दीध-निकाय
16. महापरिनिब्बाण सुत्त–(२।३)
१—वज्जियोके विरूध्द अजातशत्रु । २—हानिसे बचने के उपाय । ३—बुध्दकी अन्तिम यात्रा— (१) बुध्दके प्रति सारिपुत्रका उद्गार (२) पाटलिपुत्रका निर्माण । (३) धर्म-आदर्श । (४) अम्बपाली गणीकाका भोजन । (५) सख्त बीमारी । (६) जीवनशक्तिका निर्वाणकी तैयारी । (७) महाप्रदेश (कसौटी) । (८) चुन्दका दिया अन्तिम भोजन । ४—जीवनकी अन्तिम घळियॉ—(१) चार दर्शनीय स्थान । (२) स्त्रियोके प्रति भिक्षुओका वर्ताव । (३) चक्रवर्तीकी दाहक्रिया । (४) आनन्दके गुण । (५) चक्रवर्तीके चार गुण । (६) महासुदर्शन जातक । (७) सुभद्रकी प्रब्रज्या । (८) अन्तिम उपदेश । ५—निर्वाण । ६—महाकाश्यपको दर्शन । ७—दाह क्रिया । ८—स्तूपनिर्माण ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् राजगृहमे गृघ्रकूट पर्वतपर विहार करते थे ।
उस समय राजा मागध अजातशत्रु वैदेही-पुत्र१ वज्जीपर चढाई (=अभियान) करना चाहता था । वह ऐसा कहता था—‘मै इन ऐसे महर्ध्दिक (=वैभव-शाली), =ऐसे महानुभाव, वज्जियोको२ उच्छिन्न करूँगा, वज्जियोका विनाश करूँगा, उनपर आफत ढाऊँगा ।’
१—वज्जियोंके विरूध्द अजातशत्रु
तब ० अजातशत्रु०ने मगधके महामात्म्य (=महामंत्री) वर्षकार ब्राह्मणसे कहा—
“आओ ब्राह्मण । जहाँ भगवान् है, वहाँ जाओ । जाकर मेरे वचनसे भगवानके पैरोमे शिर से वन्दना करो । आरोग्य=अल्प-आतक, लघु-उत्थान (=फुर्ती), सुख-विहार पूछो—‘भन्ते । राजा० वन्दना करता है, । आरोग्य० पूछता है ।’ और यह कहो—‘भन्ते । राजा० वज्जियोपर चढाई करना चाहता है, वह ऐसा कहता है—‘मै इन ० वज्जियोको उच्छिन्न करूँगा ० ।’ भगवान् जैसा तुमसे बोले, उसे यादकर (आकर) मुझसे कहो, तथागत अन्यथार्थ (=विनथ) नही बोला करते ।”
“अच्छा भो ।” कह वर्षकार ब्राह्मण अच्छे अच्छे यानोको जुतवाकर, बहुत अच्छे यानपर आरुढ हो, अच्छे यानोके साथ, राजगृहसे निकला, (और) जहाँ गृध्रकूट-पर्वत था, वहँ चला । जितनी यानकी भूमि थी, उतना यानसे जाकर, यानसे उतर पैदल ही, जहॉ भगवान् थे, वहाँ गया । जाकर भगवानके साथ समोदनकर एक और बैठा, एक और बैठकर भगवानसे बोला—“भो गौतम ।
राजा ० आप गौतमके पैरोमे शिरसे वन्दना करता है ० । ० वज्जियोको उच्छिन ‘करूँगा०’ ।”
२-हानिसे बचनेके उपाय
“उस समय आयुष्मान् आनन्द भगवानके पीछे (खळे) भगवानको पंखा अल रहे थे। तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दको संबोधित किया—
“आनन्द । क्या तूने सुना है, (१) वज्जो (सम्मतिके लिये) बराबर बैठक (—सन्निपात) करते है— सन्निपात-बहुल है ॽ”
“सुना हे, भन्ते। वज्जी बराबर० ।”
“आनन्द । जब तक वज्जी बैठक करते है=सन्निपात-बहुल रहेगे, (तब तक) आनन्द । वज्जियोकी वृध्दि ही समझना, हानि नही ।
(२) “क्या आनन्द । तूने सुना है, वज्जी एक हो बैठक करते है, एक हो उत्थान करते है, वज्जी एक हो करणीय (=कर्तव्य) को करते है ॽ”
“सुना है, भन्ते । ० ।”
“आनन्द । जब तक ० ।
(३) “क्या ० सुना है, वज्जी अ-प्रज्ञप्त१ (=गैरकानूनी) को प्रज्ञप्त (=विहित) नही करते, प्रज्ञप्त (=विहित) का उच्छेद नही करते । जैसे प्रज्ञप्त है, वैसे ही पुराने पुराने वज्जि-धर्म (=०नियम) को ग्रहण कि, वर्तते हे ॽ”
“भन्ते । सुना है । ”
“आनन्द ० । जब तक कि ० ।
(४) “क्या आनन्द । तूने सुना है—वज्जियोके जो महल्लक (=वृध्द) है, उनका (वह) सत्कार करते है,—गुस्कार करते है, मानते है, पूजते है, उनकी (बात) सुनने योग्य मानते है ।”
“भन्ते । सुना है ० ।”
“आनन्द । जब तक कि ० ।”
(५) “कया सुना है—जो वह कुल-स्त्रियॉ है, कुल-कुमारियॉ है, उन्हे (वह) छीनकर, जबर्दस्ती नही बसाते ?”
“भन्ते । सुना है ० ।”
“आनन्द । ० जब तक ० ।”
(६) “कया ० सुना है—वज्जियोके (नगरके) भीतर या बाहरके जो चैत्य (=चौरा=देव-स्थान) है, वह उनका सत्कार करते है, ० पूजते है । उनके लिये पहिले किये दानको, पहिले-की गई घर्मानुसार बलि (=वृत्ति)को, लोप नही करते ?”
“भन्ते । सुना हे ० ?”
“जब तक ० ।”
(७) “कया सुना है,—वज्जी लोग अर्हतो (=पूज्यो)की अच्छी तरह घार्मिक (=घर्मानुसार) रक्षा=आवरण=गुप्ति करते है । किसलिये ? भविष्यमे अर्हत् राज्यमे आवे, आये अर्हत् राज्यमे सुखसे विहार करे ।”
“सुना है, भन्ते । ० ।”
“जब तक ० ।”
तब भगवानने ० वर्षकार ब्राह्मणको संबोघित किया—
“ब्राह्मण । एक समय मै वैशालीके सारन्दद-चैत्यमे विहार करता था । वहॉ मैने वज्जियोको यह सात अपरिहाणीय-घर्म (=अ-पतनके नियम) कहे । जब तक ब्राह्मण । यह सात अपरि-हाणीय-घर्म वज्जियोमे रहेगे, इन सात अपरिहाणीय-घर्मोमे वज्जी (लोग) दिखलाई पळेगे, (तब तक) ब्राह्मण । वज्जियोको वृद्धि ही समझना, हानि नही ।”
ऐसा कहने पर ० वर्षकार ब्राह्मण भगवानसे बोला—
“है गोतम । (इनमेंसे) एक भी अपरिहाणीय-घर्मसे वज्जियोकी वृद्धि ही समझनी होगी, सात अ-परिहाणीय घर्मोकी तो बात ही कया ? हे गौतम । राजा ० को उपलाप (=रिश्वत देना), या आपसमे फूटको छोळ, युध्द करना ठीक नही । हन्त । हे गौतम । अब हम जाते है, हम बहु-कृत्य=बहु-करणीय (=बहुत कामवाले) है ०”
“ब्राह्मण । जिसका तू काल समझता है ।”
“तब भगघ-महामात्य वर्षकार ब्राह्मण भगवानके भाषणको अभिनन्दकर, अनुमोदनकर, आसनसे उठकर, चला गया१।
तब भगवानने ० वर्षकार ब्राह्मणके जानेके थोळी ही देर बाद आयुष्मान् आनन्दको सबोधित किया—
“जाओ, आनन्द । तुम जितने भिक्षु राजगृहके आसपास विहरते है, उन सबको उपस्थान शालामे एकत्रित करो ।”
“अच्छा, भन्ते ।”
“भन्ते । भिक्षुसघको एकत्रित कर दिया, अब भगवान् जिसका समय समझे ।”
तब भगवान् आसनसे उठकर जहॉ उपस्थान-शाला थी, वहॉ जा, बिछे आसन पर बैठे । बैठ कर भगवानने भिक्षुओको सबोधित किया—“भिक्षुओ । तुम्हे सात अपरिहाणीय-धर्म उपदेश करता हूँ, उन्हे सुनो कहता हूँ ।”
“अच्छा, भन्ते ।”
मैने तेरे नगरमे प्राकार और परिखा (=खाई) बनवाई है, मै दुर्बल...तथा गभीर स्थानोको जानता हूँ, अब जल्दी (तुझे) सीधा करूँगा’ । ऐसा सुनकर बोलना—‘तुम जाओ’ ।
“राजाने सब किया । लिच्छवियाने उसके निकालने (=निष्क्रमण) को सुनकर कहा―‘ब्राह्मण मायावी (=शठ) है, उसे गगा न उतरने दो ।’ तब किन्ही किन्हीके—‘हमारे लिये कहनेसे तो वह (राजा) ऐसा करता है’ कहनेपर,―‘तो भणे । आने दो’ । उसने जाकर लिच्छवियो द्वारा—‘किस लिये आये ?’ पूछनेपर, वह (सब) हाल कह दिया । लिच्छवियोने—‘थोळीसी बातके लिये इतना भारी दड करना युक्त नही था’ कहकर—‘वहॉ तुम्हारा क्या पद= (स्थानान्तर) था’—पूछा । ‘मै विनिश्चय-महामात्य था’—(कहनेपर)—‘यहॉ भी (तुम्हारा) वही पद रहे’—कहा । वह सुन्दर तौरसे विनिश्चय (=इन्साफ) करता था । राजकुमार उसके पास विद्या (=शिल्प) ग्रहण करते थे । अपने गुणोसे प्रतिष्ठित हो जानेपर उसने एक दिन एक लिच्छविको एक ओर लेजाकर—‘खेत (=केदार,क्यारी) जोतते है’? ‘हॉ जोतते है’ । ‘दो बैल जोतकर ?’ ‘हॉ, दो बैल जोतकर’—कहकर लौट आया । तब उसको दूसरेके—‘आचार्य । (उसने) क्या कहा ?’—पूछनेपर,उसने वह कह दिया । (तब) ‘मेरा विश्वास न कर, यह ठीक ठीक नही बतलाता है’ (सोच) उसने बिगाळ कर लिया । ब्राह्मण दूसरे दिन भी एक लिच्छवीको एक ओर लेजाकर ‘किस व्यजन (=तेमन, तरकारी) से भोजन किया’ पूछकर लौटनेपर, उसने भी दूसरेने पूछकर, न विश्वासकर वैसेही बिगाळ कर लिया । ब्राह्मण किसी दूसरे दिन एक लिच्छवीको एकान्तमें लेजाकर—‘बळे गरीब हो न ?’—पूछा । ‘किसने ऐसा कहा?’ ‘अमुक लिच्छवीने ।’ दूसरेको भी एक ओर लेजाकर—‘तुम कायर हो क्या ?’ ‘किसने ऐसा कहा’ ‘अमुक लिच्छवीने’ । इस प्रकार दूसरेके न कहे हुएको कहते तीन वर्ष (४८३—४८० ई पू.) में उन राजाओमें परस्पर ऐसी फूट डाल दी, कि दो आदमी एक रास्तेसे भी न जाते थे । वैसा करके, जमा होनेका नगारा (=सन्निपात-भेरी) बजवाया ।
लिच्छवी—‘मालिक (=ईश्वर) लोग जमा हो’—कहकर नही जमा हुए । तब उस ब्राह्मणने राजाको जल्दी आनेके लिये खबर (=शासन) भेजी । राजा सुनकर सैनिक नगारा (=बलभेरी) बजवाकर निकला । वैशालीवालोने सुनकर भेरी बजवाई—‘(आओ चलें) राजाको गगा न उतरने दें’ । उसको भी सुनकर—‘देव-राज (=सुर-राज) लोग जायें’ आदि कहकर लोग नही जमा हुए । (तब) भेरी बजवाई—‘नगरमे घुसने न दें, (नगर-) द्वार बन्द करके रहे’ । एक भी नही जमा हुआ । (राजा अजातशत्रु) खुले द्वारोसे ही घुसकर, सबको तबाह कर (=अनय-व्यसन पापेत्वा) चला गया ।
“(१) भिक्षुओ । जब तक भिक्षु बार बार बार (=अभीक्ष्ण) बैठक करनेवाले=सन्निपात-वहुल रहेगे, (तब तक) भिक्षुओ । भिक्षुओकी वृद्धि समझना, हानि नही । (२) जब तक भिक्षुओ । भिक्षु एक हो बैठक करेगे, एक हो उत्यान करेगे, एक हो सघके करणीय (कामो) को करेगे, (तब तक) भिक्षुओ । भिक्षुओकी वृद्धि ही समझना, हानि नही । (३) जब तक ० अप्रज्ञप्तो (=अ-विहितो) को प्रज्ञप्त नही करेगे, प्रज्ञप्तका उच्छेद नही करेगे, प्रज्ञप्त शिक्षा शिक्षा-पदो (=विहित भिक्षु-नियमो) के अनुसार वर्तेगे ० । (४) जब तक ० जो वह रक्तज्ञ (=धर्मानुरागी) चिरप्रब्रजित, सघके पिता, सघके नायक, स्थविर भिक्षु है, उनका सत्कार करेगे, गुरुकार करेगे, मानेगे, पूजेगे, उन (की बात) को सुनने योग्य मानेगे ०। (५) जब तक पुन पुन उत्पन्न होनेवाली तृष्णाके वशमे नही पळेगे०। (६) जब तक ० भिक्षु, आरण्यक शयनासन (=वनकी कृटियो) की इच्छावाले रहेगे० । (७) जब तक भिक्षुओ । हर एक भिक्षु यह याद रखेगा कि अनागत (=भविष्य) मे सुन्दर सब्रह्मचारी आवे हुये (=आगत) सुन्दर सब्रह्मचारी सुखसे बिहरे, (तब तक)० । भिक्षुओ । जब तक यह सात अ-परिहाणीय-घर्म (भिक्षुओमे) रहेगे, (जब तक) भिक्षु इन सात अ-परिहाणीय-धर्मोसे दिखाई देगे, (तब तक) ० ।
“भिक्षुओ । और भी सात अ-परिहाणीय-धर्मोको कहता हूँ । उसे सनो ० । । (१) भिक्षुओ । जब तक भिक्षु (सारे दिन चीवर आदिक) काममे लगे रहनेवाले (=कर्माराम)=कर्मरत=कर्मारामता-युक्त नही होगे। (तब तक) ०। (२) जब तक भिक्षु वकवादमे लगे रहनेवाले (=भस्साराम),=भस्सरत,=भस्सारामता-युक्त नही होगे । (३) ० निद्राराम=निद्रा-रत=निद्रा रामता-युकत होगे ०। (४) ० सगणिकाराम (=भीळको पसन्द करनवाले)=सगणिक-रत=सगणिकारामता-युकत नही होगे० । (५) ० पापेच्छ (=बदनीयत)=पाप-इच्छाओके वशमे नही होगे ०। (६) ० पाप-मित्र (=बुरे मित्रोवाले),=पाप-सहाय, बुराईकी ओर रुझानवाले न होगे (७) ० थोळेसे विशेष (=योग-साफत्य) को पाकर बीचमे न छोळ देगे ०। ०।
“भिक्षुओ । और भी सात अ-परिहाणीय-धर्मोको कहता हूँ ०। । (१) भिक्षुओ । जबतक भिक्षु श्रद्धालु होगे ०। (२) ० (पापसे) लज्जाशील (=ह्रीमान्) होगे० । (३) ० (पापसे) भय खानेवाले (=अपत्रपी) होगे ०। (४) ० बहुश्रुत ० (५) ० उघोगी (=आरब्ध-वीर्य) ०। (६) ० याद रखनेवाले (=उपस्थित-स्मृति)० । (७) ० प्रज्ञावान् होगे ०। ०।
“भिक्षुओ । और भी सात अ-परिहाणीय-धर्मोको० । (१) भिक्षुओ । जब तक भिक्षु स्मृति-सबोध्यग१ की भावना करेगे० । (२) ० घर्म-विचय-सबोध्यगकी० । (३) ० वीर्य-स०। (४) प्रीत-स० । (५)० प्रश्रब्धि-स०। (६) ० समाधि-स० । (७) ० उपेक्षा-सबोघ्यगकी ।०।०।
“भिक्षुओ । और भी सात अ-परिहाणीय-धर्मोको कहता हूँ ०। । (१) भिक्षुओ । जबतक भिक्षु अनित्य-सज्ञाकी भावना करेगे ०। (२) ० अनात्मसज्ञा ० । (३) ० भोगोमे, अशुभसज्ञा ० । (४) ० आदिनव (=दुष्परिणाम) –सज्ञा ० । (५) प्रहाण-(=त्याग) ० । (६) ० विरागसज्ञा ० । (७) ० निरोधसज्ञा ० । ० ।
“भिक्षुओ । ओर भी छै अ-परिहाणीय-धर्मोको कहता हूँ ०। । (१) जब तक भिक्षु-सब्रह्मचारियो(=गुरुभाइयो) मे गुप्त और प्रकट, मैत्रीपूर्ण कायिक कर्म रखेगे० । (२) ० मैत्रीपूर्ण वाचिक-कर्म रक्खेगे० । (४) ० जब तक भिक्षु धार्मिक, धर्मसे प्राप्त जो लाभ है―अन्तमे पात्रमे चुपळने मात्र भी―वैसे लाभोको (भी) शीलवान् सब्रह्मचारी भिक्षुओमे वॉटकर भोग करनेवाले होगे ० (५) ० जब तक भिक्षु, जो वह अखड (=निर्दोष) अ-छिद्र, अ-कल्मप=भुजिम्स
(=सेवनीय), विद्वानोसे प्रशसित, अ-निन्दित, समाधिकी ओर (ले) जानेवाले शील है, वैसे शीलोसे शील-श्रामण्य-युक्त हो सब्रह्मचारियोके साथ गुप्त भी प्रकट भी विहरेगे ०। (६) जो वह आर्य (=उत्तम), नैर्याणिक (=पार करानेवाली), वैसा करनेवालेको अच्छी प्रकार दुख-क्षयकी ओर ले जानेवाली दृष्टि है, वैसी दृष्टिसे दृष्टि-श्रामण्य-युक्त हो, सब्रह्मचारियोके साथ गुप्त भी प्रकट भी विहरेगे ० । भिक्षुओ । जब तक यह अपरिहाणीय-धर्म ० ।
