ब्रह्मा की सलोकताका मार्ग १—ब्राह्मण और वेदरचयिता ऋषि अनभिज्ञ । २—बुद्धका बतलाया मार्ग—(१) मैत्री भावना; (२) करुणा ०; (३) मुदिता ०, (४) उपेक्षा० ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओके महाभिक्षु-संघके साथ कोसल देशमे विचरते, जहॉ मनसाकट नामक कोसलोका ब्राह्मण-ग्राम था, वहॉ पहुँचे । वहाँ भगवान् मनसाकटमे, मनसाकटके उत्तर तरफ अचिरवती नदीके तीर आम्रवनमे विहार करते थे ।

उस समय बहुतसे अभिज्ञात (=प्रसिद्ध) अभिज्ञात महा-धनिक (=महाशाल) ब्राह्मण, मनसाकटमे निवास कर रहे थे, जैसे कि—चकि ब्राह्मण, तारुक्ख (=तारुक्ष) ब्राह्मण, पोक्खर-साति (=पौष्करसाति) ब्राह्मण, जानुस्सोणि ब्राह्मण, तोदेय्य ब्राह्मण और दूसरे भी अभिज्ञात अभिज्ञात ब्राह्मण महाशाल ।

ब्रह्माकी सलोकताका मार्ग

तब चहलकदमीके लिये रास्तेमे टहलते हुए, विचरते हुए, वाशिष्ट और भारद्वाज दो माणवको (=ब्राह्मण तरुणो) मे बात उत्पन्न हुई । वाशिष्ट माणवकने कहा—

“यही मार्ग (वैसा करनेवालेको) ब्रह्माकी सलोकताके लिये जल्दी पहुँचानेवाला, सीधा ले जानेवाला है, जिसे कि ब्राह्मण पौष्करसातिने कहा है ।”

भारद्वाज माणवकने कहा—“यही मार्ग० है, जिसे कि ब्राह्मण तारुक्षने कहा है ।”

वाशिष्ट माणवक भारद्वाज माणवकको नही समझ सका, न भारद्वाज माणवक वाशिष्ट माणवकको (ही) समझ सका । तब वाशिष्ट माणवकने भारद्वाज माणवकसे कहा—

“भारद्वाज । यह शाक्य कुलसे प्रब्रजित शाक्य-पुत्र श्रमण गौतम मनसाकटमे, मनसाकटके उत्तर अचिरवती (=राप्ती) नदीके तीर, आम्रवनमे विहार करते है । उन भगवान् गौतमके लिये ऐसा मंगल कीर्ति-शब्द फैला हुआ है—वह भगवान् ०१ बुद्ध भगवान् है । चलो भारद्वाज । जहाँ श्रमण गौतम है, वहाँ चले । चलकर इस बातको श्रमण गौतमसे पूछे । जैसा हमको श्रमण गौतम उत्तर देंगे, वैसा हम धारण करेंगे ।”

“अच्छा भो ।” कह भारद्वाज माणवकने उत्तर दिया ।

तब वाशिष्ट और भारद्वाज (दोनो) माणवक जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये, जाकर भगवान् के साथ समोदनकर (कुशल प्रश्न पूछ) एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे हुए वाशिष्ट माणवकने भगवानसे कहा—

“हे गौतम । ० रास्तेमे हम लोगोमे यह बात उत्पन्न हुई ० । यहाँ हे गौतम । विग्रह है, विवाद है, नानावाद है ।”

१ — ब्राह्मण और वेदरचयिता ऋषि अनभिज्ञ

“क्या वाशिष्ट । तू ऐसा कहता है—‘यही मार्ग ० हे, जिसे कि ब्राह्मण पौष्करसातिने कहा हे ॽ’ और भारद्वाज माणवक यह कहता है—० जिसे कि ब्राह्मण तारुक्षने कहा है । तब वाशिष्ट । किस विषयमे तुम्हारा विग्रह ० है ॽ”

