दीध-निकाय

2. सामञ्ञफल-सुत्त् (१।२)

१—१२—भिक्षु होनेका प्रत्यक्ष फल छै तीर्थकरोके मत—शील (=सदाचार), समाधि, प्रज्ञा ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् १राजगृहमे २ जीवक कौमार-मृत्यके आम्रवनमे, साढे बारहसौ भिक्षुओके महाभिक्षुसधके साथ विहार करते थे ।

उस समय पूर्णमासीके उपोसथके दिन चातुर्मासकी कौमुदी (=आश्विन पूर्णिमा) से पूर्ण पूर्णिमाकी रातको, राजा मागज ३अजातशत्रु वैदेहीपुत्र, राजामात्यासे धिरा, उत्तम प्रसादके ऊपर बैठा हुआ था । तब राजा ० अजातशत्रु ० ने उस दिन उपोसथ (=पूर्णिमा) को उदान कहा—

“अहो । कैसी रमणीय चाँदनी रात है । कैसी सुन्दर चॉदनी रात है । । कैसी दर्शनीय चॉदनी रात है । । । कैसी प्रासादिक चॉदनी रात है । । । कैसी लक्षणीय चॉदनी रात है । । । किस श्रमण या ब्राह्मणका सत्संग करे, जिसका सत्संग हमारे चित्तको प्रसन्न करे ।”

ऐसा कहनेपर एक राज-मन्त्रीने मगधराज, अजातशत्रु वैदेहिपुत्रसे यह कहा—“महाराज । यह पूर्णकाश्यप सघ-स्वामी=गण-अघ्यक्ष, गणाचार्य, ज्ञानी, यशस्वी, तीर्थडकर (=मतस्थापक) बहुत लोगोसे सम्मानित, अनुभवी, चिरकालका साधु, वयोवृद्ध है । महाराज उसी पूर्णकाश्यपसे धर्मचर्चा करे,

पूर्णकाश्यप के थोळी ही धर्म–चर्चा करनेसे चित्त प्रसन्न हो जोयेगा । उसके ऐसा कहनेपर मगधराज अजातशत्रु, वैदेहिपुत्र चुप रहा ।

दूसरे मन्त्रीने मगधराज ० से यह कहा—“महाराज । यह मक्खलीगोसाल सघ–स्वामी ० । उसके ऐसा कहनेपर मगधराज ० चुप रहा ।

दूसरे मन्त्रीने भी मगधराज ०से यह कहा−“महाराज । यह अजित केशकम्बल संघ–स्वामी ०। उसके ऐसा कहनेपर ० ।

दुसरे मन्त्रीने भी ०−“महाराज । यह प्रकुघकात्यायन संघ-स्वामी ० । उसके ऐसा कहनेपर मगधराज ० चुप रहा ।

दूसरे मन्त्रीने भी मगधराज ०—“महाराज । यह सञ्जयबेलट्ठिपुत्त संघवाला ० । उसके ऐसा कहनेपर मगधराज ० ।

दूसरे मन्त्रीने भी मगधराज ०—“महाराज । यह निगण्ठ नाथपुत्त (नातपुत्त, नाटपुत्त) संघ-स्वामी ० । उसके ऐसा कहनेपर मगघराज ० ।

उस समय जीवक कौमारमृत्य राजा मागध वैदेहिपुत्र अजातशत्रुके पास ही चुपचाप बैठा था । तब राजा ० अजातशत्रुने जीवक कौमारमृत्यसे यह कहा—“सौम्य जीवक । तुम बिलकुल चुपचाप क्यो हो ॽ ”

“देव । ये भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध मेरे आमके बगीचेमे साढे बारह सौ भिक्षुओके बळे सघके साथ विहार कर रहे है । उन भगवान् गौतमका ऐसा मगल यश फैला हुआ है—‘वह भगवान् अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध (=परम ज्ञानी), विदाया और आचरणसे युक्त, सुगत (=सुन्दरगतिको प्राप्त), लोकविद्, पुरुषोके दमन करने (=सन्मार्ग पर लाने) के लिये अनुपम चाबुक सवार, देव-मनुष्योके रास्ता (=उपदेशक), बुदध (=ज्ञानी) भगवान् है’ । महाराज । आप उनके पास चले और धर्म-चर्चा करे । उन भगवानके साथ धर्मालाप करनेसे कदाचित् आपका चित्त प्रसन्न हो जायेगा ।”

“तो सौम्य जीवक । हाथियोकी सवारीको तैयार कराओ ।”

तब जीवक कौमारमृत्यने राजा मागघ वेदेहिपुत्र अजातशत्रुको “देव । जैसी आज्ञा ।” कह पाँच सौ हाथी और राजाके अपने हाथीको सजवाकर मगधराज० को सूचना दी—“देव । सवारीके लिये हाथी तैयार है, अब देवकी जैसी इच्छा हो करे ।”

तब राजा० अजातशत्रु पाँच सौ हाथियोपर अपनी रानियोको बिठला स्वय राजहाथीपर सवार हो मशालोकी रोशनीके साथ राजगृहसे बळे राजकिय ठाट वाटसे निकला, और, जहाँ जीवक कौमारमृत्यका आमका बगीचा था उघर चला । तब उस आमके बगीचेके निकट पहुँचनेपर ० अजातशत्रुको भय, घबराहट और रोमाञ्च होने लगा । मगधराज ० डरकर घबराकर और रोमाञ्चित होकर जीवक कौमारमृत्यसे बोला—“सौम्य जीवक । कही तुम मुझे घोखा तो नही दे रहे हो ॽ कही तुम मुझे दगा तो नही दे रहे हो ॽ कही तुम मुझे शत्रुओके हाथ तो नही दे रहे हो ॽ बारह सौ पचास भिक्षुओके बळे सघके (यहाँ रहनेपर भी) भला कैसे, थूकने, खासने तक्का या किसी दूसरे प्रकारका शब्द न होगा ॽ”

“महाराज । आप मत डरे, आपको मै धोखा नही दे रहा हूँ, न आपको दगा दे रहा हूँ, न आपको शत्रुओके हाथमे दे रहा हूँ । आगे चले महाराज । आगे चले । यह मडपमे दीये जल रहे है ।”

तब ० अजातशत्रु जितनी भूमी हाथीद्वारा जाने योग्य थी उतनी हाथीसे जा, हाथीनागसे उत्तर पैदलही उस मडपका जहॉ द्वार था वहाँ गया । जाकर जीवक कौमारमृत्यसे यह बोला—

“सौम्य जीवक । भगवान् कहॉ हैॽ”

“महाराज । भगवान् यहाँ है । महाराज ‍। भगवान् यहॉ भिक्षुसंघको सामने किये बीच वाले खम्भेके सहारे पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके बैठे है ।”

तब ० अजातशत्रु जहॉ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर एक ओर खळा हो गया । एक ओर खळा होकर अजातशत्रुने निर्मल जलाशयकी तरह बिल्कुल चुपचाप, शान्त, भिक्षुसंघको देख यह उदान (=प्रीति वाक्य) कहा—“मेरा कुमार उदयभद्र भी इसी शान्तिसे युक्त होवे, जिस शान्तिमे इस समय यह भिक्षुसंघ विराज रहा है ।”

“महाराज । प्रेमपूर्वक आओ ।”

“भन्ते । मेरा कुमार उदयभद्र मेरा बळा प्रिय हे, मेरा कुमार उदयभद्र भी इसी शान्तिसे युकत होवे, जिस शान्तिसे युकत हो इस समय यह भिक्षुसंघ विराज रहा है।

