दीध-निकाय

17. महासुदस्सन-सुत्त (२।४)

चक्रवर्ती राजाका जीवन (महासुदर्शन-जातक) । १—कुशावती राजधानी । २—राजाके

सात रत्न । ३—राजाकी चार ऋध्दियॉ । ४—धर्म प्रासाद (महल) । ५—राजा

ध्यानमे रत । ६—राजाका ऐश्वर्य । ७—सुभद्रादेवीका दर्शनार्थ आना

८—राजाकी मृत्यु । ९—बुद्धही महासुदर्शन राजा ।

ऐसा मैने सुना—एक समय अपने परिनिर्वाणके१ वक्त भगवान् कुसिनाराके पास उपवत्तन नामक मल्लोके सालवनमे दो साल वृक्षोके बीच विहार करते थे ।

चक्रवर्ती राजाका जीवन (महासुदर्शन जातक)

तब आयुष्मान् आनन्द जहॉ भगवान् थे वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादन कर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा—

“भन्ते । मत इस छुद्र नगलेमे, जगली नगलेमे, शाखा-नगलेमे परिनिर्वाणको प्राप्त होवे । भन्ते । और भी महानगर है, जैसे कि चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, वाराणसी, वहॉ भगवान् परिनिर्वाण करे । वहॉ बहुत से क्षत्रिय महाशाल (=महाधनी), ब्राह्मण महाशाल, गृहपति महाशाल तथागतके भक्त है, वे तथागतके शरीरकी पूजा करेगे ।”

“नही आनन्द । ऐसा न कहो, मत इस क्षुद्र नगले ० ।

१—कुशावती राजधाना

“आनन्द । पूर्वकालमे महासुदस्सन नामक चारो दिशाओपर विजय पाने वाला, दृढ शासक मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा था । आनन्द । महासुदस्सन राजाकी यही कुसिनारा कुशावती नामकी राजधानी थी । आनन्द । वह कुशावती पूरबसे लेकर पश्चिमकी ओर लम्बाईमे बारह योजन थी, चौळाईमे उत्तरसे दक्षिण सात योजन । आनन्द । कुशावती राजधानी समृद्ध थी, उन्नतिशील थी, बहुत आबादी वाली थी, गुलजार थी, और सुभिक्ष थी । आनन्द । जैसे देवताओ की आलकमन्दा नाम राजधानी समृध्द ० है, वैसे ही आनन्द । कुशावती राजधानी समृद्ध ० थी । आनन्द । कुशावती राजधानी दस शब्दोसे रात दिन सदा भरी रहती थी, जैसे हाथीके शब्द, अश्व-शब्द, रथ-शब्द, भेरि-शब्द, मृदडग-शब्द, वीणा-शब्द, गीत-शब्द, झाझ-शब्द, ताल-शब्द, शख-शब्द, “खाओ” “पीओ” के शब्द ।

“आनन्द । कुशावती राजधानी सात प्राकारोसे घिरी थी । एक प्राकार सोनेका, एक चॉदीका, एक वैदूर्य, एक स्फटिकका, एक पद्मराग, एक मसारगल्ल और एक सब प्रकारके रत्नोका ।

“आनन्द । कुशावती राजधानीमे चार रगके दर्वाजे लगे थे । एक द्वार सोनेका, एक चाँदीका, एक वैदूर्यका और एक स्फटिकका । प्रत्येक द्वारमे तीन पोरसा (एक पोरसा=५ हाथ) खळे, तीन पोरसा गळे हुये, सब मिलाकर बारह पोरसा लम्बे सात सात खम्भे गळे थे । एक खम्भा सोनेका ० एक सब प्रकारके रत्नोका ।

“आनन्द । कुशावती राजधानी सात ताल-पक्तियोसे घिरी थी । एक ताल-पक्ति सोने की ० एक सव प्रकारके रत्नोकी । सोनेके तालका स्कन्ध (=तना,घळ) सोनेका (और) पत्ते और फल चाँदीके थे । चाँदीके तालका स्कन्ध चाँदीका (और) पत्ते और फल सोनेके थे । वैदूर्यके तालका ० पत्ते और फल स्फटिकके थे । स्फटिकके ताल ० पत्ते और फल वैदूर्यके थे । लोहिताड्कके ताल ० फल और पत्ते मसारगल्लके थे । मसारगल्लके ताल ० फल और पत्ते लोहिताड्कके थे । सब प्रकारके रत्नोके पत्ते और फल ताल ० सर्वरत्न-मय थे ।—आनन्द । हवासे हिलनेपर उन ताल-पक्तियोसे सुन्दर, प्रसन्नकर, प्रिय (और) मदनीय (=मोह लेने वाला) शब्द निकलता था । आनन्द । जैसे (वाद्य-विद्यामे) चतुर लोग जब अच्छी तरह सजे हुये और तालसे मिलाये पाँच अगोसे युक्त बाजेको बजाते है, तो उससे सुन्दर ० शब्द निकलता है, वैसेही उन ताल-पक्तियो से ० । आनन्द । उस समय जो कुशावती राजधानीके गुण्डे, जुआरी और शराबी थे, वे उन हवासे हिलती ताल पक्तियोके शब्दसे (मस्त हो) नाचते और खेलते थे ।