“हे गौतम । मार्ग-अमार्गके सबन्धमे ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, छन्दोग ब्राह्मण, छन्दावा ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य-ब्राह्मण अन्य अन्य ब्राह्मण नाना मार्ग बतलाते है । तो भी वह (वैसा करनेवालेको) ब्रह्माकी सलोकताको पहुँचाते है । जैसे हे गौतम । ग्राम या कस्बेके पास (अ-दुरे) बहुतसे नानामार्ग होते है, तो भी वे सभी ग्राममे ही जानेवाले होते है । ऐसे ही हे गौतम । ० ब्राह्मण नाना मार्ग बतलाते हे, ० । ० ब्रह्माकी सलोकताको पहुँचाते है ।”

“वाशिष्ट । ‘पहुँचाते है’ कहते हो ॽ” “ ‘पहुँचाते है’ कहता हूँ ।”

“वाशिष्ट । ‘पहुँचाते है ०’ कहते हो ॽ”

“पहुँचाते है ० ।”

“वाशिष्ट । ‘पहुँचाते है’ कहते हो ॽ”

“पहुँचाते है ० ।”

“वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मणोमे क्या एक भी ब्राह्मण है, जिसने ब्रह्माको अपनी आँखसे देखा हो ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“क्या वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मणोका एक भी आचार्य है, जिसने ब्रह्माको अपनी ऑखसे देखा हो ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“क्या वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मणोका एक भी आचार्य-प्राचार्य है ०ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“क्या वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मणोके आचार्योकी सातवी पीढी तकमें कोई है ० ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“क्या वाशिष्ट । जो त्रैविध ब्राह्मणोके पूर्वज, मंत्रोके कर्ता, मंत्रोके प्रवक्ता ऋषि (थे)— जिनके कि गीत, प्रोक्त, समीहीत पुराने मंत्र-पदको आजकल त्रैविध ब्राह्मण अनुगान, अनुभाषण करते है, भाषितका अनुभाषण करते है, वाचेका अनुवाचन करते है, जैसे कि अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अगिरा, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु । उन्होने भी (क्या) यह कहा—जहाँ ब्रह्मा है, जिसके साथ ब्रह्मा है, जिस विषयमे ब्रह्मा है, हम उसे जानते है, हम उसे देखते है ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“इस प्रकार वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मणोमे एक ब्राह्मण भी नही, जिसने ब्रह्माको अपनी आँखसे देखा हो । ० एक आचार्य भी ० । एक आचार्य-प्राचार्य भी ० । ० सातवी पीढी तकके आचार्योमे भी ० । जो त्रैविध ब्राह्मणोके पूर्वज ऋषि ० । और त्रैविध ब्राह्मण ऐसा कहते है । —‘जिसको न जानते है, जिसको न देखते है, उसकी सलोकताके लिये हम मार्ग उपदेश करते है—यही मार्ग ब्रह्म-सलोकताके लिये जल्दी पहुँचानेवाला, है ।।’ तो क्या मानते हो, वाशिष्ट । ऐसा होनेपर त्रैविध ब्राह्मणोका कथन क्या अ-प्रामाणिकताको नही प्राप्त हो जाता ॽ”

“अवश्य, हे गौतम । ऐसा होनेपर त्रैविध ब्राह्मणोका कथन अ-प्रामाणिकताओ प्राप्त हो जाता है ।”

“अहो । वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मण जिसको न जानते है, जिसको न देखते है, उसकी सलोकताके मार्गका उपदेश करते है ।। —‘यही ० सीधा मार्ग है’—यह उचित नही है । जैसे वाशिष्ट । अन्धोकी पौती एक दूसरेसे जुळी हो, पहलेवाला भी नही देखता, बीचवाला भी नही देखता, पीछेवाला भी नही देखता । ऐसे ही वाशिष्ट। अन्ध-वेणीके समान ही त्रैविध ब्राह्मणोका कथन है, पहलेवालेने भी नही देखा ० । (अन) उन त्रैविध ब्राह्मणोका कथन प्रलाप ही ठहरता है, व्यर्थ ०, चित ०— तृच्छ ठहरता है । तो वाशिष्ट। क्या त्रैविध ब्राह्मण चन्द्र सूर्यको तथा दूसरे बहुतसे जनोको देखते है, कि कहाँसे वह उगते है, कहाँ दूबते है, जो कि (उनकी) प्रार्थना करते है, स्तुति करते है, हाथ जोळ नमस्कार कर घूमते है ॽ”

