दीध-निकाय

18. जनवसभ-सुत्त (२।५)

१—सभी देशोके मृत भक्तोकी गतिका प्रकाश । २—मगधके भक्तोकी गतिका प्रकाश क्यो नही । ३—जनवसभ (बिंबिसार) देवताका सलाप । ४—शक्रद्वारा बुद्धधर्मकी प्रशंसा । ५—सनत्कुमार ब्रह्मा द्वारा बुद्ध धर्मकी प्रशंसा । ६—मगधके भक्तोकी सुगति ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् नादिकामे गिजकावसथमे विहार कर रहे थे ।

१—सभी देशोंके मृत भक्तोंकी गतिका प्रकाश

उस समय भगवान् चारो ओरके प्रदेशोमे सभी ओर (घूमकर बुद्ध, धर्म और संघकी) सेवा करनेवाले अतीत कालमे मरे लोगोकी, गति (=परलोक), का व्याकरण१ (=अदृष्ट कथन) कर रहे थे । काशी२ और कोसलमे, वज्जी और मल्लमे, चेति और वत्समे, कुरू और पञ्चालमे, तथा मत्स्य और सूरसेनमे—अमूक वहॉ उत्पन्न हुआ है, औऱ अमुक वहॉ उत्पन्न है । पचाससे कुछ अधिक नादिका ग्रामके रहनेवाले परिचारक (=बुद्ध, धर्म, और संघकी सेवा करनेवाले भक्त) अतीत कालमे मर कर अवरभागीय (=पॉच कामलोकके) बन्धनो (=संयोजनो) के क्षय हो जानेके कारण औपपातिक (=देवता) हो उस लोकसे फिर कभी नही लौटेगे । नब्बेसे कुछ अधिक नादिका ग्रामके परिचारक अतीत कालमे मरकर तीन बन्धनो (=संयोजनो) के क्षय हो जानेके कारण राग, द्वेष, और मोहके तनु (=कमजोर, क्षीण) हो जानेके कारण सकृदागामी हो गये है—वे एक ही बार इस लोकमे आकर अपने सारे दुखोका अन्त करेगे । पॉच सौसे कुछ अधिक नादिका ग्रामके परिचारक ० तीन बन्धनोके क्षय हो जानेसे स्त्रोतआपन्न हो गये है, अब वे फिर गिर नही सकते है, उनकी सम्बोधि-प्राप्ति नियत है ।” नादिकाके परिचारकोने सुना—‘भगवान् भिन्न भिन्न प्रदेशोमे सभी ओर ० स्त्रोतआपन्न० सम्बोधि-प्राप्ति नियत है ।’ उससे प्रमुदित, प्रीति और सौमनस्य युक्त नादिका ग्रामके परिचारक भगवानके व्याकरणको सुनकर बळे संतुष्ट हुये ।

२—मगधके भक्तोंकी गतिका प्रकाश क्यों नही

आयुष्मान् आनन्दने सुना,—भगवान् भिन्न भिन्न प्रदेशोमे० । उससे नादिका ग्रामके परिचारक०बळे सन्तुष्ट हुये । तब आयुष्मान् आनन्दके मनमे यह हुआ—“ये अग मगधके परिचारक भी अतीत कालमे मर चुके है । अतीत कालमे मरे हुये अग और मगधके परिचारकोसे मानो अग और मगध शून्य

(खाली) है । वे भी तो बुद्धके ऊपर प्रसन्न थे, धर्मके ऊपर प्रसन्न थे, संघके ऊपर प्रसन्न थे और शीलोको पूरा करनेवाले थे । अतीत कालमे मरे हुये उन लोगोके विषयमे भगवानने कुछ नही कहा । उनके विषयमे भी कहना उचित है, इससे बहुतसे लोग श्रद्धालु (=प्रसन्न) होगे, और सुगतिको प्राप्त होगे । मगधराज सेनिय बिम्बिसार भी तो धार्म्मिक, धर्मराजा, ब्राह्मण और गृहस्थोका, तथा नगर और देशका हित करनेवाला था। सभी लोग ऊसकी बळाई करते है—‘वह इस प्रकारका धार्मिक धर्मराज था, जो लोगोको सुखी कर स्वंय मृत्युको प्राप्त हुआ । उस धार्मिक धर्मराजाके राज्यमे हम लोग भी सुखपूर्वक विहार करते थे ।’ वह भी बुद्धमे प्रसन्न० । लोग यह भी कह रहे थे—‘मरते दम तक मगधराज०ने भगवानका यश (गुण-) कीर्तन करते ही मृत्युको प्राप्त किया’ । भगवानने अतीत कालमे मरे हुये (उस राजाके) विषयमे कुछ नही कहा है । इसका कहना उचित होगा, बहुत लोग प्रसन्न० । भगवानकी बुद्धत्त्व (=सम्बोधि) प्राप्ति भी मगधहीमे हुई है । भगवानकी सम्बोधि-प्राप्ति मगधहीमे हुई, तो भी भगवानने अतीतकाल० मगधके परिचारकोके ज्ञान, गति, और पुण्यकी उत्पत्तिके विषयमे क्यो कुछ नही कहा ॽ भगवानने अतीत कालमे०नही कहा है, इसलिये मगधके परिचारक खिन्न-मन है । मगधके परिचारक खिन्न हो गये है, फिर भगवान् क्यो नही कहेगे ॽ”

आयुष्मान् आन्नद मगधके परिचारकोके विषयमे अकेले एकान्त-स्थानमे इस प्रकार विचारकर रातके ढल जानेपर उठकर जहॉ भगवान् थे वहॉ गये।

जाकर भगवानको० अभिवादनकर बैठ गये ।० कहा—

“भन्ते । मैने सुना है कि भगवान् भिन्न भिन्न प्रदेशोमे (विचरते)०। उससे नादिकाके परिचारक प्रसन्न० । ये मगधके परिचारक भी अतीत कालमे० मगधके परिचारक खिन्न हो गये है, फिर भगवान् क्यो नही कहेगे ।” आयुष्मान् आनन्द मगधके परिचारकोके विषयमे भगवानके सम्मुख यह कहकर, आसनसे उठ, भगवानकी वन्दना और प्रदक्षिणा कर चले गये ।

तब भगवान् आयुष्मान् आनन्दके जानेके बाद पूर्वाह्ण समय पहनकर, पात्र और चीवर ले नादिका ग्राममे भिक्षाटनके लिये प्रविष्ट हुये । नादिका ग्राममे भिक्षाटनके बाद लौटकर, पैर धो भोजनकर चुकनेपर गिजकाराममे प्रवेशकर बिछे आसनपर बैठे, और उन्होने मगधके परिचारकोके विषयमे जाननेके लिये अपने चित्तको सभी ओरसे खीचा, जिसमे कि उनकी परलोककी गति को जाने, कि परलोकमे वह किस गतिको प्राप्त हुये है । भगवानने मगधके परिचारको द्धारा प्राप्त लोकको देखा । तब भगवान् सायकाल ध्यानसे उठकर गिजकावसथसे निकल, विहारके पीछे छायामे बिछे आसनपर बैठ गये ।

तब आयुष्मान् आनन्द गये ।० बैठ गये ।० यह कहा—“भन्ते । भगवान् बळे शान्त-दर्शन मालूम हो रहे है, इन्द्रियोकी प्रसन्नतासे भगवानका मुख बहुत ही सुन्दर मालूम हो रहा है । (ज्ञात होता है कि) भगवानने आज शान्तिपूर्वक विहार किया है ।”

३-जनवसम (बिंबिसार) देवतासे संलाप

“आनन्द । मगधके परिचारकोके विषयमे मेरे सामने कहकर जब तुम आसनसे उठ कर चले गये, तब मै नादिका ग्राममे० (भिक्षाकर) बिछे आसनपर बैठ गया—०मैने देखा ० । आनन्द । तब किसी अदृश्य यक्ष (=देवता) ने शब्द सुनाया—‘भगवान्। मै जनवसभ हूँ, सुगत । मै जनवसभ हूँ । क्या आनन्द । तुमने पहले यह नाम सभी सुना है ॽ यह जनवसभ कौन है कभी सुना है ॽ”

“भन्ते । इस प्रकारके नामको हमने पहले कभी नही सुना । यह जनवसभ कौन है यह नही सुना है। भन्ते । किँतु ‘जनवसभ’ नामको सुनकर मुझे रोमाञ्च सा हो आया । भन्ते । तब मेरे मनमे यह आया—जिसका ‘जनवसभ’ जैसा अच्छा नाम है, वह कोई मामूली यक्ष नही होगा ।”