२—चक्रवर्तीके सात रत्न

“आनन्द । राजा महासुदस्सनके पास सात रत्न, और चार ऋद्धियाँ थी । कौनसे सात रत्न ॽ (१) आनन्द । एक उपोसथ-पूर्णिमाकी रातको उपोसथ व्रन रख शिरसे स्नानकर, जब राजा महासुदस्सन प्रासादके सबसे ऊपरके तल्लेपर था, तो उसके सामने सहस्त्र अरो वाला, नाभि नेमि (=पुट्ठि)से युक्त और सर्वाकार परिपूर्ण दिव्य चक्र-रत्न प्रगट हुआ । उसे देखकर राजा महासुदस्सनके मनमे ऐसा हुआ—“ऐसा सुना है—उपोसध-पूर्णिमाकी रात शिरसे नहा, उपोसथ ब्रतकर, प्रासादके ऊपरके तल्लेपर गये जिस मूर्घाभिषिक्त क्षत्रिय राजाके सामने सहस्त्र अरो वाला ० दिव्य चक्र-रत्न प्रगट होता है, वह चक्रवर्ती (राजा) होता है । मै चक्रवर्ती राजा होऊँगा । आनन्द । तब वह महासुदस्सन राजा आसनसे उठ, चादरको एक कधेपर कर बाये हाथमे सोनेकी झारी ले, दाहिने हाथसे चक्ररत्नका अभिषेक करने लगा—‘हे चक्र-रत्न । आपका स्वागत हो, आपकी जय हो ।’ आनन्द । तब वह चक्र-रत्न पूर्व दिशाकी ओर चला । राजा महासुदस्सनके पास चतुरड्गिनी सेना थी । आनन्द । जिस प्रदेशमे चक्र-रत्न ठहरता, वही राजा महासुदस्सन अपनी चतुरड्गिनी सेनाके साथ पळाव डालता । आनन्द । जो पूर्व दिशाके राजा थे वे राजा महासुदस्सनके पास आकर कहने लगे—‘महाराज । आपका स्वागत हो, (हम लोग सभी) आपके (आधीन) है । महाराज । आप आज्ञा दीजिये’ । राजा महासुदस्सन ने यह कहा—‘जीव नही मारना चाहिये, चोरी नही करनी चाहिये, काम (=भोग) मे पळकर दुगचार नही करना चाहिये, मिथ्या-भाषण नही करना चाहिये, पगव आदि नशीकी चीजे नही पीना चाहिये । उचित भोग करना चाहिये ।’ आनन्द । (इस प्रकार) जो पूर्व दिशाके राजा ये वे राजा महासुदस्सनके अनुयुक्तक (=माढलिक) हुये ।

“आनन्द । तब वह चक्र-रत्न पूर्वके समुद्रमे डुबकी लगा, निकल दक्षिण दिशामे ठहरा । ० दक्षिण दिशावाले समुद्रम ० । ० पश्चिम दिशामे ० । ० उत्तर दिशाम ० । राजा महासुदस्सन के पास चतुरड्गिनी सेना थी । आनन्द । जिस प्रदेशमे चक्र-रत्न ठहरता वही राजा ० पळाव करता था । आनन्द । जो उत्तर दियाके राजा पे वे राजा महासुदस्सनके पास जाकर ० । ० अनुवादक हुये ।

“आनन्द । तब वह चक्र-रत्न समुद्र-पर्यन्त पृथ्वीको जीत कुशावती राजधानी लौट कर राजा महासुदस्सनके अन्त.पुरके द्वारके पास न्याय करनेके ऑगनमे कीलमे ठोकासा ठहर गया । उससे राजा महासुदस्सनका अन्त पुर बळा शोभायमान होने लगा । इस प्रकार आनन्द । राजा महासुदस्सनको चक्ररत्न प्रादुर्भूत हुआ ।

(२) “आनन्द । फिर राजाको बिलकुल उजला, चौपहल, ऋध्दियुक्त—अन्तरिक्षमे भी गमन करनेवाला उपोसथ हस्ति-राज नामक हस्ति-रत्न प्रादुर्भूत हुआ । उसे देख राजा ० का चित बळा प्रसन्न हुआ । यदि हाथी अच्छी तरह सिखाया रहे तो उसकी सवारी बळी अच्छी होती है । आनन्द । तब वह हस्ति-रत्न, उत्तम जातिका हाथी जैसे बहुत दिनोसे सिखाया गया हो, वैसा शिक्षित था । आनन्द । तब राजा महासुदस्सनने उस हस्ति-रत्नकी परीक्षा करनेके विचारसे पूर्वाहृ (प्रात) समय उसपर चढकर समुद्र-पर्यन्त पृथ्वीका चक्कर लगाके कुशावती राजधानीमे लौटकर प्रातराश किया । आनन्द । राजा ० को इस प्रकारका हस्ति-रत्न प्रादुर्भूत हुआ ।