तब राजा अजातशत्रु ० । भगवानको अभिवादन करके और भिक्षु संघको हाथ जोळ, एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठकर मगधराज ० ने भगवानसे कहा—“भन्ते । मै आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ, सो भगवान् कृपा करके प्रश्न पूछनेकी अनुमति दे ।”

“महाराज । जो चाहो पूछो ।”

“जैसे भन्ते । यह भिन्न भिन्न शिल्प-स्थान (=विद्या,कला)है, जैसे कि हस्ति-आरोहण (=हाथीकी सवारी), अश्वारोहण, रथिक, धनुर्ग्राह, चेलक (=युद्धध्वज-धारण), चलक (=व्युह-रचन), पिंडदा-यिक (=पिड बॉटनेवाले), उग्र राजपुत्र (=वीर राजपुत्र), महानाग (=हाथीसे युद्ध करनेवाले) शूर, चर्म(=ढाल)-योधी, दासपुत्र, आलारिक (=बावर्ची), कल्पक (=हजाम), नहापक (=नहलानेवाले), सूद (=पाचक), मालाकार, रजक, पेशकार (=रगरेज), नलकार, कुभकार, गणक, मुद्रिक (=हाथ से गिननेवाले ), और जो दूसरे भी इस प्रकारके भिन्न भिन्न शिल्प है, (इनके) शिल्पफलसे (लोग) इसी शरीरमे प्रत्यक्ष जीविका करते है, उससे अपनेको सुखी करते है, तृप्त करते है। पुत्र स्त्रीको सुखी करते है, तृप्त करते हे । मित्र अमात्योको ० । ऊपर लेजानेवाला, स्वर्गको लेजानेवाला, सुख-विपाक-वाला, स्वर्गमार्गीय, श्रमण ब्राह्मणोके लिये दान, स्थापित करते है। कया भन्ते । उसी प्रकार श्रामण्य (=भिक्षुपनका) फल भी इसी जन्मे प्रत्यक्ष (फलदायक) बतलाया जा सकता है ॽ”

“महाराज । इस प्रश्नको दुसरे श्रमण ब्राह्मणको भी पूछ (उत्तर) जाना है ॽ”

“भन्ते । जाना है ० ।”

“यदि तुम्हे भारी न हो, तो कहो महाराज । केसे उन्होने उतर दिया था ॽ”

“भन्ते । मुझे भारी नही हे, जब कि भगवान् या भगवानके समान कोई बैठा हो ।”

“तो महाराज । कहो ।”

१—छै तीर्थकरोंके मत

(१) पूर्ण काश्यपका मत (अकियवाद)—“एक बार मै भन्ते । जहॉ पूर्ण काश्यप थे, वहॉ गया । जाकर पूर्ण काश्यपके साथ मैने समोदन किया एक ओर बैठकर यह पूछा—‘हे काश्यप । यह भिन्न भिन्न शिल्प-स्थान है ० । ऐसा पूछनेपर भन्ते । पूर्ण काश्यपने मुझसे कहा—‘महाराज । करते कराते, छेदन करते, छेदन कराते, पकाते पकवाते, शोक करते, परेशान होते, परेशान कराते, चलते चलाते, प्राण मारते, बिना दिया लेते, सेघ काटते, गाँव लूटते, चोरी करते, वटमारी करते, परस्त्रीगमन करते, झूठ बोलते भी, पाप नही किया जाता । छुरेसे तेज चक्रद्वारा जो इस पृथिवी के प्राणियोका (कोई) एक मॉसका पुज बना दे, तो इसके कारण उसको पाप नही, पापका आगम नही होगा । यदि घात करते कराते, काटते-कटाते, पकाते-पकवाते, गगाके दक्षिण तीर पर भी जाये, तो भी इसके कारण उसको पाप नही, पापका आगम नही होगा । दान देते, दान

दिलाते, यज्ञ करते, यज्ञ कराते यदि गंगाके उत्तर तीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नही, पुण्यका आगम नही होगा। दान दम सयमसे, सत्य बोलनेसे न पुण्य हे, न पुण्यका आगम है।’ इस प्रकार भन्ते । पूर्ण ० ने मेरे सादृष्टिक (=प्रत्यक्ष) श्रामण्य-फल पूछने पर अक्रिया वर्णन किया । जैसे कि भन्ते। पूछे आम, जवाब दे कटहल, पूछे कटहल, जवाब दे आम, ऐसेही भन्ते । पूर्ण काश्यपने मेरे सादृष्टिक श्रामण्य-फल पूछनेपर अक्रिया (=अक्रिय-वाद) उतर दिया।”

“केसे मुझ जैसा (कोई राजा) अपने राज्यमे बसनेवाले किसी श्रमण या ब्राह्मणको देशसे निकाल दे ॽ भन्ते सो मैने पूरणकस्सपके कहे हुयेका न तो अभिनन्दन किया और न निन्दा की। न बळाई, न निन्दा करके खिन्न हो, कोई खिन्न बात भी न कहकर, उस (उसकी कही हुई) बातको न स्वीकार कर, और न उमका खयाल कर, आसनसे उठकर चल दिया।

(२) मक्खलि गोसालका मत (दैववाद)—

“भन्ते । एक दिन मै जहॉ मक्खलि गोसाल था वहॉ गया, जाकर मक्खलि गोसालके साथ कुशल समाचार ० । एक ओर बैठकर मक्खलि गोसालके मैने यह कहा, ‘हे गोसाल । जिस तरह ये जो दूसरे शिल्प है,जैसे ०। और भी जो दूसरे ० ऑखोके सामने फल देनेवाले है, वे उनसे अपने सुख० पुण्य कमाते है । हे गोसाल । उसी तरह क्या श्रमणभावके पालन करते ० ॽ’

“ऐसा कहनेपर भन्ते । मक्खलि गोसालने यह उत्तर दिया—‘महाराज । सत्वोके क्लेशका हेतु नही है=प्रत्यय नही है। बिना हेतुके और बिना प्रत्ययके ही सत्व क्लेश पाते है । सत्वोकी शुद्धिका कोई हेतु नही है, कोई प्रत्यय नही है । बिना हेतुके ओर बिना प्रत्ययके सत्व शुध्द होते है । अपने कुछ नहि कर सकते है, पराये भी कुछ नहि कर सकते है, (कोई) पुरुष भी कुछ नहि कर सकता है, बल नही है, वीर्य नही है, पुरुषका कोई पराक्रम नही है । सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी भुत, और सभी जीव अपने वशमे नही है, निर्बल, निर्विर्य, भाग्य और सयोगके फेरसे छै जातियो (मे उत्पन्न हो) सुख और दुख भोगते है। वे प्रमुख योतियॉ चौदह लाख छियासठ सौ है। पॉच सौ पॉच कर्म, तीन अर्ध कर्म (=केवल मनसे शरीरसे नही) बासठ प्रतिपदाये (=मार्ग), बासठ अन्तरकल्प, छै अभिजातियॉ, आठ पुरुष-भुमियॉ, उन्नीस सो आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सौ नाग-आवास, बीस सौ इन्द्रियॉ, तिस सौ नरक, छतीस रजोधातु, सात सज्ञी (=होशवाले) गर्भ, सात असज्ञी गर्भ, सात निर्ग्रन्थ गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सौ सात गॉठ, सात सौ सात प्रपात, सात सौ सात स्वप्न, और अस्सी लाख छोटे-बळे कल्प है, जिन्हे मूर्ख और पण्डित जानकर और अनुगमनकर दुखोका अन्त कर सकते है। वहॉ यह नही है—इस शील या व्रत या तप, ब्रह्मचर्यसे मै अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूँगा । परिपक्व कर्मको भोगकर अन्त करूँगा । सुख दुख द्रोण (=नाप)से तुले हुये है, ससारमे धटना-बढना उत्कर्प-अपकर्प नही होता। जैसे कि सूतकी गोली फेकनेपर उछलती हुई गिरती है, वैसे मूर्ख और पडित दौळकर=आवगमनमे पळकर, दुखका अन्त करेगे ।

