दीध-निकाय

15. महानिदान-सुत्त (२।२)

१—प्रतोत्य-समुत्पाद । २—नाना आत्मवाद । ३—अनात्मवाद । ४—प्रज्ञाविमुक्त । ५—उभयतो भाग विमुकत ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् कुरुदेशमे, कुरुओके निगम (=कस्बे) कम्मास दम्म (=कल्माषदम्य)मे विहार करते थे ।

तब आयुष्मान् आनन्द जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—

१—प्रतीत्य समुत्पाद

“आश्चर्य है, भन्ते । कितना गम्भीर है, और गम्भीर-सा दीखता है, यह प्रतीत्य-समुत्पाद परन्तु मुझे साफ साफ (=उत्तान) जान पळता है ।”

“ऐसा मत कहो आनन्द । ऐसा मत कहो आनन्द । आनन्द । यह प्रतीत्य-समुत्पाद गम्भीर है, और गम्भीर-सा दीखता (भी) है । आनन्द इस घर्मके न जाननेसे=न प्रतिबेघ करनेसे ही, यह प्रजा (=जनता) उलझे सूतसी, गॉठे पळी रस्सीसी, मूँज-वल्वज (=भाभळ)सी, अप्-आय=दुर्गति=पतन (=वि-निपात) को प्राप्त हो, संसारमे नही पार हो सकती ।

“आन्नद । ‘क्या जरा-मरण स-कारण है ?’ पूछनेपर, ‘है’ कहना चाहिये । ‘किस कारणसे जरा-मरण होता है’ यह पूछे तो, ‘जन्मके कारण जरा-मरण होता है’ कहना चाहिये । ‘क्या जन्म (=जाति) स-कारण है’ पूछनेपर, ‘है’ कहना चाहिये । ‘किस कारणमे जन्म होता है’ पूँछनेपर, ‘भव-(=आवागमन)के कारण जन्म’ कहना चाहिये । ‘क्या भव स-कारण है’ पूछनेपर, ‘है’ ०। ‘किस कारणसे भव होता है’ पूछे, तो ‘उपादान (=आसक्ति)के कारण भव ०’ । ‘क्या उपादान स-कारण है ?’ पूछनेपर, ‘है’ ०। ‘किस कारणमे उपादान होता है’ पूछे तो, ‘तृष्णाके कारण उपादान’ ०।० वेदनाके कारण तृष्णा ०।० स्पर्श (=इन्द्रिय-विषय-संयोग)के कारण वेदना ०।० नामरुपके कारण स्पर्श ०।० विज्ञानके कारण नाम-रुप ०।० नाम-रुपके कारण विज्ञान ०।

“इस प्रकार आनन्द । नाम-रुपके कारण विज्ञान है, विज्ञानके कारण नाम-रुप है । नाम-रुपके कारण स्पर्श है । स्पर्शके कारण वेदना हे । वेदनाके कारण तृष्णा है । तृष्णाके कारण उपादान है । उपादानके कारण भव है । भवके कारण जन्म (=जाति) है । जन्मके कारण जरा-मरण है । जरा-मरणके कारण शोक, परिदेव (=रोना पीटना), दुख, दौर्मनस्य (=मन संताप) उपायास (=परेशानी) होते है । इस प्रकार इस केवल (=सम्पूर्ण)-दुख-पुज (रुपी लोक) का समुदय (=उत्पत्ति) होता है ।

“आनन्द । ‘जन्मके कारण जरा-मरण’ यह जो कहा, इसे इस प्रकार जानना चाहिये । यदि आनन्द । जन्म न होता तो सर्वथा बिल्कुल ही सब किसीकी कुछ भी जाति न होती, जैसे—देवो-

का देवत्व, गन्धर्वोका गन्घर्वत्व, यक्षोका यक्षत्व, भूतोका भुतत्व, मनुष्योका मनुष्यत्व, चतुष्पदो (=चौपायो)का चतुष्पदत्व, पक्षियोका पक्षित्व, सरीसृपो (=रेगनेवालो)का सरीसृपत्व, उन उन प्राणियो (=सत्त्वो)का वह होना । यदि जन्म न होता, सर्वथा जन्मका अभाव होता’ जन्मका निरोघ (=विनाश) होता, तो क्या आनन्द । जरा-मरण दिखलाई पळेगा ?”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । जरा-मरणका यही हेतु=निदान=समुदय=प्रत्यय है, जो कि यह जन्म ।