(३) “और फिर आनन्द राजा महासुदस्सनको बिलकुल उजला, काले शिर और मुञ्जके ऐसे केशोवाला, ऋद्धि-युक्त, आकाशमे गमन करनेवाला बलाहक अश्वराज नामक अश्वरत्न प्रकट हुआ । उसे देख ० प्रस्न्न हुआ । यदि अश्व अच्छी तरह सिखाया ० ० प्रातराश किया । आनन्द । राजा ० अश्वरत्न०।

(४) “और फिर आनन्द । ० मणि-रत्न प्रादुर्भूत हुआ । वह शुभ्र, अच्छी जातिका, आठ पहलुओ वाला, अच्छा खरादा, स्वच्छ, विप्रसन्न (और) सर्वाकार सम्पन्न वैदूर्यमणि था । आनन्द । उस मणि-रत्नकी आभा चारो और ऐक योजन तक फैलती थी । आनन्द । राजाने ० उस मणि-रत्न की परीक्षा करनेके विचारसे चतुरगिनी सेनाओ सजाकर उस मणिको झडेके ऊपर बॉध रातकी काली अधियारीमे प्रस्थान किया। आनन्द । जो चारो और गाँव थे वहाँ के लोग प्रकाशसे ‘दिन होगया’ समझ अपने अपने कमोमे लगने लगे । आनन्द । राजा ० मणि-रत्न ० ।

(५) “और फिर आनन्द । ०अभिरूप, दर्शनीय, चित्तको प्रसन्न करनेवाली, परमसौन्दर्य-सम्पन्न, न अधिक लम्बी—न अधिक नाटी, न बहुत दुबली— न बहुत मोटी, न बहुत काली—न बहुत उजली, मनुष्योके वर्णसे बढकर और देवोके वर्णसे कम (की) स्त्रीरत्न ० । आनन्द । उस स्त्री-रत्नका ऐसा कायसस्पर्श था, जैसे मानो रूईका फाहा या कपासका फाहा । आनन्द । उस ० का गात्र शीत-कालमें उष्ण और ऊष्ण-कालमे शीतल रहता था । आनन्द । उस ०के शरीरसे चन्दनकी (और) मुँहसे कलम की सुगन्ध निकलती थी । आनन्द । वह स्त्री-रत्न राजा ० से पहले ही उठ जाती थी और पीछे सोती थी । आज्ञा सुननेके लिये सदा तैयार रहती थी । मनके अनुकूल आचरण करनेवाली, प्रिय बोलने वाली थी । आनन्द । वह० राजा० को मनसे भी वही छोळती थी (दूसरे पुरुषके प्रति मनसे भी राग नही करती थी ), शरीरसे तो कहाँ तक ॽ आनन्द ० स्त्री-रत्न ०।

(६) “और फिर आनन्द । ० गृहपति (=वैश्य)–रत्न ० । उसके अच्छे कर्मोके फलसे उसे दिव्य चक्षु उत्पन्न हुआ । वह उससे स्वामी या बिना स्वामी वाले खजानो (=निधियो) को देख लेता था । उसने राजा ० के पास जाकर यह कहा—देव । आप कोई चिन्ता न करे, मै आपका धनका कारवार करूँगा । आनन्द । राजा ० ने इस गृहपतिकी परीक्षा करनेके विचारसे नावपर चढकर गड्गानदीकी बीच धारामे जा उस गृहपति-रत्नसे यह कहा—“गृहपति । मुझे सोने और चाँदी की आवश्यकता है’ । तो महाराज । नावको एक किनारे पर ले चले ।’ ‘गृहपति । यही पर मुझे सोने और चाँदी की आवश्यकता है ।’ आनन्द । तब वह गृहपति-रत्न दोनो हाथोसे जलको छू सोने चाँदी भरे धळे निकाल राजा ० से बोला—‘महाराज, क्या यह पर्याप्त है ॽ क्या इतने से

काम हो जायगा ? क्या इतनेसे महाराज सतुष्ट है ?’ राजा ० ने कहा—‘गृहपति । यह पर्य्याप्त ० । आनन्द । ० गृहपति-रत्न ०।

(७) “आनन्द । ० पण्डित, व्यक्त, मेधावी, और स्वीकरणीय (चीजो) को स्वीकार, तथा त्याज्य (चीजो) के त्यागमे समर्थ परिणायक (=कारबारी) रत्न प्रकट हुआ । उसने राजा ० के पास जाकर यह कहा—देव । आप चिन्ता न करे, मै अनुशासन करुँगा ।’ आनन्द । ० परिणायक-रत्न ० । आनन्द । राजा ० इन सात रत्नोसे युक्त था ।