वहाँ राजगृहमे गृघ्रकूट-पर्वतपर विहार करते हुए भगवान् बहुत करके भिक्षुओको यही धर्म-कथा कहते थे—ऐसा शील है, ऐसी समाधि है, ऐसी प्रज्ञा है । शीलसे परिभावित समाधि महा-फलवाली=महा-आनृशसवाली होती है । समाधिसे परिभावित प्रज्ञा महाफलवाली=महा-आनृशसवाली होती है । प्रज्ञासे परिभावित चित्त आस्त्रवो१,−कामास्त्रव, भवास्त्रव, दृष्टि-आस्त्रव—से अच्छी तरह मुक्त होता है ।
३—बुद्धकी अन्तिम यात्रा
अम्ब-लट्ठिका—
तब भगवानने राजगृहमे इच्छानुसार विहारकर आयुष्मान् आनन्दको आमत्रित किया—
“चलो आनन्द । जहॉ अम्बलट्ठिका२ है, वहॉ चले ।” “अच्छा, भन्ते ।”
भगवान् महान भिक्षु-सघके साथ जहॉ अम्बलट्ठिका थी, वहॉ पहुँचे । वहॉ भगवान् अम्बलट्ठिकामे राजगारकमें विहार करते थे । वहॉ ० राजगारकमे भी भगवान् भिक्षुओको बहुधा यही धर्म-कथा कहते थे—० ।
भगवानने अम्बलट्ठिकामे यथेच्छ विहार कर आयुष्मान् आनन्दको आमत्रित किया—
“चलो आनन्द । जहॉ नालन्दा है, वहॉ चले ।” “अच्छा, भन्ते ।”
(१) बुद्धके प्रति सारिपुत्रका उद्गार
नालन्दा—
तब भगवान् वहॉसे महाभिक्षु-सघके साथ जहॉ नालन्दा थी, वहॉ पहुँचे । वहॉ भगवान् नालन्दा३ मे प्रावारिक-आम्रवनमे विहार करते थे ।
तब आयुष्यमान् सारिपुत्र्४ जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान् सारिपुत्रने भगवानसे कहा—
“भन्ते । मेरा ऐसा विश्वास है—‘सबोधि (=परमज्ञान) मे भगवानसे बढकर=भूयस्तर कोई दूसरा श्रमण ब्राह्मण न हुआ, न होगा, न इस समय है’ ।”
“सारिपुत्र । तूने यह बहुत उदार (=बळी)=आर्षभी वाणी कही । बिल्कुल सिहनाद किया—‘मेरा ऐसा० ।’ सारिपुत्र । जो वह अतीतकालमे अर्हत् सम्यक्-सबुद्ध हुए, क्या (तूने) उन सब भगवानोको (अपने) चित्तसे जान लिया, कि वह भगवान् ऐसे शीलवाले, ऐसी प्रज्ञावाले, ऐसे विहारवाले, ऐसी विमुक्तिवाले थे ॽ”
“नही, भन्ते ।”
“सारिपुत्र । जो वह भविष्यकालमे अर्हत्-सम्यक्-सबुद्ध होगे, क्या उन सब भगवानोको चित्तसे जान लिया ० ॽ”
“नही, भन्ते । ”
“सारिपुत्र । इस समय मे अर्हत्-सम्यक्-सबुद्ध हूँ, क्या चित्तसे जान लिया, (कि मै) ऐसी प्रज्ञावाला ० हूँ ॽ”
“नही, भन्ते ।”
“(जब) सारिपुत्र । तेरा अतीत, अनागत (=भविष्य), प्रत्युत्पन्न (=वर्तमान) अर्हत्-समयक्-सबुद्धोके विषयमे चेत –परिज्ञान (=पर-चित्तज्ञान) नही है, तो सारिपुत्र । तूने क्यो यह बहुत उदार=आर्षभी वाणी कही० ॽ”
“भन्ते । अतीत-अनागत-प्रत्युत्पन्न अर्हत्-समयक्-सबुद्धोमे मुझे चेत परिज्ञान नही है, किन्तु (सबकी) धर्म-अन्वय (=धर्म-समानता) विदित है । जैसे कि भन्ते । राजाका सीमान्त-नगर दृढ नीववाला, दृढ प्राकारवाला, एक द्वारवाला हो । वहॉ अज्ञातो (=अपरिचितो) को निवारण करनेवाला, ज्ञातो (=परिचितो) को प्रवेश करानेवाला पडित=व्यकत=मेधावी द्वारपाल हो । वहॉ नगरकी चारो ओर, अनुपर्याय (=क्रमश) मार्गपर धूमते हुए (मनुष्य), प्राकारमे अन्ततो बिल्लीके निकलने भरकी भी सधि=विवर न पाये। उसको ऐसा हो—‘जो कोई बळे बळे प्राणी इस नगरमे प्रवेश करते है, सभी इसी द्वारसे ० । ऐसे ही भन्ते। मैने धर्म-अन्वय जान लिया—‘जो वह अतीतकालमे अर्हत्-सम्यक्-सबुद्ध हुए, वह सभी भगवान् भी चित्तके उपक्लेश (=मल), प्रज्ञाको दुर्बल करनेवाले, पॉचो नीवरणोको छोळ, चारो स्मृति-प्रस्थानोमे चित्तको सु-प्रतिष्ठितकर, सात बोध्यगोकी यथार्थसे भावनाकर, सर्वश्रेष्ठ (=अनत्तर) सम्यक्-सबोधि (=परमज्ञान)का साक्षात्कार किये थे । और भन्ते । अनागतमे भी जो अर्हत्-सम्यक्-सबुध्द होगे, वह सभी भगवान् ० । भन्ते । इस समय भगवान् अर्हत्-सम्यक्-सबुद्धने भी चित्तके उपक्लेश ० ।”
वहॉ नालन्दामे प्रावारिक-आम्रवनमे विहार करते, भगवान् भिक्षुओको बहुधा यही कहते थे ० ।
पाटलि-ग्राम—
तब भगवानने नालन्दामे इच्छानुसार विहारकर, आयुष्मान् आनन्दको आमत्रित किया—
“चलो, आन्नद । जहाँ पाटलि-ग्राम है, वहॉ चले ।”
“अच्छा, भन्ते ।”
तब भगवान् भिक्षुसधके साथ, जहाँ पाटलिग्राम१ था, वहॉ गये । पाटलिग्राम उपासकोने सुना कि भगवान् पाटलिग्राम आये है । तब उपासक जहाँ भगवान् थे वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक और बैठ गये । एक ओर बैठे उपासकोने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । भगवान् हमारे आवसथागार (=अतिथिशाला) को स्वीकार करे ।”
भगवानने मौनसे स्वीकार किया ।
तब उपासक भगवानकी स्वीकृति जान आसनसे उठ, भगवानको अभिवादनकर, प्रदक्षिणा कर जहॉ आवसथागार था, वहॉ गये । जाकर आवसथागारमे चारो ओर बिछौना बिछाकर, आसन लगाकर, जलके बर्तन स्थापितकर, तेल दीपक जला, जहाँ भगवानको अभिवादनकर एक और खळे हो गये । एक ओर खळे हो पाटलिग्रामके उपासकोने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । आवसथागारमे चारो ओर बिछोना बिछा दिया ०, अब जिसका भन्ते । भगवान् काल समझे ।”
तब भगवान् सायकालको पहिनकर पात्र चीवर ले, भिक्षु-सधके साथ ० आवसथागारमे प्रविष्ट हो बीचके खम्भेके पास पूर्वाभिमुख बैठे । भिक्षुसध भी पैर पखार आवसथागारमे प्रवेशकर, पूर्वकी ओर मुँहकर पच्छिमकी भीतके सहारे भगवानको आगेकर बैठा । पाटलिग्रामके उपासक भी पैर पखार आवसथागारमे प्रवेशकर पच्छिमकी ओर मूँहकर पूर्वकी भीत के सहारे भगवानको सामने करके बैठे । तब भगवानने उपासकको आमत्रित किया—
“गृहपतियो । दुराचारके कारण दुशील (=दुराचारी)के लिये यह पॉच दुष्परिणाम है । कौनसे पॉच ? गृहपतियो । (१) दुराचारी आलस्य करके बहुतसे अपने भोगोको खो देता है, दुराचारीका दुराचारके कारण यह पहला दुष्परिणाम है । (२) और फिर दुराचारीकी निन्दा होती है ० । (३) दुराचारी आचारभ्रष्ट (पुरुष) क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहपति या श्रमण जिस किसी सभामे जाता हे प्रतिभारहित, मूक होकर ही जाता है ० । (४) ० मूढ रह मृत्युको प्राप्त होता है ० । (५) और फिर गृहपतियो । गुराचारी आचारभ्रष्ट काया छोळ मरनेके बाद अपाय=दुर्गति=पतन=नरकमे उत्पन्न होता है । दुराचारीके दुराचारके कारण यह पॉचवॉ दुष्परिणाम है । ० ।
“गृहपतियो । सदाचारीके लिये सदाचारके कारण पॉच सुपरिणाम है । कौनसे पॉच ?—(१) गृहपतियो । सदाचारी अप्रमाद (=गफलत न करना) न कर बळी भोगराशिको (इसी जन्ममे) प्राप्त करता है । सदाचारीको सदाचारके कारण यह पहला सुपरिणाम है । (२) ० सदाचारिका मगल यश फैलता है ० । (३) ० जिस किसी सभामे जाता है मूक न हो विशारद बन कर जाता हे ० । (४) ० मूढ न हो मृत्युको प्राप्त होता है ० । (५) और फिर गृहपतियो । सदाचारी सदाचारके कारण काया छोळ मरनेके बाद सुगति=स्वर्गलोकको प्राप्त होता है । सदाचारी सदाचारके कारण यह पॉचवॉ सुपरिणाम है । गृहपतियो । सदातारीके लिये सदाचारके कारण यह पॉच सुपरिणाम है।”
तब भगवानने बहुत रात तक उपासकोको धार्मिक कथासे सदर्शित समुत्तेजितकर उधोजित किया—“गृहपतियो। रात क्षीण हो गई, जिसका तुम समय समझते हो (वैसा करो) ।”
“अच्छा भन्ते ।” पाटलिग्राम-वासि १उपासक आसनसे उठकर भगवानको अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर, चले गये । तब पाटलिग्रामिक उपासकोके चले जानेके थोळी ही देर बाद भगवान् शून्य-आगारमे चले गये ।
(२) पाटलिपुत्रका निर्माण
उस समय सुनिध (=सुनिथ) और वर्षकार मगधके महामात्य पाटलिग्राममे वज्जियोको रोकनेके लिये नगर बसा रहे थे । उस समय अनेक हजार देवता पाटलिग्राममे वास ग्रहण कर रहे थे । जिस स्थानमे महाप्रभावशाली (=महेसक्ख) देवताओने वास ग्रहण किया, स्थानमे महा-
प्रभावशाली राजाओ और राजमहामंत्रियोके चित्तमे घर बनानेको होता है । जिस स्थानमे मध्यम श्रेणी-के देवताओने वास ग्रहण किया, उस स्थानमे मध्यमश्रेणीके राजाओ और राजमहामंत्रियोके चित्तमे घर बनानेको होता है । जिस स्थानमे नीच देवताओने वास ग्रहण किया, उस स्थानमे नीच राजाओ और राजमहामंत्रियोके चित्तमे घर बनानेको होता है ।
भगवानने रातके प्रत्यूष-समय (=भिनसार)को उठकर आयुष्मान् आनन्दको आमंत्रित किया—
“आनन्द । पाटलिग्राममे कौन नगर बना रहा है ?”
“भन्ते । सुनीथ और वर्षकार मगघ-महामात्य, वज्जियोको रोकनेके लिये नगर बसा रहे है ।”
“आनन्द । जैसे त्रायस्त्रिश देवताओके साथ सलाह करके मगघके महामात्य सुनीथ, वर्षकार, वज्जियोके रोकनेके लिये नगर बना रहे है । आनन्द । मैने अमानुष दिव्य नेत्रसे देखा—अनेक सहस्त्र देवता यहॉँ पाटलिग्राममे वास्तु (=घर, वास) ग्रहण कर रहे है । जिस प्रदेशमे महाशकित-शाली (=महेसक्ख) देवता वास ग्रहणकर रहे है, वहॉ महा-शकित-शाली राजाओ और राज-महामात्योका चित्त, घर बनानेको लगेगा । जिस प्रदेशमे मघ्यम देवता वास ग्रहणकर रहे है, वहॉ मध्यम राजाओ और राज-महामात्योका चित्त घर बनानेको लगेगा । जिस प्रदेशमे नीच देवता ०, वहॉ नीच राजाओ ० । आनन्द । जितने (भी) आर्य-आयतन (=आर्योके निवास) है, जितने भी वणिक्-पथ (=व्यापार-मार्ग) है, (उनमे) यह पाटलिपुत्र, पुट-भेदन (=मालकी गॉँठ जहॉ तोळी जाय) अग्र (=प्रघान) –नगर होगा । पाटलिपुत्रके तीन अन्तराय (=शत्रु) होगे—आग, पानी, और आपसकी फूट ।”
तब मगघ-महामात्य सुनोथ और वर्षकार जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये, जाकर भगवानके साथ समोदनकर एक ओर खळे हुए भगवानसे बोले—
“भिक्षु-संघके साथ आप गौतम हमारा आजका भात स्वीकार करे ।”
भगवानने मौनसे स्वीकार किया ।
तब ० सुनीथ वर्षकार भगवानकी स्वीकृति जान, जहाँ उनका आवसथ (=डेरा) था, वहॉ गय । जाकर अपने आवसथमे उत्तम खाघ-भोज्य तैयार करा (उन्होने) भगवानको समयकी सूचना दी ।
तब भगवान् पूर्वाह्र समय पहनकर, पात्र चीवर ले भिक्षु-संघके साथ जहॉ मगघ-महामात्य सुनीथ और वर्षकारका आवसथ था, वहॉ गये, जाकर बिछे आसनपर बैठे । तब सुनीथ, वर्षकारने बुघ्द्र-प्रमुख भिक्षु-संघको अपने हाथसे उत्तम खाघ-भोज्यसे सतर्पित=सप्रवारित किया । तब ० सुनीथ वर्षकार, भगवानके भोजनकर पात्रसे हाथ हटा लेनेपर, दूसरा नीचा आसन ले, एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे हुए मगघ-महामात्य सुनीथ, वर्षकारको भगवानने इन गाथाओसे (दान-)अनुमोदन किया—
“जिस प्रदेश (मे) पंडितपुरुष, शीलवान्, संयमी,
ब्रह्चारियोको भोजन कराकर वास करता है ।।१।।
“वहॉ जो देवता है, उन्हे दक्षिणा (=दान) देनी चाहिये ।
वह देवता पूजित हो पूजा करते है, मानित हो मानते है ।।२।।
“तब (वह) औरस पुत्रकी भॉति उसपर अनुकम्पा करते है ।
देवताओसे अनुकम्पित हो पुरुष सदा मंगल देखता है ।।३।।”
तब भगवान् ० सुनीथ और वर्षकारको इन गाथाओमे अनुमोदनकर, आसनसे उठकर चले गये ।
उस समय ० सुनीथ, वर्षकार भगवानके पीछे पीछे चल रहे थे—‘श्रमण गौतम आज जिस द्वारसे निकलेगे, वह गौतम-द्वार. होगा । जिस तीर्थ (=घाट)मे गंगा नदी पार होगे, वह गौतम-तीर्थ होगा । तब भगवान् जिस द्वारमे निकले, वह गौतमद्वार हुआ । भगवान् जहाँ गंगा-नदी है, वहाँ गये ।
उस समय गंगा करारो बराबर भरी, करारपर बैठे कौवेके पीने योग्य थी । कोई आदमी नाव खोजते थे, कोई ० बेळा (=उलुम्प) खोजते थे, कोई ० कूला (=कुल्ल) बॉधते थे । तब भगवान्, जैसे कि बलवान् पुरूष समेटी बॉहको (सहज ही) फैलादे, फैलाई बाँहको समेट ले, वैसे ही भिक्षु-संघके साथ गंगा नदीके इस पारसे अन्तर्धान हो, परले तीरपर जा खळे हुए । भगवानने उन मनुष्योको देखा, कोई कोई नाव खोज रहे थे ० । तब भगवानने इसी अर्थको जानकर, उसी समय यह उदान कहा—
“ (पंडित) छोटे जलाशयो (=पल्वलो) को छोळ समुद्र और नदियोको सेतुसे तरते है ।
(जब तक) लोग कूला बॉधते रहते है, (तब तक) मेधावी जन तर गये रहते है ।।४।।”
(इति) प्रथम भाणवार ।।१।।
कोटिग्राम—
तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दको आमंत्रित किया—
“आओ आनन्द । जहॉ कोटिग्राम है, वहाँ चले ।” “अच्छा, भन्ते ।”
तब भगवान् भिक्षु-संघके साथ जहाँ कोटिग्राम था, वहॉ गये । वहाँ भगवान् कोटि-ग्राममे विहार करते थे । भगवानने भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“भिक्षुओ । चारो आर्य-सत्योके अनुबोध=प्रतिवेध न होनेसे इस प्रकार दीर्घकालसे (यह) दौळना=संसरण (=आवागमन) ‘मेरा और तुम्हारा’ हो रहा है । कौनसे चारोसे ? भिक्षुओ । दुख आर्य-सत्यके अनुबोध=प्रतिबोध न होनेसे ० दुख-समुदय ० । दुख-निरोध ० । दुख-निरोध-गामिनी प्रतिषद् ० । भिक्षुओ । सो इस दुख आर्य-सत्यको अनु-बोध=प्रतिबोध किया ०, (तो) भव-तृष्णा उच्छिन्न हो गई, भवनेत्री (=तृष्णा) क्षीण हो गई”