“ ‘भव के कारण जाति होती है’, यह जो कहा इसे आनन्द । इस प्रकार जानना चाहिये ० । यदि आनन्द । सर्वथा ० सब किसीका कोई भव (=आवागमनका स्थान) न होता, जैसे कि काम-भव, १ रुप-भव, अ-रुप-भव; तो भवके सर्वथा न होनेपर, भवके सर्वथा अभाव होनेपर, भवके निरोध होनेपर, क्या आनन्द । जन्म दिखाई पळता ?”

“नही भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । जन्मका यही हेतु है, जो कि यह भव ।”

“ ‘उपादान (=आसक्ति)के कारण भव होता है’ यह जो कहा, इसे आनन्द । इस प्रकार जानना चाहिये ० । यदि आनन्द । सर्वथा ० किसीका कोई उपादान न होता, जैसे कि—काम-उपादान (=भोगमे आसक्ति), दृष्टि-उपादान (=धारणा०), शील-व्रत-उपादान या आत्मवाद-(=आत्माके नित्यत्त्वका) उपादान; उपादानके सर्वथा न होनेपर० क्या आनन्द । भव होता ?”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । भवका यही हेतु है०, जो कि यह उपादान ।

“ ‘तृष्णाके कारण उपादान होताहै’ ० । यदि आनन्द । सर्वथा ० तृष्णा न होती, जैसे कि—रुप-तृष्णा, शब्द-तृष्णा, गन्घ-तृष्णा रस-तृष्णा, स्प्रष्टव्य (=स्पर्श)-तृष्णा, घर्म (=मनका विषय)-तृष्णा, तृष्णाके सर्वथा न होनेपर० कया आनन्द । उपादान जान पळता ?”

“नही, भन्ते ।”

“इसलीये आनन्द । उपादानका यही हेतु है ०, जो कि यह तृष्णा ।

“वेदनाके कारण तृष्णा है’ ० । यदि आनन्द । सर्वथा ० वेदना न होती, जैसे कि—चक्षु-सस्पर्श (=चक्षु और रुपके योग)से उत्पन्न वेदना, श्रोत्र-सस्पर्शसे उत्पन्न वेदना, घ्राण-सस्पर्शसे उत्पन्न वेदना, जिह्वा-सस्पर्शसे उत्पन्न वेदना, काय-सस्पर्शसे उत्पन्न वेदना, मन-सस्पर्शसे उत्पन्न वेदना, वेदनाके सर्वथा ० न होनेपर० क्या आनन्द । तृष्णा जान पळती ?”

“नही भन्ते ।”

“इसीलिये आनन्द । तृष्णाका यही हेतु है०, जो कि यह वेदना ।

“इस प्रकार आनन्द । वेदनाके कारण तृष्णा, तृष्णाके कारण पर्येपणा (=खोजना), पर्येपणाके कारण लाभ, लाभके कारण विनिश्चय (=दृढ-विचार), विनिश्चयके कारण छन्द-राग (=प्रयत्नकी इच्छा), छन्द-रागके कारण अघ्यवसान (=प्रयत्न), अघ्यवसानके कारण परिग्रह (=जमा करना), परिग्रहके कारण मात्सर्य (=कंजूसी), मात्सर्यके कारण आरक्षा (=हिफाजत), आरक्षाके कारण ही ढङ-ग्रहण, शस्त्र-ग्रहण, कलह, विग्रह, ‘तूँ तूँ मै मै (=तुव तुव), चुगली, झूठ बोलना, अनेक पाप=बुराइयॉ (=अ-कुशल-धर्म) होती है ।