३—चार ऋध्दियाँ

“और फिर आनन्द । राजा० चार ऋध्दियोसे युक्त था । किन चार ऋध्दियोसे ? (१) आनन्द । राजा० दूसरे मनुष्योसे बहुत अभिरूप=दर्शनीय, प्रिय, परम-सौन्दर्य-सम्पन्न था । आनन्द । राजा० इसी पृथ्वीमे ऋध्दिसे सम्पन्न था । दूसरे मनुष्योसे बहुत बढ चढकर चिरायु था । आनन्द । राजा० इस दूसरी ऋध्दिसे युक्त था । (३) और आनन्द । राजा० नीरोग चगा था, औरोकी भॉति न अति-शीत, और न अति-उष्ण समान प्रकृतिका था । आनन्द । राजा० इस तीसरी ऋध्दिसे युक्त था । (४) और आनन्द । राजा ब्राह्मण और गृहस्थोका प्रिय=मनाप था । आनन्द । जैसे पिता पुत्रोका प्रिय=मनाप (होता है), उसी तरह राजा० ब्राह्मण और गृहस्थोका ० । आनन्द । वे ब्राह्मण और भी राजा० के प्रिय मनाप थे । आनन्द । जैसे पुत्र पिताके० । आनन्द । एक समय राजा ० चतुरगिणी सेनाके साथ उद्यान-भमिको गया । आनन्द । उस समय ब्राह्मण और गृहस्थोने जाकर राजासे यह कहा—‘देव । आप निर्भय जावे, हम लोग आपकी सदा रक्षा करेगे’ । आनन्द । राजा०ने भी सारथीसे कहा ‘सारथि । बिना किसी भयके रथको हॉको, क्योकि ब्राह्मण० मेरी सदा रक्षा करेगे’ । आनन्द । राजा० इस चौथी ऋध्दि० ।

“आनन्द । तब राजा०के मनमे यह हुआ—‘इन तालोके बीच सौ सौ धनुष (=४०० हाथ) पर पुष्करणी खुदवाऊँ । आनन्द । राजा०ने उन तालोके बीच सौ सौ धनुषपर पुष्करणियॉ खुदवाई । आनन्द । वह पुष्करणियॉ चार रगोकी ईटोकी बनी थी, एककी ईटे सोनकी, एककी चॉदीकी, एककी वेदूर्यकी, एककी स्फटिककी । आनन्द । उन पुष्करणियोमे चार (दिशाओमे) चार रगोकी चार सीढियॉ थी—एक की सीढी सोनेकी, एककी चॉदीकी, एककी वैदूर्यकी, एककी स्फटिककी । सोनेकी सीढीमे सोनेका खभा (और) चॉदीकी कॉटियॉ तथा छत थी । चॉदीकी सीढीमे चॉदीका खम्भा और सोनेकी कॉटियॉ और छत थी । वैदूर्यकी ० स्फटिककी कॉटियॉ ० । स्फटिककी० वैदूर्यकी कॉटियॉ० । आनन्द । वे पुष्करणियॉ दो वेदिकोओसे घिरी थी, एक वेदिका सोनेकी, दूसरी चॉदीकी । सोनेकी वेदिकामे सोनेके खभे, चॉदीकी कॉटियॉ, और छत थी । चाँदीकी वेदिका ० ।—आनन्द । तब, राजा०के मनमे यह हुआ—‘इन पुष्करणियोमे सभी डालियोमे फूल-लगे सभीको चकित करनेवाले उत्पल, पद्य, कुमुद, पुण्डरीकके फूल रोपूँ ।’ आनन्द । राजा०ने उन पुष्करणियोमे उस प्रकारके उत्पल० फूल रोपे । आनन्द । तब राजा०के मनमे ऐसा हुआ—‘पुष्करणियोके तीर पर नहलानेवाले पुरूष नियुक्त होने चाहिये, जो आये लोगोको नहलाया करे ।’ आनन्द । राजा०ने० नियुक्त किये । आनन्द । तब राजा०के मनमे ऐसा हुआ—‘इन पुष्करणियोके इस प्रकारके दान स्थापित होने चाहिये, जिससेकि अन्न चाहनेवालोको अन्न, पेय (=पान) चाहनेवालोको पेय, वस्त्र०, सवारी०, शय्या०, स्त्री०, सोना० । आनन्द । राजा०ने इस प्रकारके दान स्थापित किये० ।

‘आनन्द । तब ब्राह्मणो और गृहस्थोने बहुत धनले राजा०के पास जाकर यह कहा—‘देव । यह बहुतसा धन (हम लोग) आप ही की सेवामे लाये है, इसे आप स्वीकार करे ।’ ‘बस रहने दो, मैने