यह कहकर सुगत (=बुध्द) ने और यह भी कहा—“चारो आर्य-सत्योको ठीकसे न देखनेसे,
उन उन योनियोमे दीर्घकालसे आवागमन हो रहा है ।।५।।
जब ये देख लिये जाते है, तो भवनेत्री नष्ट हो जाती है,
दुखकी जळ कट जाती है, और फिर आवागमन नही रहता ।।६।।”
वहॉ कोटिग्राममे विहार करते भी भगवान्, भिक्षुओको बहुत करके यही धर्म-कथा कहते थे ० । ०
नादिका—
तब भगवानने कोटिग्राममे इच्छानुसार विहारकर, आयुष्मान् आनन्दको आमंत्रित किया—
“आओ आनन्द । जहॉ नादिका१ (=नाटिका) है, वहॉ चले ।” “अच्छा, भन्ते ।”
तब भगवान् महान् भिक्षु-संघके साथ जहॉ नादिका है, वहॉ गये । वहाँ नदिकामे भगवान् गिंजकावसथमे विहार करते थे ।
(३) धर्म-आदर्श
तब आयुष्मान् आनन्द जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये, जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । साळह भिक्षु नादिकामे मर गया, उसकी क्या गति=क्या अभिसम्पराय (=परलोक) हुआ? नन्दा भिक्षुणी ० सुदत्त उपासक ० सुजाता उपासिका ० ककुध उपासक ० कालिंग उपासक ० निकट उपासक ० काटिस्सभ उपासक ० तुट्ठ उपासक ० सन्तुट्ठ उपासक ० भद्द उपासक ० भन्ते ।
सुभदृ उपासक नादिकामे मर गया, उसकी क्या गति=क्या अभिसम्पराय हुआ ॽ ”
“आनन्द । साळह भिक्षु इसी जन्ममे आस्त्रवो (=चित्तमलो)के क्षयसे आस्त्रव-रहित चित्तकी मुक्ति प्रज्ञा-विमुक्ति (=ज्ञानद्वारा मुक्ति) को स्वंय जानकर साक्षातकर प्राप्तकर विहार कर रहा था । आन्नद । नन्दा भिक्षुणी पॉच अवरभागीय संयोजनोके क्षयसे देवता हो वहॉसे न लौटनेवाली (अनागामी) हो वही (देवलोकमे) निर्वाण प्राप्त करेगी। सुदत्त उपासक आनन्द । तीन संयोजनोके क्षीण होनेसे, राग-द्वेष-मोहके दुर्बल होनेसे सकृदागामी हुआ, एक ही बार इस लोकमे और आकर दुखका अन्त करेगा । सुजाता उपासिका तीन संयोजनोके क्षयसे न-गिरनेवाले बोधिके रास्ते पर आरूढ हो स्त्रोतआपन्न हुई । ककुध ० अनागामी ० । कालिग० । निकट ० । कटिस्सभ ० । तुट्ठ ० । सतुट्ठ ० । भदृ ० । सुभदृ उपासक आनन्द । पॉच अवरभागीय संयोजनोके क्षयसे देवता हो वहॉसे न लौटनेवाला (=अनागामी) हो वही (देवलोकमे) निर्वाण प्राप्त करनेवाला है। आनन्द । नादिकामे पचाससे अधिक उपासक मरे है, जो सभी ० अनागामी ० है । ० नब्बेसे अधिक उपासक ० सकृदागामी ० । ० पॉचसौसे अधिक उपासक ० स्त्रोत-आपन्न ० । आनन्द । यह ठीक नही, कि जो कोई मनुष्य मरे, उसके मरनेपर तथागतके पास आकर इस बातको पूछा जाय । आनन्द । यह तथागतको कष्ट देना है । इसलिये आनन्द । धर्म-आदर्श नामक धर्म-पर्याय (=उपदेश) को उपदेशता हूँ । जिससे युक्त होनेपर आर्यस्त्रावक स्वंय अपना व्याकरण (=भविष्य-कथन) कर सकेगा—‘मुझे नर्क नही, पशु नही, प्रेत-योनि नही, अपाय=दुर्गति=विनिपात नही । मै न गिरनेवाला बोधिके रास्तेपर आरूढ स्त्रोतआपन्न हूँ ।’ आनन्द । क्या है वह धर्मादर्श धर्मपर्याय ० ॽ — (१) १आनन्द । जो आर्य़श्रावक बुद्धमे अत्यन्त श्रद्धायुक्त होता है—‘वह भगवान् अर्हत्, सम्यक्-सबुद्ध (=परमज्ञानी), विद्या-आचरण-युक्त, सुगत, लोकविद्, पुरुषोके दमन करनमे अनुपम चाबुक-सवार, देवताओ और मनुष्योके उपदेशक बुद्ध (=ज्ञानी) भगवान् है ।’ (२) ० धर्ममे अत्यन्त श्रद्धासे युक्त होता है—‘भगवानका धर्म स्वाख्यात (=सुन्दर रीतिसे कहा गया) है, वह सादृष्टिक (=इसी शरीरमे फल देनेवाला), अकालिक (=कालान्तरमे नही સसद्य फलप्रद), एहिपस्सिक (=यही दिखाई देनेवाला), औपनयिक (=निर्वाणके पास ले जानेवाला) विज्ञ (पुरुषो) को अपने अपने भीतर (ही) विदित होनेवाला है ।’ (३) ० संघमे अत्यन्त श्रद्धासे युक्त होता है—‘भगवानका श्रावक (=शिष्य)–संघ सुमार्गारूढ है, भगवानका श्रावक–संघ सरल मार्गपर आरूढ हे, ० न्याय मार्गपर आरूढ हे, ० ठीक मार्गपर आरूढ है, यह चार पुरुष-युगल (स्रोतआपन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत्) और आठ पुरुष=पुद्गल है, यही भगवानका श्रावक-संघ है, (जोकि) आह्वान करने योग्य है, पाहुना बनाने योग्य है, दान देने योग्य है, हाथ जोळने योग्य है, और लोकके लिये पुण्य (बोने) का क्षेत्र है ।’ (४) और अखंडित, निर्दोष, निर्मल, निष्कल्मष, सेवनीय, विज्ञ-प्रशंसित, आर्य (=उत्तम) कान्त, शीलो (=सदाचारो)से युक्त होता है । आनन्द । यह धर्मादर्श धर्मपर्याय है ०।” वहॉ नादिकामे विहार करते भी भगवान् भिक्षुओको यही धर्मकथा ० ।
वैशाली—
(४) अम्बपाली गणिकाका भोजन
० तब भगवान् महाभिक्षु-संघके साथ जहॉ वैशाली थी वहॉ गये । वहॉ वैशालीमे अम्ब-पाली वनमे विहार करते थे । वहॉ भगवान् भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“भिक्षुओ । स्मृति और सप्रजन्यके साथ विहार करो, यही हमारा अनुशासन है । कैसे भिक्षु स्मृतिमान् होता है ॽ जब भिक्षुओ । भिक्षु कायामे काय-अनुपश्यी (=शरीरको उसकी बनावटके अनु—
सार केश-नख-मल-मूत्र आदिके रुपमे देखना) हो, उद्योगशील, अनुभवज्ञान-(=सप्रजन्य) युक्त, स्मृतिमान्, लोकके प्रति लोभ और द्वेष हटाकर विहरता है । वेदनाओ (=सुख दुख आदि) मे वेदनानुपश्यी हो ० । चित्तमे चित्तानुपश्यी हो ।० धर्मोमे धर्मानुपश्यी हो ० । इस प्रकार भिक्षु स्मृतिमान्, होता है । कैसे सप्रज्ञ (=सपजान) होता है । जब भिक्षु जानते हुये गमन-आगमन करता है । जानते हुये आलोकन-विलोकन करता है । ० सिकोळना-फैलाना ० । ० सघाटी-पात्र-चीवरको धारण करता है । ० आसन, पान, खादन, आस्वादन करता है । ० पाखाना, पेशाब करता है । चलते, खळे होते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, चुप रहते जानकर करनेवाला होता है । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु सप्रजानकारी होता है । इस प्रकार सप्रज्ञ होता है । भिक्षुओ । भिक्षुको स्मृति और सप्रजन्य-युक्त विहरना चाहिये, यही हमारा अनुशासन है ।”
अम्बपाली गणिकाने सुना—भगवान् वैशालीमे आये है, और वैशालीमे मेरे आम्रवनमे विहार, करते है । तब अम्बपाली गणिका सुन्दर सुन्दर (=भद्र) यानोको जुळवाकर, एक सुन्दर यानपर चढ सुन्दर यानोके साथ वैशालीसे निकली, और जहाँ उसका आराम था, वहाँ चली । जितनी यानकी भूमि थी, उतनी यानसे जाकर, यानसे उतर पैदल ही जहाँ भगवान् थे, वहाँ गई । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गई । एक ओर बैठी अम्बपाली गणिकाको भगवानने धार्मिक-कथासे सदर्शित समुत्तेजित किया । तब अम्बपाली गणिका भगवानसे यह बोली—
“भन्ते । भिक्षु-संघके साथ भगवान् मेरा कलका भोजन स्वीकार करे ।”
भगवानने मौनसे स्वीकार किया ।
तब अम्बपाली गणिका भगवानकी स्वीकृति जान, आसनसे उठ भगवानको अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चली गई ।
वैशालीके लिच्छिवियोने सुना—‘भगवान् वैशालीमे आये है ०’ । तब वह लिच्छिवि ० सुन्दर यानोपर आरुढ हो ० वैशालीसे निकले । उनमे कोई कोई लिच्छवि नीले=नील-वर्ण नील-वस्त्र नील-अलंकारवाले थे । कोई कोई लिच्छवि पीले ० थे । ० लोहित (=लाल) ० । ० अवदात (=सफेद) ० । अम्बपाली गणिकाने तरुण तरुण लिच्छवियोके धुरोसे घुरा, चक्कोसे चक्का, जूयेसे जूआ टकरा दिया । उन लिच्छवियोने अम्बपाली गणिकासे कहा—
“जे । अम्बपाली । क्यो तरुण तरुण (=दहर) लिच्छवियोके घुरोसे घुरा टकराती है । ०”
“आर्यपुत्रो । क्योकि मैने भिक्षु-संघके साथ कलके भोजनके लिये भगवानको निमंत्रित किया है ।”
“जे । अम्बपाली । सौ हजार (कार्षापण) से भी इस भात (=भोजन) को (हमे करनेके लिये) देदे ।”
“आर्यपुत्रो । यदि वैशाली जनपद भी दो, तो भी इस महान् भातको न दूँगी ।”
तब उन लिच्छवियोने अँगुलियाँ कोळी—
“अरे । हमे अम्बिकाने जीत लिया, अरे । हमे अम्बिकाने वचित कर दिया ।”
तब वह लिच्छवि जहाँ अम्बपाली-वन था, वहॉ गये । भगवानने दूरसे ही लिच्छवियोको आते देखा । देखकर भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“अवलोकन करो भिक्षुओ । लिच्छवियोकी परिषद्को । अवलोकन करो भिक्षुओ । लिच्छवियोकी परिषद्को । भिक्षुओ । लिच्छवि-परिषद्को त्रायस्त्रिश (देव)-परिषद् समझो (=उपसहरथ) ।”
तब वह लिच्छवि ० रथसे उतरकर पैदल ही जहॉ भगवान् थे, वहाँ जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे लिच्छवियोका भगवानने धार्मिक-कथासे ० समुत्तेजित ० किया । तब वह लिच्छवि ० भगवानसे बोले—
“भन्ते । भिक्षु-संघके साथ भगवान् हमारा कलका भोजन स्वीकार करे ।”
“लिच्छवियो । कल तो, मैने अम्बपाली-गणिकाका भोजन स्वीकार कर दिया है ।”
तब उन लिच्छवियोने अँगुलियॉ फोळी—
“अरे । हमे अम्बिकाने जीत लिया । अरे । हमे अम्बिकाने वंचित कर दिया ।”
तब वह लिच्छवि भगवानके भाषणको अभिनन्दितकर अनुमोदितकर, आसनसे उठ भगवानको अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चले गये ।
अम्बपाली गणिकाने उस रातके बीतनेपर, अपने आराममे उत्तम खाद्य-भोज्य तैयारकर, भगवानको समय सूचित किया ।
भगवान् पूर्वाह् समय पहिनकर पात्र चीवर ले भिक्षु-संघके साथ जहॉ अम्बपालीका परोसनेका स्थान था, वहॉ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठे । तब अम्बपाली गणिकाने बुद्ध-प्रमुख भिक्षु-संघको अपने हाथसे उत्तम खाद्य-भोज्य द्वारा सतर्पित=सप्रवारित किया । तब अम्बपाली गणिका भगवानके भोजनकर पात्रसे हाथ खीच लेनपर, एक नीचा आसन ले, एक ओर बैठ गई । एक ओर बैठी अम्बपाली गणिका भगवानसे बोली—
“भन्ते । मै इस आरामको बुद्ध-प्रमुख भिक्षु-संघको देती हूँ ।”
भगवानने आरामको स्वीकार किया । तब भगवान् अम्बपाली ०को धार्मिक-कथासे ० समुत्तेजित०कर, आसनसे उठकर चले गये ।
वहॉ वैशालीमे विहार करते भी भगवान् भिक्षुओको बहुत करके यही धर्म-कथा कहते थे ० ।
वेलुव-ग्राम—
० तब भगवान् महाभिक्षु-संघके साथ जहॉ वेलुव-गामक (=वेणु-ग्राम) था, वहॉ गये । वहॉ भगवान् वेलुव-गामकमे विहरते थे । भगवानने वहॉ भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“आओ भिक्षुओ । तुम वैशालीके चारो ओर मित्र, परिचित देखकर वर्षावास करो । मैं यही वेलुव-गामकमे वर्षावास करूँगा ।” “अच्छा, भन्ते ।”
(५) सख्त बीमारी
वर्षावासमे भगवानको कळी बीमारी उत्पन्न हुई । भारी मरणान्तक पीळा होने लगी । उसे भगवानने स्मृति-सप्रजन्यके साथ बिना दुख करते, स्वीकार (=सहन) किया । उस समय भगवानको ऐसा हुआ—‘मेरे लिये यह उचित नही, कि मैं उपस्थाको (=सेवको) को बिना जतलाये, भिक्षु-संघको बिना अवलोकन किये, परिनिर्वाण प्राप्त करूँ । क्यो न मैं इस आबाधा (=व्याधि) को हटाकर, जीवन-संस्कार (=प्राणशक्ति) को दृढतापूर्व धारणकर, विहार करूँ’ । भगवान् उस व्याधिको वीर्य (=मनोबल)से हटाकर प्राण-शक्तिको दृढतापूर्वक धारणकर, विहार करने लगे । तब भगवानकी वह बीमारी शान्त हो गई ।
भगवान् बीमारीसे उठ, रोगसे अभी अभी मुक्त हो, विहारसे (बाहर) निकलकर विहारकी छायामे बिछे आसनपर बैठे । तब आयुष्मान् आनन्द जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । भगवानको सुखी देखा । भन्ते । मैने भगवानको अच्छा हुआ देखा । भन्ते । मेरा शरीर शून्य हो गया था । मुझे दिशाये भी सूझ न पळती थी । भगवानकी बीमारीसे (मुझे) धर्म (=बात)
भी नही भान होते थे । भन्ते । कुछ आश्वासन मात्र रह गया था, कि भगवान् तबतक परिनिर्वाण नही प्राप्त करेंगे, जबतक भिक्षु-संघको कुछ कह न लेगे ।”
“आनन्द । भिक्षु-संघ मुझसे क्या चाहता है ॽ आनन्द । मैने न-अन्दर न-बाहर करके धर्म-उपदेश कर दिये । आनन्द । धर्मोमे तथागतकी (कोई) आचार्यमुष्टि (=रहस्य) नही है । आनन्द । जिसको ऐसा हो कि मैं भिक्षु-संघको धारण करता हूँ, भक्षु-संघ मेरे उद्देश्यसे है, वह जरूर आनन्द । भिक्षु-संघके लिये कुछ कहे । आनन्द । तथागतको ऐसा नही है आनन्द । तथागत भिक्षु-संघके लिये क्या कहेंगे ॽ आनन्द । मैं जीर्ण=वृद्ध=महल्लक=अध्वगत=वय प्राप्त हूँ । अस्सी वर्षकी मेरी उम्र है । आनन्द । जैसे पुरानी गाळी (=शकट) बॉध-बूँधकर चलती है, ऐसे ही आनन्द । मानो तथागतका शरीर बॉध-बूँधकर चल रहा है । आनन्द । जिस समय तथागत सारे निमित्तो (=लिगो)को मनमे न करनेसे, किन्ही किन्ही वेदनाओके निरूद्ध होनसे, निमित्त-रहित चित्तकी समाधि (=एकाग्रता) को प्राप्त हो विहरते है, उस समय तथागतका शरीर अच्छा (=फासुकत) होता है । इसलिये आनन्द । आत्मदीप=आत्मशरण=अनन्यशरण, धर्मदीप=धर्म-शरण=अनन्य-शरण होकर विहरो । कैसे आनन्द । भिक्षु आत्मशरण ० होकर विहरता है ॽ आनन्द । भिक्षु कायामे कायानुपश्यी ० १ ।”
