दीध-निकाय
19. महागोविन्द-सुत्त
५—बुद्ध-धर्मकी महिमा
“पञ्चशिख । हॉ, मुझे स्मरण है । मै ही उस समय महागोविन्द ब्राह्मण था । मैने ही उन श्रावकोको ब्रह्मलोकका मार्ग बतलाया था । पञ्चशिख । मेरा वह ब्रह्मचर्य न निर्वेदके लिये,=न विरागके लिये, न निरोधके लियो, न उपशम (=परमशान्ति)के लिये, न ज्ञान-प्राप्तिके लिये, न सबोधिके लिये, और न निर्वाणके लिये था । वह केवल ब्रह्मलोक-प्राप्तिके लिये था । पञ्चशिख । मेरा यह ब्रह्मचर्य ऐकान्त (बिलकुल) निर्वेदके लिये, विराग ० और निर्वाणके लिये है ।
“पञ्चशिख । तो कौनसा ब्रह्मचर्य एकान्त निर्वेदके लिये, ० और निर्वाणके लिये होता है ? यही आर्य अष्टाड्गिक मार्ग—सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि । पञ्चशिख । यही ब्रह्मचर्य एकान्त निर्वेदके लिये ० है । पञ्चशिख । जो मेरे श्रावक पूरा पूरा धर्म जानते है, वे आस्त्रवोके क्षय होनेसे, आस्त्रव-रहित चित्तकी मुक्ति (=चेतोविमुक्ति), प्रज्ञाविमुक्तिको इसी जन्ममे स्वयं जानकर, साक्षात्कारकर विहार करते है । (और) जो पूरा पूरा धर्म नही जानते, वे कामलोकके क्लेश (=चित्त-मल) रूपी बन्धनोके क्षय होनेसे देवता (=औपपातिक) होते है । जो पूरा पूरा धर्म नही जानते, उनमे कितने ही तीन बन्धनोके क्षय हो जानेसे राग, दोष, और मोहके दुर्बल हो जानेसे सकृदागामी होते है । वह एक ही बार इस संसारमे आकर दुखोका अन्त करेगे । कितने ही अविनिपात-धर्मा (जो फिर मार्गसे कभी नही गिर सके) होगे और जिनकी सबोधि-प्राप्ति नियत है ऐसे स्त्रोत आपन्न होते है ।
“पञ्चशिख । अत इन सभी कुलपुत्रोकी प्रब्रज्या सफल, सार्थक और उन्नत है ।”
भगवानने यह कहा । पञ्चशिख गन्धर्वपुत्र संतुष्ट हो भगवानके कथनका अभिनन्दन और अनुमोदनकर भगवानकी वन्दना तथा प्रदक्षिणा करके वही अन्तर्धांन हो गया ।