भी बहुत धन धर्मसे और बलसे उपार्जित किया है, वह तो है ही । (यदि आप लोग चाहे तो) यहाँहीसे और धन ले जावे ।’ राजाके स्वीकार न करनेपर उन लोगोने एक ओर जाकर विचारा—‘यह हम लोगोको उचित नही है कि इस धनको फिर अपने घर लौटाकर ले चले, अत (चलो) हम लोग राजा०के लिये प्रासाद तैयार करे ।’ उन लोगोने राजाके पास जाकर यह कहा—‘देव । (हम लोग) आपके लिये एक प्रासाद तैयार करवायेगे ।’ आनन्द । राजा०ने मौनसे स्वीकार किया ।

४—धर्मप्रासाद (महल)

“आनन्द । तब देवेन्द्र शकने राजा०के चित्तको अपने चित्तसे जानकर देवपुत्र विशवकर्माको संबोधित किया—‘जाओ, भद्र विश्वकर्मा । राजाके लिये धर्म नामक प्रासाद तैयार करो । आनन्द । देवपुत्र विश्वकर्मा भी ‘अच्छा, भदन्त ।’ कह, शक देवेन्द्रको उत्तर दे, जैसे बलवान् पुरूष० वैसे त्रायस्त्रिश देवलोकमे अन्तर्धान हो राजा०के सामने प्रादुर्भूत हुआ । आनन्द । तब देवपुत्र०ने राजा०से यह कहा—‘देव । धर्म नामक प्रासाद आपके लिये तैयार करुँगा ।’ आनन्द । राजा०ने मौनसे स्वीकार किया । आनन्द । देवपुत्र विश्वकर्मा०ने० प्रासाद तैयार किया ।

“आनन्द । धर्म-प्रासाद पूरबसे पश्चिम लम्बाईमे एक योजन, और उत्तरसे दक्षिण चौळाईमे आधा योजन था । आनन्द । धर्म-प्रासादकी इमारत ऊँचाईमे तीन पोरसाकी थी । वह चार रगोवाली ईटोसे चिनी गई थी, एक ईट सोनेकी० एक स्फटिककी । आनन्द । धर्म-प्रातादमे चार रगोके चौरासी हजार खम्भे लगे थे— एक खभा सोनेका० एक स्फटिकका ।—आनन्द । धर्म-प्रासादमे चार रगोके पट्टे लगे थे—एक पट्टा सोनेका० । आनन्द । धर्म-प्रासादमे चार रगोकी चौबीस सीढियाँ थी—एक सीढी सोनेकी० । स्फटिकवाली सीढीमे स्फटिकके खम्भे लगे थे (और) वैदूर्यकी काँटियाँ और छत । आनन्द । ० चार रगोके चौरासी हजार कोठे थे । एक कोठा सौनेका० । सोनेके कोठेमे चाँदीके पलग बिछे थे । चाँदीके०मे सोनेके पलग ० । वैदूर्यके कोठेमे (हाथी) के दाँतके पलग बिछे थे । स्फटिकके कोठेमे मसारगल्लके पलग बुछे थे । सोनेके कोठेके द्रारमे चाँदीके ताल (वृक्ष) बने हुये थे, उस (ताल वृक्ष) का तना चाँदीका, पत्ते और फल सोनेके । चाँदीके कोठेके द्रारमे सोनेका ताल० । वैदूर्यके कोठेके द्रारमे स्फटिकके ताल० वैदूर्यके पत्ते० । स्फटिकके ताल० वैदूर्यके पत्ते० । स्फटिकके ताल० वैदूर्य़के पत्ते० । स्फटिकके कोठेके द्रारमे वैदूर्यका ताल०।

“आनन्द । तब राजा०के मनमे यह हुआ—‘मै इस बळे कोठेके द्रार पर दिनमे विहारके लिये बिल्कुल सोनेका एक ताल-वन बनवाऊँ । आनन्द । राजा० (ने) ० बनवाया । आनन्द । धर्म-प्रासदा दो वेदिकोओसे घिरा था, एक वेदिका सोनेकी, एक चाँदीकी । सोनेकी वेदिकामे सोनेके खम्भे० । आनन्द । धर्म-प्रासाद दो घुँघरु-के-जालोसे घिरा था, एक जाल सोनेका, एक चाँदीका । सोनेके जालमे चाँदीकी घटियाँ थी, (और) चाँदीके जालमे सोनेकी० । आनन्द । हवाके झोकेसे हिलनेपर उन घटियोसे सुन्दर, रागोत्पादक० शब्द निकलता था । आनन्द । उस समय जो कुशावती राजधानीमे गुण्डे, शराबी और जुआरी रहते थे, वे उस० शब्दसे (मस्त हो) नाचते खेलते थे । आनन्द । (मारे चमकके) उस प्रसाद पर आँख नही ठहरती थी, आँखोको वह मानो हर लेता था । आनन्द । जैसे वर्षाके अन्तिम मासमे, शरद् ऋतुके प्रारम्भ होनेपर, मेघरहित आकाशके ऊपर चढते सूर्यपर आँखे नही ठहरती वह मानो आँखोको हर लेता है, उसी तरह आनन्द । वह धर्म-प्रासाद० ।