“ ‘भन्ते । प्रत्यक्ष श्रामण्यफलके पूछे जानेपर, मक्खलि गोसालने इस तरह ससारकी शुद्धिका उपाय बताया । भन्ते । जैसे आमके पूछनेपर कटहल कहे और कटहलके पूछनेपर आम कहे । भन्ते । इसी तरह प्रत्यक्ष श्रामण्य-फलके पूछे जानेपर ०। भन्ते । तब मेरे मनमे यह हुआ, ‘कैसे मुझ जैसा ० । भन्ते । सो मैने मक्खलि गोसालके ० । ० उठकर चल दिया ।

(३) अजित केशकम्बलका मत (जडवाद, उच्छेदवाद)—“भन्ते । एक दिन मै जहॉ अजित केशकम्बल था वहॉ ०। एक और बैठकर ० यह कहा—“हे अजित । जिस तरह ०। हे अजित । उसी तरह क्या श्रमणभावके पालन करते ० ॽ’

“ऐसा कहनेपर भन्ते । अजित केशकम्बलने यह उत्तर दिया—‘महराज । नदान है, न यज्ञ है न होम है, न पुण्य या पापका अच्छा बुरा फल होता है, न यह लोक है न परलोक है, न माता है, न पिता है, न अयोनिज (=औपपातिक, देव) सत्व है, और न इस लोकमे वैसे ज्ञानी और समर्थ श्रमण या ब्राह्मण है जो इस लोक और परलोकको स्वय जानकर और साक्षातकर (कुछ) कहेगे । मनुष्य चार महाभूतोसे मिलकर बना है । मनुष्य जब मरता है तब पृथ्वी, महापृथ्वीमे लीन हो जाती है, जल ०, तेज ०, वायु ० और इन्द्रियाँ आकाशमे लीन हो जाती हे । मनुष्य लोग मरे हुयेको खाटपर रखकर ले जाते है, उसकी निन्दा प्रशसा करते है । हड्डियॉ कबूतरकी तरह उजली हो (बिखर) जाती है, और सब कुछ भस्म हो जाता है । मूर्ख लोग जो दान देते है, उसका कोई फल नही होता । आस्तिकवाद (=आत्मा है) झूठा है । मूर्ख और पण्डित सभी शरीरके नष्ट होते ही उच्छेदको प्राप्त हो जाते है । मरनेके बाद कोई नही रहता । भन्ते । प्रत्यक्ष श्रामण्यफलके पूछे ० अजित केशकम्बलने उच्छेदवादका विस्तार किया । भन्ते । जैसे आमके पूछने ० । भन्ते । इसी तरह प्रत्यक्ष श्रामण्यफलके ० उच्छेदवादका विस्तार किया । भन्ते । तव मेरे मनमे यह हुआ—‘कैसे मुझ जैसा ०। भन्ते । सो मैने अजित केशकम्बलके० ।० उठकर चल दिया ।

(४) प्रक्रुध कात्यायनका मत (अकृततावाद)—“भन्ते । एक दिन मै जहाँ प्रक्रुध का त्यायन ०। श्रमणभावके पालन करने० ?

“ऐसा कहनेपर भन्ते । प्रक्रुध कात्यायनने यह उत्तर दिया—‘महाराज । यह सात काय (=समूह) अकृत=अकृतविध=अ-निर्मित=निर्माण-रहित, अवध्य=कूटस्थ, स्तम्भवत् (अचल) है । यह चल नही होते, विकारको प्राप्त नही होते, न एक दूसरेको हानि पहुँचाते है, न एक दूसरेके सुख, दुख या सुख-दुखके लिये पर्याप्त है । कौनसे सात? पृथिवी-काय, आप-काय, तेज-काय, वायु-काय, सुख, दुख, और जीवन यह सात । यह सात काय अकृत ० सुख-दुखके योग्य नही है । यहाँ न हन्ता (=मारनेवाला) है, न घातयिता (=हनन करानेवाला), न सुननेवाला, न सुनानेवाला, न जाननेवाला न जतलानेवाला । जो तीक्ष्ण शस्त्रसे शीश भी काटे (तोभी) कोई किसीको प्राणसे नही मारता । सातो कायोसे अलग, विवर (=खाली जगह) मे शस्त्र (=हथियार) गिरता है ।’

“इस प्रकार भन्ते । ० प्रत्यक्ष श्रामण्यफलके पूछे ० प्रकुध कात्यायनने दूसरी ही इधर उधर की बाते बनाई । भन्ते । जैसे आमके पूछने ० । भन्ते । इसी तरह ० बाते बनाई । भन्ते । तब मेरे मनमे यह हुआ—‘कैसे मुझ जैसा ० । भन्ते । सो मैने ० । ० उठकर चल दिया ।

(५) निगण्ठ नाथपुत्तका मत—(चातुर्याम सवर)—“भन्ते । एक दिन मै जहाँ निगण्ठ नाथपुत्त ०।—श्रामण्यके पालन करने० ?

“ऐसा कहनेपर भन्ते। निगण्ठनाथ पुत्तने यह उत्तर दिया—‘महाराज । निगण्ठ चार (प्रकारके) सवरोसे सवृत्त (=आच्छादित, सयत) रहता है। महाराज । निगण्ठ चार सवरोसे कैसे सवृत्त रहता है ? महाराज । (१) निगण्ठ (=निर्ग्रथ) जलके व्यवहारका वारण करता है (जिसमे जलके जीवन मारे जावे) । (२) सभी पापोका वारण करता है, (३) सभी पापोके वारण करनेसे धुतपाप (=पापरहित) होता है, (४) सभी पापोके वारण करनेमे लगा रहता है । महाराज । निगण्ठ इस प्रकार चार सवरोसे सवृत्त रहता है । महाराज । क्योकि निगण्ठ इन चार प्रकारके सवरोसे सवृत्त रहता है, इसीलिये वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा (=अनिच्छुक), यतात्मा (=सयमी) और स्थितात्मा कहलाता है ।"

“भन्ते । प्रत्यक्ष श्रामण्य फलके पुछे० निगण्ठ नाथपुत्तने चार सवरोका वर्णन किया । भन्ते । जैसे आमके पूछने० । भन्ते । इसी तरह० चार सवरोका वर्णन किया । भन्ते । तब मेरे मनमे यह हुआ ‘कैसे मुझ जैसा० । भन्ते । सो मैने० । ० उठकर चल दिया ।

(६) सजय वेलट्ठिपुत्तका मत(अनिश्चिततावाद)

“भन्ते । एक दिन मै जहाँ सञ्जय वेलट्ठिपुत्त० ।—श्रामण्यके पालन करने० ?