“आनन्द । शब्द सुना जनवसभ यक्षने अत्यन्त कान्तिमय बन मेरे सामने प्रकट हो, दूसरी बार भी शब्द सुनाया—‘भगवान् । मैं बिम्बिसार हूँ, सुगत । मै बिम्बिसार हूँ । भन्ते । यह सातवी बार वैश्रवण महाराजका मित्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ, सो मै यहॉसे च्युत होकर मनुष्य-राजा हो सकता हूँ ।

‘इससे सात (और) उससे भी सात चौदह जन्मोको,

जिन मे मैने पहले बास किया है, मै उन्हे अच्छी तरह स्मरण करता हूँ ।।१।।

‘भन्ते । मैं जानता हूँ कि बहुत बर्ष पहले भी मैने चार प्रकारके अपायो (=नरको) मे कभी नही जन्म लिया । सकृदागामी होनेके लिये मुझे उत्साह भी है ।’

‘आश्चर्य । आयुष्मान् जनवसभ यक्षको अद्भुत’ ० । और बोला—मैने पहिले वास० । सकृदागामी होनेके० । यह आयुष्मान् जनवसभ यक्ष कैसे इस महान् विशेष लाभ=(मार्गफल प्राप्ति)को पाये ॽ’

‘भगवान् । आपके धर्म (=शासन)को छोळ और किसी दूसरी तरहसे नही । सुगत । आपके० । भन्ते । जबसे मै भगवानका सुभक्त बना तबसे चिरकाल तक मैने चार अपायोमे नही जन्म लिया । सकृदागामी होने० । भन्ते । अभी मुझे वैश्रवण (=कुबेर) महाराजने विरूढक महाराजके पास देवताओके किसी कामसे भेजा था । रास्तेमे जाते हुये भगवानको गिंजकावसथमे प्रवेशकर मगधके परिचारकोके विषयमे० विचार करते हुये (मैने) देखा । भन्ते । आश्चर्य नही । कुबेर महाराजको उस सभामे बोलते हुये सामनेसे सुना, सामनेसे ग्रहण किया, कि क्या उनकी गति हुई है, क्या उनके परलोक है । भन्ते । तब मेरे मनमे यह आया— (चलो) भगवानका दर्शन भी करूँगा, भगवानसे यह कहूँगा भी । भन्ते । भगवानके दर्शनार्थ मेरे आनेके यही दो कारण है ।

४—शक्र द्वारा बुद्धधर्मकी प्रशंसा

‘भन्ते । पहले बीते उपोसथको बैसाख पूर्णिमाकी रातमे सभी त्रायस्त्रिश देवता सुधर्मा सभामे इकट्ठे होकर बैठे थे । चारो ओर बळी भारी देवताओकी सभा लगी थी । चारो दिशाके चारो महाराज बैठे थे । पूर्व दिशाके धतरट्ठ (=धृतराष्ट्र) महाराज देवोको सामने करके पश्चिम मुख किये बैठे थे । दक्षिण दिशाके विरूळ्हक (=विरूढक) महाराज देवोको ० उत्तर ० । पश्चिम० के विरूपक्ख (=विरूपाक्ष) पूर्व ० । उत्तरके ० वैश्रवण (कुबेर) दक्षिण ० । भन्ते । जब सभी त्रायस्त्रिश देवता सुधर्मा सभामे ० ० चारो महाराज बैठे थे । उन लोगोका आसन इस प्रकार था । उसके पीछे हम लोगोका आसन था । भन्ते । वे देव जो भगवानके धर्म (=शासन)मे ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करके हालमे त्रायस्त्रिश लोकमे उत्पन्न हुए है, वे दुसरे देवताओसे कान्ति तथा यशमें बढे चढे है । भन्ते । उससे वे त्रायस्त्रिश देवता सन्तुष्ट है, प्रमुदित, प्रीति=सौमनस्यसे युक्त है—‘देव-लोक भर रहा है, अ-सुर-लोक क्षीण हो रहा है ।

‘भन्ते । तब शक्र देवेन्द्रने त्रायस्त्रिश देवताओको प्रसन्न देखकर इन गाथाओसे अनुमोदन किया ।—

‘इन्द्रके साथ सभी (हम) त्रायस्त्रिश देवता,

तथागत और धर्मकी सुधर्मताको नमस्कार करते हुये प्रमुदित है ।।२।।

सुगतके (शासन)मे ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करके,

यहाँ आये हुए नये देवोको कान्तियुक्त और यशस्वी देख कर ।।३।।

भूरिप्रज्ञ (=बुद्ध) के वे श्रावक यहॉ बळप्पनको प्राप्त है ।

वे कान्ति आयु और यशमे दूसरोसे बढ चढकर है ।।४।।

इन्हे देखकर तथागत और धर्मकी सुधर्मताको नमस्कार करते हुए,

इन्द्रके साथ त्रायस्त्रिश (देव) आनन्दित हो रहे है ।।५।।

‘भन्ते । उसके त्रायस्त्रिश देवता अत्यधिक प्रसन्न, संतुष्ट, प्रभुदित तथा प्रीति और सौमनस्यसे युक्त हो (कहते थे)—देवलोक भर रहा ०। भन्ते । तब जिस कामके लिये त्रायस्त्रिश देव सुधर्मा–सभामे इकट्ठे हुये थे, उस काम को यादकर, उस कामके विषयमे मन्त्रणाकी । चारो महाराजने भी कहा, समर्थन किया । वे चारो महाराज फिर न जा करके अपने अपने आसनपर खळे थे —

‘वे राजा अपनी अपनी बात कहके आज्ञा लेकर ।’

प्रसन्न मनसे शान्त हो अपने अपने आसनपर खळे थे ।।६।।

‘भन्ते । तब उत्तर दिशामे देवोके देवानुभावसे बढकर बळा प्रकाश उत्पन्न हुआ, तीव्र प्रकाश प्रादुर्भूत हुआ । भन्ते । तब शक्र देवेन्द्रने त्रायस्त्रिश देवोको संबोधित किया—मार्ष । जैसा लक्षण दिखाई दे रहा है, बळा प्रकाश ० ब्रह्मा प्रकट होगे । ब्रह्माहीके प्रकट होनेके लिये यह पूर्व-निमित्त है, जिससे कि यह बळा प्रकाश उत्पन्न हो रहा है ।

५—सनत्कुमार ब्रह्मा द्धारा बुद्ध धर्मकी प्रशंसा

‘जैसा निमित्त दिखाई दे रहा है, उससे ब्रह्मा प्रकट होगे ।

यह ब्रह्माका ही लक्षण है, जो कि यह बळा प्रकाश हो रहा है ।।७।।’

‘भन्ते । तब त्रायस्त्रिश देव अपने अपने आसनोपर वैसे ही बैठ गये, कि उस बळे प्रकाश को जान, और जो उसका फल होगा उसे देख ही कर जायेगे । चारो महाराजा भी ० । इसे सुनकर त्रायस्त्रिश देवता सभी एकत्र हो गये, उस बळे प्रकाश ० । भन्ते । जब सनत्कुमार ब्रह्मा त्रायस्त्रिश देवोके सामने प्रकट होता हे, तो वह अपने बळे तेजको प्रकाशित करके ही प्रकट होता है, जिसमे कि भन्ते । जो ब्रह्माकी स्वाभाविक दुष्प्राप्य कान्ति है, उसे त्रायस्त्रिश देव देख ले । जब सनत्कुमार ब्रह्मा ० प्रकट होता है, तब वह दूसरे देवोसे वर्ण और यशमे बहुत बढा रहता है । भन्ते । जैसे, सोनेकी मूर्ति मनुष्यके विग्रहसे अधिक तेजसी होती है, वैसे ही भन्ते । जब ब्रह्मा प्रकट ० । भन्ते । जब सनत्कुमार ० प्रकट होता है, उस सभामे कोई भी देव उसे न तो अभिवादन करते है, न उठकर अगवानी करते है, न आसनके लिये निमन्त्रित करते है । सभी चुप होकर, हाथ जोळे, पलथी मारे बैठे रहते है । ब्रह्मा सनत्कुमार जिस देवके आसन मे चाहता है उसी देवके पर्यड्कमे बैठ जाता है । भन्ते । ब्रह्मा ० जिस देवके पर्यड्कमे बैठ जाता है, वह देव बळा विशाल हो जाता है, सौमनस्यको लाभ करता है । भन्ते । जैसे हालमे मूर्धाभिषिक्त, क्षत्रिय राजा, बहुत अधिक संतोष पाता है, ० सौमनस्य लाभ करता है, उसी तरह जिस देवके पर्यड्कमे ब्रह्मा सनत्कुमार बैठता है, वह देव ० । भन्ते । तब ब्रह्मा सनत्कुमार अपने विशाल शरीरको निर्माणकर पॉच शिखाओवाले एक बच्चेका रूप घर त्रायस्त्रिश देवोके सामने प्रकट हुआ । वह आकाशमे उळ अन्तरिक्षमे पलथी लगाकर बैठ गया । भन्ते । जैसे कोई बलवान् पुरूष ठीकसे बिछे आसन या समतल भूमिपर पलथी मारकर बैठे, वैसे ही ब्रह्मा सनत्कुमार आकाशमे उळकर, आकाशमे पलथी लगाके बैठा । त्रायस्त्रिश देवोको प्रसन्न देख इन गाथाओसे अनुमोदन किया—‘इन्द्रके साथ ० ।।२—५।।

