दीध-निकाय
14. महापदान-सुत्त (२।१)
१—विपश्यी आदि पुराने छै बुद्धोकी जाति आदि । २—विपस्सी बुद्धकी जीवनी—(१) जाति गौत्र आदि, (२) गर्भमें आनेके लक्षण, (३) बत्तीस शरीर-लक्षण; (४) गृहत्यागके चार पूर्व-लक्षण—वृद्ध, रोगी, मृत और संन्यासीका देखना; (५) सन्यास, (६) बुद्धत्व-प्राप्ति; (७) धर्मचक्र प्रवर्तन; (८) शिष्यो द्वारा धर्मप्रचार; (९) देवता साक्षी । देवतागण ।
ऐसा मैंने सुना—एक समय भगवान् श्रावस्तीमे अनाथपिण्डिकके आराम जेतवनकी करेरी कुटीमे विहार करते थे ।
तब भिक्षासे लौट भोजन कर लेनेके बाद करेरी (कुटी) की पर्णशाला (=बैठक) मे इकट्ठे होकर बैठे बहुतसे भिक्षुओके बीच पूर्वजन्मके विषयमे धार्मिक-कथा चली—पूर्वजन्म ऐसा होता है, वैसा होता है । भगवानने विशुद्ध और अलौकिक दिव्य-श्रोत्रसे उन भिक्षुओकी इस बातचीतको सुन लिया । तब भगवान् आसनसे उठकर जहॉ करेरी पर्णशाला (=मडलमाल) थी वहाँ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठ गये । बैठकर भगवानने उन भिक्षुओको संबोधित किया—“भिक्षुओ । अभी क्या बात चल रही थी, किस बातमे आकर रूक गये ?”
ऐसा कहनेपर उन भिक्षुओने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । भिक्षासे लौटे० हम भिक्षुओके बीच पूर्व-जन्मके विषयमे धार्मिक-कथा चल रही थी—पूर्व जन्म ऐसा है, वैसा है । भन्ते । यही बात हममे चल रही थी, कि भगवान् चले आये ।”
“भिक्षुओ । पूर्व-जन्म-संबंधी धार्मिक-कथाको क्या तुम सुनना चाहते हो ?”
“भगवान् । इसीका काल है । सुगत । इसीका काल है, कि भगवान् पूर्व-जन्म-संबंधी धार्मिक-कथा कहे । भगवानकी बातको सुनकर भिक्षु लोग धारण करेंगे ।”
“भिक्षुओ । तो सुनो, अच्छी तरह मनमे करो । कहता हूँ ।”
“अच्छा भन्ते”—कह उन भिक्षुओने भगवानको उत्तर दिया ।
१—विपश्यी आदि छै बुद्धोंकी जाति आदि
भगवान् ने कहा—“भिक्षुओ । आजसे इकानबे कल्प पहले विपस्सी (=विपश्यी) भगवान्, अर्हत् और सम्यक् सम्बुद्ध संसारमे उत्पन्न हुये थे । भिक्षुओ । आजसे एकतीस कल्प पहले सिखी (=शिखी) भगवान्० । भिक्षुओ । उसी एकतिसवे कल्पमे वेस्सभू (=विश्वभू) भगवान् ० । भिक्षुओ । इसी भद्रकल्प (वर्तमान कल्प) मे “ककुसन्ध (=क्रकुसन्ध) भगवान् ० । भिक्षुओ । इसी भद्रकल्पमे कोणागमन भगवान् ० । भिक्षुओ । इसी०मे कस्सप (=काश्यप) भगवान् ० । भिक्षुओ । इसी०मे मै अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध संसारमे उत्पन्न हुआ ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० क्षत्रिय जातिके थे, क्षत्रिय कुलमे उत्पन्न हुये थे । भिक्षुओ । सिखी भगवान्० क्षत्रिय० । भिक्षुओ । वेस्सभू भगवान्० क्षत्रिय०। भिक्षुओ । ककुसन्ध भगवान्०
ब्राह्मण ० । भिक्षुओ । कोणागमन भगवान्० ब्राह्मण०। भिक्षुओ । कस्सप भगवान्० ब्राह्मण०। भिक्षुओ । और मैं अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध क्षत्रिय जातिका, क्षत्रिय कुलमे उत्पन्न हुआ ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्०कोण्डञ्ञ (=कौडिन्य) गोत्रके थे ।० सिखी भगवान्० कौण्डिन्य गोत्र०।० वेस्सभू भगवान्० कौण्डिन्य गोत्र०।० ककुसन्ध भगवान्० काश्यप गोत्रके थे ।० कोणागमन भगवान्० काश्यप गोत्र०।० कस्सप भगवान्० काश्यप गोत्र०। भिक्षुओ । और मैं अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध गोतम गोत्रका हूँ ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० का आयुपरिमाण अस्सी हजार वर्षका था ।० सिखी भगवान्० सत्तर हजार वर्ष०।० वेस्सभू भगवान् ० साठ हजार वर्ष०।० ककुसन्ध भगवान्०चालीस हजार वर्ष०।०कोणागमन भगवान्० तीस हजार वर्ष०।० कस्सप भगवान्० बीस हजार वर्ष०। भिक्षुओ । और मेरा आयुप्रमाण बहुत कम और छोटा है, (इस समय) जो बहुत जीता है वह कुछ कम या अधिक सौ वर्ष (जीता है) ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० पाडर वृक्षके नीचे अभिसम्बुद्ध (=बुद्धत्त्वको प्राप्त) हुये थे ।० सिखी० भगवान्० पुण्डरीकके नीचे ०।० वेस्सभू भगवान्० साल वृक्ष०।० ककुसन्ध भगवान्० सिरीस वृक्ष०।० कोणागमन भगवान्० गूलर वृक्ष०।० कस्सप भगवान्० बर्गद०। भिक्षुओ । और मैं अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध पीपल वृक्षके नीचे अभिसम्बुद्ध हुआ ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० के खण्ड और तिरस नामक दो प्रधान शिष्य हुये ।० सिखी भगवान्० के अभिभू ओर सम्भव नामक०।० वेस्सभू भगवान्० के सोण और उत्तर नामक०।० ककुसन्ध भगवान्० के विधुर और सञ्जीव नामक०।० कोणगमन भगवान्०के भीयोसु और उत्तर नामक०।० कस्सप भगवान्० के तिस्स और भारद्वाज नामक०। भिक्षुओ । और मेरे सारिपुत्त और मोग्गलान नामक दो प्रधान शिष्य है ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० के तीन शिष्य-सम्मेलन(=श्रावक-सन्निपात) हुये । अळसठ लाख भिक्षुओका एक शिष्य-सम्मेलन था । एक लाख भिक्षुओका एक०। (और) अस्सी हजार भिक्षुओका एक०। भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० के यही तीन शिष्य-सम्मेलन थे, सभी (भिक्षु) अर्हत् थे ।० सिखी भगवान्० के तीन०। एक लाख भिक्षुओका एक०। अस्सी हजार भिक्षुओका एक०। सत्तर हजार भिक्षुओका एक०। भिक्षुओ । सिखी भगवान्०के यही तीन० सभी अर्हत्०।—० वेस्सभू भगवान्० के तीन०। अस्सी हजार०। सत्तर हजार०। साठ हजार०। भिक्षुओ । वेस्सभू भगवान्०के यही तीन०। ककुसन्ध भगवान्० का एक ही शिष्य सम्मेलन चालीस हजार भिक्षुओका था । भिक्षुओ । ककुसन्ध भगवान्० के यही एक०।० कोणागमन भगवान्० का एक ही शिष्य-सम्मेलन तीस हजार भिक्षुओका था । भिक्षुओ । कोणागमन० का यही एक०।० कस्सप भगवान् ० बीस हजार०।० कस्सपका यही०—भिक्षुओ । और मेरा एक ही शिष्य-सम्मेलन हुआ, बारह सौ पचास भिक्षुओका । भिक्षुओ । मेरा यही एक शिष्य-सम्मेलन० अर्हत्०।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० का अशोक नामक भिक्षु उपस्थाक (=सहचर सेवक) प्रधान उपस्थाक था ।० सिखी भगवान्० का खेमकर भिक्षु उपस्थाक०।० वेस्सभू भहवान्० का उपसन्त०।० ककुसन्ध भगवान्० का बुद्धिज०।० कोणागमन भगवान्०का सोत्थिज०।० कस्सप भगवान्० का सर्वमित्र०। भिक्षुओ । और मेरा आनन्द नामक भिक्षु उपस्थापक० हुआ ।