“हाँ, हे गौतम । त्रैविध ब्राह्मण चन्द्र सूर्य तथा दूसरे बहुत जनोको देखते है । ०”

“तो क्या मानते हो, वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मण जिन चन्द्र सूर्य या दूसरे बहुत जनोको, देखते है, कहाँसे ० । क्या त्रैविध ब्राह्मण चन्द्र-सूर्यकी सलोक्ता (=सहव्यता=एक ग्यान निवास) के लिये मार्गका उपदेश कर सकते है—‘यही वैसा करनेवाले को, चन्द्र-सूर्यकी सलोक्ताके लिये ० सीधा मार्ग है ॽ ।”

“नही, हे गौतम ।”

“इस प्रकार वाशिष्ट। त्रैविध ब्राह्मण जिनको देखते है, ० प्रार्थना करते है ० । उन चन्द्र-सूर्यकी सलोक्ताके लिये भी मार्गका उपदेश नही कर सकते, कि ० यही सीधा मार्ग है’, तो फिर ब्रह्माको—जिसे न त्रैविध ब्राह्मणोने अपनी आंखोसे देखा, ० ० न त्रैविध ब्राह्मणोके पृर्वज ऋषियोने ० । तो क्या वाशिष्ट । ऐसा होनेपर त्रैविध ब्राह्मणोका कथन अ-प्रामाणिक (=अप्पादिहीरक) नही ठहरता ॽ”

“अवश्य, हे गौतम ।”

“तो वाशिष्ट। त्रैविध ब्राह्मण जिसे न जानते है, जिसे न देखते है, उसकी सलोकताके लिये मार्ग उपदेश करते है—० यही सीधा मार्ग है’ । ० यह उचित नही । जैसे कि वाशिष्ट। पुरूष ऐसा कहे—इस जनपद (=देश) मे जो जनपद-फल्याणी (=देशकी सुन्दरतम स्त्री) है, मै उसको चाहता हूँ उसकी कामना करता हूँ । उससे यदि (लोग) पूछे—‘हे पुरूष । जिस जनपद-फल्याणीको तू चाहता है, कामना करता है, जानता है, वह क्षत्राणी है, ब्राह्मणी है, वैश्य स्त्री है, या शूद्री है’ ॽ ऐसा पूछने पर ‘नही’ कहे । तब उससे पूछे—‘हे पुरूष । जिस जनपद-फल्याणीको तू चाहता है, जानता है, वह अमुक नामवाली, अमुक गोत्रवाली है ? लम्बी, छोटी या मझोली है ? काली, श्यामा या मगुर (मछलीके) वर्णकी है ? अमुक ग्राम, निगम या नगर मे रहती है ॽ’ ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहे । तब उससे यह पुछे—‘हे पुरुष । जिसको तू नही जानता, जिसको तुन नही देखा, उसका तू चाहता है, उसकी तू कामना करता है’ ? ऐसा पूछनेपर ‘हा’ कहे । तो वाशिष्ट। क्या ऐसा होनेपर उस पुरूषका भाषण अ-प्रामाणिक नही ठहरता ॽ”

“अवश्य, हे गौत्तम । ० ।”

“ऐसे ही हे वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मणोने ब्राह्माको अपनी आँखसे नही देखा ० । अहो । वह त्रैविध ब्राह्मण यह कहते है—‘जिसे हम नही जानते ० उसकी सलोकताके लिये मार्ग उपदेश करते है ०’ । तो क्या वाशिष्ट । ० भाषण अ-प्रामाणिक नही होता ॽ”