‘भन्ते । सनत्कुमार ब्रह्माने यह कहा । भन्ते । सनत्कुमार ब्रह्माका स्वर आठ अंगोसे युक्त था— (१) स्पष्ट (=साफ साफ), (२) समझने लायक, (३) मञ्जु, (४) श्रवणीय, (५) एक धन (=फटा नही), (६) ऋमानुकूल, (७) गम्भीर, (८) ऊँचा । भन्ते । ० ब्रह्मा सभाके अनुकूल ही स्वरसे भाषण

करता था । उसका घोष सभाके बाहर नही जाता था । भन्ते । जिसका स्वर इस प्रकार आठ अंगोसे युक्त होता है वह ब्रह्मस्वर कहलाता है । भन्ते । तब ब्रह्मा ०ने त्रायस्त्रिशीय शरीरका निर्माणकर त्रायस्त्रिश देवोके पर्यड्कोसे प्रत्येक पर्यड्कमे बैठकर तावतिस देवोको संबोधित किया—आप तावतिस (=त्रायस्त्रिश) देव लोग इसे क्या नही जानते, कि भगवान् लोगोके हितके लिये लगे है, लोगोके सुखके लिये ० । जितने बुद्धकी शरणमे गये, धर्मकी शरणमे गये, संघकी शरणमे गये, और जिन्होने शीलोको पूरा किया, मरनेके बाद, उनमेंसे कितने ही परनिर्म्मितवशवर्त्ती देवोमे उत्पन्न हुए, कितने निर्म्माणरति देवोमे ०, कितने तुषित देवो ०, ० याम देवो ०, ० त्रायस्त्रिश देवो ०, ० चातुर्महाराजिक देवो ० । (उनमे) सबसे हीन शरीर पानेवालेने, गन्धर्वके शरीरको पाया । ब्रह्मा ०ने यह कहा । भन्ते । ब्रह्मा० के घोषको सभी देवोने जाना कि मानो वह उन्हीके आसनसे हो रहा हे—

‘एकके भाषण करनेपर (दिव्य-बल द्रारा) निर्मित सभी शरीर भाषण करते है ।

एकके चुप बैठनेपर, वे सभी चुप हो जाते है ।।८।।

“इन्द्रके साथ सभी त्रायस्त्रिश देव समझते थे,

कि ब्रह्मा उन्हीके आसनमे है और वहीसे भाषण कर रहा है ।।९।।

‘भन्ते । तब ब्रह्मा ० एक ओरसे अपनेको समेटने लगा, एक ओरसे अपनेको समेटकर (उसने) शक्र देवेन्द्रके आसन (=पर्यड्क)मे पलथी लगाके बैठकर तावतिम देवोको संबोधित किया—‘आप त्रायस्त्रिश देव लोग क्या समझते है,—उन भगवान् अर्हत्, सर्वद्रष्टा, सर्ववित्, सम्बुद्धको ऋद्धियोकी अधिकतासे ऋद्धियोकी विशदतासे, तथा ऋद्धियोको नाना प्रकारसे देखनेसे चारो ऋद्धिपाद प्राप्त है । कौनसे चार (ऋद्धिपाद) ॽ भिक्षु छन्दसमाधि प्रधान संस्कारसे युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, वीर्यसमाधि प्रधान ० संस्कारयुक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, चित्तसमाधि प्रधान संस्कारसे युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, वीमसासमाधि ० । ये चार ऋद्धिपाद उन भगवान् ०को सिद्ध है, ऋद्धियोकी अधिकतासे ० । अतीतकालमे जिन श्रमण और ब्राह्मणोने अनेक प्रकारकी ऋद्धियोको सिद्ध किया था उन सभीने इन्ही चार ऋद्धिपादोकी भावना करके (और) अभ्यास करके । भविष्य (=अनागत) कालमे जिन ० सिद्ध करेगे ० । वर्तमानकालमे जिन ० सिद्ध किया है ० । आप जो त्रायस्त्रिश देव इस समय मेरे ऋद्धिबलको देख रहे है—ऐसे महाब्रह्मा है—मै भी इन्ही चार ऋद्धिपादोकी भावना करनेसे, अभ्यास करनेसे इस प्रकारका महाऋद्धिवाला महानुभाव हुआ हूँ।’

‘भन्ते । ब्रह्मा ० ने यह बात कही । भन्ते । ब्रह्मा ० ने यह बात कह, त्रायस्त्रिश देवोको संबोधित, किया—‘तब आप ० लोग क्या जानते है, कि उन भगवान् ० को तीन सुखकी प्राप्तिके लिये अवकाश प्राप्त है । वे तीन (सुख) कौनसे ॽ कोई पुरुष भोगो (=कामो) से लिप्त होकर अकुशल धर्मो (=पापो) से लिप्त होकर विहार करता है । वह आगे चलकर आर्यधर्मको सुनता, अच्छी तरह मनमें लाता है, धर्मकी ओर ही लग जाता है । वह आर्यधर्मको सुनकर अच्छी तरहसे धर्मकी ओर लगता है, अच्छी तरह मनमे लाते हुए, भोगो (=कामो) मे बिना आसक्त हुए विहार करता है, अकुशल पापोमे बिना आसक्त ० । भोगो (=कामो) मे न लगनेसे (और) अकुशल धर्मोमे न लगनेसे उसे सुख होता है । सुखसे सौमनस्य, जैसे मोदसे प्रमोद होता है । इसी तरह कामोमे न आसक्त ० सुख होता है, सुखसे फिर सौमनस्य । उन भगवान्०को सुखकी प्राप्तिके लिये यह प्रथम अवकाश प्राप्त है ।

“और फिर, किसीके महान् काय-संस्कार अशान्त होते है, महान् बाक्-संस्कार ०, महान् चित्त-संस्कार ० । वह किसी समय आर्यधर्मको सुनता है, अच्छी तरह मनमे लाता है, धर्मकी ओर प्रवृत हो जाता है । आर्यधर्म सुननेके बादसे ० प्रवृत होनेसे महान् काय-संस्कार शान्त हो जाते है, महान् वाक्-संस्कार ०, महान् चित्त-संस्कार ० । उसके महान् काय-संस्कारोके शान्त होनेसे, महान् वाक्-

संस्कारोके ०, ० चित्त-संस्कारोके शान्त होनेसे सुख उत्पन्न होता है । सुखसे सोमनस्य । जैसे मोदसे ० । यह उन भगवान्०को सुखकी प्राप्तिके लिये दूसरा अवकाश प्राप्त है ।

“और फिर, कोई ‘यह कुशल है’ ऐसा ठीकसे नही जानता है, ‘यह अकुशल है’ ऐसा ठीकसे नही जानता है, ‘यह निन्द्य है, यह अनिन्द्य है, यह करने के योग्य है, यह न करने योग्य है, यह हीन है, यह सुन्दर है, इसमे अच्छाई बुराई दोनो है’ ऐसा ठीकसे नही जानता है । वह किसी समय आर्यधर्मको सुनता है ० । वह आर्यधर्म सुननेके बाद ० प्रवृत्त होता है । ‘यह कुशल है ० ऐसा (सभी) ठीक ठीक जान जाता है । उसके ऐसा जानने, ऐसा देखनेसे अविद्या क्षीण हो जाती है, और विद्या उत्पन्न होती है । अविद्याके हट जाने और विद्याके उत्पन्न होनेसे उसे सुख उत्पन्न होता है, सुखसे सौमनस्य । जैसे ० । ० यह तीसरा अवकाश प्राप्त ० । उन भगवान्०को सुखप्राप्तिके लिये ये तीनो अवकाश प्राप्त है ।