“आनन्द । ‘आरक्षाके कारण ही दङ-ग्रहण ० ० बुराइयॉ होती है’ यह जो कहा, उसे इस

प्रकारसे भी जानना चाहिये० । यदि सर्वथा० आरक्षा न होती, तो सर्वथा आरक्षाके न होनेपर०, क्या आनन्द । दड-ग्रहण० बुराइयॉ होती ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । यह जो आरक्षा हे, यही इस दड-ग्रहण० पापो=बुराइयोकी उत्पत्तिका हेतु=निदान=समुदय=प्रत्यय है ।

“ ‘मात्सर्य (=कंजूसी) के कारण आरक्षा है’ यह जो कहा, सो इसे आनन्द । इस प्रकार जानना चाहिये० । यदि आनन्द । सर्वथा किसीको, कुछ भी मात्सर्य न होता, तो सब तरह मात्सर्यके अभावमे=मात्सर्य=कंजूसीके निरोधसे, क्या आरक्षा देखने आती ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । आरक्षाका यही हेतु०, जो कि यह कंजूसी ।

“ ‘परिग्रह (=जमा करना)के कारण कंजूसी है०’ । यदि आनन्द । सर्वथा किसीका कुछ भी परिग्रह न होता०, क्या कंजूसी दिखाई पळती ॽ ० । ० ।

“‘अध्यवसानके कारण परिग्रह है’ ० । यदि आनन्द । सर्वथा किसीका कुछ भी अध्यवसान न होता०, क्या परिग्रह (=बटोरना) देखनेमे आताॽ ० । ० ।

“ ‘छन्द-रागके कारण अध्यवसान होता है’ ० । क्या अध्यवसान देखनेमे आता ॽ ० । ० ।

“विनिश्चयके कारण छन्द-राग होता है’ ० ।

“लाभके कारण विनिश्चय है’ ० । यदि आनन्द । सर्वथा किसीको कही कुछ भी लाभ न होता०, क्या विनिश्चय दिखाई देता ॽ ० । ० ।

“ ‘पर्येपणाके कारण लाभ होता है’ ० । ०क्या लाभ दिखाई देताॽ ० । ० ।

“ ‘तृष्णाके कारण पर्येपणा होती’ ० । ०क्या पर्येपणा दिखाई देती ॽ ० । ० ।

“ ‘स्पर्शके कारण तृष्णा होती है’ ० । ०क्या तृष्णा दिखाई देती ॽ ० । ० ।

“ ‘नाम-रूपके कारण स्पर्श होता हे’ ० । यह जो कहा, इसको आनन्द । इस प्रकारसे जानना चाहिये—जैसे नाम-रूपके कारण स्पर्श होता है, जिन आकारो=जिन लिगो=जिन निमित्तो=जिन उद्देशोसे नाम-काय (=नाम-समुदाय) का ज्ञान होता है, उन आकारो, उन लिंगो, उन निमित्तो, उन उद्देशोके न होने पर, क्या रूप-काय (=रूप-सुमदाय)का अधि-वचन (=नाम) देखा जाता ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“आनन्द । जिन आकारो, जिन लिगो, ० से रूप-कायका ज्ञान होता है, उन आकारो०के न होनेपर, क्या नाम-कायमे प्रतिघ-सस्पर्श (=रोकका योग) दिखाई पळता ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“आनन्द । जिन आकारो०से नाम-काय और रूप-कायका ज्ञान होता है, उन आकारो०के न होनेपर, क्या अधिवचन-सस्पर्श या प्रतिघ-सस्पर्श दिखाई पळता ॽ”

“नही, भन्ते । ”

“आनन्द । जिन आकारो, जिन लिगो, जिन निमित्तो, जिन उद्देश्योसे नाम-रूपका बोलना (=प्रज्ञापन) होता है, उन आकारो, उन लिगो, उन निमित्तो, उन उद्देशोके अभावमे क्या स्पर्श (=योग) दिखाई पळता ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । स्पर्शका यही हेतु=यही निदान=यही समुदय=यही प्रत्यय है, जो कि नाम-रूप ।