“ऐसा कहनेपर भत्ने । सञ्जय बेलट्ठिपुत्तने यह उत्तर दिया—“महाराज । यदि आप पूछे, ‘क्या परलोक है ? और यदि मै समझूँ कि परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मै ऐसा भी नही कहता, मै वैसा भी नही कहता, मै दूसरी तरहसे भी नही कहता, मै यह भी नही कहता कि ‘यह नही है’ मै यह भी नही कहता कि ‘यह नही नही है ।҆ परलोक नही है ०। परलोक है भी और नही भी ०, परलोक न है और न नही है ०। अयोनिज (=औपयातिक) प्राणी है०, अयोनिज प्राणी नही है, है भी और नही भी, न है और न नही है ०। अच्छे बुरे कामके फल है, नही है, है भी और नही भी, न है और नही है और न नही है? ०। तथागत मरनेके बाद होते है नही होते है ० ?’ यदि मुझे ऐसा पूछे, और मै ऐसा समझूँ कि मरनेके बाद तथागत न रहते है और न नही रहते है, तो मै ऐसा आपको कहूँ । मै ऐसा भी नही कहता, मै वैसा भी नही कहता ०।҆

“भन्ते । प्रत्यक्ष श्रामण्य फलके पूछे ० सजय वेलट्ठिपुत्तने कोई निश्चित बात नही कही । भन्ते। जैसे आमके पूछने ० । भन्ते । इसी तरह ० कोई निश्चित बात नही कही । भन्ते । तब मेरे मनमे यह हुआ, ҅कैसे मुझ जैसा ०। भन्ते । सो मैने ०।० उठकर चल दिया ।

२—भिक्षु होनेका प्रत्यक्ष फल

१—शील

“भन्ते । सो मै भगवानसे पूछता हूँ, ҅जिस तरह ये दूसरे शिल्प है, जैसे, हस्त्यारोह, अश्वारोह० । और भी जो दूसरे० आँखोके सामने फल देनेवाले है, वे उनसे अपने सुख ० करके पुण्य कमाते है । उसी तरह क्या श्रमणभावके पालन करने ० ?”

“हाँ महाराज । तो मै आपसे ही पूछता हूँ, जैसा आप समझे वैसा ही उत्तर दे । महाराज । तो आप क्या समझते है ? आपका एक नौकर हो जो आपके सारे कामोको करता हो, आपके कहनेके पहले ही वह आपके सारे कामोको कर चुकता हो, आपके सोने या बैठनेके बाद ही स्वय सोता या बैठता हो, आपकी आज्ञा सुननेके लिये सदा तैयार रहता हो, प्रिय आचरण करने वाला, प्रिय बोलने वाला, और आपकी आज्ञाओको सुननेके लिये सदा आपके मुँहकी और ताकता रहता हो । उस (नौकर) के मनमे यह हो—҅पुण्यकी गति और पुण्यका फल बळा अद्भुत और आश्चर्यमय है । यह मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र भी मनुष्य ही है और मै भी मनुष्य ही हूँ । यह मगधराज० पाँच प्रकारके भोगो (=कामगुणो) का भोग करते है, जैसे मानो कोई देव हो, और मै उनका नौकर हूँ, जो उनके सारे कामोको करता हूँ, उनके कहनेके पहले ही उनके सारे कामोको कर डालता हूँ ० । तो मै भी पुण्य करुँ, शिर और दाढी मुँळवा, काषाय वस्त्र धारण कर, धरसे बेधर हो प्रव्रजित हो जाऊँ ।҆

“वह उसके बाद शिर और दाढी मुळा, काषाय वस्त्र धारणकर, धरसे बेधर बन, प्रब्रजित हो जावे । वह इस प्रकार प्रब्रजित हो शरीरसे समय, बचनसे समय और मनसे समय करके विहार करे, तथा खाना कपळा मात्रसे सतुष्ट और प्रसन्न रहे । तब आपसे दूसरे लोग आकर कहे—҅महाराज । क्या आप जानते है कि जो आपका नौकर ० था, वह शिर और दाढी मुँळा, काषाय वस्त्र धारणकर धरसे बेधर बन प्रब्रजित हो गया है । वह इस प्रकार प्रब्रजित हो शरीरसे ० प्रसन्न रहता है ।҆ तब क्या आपऐसा कहेगे—҅मेरा वह पुरुष लौट आवे और फिर भी मेरा नौकर ० होवे ।”

“भन्ते । हम ऐसा नही कह सकते । बल्कि हम ही उसका अभिवादन करेगे, उसकी सेवा करेगे, उसको आसन देगे और उसे चीवर, पिण्डपात, शयन-आसन और दवा-पथ्य देनेके लिये निमन्त्रण देंगे । उसकी सभी तरहसे देख-भाल भी करेगे ।”

“तो महाराज । क्या समझते है, श्रमणभाव(=साघु होना)के पालन करनेका (यह) फल यही आँखोके सामने मिल रहा है या नही ॽ”

“भन्ते । हॉ ऐसा होनेपर तो श्रमणभावके पालन करने का फल यही ऑखोके सामने मिल रहा है।”

“महाराज । यह तो श्रमणभावके पालन करनेका पहला ही फल मैने बतलाया जो कि यही आँखोके सामने मिल जाता है।”

“भन्ते । इसी तरह क्या और दूसरा भी श्रमणभावका ० ऑखोके सामने मिल जानेवाला फल दिखा सकते है ॽ”

“(दिखा) सकता हूँ महाराज । तो महाराज । आप ही से पूँछता हूँ, जैसा आप समझे वैसा उत्तर दे । तो क्या समझते है महाराज । आपका कोई आदमी कृषक, गृहपती, काम-काज करनेवाला और घन-घान्य बटोरनेवाला हो । उसके मनमे ऐसा हो—‘पुण्यकी गति और पुण्यका फल बळा आश्चर्यकारक और अद्भूत है । यह मगघराज ०—मनुष्य हूँ । यह मगघराज ० पॉच भोगोसे ० जैसे कोई देव और मै कृषक ० । सो मै भी पुण्य करूँ । शिर और दाढी ० प्रब्रजित हो जाउँ।

“(दिखा) सकता हूँ महाराज । तो महाराज । आप ही से पूँछता हूँ, जैसा आप समझे वैसा उत्तर दे । तो क्या समझते है महाराज । आपका कोई आदमी कृषक, गृहपति, काम-काज करनेवाला और घन-घान्य बटोरनेवाला हो । उसके मन मे ऐसा हो—‘पुण्यकी गति और पुण्यका फल बळा आश्यर्यकारक और अदभुत है । यह मगघराज ०—मनुष्य हूँ । यह मगघराज ० पाँच भोगोसे ० जैसे कोई देव और मै कृषक ० । सो मै भी पुण्य करूँ । शिर और दाढी ० प्रब्रजित हो जाऊँ ।

“सो दूसरे समय अल्प या अघिक (अपनी) भोगकी सामग्रियोको छोळ, अल्प या अघिक परिवार और जातिके बन्घनको तोळ, शिर और दाढी मुँळा ० प्रब्रजित हो जावे । वह इस प्रकार प्रब्रजित हो शरीरसे समय ।०। और आपके दूसरे पुरूष आकर आपको यह कहे—‘महाराज । क्या आप जानते है । जो आपका पुरूष कृषक ० वह शिर दाढी ० । वह इस प्रकार प्रब्रजित हो शरीरसे ० । तो आप क्या कहेगे—‘वह मेरा आदमी आवे और फिर भी कृषक ० होवे ॽ”

“नही भन्ते । बल्कि हम ही उसका ० । तब महाराज । क्या समझते है, श्रमण भावके पालन करने ० मिल रहा है या नही ॽ”

“भन्ते । हॉ, ऐसा होनेपर तो ० ।”