“आनन्द । तब राजा०के मनमे हुआ—‘धर्म-प्रासादके सामने धर्म नामक पुष्करणी बनवाऊँ ।’ ० बनवाया । आनन्द । धर्म पुष्करणी पूरबसे पश्चिम लम्बाईसे एक योजन, उत्तरसे दक्षिण चौळाईसे आधा योजन थी । आनन्द । ० चार रगके ईटोसे०, एक ईट सोनेकी ० । ० चार रगकी चौबीस सीढियाँ० । सोनेकी सीढीमे सोनेके खभे ०। ० दो वेदिकाओसे घिरी थी, ० सात ताल-पक्तियोसे घिरी

थी, एक ताल-पक्ति सोनेकी ० सोनेके तालमे सोनेका तना ० । ० उन ताल पक्तियोसे ० शब्द नीकलता था, जैसे पॉच अगोवाला बाजा ० नाचते और खेलते थे । आनन्द । घर्म-प्रासादके और घर्म-पुष्करणीके तैयार हो जानेपर राजाने ० उस समय जो अच्छे अच्छे श्रमण और ब्राह्मण थे सभीको सतुष्टकर धर्म-पुष्करणीके

तैयार हो जानापर राजाने ० उस समय जो अच्छे अच्छे श्रमण और ब्राह्मण थे सभीको सतुष्टकर धर्म-प्रसादमे प्रवेश किया ।

आनन्द । तब राजा०के मनमे ऐस हुआ हुँ ?’ आनन्द । उसके मनमे ० ऐसा आया— ‘यह मेरे दान, दम, सयम— इन तीन कर्मोको फल है, तीन कर्मोका विपाक है, जिससे मै इस समय ० । आनन्द । तब राजा ० जहॉ बल्ला कोठा था वहा वया, जाकर बल्ले कोठके ध्दारा पर खल्ला हो यह उडान (=प्रीति वाक्य) बोला— ‘भोगका ख्याल (=काम-वितर्क) रोको, द्रोह (=व्या-पाद)-वितर्क रोको, विहिसा-वितर्क रोको, काम-वितर्कसे बस, व्यापाद वितर्कसे बस, हिसा वितर्कसे बस करो । ’

“आनन्द । तब राजा ० बळे कोठेमे प्रवेशकर सोनेके पलगपर बैठ, एकान्तमे भोग-सबधी वुराडयोसे विरत हो वितर्क और विचार-युक्त विवेकसे उत्पन्न प्रीति सुखवाले प्रथम घ्यानको प्राप्त हो गया । ० १द्रितीय०,० तृतीय० ० चतुर्थ ध्यानको ० । आनन्द । तव राजा० वळे कोठेसे निकल सोनेके कोठेमे प्रवेशकर पलगपर बैठ मैत्री-युकत चित्तसे एक दिशाको व्याप्तकर विहरने लगा । वैसे ही दूसरी, तीसरी और चौथी, और, ऊपर, नीचे, आळे-बेळे, सभी ओर, ससारमे सभी जगह मैत्री-युक्त चित्तसे, तथा अत्याधिक बैररहित और द्रोह-रहित श्रेष्ठ चित्तसे, तथा अत्यधिक वैररहित और द्रोह-रहित श्रेष्ठ चित्तसे व्याप्तकर विहरने लगा, वैसे ही दूसरी ० ।

“आनन्द । राजा०को कुशावती राजधानी आदि चौरासी हजार नगर थे, धर्म-प्रासाद आदि चौरसी हजार प्रसाद थे, महाव्यूहकूटागार (नामक) आदि ० । सोने, चॉदी, (हाथी-) दॉत, हीरेके पायोवाले, लम्बे बालोवाले बिछौनेवाले, मसहरी लगे तथा उनकी ढोनो ओर लाल तकिये रक्खे चौरासी हजार पलग थे, उसके पास सोनेके अलकारोसे अलक्रत सोनेकी ध्वजाओ युकत, सोनेकी जालीसे आच्छादित उपोसथ नगराज आदि चौरासी हजार हाथी थे । ० वलाहक-अश्व राज आदि चौरोसी हजार धोर्ल थे । सिह-चर्म, वग, द्वीपि (=चिते) चर्म, तथा दुशाले, सोनेके अलकारसे सजे, सोनेकी ध्वजाओसे युक्त, सोनेके जालसे आच्छादित वैजयन्तरथ आदि चौरैसी हजार रथ थे मणि-रत्न आदि चौरासी हजार रत्न थे । सुभद्रादेवी आदि चौरासी हजार स्त्रियॉ थी । गुहपति रत्न चोरासी हजार रत्न थे । परिणायक-रत्न आदि चौरासी हजार ० । कॉसेकी घण्टी पहने चादर ओढे, दूध देनेवाली चौरासी हजार गौवे थी । (उसके पास) क्षौम (=अलसीके), कपास, कौषेय तथा उनके सूक्ष्म चौलासी हजार करोळ वस्त्र थे । चौरासी हजार थालियाँ थी, जिनमे शाम-सुबह भोजन परोसा जाता था ।