(इति) द्वितीय माखगार ।।२।।
तब भगवान पूर्वाह्न समय पहनकर पात्र चीवर ले वैशालीमे भिक्षाके लिये प्रविष्ट हुये । वैशालीमे पिडचारकर, भोजनोपरान्त आयुष्मान् आनन्दसे बोले—
“आनन्द । आसनी उठाओ, जहाँ चापाल-चैत्य है, वहॉ दिनके विहारके लिये चलेंगे ।”
“अच्छा भन्ते ।”—कह आयुष्मान् आनन्द आसनी ले भगवानके पीछे पीछे चले । तब भगवान् जहॉ चापाल-चैत्य था, वहॉ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठे । आयुष्मान् आनन्द भी अभिवादन कर । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दसे भगवानने यह कहा—
“आनन्द । जिसने चार ऋद्धिपाद (=योगसिद्धियाँ) साधे है, बढा लिये है, रास्ता कर लिये है, घर कर लिये है, अनुत्थित, परिचित और सुसमारब्ध कर लिये है, यदि वह चाहे तो कल्प भर ठहर सकता है, या कल्पके बचे (काल) तक । तथागतने भी आनन्द । चार ऋद्धिपाद साधे है ०, यदि तथागत चाहे तो कल्प भर ठहर सकते है या कल्पके बचे (काल) तक ।”
ऐसे स्थूल संकेत करनेपर भी, स्थूलत प्रकट करनेपर भी आयुष्मान् आनन्द न समझ सके, और उन्होने भगवानसे न प्रार्थना की—“भन्ते । भगवान् बहुजन-हितार्थ बहुजन-सुखार्थ, लोकानुकम्पार्थ देव-मनुष्योके अर्थ-हित-सुखके लिये कल्प भर ठहरे”, क्योकि मारने उनके मनको फेर दिया था ।
दूसरी बार भी भगवानने कहा—“आनन्द । जिसने चार ऋद्धिपाद ० ।
तीसरी बार भी भगवानने कहा—“आनन्द । जिसने चार ऋद्धिपाद ० ।
तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दको संबोधित किया—“जाओ, आनन्द । जिसका काल समझते हो ।”
“अच्छा, भन्ते ।”—कह आयुष्मान् आनन्द भगवानको उत्तर दे आसनसे उठ भगवानको अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर, न-बहुत-दूर एक वृक्षके नीचे बैठे ।
(६) निर्वाणकी तैयारी
तब आयुष्मान् आनन्दके चले जानेके थोळे ही समय बाद पापी (=दुष्ट) मार जहॉ भगवान् थे, वहॉ गया, जाकर एक ओर खळा हुआ । एक ओर खळे पापी मारने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । भगवान् अब परिनिर्वाणको प्राप्त हो, सुगत परिनिर्वाणको प्राप्त हो । भन्ते । यह भगवानके परिनिर्वाणका काल है । भन्ते । भगवान् यह बात कह चुके है—‘पापी । मैं तबतक परिनिर्वाणको नही प्राप्त होऊँगा, जबतक मेरे भिक्षु श्रावक व्यक्त (=पंडित), विनययुक्त, विशारद, बहुश्रुत, धर्म-धर, धर्मानुसार धर्म मार्गपर आरूढ, ठीक मार्गपर आरूढ, अनुधर्मचारी न होगे, अपने सिद्धान्त (=आचार्यक)को सीखकर उपदेश, आख्यान, प्रज्ञापन (=समझाना), प्रतिष्ठापन, विवरण=विभजन, सरलीकरण न करने लगेंगे, दूसरेके उठाये आक्षेपको धर्मानुसार खंडन करके प्रातिहार्य (=युक्ति) के साथ धर्मका उपदेश न करने लगेंगे ।’ इस समय भन्ते । भगवानके भिक्षु श्रावक० प्रातिहार्यके साथ धर्मका उपदेश करते है । भन्ते । भगवान् अब परिनिर्वाणको प्राप्त हो ० । भन्ते । भगवान् यह बात कह चुके है—‘पापी । मैं तब तक परिनिर्वाणको नही प्राप्त होऊँगा, जब तक मेरी भिक्षुणी श्राविकाये ० प्रातिहार्यके साथ धर्मका उपदेश न करने लगेगी ।’ इस समय ०। भन्ते । भगवान् यह बात कह चुके है—‘पापी । मैं तब तक परिनिर्वाणको नही प्राप्त होऊँगा, जब तक मेरे उपासक श्रावक ० ।’ इस समय ० । भन्ते । भगवान् यह बात कह चुके है—‘पापी । मैं तब तक परिनिर्वाणको नही प्राप्त होऊँगा, जब तक मेरी उपासिका श्राविकाये ० ।’ इस समय ० । भन्ते । भगवान् यह बात कह चुके है—‘पापी । मैं तब तक परिनिर्वाणको नही प्राप्त होऊँगा, जब तक कि यह ब्रह्मचर्य (=बुद्धधर्म) ऋद्ध (=उन्नत)=स्फीत, विस्तारित, बहुजनगृहित, विशाल, देवताओ और मनुष्यो तक सुप्रकाशित न हो जायेगा ।’ इस समय भन्ते । भगवानका ब्रह्मचर्य ० ।”
ऐसा कहनेपर भगवानने पापी मारसे यह कहा—“पापी । बेफिक्र हो, न-चिर ही तथागतका परिनिर्वाण होगा । आजसे तीन मास बाद तथागत परिनिर्वाणको प्राप्त होंगे ।”
तब भगवानने चापाल-चैत्यमे स्मृति-सप्रजन्यके साथ आयुसंस्कार (=प्राण-शक्ति)को छोळ दिया । जिस समय भगवानने आयु-संस्कार छोळा उस समय भीषण रोमांचकारी महान् भूचाल हुआ, देवदुन्दुभियाँ बजी । इस बातको जानकर भगवानने उसी समय यह उदान कहा—
“मुनिने अतुल-तुल उत्पन्न भव-संस्कार (=जीवन-शक्ति)को छोळ दिया ।
अपने भीतर रत और एकाग्रचित हो (उन्होने) अपने साथ उत्पन्न कवचको तोळ दिया ।।७।।”
तब आयुष्मान आनंदको ऐसा हुआ—“आश्चर्य है । अद्भुत है ।। यह महान् भूचाल है । सु-महान् भूचाल है । भीषण रोमांचकारी है । देव-दुन्दुभियॉ बज रही है । (इस) महान् भूचालके प्रादुर्भावका क्या हेतु=क्या प्रत्यय है ॽ”
तब आयुष्मान् आनन्द जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—
“आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । यह महान् भूचाल आया ० क्या हेतु=क्या प्रत्यय है ॽ”
“आनन्द । महान् भूचालके प्रादुर्भावके ये आठ हेतु=आठ प्रत्यय होते है । कौनसे आठॽ (१) आनन्द । यह महापृथिवी जलपर प्रतिष्ठित है, जल वायुपर प्रतिष्ठित है, वायु आकाशमे स्थित है । किसी समय आनन्द । महाबात (=तूफान) चलता है । महाबातके चलनेपर पानी कपित होता है । हिलता पानी पृथिवीको डुलाता है । आनन्द । महाभूचालके प्रादुर्भावका यह प्रथम हेतु=
प्रथम प्रत्यय है । (२) और फिर आनन्द । कोई श्रमण या ब्राह्मण ऋद्धिमान् चेतोवशित्त्व (=योगबल) को प्राप्त होता है, अथवा कोई दिव्यबलधारी=महानुभाव देवता होता है, उसने पृथिवी-संज्ञाकी थोळीसी भावनाकी होती है, और जल-संज्ञाकी बळी भावना । वह (अपने योगबलसे) पृथिवीको कपित=सकपित=सप्रकपित=सप्रवेपित करता है । ० यह द्वितीय हेतु है । (३) ० जब बोधिसत्व तुषित देवलोकसे च्युत हो होश-चेतके साथ माताकी कोखमे प्रविष्ट होते है । ० यह तृतीय ० । (४) ० जब बोधिसत्व होश-चेतके साथ माताके गर्भसे बाहर आते है । ० यह चतुर्थ हेतु है । (५) ० जब तथागत अनुपम बुद्धज्ञान (=सम्यक् सबोधि)का साक्षात्कार करते है । ० यह पंचम हेतु है । (६) ० जब तथागत अनुपम धर्मचक्र (=धर्मोपदेश) को (प्रथम) प्रवर्तित करते है । ० यह षष्ठ हेतु है । (७) और आनन्द । जब तथागत होश-चेतके साथ जीवन-शक्तिको छोळते है । आनन्द । यह महाभूचालके प्रादुर्भावका सप्तम हेतु=सप्तम प्रत्यय है । (८) और फिर आनन्द । जब तथागत संपूर्ण निर्वाणको प्राप्त होते है । ० यह अष्टम हेतु है । आनन्द । महा-भूचालके यह आठ हेतु=प्रत्यय है ।
“आनन्द । यह आठ (प्रकारकी) परिषद् (=सभा) होती है । कौनसी आठ ? क्षत्रिय परिषद्, ब्राह्मण-परिषद् गृहपति-परिषद्, श्रमण-परिषद्, चातुर्महाराजिक-परिषद्, त्रायस्त्रिश-परिषद्, मार-परिषद् और ब्रह्म-परिषद्, । आनन्द । मुझे अपना सैकळो क्षत्रिय-परिषदोमे जाना याद है । और वहॉ भी (मेरा) पहिले भाषण किये जैसा, पहिले आये जैसा साक्षात्कार (होता है) । आनद । ऐसी कोई बात देखनेका कारण नही मिला, जिससे कि मुझे वहॉ भय या घबराहट हो । क्षेमको प्राप्त हो, अभयको प्राप्त हो, वैशारद्यको प्राप्त हो, मै विहार करता हूँ । आनन्द । मुझे अपना सैकळो ब्राह्मण-परिषदोमे जाना याद है ० । ० गृहपति-परिषदोमे ० । ० श्रमण-परिषदोमे ० । ० चातुर्महा-राजिक-परिषदोमे ० । ० त्रायस्त्रिश-परिषदोमे ० । ० मार-परिषदोमे ० । ० ब्रह्मपरिषदोमे ० ।
‘आनन्द । यह आठ अभिभू-आयतन (=एक प्रकारकी योग-क्रिया) है । कौनसे आठ ? (१) अपने भीतर अकेला रूपका ख्याल रखनेवाला होता है, और बाहर स्वल्प सुवर्ण या दुर्वर्ण रूपोको देखता है । ‘उन्हे दबाकर (=अभिभूय) जानूँ देखूँ’—ऐसा ख्याल रखनेवाला होता है । यह प्रथम अभिभू-आयतन है । (२) अपने भीतर अकेला अ-रूतका ख्याल रखनेवाला होता है, और बाहर अपरिमित सुवर्ण या दुर्वर्ण रूपोको देखता है । ‘उन्हे दबाकर जानूँ देखूँ’—ऐसा ख्याल रखनेवाला होता है । यह द्वितीय ० । (३) अपने भीतर अकेला अ-रूपका ख्याल रखनेवाला बाहर स्वल्प सुवर्ण या दुर्वर्ण रूपोको देखता है ० । (४) अपने भीतर अ-रूपका ख्याल ० बाहर सुवर्ण या दुर्वर्ण अपरिमित रूपोको देखता है ० । (५) अपने भीतर अरूपका ख्याल० बाहर नीले, नीले जैसे, नीलवर्ण, नीलनिदर्शन, नीलनिभास रूपोको देखता है । जैसे कि अलसीका फूल नील=नीलवर्ण=नीलनिदर्शन=नील-निभास होता है, (वैसा) रूपोको देखता है । जैसे दोनो ओरसे चिकना नील ० बनारसी वस्त्र हो, ऐसे ही अपने भीतर अ-रूप ० । (६) अपने भीतर अरूप ०, बाहर पीत (=पीले) ० देखता है । जैसे कि कर्णिकारका फूल पीत०, जैसे कि दोनो ओरसे चिकना पीत ० काशीका वस्त्र ० । (७) अपने भीतर अरूप ०, बाहर लोहित (=लाल)० देखता है । जैसे कि वधुजीवक (=अँळहुल) का फूल लोहित ०, जैसे कि० लाल ० काशीका वस्त्र ० । (८) अपने भीतर अरूप ०, बाहर सफेद ० देखता है । जैसे कि शुक्रतारा सफेद०, जैसे कि ० सफेद ० काशीका वस्त्र ० । आनन्द । यह आठ अभिभू-आयतन है ।
“और फिर आनन्द । यह आठ विमोक्ष है । कौनसे आठ? (१) रूपी (=रूपवाला) रूपोको देखता है, यह प्रथम विमोक्ष है । (२) शरीरके भीतर अरूपका ख्याल रखनेवाला हो बाहर रूपोको देखता है ० । (३) सुभ (=शुभ्र) ही अधिमुक्त (=मुक्त) होते है ० । (४) सर्वथा रूपके ख्यालको अतिक्रमणकर, प्रतिहिंसाके ख्यालके लुप्त होनेसे, नानापनके ख्यालको मनमे न करनेसे
‘आकाश अनन्त है’—इस आकाश-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त विहरता है० । (५) सर्वथा आकाश-आनन्त्य-आयतनको अतिक्रमण कर ‘विज्ञान (=चेतना) अनन्त है’—इस विज्ञान-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है० । (६) सर्वथा विज्ञान-आनन्त्यको अतिक्रमणकर ‘कुछ नही है’—इस आकिंचन्य-आयतनको प्राप्त विहरता है० । (७) सर्वथा आकिंचन्य-आयतन-को अतिक्रमणकर, नैवसज्ञा-नासज्ञा-आयतन(=जिस समाधिके आभासको न चेतना ही कहा जा सके, न अचेतना ही)को प्राप्त हो विहरता है ० । (८) सर्वथा नैवसज्ञा-नासज्ञा-आयतनको अतिक्रमणकर प्रज्ञावेदितनिरोध (=प्रज्ञाकी वेदनाका जहाँ निरोध हो) को प्राप्त हो निहरता है, यह आठवाँ विमोक्ष है ।
“एक बार आनन्द । मै प्रथम प्रथम बुद्धत्वको प्राप्त हो उरूबेलामे नेरजरा नदीके तीर अजपाल वर्गदके नीचे विहार करता था । तब आनन्द । दृष्ट (=पाप्मा) मार जहाँ मै था वहाँ आया । आकर एक ओर खळा होगया । और बोला—‘भन्ते । भगवान् अब परिनिर्वाणको प्राप्त हो, सुगत । परिनिर्वाणको प्राप्त हो ।’ ऐसा कहनेपर आनन्द । मैने दुष्ट मारसे कहा—‘पापी । मै तब तक परिनिर्वाणको नही प्राप्त होऊँगा, जब तक मेरे भिक्षु श्रावक निपुण (=व्यक्त), विनय-युक्त, विशारद, बहुश्रुत, धर्मधर (=उपदेशोको कठस्थ रखनेवाले), धर्मके मार्गपर आरूढ, ठीक मार्गपर आरूढ धर्मानुसार आचरण करनेवाले, अपने सिद्धान्त (=आचार्यक)को ठीकसे पढ कर न व्याख्यान करने लगेगे, न उपदेश करेगे, न प्रज्ञापन करेगे, न स्थापन करेंगे, न विवरण करेगे, न विभाजन करेगे, न स्पष्ट करेगे, दूसरो द्वारा उठाये अपवादोको घर्मके साथ अच्छी तरह पकळ कर युक्ति (=प्रतिहार्य)के साथ धर्मका उपदेश न करेंगे । जब तक कि मेरी भिक्षुणी श्राविकाये (=शिष्या) निपुण ०।० उपासक श्रावक ०।० उपासिका श्राविकाये ० । जब तक यह ब्रह्मचर्य (=बुद्धधर्म) समुद्ध=वृद्धिगत, विस्तारको प्रापत, बहुजन-समानित, विशाल और देव-मनुष्यो तक सुप्रकाशित न हो जायगा ।’ आनन्द । अभी आज इसी चापाल-चैत्यमे मार पापी मेरे पास आया । आकर एक ओर खळा हो बोला—‘भन्ते । भगवान् अब परिनिर्वाणको प्राप्त हो ० ।’ ऐसा कहनेपर मैने आनन्द । पापी मारसे यह कहा—‘पापी । बेफिक्र हो, आजसे तीन मास बाद तथागत परिनिर्वाणको प्राप्त होंगे ।’ अभी आनन्द । इस चापाल-चैत्यमे तथागतने होश-चेतके साथ जीवन-शक्तिको छोळ दिया ।”
ऐसा कहनेपर आयुष्मान् आनंदने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । भगवान् बहुजन-हितार्थ, बहुजन-सुखार्थ, लोकानुकम्पार्थ, देव-मनुष्यो के अर्थ-हित-सुख के लिये कल्प भर ठहरे ।”
“बस आनन्द । मत तथागतसे प्रार्थना करो । आनंद । तथागतसे प्रार्थना करनेका समय नही रहा ।”
दूसरी बार भी आयुष्मान आनंदने ० ।
तीसरी बार भी ०।
“आनंद । तथागतकी बोधि (=परमज्ञान) पर विश्वास करते हो ?”
“हाँ, भन्ते ।”
“तो आनंद । क्यो तीन बार तक तथागतको दबाते हो ?”