“महाराज । यह दूसरा श्रमणभाव ० ।”

“भन्ते । इसी तरह क्या दूसरा भी ० ॽ”

“(दिखा) सकता हूँ महाराज । तो महाराज । सुने, अच्छी तरह घ्यान दे, मै कहता हूँ ।”

“हाँ भन्ते ।” कह ० अजातशत्रुने भगवानको उत्तर दिया ।

भगवानने कहा—“महाराज । जब ससारमे तथागत अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध, विधा-आचरणसे युक्त, सुगत (=अच्छी गतिवाले), लोकविद, अनुत्तर (=अलौकिक), पुरूषोको दमन करने (=सन्मार्ग पर लाने)के लिये अनुपम चाबुक सवार, देव मनुष्योके शास्ता, (और) बुद्ध (=ज्ञानी) उत्पन्न होते है, वह देवताओके साथ, मारके साथ, ब्रह्माके साथ, श्रमण, ब्राह्मण, प्रजाओके साथ तथा देवताओ और मनुष्योके साथ, इस लोलको स्वय जाने, साक्षात् किये (घर्म)को उपदेश करते है । वह आदि-कल्याण, मघ्यकल्याण, अन्त्यकल्याण घर्मका उपदेश करते है। सार्थक, स्पष्ट, बिलकुल पूर्ण (और) शुद्ध ब्रह्मचर्यको बतलाते है । उस घर्मको गृहपति या गृहपतिका पुत्र, या किसी दुसरे कुलमे उत्पन्न हुआ पुरूष सुनता है । वह उस घर्मको सुनकर तथागतके प्रति श्रद्धालु हो जाता है । वह श्रद्धालु होकर ऐसा विचारता है—गृहस्थका जीवन बाघा और रागसे युक्त है और प्रव्रज्या बिल्कुल स्वच्छन्द खुला हुआ स्थान है । घरमे रहलेवाला पूरे तौरसे, एकदम परिशुद्ध और खरादे शखसे निर्मल (इस) ब्रह्मचर्यका पालन नही कर सकता । इसलिये क्यो न मै शिर और दाढी ० प्रब्रजित हो जाऊँ । वह दूसरे समय अल्प या अधिक भोगकी सामग्रियो ० जातिके बन्धनको तोळ ० प्रब्रजित हो जाता है ।

२—सामञ्ञफल-सुत्त

(१) शील

१—आरम्भिक शील

“वह प्रब्रजित हो प्रातिमोक्षके नियमोका ठीक ठीक पालन करते हुए विहार करता है, आचार-गोचरके सहित हो, छोटेसे भी पापसे डरनेवाला काय और वचन कर्मसे सयुक्त, शुद्ध जीविका करते, शीलसम्पन्न, इन्द्रिय-सयमी, भोजनकी मात्रा जाननेवाला, स्मृतिमान्, सावधान और सतुष्ट रहता है ।

“महाराज । भिक्षु कैसे शीलसम्पन्न होता है ? (१) महाराज । भिक्षु हिसाको छोळ हिसासे विरत होता है, दण्डको छोळ, शस्त्रको छाळ, लज्जा (पाप कर्मो) से मुक्त, दयासम्पन्न, सभी प्राणियोके हितकी कामनासे युक्त हो विचार करता है । यह भी शील है । (२) चोरीको छोळ चोरीसे विरत रहता है, किसीकी कुछ गई वस्तुहीको ग्रहण करता है, किसीकी कुछ दी गई वस्तुहीकी अभिलाषा करता है । इस प्रकार वह पवित्रात्मा होकर विहार करता है । यह भी शील है । (३) अब्रह्मचर्य को छोळ, ब्रह्मचारी रहता है, मैथुन कर्मसे विरत और दूर रहता है । यह भी शील है । (४) मिथ्याभाषण को छोळ, मिथ्याभाषणसे विरत रहता है, सत्यवादी, सत्यसन्ध, स्थिर, विश्वसनीय और यथार्थवक्ता होता है । यह भी शील है । (५) चुगली खाना छोळ, चुगली खानेसे विरत रहता है, लोगोमे लळाई लगानेके लिये यहॉसे सुनकर वहॉ नही कहता है और वहॉसे सुनकर यहाँ नही कहता । वह फूटे हुए लोगोका मिलानेवाला, मिले हुए लोगोमे और भी अधिक मेल करानेवाला, मेल चाहनेवाला, मेल (के काम) मे लगा हुआ, (और) मेलमे प्रसन्न होनेवाला, मेल करनेकी बातका बोलनेवाला होता है । यह भी शील है । (६) कठोर बचनको छोळ कठोर बचनसे विरत रहता है । जो बात निर्दोष, कर्णप्रिय, प्रेमयुक्त, मनमे लगनेवाली, सभ्य, तथा लोगोको प्रिय है, उसी प्रकारकी बातोका कहनेवाला होता है । यह भी शील है । (७) व्यर्थके बकवादको छोळ व्यर्थके बकवादसे विरत रहता है । समयोचित बात बोलनेवाला, ठीक बात बोलनेवाला, सार्थक बात बोलनेवाला, धर्मकी बात बोलनेवाला, विनयकी बात बोलनेवाला, जॅचनेवाली बात बोलनेवाला होता है । समय और अवस्थाके अनुकूल विभागकर सार्थक बात बोलनेवाला होता है । यह भी शील है । (८) बीजो और जीवोके नाश करनेको छोळ बीजो और जीवोके नाश करनेसे विरत रहता है ०। (९) दिनमे एक बार ही भोजन करनेवाला होता है, विकाल (=मध्याह्नके बाद) भोजनसे विरत रहता है । (१०) नृत्य, गीत, बाजा, और बुरे प्रदर्शनसे विरत रहता है । (११) ऊँची और सजी-धजी शय्यासे विरत रहता है । (१२) सोने चॉदीके छूनेसे विरत रहता है । (१३) कच्चा अन्न ० । (१४) कच्चा मास ० । (१५) स्त्री और कुमारीके स्वीकार करने ० । (१६) दासी और दासके ० । (१७) भेळ बकरी ० । (१८) मुर्गी, सूअर ० । (१९) हाथी, गाय, धोळा, धोळी ० । (२०) खेल, माल असबाबके स्वीकार० । (२१) दूतके काम करने ० । (२२) क्रय-विक्रय ०। (२३) नाप-तराजू, वटखरोमे ठगबनीजी करने ० । (२४) घूस लेने, ठगने, और नकली सोना चॉदी बनाने ०। (२५) हाथ पैर काटने, मारने, बॉधने, लूटने और डॉका डालनेसे विरत होता है ० । यह भी शील है ।

२—मध्यम शील

“महाराज । अथवा अनाळी मेरी प्रशसा इस प्रकार करते है—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण (गृहस्थोके द्वारा) श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजनको खाकर इस प्रकारके सभी बीजो और सभी प्राणियोके नाशमे लगे रहते है, जैसे—मृलबीज (=जिनका उगना मूलसे होता है), स्कन्धबीज (जिनका प्ररोह गॉठसे होता है, जैसे—ईख), फलबीज और पॉचवॉ अग्रबीज (उगता पौधा), उस प्रकार श्रमण गौतम बीजो और प्राणियोका नाश नही करता ।

“महाराज । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण०इस प्रकारके जोळने और

बटोरनेमे लगे रहते है, जैसे—अन्न, पान, वस्त्र, वाहन, शय्या, गन्ध तथआ और भी वैसी ही दूसरी चीजोका इकट्ठा करना, उस प्रकार श्रमण गौतम जोळने और बटोरनेमे नही लगा रहता ।