“अवश्य, हे गौतम । ० ।”

“साधु, वाशिष्ट । अहो । वाशिष्ट। त्रैविध ब्राह्मण जिसको नही जानते ० उपदेश करते है । यह युक्त नही । जैसे वाशिष्ट। कोई पुरूष चौरस्तेपर महलपर चढनेके लिये सीढी बनावे । उससे

(लोग) पूछे — ‘हे पुरुष । जिस महलपर चढनेके लिये सीढी बना रहा है, जानता है वह महल पूर्व दिशामे है या दक्षिण दिशामे, पश्चिम दिशामे है या उत्तर दिशामे, ऊँचा या नीचा, या मझोला है ॽ’ ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहे । उससे ऐसा पूछें—‘हे पुरुष । जिसे तू नही जानता, नही देखता, उस महलपर चढनेके लिये सीढी बना रहा है ॽ’ ऐसा पूछनेपर ‘हॉ’ कहे । तो क्या मानते हो वाशिष्ट । ० ।”

“अवश्य, हे गौतम । ०”

“साधु, वाशिष्ट । ० । यह युक्त नही । जैसे वाशिष्ट । इस अचिरवती (=राप्ती) नदीकी धार उदकसे पूर्ण (=समतित्तिक) काकपेया (=करारपर बैठकर कोआ भी जिससे पानी पी ले) हा, तब पार-अर्थी=पारगामी=पार-गवेषी=पार जानेकी इच्छावाला पुरुष आवे, वह इस किनारेपर खळे हो दूसरे तीरको आह्वान करे—‘हे पार इस पार चले आओ ।’ ‘हे पार । इस पार चले आओ’, तो क्या मानते हो, वाशिष्ट। क्या उस पुरुषके आह्वानके कारण, याचनाके कारण, प्रार्थनाके कारण, अभिनन्दनके कारण अचिरवती नदीका पारवाला तीर इस पार आ जायगा ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“इसी प्रकार वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मण—जो ब्राह्मण बनानेवाले धर्म है उनको छोळकर जो अ-ब्राह्मण बनानेवाले धर्म है, उनसे युक्त होते हुए कहते है—‘(हम) इन्द्रको आह्वान करते है, ईशानको आह्वान करते है, प्रजापतिको आह्वान करते है, ब्रह्माको आह्वान करते है, महर्ध्दिको आह्वान करते है, यमको आह्वान करते है ।’ वाशिष्ट । अहो । त्रैविध ब्राह्मण, जो ब्राह्मण बनानेवाले धर्म है ० उनको छोळकर, आह्वानके कारण ० काया छोळ मरनेके बाद ब्रह्माकी सलोकताको प्राप्त हो जायेगे, यह संभव नही है ।

“जैसे वाशिष्ट । इस अचिरवती नदीकी धार उदक-पूर्ण, (करारपर बैठे) कौवेको भी पीने लायक हो । ० पार जानेकी इच्छावाला पुरुष आवे । वह इसी तीरपर दृढ साकलसे पीछे बॉह करके मजबुत बन्धन से बँधा हो । वशिष्ट । क्या वह पुरुष अचिरवतीके इस तीरसे परले तीर चला जायेगा ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“इसी प्रकार वाशिष्ट । यह पाँच काम-गुण (=कामभोग) आर्य-विनय (=बुध्दधर्म) मे जंजीर कहे जाते है, बंधन कहे जाते है । कौनसे पॉच ॽ (१) चक्षुसे विज्ञेय इष्ट=कात=मनाप=प्रिय कामना-युक्त, रुप रागोत्पादक है । (२) श्रोत्रसे विज्ञेय शब्द ० । घ्राणसे विज्ञेय ० गध । (३) जिह्वासे विज्ञेय रस ० । (४) काय (=त्वक्) से विज्ञेय ० स्पर्श । वाशिष्ट । ये पाँच काम-गुण ० बंधन कहे जाते है । वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मण इन पाँच काम-गुणोसे मूर्च्छित, लिप्त, अ-परिणाम-दर्शी है, इनसे निकलनेका ज्ञान न करके (=अनिस्सरणपज्ज) भोग कर रहे है । वाशिष्ट । अहो ।। यह त्रैविध ब्राह्मण, जो ब्राह्मण बनानेवाले धर्म है, उन्हे छोळकर ०, पाँच काम-गुणको ० भोगते हुए, कामके बंधनमे बँधे हुए, काया छोळ मरनेके बाद ब्रह्माओकी सलोकताको प्राप्त होगे, यह संभव नही ।