“भन्ते । ब्रह्मा०ने यह बात कही । भन्ते । ब्रह्मा०ने यह बात कहके तावतिस (=त्रायस्त्रिश) देवोको संबोधित किया—‘तब आप त्रायस्त्रिंश देव लोग क्या जानते है कुशल प्राप्तिके लिये जो चार स्मृति-प्रस्थान कहे गये है, ये भगवान्०को अच्छी तरह ज्ञात है । कौनसे चार ॽ भिक्षु अपने कायामे कायानुपश्यी होकर विहरता है, उद्योगी, सावधान, स्मृतिमान्, अभिध्या (=लोभ) और दौर्मनस्य (=मनकी अशान्ति) को दबाकर, अपनी कायामे कायानुपश्यी होकर विहरते हुए उसके धर्म समाधिमे आते है, निर्मल होते है । वह अच्छी तरह समाहित और प्रसन्न हो बाहर, दूसरोके शरीरको निमित्त करके अपने ज्ञानदर्शनमे प्रवृत्त होता है ।—भीतरी वेदनाओमे वेदनानुपश्यी होकर विहार करता है ० बाहर दूसरोकी वेदनाओमे ० ।—भीतरी चित्तमे चित्तानुपश्यी ० ।—अपने भीतरी धर्मोमे धर्मानपश्यी ० । ये चार स्मृतिप्रस्थान कुशल प्राप्तिके लिये भगवान्० से बतलाये गये है ।

६—मगधके भक्तोंकी सुगति

“ब्रह्माने ०─क्या आप त्रायस्त्रिश देव लोग जानते है कि सम्यक्-समाधिकी भावना और परिशुद्धिके लिये सात समाधि-परिष्कारोको भगवान्०ने अच्छी तरह बतलाया है ? कौनसे सात ? सम्यक्-दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्म, सम्यक्-आजीव, सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति । जो इन सात अंगोसे अडग प्रत्यडगोके साथ, (और) सभी परिष्कारोके साथ चित्तकी एकाग्रता रूपी परिष्कृति है वही सम्यक्-समाधि कही० जाती है । सम्यक्-दृष्टिवाला मनुष्य सम्यक्-संकल्पमे समर्थ होता है, सम्यक्-संकल्पवाला मनुष्य सम्यक्-वाकमे समर्थ होता है । सम्यक्-स्मृति से ० । सम्यक् समाधिमे समर्थ होता है । सम्यक् समाधि ० सम्यक् ज्ञानमे समर्थ होता है । सम्यक् ज्ञानवाला मनुष्य सम्यक् विमुक्तिमे समर्थ होता है । जिसे भली भॉति कहनेवाले मनुष्य कहते है─भगवानका धर्म स्वाख्यात (=सुन्दर प्रकारसे कहा गया) है, सान्दृष्टिक (=इसी संसारमे फल देनेवाला), अकालिक (=कालान्तरमे नही, सद्य फलप्रद), एहिपश्यिक (=परीक्षा किया जा सकनेवाला), ओपनयिक (=निर्वाणके पास ले जानेवाला), विज्ञ (पुरूषो) को अपने अपने विदित होनेवाला है─जो लोग बुद्धमे स्थिर रूपसे प्रसन्न है, धर्ममे स्थिर ० और संघमे ०, उत्तम प्रिय शीलसे युक्त है उनके लिये अमृत (=स्वर्ग) का द्वार खुल गया । (जैसे) ये औपपातिक (=देवता) धर्मविनीत चौबीस लाखसे भी अधिक मगधके परिचारक अतीतकालमे मारके तीन बन्धनोके कट जानेसे स्त्रोतआपन्न हो गये है, वह फिर कभी तीन अपायोमे नही गिर सकते है और वह नियत रूपसे सम्बोधि-प्राप्तिमे लगे है । और यहॉ सकृदागामी भी है─

‘मै जानता हूँ कि यहॉ और दूसरे लोग (भी) पुण्यके भागी है ।

‘कही मिथ्या-भाषण न हो जावे ।’ इस डरसे उनकी गणना नही की सका ।।१०।।’

“भन्ते । ब्रह्मा०ने यह कहा । भन्ते । ब्रह्मा०के इतना कहनेपर वैश्रवण महाराजके मनमे यह वितर्क उत्पन्न हुआ—आश्चर्य़ हे, अद्भुत है, इस प्रकारके उदार (=महान्, श्रेष्ठ) शास्ता (फिर भी कभी) उत्पन्न हो तो इस प्रकारके उदार धमोपदेश, (और) इस प्रकारके ऊँचे ज्ञान देखे जाये । भन्ते । ब्रह्माने ० वैश्रवण (=कुबेर) महाराजके चित्तको अपने चित्तसे जान यह कहा—वैश्रवण महाराज । क्या जानते है कि अतीतकालमे भी इस प्रकार उदार शास्ता ० देखे गये थे, भविष्य मे भी इस प्रकारके उदार शास्ता ० होगे ० देखे जायेगे ।

“भन्ते । ब्रह्मा०ने त्रायस्त्रिश देवोसे यह कहा । त्रायस्त्रिंश देवोके सामने जो कुछ ब्रह्मा०ने कहा, उसे सामने सुन और ग्रहणकर वैश्रवण महाराजने अपनी सभामे कह सुनाया ।’

जनवसभ देवता (=यक्ष)ने वैश्रवण महाराज द्वारा अपनी सभामे कहे गये इस वचनको सुन, और ग्रहणकर भगवानसे कह दिया । भगवानने जनवसभके मुँहसे सुन, ग्रहणकर, तथा स्वयं जानकर आयुष्मान् आनन्दसे कहा । आयुष्मान् आनन्दने भगवानके मुँहसे ० भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाओको कह सुनाया । वही ब्रह्मचर्य ऋद्धियुक्त, उन्नत, विस्तारित, प्रसिद्ध, और विशाल होकर देव मनुष्योमे प्रकाशित हुआ ।

१६-महागोविन्द-सुत (२ । ६)

१—शकद्वारा बुद्धधर्मकी प्रशंसा । २—बुद्धके आठ गुण । ३—ब्रह्मा सनत्कुमार द्वारा बुद्धधर्मकी प्रशंसा । ४—महागोविन्द जातक । (१) महागोविन्दकी दक्षता । (२) जम्बूद्वीपका सात राज्योमें विभाग । (३) ब्रह्माका दर्शन । (४) महागोविन्दका सन्यास । ५—बुद्धधर्मकी महिमा ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् राजगृहके गृघ्रकूट पर्वतपर विहार कर रहे थे । तब पञ्चशिख गन्घर्वपुत्र रातके चढनेपर देदीप्यमान शरीरसे सारे गृघ्रकूट पर्वतको प्रकाशित करके जहॉ भगवान् थे, वहॉ आया । आकर ० खळा हो गया । ० यह बोला—

“भन्ते । मैने जो त्रायस्त्रिश देवोके मुँहसे सुना है (और) जाना है, उसे आपसे कहता हूँ ।’

भगवानने कहा—“तो पञ्चशिख । मुझसे कहो ।”

१—शकद्वाराबुद्ध घर्मकी प्रशंसा

“भन्ते । बहुत दिन व्यतीत हुए एक प्रवारणा (=आश्विन पूर्णिमा)के उपोसथकी पञ्चदशीको पूर्णमासीकी रातमे सभी त्रायस्त्रिश देव सुघर्मा-सभामे बैठे थे । महती देव-परिषद् चारो ओरसे बैठी थी । चारो दिशाओसे चारो महाराज भी आकर बैठे थे । ० । भन्ते । तब शक्र देवेन्द्रने त्रायस्त्रिश देवताओको प्रसन्न देखकर इन गाथाओसे अनुमोदन किया—“इन्दके साथ सभी ० १ ॥१-४॥”

“भन्ते । इससे त्रायस्त्रिश देव अत्यघिक प्रसन्न, संतुष्ट ० हो गये——‘देवलोक भर रहा है, असुर-लोक क्षीण हो रहा है ।’ भन्ते । तब शक्र देवेन्द्रने त्रायस्त्रिंश देवोको प्रसन्न देख तावतिस देवोको संबोघित किया—‘मार्ष । क्या आप लोग उन भगवानके आठ यथार्थ गुणोको सुनना चाहते है ॽ’

‘मार्ष । हम लोग ० सुनना चाहते है ।’

२—बुद्धके श्राठ गुण

“भन्ते । तब शक्र देवेन्द्रने तावतिस (=त्रायस्त्रिंश) देवोसे भगवानके ० गुणोको कहा—(१) ‘आप तावतिस देव लोग कया जानते है कि भगवान् लोगोके हितकेलिये० । भगवानको छोळकर । इस प्रकारके अङगोसे युकत शास्ताको हम लोगोने आज तक पहले कभी नही देखा था । (२) “भगवानका घर्म स्वाख्यात ०२ है । उन भगवानको छोळकर आज तक हम लोगोने पहले इस प्रकारके स्वर्ग-प्रद घर्मका उपदेश देनेवाले, (तथा) इन अङगोसे युकत शास्ताको नही देखा । (३) ‘यह अच्छा है’ इसे भगवानने ठीक ठीक बतलाया है । ‘यह बुरा (अकुशल) है’ इसे ० । ‘यह निन्द्य, यह अनिन्द्य ०’ इसे ० ।