“महाराज । अथवा०— जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० इस प्रकारके अनुचित दर्शनमे लगे रहते है, जैसे—नृत्य, गीत, बाजा, नाटक, लीला, ताली, ताल देना, घळापर तबला बजाना, गीत-मण्डली, लोहेकी गोलीका खेल, बॉसका खेल, धोपन*, हस्ति-युद्ध, अश्व-युद्ध, महिप-युद्ध, वृषभ-युद्ध, बकरोका युद्ध, भेळोका युद्ध, मुर्गोका लळाना, बत्तकका लळाना, लाठीका खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, मारपीटका खेल, सेना, लळाईकी चाले इत्यादि उस प्रकार श्रमण गौतम अनुचित दर्शनमे नही लगता ।

“महाराज । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० जूआ आदि खेलोके नशेमे लगे रहते है, जैसे—†अष्टपद, दशपद, आकाश, परिहारपथ, सन्निक, खलिक, घटिक, सलाक-हस्त, अक्ष, पगचिर, वकक, मोक्खचिक, चिलिगुलिक, पत्ताल्हक, रथकी दौळ, तीर चलानेकी बाजी, बुझौअल, और नकल, उस प्रकार श्रमण गौतम जूआ आदि खेलोके नशेमे नही पळता ।

“महाराज । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस तरहकी ऊँची और ठाट-बाटकी शय्यापर सोते है, जैसे—दीर्घ-आसन, पलग, बळे बळे रोयेवाला आसन, चित्रित आसन, उजला कम्बल, फूलदार बिछावन, रजाई, गद्दा, सिंह-व्याघ्र आदिके चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, काम किया हुआ आसन, लम्बी दरी, हाथीका साज, घोळेका साज, रथका साज, कदलिमृगके खालका बना आसन, चँदवादार आसन, दोनो ओर तकिया रखा हुआ (आसन) इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम ऊँची और ठाट-बाटकी शय्यापर नही सोता ।

“महाराज । अथवा०— जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० इस प्रकार अपनेको सजने-धजनेमे लगे रहते है, जैसे—उबटन लगवाना, शरीरको मलवाना, दूसरेके हाथ नहाना, शरीर दबवाना, ऐना, अजन, माला, लेप, मुख-चूर्ण(=पाउडर), मुख-लेपन, हाथके आभूषण, शिखाका आभूषण छळी, तलवार, छाता, सुन्दर जूता, टोपी, मणि, चँदर, लम्बे-लम्बे झालरवाले साफ उजले कपळे इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम अपनेको सजने-धजनेमे नही लगा रहता ।

“महाराज । अथवा०— जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकारकी व्यर्थकी (=तिरश्चीन) कथामे लगे रहते है, जैसे—राजकथा, चोर, महामंत्री, सेना, भय, युद्ध, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, माला, गन्ध, जाति, रथ, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, शूर, चौरस्ता (=विशिखा), पनघट, और भूत-प्रेतकी कथाये, ससारकी विविध घटनाएँ, तथा इसी तरहकी इधर-उधरकी जनश्रुतियॉ, उस प्रकार श्रमण गौतम तिरश्चीन कथाओमे नही लगता ।

“महाराज । अथवा०— जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० इस प्रकारकी लळाई-झगळोकी बातोमे लगे रहते है, जैसे-तुम इस मत (=धर्म विनय) को नही जानते,मै० जानता हूँ, तुम०क्या जानोगेॽ तुमने इसे ठीक नही समझा है, मै इसे ठीक-ठीक समझता हूँ, मै धर्मानुकूल कहता हूँ, तुम धर्म-विरूद्ध कहते हो, जो पहले कहना चाहिए था, उसे तुमने पीछे कह दिया, और जो पीछे कहना चाहिए था, उसे पहले कह दिया, बात कट गई, तुमपर दोषारोपण हो गया, तुम पकळ लिये गये, इस आपत्तिसे छूटनेकी कोशिश करो, यदि सको, तो उत्तर दो इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम लळाई-झगळोकी बातमे नही रहता ।

“महाराज । अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० राजाका, महामन्त्रीका

क्षत्रियका, ब्राह्मणोका, गृहस्थोका, कुमारोका (इधर उधर) दूतका काम—वहॉ जाओ, यहॉ आओ, यह लाओ, यह लाओ, यह वहाँ ले जाओ इत्यादि, करते फिरते है, उस प्रकार श्रमण गोतम दूतका काम नही करता ।

“महाराज । अथवा ०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० पाखडी और वचक, बातूनी, जोतिषके पेशावाले, जादू-मन्तर दिखानेवाले और लाभसे लाभकी खोज करते है, वैसा श्रमण गौतम नही है।

३—महाशील

जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजनको खाकर इस प्रकारकी हीन (=नीच) विधासे जीवन बिताते है, जैसे—अगविद्या, उत्पाद०, स्वप्न०, लक्षण०, मूषिक-विष-विधा, अग्निहवन, दर्वी-होम, तुप-होम, कण-होम, तण्डुल-होम, धृत-होम, तैल-होम, मुखमे घी लेकर कुल्लेसे होम, रुधिर-होम, वास्तुविधा, क्षेत्रविधा, शिव०, भूत०, भूरि०, सर्प०, विप०, विच्छूके झाळ-फूँककी विधा, मूषिक विधा, पक्षि०, शरपरित्राण (=मन्त्र जाप, जिससे लळाईमे वाण शरीरपर न गिरे), और मृगचक्र, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विघासे निन्दित जीवन नही बिताता ।

“महाराज । अथवा०—इस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० इस प्रकारकी हीन विघासे निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—मणि-लक्षण, वस्त्र०, दण्ड०, असि०, वाण०, धनुप०, आयुध०, स्त्री०, पुरुष०, कुमार०, कुमारी०, दास०, दासी०, हस्ति०, अश्व०, भैँस०, वृषभ०, गाय०, अज०, मेष०, मुर्गा०, बत्तक०, गोह०, कर्णिका०, कच्छप०, और मृग-लक्षण, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विधासे निन्दित जीवन नही बिताता ।

“महाराज । अथवा०—इस प्रकार० निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—राजा बाहर निकल जायेगा, नही निकल जायेगा, यहाँका राजा बाहर जायगा, बाहरका राजा यहाँ आवेगा, यहाँके राजाकी जीत होगी और बाहरके राजाकी हार, यहॉके राजाकी हार होगी और बाहरके राजाकी जीत, इसकी जीत होगी और उसकी हार, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विघासे निन्दित जीवन नही बिताता ।

“महाराज । अथवा०—निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—चन्द्र-ग्रहण होगा, सूर्य-ग्रहण, नक्षत्र-ग्रहण, चन्द्रमा और सूर्य अपने- अपने मार्ग ही पर रहेगे, चन्द्रमा और सूर्य अपने मार्गसे दूसरे मार्गपर चले जायेगे, नक्षत्र अपने मार्गपर रहेगा, नक्षत्र अपने मार्गसे हट जायगा, उल्कापात होगा, दिशा डाह होगा, भूकम्प होगा, सूखा बादल गरजेगा, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रोका उदय, अस्त, सदोप होगा और शुद्ध होना होगा, चन्द्र-ग्रहणका यह फल होगा०, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रके उदय, अस्त, सदोष या निर्दोष होनेसे यह फल होगा, उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारकी हीन विधासे निन्दित जीवन नही बिताता ।