“ ‘विज्ञानके कारण नाम-रूप होता है०’ । यदि आनन्द । विज्ञान (=चित्त-धारा, जीव) माताके कोखमे नही आता, तो क्या नाम-रूप सचित होता ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“आनन्द । (यदि केवल) विज्ञान ही माताकी कोखमे प्रवेश कर निकल जाये, तो क्या नाम-रूप (कहना) इसके लिये बनेंगा ॽ” “नही, भन्ते ।”

“कुमार या कुमारीके अति-शिशु रहते ही यदि विज्ञान छिन्न हो जाये, तो क्या नाम-रूप वृद्धि=विरूढि=विपुलताको प्राप्त होगा ॽ” “नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । नाम-रूपका यही हेतु० है, जो कि विज्ञान ।”

“ ‘नाम-रूपके कारण विज्ञान होता है’ ० । ० । आनन्द । यदि विज्ञान नाम-रूपमे प्रतिष्ठित न होता, तो क्या भविष्यमे (=आगे चलकर) जन्म, जरा-मरण, दुख-उत्पत्ति दिखाई पळते ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । विज्ञानका यही हेतु० है, जो कि नाम-रूप । आनन्द । यह जो विज्ञान-सहित नाम-रूप है, इतनेहीसे जन्मता, बूढा होता, मरता=च्युत होता, उत्पन्न होता है, इतनेहीसे अधिवचन (=नाम=संज्ञा)-व्यवहार, इतनेहीसे निरूक्ति (=भाषा)-व्यवहार, इतनेहीसे प्रज्ञा (=ज्ञान)-विषय है, इतनेहीसे ‘इस प्रकार’ का जतलानेके लिये मार्ग वर्तमान है ।

२—नाना आत्मवाद

“आनन्द । आत्माको प्रज्ञापन (=जतलाना) करनेवाला (पुरूष) कितनेसे (उसे) प्रज्ञापन (=जताना) करता है ॽ (१) रूपवान् सूक्ष्म आत्माको प्रज्ञापन करते हुए—‘मेरा आत्मा रूप-वान् (=भौतिक) और सूक्ष्म (=क्षुद्र=अणु) है’ प्रज्ञापन करता है । (२) रूप-वान् और अनन्त प्रज्ञापन करते हुये ‘मेरा आत्मा रूपवान् और अनन्त है’ प्रज्ञापन करता है । (३) रूप-रहित अणु (=परित्त) आत्मा कहते हुये ‘मेरा आत्मा अ-रूप(=अभौतिक) अणु है’ कबता है । (४) रूप-रहित अनन्तको आत्मा मानते हुये ‘मेरा आत्मा अ-रूप अनन्त है’ कहता है ।

(१) “वहॉ जो आनन्द । आत्माको प्रज्ञापन करते हुये आत्माको रूप-वान् अणु (=परित्त) कहता है, सो वर्तमानके आत्माको प्रज्ञापन करता हुआ, रूप-वान् अणु कहता है, या भावी आत्माको० रूप-वान् अणु कहता है, या उसको होता हे कि, ‘वैसा नही (=अ-तथ) को उस प्रकारका कहूँ ।’ ऐसा होनेपर आनन्द । ‘आत्मा रूप-वान् अणु है’ इस दृष्टि (=धारणा)को पकळता है—यही कहना योग्य है ।

(२) “वह जो आनन्द । आत्माको प्रज्ञापन करते हुये ‘रूप-वान् अनन्त आत्मा’ कहता है, सो वर्तमानके आत्माको प्रज्ञापन करते हुये ‘रूप-वान् अनन्त’ कहता है, या भावी आत्माको० रूप-वान् अनन्त कहता है, या उसके (मनमे) होता है ‘वैसा नहीकी वैसा कहूँ । ऐसा होनेपर वह आनन्द । ‘आत्मा रूप-वान् अनन्त है’ इस दृष्टि (=धारणा) को पकळता है—यही कहना योग्य है ।

(३) “वह जो आनन्द । ० ‘आत्मा रूप-रहित अणु है’ कहता है । वह वर्तमानके आत्माको० कहता है, या भावीको०, या उसको होता है, कि—‘वैसा नहीको वैसा कहूँ’ । ० ।