उन भगवानको छोळ ० इस प्रकारके कुशलाकुशल, निन्द्यानिन्द्य ० धर्मोके बतलानेवाले शास्ता ० । (४) उन भगवानने श्रावकोको निर्वाण-गामिनी प्रतिपदा (=मार्ग) ठीक ठीक बतलाई है । निर्वाण और उसके मार्ग बिल्कुल अनुकूल है । जैसे गंगाकी धारा यमुनामे गिरती है, और (गिरकर) एक हो जाती है, उसी तरह श्रावकोको उन भगवानकी बतलाई निर्वाण-गामिनी प्रतिपदा निर्वाणके साथ मेल खाती है । उन भगवानको छोळ ० इस प्रकारकी निर्वाण-गामिनी प्रतिपदाका बतलानेवाला ० । (५) उन भगवानको महालाभ हुआ है, उनकी गुणकीर्ति भी बळी भारी है । क्षत्रिय आदि समीके वे समान रुपसे प्रिय है । वे भगवान् जो आहार ग्रहण करते है वह मदके लिये नही होता । उन भगवानको छोळ ० इस प्रकार मदकेलिये ० । (६) भगवानने शैक्ष, निर्वाणके मार्गपर आरुढ, क्षीणास्त्रव (=अर्हत्), तथा ब्रह्मचर्य व्रतको पूरा करनेवाले (भिक्षुओ) की सहायताको पाया है । भगवान् उन्हे छोळकर एकान्तमे भी विहार करते है । उन भगवानको छोळ ० एकान्तमे विहार करनेवाले ० । (७) भगवान् य़थावादी (=जैसा बोलनेवाले) तथाकारी (=वैसा करनेवाले) है, यथाकारी तथावादी है । अत, यथावादी तथाकारी, यधाकारी तथावादी उन भगवानको छोळ ० इस प्रकार धर्मानुधर्म-प्रतिपत्र (=धर्मके अनुसार मार्गपर आरुढ) ० । (८) भगवान् तीर्णविचिकित्स (=जिन्हे कोई सन्देह नही रह गया हो) है, विगतशक (=जिनकी सारी शकाये दूर हो गई है), पर्यवसित-संकल्य (=जिनके सारे संकल्य पूरे हौ चुके है), और ब्रह्मचर्य पूरा कर चुके है । भगवानको छोळ ० ।— भन्ते । शक्र देवेन्द्रने तावतिस देवोसे भगवानके इन्ही यथार्थ आठ गुणोको कहा ।

“भन्ते । भगवानके आठ ययार्थ गुणोको सुनकर तावतिस देव अत्यन्त संतुष्ट, प्रमुदित ( तथा) प्रीति-सौमनस्य-युकत हुए ।’ भन्ते । तब कुछ देवोने यह कहा— ‘मार्ष । भगवानसे यदि चार सम्यक् सम्बुद्ध संसारमे उत्पन्न हो और धर्मका उपदेश करे, तो वह लोगोके हितके लिये, लोगोके सुखके लिये ० हो ।’

“दूसरे देवोने ऐसा कहा— ‘मार्ष । चार तो जाने दीजिये, यदि तीन सम्यक् सम्बद्ध भी संसारमे ० लोगोके सुखके लिये ० हो ।’ ”दुसरे देवोने ऐसा कहा—‘मार्ष । तीन जाने दीजिये, यदि दो ० भी ० ।’

“भन्ते । उनके ऐसा कहनेपर देवेन्द्र शक्रने ० देवोसे यह कहा—

‘ऐसा नही मार्षो । एक ही लोकधातुमे एक ही समय दो अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध नही होते । ऐसा नही होता। मार्ष । यही भगवान् नीरोग, सानन्द, और दीर्घजीवी होवे, जो कि लोगोके हितके लिये ० ।

“भन्ते । उसके बाद जिस कामसे ० देव लोग सुधर्मा-सभामे इकट्ठे होकर बैठे थे, उस कामके विषयमे विचार करके, मन्त्रणा करके उन चारो महाराजके भी कहने और समर्थन करनेपर अपने अपने आसनोपर खळे थे ।

वे चारो महाराज भी कहकर और अनुशासनी ग्रहणकर,

प्रसन्नमनसे अपने अपने आसनोपर खळे थे ।।५।।

३—बह्मा सनत्कुमार द्धारा बुद्धधर्मकी प्रशंसा

“भन्ते । तब उत्तर दिशामें एक बळा विशाल (=उदार) आलोक उत्पन्न हुआ । देवोके देवानु-भावसे भी बढकर तीव्र प्रकाश (उत्पन्न) हुआ । भन्ते । तब शक्र०ने त्रायस्त्रिश देवोको नवोधित किया— मार्ष । जैसा निमित दिखाई दे रहा है ०१ ब्रह्माके ये निमित्त ० ।।६।।”

“भन्ते । तावतिंस देव अपने अपने ० ।

“तब ब्रह्मा०ने अन्तर्हित (=अदृश्य) होकर इन गाथाओसे त्रायस्त्रिश देवोका अनुमोदन किया—

‘इन्द्रके साथ त्रायस्त्रिश देव ० ।।१-४।।’

“भन्ते । सनत्कुमार ब्रह्माने यह कहा । भन्ते । कहते समच सनत्कुमार ब्रह्माका स्वर आठ अंगोसे युक्त था, वह विस्पष्ट, विज्ञेय, मजु, श्रवणीय, विन्दु (=ठोस), बिखरा-नही, गंभीर, और निनादी परिषद् के अनुसार (तीव्र मन्द) स्वरसे ब्रह्मा सनत्कुमार परिषद्को उपदेशता है, उसका स्वर परिषद्से बाहर नही जाता । भन्ते । जिसका स्वर इन आठ अंगो से युक्त होता है, वह ब्रह्मस्वर कहा जाता है । भन्ते । तब ० देवोने ब्रह्ना ०से यह कहा—‘साधु महाब्रह्मा । इसीलिये हम लोग प्रसन्न हो रहे है । शक्र०के द्धारा भगवानके यथाभूत =यथार्थ आठ गुण कहे गये है । उसीसे हम लोग प्रसन्न हो रहे है ।’

“भन्ते । तब ० ब्रह्माने शक्र०से यह कहा—साधु देवेन्द्र । मै भी भगवानके आठ ० सुनूँ । भन्ते । तब शक्रने ० ब्रह्मा ०को भगवानके ० गुणोको कह सुनाया ।

‘तो आप महाब्रह्मा कया जानते है कि भगवान् लोगोके हित ०१।’

“भन्ते । शक्र०ने ब्रह्मा०को ये भगवानके आठ यथार्थ गुण कह सुनाये । उससे ब्रह्मा ० संतुष्ट ० । भन्ते । तब ब्रह्मा ० अपना उदार स्वरुप धारणकर, कुमारके देशमे, पॉच शिखाओवाला बन तावतिस देवोके सामने प्रकट हआ । वह आकाशमे ०२ देवोको संबोघित किया—

४—महागोविन्द जातक

‘आप त्रायस्त्रिश देव लोग कया नही जानते कि भगवान् बहुत दिन पहले भी महाप्रज्ञावान् थे ।—बहुत दिन पहले दिशापति नामक एक राजा रहता था । दिशापति राजाका गोविन्द नामक ब्राह्मण पुरोहित था । गोविन्द ब्राह्मणका जोतिपाल नामक माणवक पुत्र था । रेणु राजपुत्र, जोतिपाल माणवक और दुसरे छै क्षत्रिय—ये आठो बळे मित्र थे ।

‘तब बहुत दिनोके बीतनेपर गोविन्द ब्राह्मण मर गया । गोविन्द ब्राह्मणके मर जानेपर राजा ० विलाप करने लगा—जो गोविन्द ब्राह्मण (हमारे) सभी क्रृत्योको करके पॉच भोगो (=काम गुणो) से हमारी सेवा करता था वह गोविन्द ब्राह्मण मर गया’ ।

‘(राजाके) ऐसा कहनेपर रेणु राजपुत्रने राजा ०से यह कहा—देव । आप गोविन्द बाह्मण के मर जानेसे अधिक विलाप न करे । देव । गोविन्द ब्राह्मणका जोतिपाल नामक माणवक पुत्र है, । वह अपने पितासे भी बढकर पण्डित है, अपने पितासे भी बढकर अर्थदर्शी है । जिन कामोकी देख-रेख उसका पिता करता था, उन कामोकी देख-रेख जोतिपाल माणवक भी कर सकता है ।

‘कुमार । ऐसी बात है ?’ ‘देव । हाँ ।’