“भन्ते । मैने यह भगवानके मुखसे सुना, भगवानके मुखसे ग्रहण किया—‘आनंद । जिसने चार ऋद्धिपाद साधे है ०१ ।”
“विश्वास करते हो आनन्द ।”
“हॉ, भन्ते ।”
“तो आनंद । यह तुम्हारा ही दुष्कृत है, तुम्हारा ही अपराध है, जो कि तथागतके वैसा उदार- (=स्थूल) भाव प्रकट करनेपर, उदार भाव दिखलानेपर भी तुम नही समझ सके । तुमने तथागतसे नही याचका की—‘भन्ते । भगवान् ० कल्प भर ठहरे’ । यदि आनंद । तुमने याचना की होती, तो तथागत दो ही बार तुम्हारी बातको अस्वीकृत करते, तीसरी बार स्वीकार कर लेते । इसलिये, आनंद । यह तुम्हारा ही दुष्कृत (=दुक्कट) हे, तुम्हारा ही अपराध हे ।
“आनंद । एक बार मै राजगृहके गृध्रकूट-पर्वत पर विहार करता था । वहॉ भी आनंद । मैने तुमसे कहा—आनंद । राजगृह रमणीय है । गृध्रकूट-पर्वत रमणीय है । आनंद । जिसने चार ऋद्धिपाद साधे है ०। तथागतके वैसा उदार भाव प्रकट करने पर ० भी तुम नही समझ सके ० । आनद । यह तुम्हारा ही दुष्कृत है, तुम्हारा ही अपराध है।
“आनंद । एक बार मैं वही राजगृहके गौतम-न्ग्रोधमे विहार करता था ० । ० राजगृहके चोरतपा पर ० । ० राजगृहमे वैभार-पर्वतकी बगलमेकी सप्तपर्णी (=सत्तपण्णी) गुहामे ० । ० ऋषिगिरिकी बगलमे कालशिलापर ० । ० सीतवनके सर्पशौंडिक (=सप्पसोडिक) पहाळ (—प०भार) पर ० । ० तपोदाराममे ० । ० वेणुवनमे कलन्द्रक-निवापमे ० । ० जीवक्राम्रवनमे ० । ० मद्रकुक्षिमृगदावमे विहार करता था । वहॉ भी आनंद । मैने तुमसे कहा—आनन्द । रमणीय हे राजगृह । रमणीय है गौतमन्यग्रोध ० । तुम्हारा ही अपराध है ।
“आन्नद । एक बार मे इसी वैशालीके उदयनचैत्यमे विहार करता था ० । ० गौतमक-चैत्य ० । ० सप्ताम्र (=सतम्व)चैत्य ० । ० बहुपुत्रक-चैत्य ० । ० सारन्दद-चैत्य ० । अभी आज मैने आनन्द । तुम्हे इस चापाल-चैत्यमे कहा—आनंद । रमणीय है वैशाली ० । तुम्हारा ही अपराध है।
“आन्नद । क्या मैने पहिले ही नही कह दिया—सभी प्रियो=मनापोसे जुदाई वियोग=अन्यथाभाव होता है । सो वह आनन्द कहाँ मिल सकता है, कि जो उत्पन्न=भूत=संस्कृत, नाशमान है, वह न नष्ट हो । यह संभव नही । आन्नद । जो यह तथागतने जीवन-संस्कार छोळा, त्यागा, प्रहीण—प्रतिनि सृष्ट किया, तथागतने बिल्कुल पक्की बात कही है—जल्दी ही ० आजसे तीन मास वाद तथागतका परिनिर्वाण होगा । जीवनके लिये तथागत क्या फिर वमन कियेको निगलेंगे । यह संभव नही ।
“आओ आनन्द । जहाँ महावन-कूटागारशाला है, वहॉ चले ।”
“अच्छा भन्ते ।”
भगवान् आयुष्मान् आनन्दके साथ जहॉ महावन कूटागार-शाला थी, वहॉ गये । जाकर आयुष्मान् आनन्दसे बोले—“आन्नद । जाओ वैशालीके पास जितने भिक्षु विहार करते है, उनको उपस्थानशालामे एकत्रित करो ।”
तब भगवान् जहाँ उपस्थानशाला थी वहाँ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठे । बैठकर भगवान् ने भिक्षुओको आमंत्रित किया —
“इसलिये भिक्षुओ । मैने जो धर्म उपदेश किया है, तुम अच्छी तौरसे सीखकर उसका सेवन करना, भावना करना, बढाना, जिसमे कि यह ब्रह्मचर्य अध्वनीय=चिरस्थायी हो, यह (ब्रह्मचर्य) बहुजन-हितार्थ, बहुजन-सुखार्थ, लोकानुकपार्थ, देव-मनुष्योके अर्थ-हित-सुखके लिये हो । भिक्षुओ । मैंने यह कौनसे धर्म, अभिज्ञानकर, उपदेश किये है, जिन्हे अच्छी तरह सीखकर ० ॽ जैसे कि (१) चार स्मृति-प्रस्थान, (२) चार सम्यक-प्रधान, (३) चार ऋद्धिपाद, (४) पॉच इन्द्रिय, (६) पाँचबल, (७) सात वोध्यग, (८) आर्य अष्टागिक-मार्ग।।
“हन्त । भिक्षुओ । तुम्हे कहता हूँ—सस्कार (=कृतवस्तु), नाश होने वाले (=वयघर्म्मा) है, प्रमादरहित हो (आदर्शको) सम्पादन करो । अचिरकालमे ही तथागतका परिनिर्वाण होगा । आजसे तीन मास वाद तथागत परिनिर्वाण पायेगे ।”
भगवानने यह कहा । सुगत शास्ताने यह कह फिर यह भी कहा—
“मेरा आयु परिपक्व हो गया, मेरा जीवन थोळा है ।
“तुम्हे छोळकर जाऊँगा, मैने अपने करने लायक (काम)को कर लिया ॥८॥
भिक्षुओ । निरालस, सावघान, सुशील होओ ।
सकल्पका अच्छी तरह समाघान कर अपने चितकी रक्षा करो ॥९॥
जो इस घर्ममे प्रमादरहित हो उघोग करेगा,
वह आवागमनको छोळ दुखका अन्त करेगा ॥१०॥
(इति) तृतीय भाणवार ॥३॥
कुसीनाराकी ओर—
तब भगवानने पूर्वाह्र समय पहिनकर पात्र चीवर ले वैशालीमे पिडचार कर, भोजनोपरान्त नागावलोकन (=हाथीकी तरह सारे शरीरको घुमा कर देखना)से वैशालीको देखकर, आयुष्यमान् आनन्दसे कहा—
“आनन्द । तथागतका यह अन्तिम वैशाली-दर्शन होगा । आओ आनद । जहॉ भण्डगाम है, वहॉ चले ।” “अच्छा भन्ते ।’
भण्डगाम—
तब भगवान् महाभिक्षु-सघके साथ जहॉ भडग्राम था, वहाँ पहुँचे । वहॉ भगवान् भण्डग्राममे विहार करते थे । वहाँ भडग्राममे विहार करते भी भगवान् ० ।
० जहॉ अम्बगाम (=आम्रग्राम) ० । ० जहाँ जम्बूगाम (=जम्बूग्राम) ० । ० जहाँ भोगनगर ० भोगनगर—
(७) महाप्रदेश (कसौटी)
वहाँ भोगनगरमे भगवान् आनन्द-चैत्यमे विहार करते थे । वहाँ भगवानने भिक्षुओको आमत्रित किया—
“भिक्षुओ । चार महाप्रदेश तुम्हे उपदेश करता हूँ, उन्हे सुनो, अच्छी तरह मनमे करो, भाषण करता हूँ ।”
“अच्छा भन्ते ।” कह उन भिक्षुओने भगवानको उतर दिया ।
भगवानने यह कहा—(१) “भिक्षुओ । यदि (कोई) भिक्षु ऐसा कहे—आवुसो । मैने इसे भगवानके मुखसे सुना, मुखसे ग्रहण किया है, यह घर्म है, यह विनय है, यह शास्ताका उपदेश है । तो भिक्षुओ । उस दिन भिक्षुके भाषणका न अभिनन्दन करना, न निन्दा करना । अभिनन्दन न कर, निन्दा न कर, उन पद-व्यजनोको अच्छी तरह सीखकर, सूत्रसे तुलना करना, विनयमे देखना । यदि वह सूत्रसे तुलना करने पर, विनयमे देखनेपर, न सूत्रमे उतरते है, न विनयमे दिखाई देते है, तो विश्वास करना कि अवश्य यह भगवानका वचन नही है, उस भिक्षुका ही दुर्गृहीन है । ऐसा (होनेपर) भिक्षुओ । उसको छोळ देना । यदि वह सूत्रसे तुलना करनेपर, विनयमे देखनेपर, सूत्रमे
भी उतरता है, विनयमे भी दिखाई देता है, तो विश्वास करना—अवश्य यह भगवानका वचन है, इस भिक्षुका यह सुगृहीत है । भिक्षुओ । इसे प्रथम महाप्रदेश घारण करना ।
“(२) और फिर भिक्षुओ । यदि (कोई) भिक्षु ऐसा कहे—आवुसो । अमुक आवास मे स्थविर-युकत प्रमुख-युक्त (भिक्षु)-सघ विहार करता है । मैने उस सघके मुखसे सुना, मुखसे ग्रहण किया है—यह घर्म है, यह विनय है, यह शास्ताका शासन है । ० । तो विश्वास करना, कि अवश्य उन भगवानका वचन है, इसे सघने सुगृहीत किया । भिक्षुओ । यह दुसरा महाप्रदेश घारण करना ।
“(३) ० भिक्षु ऐसा कहै—‘आवुसो । अमुक आवासमे बहुतसे बहुश्रुत, आगत-आगम—(=आगमज्ञ), घर्म-घर, विनय-घर, मात्रिका-घर, स्थविर भिक्षु विहार करते है । यह मैने उन स्थविरो के मखसे सुना, मुखसे ग्रहण किया । यह घर्महै । ० । ० ।
“(४) भिक्षुओ । (यदि) भिक्षु ऐसा कहे—अमुक आवासमे एक बहुश्रुत ० स्थविर भिक्षु विहार करता है । यह मैने उस स्थविरके मुखसे सुना है, मुखसे ग्रहण किया है । यह घर्म है, यह विनय ० । भिक्षुओ । इसे चतुर्थ महाप्रदेश घारण करना ।
भिक्षुओ । इन चार महाप्रदेशोको घारण करना ।”
वहॉ भोगनगरमे विहार करते समय भी भगवान् भिक्षुओको बहुत करके यही घर्म-कथा कहते थे०।
पावा—
(८) चुन्दका अन्तिम भोजन
० तब भगवान् भिक्षु-सघके साथ जहॉ पावा थी, वहाँ गये । वहॉ पावामे भगवान् चुन्द कर्मार-(=सोनार)-पुत्रके आम्रवनमे विहार करते थे ।
चुन्द कर्मारपुत्रने सुना—भगवान् पावामे आये है, पावामे मेरे आम्रवनमे विहार करते है । तब चुन्द कर्मार-पुत्र जहॉ भगवान् थे, वहाँ जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठा । एक ओर बैठे चुन्द कर्मार-पुत्रको भगवानने घार्मिक-कथामे ० समुत्तेजित ० किया । तब चुन्द ० ने भगवान की घार्मिक-कथासे ० समुत्तेजित ० हो भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । भिक्षु-सघके साथ भगवान् मेरा कलका भोजन स्वीकार करे ।”
भगवानने मोनसे स्वीकार किया ।
तब चुन्द कर्मार-पुत्रने उस रातके बीतनेपर उत्तम खाघ-भोज्य (और) बहुत सा शूकर-मार्दव (=सूकर-मदृव)१ तैयार करवा, भगवानको कालकी सूचना दी । तब भगवान पूर्वाह्र समय पहिनकर पात्र-चीवर ले भिक्षु-सघके साथ, जहॉ चुन्द कर्मार-पुत्रका घर था, वहाँ गये । जाकर बिछे आसन पर बैठे । । (भोजनकर) एक ओर बैठे चुन्द कर्मार-पुत्रको भगवान् घार्मिक-कथा से ० समुत्तेजित ० कर आसनसे उठकर चल दिये ।
तब चुन्द कर्मार-पुत्रके भात (=भोजन)को खाकर भगवानको खून गिरनेकी, कळी बीमारी उत्पन्न हुई, मरणान्तक सख्त पीळा होने लगी । उसे भगवानने स्मृति-सप्रजन्ययुकत हो, बिना दुखित हुये, सहन किया । तब भगवानने आयुष्यमान् आनन्दको सबोघित किया—
“आओ आनन्द । जहाँ कुसीनारा है, वहॉ चले ।” “अच्छा भन्ते ।”
मैने सुना है—चुन्द कर्मारके भातको भोजनकर,
धीरको मरणान्तक भारी रोग हो गया ॥१३॥
शूकर-मार्दवके खानेपर शास्ताको भारी रोग उत्पन्न हुआ ।
विरेचनोके होते समय ही भगवानने कहा—चलो, कुसीनारा चले ॥१४॥
तब भगवान् मार्गसे हटकर एक वृक्षके नीचे गये । जाकर आयुष्मान् आनन्दसे कहा—
“ आनन्द मेरे लिये चौपेती सघाटी बिछा दो, मै थक गया हूँ, बैठूँगा ।
“अच्छा भन्ते ।” आयुष्मान् आनन्दने चौपेती सघाटी बिछादी, भगवान् बिछे आसनपर बैठे । बैठकर भगवानने आयुष्मान आनन्दसे कहा—“आनन्द मेरे लिये पानी लाओ । प्यासा हूँ, आनद । पानी पिऊँगा ।”
ऐसा कहने पर आयुष्मान् आनदने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । अभी अभी पॉच सौ गाळियाँ निकली है । चक्कोसे मथा हिडा पानी मैला होकर वह रहा है । भन्ते । यह सुदरजलवाली, शीतलजलवाली, सफेद, सुप्रतिष्ठित रमणीय ककुत्या नदी करीबमे है । वहॉ (चलकर) भगवान् पानी पीयेगे, और शरीरको ठडा करेगे ।”
दूसरी बार भी भगवानने ० । तीसरी बार भी भगवानने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—“आनन्द मेरे लिये पानी लाओ ०।”“अच्छा, भन्ते ।” कह भगवानको उत्तर दे पात्र लेकर जहाँ वह नदी थी, वहॉ गये । तब वह चक्कोसे मथे हिडे मैले थोळे पानीके साथ बहनेवाली नदी, आयुष्मान् आनन्दके वहॉ पहुँचने पर स्वच्छ निर्मल (हो) बहने लगी । तब आयुष्मान् आनदको ऐसा हुआ—‘आश्चर्य है । तथागतकी महा-ऋद्धि, महानुभावताको अद्भुत है । यह नदिका (=छोटी नदी) चक्कोसे मथे हिळे मैले थोळे पानीके साथ बह रही थी, सो मेरे आने पर स्वच्छ निर्मल बह रही है ।’ और पात्रमे पानी भरकर भगवानके पास ले गये । लेजाकर भगवानसे यह बोले—“ ० आश्चर्य है भन्ते । अदभूत है भन्ते ० निर्मल बह रही है । भन्ते । भगवान् पानी पिये, सुगत पानी पिये ।”
तब भगवानने पानी पिया ।
उस समय आलारकालामका शिष्य पुक्कुस मल्ल-पुत्र कुसीनारा और पावाके बीच, रास्ते मे जा रहा था । पुक्कुस मल्ल-पुत्रने भगवानको एक वृक्षके नीचे बैठे देखा । देखकर जहॉ भगवान् थे, वहॉ जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गया। पुक्कुस ० ने भगवानसे कहा—
“आश्यर्य भन्ते । अदभुत भन्ते । प्रब्रजित (लोग) शाततर विहारसे विहरते है । भन्ते । पूर्वकालमे (एक बार) आलार कालाम रास्ता चलते, मार्गसे हटकर पासमे दिनके विहारके लिये एक वृक्षके नीचे बैठे । उस समय पॉच सौ गाळियॉ आलार कालामके पीछेसे गई । तब उस गाळियोके सार्थ (=कारवॉ) के पीछे पीछे आते एक आदमीने आलार कालामके पास जाकर पूछा—‘क्या भन्ते । पॉच सौ गाळियॉ (इधरसे) निकलते देखा है ?’
‘आवुस । मैने नही देखा ।”
“क्या भन्ते । आवाज सुनी ?”
“नही आवुस । मैने आवाज नही सुनी ।”
“क्या भन्ते । सो गये थे ?”
“नही आवुस । सोया नही था ।”
“क्या भन्ते । होशमे थे ?”
“हॉ, आवुस ।”
“तो भन्ते । आपने होशमे जागते हुए भी पीछेसे निकली पॉच सौ गाळियॉको न देखा, न (उनकी) आवाजको सुना ॽ किन्तु (यह जो) आपकी सधाटी पर गर्द पळी है ॽ”
“हॉ । आवुस ।”
“तब भन्ते । उस पुरुषको हुआ—आश्चर्य है । अद्भुत है । । अहो प्रब्रजित लोग शान्त विहारसे विहरते है, जो कि (इन्होने) होशमे, जागते हुये भी पॉच सौ गाळियोकी न देखा, न (उनकी) आवाजको सुना ।’— कह आलार कालामके प्रति बळी श्रद्धा प्रकट कर चला गया ।”
“तो क्या मानते हो पुक्कुस । कौन दुष्कर है, दु सम्भव है—जो कि होशमे जागते हुये पॉच सौ गाळियोका न देखना, न आवाज सुनना, अथवा होशमे जागते हुये, पानीके बरसते बादल के गळगळाते, बिजलीके निकलते और अशनि (=बिजली) के गिरनेके समय भी न (चमक) देखे न आवाज सुने ॽ”
“क्या हे भन्ते पाँच सौ गाळियॉ, छै सौ०, सात सौ० , आठ सौ० , नौ सौ ० , दस सौ०, दस हजार ०, या सौ हजार गाळियॉ, यही दुष्कर दु सम्भव है जो कि होशमे जागते हुये, पानीके बरसते ० बिजलीके गिरनेके समय भी न (चमक) देखे, न आवाज सुने ।”
“पुक्कुस । एक समय मै आतुमाके भुसागारमे विहार करता था । उस समय देवके बरसते ० बिजलीके गिरनेसे दो भाई किसान और चार बैल मरे । तब आतुमासे आदमियोकी भीळ निकल कर वहॉ पहुँची, जहॉपर कि वह दो भाई किसान और चार बैल मरे थे । उस समय पुक्कुस । मै भुसागारसे निकलकर द्वारपर टहल रहा था । तब पुक्कुस । उस भीळसे निकल कर एक आदमी मेरे पास आ खळा होकर बोला—‘भन्ते । इस समय देवके बरसते ० बिजलीके गिरनेसे दो भाई किसान और चार बैल मर गये । इसीलिये यह भीळ इकटठी हुई है। आप भन्ते । (उस समय) कहॉ थे ।’
‘आवुस । यही था ।’
“क्या भन्ते । आपने देखा ॽ’
‘नही, आवुस । नही देखा ॽ’
“क्या भन्ते । शब्द सुना ॽ’
‘नही, आवुस । शब्द (भी) नही सुना ।’
“क्या भन्ते । सो गये थे ॽ’
‘नही, आवुस । सोया नही था ।
“क्या भन्ते । होशमे थे ॽ’
“हाँ, आवुस ।’
‘तो भन्ते । आपने होशमे जागते हुये भी देवके बरसते ० बिजलिके गिरनेको न देखा, न शब्द को सुना ॽ’
‘हॉ, आवुस ।’
“तब पुक्कुस । उस आदमीको हुआ—आशचर्य है । अद्भुत है । । अहो प्रब्रजित लोग शान्त विहारसे विहरते है ० न आवाज सुने ।’—कह मेरे प्रति बळी श्रद्धा प्रकटकर चला गया ।”
ऐसा कहनेपर पुक्कुस मल्लपुत्रने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । यह मै, जो मेरा आलार कालाममे श्रद्धा (=प्रसाद) थी, उसे हवामे उळा देता हूँ, या शीध्र धारवाली नदीमे वहा देता हूँ, आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । जेसे ओधेकी सीधा करदे, ढँकेको खोलदे, भूलेको रास्ता बतला दे, अधेरेमे चिराग रखदे, कि ऑखवाले रूपको देखे,ऐसे ही भन्ते ।
भगवानने अनेक प्रकारसे धर्मको प्रकाशित किया । यह मै भन्ते । भगवानकि शरण जाता हूँ, घर्म और भिक्षु सघकी भी । आजसे मुझे भगवान् अजलिवद्ध शरणागत उपासक धारण करे ।”
तब पुक्कुस मल्लपुत्रने (अपने) एक आदमीसे कहा—“आ रे । मेरे इगुरके वर्ण वाले चमकते दुशालेको ले आ ।”
“अच्छा, भन्ते ।”—कह उस आदमीने पुककुस मल्लपुत्रको कह, ० दुशालेको ला दिया । तब पुककुस मल्लपुत्रने ० दुशाला भगवानको अर्पित किया—