“भिक्षुओ । विपस्सी भगवान्० के बन्धुमान् नामक राजा पिता (और) बन्धुमती देवी नामकी माता थी । बन्धुमान् राजाकी राजधानी बन्धुमती नामक नगरी थी । ० सिखी भगवान्० के अरूण नामक राजा पिता और प्रभावती देवी नामकी माता०। अरूण राजाकी राजधानी अरूणवती नामक नगरी थी ।० वेस्सभू भगवान्० के सुप्रतीत नामक राजा० यशोवती देवी नामक०। सुप्रतीत राजाकी राजधानी अनोमा०।० ककुसन्घ भगवान्० के अग्निदत्त नामक ब्राह्मण पिता, विशाखा नामक ब्राह्मणी
माता ० । भिक्षुओ । उस समय खेम नामक राजा था । खेम राजाकी राजधानी खेमवती नामक नगरी थी । ० कोणागमन भगवान् ० यज्ञदत्त नामक ब्राह्मण पिता, उत्तरा नामक ब्राह्मणी माता ० । भिक्षुओ । उस समय सोभ नामक राजा था । सोभ राजाकी राजधानी सोभवती नामक नगरी थी ।० कस्सप भगवान् ० ब्रह्मदत्त नामक ब्राह्मण पिता, धनवंती नामक ब्राह्मणी माता ०। उस समय किकी नामक राजा था । भिक्षुओ । किकी राजाकी राजधानी वाराणसी (=बनारस) थी । भिक्षुओ । और मेरा शुद्धोदन नामक राजा पिता, मायादेवी नामक माता ० । कपिलवत्सु नामक नगरी राजधानी रही ।
भगवानने यह कहा । सुगत इतना कह आसनसे उठकर चले गये ।
तब भगवान् के जाते ही उन भिक्षुओमे यह बात चली—“आवुसो । आश्चर्य है, आवुसो । अद्भुत है—तथागतका ऐश्वर्य और उनकी महानुभावता, कि (इस तरह) तथागतोने अतीत कालमे निर्वाण प्राप्त किया, संसारके प्रपञ्चपर विजय प्राप्त किया, अपने मार्गको समाप्त किया, और सब दुखोका अन्त कर दिया । (वह) बुद्धोको जन्मसे भी स्मरण करते है, नामसे भी स्मरण करते है, गोत्रसे भी स्मरण करते है, आयु-परिप्रमाणसे भी ०, प्रधान शिष्यके पुद्गल (=व्यक्ति)से भी०, शिष्य-सम्मेलन (=श्रावक-सन्निपात)से भी । वे भगवान् इस जातिके थे यह भी, इस नामके, इस गोत्रके, इस शीलके, इस घर्मके, इस प्रज्ञाके, इस प्रकार रहनेवाले, इस प्रकार विमुक्त थे यह भी ।
“तो आवुसो । कया यह तथागतकी ही शक्ति है जिस शक्तिसे सम्पन्न हो तथागत अतीतमे निर्वाण प्राप्त किये, संसारके प्रपञ्चो ० बुद्धोको जन्मसे भी, नामसे भी०, वे भगवान् इस जन्मके० ? या देवता तथागतको यह सच कह देते है, जिससे तथागत अतीत कालमे निर्वाण प्राप्त किये ० बुद्धोको जन्मसे, नामसे ० वे भगवान् इस जातिके ०।—यही बात उन भिक्षुओमे चल रही थी ।
तब भगवान् संध्या समय ध्यानसे उठ कर जहॉ कारेरीकी पर्णशाला थी वहॉ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठ गये । बैठकर भगवानने भिक्षुओको संबोघित किया—“भिक्षुओ । कया बात चल रही थी, किस बातमे आकर रुक गये ?”
ऐसा पूछनेपर उन भिक्षुओने भगवानसे कहा—“भन्ते । भगवान् के जाते ही हम लोगोके बीच यह बात चली—आवुसो । तथागतका ऐश्वर्य और उनकी महानुभावता, आश्चर्य है, आवुसो । अद्भुत है, कि तथागत अतीत कालमे निर्वाण प्राप्त किये ० बुद्धोको जन्मसे ०, ‘वे भगवान् इस जातिके थे ०’ । तो आवुसो । कया यह तथागतकीही शक्ति ० । या देवता तथागतको यह सब कह देते है जिससे तथागत अतीत कालमे ०’ । भन्ते । हम लोगोके बीच यही बात चल रही थी, कि भगवान् आ गये ।”
“भिक्षुओ । यह तथागतकी ही शकित है जिस शकितसे सम्पन्न होकर तथागत अतीत कालमे निर्वाण पाये ० बुद्धोको जन्मसे ०, ‘वे भगवान् इस जातिके ०’ यह भी । देवताने भी तथागतको कह दिया था जाससे तथागत अतीत कालमे ० बुद्धोको जन्मसे स्मरण ०, वे भगवान् इस जन्मके ० यह भी । भिक्षुओ । क्या तुम पूर्वजन्म-सम्बन्घी घार्मिक कथाको अच्छी तरह सुनना चाहते हो ?”
“भगवान । इसीका काल है । सुगत । इसीका काल है, कि भगवान् पूर्वजन्म-सम्बन्घी धार्मिक कथा अच्छी तरह कहे, भगवानकी बातोको सुनकर भिक्षु लोग उसे धारण करेगे ।”
“भिक्षुओ । तो सुनो, अच्छी तरह मनमे करो, कहता हूँ ।” “अच्छा भन्ते” उन्होने उत्तर दिया ।
२—विपस्सी बुद्धकी जीवनी
(१) जाति गोत्र श्रादि
भगवानने यह कहा—“आजसे इक्कानवे कल्प पहले (१) विपस्सी भगवान् ० क्षत्रिय जाति ० । भिक्षुओ । विपस्सी भगवान् अर्हत ० कौण्ङिन्य गोत्रके थे । ० विपस्सी भगवान् ० का आयुपरिमाण अस्सी हजार वर्षोका था । ० विपस्सी भगवान् ० पाटलि वृक्षके नीचे बुद्ध हुए थे । ० विपस्सी भगवान् ०
के खण्ङ और तिस्स नामक दो प्रधान श्रावक (=शिष्य) थे । ० विपस्सी भगवान् ० के तीन शिष्य-सम्मेलन हुए । एक शिष्यसम्मेलन अळसठ लाख भिक्षुओका था । एक ० एक लाख भिक्षुओका था । एक ० अस्सी हजार भिक्षुओका । विपस्सी भगवानके यही तीन शिष्य-सम्मेलन हुए, जिनमे सभी अर्हत् (भिक्षु) थे । विपस्सी भगवान् ० का अशोक नामक भिक्षु प्रधान उपस्थाक था । ० विपस्सी भगवान् ० का बन्घुमान् नामक राजा पिता और बन्धुमती नामकी देवी माता थी । बन्धुमान् राजाकी राजघानी बन्धुमती नामक नगरी थी ।
(२) गर्भसे श्रानेके लक्षण
“भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्व तुषित नामक देवलोकसे च्युत होकर होशके साथ अपनी माताकी कोखमे प्रविष्ट हुए । उसके ये (पूर्व-) लक्षण है। (१) भिक्षुओ । लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व तुषित देवलोकसे च्युत माताकी कोखमे प्रविष्ट होते है तब देवता, मार और ब्रहा, श्रमण-ब्राह्मण, और देव मनुष्य सहित इस लोकमे देवोके देवतेजसे भी बढकर बळा भारी प्रकाश होता है । नीचेके नरक—जो अन्घकारसे, अन्धकारकी कालिमासे परिपूर्ण है, जहॉ बळी ऋध्दि=बळे महानुभाववाले ये चॉद और सूरज भी अपनी रोशनी नही पहुँचा सकते, वहॉ भी—देवोके देवतेजसे बढकर भारी प्रकाश होता है । जो प्राणी वहॉ उत्पन्न हुए है, वे भी उस प्रकाशमे एक दूसरेको देखते है—‘अरे । यहॉ दूसरे भी प्राणी उत्पन्न है’ । यह दस हजार लोक-धातु (=ब्रह्माड) कॅँपने और हिलने लगती है । संसारमे देवोके देवतेजसे भी बढकर बळा भारी प्रकाश फैल जाता है, यह लक्षण होता है ।
“भिक्षुओ । (२) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व माताकी कोखमे प्रविष्ट होते है, तब चारो देव-पुत्र उन्हे चारो दिशाओसे रक्षा करनेके लिये आते है, जिसमे कि बोधिसत्वको या बोधिसत्वकी माताको कोई मनुष्य या अमनुष्य न कष्ट दे सके । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (३) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व माताकी कोखमे प्रविष्ट होते है, तब बोधिसत्वकी माता प्रकृतिसे ही शीलवती होती है । हिंसासे विरत रहती है । चोरीसे ० । दुराचार-से ० । मिथ्या-भाषणसे ० । सुरा या नशीली वस्तुओके सेवनसे ० । यह भी लक्षण है ।”