‘तब उस राजा ०ने एक पुरुषसे कहा—सुनो, जहॉ जोतिपाल नाणवक है, वहाँ जाओ । जाकर जोतिपाल माणवकसे यह कहो—जोतिपाल माणवकका शुभ हो । राजा ० आप ०को बुला रहे है, राजा ० आप ०से मिलना चाहते है ।’

‘अच्छा देव ।’ कहकर ० ।

‘जोतिपाल माणवक ‘बहुत अच्छा’ कह उस पुरुषको उत्तर दे जहाँ राजा दिशापति था, वहाँ

गया । जाकर (उसने) राजा०का अभिनन्दन किया । अभिनन्दन.. करनेके बाद एक ओर बैठ गया । राजा०ने एक ओर बैठे जोतिपाल माणवकसे कहा—

‘आप जोतिपाल मुझे अनुशासन करे (=सभी कामोमे विचारपूर्वक सलाह दे) आप जोतिपाल० अनुशासन करनेसे मत हिचके । आपको आपके पिताके स्थानमे नियुक्त करता हूँ । गोविन्दके आसनपर आपको अभिषिक्त करता हूँ ।

‘बहुत अच्छा’ कह जोतिपाल०ने राजा०को उत्तर दिया ।

“तब राजा०ने जोतिपाल०को गोविन्दके आसनपर अभिषिक्त किया, पिताके स्थानपर नियुक्त किया ।

(1) महागोविन्दकी दक्षता

“जोतिपाल० गोविन्दके आसनपर अभिषिक्त हो, अपने पिताके स्थानपर नियुक्त हो, उन कृत्योकी देख रेख करने लगे जिनकी देख रेख उनका पिता करता था, (और) जिनकी देख रेख उनका पिता नही करता था उनकी भी देख रेख करने लगे । जिन कामोका प्रबन्ध उनका पिता करता था, उनका प्रबन्ध करने लगे (और) जिन कामोका प्रबन्ध उनका पिता नही कर सकता था, उनका भी प्रबन्ध करने लगे । इसलिये उन्हे लोग कहने लगे—यह गोविन्द ब्राह्मणसा है, महागोविन्द ब्राह्मण है । इस प्रकार जोतिपाल माणवकका गोविन्द या महागोविन्द नाम पळा ।

“तब महागोविन्द ब्राह्मण जहॉ छै क्षत्रिय थे वहॉ गये, जाकर उन छै क्षत्रियोसे बोले—दिशापति राजा जीर्ण—बृध्द—महल्लक, पुराने और वयस्क हो गये है। जीवनके विषयमे कौन जानता है। बात ऐसी है कि ० राजाके मर जानेपर (कदाचित्) राज्य-कर्त्ता लोग रेणु राजपुत्रको राज्याभिषिक्त करे । आप लोग आवे, जहाँ रेणु राजपुत्र है वहॉ चले, और जाकर रेणु राजपुत्रसे यह कहे—‘हम लोग आपके सहायक, प्रिय—मनाप, (और) अप्रतिकूल (=आपहीके पक्षमे रहनेवाले) है । आपको जिसमे सुख है, उसीमे हम लोगोको भी सुख है, आपको जिसमे दुख है ० । दिशाम्पति राजा जीर्ण० हो गये है। जीवनके ० । बात यह है कि ० राजाके मरनेपर कदाचित् राज्यकर्ता लोग आप हीका राज्याभिषेक करे । यदि आप राज्य पावे तो हम लोगोको भी राज्यका (उचित) भाग दे ।’

‘बहुत अच्छा’ कह, छै क्षत्रिय महागोविन्द ०को उत्तर दे, जहाँ रेणु थे, वहाँ ० गये । ० यह बोले—हम लोग आपके सहायक ० ।’

‘हाँ, मेरे राज्यमे आप लोगोको छोळकर और दुसरा कौन सुखी होगा । यदि मै राज्य पाऊँगा तो आप लोगोको भी राज्यका भाग दूँगा ।’

“तब बहुत दिनोके बाद राजा ० मर गया । राजाके मर जानेपर राजकर्ताओने रेणु राजपुत्रका राज्याभिषेक किया । रेणु राज्याभिषिक्त हो पॉचो भोगोका सेवन करने लगा ।

“तब महागोविन्द ब्राह्मण जहाँ छै क्षत्रिय थे, वहाँ गये । जाकर बोले—राजा ० मर गया । राज्याभिषिक्त हो रेणु पॉच भोगोको सेवन कर रहा है । मदवर्धक भोगोका कौन ठिकाना ॽ आप लोग आवे, जहॉ रेणु राजा है, वहॉ जावे (और) जाकर रेणु राजासे यह कहे—दिशाम्पति राजा मर गया । आप राज्याभिषिक्त हुये है । आप उस वचनको स्मरण करते है ॽ’

‘बहुत अच्छा’ कह ० । ० स्मरण करते है ॽ’

(1) जम्बूद्विपका सात राज्योंमें विभाग

‘हाँ । उस वचनको मै स्मरण करता हूँ । तो कौन है जो उत्तरमें तो चौळी और दक्षिणमे शकटके मखके समान सकीर्ण इस महापृथिवी (=भारत) को सात बराबर भागोमे बाँट सकता है।

‘महागोविन्द०को छोळकर भला और दूसरा कौन (यह) कर सकता है ॽ’

“तब राजा रेणुने एक पुरुषको बुलाकर कहा—सुनो । जहॉ महागोविन्द ० है वहॉ जाओ, ० कहो—भन्ते । रेणु राजा आपको बुलाते है ।” ‘बहुत अचछा’ कह ० । ० बुलाते है ।

‘बहुत अच्छा’ कह वह ० पुरुषको उत्तर दे जहाँ रेणु राजा ० । ० बैठ गये । एक और बैठे महागोविन्द ब्राह्मणसे रेणु राजाने यह कहा—

‘आप ० इस महापृथ्वीको सात बराबर बराबर भागोमे बॉटे ।’

‘बहुत अच्छा’ कह महागोविन्दने रेणु ०को उत्तर दे, इस महापृथ्वीको ० बाँट दिया ० । बीचमे रेणुका भाग रहा ।

१कलिंगमे दन्तपुर, अश्वक (देश) मे पोतन,

अवन्ती (देश) मे माहिष्मती, सौवीर (देश) मे रोरुक ।

विदेह (देश) मे मिथिला, अगमे चम्पा,

और काशी (देश) मे वाराणसी—इन्हे महागोविन्दने बनाया ॥७॥

तब वे छै क्षत्रिय अपने अपने भागसे सतुष्ट हुए, उनका सकल्प पूरा हुआ—जो हम लोगोका इच्छित, जो आकाक्षित, जो अभिप्रेत (और) जो अभिप्रार्थित था, सो हम लोगोने पा लिया ।

सत्तभू, ब्रह्मदत्त, वेस्सभू, भरत,

रेणु और दो धृतराष्ट्र उस समय यह सात भारत (=राजा) थे ॥८॥

(इति) प्रथम भाणवार ॥१॥

तब वे छै क्षत्रिय जहॉ महागोविन्द थे, वहॉ गये । जाकर महागोविन्दसे बोले—जैसे आप रेणु राजाके सहायक, प्रिय, मनाप और अप्रतिकूल है, वैसे ही आप हम लोगोके भी सहायक हो । हम लोगोकी अनुशासन करे । आप अनुशासन करनेसे मत हिचके । ‘बहुत अच्छा’ कह ० ।

“तब महागोविन्द ० सात मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजाओको अनुशासन करने लगे । सात ब्राह्मण-महाशालो (=महाधनी)को और सातसौ स्नातकोको मन्त्र (=वेद) पढाने लगे । तब कुछ समय बीतनेपर महागोविन्दकी ऐसी ख्याति फैल गई—

‘महागोविन्द ० साक्षात् ब्रह्माको देखता है । महागोविन्द ० साक्षात् ब्रह्मासे बाते करता है, सलाप करता है, (और) मन्त्रणा करता है ।’

“तब महागोविन्द०के मनमे यह आया—मेरी ऐसी ख्याति हो गई है—‘महागोविन्द ० साक्षात् ० मन्त्रणा करता है ।’ मै तो ब्राह्माको नही देखता, न ब्रह्माके साथ बाते करता हुँ, न ० सलाप ०, न ० मन्त्रणा ० ।’

‘मैने वृद्ध=महल्लक, आचार्य, प्राचार्य ब्राह्मणोको ऐसा कहते सुना हे कि, जो वर्षाकालके चौमासे मे समाधि लगाता तथा करुणा भावनाको करता है, वह ब्रह्माको देखता है ० बाते करता है ० । अत मै वर्षाकालके चौमासेमे ध्यान ० करूँगा ।