“भन्ते । कृपाकरके इस मेरे ० दुशालेको स्वीकार करे ।”
“तो पुक्कुस । एक मुझे ओढा दे, एक आनदको ।”
“अच्छा, भन्ते ।”—कह, पुक्कुस मल्लपुत्रने भगवानको उत्तर दे, एक ० शाल भगवानको ओढा दिया, एक ० आयुष्मान् आनदको ।
तब भगवानने पुक्कुस मल्लपुत्रको धार्मिक कथा द्वारा सदर्शित=समुत्तेजित सप्रहर्पित किया । भगवानकी धार्मिक कथा द्वारा ० सप्रहर्षित हो पुक्कुस मल्लपुत्र आसनसे उठ भगवानको अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चला गया ।
तब पुक्कुस मल्ल-पुत्रके जानेके थोळीही देर बाद आयुष्मान् आनदने उस (अपने) ० शालको भगवानके शरीरपर ढॉक दिया । भगवानके शरीरपर किरणसी फूटी जान पळती थी । तब आयुष्मान् आनदने भगवानसे यह कहा—
“आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । कितना परिशुद्ध=पर्यवदात तथागतके शरीरका वर्ण है ।। भन्ते । यह ० दुशाला भगवानके शरीरपर किरणसा जान पळता है ।”
“ऐसा ही है आनन्द । ऐसा ही है आनन्द । दो समयोमे आन्नद । तथागतके शरीरका वर्ण अत्यन्त परिशुद्ध=पर्यवदात जान पळता है । किन दो समयोमे ॽ जिस समय तथागतने अनुपम सम्यक-सबोधि (=परमज्ञान) का साक्षात्कार किया, और जिस रात तथागत उपादि (=आवागमनके कारण) रहित निर्वाणको प्राप्त होते है । आनन्द । इन दो समयोमे ० । आनन्द । आज रातके पिछले पहर कुसीनाराके उपवर्त्तन (नामक) मल्लोके शालवनमे जोळे शालवृक्षोके बीच तथागतका परिनिर्वाण होगा । आओ, आनन्द । जहॉ ककुत्था नदि है, वहाँ चले ।”
“अच्छा, भन्ते ।” कह आयुष्मान् आनदने भगवानको उत्तर दिया ।
इगुर वर्णवाले चमकते दुशालेको पुक्कुसने अर्पण किया ।
उनसे आच्छदित बुद्ध सोनेके वर्ण जैसे शोभा देते थे ॥१५॥
“अच्छा भन्ते ।”
तब महाभिक्षु-सघके साथ भगवान् जहॉ ककुत्था नदी थी, वहाँ गये । जाकर ककुत्था नदीको अवगाहन कर, स्नानकर, पानकर, उतरकर, जहॉ अम्बवन (आम्रवन) था, वहॉ गये । जाकर आयुष्मान् चुन्दकसे बोले—
“चुन्दक । मेरे लिये चौपेती सघाटी बिछा दे । चुन्दक थक गया हूँ, लेटूँगा ।”
“अच्छा भन्ते ।”
तब भगवान् पैरपर पैर रख, स्मृतिसप्रजन्यके साथ, उत्थान-सज्ञा मनमे करके, दाहिनी करवट सिह-शय्यासे लेटे । आयुष्मान् चुन्दक वही भगवानके सामने बैठे ।
बुद्ध उत्तम, सुदर स्वच्छ जलवाली ककुत्था नदी पर जा,
लोकमे अद्वितीय, शास्ताने अ-क्लान्त हो स्नान किया ॥१६॥
स्नानकर, पानकर चुन्दको आगे कर भिक्षु-गणके बीचमे (चलते)
धर्मके वक्ता प्रवक्ता महर्षि भगवान् आम्रवनमे पहुँचे ॥१७॥
चुन्दक भिक्षुसे कहा—चौपेती सघाटी विछाओ, लेटूँगा ।
आत्मसयमीसे प्रेरित हो तुरन्त चौपेती (सघाटी)को बिछा दिया ।
अक्लान्त हो शास्ता लेट गये, चुन्द भी वहॉ सामने बैठ गये ॥१८॥
तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—
“आनन्द । शायद कोई चुन्द कर्म्मारपुत्रको चितित करे (=विप्पटिसार उपदहेय) (और कहे)—‘आवुस चुन्द । अलाभ है तुझे, तूने दुर्लाभ कमाया, जो कि तथागत तेरे पिंडपातको भोजनकर परिनिर्वाणको प्राप्त हुये ।’ आनद । चुन्द कर्मार-पुत्रकी इस चिंताको दूर करना (और कहना)—‘आवुस । लाभ है तुझे, तूने सुलाभ कमाया, जो कि तथागत तेरे पिडपातको भोजनकर परिनिर्वाणको प्राप्त हुये ।’ आवुस चुन्द । मैने यह भगवानके मुखसे सुना, मुखसे ग्रहण किया—‘यह दो पिड-पात समान फलवाले=समान विपाकवाले है, दूसरे पिडपातोसे बहुतही महाफल-प्रद=महानृशसतर है । कौनसे दो ॽ (१) जिस पिडपात (=भिक्षा)को भोजनकर तथागत अनुत्तर सम्यक्-सबोधि (=बुद्धत्त्व) को प्राप्त हुये, (२) और जिस पिडपातको भोजनकर तथागत अन्-उपादिशेष निर्वाणधातु (=दुखकारण-रहित निर्वाण) को प्राप्त हुये । आनन्द । यह दो पिंडपात ० । चुन्द कर्मारपुत्रने आयु प्राप्त करानेवाले कर्मको सचित किया, ० वर्ण ०, ०सुख ०, ० यश ०, ० स्वर्ग ०, ० आघिपत्य प्राप्त करानेवाले कर्मको सचित किया ।’ आनन्द । चुन्द कर्मारपुत्रकी चिन्ताको इस प्रकार दूर करना ।”
तब भगवानने इसी अर्थको जानकर उसी समय यह उदान कहा—
“(दान) देनेसे पुण्य बढता है, समयसे वैर नही सचित होता ।
सज्जन बुराईको छोळता है, (और) राग-द्वेष-मोहके क्षयसे वह निर्वाण प्राप्त करता है ॥१७॥
(इति) चतुर्थ माणवार ॥४॥
४—जीवनकी अन्तिम घळियाँ
तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दको आमत्रित किया—
“आओ आनन्द । जहॉ हिरण्यवती नदीका परला तीर है, जहॉ कुसीनाराके मल्लोका शालवन उपवत्तन है, वहाँ चले ।”
“अच्छा भन्ते ।”
तब भगवान् महाभिक्षु-सघके साथ जहॉ हिरण्यवती ० मल्लोका शालवन था, वहॉ गये । जाकर आयुष्मान् आनन्दसे बोले—
“आनन्द । यमक (=जुळवे)-शालो के बीचमे उत्तरकी ओर सिरहानाकर चारपाई (=मचक) बिछा दे । थका हूँ, आनन्द । लेटूँगा ।” “अच्छा भन्ते ।”
तब भगवान् ० दाहिनी करवट सिंह-शय्यासे लेटे ।
उस समय अकालहीमे वह जोळे शाल खूब फूले हुये थे । तथागतकी पूजाके लिये वे (फूल) तथागत के शरीरपर बिखरते थे । दिव्य मन्दार-पुष्प आकाशसे गिरते थे, वह तथागतके शरीर पर बिखरते थे । दिव्य चंदन चूर्ण ० । तथागतकी पूजाके लिये आकाशमे दिव्य वाद्य बजते थे । ० दिव्य सगीत ० ।
तब भगवानने आयुष्मान् आनदको सबोधित किया—“आनद । इस समय अकालहीमे यह जोळे शाल खूब फूले हुये है । ० । किन्तु, आनन्द । इनसे तथागत सत्कृत गुरूकृत, मानित-पूजित नही होते । आनन्द । जो कि भिक्षु या भिक्षुणी, उपासक या उपासिका धर्मके मार्गपर आरुढ हो विहरता
है, यथार्थ मार्गपर आरुढ हो घर्मानुसार आचरण करनेवाला होता है, उससे तथागत ० पूजित होते है । ऐसा आनद । तुम्हे सीखना चाहिये ।”
उस समय आयुष्मान् उपवान भगवानपर पखा झलते भगवानके सामने खळे थे । तब भगवानने आयुष्मान उपवानको हटा दिया—
“हट जाओ, भिक्षु । मत मेरे सामने खळे होओ ।”
तब आयुष्मान् आन्नदको यह हुआ— ՙयह आयुष्मान् उपवान चिरकालतक भगवानके समीप चारी= सन्तिकावचर उपस्थाक रहे है । किन्तु, अन्तिम समयमे भगवानने उन्हे हटा दिया—हट जाओ । भिक्ष ० । क्या हेतु=प्रत्यय है, जो कि भगवानने आयुष्मान् उपवानको हटा दिया—० ?’
तब आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—
“भन्ते । यह आयुष्मान् उपवान चिरकालतक भगवानके ० उपस्थाक रहे है । ० क्या हेतु ० है ?”
“आनद । बहुतसे दसो लोक-धातुओके देवता तथागतके दर्शनके लिये एकत्रित हुये है । आनद । जितना (यह) कुसीनाराका उपवर्तन मल्लोका शालवन है, उसकी चारो ओर बारह योजन तक बालके नोक गळाने भरके लिये भी स्थान नही है, जहॉ कि महेशाख्य देवता न हो । आन्नद । देवता परेशान हो रहे है—‘हम तथागतके दर्शनार्थ दुरसे आये है। तथागत अर्हत् सम्यक् सबुद्ध कभी ही कभी लोकमे उत्पन्न होते है । आज ही रातके अन्तिम पहरमे तथागतका परिनिर्वाण होगा । और यह महेशाख्य (=प्रतापी) भिक्षु ढॉकते हुये भगवानके सामने खळा है । अन्तिम समयमे हमे तथागतका दर्शन नही मिल रहा है ।’
“भन्ते । भगवान् देवताओके बारेमे कैसे देख रहे है ?”
“आनद । देवता आकाशको पृथिवी ख्यालकर बाल खोले रो रहे है । हाथ पकळकर चिल्ला रहे हे । कटे (वृक्ष) की भाति भूमिपर गिर रहे है । (यह कहते) लोट पोट रहे है—҅बहुत जल्दी भगवान् निर्वाणको प्राप्त हो रहे है । बहुत शीध्र सुगत निर्वाणको प्राप्त हो रहे है । बहुत शीध्र चक्षुमान् (=वुद्ध) लोकसे अन्तर्धान हो रहे है ।’ और जो देवता होश-चेतवाले है, वह होरा-चेत स्मृति सप्रजन्योके साथ रहे है—ՙसस्कृत (=कृत वस्तुये) अनित्य है । सो कहाँ मिल सकता है’ ।”
“भन्ते । पहिले दिशाओमे वर्षावास कर भिक्षु भगवानके दर्शनार्थ आते थे । उन मनोभावनीय भिक्षुओका दर्शन, सत्सग हमे मिलता था । किन्तु भन्ते । भगवानके बाद हमे मनोभावनीय भिक्षुओका दर्शन, सत्सग नही मिलेगा ।”
“आन्नद । श्रद्धालु कुल-पुत्रके लिये यह चार स्थान दर्शनीय, सवेजनीय (=वैराग्यप्रद) है । कौनसे चार ? (१) ՙयहॉ तथागत उत्पन्न हुये (=लुम्भिनी)’ यह स्थान श्रद्धालु ० । (२) ՙयहॉ तथागतने अनुत्तर सम्यक्-सबोधिको प्राप्त क्रिया’ (=बोघगया) ० । (३) ҅यहाँ तथागतने अनुत्तर (=सर्व श्रेष्ठ) धर्मचक्रको प्रवर्तन किया’ (=सारनाथ) ० । (४) यहॉ तथागत अनुपादि-शेष निर्वाण-धातुको प्राप्त हुये (=कुसीनारा) ०। ० यह चार स्थान दर्शनीय ० है । आनन्द । श्रद्धालु भिक्षु भिक्षुणियॉ उपासक उपासिकाये (भविष्यमे यर्हा) आवेगी— ҅यहॉ तथागत उत्पन्न हुये’, ० ‘यहॉ तथागत ० निर्वाण ० को प्राप्त हुये ।”
(२) स्त्रियोके प्रति मिक्षुओंका वर्ताव
“भन्ते । स्त्रियोके साथ हम कैसा बर्ताव करेगे ? ”
“अन्दर्शन (=न देखना), आनन्द ।”
“दर्शन होनेपर भगवान् कैसे बर्ताव करेगे ?”
“आलाप (=बात) न करना, आनन्द ।”
“बात करनेवालेको कैसा करना चाहिये ॽ”
“स्मृति (=होश)को सँभाले रखना चाहिये ॽ”
(३) चक्रनर्तीकी दाहक्रिया
“भन्ते । तथागतके शरीरको हम कैसे करेगे ॽ” “आनन्द । तथागतकी शरीर-पूजासे तुम बेपर्वाह रहो । तुम आनन्द सच्चे पदार्थ (=सदर्थ)के लिये प्रयत्न करना, सत्-अर्थके लिये उधोग करना । सत्-अर्थमे अप्रमादी, उधोगी, आत्मसयमी हो विहरना । है, आनन्द । क्षत्रिय पडित भी, ब्राह्मण पण्डित भी, गृहपति पडित भी, तथागतमे अत्यन्त अनुरक्त, वह तथागतकी शरीर-पूजा करेगे ।”
“भन्ते । तथागतके शरीरको कैसे करना चाहिये ॽ” “जेसे आनन्द । राजा चक्रवर्तीके शरीरके साथ करना होता है, वैसे तथागतके शरीरको करना चाहिये ।”
“भन्ते । राजा चक्रवर्तीके शरीरके साथ कैसे किया जाता है ॽ”
“आनन्द । राजा चक्रवर्तीके शरीरको नये वस्त्रसे लपेटते है, नये वस्त्रसे लपेटकर धुनी रूईस लपेटते है । धुनी रूईसे लपेटकर नये वस्त्रसे लपेटते है । इस प्रकार लपेटकर तेलकी लोहद्रोणी (=दोन) मे रखकर, दूसरी लोह-द्रोणीसे ढाँककर, सभी गधो (वाले काष्ठ)की चिता बनाकर, राजा चक्रवर्तीके शरीरको जलाते है, जलाकर बळे चौरस्ते पर राजा चक्रवर्तीका स्तूप बनाते है ।”
“वहाँ आनन्द । जो माला, गधयाचूर्ण चढायेगे, या अभिवादन करेगे, या चित्त प्रसन्न करेगे, तो वह दीर्घ काल तक उनके हित-सुखके लिये होगा । आनद । चार स्तूपार्ह (=स्तूप बनाने योग्य)है । कौनसे चार ॽ (१) तथागत सम्यक् सबुद्ध स्तूप बनाने योग्य है । (२) प्रत्येक सबुद्ध ० । (३) तथागतका श्रावक (=शिष्य) ० । (४) चक्रवर्ती राजा आनद, स्तूप बनाने योग्य है । सो क्यो आनद ॽ तथागत अर्हत् सम्यक् सबुद्ध स्तूपार्ह है ॽ यह उन भगवान् ० सबुद्धका स्तूप है—(सोचकर) आनद । बहुतसे लोग चित्तको प्रसन्न करेगे चित्तको प्रसन्न कर मरनेके बाद सुगति स्वर्ग लोकमे उत्पन्न होगे । इस प्रयोजनसे आनद । तथागत ० स्तूपार्ह है । ० । किस लिये आनद । राजा चक्रवर्ती स्तूपार्ह है ॽ आनन्द । यह धार्मिक धर्मराजका स्तूप है, सोच आनद । बहुतसे आदमी चित्तको प्रसन्न करेगे ० । ० आनद । यह चार स्तूपार्ह हे ।
(४) आनन्दके गुण
तब आयुष्यमान् आनन्द विहारमे जाकर कपिसीस (=खुँटी)को पकळकर रोते खळे हुये—‘हाय । मे शैक्ष्य=सकरणीय हूँ । और जो मेरे अनुकपक शास्ता है, उनका परिनिर्माण हो रहा है । ।”
भगवानने भिक्षुओको आमत्रित किया—“भिक्षुओ । आनन्द कहॉ है ॽ”
“यह भन्ते । आयुष्मान् आनन्द विहार(=कोठरी)मे जाकर ० रोते खळे हे ० ।”
“आ । भिक्षु । मेरे वचनसे तू आनन्दको कह—‘आवुस आनन्द । शास्ता तुम्हे बुला रहे है ।” “अच्छा, भन्ते ।”
आयुष्मान् आनन्द जहॉ भगवान् थे वहॉ आकर अभिवादनकर एक ओर बैठे । आयुष्मान आनन्दसे भगवानने कहा—
“नही आनन्द । मत शोक करो, मत रोओ । मैने तो आनन्द । पहिले ही कह दिया है—सभी प्रियो=मनापोसे जुदाई ० होनी है, सो वह आनन्द । कहॉ मिलनेवाला है । जो कुछ जान (=उत्पन्न) =भूत=सस्कृत है, सो नाश होनेवाला है । ‘हाय । वह नाश न हो ।’ यह सभव नही । आनन्द तुने
दीर्धरात्र (=चिरकाल) तक अप्रमाण मैत्रीपूर्ण कायिक-कर्मसे तथागतकी सेवा की है । मैत्रीपूर्ण वाचिक कर्मसे० । ० मैत्रीपूर्ण मानसिक कर्मसे ० । आनन्द । तू कृतपुण्य है। प्रधान (=निर्वाण-साधन) मे लग जल्दी अनास्त्रव (=मुक्त) हो जा ।”
तब भगवानने भिक्षुओको सबोधित किया—
“भिक्षुओ । जो तथागत अर्हत्-सम्यक्-सबुध्द अतीतकालमे हुए, उन भगवानोके भी उतस्थाक (=चिरसेवक) इतने ही उत्तम थे, जैसा कि मेरा (उपस्थाक) आनन्द । भिक्षुओ । जो तथागत ० भविष्यमे होगे ० । भिक्षुओ । आन्नद पडित है । भिक्षुओ । आनन्द मेधावी है । वह जानता हे—यह काल भिक्षुओका तथागतके दर्शनार्थ जाने का है, यह काल भिक्षुणियोका है, यह काल उपासकोका है, यह काल उपासिकाओका है । यह काल राजाका ० राज-महामात्यका ० तीर्थिकोका ० तीर्थिक-श्रावकोका है ।
“भिक्षुओ । आनन्दमे यह चार आश्चर्य अद्भुत बाते (=धर्म) है । कौनसी चार ॽ (१) यदि भिक्षु-परिषद् आनन्दका दर्शन करने जाती है, तो दर्शनसे सन्तुष्ट हो जाती है । वहॉ यदि आनन्द धर्मपर भाषण करता है, भाषणसे भी सन्तुष्ट हो जाती है, भिक्षुओ । भिक्षु-परिषद् अ-तृप्त ही रहती है, जब कि आनन्द चुप हो जाता है । (२) यदि भिक्षुणी-परिषद् ० । (३) यदि उपासक-परिषद् ० । (४) यदि उपासिका-परिषद् ० । भिक्षुओ । यह चार ० ।
(५) चक्रवर्तीके चार गुण
“भिक्षुओ । चक्रवर्ती राजामे यह चार आश्चर्य, अद्भुत बाते है । कौनसी चार ॽ (१) यदि भिक्षुओ । क्षत्रिय-परिषद् चक्रवर्ती राजाका दर्शन करने जाती है, तो दर्शनसे सन्तुष्ट हो जाती है । वहॉ यदि चक्रवर्ती राजा भाषण करता है, तो भाषणसे सन्तुष्ट हो जाती हे, और भिक्षुओ । क्षत्रिय-परिषद् अ-तृप्त ही रहती है, जब कि चक्रवर्ती राजा चुप होता है। (२) यदि ब्राह्मण-परिषद् ० । (३) यदि गृहपति- परिषद् ०। (४) यदि श्रमण परिषद् ०। इसी प्रकार भिक्षुओ । यह चार आश्चर्य, अद्भुत बाते आनन्दमे है । (१) यदि भिक्षु-परिषद् ०।०। भिक्षुओ । यह चार आश्चर्य अद्भुत बाते आनन्दमे है ।”
आयुष्मान् आन्नदने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । मत इस क्षुद्र नगले (=नगरक) मे, जगली नगलेमे शाखा-नगरकमे परिनिर्वाणको प्राप्त होवे । भन्ते । और भी महानगर है, जैसे कि चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, वाराणसी । वहॉ भगवान् परिनिर्वाण करे । वहॉ बहुतसे क्षत्रिय महाशाल (=महाधनी), ब्राह्मण-महाशाल, गृहपति-महाशाल तथागतके भक्त है, वह तथागतके शरीरकी पूजा करेगे ।”
(६) महासुदर्शनजातक१
“मत आनन्द । ऐसा कह, मत आनन्द । ऐसा कह—‘इस क्षुद्र नगले ० ।’ आनन्द । पूर्वकालमे महासुदर्शन नामक चारो दिशाओका विजेता, देशोपर अधिकारप्राप्त, सात रत्नोसे युक्त धार्मिक धर्मराजा चक्रवर्ती राजा था । आनन्द । यह कुसीनारा राजा महासुदर्शनकी कुशावती नामक राजधानी थी । जो कि पूर्व-पश्चिम लम्बाईमे वारह योजन थी, उत्तर-दक्षिण विस्तारमे सात योजन थी । आनन्द । कुशावती राजधानी समृध्द=स्फीत, बहुजना=जनाकीर्ण और सुभिक्ष थी । जैसे कि आनन्द । देवताओ-