(४) “वह जो आनन्द । ० ‘आत्मा रूप-रहित अनन्त है’ कहता है । ० । ० ।

“आनन्द । आत्माको प्रज्ञापन करनेवाला इन्ही (चारोमेसे एक प्रकारसे) प्रज्ञापन करता है ।

३—अनात्मवाद

“आनन्द । आत्माको न प्रज्ञापन करनेवाला, कैसे प्रज्ञापन नही करता ॽ—आनन्द । ‘आत्माको रूप-वान् अणु’ न प्रज्ञापन करनेवाला (तथागत) ‘मेरा आत्मा रूप-वान् अणु है’ नही कहता । आत्माको ‘रूप-वान् अनन्त’ न प्रज्ञापन करनेवाला ‘मेरा आत्मा रूप-वान अनन्त है’ नही कहता ।

आत्माको ‘रूप-रहित अणु’ न प्रज्ञापन करनेवाला ‘मेरा आत्मा रूप-रहित अणु है’ नही कहता । आत्माको ‘रूपरहित अणु’ न प्रज्ञापन करनेवाला ‘मेरा आत्मा रूप-रहित अनन्त है नही कहता ।

“आनन्द ’ जो वह आत्माको ‘रूप-वान्-अणु’ न प्रज्ञापन करनेवाला, ० प्रज्ञापन नही करता, सो या तो आजकल (=वर्तमान)के आत्माको रूप-वान् अणु प्रज्ञापन नही करता, या भावी आत्माको० प्रज्ञापन नही करता, या ‘वैसा नहीकी वैसा कहूँ’ यह भी उसको नही होता । ऐसा होनेसे (वह) आनन्द। ‘आत्मा रूप-वान् अणु है’ उस दृष्टिको नही पकळना—यही कहना चाहिये ।

“आनन्द ’ जो वह आत्माको ‘रूप-वान् अनन्त’ न प्रज्ञापन करनेवाला, प्रज्ञापन नही करता, सो या तो र्वतमान आत्माको रूप-वान् अनन्त प्रज्ञापन नही करता०, ० । ऐसा होनेसे (वह) आनन्द। ‘आत्मा रूप-वान् अनन्त है’ उस दृषिटको नही पकळता, यही कहना चाहिये ।

“आनन्द । जो वह आत्माको ‘रूप-रहित-अणु’ न प्रज्ञापन करनेवाला, ० प्रज्ञापन नही करता, सो या तो र्वतमान आत्माको रूप-रहित अणु न माननेसे, प्रज्ञापन नही करता है, ० भावी ० । ऐसा होनेसे आनन्द । वह आत्मा ‘रूप-रहित अणु है’ इस दृष्टिको नही पकळना, यही कहना चाहिये ।

“आनन्द । जो वह आत्माको ‘रूप-रहित अनन्त न बतलानेवाला, (कुछ) नही कहता, सो र्वतमान आत्माको रूप-रहित अनन्त न बतलानेवाला हो, नही कहता है, ० भावी ०, ‘वैसा नहीकी वैसा कह’ यह भी उसको नही होता । ऐसा होनेसे आनन्द । यही कहना चाहिये, कि वह ‘आत्मा रूप-रहित अनन्त है’ इस दृष्टिको नही पकळता ।

“इन कारणोसे आनन्द । अनात्म-वादी (आत्माकी प्रज्ञप्ति) नही करता ।

“आनन्द । किस कारणसे आत्मवादी (आत्माको) देखता हुआ देखता है ॽ आत्मदशी देखते हुये वेदनोको ही ‘वेदना मेरा आत्मा है समझता है । अथवा ‘वेदना मेरा आत्मा नही, असंवेदन (=न अनुभव) मेरा आत्मा है’ ऐसा समझता है अथवा —‘न ‘वेदना मेरा आत्मा है, न अप्रतिसंवेदना मेरा आत्मा है, मेरा आत्मा वेदित होता है, (अत) वेदना-धर्म-वाला मेरा आत्मा है । आनन्द । (इस कारणसे) आत्मवादी देखता हुआ देखता है ।