“तब महागोविन्द ० जहाँ रेणु राजा था, ० वहॉ गये । ० बोले—मेरी ऐसी ख्याति हो गई है, ‘महागोविन्द ० साक्षात् ० । (किन्तु) मै ० नही देखता हूँ ० । ० कहते सुना है ० । अत मै वर्षाकालके चौमासेमे ध्यान ० करना चाहता हूँ । एक भोजन ले जानेवालेको छोळकर मेरे पास और कोई दूसरा न आवे ।’

‘आप गोविन्द, जैसा उचित समझे वैसा करे ।’

“तब महागोविन्द ० जहॉ छै क्षत्रिय थे ० वहॉ गये । ० बोले—‘आप गोविन्द, जैसा उचित समझे ।’

“तब महागोविन्द ० जहॉ सात ब्राह्मण महाशाल और सातसौ स्नातक ० ।’

‘आप गोविन्द, जैसा उचित समझे ।’

“तब महागोविन्द ० जहाँ उनकी एक जातिकी चालीस स्त्रियॉ थी ० ।

‘आप गोविन्द, जैसा उचित समझे ।’

“तब महागोविन्द ० नगरके पूरब नया सन्थागार (=ध्यान, आदिके अनुकूल स्थान) बनवाकर वर्षाकालके चार मास समाधि लगाने लगे, करुणा-भावनाका अभ्यास करने लगे । भोजन ले जानेवालेको छोळकर और कोई दूसरा वहॉ नही जाता था । तब चार मासके बीतनेपर महागोविन्द०को एक पुण्य की उत्सुकता होने लगी—० ‘ब्राह्मणोको कहते सुना था—वर्षाकालके ० । (किन्तु) मैं ब्रह्माको न देखता हूँ, ० न (उससे) बाते करता हूँ ० ।’

(३) ब्रह्माका दर्शन

“तब ब्रह्मा सनत्कुमार महागोविन्द०के चित्तको अपने चित्तसे जान जैसे बलवान् पुरुष ० वैसे ही ब्रह्मलोकमे अन्तर्धान हो महागोविन्द ० के सामने प्रकट हुआ । तब उस अदृष्टपूर्व रूपको देखकर महागोविन्दको कुछ भय होने लगा, स्तब्धता होने लगी, रोमाञ्च होने लगा । तब महागोविन्दने ० भयभीत=सविग्न, रोमाञ्चित हो ब्रह्मा सनत्कुमारसे गाथाओमे कहा—

‘मार्ष । सुन्दर, यशस्वी, श्रीमान् आप कौन है, नही जानकर ही

मै आपको पूछ रहा हूँ । आपको हम लोग भला कैसे जाने ॥९॥’

‘ब्रह्मलोकमे सनत्कुमारके नामसे

मुझे सभी देव जानते है, गोविन्द । तुम वैसा ही जानो ॥१०॥’

‘आसन, जल, पैरमे लगानेके लिये तेल, (और) मधुर शाक सेमै आप ब्रह्माकी पूजा करता हूँ, कृपया इन्हे आप स्वीकार करे ॥११॥’

‘गोविन्द । इसी जन्म (=दृष्टधर्म)के हितके लिये, स्वर्गप्राप्तिके लिये और सुखके लिये जो तुम कहते हो,

उन अर्ध्योको मै स्वीकार करता हूँ । मै आज्ञा देता हूँ, जो चाहो पूछ सकते हो ॥१२॥

“तब महागोविन्द०के मनमे यह आया—ब्रह्मा०ने आज्ञा दे दी है । ब्रह्मा०को मै क्या पूछूँ—इसी ससारकी बाते या परलोककी बाते ? तब महागोविन्दके मनमे यह आया—इस जन्म (=दृष्टधर्म)के अर्थोमे (=सासारिक बातोमे) तो मै स्वय कुशल हूँ, दूसरे लोग भी मुझसे दृष्टधर्मके अर्थको पूछते है । अत मै ब्रह्मासे परलोककी ही बात पूछूँ । तब महागोविन्द०ने ब्रह्मा०से गाथामे कहा—

‘श्रेष्ठो द्वारा ज्ञातव्य बातोमे मुझे शका है, इसलिये उन्हे मैं, शकारहित ब्रह्मा सनत्कुमारसे पूछता हूँ ।’

‘कहॉ रहकर और क्या अभ्यासकर मनुष्य अमृत ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ? ॥१३॥’

‘ब्राह्मण । मनुष्योमे ममत्वको छोळ एकान्तमे रहना, करुणा-भावयुकत होना ।’

पापोसे अलग रहना (तथा) मैथुन-कर्मसे विरत रहना,

इन्हीका अभ्यासकर, और इन्हीको सीखकर मनुष्य अमृत ब्रह्लोकको प्राप्त होता है ॥१४॥’

‘मै जानता हुँ कि तुमने ममत्वको छोळ दिया है । कोई पुरुष कम या बहुत भोगविलासको, बन्घु बान्घवोको छोळ शिर और दाढी मुँळ ० प्रब्रजित हो जाता है । मै जानता हूँ कि तुमने उस ममत्वको छोळ दिया है । मै जानता हूँ कि तुम सबसे अकेले भी हो गये हो ।

‘कोई कोई मनुष्य विविक्त(=एकान्त, निर्जन)स्थानमे वास करता है । अरण्य, वृक्षके नीचे पर्वत-कन्दरा, पहाळकी गुफा, श्मशान, जगल, खुले मैदान, या ० पुआलके ढेरमे वास करता है । मै जानता हूँ कि तुम भी इसी तरह विविक्त स्थानमे वास करते हो । मै जानता हूँ कि तुम करुणासे भी युकत हो ।

‘कोई कोई मनुष्य करुणायुकत चित्तसे एक दिशाकी ओर घ्यान कर विहार करता है, वैसे ही दूसरी दिशा ० ० तीसरी ० चौथी दिशा, ऊपर, नीचे, आळे, बेळे सभी तरहसे सभी ओर सारे ससारको वैररहित द्रोह-रहित विपुल, अत्यघिक, सच्चे चित्तसे विहार करता है । मै जानता हूँ कि तुम्हे भी इसी तरह करुणाका योग है । किंतु तुम्हारे कहनेसे भी तुम्हारा आमगन्घ मै नही जानता ।’

“ब्रहा । मनुष्योमे वे कौनसे आमगन्घ है ॽ उन्हे मै नही जानता, कृपया कहे ।

ब्रह्मलोकसे गिरकर नारकीय लोग किन मलोसे लिप्त हो दुर्गन्घिको प्राप्त होते है ॽ ॥१५॥’

“कोघ, मिथ्याभाषण, वञ्चना मित्र-द्रोह, कृषणता, अभिमान,

ईष्या, तृष्णा, विचिकित्सा, परपीळा, लोभ, दोष, मद और मोह,

‘इन्हीसे युकत होकर नारकीय लोग ब्रहलोकसे गिरकर दुर्गन्घको प्राप्त होते है ॥१६॥’

‘आपसे कहनेसे मै आमगन्घोको जान गया । वे गृहस्थसे जल्दी दूर नही किये जा सकते, अत, मै घरसे बेघर हो प्रब्रजित होऊँगा ।’ ‘महागोविन्द, जैसा उचित समझो ।’

(४) महागोविन्दका सन्यास

“तब महागोविन्द ० जहॉ रेणु राजा था वहाँ गये । जाकर रेणु राजासे बोले—अब आप अपना दूसरा पुरोहित खोज ले, जो कि आपके राज्यका अनुशासन करेगा । मै घरसे बेघर हो प्रब्रजित होना चाहता हूँ । ब्रह्माके कहनेसे जो आमगन्घ मैने सुने है, वेगृहस्थ रहकर आसानीसे दूर नही किये जा सकते, मै घर से बेघर हो प्रब्रजित होऊँगा ।

‘भूपति रेणु राजाको मै सबोघित करता हूँ, आप अपने राज्यके देखे,

मै अब पुरोहितके कामोको नही कर सकता ॥१७॥

‘यदि आपको भोगोकी कमी है, मै उसे पुरा करूँगा । जो आपको कष्ट देता है,

उसे मै वारण कर दूँगा, मै भूमि और सेनाका पति हूँ, तुम पिता हो, मै पुत्र हूँ,

गोविन्द, हम लोगोकी आप मत छोळे ॥१८॥’

‘मुझे भोगोकी कमी नही है और न मुझे कोई कष्ट देता है ।

अ-मनुष्य कैसा था, उसने आपको कया कहा है, जिसे सुनकर कि आप अपने घर तथा हम सभीको छोळ रहे है ॽ ॥२०॥’

‘पहले, यज्ञ करनेकी इच्छासे मैने अग्नि प्रज्वलित की, कुश और पत्ते बिछाये ।

उसी समय ब्रह्मा सनत्कुमार ब्रह्मलोकसे आकर प्रकट हुए ॥२१॥’