की आलकमदा नामक राजधानी समृद्ध=स्फीत, बहुजना=यक्ष-आकीर्ण और सुभिक्ष है, इसी प्रकार ० । आनन्द । कुशावती राजधानी दिन-रात, हस्ति-शब्द, अश्व-शब्द, रथ-शब्द, भेरी-शब्द, मृदग-शब्द, वीणा-शब्द, गीत-शब्द, शख-शब्द, ताल-शब्द, ‘खाइये-पीजिये’—इन दस शब्दोसे शून्य न होती थी । आनन्द । कुसीनारामे जाकर कुसीनारावासी मल्लोको कह—‘वाशिष्टो । आज रातके पिछले पहर तथागतका परिनिर्वाण होगा । चलो वाशिष्टो । चलो वाशिष्टो । पीछे अफसोस मत करना—‘हमारे ग्राम-क्षेत्रमे तथागतका परिनिर्वाण हुआ, लेकिन हम अन्तिमकालमे तथागतका दर्शन न कर पाये ।” “अच्छा भन्ते ।”
आयुष्मान् आनन्द चीवर पहिनकर, पात्रचीवर ले, अकेले ही कुसीनारामे प्रविष्ट हुए । उस समय कुसीनारावासी मल्ल किसी कामसे सस्थागारमे जमा हुए थे । तब आयुष्मान् आनन्द जहॉ कुसीनाराके मल्लोका सस्थागार था, वहॉ गये । जाकर कुसीनारावासी मल्लोसे यह बोले ‘वाशिष्टो । ० ।’
आयुष्मान् आनन्दसे यह सुनकर मल्ल, मल्ल-पुत्र, मल्ल-बधुये, मल्ल-भार्याये दुखित दुर्मना दुख-समर्पित-चित्त हो, कोई कोई बालोको बिखेर रोते थे, बॉह पकळकर कदन करते थे, कटे (वृक्ष) से गिरते थे, (भूमिपर) लोटते थे—बहुत जल्दी भगवान् निर्वाण प्राप्त हो रहे है, बहुत जल्दी सुगत निर्वाण प्राप्त हो रहे है ० । बहुत जल्दी लोक-चक्षु अन्तर्धान हो रहे है । तब मल्ल ० दुखित ० हो, जहॉ उपवत्तन मल्लोका शालवन था, वहॉ गये ।
तब आयुष्मान् आनन्दको यह हुआ—‘यदि मै कुसीनाराके मल्लोको एक एक कर भगवानकी वन्दना करवाऊँ, तो भगवान् (सभी) कुसीनाराके मल्लोसे अवन्दित ही होगे, और यह रात बीत जायेगी । क्यो न मै कुसीनाराके मल्लोको एक एक कुलमे क्रमसे भगवानकी वन्दना करवाऊँ—‘भन्ते ! अमुक नामक मल्ल स-पुत्र, स-भार्य, स-परिषद्, स-अमात्य भगवानके चरणोको शिरसे वन्दना करता है ।’ तब आयुष्मान् आनन्दने कुसीनाराके मल्लोको एक एक कुलके क्रमसे भागवानकी वन्दना करवाई— ० । इस उपायसे आयुष्मान् आनन्दने, प्रथम याम (=छैसे दस बजे राततक) मे कुसीनाराके मल्लोसे भगवानकी वन्दना करवा दी ।
(७) सुभद्रकी प्रब्रज्या
उसी समय कुसीनारामे सुभद्र नामक परिब्राजक वास करता था । सुभद्र परिब्राजकने सुना, आज रातको पिछले पहर श्रमण गौतमका परिनिर्वाण होगा । तब सुभद्र परिब्राजकको ऐसा हुआ— “ मैने बुद्ध=महल्लक आचार्य-प्राचार्य परिब्राजकोको यह कहते सुना है—‘कदाचित् कभी ही तथागत अर्हत् सम्यक्-सम्बुध्द उत्पन्न हुआ करते है ।’ और आज रातके पिछले पहर श्रमण गौतमका परिनिर्वाण होगा, और मुझे यह सशय (=कखा-धम्म) उत्पन्न है, इस प्रकार मे श्रमण गौतममे प्रसन्न (=श्रध्दावान्) हूँ—श्रमण गौतम मुझे वैसा, धर्म उपदेश कर सकता है, जिससे मेरा यह सशय हट जायेगा ।”
तब सुभद्र परिब्राजक जहॉ मल्लोका शाल-वन उपवत्तन था, जहाँ आयुष्मान् आनन्द थे, वहाँ गया । जाकर आयुष्मान् आनन्दसे बोला—“हे आनन्द । मैने बुद्ध=महल्लक ० परिब्राजकोको यह कहते सुना है ० । सो मै श्रमण गौतमका दर्शन पाऊँ ?”
ऐसा कहनेपर आयुष्मान् आनन्दने सुभद्र परिब्राजकसे कहा—
“नही आवुस । सुभद्र । तथागतको तकलीफ मत दो । भगवान् थके हुए है ।”
दुसरी बार भी सुभद्र परिब्राजकने ०।०। तीसरी बार भी ०।०।
भगवानने आयुष्मान् आनन्दका सुभद्र परिब्राजकके साथका कथा-सलाप सुन लिया । तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—
“नही आनन्द । मत सुभद्रको मना करो । सुभद्रको तथागतका दर्शन पाने दो । जो कुछ सुभद्र पूछेगा, वह आज्ञा (=परम-ज्ञान)की इच्छासे ही पूछेगा, तकलीफ देनेकी इच्छासे नही । पूछनेपर जो मै उसे कहूँगा, उसे वह जल्दी ही जान लेगा ।”
तब आयुष्मान् आनन्दने सुभद्र परिब्राजकसे कहा—
“जाओ आवुस सुभद्र । भगवान् तुम्हे आज्ञा देते है ।”
तब सुभद्र परिब्राजक जहॉ भगवान् थे, वहॉ गया । जाकर भगवानके साथ समोदनकर एक ओर बैठा । एक ओर बैठ बोला ।
“हे गौतम । जो श्रमण ब्राह्ण सघी गणी=गणाचार्य, प्रसिद्ध यशस्वी तीर्थकर, बहुत लोगो द्वारा उत्तम माने जानेवाले है, जैसे कि—पूर्ण काश्यप, मक्खलि गोसाल, अजित केशकग्बल, पकुध कच्चायन, सजय बेलट्ठिपुत्त, निगण्ठ नाथपुत्त । (क्या) वह सभी अपने दावा (=प्रतिज्ञा)को (वैसा) जानते, (या) सभी (वैसा) नही जानते, (या) कोई कोई वैसा जानते, कोई कोई वैसा नही जानते हे । ”
“१ नही सुभद्र । जाने दो—‘वह सभी अपने दावाको ० । सुभद्र । तुम्हे घर्म ० उपदेश करता हूँ, उसे सुनो, अच्छी तरह मनमे करो, भाषण करता हूँ ।”
“अच्छा भन्ते । ” सुभद्र परिब्राजकने भगवानसे कहा । भगवानने यह कहा—
“सुभद्र । जिस धर्म-विनयमे आर्य अष्टागिक मार्ग उपलब्घ नही होता, वहाँ प्रथम श्रमण (=स्त्रोत आपन्न) भी उपलब्घ नही होता, द्वितीय श्रमण (=सकृदागामी) भी उपलब्घ नही होता, तृतीय श्रमण (=अनागामी) भी उपलब्घ नही होता, चतुर्थ श्रमण (=अर्हत्) भी उपलब्घ नही होता । सुभद्र । जिस घर्म-विनयमे आर्य-अष्टागिक-मार्ग उपलब्घ होता है, प्रथम श्रमण भी वहॉ होता है ० । सुभद्र । इस घर्म-विनयमे आर्य अष्टागिक-मार्ग उपलब्घ होता है, सुभद्र । यहॉ प्रथम श्रमण ० भी, यहॉ ० द्वितीय श्रमण भी, यहॉ ० तृतीय श्रमण भी, यहॉ ० चतुर्थ श्रमण भी है । दूसरे वाद (=मत) श्रमणोसे शून्य है । सुभद्र । यहॉ (यदि) भिक्षु ठीकसे विहार करे (तो) लोक अर्हतोसे शून्य न होवे ।”
“सुभद्र । उन्तीस वर्षकी अवस्थामे कुशलका खोजी हो, जो मै प्रब्रजित हुआ ।
सुभद्र । जब मै प्रब्रजित हुआ तबसे इक्कावन वर्ष हुए ।
न्याय-घर्म (=आर्य-घर्म=सत्यघर्म)के एक देशको भी देखनेवाला यहॉसे बाहर कोई नही है ॥२०॥
ऐसा कहनेपर सुभद्र परिब्राजकने भगवानसे कहा—
“आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । ०२ मै भगवानकी शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघकी भी । भन्ते । मुझे भगवानके पाससे प्रब्रज्या मिले, उपसंपदा मिले ।”
“सुभद्र । जो कोई भूतपूर्व अन्य-तीर्थिक (=दूसरे पथका ) इस घर्म मे प्रब्रज्या उपसंपदा चाहता है । वह चार मास परिवास (=परीक्षार्थ वास) करता है । चार मासके बाद, आरब्घ-चित भिक्षु प्रब्रजित करते है, भिक्षु होनेके लिये उपसंपन्न करते है ।”
“भन्ते । यदि भूतपूर्व अन्यतीर्थिक इस घर्मविनयमे प्रब्रज्या ० उपसंपदा चाहनेपर, चार मास परिवास करता है ० । तो भन्ते । मै चार वर्ष परिवास करुँगा । चार वर्षोके बाद आरब्ध-चित्त भिक्षु मुझे प्रब्रजित करे ।”
तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—“तो आनन्द । सुभद्रको प्रव्रजित करो ।” “अच्छा भन्ते।”
तब सुभद्र परिब्राजकको आयुष्मान् आनन्दने कहा—
“आवुस । लाभ है तुम्हे, सुलाभ हुआ तुम्हे, जो यहाँ शास्ताके सम्मुख अन्तेवासी (=शिष्य) के अभिषेकसे अभिषिक्त हुए ।”
सुभद्र परिब्राजकने भगवानके पास प्रव्रज्या पाई, उपसंपदा पाई । उपसंपन्न होनेके अचिरहीसे आयुष्मान् सुभद्र आत्मसंयमी हो विहार करते, जल्दी ही, जिसके लिये कुलपुत्र ० प्रब्रजित होते है, उस अनुत्तर ब्रह्मचर्यफलको इसी जन्मसे स्वंय जानकर, साक्षात्कारकर, प्राप्तकर, विहरने लगे । ० । सुभद्र अर्हतोमेसे एक हुए । वह भगवानके अन्तिम शिष्य हुए ।
(इति) पंचम माणवार ।।५।।
(८) अन्तिम उपदेश
तब भगवानने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—
“आनन्द । शायद तुमको ऐसा हो—(१) अतीत-शास्ता (=चलेगये गुरू) का (यह) प्रवचन (=उपदेश) है, (अब) हमारा शास्ता नही है । आनन्द । इसे ऐसा मत समझना । मैने जो धर्म और विनय उपदेश किये है, प्रज्ञप्त (=विहित) किये है, मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता (=गुरू) है ।—(२) आनन्द । जैसे आजकल भिक्षु एक दूसरेको ‘आवुस’ कहकर पुकारते है, मेरे बाद ऐसा कहकर न पुकारे । आनन्द । स्थविरतर (=उपसंपदा प्रब्रज्यामे अधिक दिनका) भिक्षु नवक-तर (=अपनेसे कम समयके) भिक्षुको नामसे, या गोत्रसे, या आवुस, कहकर पुकारे । नवकतर भिक्षु स्थविरतरको ‘भन्ते’ या ‘आयुष्मान्’ कहकर पुकारे । (३) इच्छा होनेपर संघ मेरे बाद क्षुद्र-अनुक्षुद्र (=छोटे छोटे) शिक्षापदो (=भिक्षुनियमो) को छोळ दे । (४) आनन्द । मेरे बाद छन्न भिक्षुको ब्रह्मदण्ड करना चाहिये ।”
“भन्ते । ब्रह्मदण्ड क्या है ?”
“आनन्द । छन्न, भिक्षुओको जो चाहे सो कहे, भिक्षुओको उससे न बोलना चाहिये, न उपदेश=अनुशासन करना चाहिये ।”
तब भगवानने भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“भिक्षुओ । (यदि) बुद्ध, धर्म, संघमे एक भिक्षुको भी कुछ शंका हो, (तो) पूछ लो । भिक्षुओ । पीछे अफसोस मत करना— ‘शास्ता हमारे सन्मुख थे, (किन्तु) हम भगवानके सामने कुछ पूछ न सके’ ।”
ऐसा कहनेपर वह भिक्षु चुप रहे । दूसरी बार भी भगवानने ० । ० । तीसरी बार भी ० । ० । तब आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—“आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । । मै भन्ते । इस भिक्षु संघमे इतना प्रसन्न हूँ । (यहॉ) एक भिक्षुको भी बुद्ध, धर्म, संघ, मार्ग, या प्रतिषद्के विषयमे संदेह (=काक्षा)=विमती नही है ।”
“आनन्द । ‘प्रसन्न हूँ’ कह रहा है ? आनन्द । तथागतको मालूम है—इस भिक्षु-संघमे एक भिक्षुको भी बुद्ध०के विषयमे संदेह=विमति नही है । आनन्द । इन पॉचसौ भिक्षुओमे जो सबसे छोटा भिक्षु है । वह भी न गिननेवाला हो, नियत संबोधि-परायण है ।”
तब भगवानने भिक्षुओको आमंत्रित किया—“हन्त । भिक्षुओ अब तुम्हे कहता हूँ—“संस्कार (=कृतवस्तु) व्यय-धर्मा (=नाशमान) है, अप्रमादक साथ (=आलस न कर) (जीवनके लक्ष्यको) सपादन करो ।”—यह तथागतका अन्तिम वचन है ।”
५ — निर्वाण
तब भगवान् प्रथम ध्यानको प्राप्त हुए । प्रथम ध्यानसे उठकर द्वितीय ध्यानको प्राप्त हुए । ० तृतीय ध्यानको ० । ० चतुर्थ ध्यानको ० । ० आकाशानन्त्यायतनको ० । ० विज्ञानानन्त्यायतनको ० । ० आकिचन्यायतनको ० । ० नैवसज्ञानासज्ञायतनको ० । ० सज्ञावेदयितनिरोधको प्राप्त हुए । तब आयष्मान् आनन्दने आयष्मान् अनुरूद्धसे कहा—“भन्ते अनुरूद्ध । क्या भगवान् परिनिर्वुत होगये ॽ”
“आवुस आनन्द । भगवान् परिनिर्वुत नही हुए । सज्ञावेदयितनिरोधको प्राप्त हुए है ।”
तब भगवान् सज्ञावेदयितनिरोध-समापत्ति (=चारो ध्यानोके ऊपरकी समाधि) से उठकर नवसज्ञा-नासज्ञायतनको प्राप्त हुए । ० । द्वितीय ध्यानसे उठकर प्रथम ध्यानको प्राप्त हुए । प्रथम ध्यानसे उठकर द्वितीय ध्यानको प्राप्त हुए । ० । चतुर्थ ध्यानसे उठनेके अनन्तर भगवान् परिनिर्वाणको प्राप्त हुए । भगवानके परिनिर्वाण होनेपर निर्वाण होतेके साथ भीषण, लोमहर्पण महाभूचाल हुआ । देवदुन्दुभिर्या वजी । भगवानके परिनिर्वाण होनेपर निर्वाण होतेके साथ सहापति ब्रह्माने यह गाथा कही—
“संसारके सभी प्राणी जीवनसे गिरेगे ।
जबकि ऐसे लोकमे अद्वितीय पुरुष बलप्राप्त,
तथागत, शास्ता बुद्ध परिनिर्वाण को प्राप्त हुए” ।।२१।।
भगवानके परिनिर्वाण होनेपर ० देवेन्द्र शक्रने यह गाथा कही—
“अरे । संस्कार (=उत्पन्न वस्तुये) उत्पन्न और नष्ट होनेवाले है।
(जो) उत्पन्न होकर नष्ट होते है, उनका शान्त होना ही सुख है” ।।२२।।
भगवानके परिनिर्वाण होनेपर ० आयुष्मान् अनुरुद्धने यह गाथा कही—
“स्थिर-चित्त तथागतको (अब) श्वास-प्रश्वास नही रहा ।
शान्तिके लिये निष्कम्प हो मुनिने काल किया” ।।२३।।
भगवानके परिनिर्वाण होनेपर ० आयुष्मान् आनन्दने यह गाथा कही—
“जब सर्वक्षेष्ठ आकारसे युक्त सबुद्ध परिनिर्वाणको प्राप्त हुए,
तो उस समय भीषणता हुई, उस समय रोमांच हुआ” ।।२५।।
भगवानके परिनिर्वाण हो जानेपर, जो वह अवित-राग (=अ-विरागी) भिक्षु थे, (उनमे) कोई वॉह पकळकर क्रन्दन करते थे, कटे (वृक्ष) के सदृश गिरते थे, (धरतीपर) लोटते थे—‘भगवान् बहुत जल्दी परिनिर्वृत हो गये ० । किन्तु जो वीत-राग भिक्षु थे, वह स्मृति-सप्रजन्यके साथ स्वीकार (=सहन) करते थे—‘संस्कार अनित्य है, सो कहॉ मिलेगा ॽ’
तब आयुष्मान् अनुरूद्धने भिक्षुओसे कहा—
“नही आवुसो । शोक मत करो, रोदन मत करो । भगवानने तो आवुसो । यह पहले ही कह दिया है—‘सभी प्रियो०से जुदाई ० होनी है ०’ ।”
आयुष्मान् अनुरूद्ध और आयुष्मान् आनन्दने वह बाकी रात धर्म—कथामे बिताई । तब आयुष्मान् अनुरूद्धने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—
“जाओ । आवुस आनन्द । कुसीनारामे जाकर, कुसीनाराके मल्लोसे कहो—‘वाशिष्टो । भगवान् परिनिर्वृत हो गये । अब जिसका तुम काल समझो (वह करो) ।”
“अच्छा भन्ते । ” कह आयुष्मान् आनन्द पहिनकर पात्र-चीवर ले अकेले कुसीनारामे प्रविष्ट हुए । उस समय किसी कामसे कुसीनाराके मल्ल, संस्थागार (=प्रजातन्त्र-सभा-भवन) मे जमा थे । तब आयुष्मान् आनन्द जहाँ मल्लोका संस्थागार था, वहॉ गये । जाकर कुसीनाराके मल्लोसे बोले—
“वाशिष्टो । भगवान् परिनिर्वृत हो गये, अब जिसका तुम काल समझो (वैसा करो) ।”
आयुष्मान् आनन्दसे यह सुनकर मल्ल, मल्ल-पुत्र, मल्ल-बंधुये, मल्ल-भार्याये दुखित हो ० कोई केशोको बिखेरकर ऋदन करती थी, दुर्मना चित्तमे सतप्त हो कोई कोई केशोको बिखेर कर रोती थी, बॉह पकळकर रोती थी, कटे (वृक्ष) की भाँति गिरती थी, (धरतीपर) लुठित बिलुठित होती थी—“बळी जल्दी भगवानका निर्वाण हुआ, बळी जल्दी सुगतका निर्वाण हुआ, बळी जल्दी लोकनेत्र अंतर्धान हो गये ।”
तब कुसीनाराके मल्लोने पुरुषोको आज्ञा दी—
“तो भणे । कुसीनाराकी सभी गध-माला और सभी वाद्योको जमा करो ।”
तब कसीनाराके मल्ल गध-माला, सभी वाद्यो, और पाँच हजार थान (=दुस्स)-जोळोको लेकर जहाँ १उपवत्तन ० था, जहॉ भगवानका शरीर था, वहॉ गये । जाकर उन्होने भगवानके शरीरको नृत्य, गीत, वाद्य, माला, गधसे सत्कार करते,=गूरूकार करते,=मानते=पुजते कपळेका वितान (=चँदवा) करते, मंडप बनाते उस दिनको बिता दिया । तब कुसीनाराके मल्लोको हुआ—‘भगवानके शरीरके दाह करनेको आज बहुत विकाल हो गया । अब कल भगवानके शरीरका दाह करेगे ।’ तब कुसीनाराके मल्लोने भगवानके शरीरको नृत्य, गीत, वाद्य, माला, गधसे सत्कार करते=गुस्कार करते=मानते=पूजते, चँदवा तानते, मंडप बनाते दुसरा दीन भी बिता दिय़ा । तीसरा दिन भी ० । ० चौथा दिन भी ० । ० पॉचवॉ दिन भी ० । छठॉ दिन भी ० । तब सातवे दिन कुसीनाराके मल्लोको यह हुआ—‘हम भगवानके शरीरको नृत्य ० गधसे सत्कार करते नगरके दक्षिणसे लेजाकर बाहरसे बाहर नगरके दक्षिण भगवानके शरीरका दाह करे । उस समय मल्लोके आठ प्रमुख (=मुखिया) शिरसे नहाकर, नये वस्त्र पहिन, भगवानके शरीरको उठाना चाहते थे, लेकिन वह नही उठा पाते थे । तब कुसीनाराके मल्लोने आयुष्मान् अनुरुद्धसे पुछा—
“भन्ते । अनुरुद्ध । कया हेतु है=कया कारण है, जो कि हम आठ मल्ल-प्रमुख ० नही उठा सकते ?”