“भिक्षुओ । (४) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व ० । तब बोधिसत्वकी माताका चित्त पुरुषकी ओर आकृष्ट नही होता । कामवासनाओके लिये, बोधिसत्वकी माता किसी पुरुषके द्रारा रागयुकत चित्तसे जीती नही जा सकती । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (५) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व ० । तब बोधिसत्वकी माता पाँच भोगो (=काम-गुणो)को प्राप्त करती हे, वह पॉच भोगोसे समर्पित और सेवित रहती है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (६) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व ० । तब बोधिसत्वकी माताको कोई रोग नही उत्पन्न होता, बोधिसत्वकी माता सूखपूर्वक रहती है । बोधिसत्वकी माता अ-क्लान्त शरीर-वाली रह अपनी कोखमे स्थित, सभी अङग-प्रत्यङगसे पूर्ण (=अहीनेन्द्रिय) बोधिसत्वको देखती है । भिक्षुओ । जैसे अच्छी जातिवाली, आठ पहलुओवाली, अच्छी खरादी शुध्द, निर्मल (और) सर्वाकार सम्पन्न वैदूर्यमणि (=हीरा) (हो) । उसमेका सूत्र उजला, नीला, या पीला, या लाल, या घूसर (हो) उसे ऑखवाला मनुष्य हाथमे लेकर देखे—‘यह ० वैदूर्यमणि, ० । यह इसमेका सूत्र ० । भिक्षुओ । उसी तरह जब बोधिसत्व माताकी कोखमे प्रविष्ट होते है तब बोधिसत्वकी माताको कोई रोग नही उत्पन्न होता, बोधिसत्वकी माता सुख-पूर्वक रहती है ० बोधिसत्वको देखती है ० । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (७) लक्षण यह है कि बोधिसत्वके उत्पन्न होनेके एक सप्ताह बाद बोधिसत्वकी माता मर जाती है, और तुषित देवलोकमे उत्पन्न होती है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (८) लक्षण यह है कि जैसे दूसरी स्त्रियॉ नव या दस महीना कोखमे बच्चे-
को रखकर प्रसव करती है, वैसे बोधिसत्तवकी माता बोधिसत्वको नही प्रसव करती । बोधिसत्वकी माता बोधिसत्वको पूरे दस महीने कोखमे रखकर प्रसव करती है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (९) लक्षण यह है कि जैसे और स्त्रियॉ बैठी या सोई प्रसव करती है, वैसे बोधिसत्वकी माता ० नही ० । बोधिसत्वकी माता बोधिसत्वको खळी खळी प्रसव करती है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (१०) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व माताकी कोखसे बाहर आते है, (तो उन्हे) पहले पहल देवता लोग लेते है, पीछे मनुष्य लोग । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (११) लक्षण यह है कि बोधिसत्व माताकी कोखसे निकलकर पृथ्वीपर गिरने भी नही पाते, कि चार देवपुत्र उन्हे ऊपरसे लेकर माताके सामने रखते है, (और कहते है—) प्रसन्न होवे, आपको बळा भाग्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (१२) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व माताकी कोखसे निकलते है तब, बिलकुल निर्मल पानीसे अलिप्त, कफसे अलिप्त, रुधिरसे अलिप्त, और किसी भी अशुचिसे अलिप्त, सुद्ध=विशद निकलते है । जैसे भिक्षुओ । मणिरत्न काशीके वस्त्रसे लपेटा हुआ हो, तो न (वह) मणिरत्न काशीके वस्त्रमे चिपट जाता है और न काशी का वस्त्र मणिरत्नमे चिपट जाता हे । सो क्यो ॽ दोनोकी शुद्धताके कारण । इसी तरहसे भिक्षुओ । जब ० निकलते है, ० विशद ही निकलते है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (१३) लक्षण यह है कि जब बोधिसत्व ० निकलते है तब आकाशसे दो जल-धाराये छूटती है, एक शीत (जल) की, एक उष्ण (जल) की, जिनसे बोधिसत्व और माताका प्रक्षालन (=उदककृत्य) होता है । यह भी लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (१४) लक्षण यह है की बोधिसत्व उत्पन्न होते ही, समान पैरोपर खळे हो उत्तरकी और मुँह करके सात पग चलते है । श्वेत छत्रके नीचे सभी दिशाओको देखते है, और इस श्रेष्ठ वचनको घोषित करते है—‘इस लोकमे मै श्रेष्ठ हूँ । इस लोकमे मै अग्र हूँ । इस लोकमे मै सबसे ज्येष्ठ हूँ । यह मेरा अन्तिम जन्म है । अब (मेरा) फिर जन्म नही होगा ।’ यह ही लक्षण है ।
“भिक्षुओ । (१५) लक्षण यही है कि जब बोधिसत्व ० निकलते है तब, देव, मार ०१ लोकमे ० अत्यन्त तीक्ष्ण प्रकाश होता है । संसारकी बुराइयॉ दूर हो जाती है, अन्धकारकी कालिमा हट जाती है, जहाँ इन चॉद-सूरज ० वहॉ भी देवोके ० । जो वही उत्पन्न हुए प्राणी ०, ‘दूसरे भी प्राणी ० ।’ यह दस हजार लोकधातु (=ब्रह्माण्ड) कँपता ० । ० । यह भी लक्षण है ।
(३) बत्तीस शरीर-लक्षणा
“भिक्षुओ । उत्पन्न होनेपर विपस्सी कुमारने बन्धुमान् राजासे यह कहा—‘देव । आपको पुत्र उत्पन्न हुआ है । देव, आप उसे देखे ।। भिक्षुओ । बन्धुमान् राजाने विपस्सी कुमारको देखा । देख-कर ज्योतिषी (=नैमित्तिक) ब्राह्मणोको बुलाकर यह कहा—‘आप लोग ज्योतिषी ब्राह्मण (मेरे) कुमारके लक्षण देखे ।’ उन ज्योतिषी ब्राह्मणोने लक्षण विचारा । गणना देखकर बन्धुमान् राजासे यह कहा—‘देव । प्रसन्न होवे । आपका पुत्र बळा भाग्यवान् है । महाराज आपको बळा लाभ है, कि आपके कुलमे ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ हे । देव । यह कुमार महापुरुषोके बत्तीस लक्षणोसे युक्त है, जिनसे युक्त महापुरुषकी दोही गतियॉ होती हे, तीसरी नही—(१) यदि वह घरमे रहता है तो धार्मिक, धर्मराजा, चारो और विजय पानेवाला, शांति स्थापित करनेवाला (और) सात रत्नोसे युक्त चक्रवर्ती
राजा होता है । उसके ये सात रत्न होते है—चक्र-रत्न, –हस्ति रत्न, अश्व-रत्न, मणि-रत्न, स्त्री-रत्न, गृहपति रत्न, और सातवॉ पुत्र रत्न । एक हजारसे भी अधिक सूर, वीर, शत्रुकी सेनाओको मर्दन करनेवाले उसके पुत्र होते है । वह सागरपर्यन्त इस पृथ्वीको दण्ड और शस्त्रके बिना ही धर्मसे जीत कर रहता है । (२) यदि वह घरसे बेघर होकर प्रब्रजित होता है, (तो) ससारके आवरणको हटा सम्यक् सम्बुद्ध अर्हत् होता है ।