‘उन्होने मेरे प्रश्नोका उत्तर दिया ।

उसे सुनकर मै गृहस्थ रहना नही चाहता ।।२२।।’

‘हे गोविन्द । आप जो कहते है उसमे मेरी श्रद्धा है । देवकी बातको सुनकर

अब आप कोई दूसरा काम कैसे कर सकते है ॽ ।।२३।।

‘(किन्तु) हम लोग भी आपके अनुगामी होगे । गोविन्द । आप हम लोगोके गुरू होवे ।

जैसे चिकना, निर्मल और शुभ्र हीरा होता है

उसी तरह गोविन्दके अनुशासनमे हम लोग शुद्ध हो विचरण करेगे ।।२४।।’

‘यदि आप गोविन्द घरसे बेघर हो प्रब्रजित होगे, तो हम लोग भी ० प्रब्रजित हो जायेंगे । जो आपकी गति होगी वही हम लोगोकी गति होगी ।’

“तब महागोविन्द ० जहाँ छै क्षत्रिय थे वहॉ गये । ० बोले—‘आप लोग अपना दूसरा पुरोहित खोज ले ० ।’

“तब छै क्षत्रियोने एक ओर जाकर ऐसा विचारा—ये ब्राह्मण धनके लोभी होते है, अत हम लोग महागोविन्द०को धनका लोभ देकर रोके । उन लोगोने महागोविन्द०के पास जाकर यह कहा—इन सात राज्योमे बहुत धन है । आप जितना धन चाहे ले ले ।’

‘मेरी भी प्रचुर धन-राशि आप लोगोकी ही सम्पति होवे । मै सभीको छोळकर घरसे बेघर हो प्रब्रजित होऊँगा ० ।’

“तब छै क्षत्रियोने एक ओर जाकर ० स्त्रीके लोभी ० स्त्रीका लोभ देकर ० । उन लोगोने ० यह कहा—इन सात राज्योमे बहुतसी स्त्रियॉ है ० ।’

‘बस रहेने दे । मेरी जो चालीस एक वश (गोरी आर्य जाति) की स्त्रियॉ है, उन सभीको छोळकर मे घरसे बेघर ० । क्योकि मैने ब्रह्मासे सुना है ० ।’

‘यदि आप गोविन्द घरसे बेघर ० तो हम लोग भी ० प्रब्रजित होवेगे । जो आपकी गति होगी, वही हम लोगोकी गति होगी ।’

‘यदि आप उन भोगोको त्याग रहे है जिनमे सांसारिक लोग लग्न रहते है,

(तो) दृढता पूर्वक आरम्भ करे, क्षत्रियोचित बलसे युक्त होवे ।।२५।।

“यही मार्ग सीधा मार्ग है, यही अनुपम मार्ग है ।

सभी (बुद्धो)से रक्षित यह धर्म ब्रह्मलोकको प्राप्त करानेवाला होता है ।।२६।।’

‘तो आप गोविन्द, सात वर्ष प्रतीक्षा करे । सात वर्षोके बाद हम लोग भी घरसे बेघर ० । जो आपकी गति ० ।’

‘सात वर्ष बहुत लम्बा होता है । सात वर्ष मै आप लोगोकी प्रतीक्षा नही कर सकता । जीवनका कौन ठिकाना । मरना (अवश्य) है, (अत) ज्ञानप्राप्ति करनी चाहिये, अच्छा कर्म करना चाहिये, ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करना चाहिये । जन्म लेकर अमर कोई नही रहता । ब्रह्मासे मैने सुना है ० प्रब्रजित होऊँगा ।’

‘तो गोविन्द । छे वर्ष प्रतीक्षा करे ० । पॉच वर्ष, ० । चार वर्ष, ०। तीन वर्ष, ० । दो वर्ष, ० । एक वर्ष ० ।’

“एक वर्ष बहुत लम्बा होता है ० प्रब्रजित होऊँगा ।’

“तो गोविन्द । सात महीना ० ।’

“सात महीना बहुत लम्बा ० ।’

‘तो गोविन्द, छै महीना ० । पॉच ० । चार ० । तीन ० । दो ० । एक ० । आधा महीना ० ।'

‘आधा महीना बहुत लम्बा ० ।'

'तो गोविन्द, सात दिन ० कि हम लोग अपने भाई-बेटोको राज्य सौप दे । एक सप्ताह बीतनेके बाद हम लोग भी ० ।’

‘एक सप्ताह अधिक नही होता । एक सप्ताह तक आप लोगोकी प्रतीक्षा करूँगा ।’

‘तब महागोविन्द ० जहॉ सात ब्राह्मणमहाशाल और सातसौ स्नातक थे वहॉ गये । ० बोले–आप लोग अब अपना दूसरा आचार्य खोज ले, जो कि आप लोगोको मन्त्र (=वेद) पढावेगा । मै प्रब्रजित होना चाहता हूँ । क्योकि ब्रह्मासे मैने सुना है ० ।’

‘गोविन्द । आप मत घरसे बेघर ० । प्रब्रज्या अच्छी चीज नही है, उससे लाभ भी अल्प ही है । ब्राह्मणपन अच्छी चीज है, और उससे लाभ भी बहुत है ।’

‘मुझे अब अच्छी चीजसे य़ा महालाभसे क्या । मै आज तक राजाओका राजा, ब्राह्मणोका ब्राह्मण, (और) गृहस्थोके लिये देवता-स्वरूप था । (लेकिन अब) उन सभीको छोळकर मै घरसे बेघर हो ० प्रब्रजित हो जाऊँगा । क्योकि मैने ब्रह्मासे ० ।’

‘यदि आप गोविन्द घरसे बेघर हो प्रब्रजित होगे, तो हम लोग भी ० प्रब्रजित हो जायेगे ०

“तब महागोविन्द ० जहॉ उनकी समानवशवाली चालीस स्त्रियाँ थी वहाँ गये । ० बोले—आप लोग अपनी इच्छाके अनुसार पीहर चली जावे, या दूसरे पतिको खोज ले । मै घरसे बेघर ० । ब्रह्मासे मैने सुना है ० ।’

‘आप ही हम लोगोके सम्बन्धी है, आप ही हम लोगोके पति है । यदि आप घरसे बेघर हो प्रब्रजित होगे तो हम लोग भी ० ।’

“‘तब महागोविन्द ० उस सप्ताहके बीत जानेपर शिर और दाढी मुँळा प्रब्रजित हो गये । महागोविन्द०के प्रब्रजित हो जानेपर सात मुर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा, सात ब्राह्मणमहाशाल, सातसौ स्नातक, समानवशवाली चालीस स्त्रियॉ, अनेक सहस्त्र क्षत्रिय, अनेक सहस्त्र ब्राह्मण, अनेक सहस्त्र वैश्य (=गृहपति) और अनेक सहस्त्र स्त्रियॉ ० प्रब्रजित हुए । उन लोगोके साथ महागोविन्द ० गाँव, कस्बा, और राजधानीमे चारिका करने लगे । उस समय महागोविन्द ० जिस गॉव या कस्बेमे पहुँचते थे वहॉ ही वह राजोके राजा, ब्राह्मणोके ब्राह्मण और गृहपतियोके लिये देवता स्वरूप हो जाते थे ।

“उस समय मनुष्य लोग ठेस लगने या छीक आनेसे यह कहा करते थे―‘नमोडस्तु महागोविन्दाय ब्राह्मणाय । नमोडस्तु सप्तपुरोहिताय ।’

"महागोविन्द०ने मैत्री-सहित चित्तसे एक दिशाकी ओर ध्यान लगाया, वैसे ही दूसरी दिशा, तीसरी ० । करूणायुक्त चित्तसे ० । मुदिता ० । उपेक्षा ० । श्रावको (=शिष्यो) को ब्रह्मलोकका मार्ग बतलाया ।

"उस समय महागोविन्द०के जितने श्रावक थे, उनमे जिन्होने धर्म को जाना था । वे मरकर सुगतिको प्राप्त हो ब्रह्मलोकमे उत्पन्न हुए । जिन लोगोने धर्मको पूरा पूरा नही समझ पाया, वे मरकर कुछ तो परनिर्म्मितवशवर्ती देवलोकमे उत्पन्न हुए, कुछ निर्म्माणरत देवोके बीचमे उत्पन्न हुए, कुछ तुषित देवो ०, कुछ याम देवो ० त्रायस्त्रिश (=तावतिंस) देवो ० चातुर्महाराजिक देवो ० । जिन्होने सबसे हीन शरीर पाया, वे गन्धर्वलोकमे उत्पन्न हुए । इस प्रकार उन सभी कुलपुत्रोकी प्रब्रज्या सफल, सार्थक और उन्नत हुई । ‘भगवानको वह स्मरण है ?"