“आनन्द । वह जो यह कहता है—‘वेदना मेरा आत्मा है’ उसे पूछना चाहिये—‘आवुस’ तीन वेदनाये है, सुखा-वेदना, दुखा-वेदना, अदुख-असुख-वेदना, इन तीनो वेदनाओमे किसको आत्मा मानते हो ॽ’ जिस समय आनन्द । सुखा-वेदनाको वेदन (=अनुभव) करता है, उस समय न दुखा-वेदनाको अनुभव करता है, नही अदुख-असुखा-वेदनाको अनुभव करता है। सुखा-वेदनाहीको उस समय अनुभव करता है। जिस समय दुखा-वेदनाको० । जिस समय अदुख-असुखा-वेदनाको० ।

“सुखा-वेदना भी, आनन्द । अनित्य=संस्कृत (=कृत)=प्रतीत्य-समुत्पत्र (=कारणसे उत्पन्न)=क्षय-धर्मवाली=व्यय-धर्मवाली, विराग-धर्मवाली, निरोध-धर्मवाली है । दुखा-वेदना भी आनन्द । ०, अदुख-असुख वेदना भी० । उसको सुखा-वेदना अनुभव करते समय ‘यह मेरा आत्मा है’ होता है । उसी सुखा-वेदनाके निरोध होनेसे ‘विगत हो गया मेरा आत्मा’ ऐसा होता है । दुखा-वेदना अनुभव करते० । अदुख-असुख-वेदना अनुभव करते ‘यह मेरा आत्मा है’ होता है । उसी अदुख-असुख-वेदनाके निरूद्ध (=विनष्ट, विगत, विलीन) होनेपर ‘मेरा आत्मा विगत हो गया’ होता है । जो ऐसा कहता है, कि ‘वेदना मेरा आत्मा है’ इस प्रकार आनन्द । वह इसी जन्ममे आत्माको अ-नित्य, सुख, दुख, (या) मिश्रित (=व्यवकीर्ण), उत्पत्तिमान्=व्यय (=विनाश) शील देखता है । इसलिये भी आनन्द। उसका (ऐसा कहना) कि ‘वेदना मेरा आत्मा है’ ठीक नही ।

“आनन्द । जो वह ऐसा कहता है—‘वेदना मेरा आत्मा नही, अ-प्रति-संवेदना मेरा आत्मा

है,' उससे यह पूछना चाहिये—'आवुस । जहाँ सब कुछ अनुभव (=वेदयित) है, क्या वहाँ 'मै हूँ' यह होता है ॽ”

“नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । इससे भी यह समझना ठीक नही—'वेदना आत्मा नही है, अ-प्रतिसंवेदना मेरा आत्मा है ।'

“आनन्द । जो वह यह कहता है—'न वेदना मेरा आत्मा है, और न अ-प्रति-संवेदना मेरा आत्मा है, मेरा आत्मा वेदित होता है (=अनुभव किया जाता है), वेदना-धर्मवाला मेरा आत्मा है ।' उसे यह पूछना चाहिये—'आवुस । यदि वेदनाये सारी सर्वथा बिल्कुल नष्ट हो जाये, तो वेदनाके सर्वथा न होनेसे, वेदनाके निरोध होनेसे, क्या वहाँ 'मै हूँ' यह होगा ॽ” “नही, भन्ते ।”

“इसलिये आनन्द । इससे भी यह समझना ठीक नही कि—'न वेदना मेरा आत्मा है, और न अ-प्रतिसंवेदना० वेदना-धर्मवाला मेरा आत्मा है ।'