“महाराज । अथवा०—निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—अच्छी वृष्टि होगी, बुरी वृष्टि होगी, सस्ती-होगी, महँगी पळेगी, कुशल होगा, भय होगा, रोग होगा, आरोग्य होगा, हस्तरेखा-विघा, गणना, कविता-पाठ इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम० नही० ।

“महाराज । अथवा०—निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—सगाई, विवाह, विवाहके लिए उचित नक्षत्र बताना, तलाक देनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, उधार या ऋणमे दिये गये रुपयोके वसूल करनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, उधार या ऋण देनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, सजना-धजना, नष्ट करना, गर्भपुष्टि करना, मन्त्रबलसे जीभको बाँध देना,० ठुड्डीको बाँध देना,० दूसरेके हाथको उलट देना,०

दूसरेके कानको बहरा बना देना, दर्पणपर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, कुमारीके शरीरपर और देववा-हिनीके शरीरपर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, सूर्य-पूजा, महाब्रह्म-पूजा, मन्त्रके बल मुँहसे अग्नि निकालना, उस प्रकार श्रमण गौतम० नही० ।

“महाराज । अथवा० निन्दित जीवन बिताते है, जैसे—मिन्नत मानना, मिन्नत पुराना, मन्त्रका अभ्यास करना, मन्त्रबलसे पुरूषको नपुसक और नपुसकको पुरूष बनाना, इन्द्रजाल, बलिकर्म, आचमन, स्नान-कार्य, अग्नि-होम, दवा देकर वमन, विरेचन, ऊधर्वविरेचन, शिरोविरेचन कराना, कानमे डालने के लिए तेल तैयार कराना, ऑखके लिये०, नाकमे तेल देकर छिकवाना, अजन तैयार करना, छुरी-कॉटाकी चिकित्सा करना, वैघकर्म, उस प्रकार श्रमण गौतम० नही० ।

“महाराज । यह शील तो बहुत छोटे और गौण है, जिसके कारण अनाळी मेरी प्रशसा करते है ।

“महाराज । वह भिक्षु इस प्रकार शीलसम्पन्न हो इस शील-सवरके कारण कहीसे भय नही देखता है । जैसे महाराज । कोई मूर्धाभिपिक्त (=sovereign) क्षत्रिय राजा, सभी शत्रुओको जीतकर कहीसे किसी शत्रुसे भय नही खाता, उसी तरह महाराज । भिक्षु इस प्रकार शीलसम्पन्न हो कहीसे ० । वह इस शीलके पालन करनेसे अपने भीतर निर्दोष सुखको अनुभव करता है । महाराज । भिक्षु इस तरह शीलसम्पन्न होता है ।

४—इन्द्रियोंका सवर (=सयम)

“महाराज । कैसे भिक्षु अपने इन्द्रियोको वशमे रखता है ॽ महाराज । भिक्षु ऑखसे रूपको देखकर न उसके आकारको ग्रहण करता है और न आसक्त होता है । जिस चक्षु इन्द्रियका सयम नही रखनेसे (मनमे) दौर्मनस्य बुराइयॉ और पाप चले आते है, उसकी रक्षा (=सवर)के लिये यत्न करता है । चक्षु इन्द्रियकी रक्षा करता है । चक्षु इन्द्रियको सवृत करता है । कानसे शब्द सुनकर० । नाकसे गन्ध सूँघकर ० । जिह्वासे रसका आस्वादन करके ० । शरीरसे स्पर्श करके० । मनसे धर्मोको जान करके ० । वह इस प्रकारके आर्यसवर से युक्त हो अपने भीतर परम सुखको प्राप्त करता है । महाराज । इस प्रकार भिक्षु अपनी इन्द्रियोको वशमे रखता है ।

५—स्मृति, सम्प्रजन्य

“महाराज । कैसे भिक्षु स्मृति और सप्रजन्य (=सावधानी) से युक्त होता है ॽ महाराज । भिक्षु जाने और आनेमे सावधान रहता है । देखने और मालनेमे ० । मोळने और पसारनेमे ० । सघाटी, पात्र और चीवरके धारण करनेमे ० । खाने, पीने, चलने और सोनेमे ० । पाखाना, पेशाब करनेमे ० । चलते, खळा रहते, बेठते, सोते, जागते, बोलते और चुप रहते० । महाराज । इस तरह भिक्षु स्मृति और सप्रजन्यसे युक्त होता है ।

६—सन्तोष

“महाराज । कैसे भिक्षु सतुष्ट रहता है ॽ महाराज । भिक्षु इस प्रकार शरीर ढकनेभर चीवरसे और पेटभर भिक्षासे सतुष्ट रहता है—वह जहॉ जहॉ जाता है अपना सब कुछ लेकर जाता है। जिस तरह महाराज । पक्षी जहॉ जहॉ उळता है, अपने पखोको लिये ही उळता है, उसी प्रकार महाराज । भिक्षु सतुष्ट रहता है, शरीर ढकनेभर ० —लेकर जाता है । महाराज । वह भिक्षु इस प्रकार संतुष्ट रहता है ।

“वह इस प्रकार उत्तम शीलो (=आर्यशीलस्कध), उत्तम इन्द्रियसवर, उत्तम स्मृति-सप्रजन्य, और उत्तम सतोषसे युक्त हो (ऐसे) एकान्तमे वास करता है, जैसे कि जगलमे वृक्षके नीचे, पर्वत, कन्दरा, गिरिगुहा, श्मशान, जगलका रास्ता, खुले स्थान, पुआलका ढेर । पिण्डपातसे लौटनेके बाद भोजन

करनके उपरान्त, आसन मार, शरीरको सीधाकर, चारो ओरसे स्मृतिमान् हो बाहरकी ओरसे ध्यानको खीच भीतरकी ओर फेरकर विहार करता है। (ऐसे) ध्यान (-अभ्यास) से वह (अपने) चित्तको शुद्ध करता है। हिसाके भावको छोळ, अहिसक चित्तवाला होकर विहार करता है । सभी जीवोके प्रति दयाका भाव (लेकर) अपने चित्तको हिसाके भावसे शुद्ध करता है । आलस्यको छोळ बिना आलस्यवाला होकर विहार करता है। प्रकाशयुक्त सज्ञा (=खयाल) से युक्त सावजान हो अपने चित्तको आलस्यमे शुद्ध करता है। अपनी चचलता और शकाओको छोळ शान्त भावसे रहता है । अपने भीतरकी शान्तिसे-सयुक्तचित्तवाला हो, चचलताओ और शकाओसे अपने चितको शुद्ध करता है। सदेहोको छोळ सदेहोसे रहित होकर विहार करता है । भले कामोमे सदहोसे चित्तको शद्ध करता है ।

“जैसे महाराज । (कोई) पुरुष ऋण लेकर अपना काम चलावे । (जब) उसका काम पूरा हो जावे, वह (पुरुष) अपने (लिये हुए) पुराने ऋणको समूल चुका दे । स्त्रीको पोसनेके लिये उसके पास कुछ (धन) बच भी जावे । उसके मनमे ऐसा होवे—मैने पहले ऋण लेकर अपना काम चलाया । मेरा काम पूरा हो गया । सो मैने पूराने ऋणको समूल चुका दिया। स्त्रीको पोसनेके लिये भी मेरे पास कुछ (धन) बच गया है । और इससे वह प्रसन्न और आनन्दिक होवे ।