“आनन्द । उस समय राजा०के पास चौरासी हजार हाथी थे, जो शाम-सुबह (राजाकी) सेवामे आते थे । आनन्द । तब राजा०के मनमे यह हुआ—‘ये मेरे चौरासी हजार हाथी है, जो शाम-सुबह मेरी सेवामे आते है । सो अबसे ये सौ-सौ वर्ष बीतनेके बाद बयालिस-बयालिस हजार हाथी अपनी नौकरी बजानेके लिये आये ।’ आनन्द । तब राजा०ने परिणायक-रत्नको संबोधित किया—‘भद्र परिणायक-रत्न । ये चौरासी हजार हाथी प्रतिदिन शाम-सुबह सेवाके लिये आते है, सो० । सौ-सौ वर्ष० आवे ।’ आनन्द । ‘हॉ देव’ कहकर परिणायक-रत्नने राजा०को उत्तर दिया । आनन्द । तब उसके बादसे सौ-सौ वर्षके बाद० आने लगे ।

७—सुभद्रादेवीका दर्शनार्थ आना

“आनन्द । तब सुभद्रा देवीको बहुत बर्षो, बहुत सहस्त्र बर्षोके बीतनेके बाद, यह हुआ—‘राजा ०-को देखे बहुत दिन हो गये, अत मैं राजातो देखनेके लिये चलूँ ।’ आनन्द । तब सुभद्रा देवीने और स्त्रियोको सबोधित किया—‘आप लोग शिरसे नहा, पीले कपळे पहन ले, राजा०को देखे बहुत दिन हो गये, राजा०को देखनेके लिये हम चलेगी ।’ आनन्द । ‘अच्छा, आर्ये ।’ कहकर० उत्तर दे, शिरसे नहा० जहॉ सुभद्रा देवी थी वहॉ गई । आनन्द । तब सुभद्रा देवीने परिणायक-रत्नको संबोधित किया—‘भद्र परिणायक-रत्न । चतुरगिणी सेना० (ने) उत्तर दे, चतुरगिणी सेनाको तैयार करा सुभद्रा देवीको सूचित किया—‘देवि । चतुरगिणी सेना तैयार है, आप जैसा समझे ।’

“तब आनन्द । सुभद्रा देवी ० सेनाके साथ, सभी स्त्रियोको ले, जहॉ धर्म-प्रासाद था वहॉ गई । जाकर धर्म-प्रासादके ऊपर चढ जहॉ महाव्यूह (नामक) कूटागार था वहाँ गई । जाकर महाव्यूह कूटागारके दरवाजेको पकळकर खळी ह गई । आनन्द । तब राजाने (उस शब्दको सुनकर)—‘यह किसी बळी भीळका शब्द क्या है ॽ’ (सोच) महाव्यूह कूटागारसे निकलकर सुभद्रा देवीको दरवाजा पकळ खळी देखा । देखकर० देवीसे कहा—‘देवि । यही खळी रहो, भीतर मत आओ ।’ आनन्द । तब राजा०ने किसी दूसरे पुरूषको आज्ञा दी—‘सुनो, महाव्यूह कूटागारसे सोनेके पलंगको निकाल बिलकुल सोनेवाले तालवनमे बिछाओ ।’ ‘अच्छा, देव ।’ कह० । आनन्द । तब राजा०ने दहिनी करवट हो पैरके ऊपर पैर रखकर, स्मृति और सप्रजन्यके साथ सिंह-शय्या लगाई ।

८—राजाकी मृत्यु

“आनन्द । तब सुभद्रादेवीके मनमे यह हुआ—‘राजाकी इन्द्रियाँ (=शरीर) बिलकुल प्रसन्न मालूम होती है, इनकी छबि (=चर्म)का वर्ण परिशुद्ध है, निर्मल है, कही राजाकी मृत्यु तो होनेवाली नही है ।’ ऐसा विचारकर राजा०से कहा—‘देव । कुशावती राजधानी आदि आपके ये चौरासी हजार नगर है, देव । इनसे प्रसन्न होवे और जीवित रहनेकी कामना करे । देव । धर्म-प्रासाद आदि ० । महाव्यूह कूटागार आदि० । देव । आपकी ये चौरासी हजार थालियाँ है, जिनमे शाम सवेरे भोजन परोसा जाता है—इनसे प्रसन्न होवे, और जीवित रहनेकी कामना करे ।’