“जैसे वाशिष्ट । इस अचिरवती नदीकी धार ०, पुरुष आवे, वह इस तीरपर मुँह ढाँककर लेट जावे । तो ० परले तीर चला जायेगा ॽ”

“नही, हे गौतम ।”

“ऐसे ही, वाशिष्ट । यह पाँच नीवरण आर्य-विनय (=आर्य-धर्म, वीध्द-धर्म) मे आवरण भी कहे जाते है, नीवरण भी कहे जाते है, परि-अवनाह (=बंधन) भी कहे जाते है । कौनसे पाँच ॽ

(१) कामच्छन्द (=भोगकी इच्छा) नीवरण, (२) व्यापाद (=द्रोह) ०, (३) स्त्यान-मृध्द (=आलस्य) ०, (४) ओध्दत्य-कौकृत्य (=उध्दतपना, खेद) ०, (५) विचिकित्सा (=दुविधा) ० ।

वाशिष्ट । यह पाँच नीवरण आर्य-विनयमे आवरण भी ० कहे जाते है । वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मण इन पॉच नीवरणो (से) आवृत (=ढँके)=निवृत, अवनध्द=पर्यवनध्द (=बँधे) है । वाशिष्ट । अहो ।। त्रैविध ब्राह्मण जो ब्राह्मण बनानेवाले ० । पॉच निवरणोसे आवृत० बँधे०, मरनेके बाद ब्रह्माओकी सलोकताको प्राप्त होगे, यह संभव नही ।

“तो वाशिष्ट । क्या तुमने ब्राह्मणोके वृध्दो=महल्लको आचार्य-प्राचार्योको कहते सुना है—ब्रह्मा स-परिगृह (=बटोरनेवाला) है, या अ-परिग्रह ?”

“अ-परिग्रह, हे गौतम ।”

“स-वैर-चित्त, या वैर-रहित चित्तवाला ?”

“अवैर-चित्त, हे गौतम ।”

“स-व्यापाद (=द्रोहयुक्त) या अ-व्यापाद चित्तवाला ?”

“अव्यापाद-चित्त, हे गौतम ।”

“सक्लेश (=चित्त-मल)-युक्त या सक्लेश-रहित चित्तवाला ?”

“सक्लेश-रहित चित्तवाला, हे गौतम ।”

“वशवर्त्ती (=अपरतंत्र, जितेन्द्रिय) या अ-वश-वर्त्ती ?”

“वशवर्त्ती, हे गौतम ।”

“तो वाशिष्ट । त्रैविघ ब्राह्मण स-परिग्रह है या अ-परिग्रह ?”

“स-परिग्रह, हे गौतम ।”

“० सवैर-चित्त ० ? ० । ? ० सव्यापाद-चित्त ० ? ० । ? ० सक्लेश-युक्त चित्त ० ? ० ।० वशवर्त्ती ० ?” “अ-वशवर्त्ती, हे गौतम ।”

“इस प्रकार वाशिष्ट । त्रैविघ ब्राह्मण स-परिग्रह है, और ब्रह्मा अ-परिग्रह है । क्या स-परिग्रह त्रैविघ ब्राह्मणोका परिग्रह-रहित ब्रह्माके साथ समान होना, मिलना, हो सकता है ?”