“वाशिष्टो । तुम्हारा अभिप्राय दुसरा है, और देवताओका अभिप्राय दूसरा है ।”
“भन्ते । देवताओका अभिप्राय कया है ?”
“वाशिष्टो । तुम्हारा अभिप्राय है, हम भगवानके शरीरको नृत्य०से सत्कार करते ० नगरके दक्षिण दक्षिण ले जाकर, बाहरसे बाहर नगरके दक्षिण, भगवानके शरीरका दाह करे । देवताओका अभिप्राय है—हम भगवानके शरीरको दिव्य नृत्यसे ० सत्कार करते ० नगरके उत्तर उत्तर ले जाकर, उत्तर-द्वारसे नगरमे ० प्रवेशकर, नगरके बीच ले जा, पूर्व-द्वारसे निकल, नगरके पूर्व ओर (जहाँ) २मुकुट-बंधन नामक मल्लोका चैत्य (=देवस्थान) है, वहॉ भगवानके शरीरका दाह करे ।”
“भन्ते । जैसा देवताओका अभिप्राय है—वैसा ही हो ।”
उस समय कुसीनारामे जॉघभर मन्दारव-पुष्प (=एक दिव्य पुष्प) बरसे हुए थे ।
तब देवताओ और कूसीनाराके मल्लोने भगवानके शरीरको दिव्य और मानुष नृत्य ० के साथ सत्कार करते ० नगरसे उत्तर उत्तरसे ले जाकर ० (जहॉ) मुकुट-बंधन नामक मल्लोका चैत्य था, वहाँ भगवानका शरीर रक्खा । तब कुसीनाराके मल्लोने आयुष्मान् आनन्दसे कहा—
“भन्ते । आनन्द । हम तथागतके शरीरको कैसे करे ?”
“वाशिष्टो । जैसे चक्रवर्ती राजाके शरीरको करते है, वैसे ही तथागतके शरीरको करना चाहिये ।”
“कैसे भन्ते । चक्रवर्ती राजाके शरीरको करते है ।”
“वाशिष्टो । चक्रवर्ती राजाके शरीरको नये कपळेसे लपेटते है ० । (दाहकर) बळे चौरस्ते पर तथागतका स्तूप बनवाना चाहिये । वहॉ जो माला, गध या चूर्ण चढायेगे, या अभिवादन करेगे, या चित्तको प्रसन्न करेगे, उनके लिये वह चिरकाल तक हित-सुखके लिये होगा ।”
तब कुसीनाराके मल्लोने आदमियोको आज्ञा दी—“जाओ रे । धुनी रूईको एकत्रित करो ।
तब कुसीनारके मल्लोने भगवानके शरीरको कोरे वस्त्रमे लपेटा । कोरे वस्त्रमे लपेटकर धुने कपाससे लपेटा । धुने कपाससे लपेटकर, कोरे वस्त्रमे लपेटा । इसी प्रकार पॉच सौ जोळेमे लपेटकर तॉबे(=लोह) की तेलवाली कळाही (=द्रोणी) मे रख सारे गध (काष्ठो) की चिता बनाकर, भगवानके शरीरको चितापर रक्खा ।”
६—महाकाश्यपको दर्शन
उस समय आयुष्मान् महाकाश्यप पॉचसौ भिक्षुओके महाभिक्षुसंघके साथ पावा ओर कुसीनारा बीचमे, रास्तेपर जा रहे थे । तब आयुष्मान् महाकाश्यप मार्गसे हटकर एक वृक्षके नीचे बैठे । उस समय एक आजीवक कुसीनारासे मदारका पुष्प ले पावाके रास्तेपर जा रहा था । आयुष्मान् महाकाश्यपने उस आजीवकको दूरसे आते देखा । देखकर उस आजीवकसे यह कहा—
“आवुस । क्या हमारे शास्ताको भी जानते हो ?”
“हॉ, आवुस । जानता हूँ, श्रमण गौतमको परिनिर्वृत हुए आज एक सप्ताह होगया, मैने यह मदार-पुष्प वहीसे पाया ।”
यह सुन वहाँ जो अवीतराग भिक्षु थे, (उनमे) कोई कोई बॉह पकळकर रोते ० । उस समय सुभद्र नामक (एक) वृद्धप्रब्रजित (=बुढापेमे साधु हुआ) उस परिषद्मे बैठा था । तब वृद्ध-प्रब्रजित सुभद्रने उन भिक्षुओसे यह कहा—“मत आवुसो । मत शोक करो, मत रोओ । हम सुमुक्त होगये । उस महाश्रमणसे पीळित रहा करते थे—‘यह तुम्हे विहित है, यह तुम्हे विहित नही है ।’ अब हम जो चाहेगे, सो करेगे जो नही चाहेगे, सो नही करेगे ।”
तब आयुष्मान् महाकाश्यपने भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“आवुसो । मत सोचो, मत रोओ । आवुसो । भगवानने तो यह पहले ही कह दिया है—सभी प्रियो=मनापोसे जुदाई ० होनी है, सो वह आवुसो । कहॉ मिलनेवाला है ? जो जात (=उत्पन्न)=भूत ० है, वह नाश होनेवाला है । ‘हाय । वह नाश मत हो’—यह सम्भव नही ।”
उस समय चार मल्ल-प्रमुख शिरसे नहाकर, नया वस्त्र पहिन, भगवानकी चिताको लीपना चाहते थे, किन्तु नही (लीप) सकते थे । तब कुसीनाराके मल्लोने आयुष्मान् अनुरूद्धसे पूछा—“भन्ते । अनुरूद्ध । क्या हेतु है=क्या प्रत्यय है, जिससे कि चार मल्ल-प्रमुख० नही (लीप) सकते है ।”
“वाशिष्टो । ० देवताओका दूसरा ही अभिप्राय है । आयुष्मान् महाकाश्यप पॉचसौ भिक्षुओके महाभिक्षुसंघके साथ पावा और कुसीनाराके बीच रास्तेमे आ रहे है । भगवानकी चिता तब तक न जलेगी, जब तक आयुष्मान् महाकाश्यप स्वंय भगवानके चरणोको शिरसे वन्दना न कर लेगे ।”
“भन्ते । जैसा देवताओका अभिप्राय है, वैसा ही हो ।”
तब आयुष्मान् महाकाश्यपने जहाँ मल्लोका मुकुटबन्धन नामक चैत्य था, जहॉ भगवानकी चिता थी, वहाँ पहुँचकर, चीवरको एक कन्धेपर कर अञ्जली जोळ, तीन बार चिताकी परिक्रमाकर,
चरण खोलकर, शिरसे वन्दना की । उन पॉचसौ भिक्षुओने भी एक कन्धेपर चीवर कर, हाथ जोळ तीन बार चिताकी प्रदक्षिणाकर, भगवानके चरणोमे शिरसे वन्दना की ।
७—दाहक्रिया
आयुष्मान् महाकाश्यप और उन पॉचसौ भिक्षुओके वन्दना कर लेते ही, भगवानकी चिंता स्वयं जल उठी । भगवानके शरीरमे जो छबि (=झिल्ली) या चर्म, मास, नस, या लसिका थी, उनकी न राख जान पळी, न कोयला, सिर्फ अस्थियॉ ही बाकी रह गई, जैसे कि जलते हुए घी या तेलकी न राख (=छारिका) जान पळती है, न कोयला (=मसी) । भगवानके शरीरके दग्ध हो जानेपर मेघने प्रादुर्भूत हो आकाशसे भगवानकी चिताको ठंडा किया । कुसीनाराके मल्लोने भी सर्व-गन्ध (-मिश्रित) जलसे भगवानकी चिताको ठंडा किया ।
तब कुसीनाराके मल्लोने भगवानकी अस्थियो (=सरीरानि) को सप्ताह भर संस्थागारमे शक्ति (-हस्त पुरूषोके घेरेका)-पजर बनवा, धनुप (-हस्त पुरूषोके घेरेका)-प्राकार बनवा, नृत्य, गीत, वाद्य़, माला, गधसे सत्कार किय=गुरूकार किया, माना=पूजा ।
८—स्तूपनिर्माण
राजा मागध अजातशत्रु वैदेहीपुत्रने सुना—‘भगवान् कुसीनारामे परिनिर्वाणको प्राप्त हुए ।’ तब राजा ० अजातशत्रु०ने कुसीनाराके मल्लोके पास दूता भेजा—‘भगवान् भी क्षत्रिय (थे), मैं भी क्षत्रिय (हूँ), भगवानके शरीरो (=अस्थियो) मे मेरा भाग भी वाजिब है । मैं भी भगवानके शरीरोका स्तूप बनवाऊँगा और पूजा करूँगा ।’
वैशालीके लिच्छवियोने सुना ० ।
कपिलवस्तुके शाक्योने सुना ० ।—‘भगवान् हमारे ज्ञातिके (थे) ० ।
अल्लकप्पके बुलियोने सुना ० । रामग्रामके कोलियोने सुना ० ।
बेठ-दीपके ब्राह्मणोने सुना ०, भगवान् भी क्षत्रिय थे, हम ब्राह्मण ० ।
पावाके मल्लोने भी सुना ० ।
ऐसा कहनेपर कुसीनाराके मल्लोने उन संघो और गणोसे कहा—“भगवान् हमारे ग्रामक्षेत्रमे परिनिर्वृत हुए, हम भगवानके शरीरो (=अस्थियो) का भाग नही देंगे ।”
ऐसा कहनेपर द्रोण ब्राह्मणने उन संघो और गणोसे यह कहा—
“आप सब मेरी एक बात सुने, हमारे बुद्ध क्षाति(=क्षमा)-वादी थे ।
यह ठीक नही कि (उस) उत्तम पुरूषकी अस्थि-बाँटनेमे मारपीट हो ।।२६।।
“आप सभी एक साथ=एक राय समोदन करते आठ भाग करे ।
दिशाओमे स्तूपोका विस्तार हो, बहुतसे लोग चक्षुमान् (=बुद्ध) मे प्रसन्न हो ।।२७।।”
“तो ब्राह्मण । तूही भगवानके शरीरोको आठ समान भागोमे सुविभक्त कर ।”
“अच्छा भो ।” द्रोण ब्राह्मणने भगवानके शरीरोको आठ समान भागोमे सुविभक्त (=बाँट) कर, उन संघो गणोसे कहा—
“आप सब इस कुंभको मुझे दे, मैं कुंभका स्तूप बनाऊँगा और पूजा करूँगा ।”
उन्होने द्रोण ब्राह्मणको कुंभ दे दिया ।
पिप्पलीवनके मोरियो (=मौर्यो) ने सुना० ‘भगवानभी क्षत्रिय, हमभी क्षत्रिय ० ।”
“भगवानके शरीरोका भाग नही है, भगवानके शरीर बँट चुके । यहॉसे कोयला (=अगार) लेजाओ ।” वह वहाँसे अगार ले गये ।
तब (१) राजा०१ अजातशत्रु ० ने राजगृहमे भगवानके अस्थियोका स्तूप (बनाया) और पूजा (=मह) की । वैशालीके लिच्छवियोने भी ० । (३) कपिलवस्तुके शाक्योने भी ० । (४) अल्ल-कप्पके बुलियोने भी ० । (५) रामगामके कोलियोने भी ०। बेठदीपके ब्राह्मणोनेभी ० । (७) पावाके मल्लोने भी ० । (८) कुसीनाराके मल्लोने भी ० । (९) द्रोण ब्राह्मणने भी कुम्भका ० । (१०) पिप्पलीवनके मौर्योने भी अगारोका ० ।
इस प्रकार आठ शरीर (=अस्थि) के स्तूप और एक कुम्भ-स्तूप पूर्वकाल (=भूतपूर्व) मे थे ।
“चक्षुमानका शरीर आठ द्रोण था, (जिसमे) सात द्रोण जम्बुदीपमे पूजित होते है ।
(और) पुरूषोत्तमका एक द्रोण राम-गाममे नागोसे पूजा जाता है ।।२८।।
एक दाढ (=दाठा) स्वर्ग-लोकमे पूजित है, ओर एक गधारपुरमे पूजी जाती है ।
एक कलिंगराजाके देशमे है, और एकको नागराज पूजते है ।।२९।।
उसी तेजसे पटुकाकी भॉति यह वसुंधरा मही अलकृत है ।
इस प्रकार चक्षुष्मान् (=बुद्ध) का शरीर सत्कृतो द्वारा सुसत्कृत हुआ ।।३०।।
देवेन्द्रो-नागेन्द्र नरेन्द्रोसे पूजित तथा श्रेष्ठ मनुष्योसे पूजित हुआ ।
उसे हाथ जोळकर वंदना करो, सौ कल्पमे भी बुद्ध होना दुर्लभ है ।।३१।।
चालीस केश, रोम आदिको चारो ओर,
एक एक करके नाना चकवालोमे देवता ले गये ।।२३।।
१ अ. क “कुसीनारासे राजगृह पचीस योजन है । इस बीचमें आठ ऋषभ चौळा समतल मार्ग बनवा मल्ल राजाओने मुकुट-बंधन और संस्थागारमें जैसी पूजा की थी; वैसीही पूजा पचीस योजन मार्गमें की । (उसने) अपने पॉचसौ योजन परिमंडल (=घेरेवाले) राज्यके मनुष्योको एकत्रित करवाया । उन धातुओको ले, कुसीनारासे धातु (-निमित्त)-क्रीळा करते निकलकर (लोग) जहॉ सुन्दर पुष्पोको देखते, वही पूजा करते थे । इस प्रकार धातु लेकर आते हुए, सात वर्ष मास सात दिन बीत गये । लाई गई धातुओको लेकर (अजातशत्रुने) राजगृहमें स्तूप बनवाया, पूजा कराई ।
इस प्रकार स्तूपोके प्रतिष्ठित होजानेपर महाकाश्यप स्थविरने धातुओके अन्तराय (=विघ्न) को देखकर, राजा अजातशत्रुके पास जाकर कहा—“महाराज । एक धातु-निधान (=अस्थि-धातु रखनेका चहबच्चा) बनाना चाहिये ।” “अच्छा भन्ते ।”
स्थविर उन-उन राज-कुलोको पूजा करने मात्रकी धातु छोळकर बाकी धातुओको ले आये । रामग्राममें धातुओके नागोके ग्रहण करनेसे अन्तराय न था; ՙभविष्यमें लका-द्वीपमें इसे महाविहारके महाचैत्यमें स्थापित करेंगे’—(के ख्यालसे भी) न ले आये । बाकी सातो नगरोसे ले आकर, राजगृहके पूर्व-दक्षिण भागमें (जो स्थान है), राजाने उस स्थानको खुदवाकर, उससे निकली मिट्टीसे ईटे बनवाई । यहाँ राजा क्या बनवाता है’, पूछनेवालोको भी ‘महाश्रावकोका चैत्य बनवाता है’ यही कहते थे, कोई भी धातु-निधानकी बात न जानता था ।