“चूकि आनन्द । भिक्षु न वेदनाको आत्मा समझता है, न अ-प्रतिसंवेदनाको०, और नही 'आत्मा मेरा वेदित होता है, वेदना-धर्मवाला मेरा आत्मा है’ समझता है । इस प्रकार समझ, लोकमे किसीको (मै और मेरा करके) नही ग्रहण करता । न ग्रहण करने वाला होनेसे त्रास नही पाता । त्रास न पानेसे स्वंय परि-निर्वाणको प्राप्त होता है । (तब)—'जन्म खतम हो गया, ब्रह्मचर्य-वास (पूरा) हो चुका, कर्तव्य कर चुका, और कुछ यहाँ (करणीय) नही' (-इसे) जानता है । ऐसे मुक्त-चित्त भिक्षुके बारेमे जो कोई ऐसा कहे—'मरनेके बाद तथागत होता है—यह इसकी दृष्टि है' सो अयुक्त है । 'मरनेके बाद तथागत नही होता है—यह इसकी दृष्टि है'—सो अ-युक्त है । 'मरनेके बाद तथागत होता भी है, नही भी होता है—यह इसकी दृष्टि है'—सो अयुक्त है । 'मरनेके बाद तथागत न होता है, न नही होता है—यह इसकी दृष्टि है'—सो अयुक्त है । सो किस कारण ॽ जितना भी आनन्द । अधिवचन (=नाम, संज्ञा), जितना वचन-व्यवहार, जितनी निरुक्ति (=भाषा), जितना भी भाषा-व्यवहार, जितनी प्रज्ञप्ति (=रूढि), जितना भी प्रज्ञप्ति-व्यवहार, जितनी भी प्रज्ञा (=ज्ञान), जितना भी प्रज्ञाका विषय, संसारमे है, उस (सबको) जानकर भिक्षु मुक्त हुआ है । उसे जानकर मुक्त हुये भिक्षुको 'नही जानता है, नही देखता है—यह इसकी दृष्टि है'—(कहना) अयुक्त है ।

४—प्रज्ञा विमुक्त

“आनन्द । विज्ञान (=जीव) की सात स्थितियॉ (=योनियॉ) है, और दो ही आयतन । कौन सी सात ॽ आनन्द । (१) कोई कोई सत्त्व (=जीव) नाना कायावाले और नाना संज्ञा (=नाम) वाले है, जैसे कि मनुष्य, कोई कोई देवता (=काम-धातुके छै) और कोई कोई विनिपातिक (=नीच योनिवाले=पिशाच) यह प्रथम विज्ञान-स्थिति है । (२) आनन्द । कोई कोई सत्त्व नाना कायावाले, किंतु एक संज्ञा (नाम) वाले होते है, जैसे कि, प्रथम-ध्यानके साथ उत्पन्न ब्रह्म-कायिक (=ब्रह्मालोग) देवता । यह दूसरी विज्ञान-स्थिति है । (३) आनन्द । ० एक काया कितु नाना संज्ञावाले देवता है, जैसे कि आभास्वर देवता । यह तीसरी विज्ञान-स्थिति है । (४) ० एक कायावाले एक संज्ञावाले देवता, जैसे कि शुभकृत्स्न (=सुभ-किण्ण) देवता । यह चौथी विज्ञान-स्थिति है । (५) आनन्द (कोई कोई) सत्त्व है, (जो कि) रुप-संज्ञाके अतिक्रमणसे, प्रतिघ (=प्रतिहिंसा) संज्ञाके अस्त हो जानेसे, नानापनकी संज्ञा को मनमे न करनेसे 'अनन्त आकाश' इस आकाश-आयतन (=निवास-स्थान) को प्राप्त है । यह पाचवी विज्ञान-स्थिति है । (६) आनन्द । (कोई कोई) सत्त्व आकाश-आयतनको सर्वथा अतिक्रमण कर ‘विज्ञान अनंत है,’ इस विज्ञान-आयतनको प्राप्त है । यह छठी विज्ञान-स्थिति है । (७)

आनन्द । (कोई कोई) सत्व विज्ञान-आयतनको सर्वथा अतिक्रमणकर ‘कुछ नही है’ इस आकिचन्य-आयतन (=०निवास-स्थान) को प्राप्त है । यह सातवी विज्ञान-स्थिति है । (दो आयतन है) असंज्ञि-सत्त्व-आयतन (=संज्ञा-रहित सत्त्वोका आवास), और दूसरा नैव-संज्ञा-नासंज्ञा-आयतन (=न संज्ञावाला, न अ-संज्ञावाला आयतन) ।