“नही, हे गौतम ।”

“साघु, वाशिष्ट । अहो ।। सपरिग्रह त्रैविघ ब्राह्मण काया छोळ मरनेके बाद परिग्रह-रहित ब्रह्माके साथ सलोकताको प्राप्त करेगे, यह संभव नही ।”

“० स-वैर-चित्त त्रैविध ब्राह्मण ०, अवैर-चित्त ब्रह्माके साथ सलोकता ० संभव नही । ० सव्यापाद-चित्त ०।० सक्लेश-युक्त चित्त ०।० अवशवर्त्ती ० ।

“वाशिष्ट । त्रैविध ब्राह्मण बे-रास्ते जा फँसे है, फँसकर विषादको प्राप्त है, सूखेमे जैसे तैर रहे है। इसलिये त्रैविध ब्राह्मणोकी त्रिविधा वीरान (=कातार) भी कही जा (सक)ती है, विपिन (=जंगल) भी कही जा (सक)ती है, व्यसन (=आफत) भी कही जा (सकती) है ।”

२—बुध्दका बतलाया मार्ग

ऐसा कहनेपर वाशिष्ट माणवकने भगवानसे कहा—“मैने यह सुना है, हे गौतम । कि श्रमण गौतम ब्राह्माओकी सलोकताका मार्ग जानता है ?”

“तो वाशिष्ट । मनसाकट यहॉसे समीप है, मनसाकट यहॉसे दूर नही है न ?”

“हाँ, हे गौतम । मनसाकट यहॉसे समीप है ०, यहाँसे दूर नही है ।”

“तो वाशिष्ट । यहॉ एक पुरुष है, (जो कि) मनसाकटहीमे पैदा हुआ है, बढा ह । उससे मनसाकटका रास्ता पूछे । वाशिष्ट । मनसाकटमे जन्मे, बढे, उस पुरुषको, मनसाकटका मार्ग पूछनेपर (उत्तर देनेमे) क्या देरी या जळता होगी ?”

“नही, हे गौतम ।”

“सो किस कारण ?”

“हे गौतम । वह पुरूष मनसाकटमे उत्पन्न और बढा है, उसको मनसाकटके सभी मार्ग सु-विदित है ।”

“वाशिष्ट । मनसाकटमे उत्पन्न और बढे हुए उस पुरुषको मनसाकटका मार्ग पूछनेपर देरी या जळता हो सकती है, किन्तु तथागतको ब्रह्मलोक या ब्रह्मलोक जानेवाला मार्ग पूछनेपर, देरी या जळता नही हो सकती । वाशिष्ट । मै ब्रह्माको जानता हूँ, ब्रह्मलोकको, और ब्रह्मलोक-गामिनी-प्रतिपद् (=ब्रह्मलोकके मार्ग) को भी, और जैसे मार्गारूढ होनेसे ब्रह्मलोकमे उत्पन्न होता है, उसे भी जानता हूँ ।”

ऐसा कहनेपर वाशिष्ट माणवकने भगवानसे कहा—“हे गौतम । मैने सुना हे, श्रमण गौतम ब्रह्माओकी सलोकताका मार्ग उपदेश करता है । अच्छा हो आप गौतम हमे ब्रह्माकी सलोकताके मार्ग (का) उपदेश करे, हे गौतम । आप (हम) ब्राह्मण-संतानका उध्दार करे ।”

“तो वाशिष्ट । सुनो, अच्छी प्रकार मनमे (धारण) करो, कहता हूँ ।”

“अच्छा भी ।” वाशिष्ट माणवकने भगवानसे कहा । भगवानने कहा—“वाशिष्ट । यहॉ संसारमे तथागत उत्पन्न होते है । ०१ इस प्रकार भिक्षु-शरीरके चीवर, और पेटके भोजनसे संतुष्ट होता है । इस प्रकार वाशिष्ट । भिक्षु शील-सम्पन्न होता है । ० वह अपनेको इन पॉच नीवरणोसे मुक्त देख, प्रमुदित होता है । प्रमुदित हो प्रीति प्राप्त करता है, प्रीति-मानका शरीर स्थिर, शान्त होता । प्रश्रब्ध (=शान्त) शरीरवाला सुख अनुभव करता है, सुखितका चित्त एकाग्र होता है ।