“देव । यह कुमार महापुरुषोके किन, बत्तीस लक्षणो १से युक्त है, जिनसे युक्त होनेसे० ॽ यदि वह घरमे रहता है तो० । यदि वह घरसे बेघर हो प्रब्रजित होजाता है० । (१) देव । यह कुमार सुप्रतिष्ठित-पाद (जिसका पैर जमीन पर बराबर बैठता हो) है, यह भी देव । इस कुमारके महापुरुष लक्षणोमे एक है । (२) देव । इस कुमारके नीचे पैरके तलवेमे सर्वाकार-परिपूर्ण नाभि-नेमि (=घुट्ठी) युक्त सहस्त्र आरोवाले चक्र है । (३) देव । यह कुमार आयत-पार्ष्णि (=चौळी घुट्ठीवाला) है । (४) ० दीर्ध-अगुल ०। (५) ० मृदु तरुण हस्त-पाद० । (६) ० जाल-हस्त-पाद (=अगुलियोके बीच कही छेद नही दिखाई देता) ० । (७) ० उस्सखपाद (=गुत्फ जिस पादमे ऊपर अवस्थित है) ० । (८) ० एणी-जघ (=पेडुलीवाला भाग मृग जैसा जिसका हो) ०। (९) (सीधे) खळे बिना झुके देव । यह कुमार दोनो धुटनोको अपने हाथके तलवेसे छूता है (=आजानुबाहु) ०। (१०) कोषाच्छादित (=चमळेसे ढँकी) वस्तिगुह्य (=पुरुष-इन्द्रिय) ० । (११) सुवर्ण वर्ण ० काचन समान त्वचावाले ० । (१२) सूक्ष्मछवि (छवि=ऊपरी चमळा) है० जिससे कायापर मैल-धूल नही चिपटती० । (१३) एकैकलोम, एक एक रोम कूपमे एक रोम है ० । (१४) ० ऊधर्वाग्र-लोम ० अजन समान नीले तथा प्रदक्षिणा (बायेसे दाहिनी ओर) से कुडलित लोमोके सिरे ऊपरको उठे है ० । (१५) ब्राह्म-ऋजु-गात्र (=लम्बे अकुटिल शरीरवाला) ० । (१६) सप्त-उत्सद (=सातो अगोमे पूर्ण आकारवाला) ० । (१७) सिंह-पूर्वार्द्ध-काय (=छाती आदि शरीरका ऊपरी भाग सिहकी भॉति जिसका विशाल हो) ० । (१८) चितान्तरास (दोनो कघोका विचला भाग जिसका चित=पूर्ण हो) ० । (१९) न्यग्रोध-परिमडल है० जितनी शरीरकी उँचाई, उतना व्यायाम (=चौळाई), (और) जितना व्यायाम उतनी ही शरीरकी ऊँचाई । (२०) समवर्त-स्कन्ध (=समान परिमाणके कधेवाला) ० । (२१) रसग्ग-सग्ग (=सुन्दर शिराओवाले) ० । (२२) सिह-हनु (=सिह समान पूर्ण ठोळीवाला) ० । (२३) चव्वालीस-दन्त ० । (२४) सम-दन्त ० । (२५) अविवर-दन्त (=दॉतोके बीच कोई छेड न होना) ० । (२६) सु-शुक्ल-दाढ (=खुब सफेद दाढवाला) ० । (२७) प्रभूत-जिह्व (=लम्बी जीभवाला) ।० । (२८) ब्रह्म-स्वर करविक (पक्षीसे) स्वरवाला ० । (२९) अभिनील-नेत्र (=अलसीके पुष्प जैसी नीली ऑखोवाला) ० । (३०) गो-पक्ष्म (=गाय जैसी पलकवाला) ०। (३१) देव, इस कुमारकी भौहोके बीचमे श्वेत कोमल कपास सी ऊर्णा (=रोमराजी) है ० । (३२) उष्णीषशीर्ष (=पगळी जैसे सामने उभळे शिरवाला) ० है । देव । यह भी इस कुमारके महापुरुष-लक्षणोमे है ।
‘देव । यह कुमार महापुरुषोके इन बत्तीस लक्षणोसे युक्त है, जिन (लक्षणो) से युक्त होनेसे उस महापुरुषकी दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नही । यदि वह घरमे ० । यदि वह घरसे बेघर० ।’
“भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाने ज्योतिषी ब्राह्मणोको नये कपळोसे आच्छादितकर (उनकी) सभी इच्छाओको पूरा किया । भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाने बिपस्सी कुमारके लिये घाइया नियुक्त की । कोई दूध पिलाती थी, कोई नहलाती थी, कोई गोदमे लेती थी, कोई गोदमे लेकर टहलाती थी । भिक्षुओ । विपस्सी कुमारको जन्म कालहीसे दिन रात श्वेत छत्र धारण कराया जाता था,
जिसमे कि उसे शीत, उष्ण, तृण, धूली या ओस कष्ट न दे । भिक्षुओ । विपस्सी कुमार उत्पन्न होकर सभीका प्रिय=मनाप हुआ । भिक्षुओ । जैसे उत्पल, पद्म, या पुण्डरीक (होता है) वैसे ही विपस्सी कुमार सभीका प्रिय=मनाप हुआ । वह (कुमार) एककी गोदसे दूसरेकी गोदमे घूमता रहता था । भिक्षुओ । कुमार विपस्सी उत्पन्न होकर मञ्जु (=कोमल) स्वरवाला, मधुर स्वरवाला (और) प्रियस्वरवाला था । भिक्षुओ । जैसे हिमालय पहाळ पर करविंक नामका पक्षी मञ्जुस्वरवाला, मनोज्ञ०, मधुर०, प्रिय० (होता है), भिक्षुओ । उसी त्तरह विपस्सी कुमार मञ्जुस्वरवाला० था । भिक्षुओ । तब उस उत्पन्न हुये विपस्सी कुमारको (पूर्व) कर्मके विपाकसे उत्पन्न दिव्य-चक्षु उत्पन्न हुआ, जिस (दिव्य-चक्षु) से वह रात दिन चारो ओर एक योजन तक देखता था । भिक्षुओ । उत्पन्न हो वह विपस्सी कुमार त्रायस्त्रिश देवताओकी भॉति एकटक देखता था। ‘कुमार एकटक देखता (=विपस्सति) है ।’ इसीसे भिक्षुओ । विपस्सी विपस्सी कहते विपस्सी कुमार नाम पळा ।
“भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजा कचहरी (=अधिकरण) मे बैठ, विपस्सी कुमारको गोदमे ले न्याय करता था । भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमार पिताकी गोदमे बैठे विचार विचारकर न्यायसे फैसला करता था । ‘कुमार विचार विचारकर०’ अत भिक्षुओ । और भी विपस्सी विपस्सी (विपस्सति) कहते विपस्सी कुमार नाम पळा । भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाने विपस्सी कुमारके लिये तीन महल बनवा दिये । एक वर्षाके लिये, एक हेमन्त ऋतुके लिये, एक ग्रीष्म कालके लिये । पॉच भोगो (=काम-गुणो) का प्रबन्ध करवा दिया । भिक्षुओ । वहॉ विपस्सी कुमार वषॉ कालमे वषॉवाले महलमे चार महीना, निप्पुरूप (=केवल स्त्री) वादिकाओसे सेवित हो महलसे नीचे कभी नही उतरता था ।
(४) गृहत्यागके चार पूर्व-लक्षण
“भिक्षुओ । विपस्सी कुमारने बहुत वर्षो, कई सौ वर्षो, कई सहस्त्र वर्षोके, बीत्तनेपर (एक दिन) सारथीसे कहा—‘भद्र सारथि । अच्छे-अच्छे रथोको जीतो । (मै) उद्यानभूमि को वहाँकी सुन्दरता देखनेके लिये जाऊँगा ।’ भिक्षुओ । तब सारथीने ‘अच्छा देव ।’ कहकर विपस्सी कुमारको उत्तर दे अच्छे अच्छे रथोको जीतकर विपस्सी कुमारको इसकी सूचना दी—‘देव । अच्छे अच्छे रथ जीते तैयार है, अब जो आप उच्त समझे ।’ तब विपस्सी कुमार एक अच्छे रथपर चढकर अच्छे अच्छे रथोके साथ उधानभूमिके लिये निकला ।
१—वृद्ध—“भिक्षुओ । उद्यानभूमि जाते हुये विपस्सी कुमारने एक गतयौवन पुरूषको बूढे बँडेरी जैसे झुके टेढे दण्डका सहारा ले कॉपते जाते हुये देखा । देखकर सारथीसे पूछा—‘भद्र सारथि। यह पुरूष कौन है ॽ इसके केश भी दूसरोके जैसे नही है, शरीर भी दूसरोके जैसा नही है ।’ ‘देव । यह बूढा कहा जाता है ।’ ‘भद्र सारथि । बूढा क्या होता है’ ॽ ‘देव, यह बूढा कहा जाता है, इसे अब बहुत दिन जीना नही है ।’ भद्र सारथि । ‘तो क्या मैं भी बूढा होऊँगा, क्या यह अनिवार्य है ॽ’ ‘देव । आप, हम और सभी लोगोके लिये बुढापा है, अनिवार्य है ।’ ‘तो भद्र सारथि । बस उद्यानभूमि जाना रहने दो, यहॉहीसे (फिर रथको) अन्त पुर लौटाकर ले चलो ।’ भिक्षुओ । ‘अच्छा देव’ । कहकर सारथी विपस्सी कुमारको उत्तर दे (रथको) वहीसे लोटाकर, अन्त पुर ले गया ।
“भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमार अन्त पुरमे जाकर दुखी (और) दुर्मना हो चिन्तन करने लगा—इस जन्म लेनेको धिक्कार है, जब कि जन्मे हुयेको जरा सताती है’ ।”
“भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाने सारथीको बुलाकर ऐसा कहा—‘भद्र सारथि । क्या कुमार उद्यानभूमिमे टहल चुका, क्या कुमार उद्यानभूमिसे प्रसन्न हुआ ॽ’ ‘देव । कुमार उद्यानभूमि-
मे टहलने नही गये, न देव । कुमार उद्यानभूमिसे प्रसन्न हुये ।’ ‘भद्र सारथि । उद्यानभूमि जाते हुये कुमारने क्या देखाॽ’ ‘देव । उद्यानभूमि जाते हुये कुमारने एक वृद्ध० पुरूषको जाते देखा । देखकर मुझसे कहा ‘० यह पुरूष ० ॽ’ देव । अन्त पुरमे जाकर चिन्तन कर रहे है—‘इस जन्म लेनको धिक्कार०’ ।
“भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाके मनमे यह हुआ—‘ऐसा न हो कि विपस्सी कुमार राज्य न करे, ऐसा न हो कि विपस्सी कुमार घरसे बेघर होकर प्रब्रजित हो जावे । ज्योतिषी ब्राह्मणोका कहा हुआ कही ठीक न हो जावे ।’ भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाने विपस्सी कुमारकी प्रसन्नताके लिये और भी अधिक पॉचो भोगो (=काम गुणो) से उसकी सेवा करवाई, जिसमे कि विपस्सी कुमार राज्य करे, जिसमे कि विपस्सी कुमार घरसे० न प्रब्रजित हो । जिसमे कि ब्राह्मणोके कहे० मिथ्या होवे । भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमार पॉचो भोगो (=काम गुणो) से सेवित किया जाने लगा ।
२—रोगी—“तब विपस्सी कुमार बहुत वर्षाके० । उद्यानभूमि जाते विपस्सी कुमारने एक अपने ही मल-मूत्रमे पळे, दूसरोसे उठाये जाते, दूसरोसे बैठाये जाते एक रोगी, दुखी, बहुत बीमार पुरुषको देखा । देखकर सारथीसे कहा—‘० यह पुरुष कौन है ॽ इसकी आँखे भी दूसरोकी जैसी नही है, स्वरभी० ।’ ‘देव । यह रोगी है ।—‘० रोगी क्या होता है ॽ’ ‘देव । यह बीमार है । इस रोगसे अब शायद ही उठे ।’—० ‘क्या मैं भी व्याधिधर्मा हूँ, क्या व्याधि अनिवार्य है ॽ’ ‘देव । आप, हम ओर सभी लोग व्याधि-धर्मा है, व्याधि अनिवार्य है ।’ ‘तो० बस आज अब टहलना ० चिन्तन करने लगा—“इस जन्म लेनेको धिक्कार ०।’
“भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजा सारथईको० । देव, कुमारने उद्यानभूमि जाते रोगी० को देखा । देख कर० । अन्त पुरमे चिन्तन कर रहे है—‘इस जन्म लेनेको धिक्कार० ।’
“भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजाके मनमे ऐसा हुआ—‘ऐसा न हो विपस्सी० राज्य न० सच हो जावे । ’—‘भिक्षुओ । तब बन्धुमान् राजा० मिथ्या हो। तब भिक्षुओ । विपस्सी कुमार पॉच भोगो (=काम गुणो) से सेवित किया जाने लगा ।
३—मृत—“भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमारने बहुत वर्षाके० उद्यानभूमि जाते हुये बहुत लोगोको इकट्ठा हो नाना प्रकारके अच्छे अच्छे कपळोसे शिविका बनाते हुये देखा । देखकर सारथीसे पूछा—‘० यह बहुत लोग इकट्ठा हो क्यो शिविका (=अर्थी) बना रहे है ॽ’—‘देव । यह मर गया है।’—‘० तो जहॉ वह मृतक है वहॉ रथको ले चलो ।’—‘अच्छा देव ।’ कहकर सारथी० जहाँ वह मृतक था वहॉ रथ ले गया । भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमारने (उस) प्रेत=मृतकको देखा । देखकर सारथीसे पूछा—‘० यह मरना क्या चीज हे ॽ’—‘देव । यह मर गया है । अब उसके माता, पिता, या जातिवाले दूसरे सम्बन्धी उसको नही देख सकेंगे, (और) वह भी अपने माता, पिता० को नही देख सकेगा ।’—‘तो क्या मैं भी मरणधर्मा हूँ, मृत्यु अनिवार्य है ॽ मुझे भी क्या देव (=पिता), देवी, (=माता) जातिवाले या दूसरे नही देख सकेंगे, (और, क्या) मै भी नही देख सकूँगा ॽ’—‘देव । आप, हम और सभी लोग मरणधर्मा है, मृत्यु अनिवार्य है । आपको भी देव० नही देख सकेंगे ओर आप भी नही देख सकेंगे ।’—‘भद्र सारथि । बस आज अब टहलना रहने दो० ।’ ‘अच्छा देव’ कह सारथी० अन्त पुर ले गया । भिक्षुओ । वहाँ विपस्सी कुमार० चिन्तन करने लगा—‘इस जन्म लेनको धिक्कार है, जो कि जन्मे हुयेको जरा, व्याधि, और मृत्यु सताते है ।’
“भिक्षुओ । तब वन्धुमान् राजा सारथीको० कुमारने मृतकको० । अन्त पुरमे चिन्तन कर रहे है— ‘जन्म लेना धिक्कार० ।’
“भिक्षुओ । तब वन्धुमान् राजाके मनमे यह हुआ—‘कही ऐसा न हो० ।’ भिक्षुओ । तब
बन्धुमान राजा विपस्सी कुमारके लिये और भी अधिक० जिससे० कुमार राज्य करे, न घरसे बेघर० ।
भिक्षुओ । इस प्रकार० कुमार सेवित किया जाने लगा ।
४—संन्यास—“भिक्षुओ । तब बहुत वर्षोके० । विपस्सी कुमारने उद्यानभूमि जाते एक मुण्डित, कापाय-वस्त्रधारी, प्रब्रजित (=साधु) को देखा । देखकर सारथीसे पूछा,—‘० यह पुरूष कौन है, इसका शिर भी मुँळा है, वस्त्र भी दूसरो जैसे नही ?’—‘देव, यह प्रब्रजित है ।’—‘० यह प्रब्रजित क्या चीज है’ ॽ—‘देव, अच्छे धर्माचरणके लिये, शान्ति पानेके लिये, अच्छे कर्म करनेके लिये, पुण्य-सचय करनेके लिये, उहिंसा, भूतो पर अनुकम्पा करनेके लिये यह प्रब्रजित हुआ है’—‘० तब जहॉ वह प्रब्रजित है वहॉ रथको ले चलो ।’—‘अच्छा देव । ’ कह सारथी० । भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमारने उस प्रब्रजितसे यह कहा—‘है । आप कौन है, आपका शिर भी० आपके वस्त्र भी० ?’—‘देव, मै प्रब्रजित हूँ ।’—‘आप प्रब्रजित है, इसका क्या अर्थ ?’—‘देव, मै, अच्छे धमचिरणके लिये ० प्रब्रजित हुआ हूँ ।’
(५) सन्यास
“भिक्षुओ । तब विपस्सी कुमारने सारथीसे कहा—‘तो ० रथको अन्त पुर लौटा ले जाओ । मै तो यही शिर दाढी मुँळवा, काषाय वस्त्र पहन, घरसे बेघर हो प्रब्रजित होऊँगा ।’ ‘अच्छा देव ।’ कहकर सारथी० वहीसे रथको अन्त पुर लौटा ले गया । और विपस्सी कुमार वही शिर और दाढी मुळा ० प्रब्रजित हो गये ।
“भिक्षुओ । बन्धुमती राजधानीके चौरासी हजार मनुष्योने सुना कि ० कुमार शिर दाढी मुळा ० प्रब्रजित हो गये । सुनकर उन लोगोक मनमे एसा हुआ—‘वह धर्म मामूली नही होगा, वह प्रब्रज्या भी मामूली नही होगी, जहॉ विपस्सी कुमार शिर दाढी मुँळा० प्रब्रजित हुये है । यदि विपस्सी कुमार शिर दाढी मुँळा ० प्रब्रजित हो गये तो हम लोगोको अब क्या है ?’ भिक्षुओ । तब वे सभी चौरासी हजार लोग शिर और दाढी मुँळा० विपस्सीके पीछे प्रब्रजित हो गये । भिक्षुओ । उसी परिषद्के साथ विपस्सी बोधिसत्व ग्राम, निगम (=कस्वा), जनपद (=दीहात) और राजधानियोमे विचरण करने लगे ।
(६) बुद्धत्व-प्राप्ति
“भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्वको एकान्तमे ध्यान करते हुए इस प्रकार चित्तमे वितर्क (=ख्याल) उत्पन्न हुआ—‘यह मेरे लिये अच्छा नही है कि मै लोगोकी भीळके साथ विहार करुँ ।’ भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्व उसके बादसे अपने गणको छोळ अकेले रहने लगे । वे चौरासी हजार प्रब्रजित दूसरी ओर चले गये और विपस्सी बोधिसत्व दूसरी ओर । भिक्षुओ तब विपस्सी बोधिसत्वको (एक दिन) एकान्तमे ध्यान करते समय इस प्रकार चित्त मे विचार उत्पन्न हुआ—‘यह संसार बहुत कष्टमे पळा है, जन्म लेता है, वृद्ध होता है, मरता है, च्युत होता है और उत्पन्न होता है । और इस दुखसे जरा और मृत्युसे निसरण (=दुखसे छूटनेके उपाय) को नही जानता है । इस दुखसे जरा और मृत्युसे निसरण कैसे जाना जायेगा ?
“भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्वके मनमे यह हुआ—(१) ‘क्य़ा होनेसे जरा-मरण होता है, किस प्रत्यय (=कारण) से जरा-मरण होता है ?’ भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्वको ठीकसे विचारनेके बाद प्रज्ञासे बोध हुआ—जन्म के होनेसे जरामरण होता है, जन्मके प्रत्ययसे जरा-मरण होता है ।
(२) “भिक्षुओ । तब० बोधिसत्वके मनमे यह हुआ—‘क्या होनेसे जन्म होता है, किस प्रत्ययसे जन्म होता है ॽ” तब० बोध हुआ—भव (=आवागमन) के होनेसे जन्म होता है, मवके प्रत्ययसे जन्म होता है ।
(३) ‘० बोध हुआ,—उपादानके होनेसे भव होता है, उपादानके प्रत्ययसे भव होता है ।
(४) ‘० बोध हुआ,—तृष्णाके होनेसे उपादान होता है, तृष्णाके०
(५) ‘० बोध हुआ—वेदना१ (=अनुभव) के होनेसे तृष्णा होती है, वेदना०
(६) ‘० बोध हुआ—स्पर्श (=इन्द्रिय और विषयके मेल)के होनेसे तृष्णा होती है, स्पर्श०
(७) ‘० ‘षडायतनके होनेसे स्पर्श होता है, पडायतन० ।
(८) ‘० नामरूपके होनेसे षडायतन२ होता है, नामरुपके०
(९) ‘० विज्ञानके होनेसे नामरूप होता है, विज्ञानके० ।
(१०) ‘० नामरुपके होनेसे विज्ञान होता है, नामरुप ० ।
“भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्वके मनमे यह हुआ—‘विज्ञानसे फिर लौटना शुरू होता है, नामरूपसे फिर आगे (क्रम) नही चलता । इसीसे सभी जन्म लेते है, वृद्ध होते है, मरते है, च्युत होते, है । जो यह नामरूपके प्रत्ययसे विज्ञान, (और) विज्ञानके प्रत्ययसे नामरूप, नामरूपके प्रत्ययसे पडा-यतन, पडायतनके प्रत्ययसे स्पर्श, स्पर्शके प्रत्ययसे वेदना, वेदनाके प्रत्ययसे तृष्णा, तृष्णाके प्रत्ययसे उपादान, उपादानके प्रत्ययसे भव, भवके प्रत्ययसे जाति, जातिके प्रत्ययसे जरा, मरण, शोक, परिदेव (=रोना पीटना), दुख=दौर्मनस्य, और परेशानी होती है । इस प्रकार इस केवल दुख-पुजकी उत्पत्ति (=समुदय) होती है ।
“भिक्षुओ । ० बोधिसत्वको समुदय समुदय करके, पहले कभी नही सुने (जाने) गये धर्म (=विषय) मे ऑख उत्पन्न हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ, प्रज्ञा उत्पन्न हुई, विद्या उत्पन्न हुई, आलोक उत्पन्न हुआ । भिक्षुओ । तब विपस्सी०के मनमे ऐसा हुआ—
(१) ‘किसके नही होनेसे जरामरण नही होता, किसके विनाश (=निरोध) से जरामरणका निरोध होता है ॽ’ भिक्षुओ । तब विपस्सी बोधिसत्वको बोध हुआ—जन्मके नही होनेसे जरामरण नही होता, जन्मके निरोधसे जरामरणका निरोध हो जाता है ।
(२) ‘० बोध हुआ—भवके नही होनेसे जन्म नही होता, भवके निरोधसे जन्मका निरोध हो जाता है
(३) ‘० बोध हुआ—उपादान (=भोगग्रहण) के नही होनेसे भव भी नही होता, उपादानके निरोध से०
(४) ‘० बोध हुआ—तृष्णाके नही होनेसे उपादान भी नही होता, तृष्णाके निरोध० ।
(५) ‘० बोध हुआ—वेदनाके नही होनेसे तृष्णा भी नही होती, वेदनाके निरोधसे० ।
(६) ‘० बोध हुआ—स्पर्शके नही होनेसे वेदना भी नही होती, स्पर्शके निराधसे० ।
(७) ‘० बोध हुआ—पडायतनके नही होनेसे स्पर्श भी नही होता, पडायतनके निरोधसे० ।
(८) ‘० बोध हुआ—नामरूपके नही होनेसे पडायतन भी नही होता, नामरुपके निरोधसे० ।
(९) ‘० बोध हुआ—विज्ञानके नही होनेसे नामरुप भी नही होता, विज्ञानके निरोधसे० ।
(१०) ‘० बोध हुआ—नामरूपके नही होनेसे विज्ञान भी नही होता, नामरूपके निराधसे विज्ञानका निरोध हो जाता है ।
“भिक्षुओ । तब विपस्सी बोघिसत्वके मनमे यह हुआ—‘मुक्तिका मार्ग मैने समझ लिया नामरूपके निरोधसे विज्ञानका निरोध, विज्ञानके निरोधसे नामरूपका निरोध, नामरूपके निरोधसे पडायतनका निरोध, पडायतनके निरोधसे स्पर्शका निरोध, स्पर्शके निरोधसे वेदनाका निरोध, वेदनाके निरोधसे तृष्णाका निरोध, तृष्णाके निरोधसे भवका निरोध, भवके निरोधसे जन्मका निरोध, जन्मके निरोधसे जरा, मरण, शोक, परिदेव, दुख=दौर्मनर्य और परेशानी, सभी निरुद्ध हो जाते है । इस प्रकार सारे दखोका निरोध (=नाश) हो जाता है ।
“भिक्षुओ । विप्पसी बोधिसत्वको ‘निरोध’ ‘निरोध’ करके पहले न सुने गये धर्मोमे ऑख उत्पन्न हुई, ज्ञान०, प्रज्ञा०, विद्या०, आलोक०। भिक्षुओ । तब विप्पसी बोधिसत्व उसके बाद पाँच उपादान-स्कन्धो१मे उदय और व्यय (=उत्पत्ति और विनाश) के देखने वाले हुये । यह रूप है, यह रूपका समुदय (=उत्पत्ति) यह रूपका अस्त हो जाना है । यह वेदना, यह वेदनाका समुदय, यह वेदनाका अस्त हो जाना है । यह सज्ञा०। यह सस्कार०। यह विज्ञान०। पॉच उपादान-स्कन्धोके उत्पत्ति-विनाशको देखकर विहार करनेसे उनका चित्त शीघ्र ही चित्तमलो (=आस्त्रवो) से बिलकुल मुक्त हो गया ।
(७) धर्मचक्रप्रवर्तन
“भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्, अर्हत् सम्यक् सम्बुद्धके मनमे यह हुआ—क्या मै अवश्य ही धर्म का उपदेश करूँ ? ‘भिक्षुओ । तब विप्पसी भगवान् ० के मनमे यह हुआ—‘मैंने इस गम्भीर, दुर्ज्ञेय, दुर्बोध, शान्त, प्रणीत (=उत्तम), तर्कसे अप्राप्य, निपुण और पण्डितोसे ही समझने योग्य धर्मको जाना है । (और) यह प्रजा (=सांसारिक लोग) आलय (=भोगो)मे, रमनेवाली आलयमे रत, और आलयसे उत्पन्न है । आलयमे रमने आलयमे रत रहनेवाले और आलयमे ही प्रसन्न रहनेवालेको यह समझना कठिन है कि अमुक प्रत्ययसे अमुकको उत्पत्ति होती है । यह भी समझना कठिन है कि सभी संस्कारोके शान्त हो जानेसे, सभी उपाधियोके अन्न हो जानेसे, (और) तृष्णाके नाशसे, राग-रहित होना ही निर्वाण है । मै भी धर्मका उपदेश-करूँ, और दूसरे न समझे, तो यह मेरा व्यर्थका प्रयास और श्रम होगा । भिक्षुओ । तब विप्पस्सी भगवान्० को इन अश्रुतपूर्व आश्चर्यजनक गाथाओका भान हुआ—
बहुत कष्टसे मैंने इस धर्मको पाया है, इसका उपदेश करना ठीक नही ।
राग और द्वेषमे लिप्त लोगोको यह धर्म जल्दी समझमे नही आवेगा ॥१॥
उल्टी धारवाले, निपुण, गम्भीर, दुर्ज्ञेय और सूक्ष्म बातको रागोमे रत,
और अविद्या के अंधकारमे पळे (लोग) नही समझ सकते ॥२॥
“भिक्षुओ । इस प्रकार चिन्तन करते विपस्सी भगवान्० का चित्त धर्मके उपदेश करनेमे उत्साह रहित हो गया । भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० के चित्तको (अपने) चित्तसे जान महाब्रह्माके मनमे यह हुआ—‘अरे । लोक नष्ट हो जायेगा, लोक विनष्ट हो जायेगा, यदि विपस्सी भगवान्० का चित्त धर्मोपदेशके लिये उत्साह-रहित हो गया ।’ भिक्षुओ । तब महाब्रह्मा, जैसे कोई बलवान् पुरुष (अप्रयास) मोळी बाँहको पसारे और पसारी हुई बाँहको मोळे, वैसे ही ब्रह्मलोकमे अन्तर्धान हो विपस्सी भगवान्० के सामने प्रगट हुआ । भिक्षुओ । तब महाब्रह्मा चादरको एक कधेपर करके दाहिने घुटनेको पृथ्वीपर टेक, जिधर विपस्सी भगवान्० थे उधर हाथ जोळ प्रणामकर, विपस्सी भगवान्० से यह बोला—