“आनन्द । जो यह प्रथम विज्ञान-स्थिति ‘नाना काया नाना संज्ञा’ है, जैसे कि० । जो उस (प्रथम विज्ञान-स्थिति) को जानता है, उसकी उत्पत्ति (=समुदय) को जानता है, उसके अस्तगमन (=विनाश) को जानता है, उसके आस्वादको जानता है, उसके दुष्परिणाम (=आदिनव) को जानता है, उसके निस्सरण (=छुटनेके मार्ग) को जानता है, क्या उस (जानकारको) उस (=विज्ञान-स्थिति) का अभिवादन करना युक्त है ?” “नही, भन्ते ।”

“० दूसरी विज्ञान-स्थिति—० सातवी विज्ञान-स्थिति० । ० असज्ञी-सत्त्वायतन ०, ० नैव-संज्ञा-न-असंज्ञायतन० ।

“आनन्द । जो इन सात सत्त्व-स्थितियो और दो आयतनोके समुदय, अस्त-गमन, आस्वाद, परिणाम, निस्सरणको जान कर, (उपादानोको) न ग्रहण कर मुक्त होता है, वह भिक्षु प्रज्ञा-विमुक्त (=जानकर मुक्त) कहा जाता है ।

“आनन्द । यह आठ विमोक्ष है । कौन से आठ ? (१) (स्वंय) रूप-वान् (दूसरे) रूपोको देखता है । यह प्रथम विमोक्ष है । (२) भीतर (=अध्यात्म) मे रूप-रहित संज्ञावाला, बाहर रूपो को देखता है, यह दूसरा विमोक्ष है । (३) ‘शुभ है’ इससे अधिमुक्त (=विमुक्त) होता है, यह तीसरा विमोक्ष है । (४) सर्वथा रूप-संज्ञाके अतिक्रमण, प्रतिघ (=प्रतिहिंसा) संज्ञाके अस्त होनेसे, नानात्त्वकी संज्ञाके मनमे न करनेसे ‘आकाश अनन्त है’ इस (अनन्त) आकाशके आयतनको प्राप्त हो विहरता है, यह चौथा विमोक्ष है । (५) सर्वथा (अनन्त) आकाशके आयतनको अतिक्रमण कर, ‘विज्ञान अनन्त है’ इस विज्ञान-आयतनको प्राप्त हो विहरता है, यह पाँचवॉ विमोक्ष है । (६) सर्वथा विज्ञान आयतन को अतिक्रमण कर, ‘कुछ नही है’ इस आकिचन्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है, यह छठॉ विमोक्ष है । (७) सर्वथा आकिचन्य-आयतनको अतिक्रमण कर, नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतनको प्राप्त हो विहरता है । यह सातवॉ विमोक्ष है । (८) सर्वथा नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतनको अतिक्रमण कर संज्ञाकी वेदना (=अनुभव) के निरोधको प्राप्त हो विहरता है । यह आठवॉ विमोक्ष है । आनन्द । यह आठ विमोक्ष है ।

५—उभयतो भाग विमुक्त

“जब आनन्द । भिक्षु इन आट विमोक्षोको अनुलोमसे (१,२,३ क्रमसे) प्राप्त (=समाधि-प्राप्त) करता है, प्रतिलोमसे (८,७,६) भी (समाधि-) प्राप्त होता है । अनुलोमसे भी और प्रति लोमसे भी (१ ८ १) प्राप्त होता है, जहॉ चाहता है, जब चाहता है, जितना चाहता है, उतनी (समाधि) प्राप्त करता है, (समाधिसे) उठता है । (=राग व्देष आदि चित्त-मलो) के क्षयसे, इसी जन्ममे आस्त्रव-रहित (=अन्-आस्त्रव) चित्तकी मुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्तिको स्वंय जान कर=साक्षात् कर, प्राप्त हो, विहरता है । आनन्द । यह भिक्षु उभयतो भाग-विभुक्त (=नाम रूपसे मुक्त) कहा जाता है । आनन्द । इस उभयतोभाग-विमुक्तिसे बढकर=उत्तम दूसरी उभयतो-भागविमुक्ति नही है ।”

भगवानने यह कहा । सन्तुष्ट हो आयुष्मान् आनन्दने भगवानके भाषणका अभिनंदन किया ।