(१) मैत्री भावना

“वह मैत्री (=मित्र-भाव) युक्त चित्तसे एक दिशाको पूर्ण करके विहरता है, ० दूसरी दिशा ०, ० तीसरी दिशा ०, ० चौथी दिशा ० इसी प्रकार ऊपर नीचे आळे बेळे सम्पूर्ण मनसे, सबके लिये, मित्र-भाव (०मैत्री=)-युक्त, विपुल, महान्=अ-प्रमाण, वैर-रहित, द्रोह-रहित चित्तसे सारे ही लोकको स्पर्श करता विहरता है । जैसे वाशिष्ट । बलवान् शख-ध्मा (=शख बजानेवाला) थोळी ही मिहनतसे चारो दिशाओको गुँजा देता है । वाशिष्ट । इसी प्रकार मित्र-भावनासे भावित, चित्तकी मुक्तिसे जितने प्रमाणमे काम किया गया है, वह वही अवशेष=खतम नही होता । यह भी वाशिष्ट । ब्रह्माओकी सलोकताका मार्ग है ।

(२) करूणा भावना

“और फिर वाशिष्ट । करूणा-युक्त चित्तसे एक दिशाको ० ।

(३) मुदिता भावना

मुदिता-युक्त चित्तसे ० ०,

(४) उपेक्षा भावना

उपेक्षा-युक्त चित्तसे ० विपुल, महान्, अप्रमाण, वैररहित, द्रोह-रहित चित्तसे सारे ही लोकको स्पर्श करके विरहता है । जैसे वाशिष्ट । बलवान् शख-ध्मा ० । वाशिष्ट । इसी प्रकार उपेक्षासे

भावित चित्तकी मुक्तिसे जितने प्रमाणमे काम किया गया है, वही अवशेष=खतम नही होता । यह भी वाशिष्ट । ब्रह्माओकी सलोकताका मार्ग है ।

“तो वाशिष्ट । इस प्रकारके विहारवाला भिक्षु, स-परिग्रह है, या अ-परिग्रह ॽ”

“अ-परिग्रह, हे गौतम ।”

“स-वैर-चित्त या अ-वैर-चित्त ॽ” “अ-वैर-चित्त, हे गौतम ।”

“स-व्यापाद-चित्त या अ-व्यापाद-चित्त ॽ”

“अ-व्यापाद-चित्त, हे गौतम ।”

“सक्लिष्ट (=मलिन) –चित्त या अ-सक्लिष्ट-चित्त ॽ”

“अ-सक्लिष्ट-चित्त, हे गौतम ।”

“वश-वर्ती (=जितेन्द्रिय) या अ-वश-वर्ती ॽ”

“वश-वर्ती, हे गौतम ।”

“इस प्रकार वाशिष्ट । भिक्षु अ-परिग्रह है, ब्रह्मा अ-परिग्रह है, तो क्या अ-परिग्रह भिक्षुकी अ-परिग्रह ब्रह्माके साथ समानता है, मेल है ॽ”

“हॉ, हे गौतम ।”

“साधु, वाशिष्ट । वह अ-परिग्रह भिक्षु काया छोळ मरनेके बाद, अ-परिग्रह ब्रह्माकी सलोकता-को प्राप्त होगा, यह संभव है । इस प्रकार भिक्षु अ-वैर-चित्त है ० । ० वश-वर्ती भिक्षु काया छोळ मरनेके बाद वश-वर्ती ब्रह्माकी सलोकताको प्राप्त होगा, यह संभव है ।”

ऐसा कहने पर वाशिष्ट और भारद्वाज माणवकोने भगवान् से कहा—

“आश्चर्य हे गौतम । अदभुत हे गौतम । ०१ आजसे आप गौतम हम (लोगोको) अजलिबद्ध शरणागत उपासक धारण करे ।”

(इति सीलक्खन्ध-वग्ग ॥१॥)