‘भन्ते । भगवान् धर्मका उपदेश करे, सुगत धर्मका उपदेश करे, (संसारमे) चित्तमल-रहीत लोग भी है, धर्म नही सननेसे उनकी बळी हानि होगी, धर्मके जाननेवाले (प्राप्त) होगे ।’
“भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० ने महाब्रह्मासे कहा—‘ब्रह्मा । मैंने यह समझा था—यह धर्म गम्भीर०१ ।
‘ब्रह्मा । इस तरह चिन्तन करते हुये मेरा चित्त० उत्साह-रहित हो गया ।’
“दूसरी बार भी महाब्रह्मा० । तीसरी बार भी महाब्रह्माने विपस्सी भगवान्० से यह कहा—‘भन्ते । भगवान् धर्मका उपदेश करे० धर्मके जाननेवाले होंगे ।’ भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० ने ब्रह्माके भाव (=अध्याश) को समझ, प्राणियोपर करूणा करके बुद्ध-चक्षुसे संसारको देखा । भिक्षुओ । विपस्सी भगवान् ० ने बुद्ध-चक्षुसे संसारका विलोकन करते हुये, प्राणियोमे चित्तमल (=क्लेश)-रहित अधिक क्लेशवालो, तीक्ष्ण इन्द्रिय (प्रज्ञा) वाले, मृदु इन्द्रिय वाले, अच्छे आकार वाले, किसी बातको जल्दी समझने वाले और परलोकका भय खानेवाले लोगोको देखा । जैसे उत्पलके वनमे, या पद्मके वनमे, या पुण्डरीकके वनमे, कितने ही जलसे उत्पन्न, जलमे बढे, जलसे निकले कोई कोई उत्पल पद्म या पुण्डरीक जलके भीतर डूबे रहते है । ० कोई कोई उत्पल, पद्म या पुण्डरीक जलके बराबर रहते है, तथा ० कोई ० जलके ऊपर निकल कर जलसे अलिप्त खळे रहते है, वैसे ही भिक्षुओ । विपस्सी भगवानने संसारको बुद्ध-चक्षुसे अवलोकन करते हुये अल्प क्लेश-रहित, चित्तमल-रहित प्राणियोको० देखा । भिक्षुओ । तब महाब्रह्मा विपस्सी भगवान्०के चित्तकी बातको जानकर विपस्सी भगवान्०से गाथाओमे बोला—
“जैसे (कोई) पथरीले पहाळकी चोटीपर चढ, चारो ओर मनुष्योको देखे,
उसी तरह हे शोकरहित । धर्म रूपी प्रासादपर चढकर चारो ओर शोकसे पीडित,
जन्म और जरासे पीडित लोगोको देखो ।। ३ ।।
‘उठो वीर । हे संग्रामजित् । हे सार्थवाह । उऋण-ऋण । जगमे विचरो,
धर्म प्रचार करो, भगवान् । समझने वाले मिलैगे ।। ४ ।।’
“भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० ने महाब्रह्मासे गाथामे कहा—
‘ब्रह्मा । अमृतका द्वार उनके लिये खुल गया, जो श्रद्धापूर्वक (उपदेश) सुनेंगे । मेरा परिश्रम व्यर्थ जायगा,
यही समझकर मै लोगोको अपने सुन्दर और प्रणीत धर्मका उपदेश नही करना चाहता था ।।५।।’
“भिक्षुओ । तब महाब्रह्मा विपस्सी भगवान्० से धर्मोपदेश करनेका वचन ले विपस्सी भगवान्० को अभिवादनकर और प्रदक्षिणाकर वही अन्तर्धान हो गया ।
“भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० के मनमे यह हुआ—‘मै किसको पहले पहल धर्मोपदेश करूँ, कौन इस धर्मको शीघ्र जान सकेगा ?’ भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० के मनमे यह हुआ—पण्डित, व्यक्त, मेघावी, और बहुत दिनोसे निर्मल चित्त यह खण्ड राजपुत्र और तिस्स पुरोहितपुत्र बन्धुमती राजधानीमे रहते है । अत मै खण्ड० (और) तिस्स० को पहले पहल धर्मोपदेश करूँ, वे इस धर्मको शीघ्र ही समझ लेगे ।’ भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवानने० जैसे कोई बलवान् पुरूष० वैसे ही बोधिवृक्षके नीचे अन्तर्धान हो बन्धुमती राजधानीके खेमा मृगदावमे प्रकट हुये । भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० ने मालीसे कहा—‘उद्यानपाल । सुनो । बन्धुमती राजधानीमे जाकर खण्ड० और तिस्स० को ऐसा कहो—‘भन्ते । विपस्सी भगवान्० बन्धुमती राजधानीमे आये
हुये है, खेमामृगदावमे विहार कर रहे है । वे आप लोगोसे मिलना चाहते है ।’ भिक्षुओ । उद्यानपालने भी ‘अच्छा भन्ते ।’ कह विपस्सी भगवान्० को उत्तर दे बन्धुमती राजधानीमे जाकर खण्ड०और तिस्स० से यह कहा—‘भन्ते । विपस्सी भगवान्० बन्धुमती राजधानीमे आये हुये है, खेमा मृगदावमे विहार कर रहे है । वह आप लोगोसे मिलना चाहते है ।’
“भिक्षुओ । तब खण्ड० और तिस्स ० अच्छे अच्छ रथोको जीतवा अच्छे अच्छे रथोपर चढ, अच्छे अच्छे रथोके साथ बन्धुमती राजधानीसे निकलकर जहाँ खेमा मृगदाव था वहॉ गये । जितना रथसे जाने लायक रास्ता था उतना रथसे जाकर (फिर) रथसे उतर पैदल ही जहॉ विपस्सी भगवान्० थे वहॉ गये। जाकर विपस्सी भगवान्० को अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । विपस्सी भगवान्० न उनको आनुपूर्वी (=क्रमानुकूल) कथा कही—जैसे कि, दान-कथा, शील-कथा, स्वर्ग-कथा, भोगोके दोष, हानि और क्लेश तथा भोग-त्यागके गुण । जब भगवानने जान लिया कि वे अब स्वच्छ-चित्तके, मृदुचित्त नीवरणोसे-रहित-चित्त उदग्रचित्त और प्रसन्न-चित्त है, तब उन्होने बुद्धोके स्वयं जाने हुये ज्ञान दुख, समुदय, निरोध और मार्गका उपदेश किया । जैसे कालिमा-रहित शुद्ध वस्त्र अच्छी तरहसे रग पकळता है, उसी तरह खण्ड० और तिस्स० को उसी समय उसी आसनपर रागरहित निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हो गया—‘जो कुछ समुदयधर्मा (=उत्पन्न होनेवाला) है वह निरोध-धर्मा (=नाश होनेवाला) है ।’ उन्होने धर्मको देखकर, धर्मको प्राप्तकर, धर्मको जानकर, धर्ममे अच्छी तरह स्थित हो विचिकित्सा-दुविधा-रहित हो, शंकाओसे रहित हो, और शास्ताके धर्म (=शासन) मे परम विशारदताको प्राप्त हो विपस्सी भगवान्० से यह कहा—‘आश्चर्य भन्ते । अदभुत, भन्ते । जैसे उलटेको सीधा०१ उसी तरह भगवानन् अनेक प्रकारसे धर्मको प्रकाशित किया । भन्ते । हम लोग आपकी शरण जाते है और धर्मकी भी । भन्ते । भगवानके पास हम लोगोको प्रब्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले ।’
“भिक्षुओ । खण्ड० और तिस्स० ने विपस्सी० भगवान् के पास प्रब्रज्या पाई, उपसम्पदा पाई । विपस्सी भगवान्० ने उन दोनोको धार्मिक कथाओसे सच्चे धर्मको दिखाया, प्रमुदित किया, उत्साहित किया और संतुष्ट किया । संस्कारोके दोष, अपकार और क्लेश, और निर्वाणके गुण प्रकाशित किये । विपस्सी भगवान्० के सच्चे धर्मको दिखानेसे० शीघ्र ही उनके चित्त आस्त्रवोसे बिल्कुल रहित हो गये ।
“भिक्षुओ । बन्धुमती राजधानीके चौरासी हजार मनुष्योने सुना—‘विपस्सी भगवान्० बन्धुमती राजधानीमे आकर खेमा मृगदावमे विहारकर रहे है । खण्ड० और तिस्स० विपस्सी भगवान्० के पास शिर दाढी मुळा० प्रब्रजित हो गये है ।’ सुनकर उन लोगोके मनमे यह हुआ—‘वह धर्म मामूली नही होगा, वह प्रब्रज्या भी मामूली नही होगी, जहॉ खण्ड० और तिस्स० शिर और दाढी मुँळा० प्रब्रजित हो गये है । जब खण्ड० और तिस्स० शिर और दाढी मुळा० प्रब्रजित हो गये है, तो हम लोगोको क्या है ?’