“आनन्द । ऐसा कहनेपर राजा० ने० देवीसे यह कहा—‘बहुत दिनो तक देवि । आपने मेरे साथ इष्ट=कान्त, प्रिय=मनाप आचरण किये है, और अब आप अन्तिम समयमे अनिष्ट, अ-कान्त, अ-प्रिय और अ-मनाप आचरण कर रही है’ । ‘देव । मैं कैसे ऐचरण करूँ ।’ ‘देवि । आप इस तरह कहे—‘देव । सभी प्रियो=मनापोसे नानाभाव (=वियोग)=बिनाभाव=अन्यथाभाव होता है । देव । आप किसी कामनाके साथ प्राण न त्यागे, कामना-युक्त मृत्यु दुखपूर्ण होती है, कामनापूर्ण मृत्यु

निन्दनीय होती है । देव ! कुशावती राजधानी आदि आपके चोरासी हजार नगर है । देव ! उनमे लिप्त न होवें, जीवित रहनेकी कामना मनमें न करे ० थालिर्या है ० उनमे लिप्त न होवे, जीवित रहनेकी कामना मनमे न करे ।

“आनन्द ! ऐसा कहनेपर सुमद्रा देवी रोने लगी, आँसू बहाने लगी आँसू पोछ ० । यह कहा— देव ! सभी प्रियो-मनापोसे नानाभाव, विनाभाव, अन्यथामाव होता है । देव ! आप कामनायुकत प्राण न त्यागे ०० थालिर्या है ० उनमे लिप्त न होवे, जीवित रहनेकी कामना न करे ।

“आन्न्द ! तव कुछ ही देरके बाद राजा ० की मृत्यु हो गई । आन्नग ! जैसे गृहपति या गृह-पति-पुत्रको अच्छे अच्छे भोजन कर लेनेके बाद भतसम्मद (= भोजनोपरान्त आलस) होता है, वैसेही मे उत्पत्र हुआ । आन्नद राजा महासुदर्शनने चौरासी हजार वर्षो तक बच्चोके खोल खोल चौरासी हजार वर्षो तक युवराज रहा, (चौरासी हजार वर्षो तक राज्य करता रहा), चौरासी ० हजार वर्षो गृहस्थ होते (भी उसने) धर्म-प्रासादमे व्रह्मचय्य व्रतका पालन किया । वह (मैत्री आदि) चारो व्रह्म-विहारोकी साधना करके शरीर छोळ मरनेके बाद ब्रह्मलोकमे उत्पन्न हुआ ।

“आन्नद ! यदि तुम ऐसा समझो कि यह राजा महासुदर्शन ० उस समय कोई दूसरा राजा रहा होगा, तो आन्नद ! तुम्हे ऐसा नही समझना चाहिये । मै ही उस समय राजा महासुदस्सन था । मेरे ही वे कुशावती राजधानी आदि चोरासी हजार नगर थे० मेरी ही वे चोरासी हजार थालिर्या ०।

“आन्नद ! उस समय चौरासी हजार नगरोमे वही एक कुशावती नरग राजधानी थी जर्हा कि मै रहता था । आन्नद उस समय ० प्रासादोमे वही एक धर्म-प्रसाद था जर्हा मै रहता था ।

“आन्नद ! देखो, वे सभी सस्कार (=कृत वस्तुये) क्षीण हो गये, निरुद्ध हो गये, दिपरिणत (=वदल) हो गये।

आन्नद । इसी तरह सभी सस्कार अ-नित्य है । आन्नद ! इसी तरह सभी सस्कार (वदल) हो गये । आन्नद । इसी तरह सभी सस्कार विश्वासके अ-योग्य है । आन्नद इसलिये सस्कारोकी चाह व्यर्थ है, उनमे राग करना व्यर्थ है, उनमेव आसक्त होना व्यर्थ है । आन्नद। मै जानता र्हूं, इसी स्थानमे मेरी छै वार मृत्यु हो चुकी है, इसी स्थानमे मेरी छै वार मृत्यु हो चुकी है— (पहले छै वार) चारो दिशाओको जीतनेवाला, शान्त धार्मिक, धर्मराज और स्थिरता स्थापित करनेवाल, सातो रत्नोसे युक्त चक्वर्ती राजा होकर, यह सातवी बार यर्हा मेरा शरीरपात हो रहा है । आन्नद । मै देवताओ सहित सारे लोकमहै । आन्नद ? मै देवताओ सहित सारे लोकमे ० कोई दुसरा स्थान नही देखता, जर्हा तथागत आठवी बार शरीरको छोळोगे । ”

भगवानने यह कहा, यह कह सुगत शास्ताने यह भी कर्हा—

“सभी सस्कार (=कृत वस्तुये) अनित्य, उत्पति और क्षय स्वमाववाले है,

होकर मिट जानेवाले है, उनका शान्त हो जाना ही सुखमय है ॥१॥”