“भिक्षुओ । तब वे चौरासी हजार लोग बन्धुमती राजधानीसे निकल, जहॉ खेमा मृगदाव था (और) जहाँ विपस्सी भगवान्० थे, वहॉ गये । जाकर विपस्सी भगवान्० को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये । विपस्सी भगवान्० ने उन लोगोको आनुपूर्वी कथा कही—जैसे दानकथा०२ । जब भगवानने जान लिया कि ये अब स्वच्छ-चित्त० हो गये है, तब उन्होने बुद्धोके स्वयं जाने हुये ज्ञान—दुख० मार्गका प्रकाश किया । जैसे शुद्ध वस्त्र० धर्म-चक्षु उत्पन्न हो गया । धर्मको देख० विशारदताको प्राप्तकर विपस्सी भगवान्० से यह कहा—आश्चर्य भन्ते । अद्भुत, भन्ते । ० हम लोग भगवानकी शरणमे जाते है, धर्म और संघकी भी, भन्ते । प्रब्रज्या० ।
“भिक्षुओ । उन चौरासी हजार लोगोने विपस्सी भगवान्० के पास प्रब्रज्या ० पाई । विपस्सी भगवान्० ने उनको धार्मिक कथाओसे० चित्तके आस्त्रव बिल्कुल नष्ट (=क्षीण) हो गये ।
“भिक्षुओ । तब पहलेवाले चौरासी हजार प्रब्रजितोने (जो विपस्सी कुमारके साथ प्रब्रजित हुये थे) सुना—‘विपस्सी भगवान्०’ भिक्षुओ । तब वे ० अभिवादनकर एक और बैठ गये । विपस्सी भगवान्० ने उनको०। ० ० चितके आस्त्रव बिलकुल नष्ट हो गये ।
(८) शिष्यो द्वारा धर्मप्रचार
“भिक्षुओ । उस समय बन्धुमती राजधानीमे अळसठ लाख भिक्षुओका महासंघ निवास करता था । भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान् को एकान्तमे ध्यानावस्थित होते समय चित्तमे यह विचार उत्पन्न हुआ—‘इस समय बन्धुमती राजधानीमे अळसठ लाख० निवास करता है । अत मै भिक्षुओको कहूँ—भिक्षुओ । चारिकाके लिये जाओ, लोगोके हितके लिये, लोगोके सुखके लिये संसारके लोगोपर अनुकम्पा करनेके लिये, देव और मनुष्योके लाभ हित (और) सुखके लिये विचरो । एक मार्गसे दो मत जाओ । भिक्षुओ । आदि-कल्याण, मध्य-कल्याण, अन्त-कल्याण, अर्थयुक्त, स्पष्ट अक्षरोसे धर्मका उपदेश करो, बिल्कुल परिपूर्ण, (और) परिशुद्ध ब्रह्मचर्यको प्रकाशित करो । ऐसे निर्मल मनुष्य है, जिनकी धर्मके नही सुननेसे हानि होगी । वह धर्मके समझनेवाले होगे । और, छै, छै वर्षोके बाद बन्धुमति राजधानीमे प्रातिमोक्षके वाचनके लिये आना ।’ तब महाब्रह्मा विपस्सी भगवान्० के चित्त० को जान० प्रगट हुआ। भिक्षुओ । तब महाब्रह्मा चादरको एक कधे पर० यह बोला ।—‘ऐसा ही है भगवान् । ऐसा ही है सुगत । बन्धुमति राजधानीमे (अभी) अळसठ लाख० निवास करता है । भन्ते । भगवान् । भिक्षुओको कहे—भिक्षुओ । चारिका करनेके लिये जावो० बन्धुमति राजधानीमे प्रातिमोक्ष-वाचनके लिये आना ।’ भिक्षुओ । महाब्रह्माने ऐसा कहा । यह कहकर विपस्सी भगवान्० को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर वही अन्तर्धान हो गया ।
“भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० न सायकाल ध्यानसे उठकर भिक्षुओको संबोधित किया—“भिक्षुओ । यहॉ एकान्तमे० विचार उत्पन्न हुआ—अभी बन्धुमति राजधानीमे अळसठ लाख० । तो मै भिक्षुओको कहूँ,—‘ भिक्षुओ । चारिकाके लिये ०। ० प्रातिमोक्ष-वाचनके लिये आना । भिक्षुओ । तब महाब्रह्मा०। यह कर मेरा अभिवादनकर (और) प्रदक्षिणाकर वही अन्तर्धान हो गया । भिक्षुओ । मै कहता हूँ —‘चारिकाके लिये ०। प्रातिमोक्ष० आना’ ।
“भिक्षुओ । तब उन भिक्षुओने एक ही दिनमे देहात (=जनपद) मे चारिका करनेके लिये चल दिया । भिक्षुओ । उस समय जम्बूद्वीपमे चौरासी हजार आवास (=मठ) थे । एक वर्ष के बीतने पर देवताओने (आकाश—) वाणी सुनाई—‘हे मार्षो१ । एक वर्ष निकल गया, अब पाँच वर्ष और बाकी है, पाँच वर्षोके बीतनेपर प्रातिमोक्षके वाचनके लीये बन्धुमति राजधानी जाना’ । दो वर्षोके बीतनेपर०। ०तीन वर्षोके ०।० चार वर्षोके ० ० पाँच वर्षोके ० । ० छै वर्षोके बीतनेपर देवताओने० सुनाई—‘मार्षो । छै वर्ष बीत गये। समय हो गया, प्रातिमोक्षके वाचनके लिये० जाये’ ।— भिक्षुओ । तब कितने भिक्षु अपनी ऋद्धिके बलसे, कितने देवताओकी ऋद्धिके बलसे एक ही दिनमे बन्धुमति राजधानीमे प्रातिमोक्षके वाचनके लिये चले आये । भिक्षुओ । तब विपस्सी भगवान्० ने भिक्षु-संघके लिये इस प्रकार प्रातिमोक्षका उद्देश (=पाठ) किया ।
तितिक्षा और क्षमा परम तप है, बुद्ध लोग निर्वाणको सर्वोतम बतलाते है।
प्रब्रजित श्रमण न तो दूसरेको हानि पहुँचाता है और न दूसरेको कष्ट देता है ।।६।।
‘सभी पापोका न करना, पुण्य कर्मोका करना,
(और) अपने चित्तकी शुद्धि, यही बुद्धोका उपदेश है ।।७।।
‘कठोर, दुर्वचनका न कहना, दूसरोकी हिंसा न करनी, प्रातिमोक्षमे संयम,
मात्रासे भोजन अरण्यमे निवास, समाधि-अभ्यास, यही बुद्धोका शासन है ।।८।।
(६) देवता साक्षी
“भिक्षुओ । एक समय मै उक्कट्ठाके पास सुभगवनमे सालराज वृक्षके नीचे विहार कर रहा था । भिक्षुओ । उस समय एकान्तमे ध्यान करते मेरे चित्तमे यह विचार उत्पन्न हुआ—‘शुद्धावास देवोको छोळकर कोई ऐसी योनि (=सत्वावास) नही है, जिसमे मैने इस दीर्घ कालमे जन्म नही लिया । अत मै वहॉ जाऊँ जहॉ शुद्धावास देवता रहते है । भिक्षुओ । तब मै जैसे बलवान् पुरूष० अबृह (अविह)-देवोमे१ प्रगट हुआ । भिक्षुओ । उस देवनिवासके अनेक सहस्त्र देवता मेरे पास आये । आकर मुझे अभिवादन कर एक ओर खळे हो गये । एक ओर खळे हो उन देवताओने मुझसे कहा—मार्ष । आजसे इकानवे कल्प पहले२ विपस्सी भगवान्० संसारमे उत्पन्न हुये थे । विपस्सी० क्षत्रिय जाति०। विपस्सी० कोण्डञ्ञगोत्रके०।० अस्सी हजार वर्ष आयु परिमाण०।० पाटलि वृक्षके नीच बोधि०।० उनके खण्ड और तिस्स नामक श्रावक ० । ० तीन शिष्य-सम्मेलन०, अशोक नामक भिक्षु उपस्थाक । ० बन्धुमान् नामक राजा पिता, बन्धुमती देवी माता ०।० बन्धुमती नाम नगरी राजधानी । विपस्सी भगवान्० के इस प्रकार निष्क्रमण, इस प्रकार प्रब्रज्या, इस प्रकार प्रधान (=बुद्धत्व प्राप्तिके लिये तप), इस प्रकार ज्ञान-प्राप्ति, और इस प्रकार धर्म-चक्र-प्रवर्तन हुये थे । मार्ष । सो हम लोग विपस्सी भगवानके शासनमे ब्रह्मचर्यका पालन करके, सांसारिक भोग-इच्छाओ (=काम-च्छन्दो) से विरक्त हो, यहॉ उत्पन्न हुये है ।०
“भिक्षुओ । उसी देवलोकमे जो अनेक सहस्त्र और अनेक लक्ष देवता थे, वे मेरे पास आये ।० खळे हो गये ।० कहा—मार्ष इसी भद्रकल्पमे आप स्वयं भगवान्० उत्पन्न हुये है । मार्ष । भगवान् क्षत्रिय जाति०।० गौतम गोत्र ०।० कम और छोटी आयु-परिमाण, जो बहुत जीता है वह सौ वर्ष, कुछ कम या अधिक ।० पीपल वृक्ष ०।० सारिपुत्त और मोग्गलान प्रधान शिष्य०० बारह सौ पचास भिक्षुओका एक शिष्य-सम्मेलन०।० आनन्द भिक्षु उपस्थाक ०।० शुद्धोदन नामक राजा पिता, मायादेवी माता ०।० कपिलवस्तु राजधानी ०।० इस प्रकार निष्क्रमण००। हे मार्ष । सो हम लोग आपके शासनमे ब्रह्मचर्य पालनकर ० यहॉ उत्पन्न हुये है ।
“भिक्षुओ । तब मै अबृह देवोके साथ जहाँ अतप्य देव थे, वहॉ गया ।०
“भिक्षुओ । तब मै अबृह और अतप्य देवोके साथ जहॉ सुदर्श देव थे वहॉ गया ०।० जहॉ अकनिष्ट देव थे वहॉ गया ।० खळे हो गये । भिक्षुओ । एक ओर खळे हो उन देवताओने मुझे ऐसा कहा, “०विपस्सी भगवान्० । भिक्षुओ । उसी देवलोकमे जो अनेक सहस्त्र० आये० ने कहा—‘मार्ष । आजसे इकतीस कल्प पहले सिखी भगवान्०।० उसी कल्पमे वेस्सभू भगवान्०, ० ककुसन्ध, कोणागमन, कस्सप०,० यहॉ उत्पन्न हुये है । ०० ने कहा, हे मार्ष । इसी भद्रकल्पमे आप स्वयं भगवान्० ।
“भिक्षुओ । चूँकि तथागतने धर्मधातुको अवगाहन कर लिया है जिस धर्मधातुके अवगाहन (=सुप्रतिबेध) के कारण तथागत निर्वाण प्रात्प अतीत बुद्धोको, ० जन्मसे भी, नामसे भी० ।”
भगवानने यह‘ कहा । प्रसन्नचित्त हो उन भिक्षुओने भगवानके भाषणका अभिनन्दन किया ।