“जैसे महाराज । कोई पुरुष रोगी=दुखी और बहुत बीमार हो। उसे भात अच्छा नही लगे, और न शरीरमे बल मालूम दे । वह (पुरुष) कुछ दिनोके बाद उस बीमारीसे उठे, उसे भात भी अच्छा लगे और शरीरमे बल मालूम दे। उसके (मनमे) ऐसा हो—‘मै पहले रोगी ० था । सो मै बीमारीसे ० बल मालूम होता है ।’ और इससे वह प्रसन्न ०।

“जैसे महाराज । कोई पुरुष जेलमे बन्द हो । वह कुछ दिनोके बाद सकुशल, बिना हानीके जेलसे छुटे, और उसके धनका कोई नुकशान न हो । उसके मनमे ऐसा हो — ‘मै पहले जेलमे ० था सो मै ० जेलसे छूट गया ०।’ और इससे वह प्रसन्न ०।

“जैसे महाराज । (कोई) पुरुष दास हो, न-अपने-आधीन, पराधीन हो, अपनी इच्छाके अनुसार जहॉ कही नही जा सकनेवाला हो । दसरे समय वह दासतासे मुक्त हो जावे, स्वतन्त्र, अपराधीन, यथेच्छगामी हो, जहॉ चाहे जावे । उसके मनमे ऐसा होवे—‘मै पहले दास था ०। सो मे अब ० जहॉ चाहूँ वहॉ जा सकता हूँ। इस प्रकार वह प्रसन्न और आन्नदित होवे ।

“जैसे महाराज । कोई धनी और सुखी मनुष्य किसी कान्तार (=मरुभुमि) के लम्बे मार्गमे जा रहा हो, जहॉ भोजनकी सामग्रीयॉ नही मिलती हो और जहॉ (चोर, डाकु, बाध आदिका) भय भी हो । सो कुछ समय के बाद उस कान्तारको पार कर जावे, (और) सकुशल भयरहित और क्षेमयुक्त गॉवके पास पहुँच जावे । उसके मनमे ऐसा होवे— ‘मै पहले० कान्तार०। सो मै अब० पहुँच गया’ इस प्रकार वह प्रसन्न और आनन्दित होवे ।

“महाराज । जैसे ऋण, रोग, जेल, दासता, और कान्तारके रास्तेमे जाना, वैसेही भिक्षुका अपनेमे वर्तमान पॉच नीवरणो (=काम, व्यापाद, स्त्यानमृद्ध, औद्धत्त्य, विचिकित्सा) को ढखता है । जैसे महाराज, ऋणसे मुक्त होना, नीरोग होना, जेलसे छुटना, और स्वतत्र होना, कान्तार पार होना है, वैसे ही महाराज भिक्षुका इन पॉच नीवरणोको अपनेमे नष्ट हो गया देखना है ।

२—समाधी

१—प्रथम ध्यान— इन नीवरणोको अपनेमे नष्ट देख, प्रमोद (आनन्द)उत्पन्न होता है । प्रमुदित होनेसे प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीतिके उत्पन्न होनेसे शरीर शान्त होता है। शरीरके शान्त रहेनेसे उसे सुख होता है। सुखके उत्पन्न होनेसे चित्त समाहित (=एकाग्र) होता है। वह कामो (=सासारिक भोगोकी इच्छा) को छोळ, पापोको छोळ स-वितर्क,स-विचार,और विवेकसे उत्पन्न प्रीति सुखवाले प्रथम

ध्यानको प्राप्त करके विहार करता है । वह इस शरीरको विवेकमे उत्पन्न प्रीति-सुखसे सीचता है, भिगोता है, पूर्ण करता है, और चारो ओर व्याप्त करता है । उसके शरीरका कोई भी भाग विवेकसे उत्पन्न उस प्रीति-सुखसे अव्याप्त नही रहता ।

“जैसे महाराज । नाई या नाईका शागिर्द (=अन्तेवासी, लळका) कॉसेके थालमे स्नान-चूर्णको डाल पानीसे थोळा थोळा सीचे । वह स्नानचूर्णकी पिण्डी तेलसे अनुगत, बाहर भीतर तेलसे व्याप्त हो (किन्तु तेल) न चुवे । इसी तरह महाराज । इस शरीरको विवेकसे उत्पन्न प्रीतिसुखसे ० । उसके शरीरका कोई भाग ० नही रहता है ।

“महाराज । जो भिक्षु भोगोको छोळ, पापोको छोळ सवितर्क, सविचार, और विवेकसे उत्पन्न प्रीतिसुख वाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहार करता है । वह इसी शरीरको विवेकसे उत्पन्न प्रीतिसुखसे० । उसके शरीरका कोई भाग ० नही रहता है ।—महाराज । यह भी प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल (=श्रमण भावक-फल) है, पहले जो प्रत्यक्ष श्रामण्य फल कहे गये है, उनसे भी बढकर=प्रशस्ततर है ।

२—द्वितीय ध्यान—“और फिर महाराज । भिक्षु वितर्क और विचारके शान्त हो जानेसे भीतरी प्रसाद, चित्तकी एकाग्रतासे युक्त किन्तु वितर्क ओर विचारसे रहित समाधिसे उत्पन्न प्रीतिसुखवाले दूसरे ध्यानको प्राप्त होकर विहार करता है । वह इसी शरीरको समाधिसे उत्पन्न प्रीतिसुखसे ० । उसके शरीरका कोई भाग ० ।

“जैसे महाराज । कोई जलाशय गम्भीर, और भीतरमे पानीके सोतेवाला हो । न उसके पूर्व दिशामे जलके आनेका कोई रास्ता हो, न दक्षिण ०, न पश्चिम ०, न उत्तर ० । समय समयपर वर्षाकी धारा भी उस (जलाशयमे) आकर न गिरे । ओर उस जलाशय (के भीतरसे) शीतल जलधारा फूटकर उस जलाशयको शीतल जलसे भरे, ० । और उस जलाशयका कोई भी भाग शीतल जलधारासे रहित न हो । इसी तरहसे महाराज । इसी शरीरको समाधिसे उत्पन्न ० । उसके शरीरका कोई भाग ० ।— यह भी महाराज प्रत्यक्ष श्रामण्यफल पहले कहे गये ० से भी बढकर ० है ।

३—तृतीय ध्यान—“और फिर महाराज । भिक्षु प्रीति ओर विरागसे भी उपेक्षायुक्त (=अन्यमनस्क) हो स्मृति और सप्रजन्यसे युक्त हो विहार करता है । और शरीरसे आर्यो (=पण्डितो) के कहे हुए सभी सुखोका अनुभव करता है, ओर उपेक्षाके साथ, स्मृतिमान् और सुखविहारवाले तीसरे ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता है । वह इसी शरीरको प्रीतिरहित सुखसे सीचता ० । इसके शरीरका कोई भी भाग प्रीतिरहित सुखसे अव्याप्त नही होता ।

“जैसे महाराज । उत्पलसमुदाय पद्मसमुदाय, या पुण्डरीकसमुदायमे कोई कोई नील कमल (=उत्पल), रक्तकमल, या श्वेतकमल जलमे उत्पन्न हुये जलहीमे बटे, जलहीमे रहनेवाले, और जलहीके भीतर पुष्ट होनेवाले, जलसे चोटी तक शीत जलसे व्याप्त ० । उनका कोई भी भाग शीत जलसे अव्याप्त नही रहता । इसी तरह महाराज । भिक्षु इस शरीरको प्रीतिरहित सुखसे ० । उसके शरीरका कोई भी भाग ० । महाराज । यह भी प्रत्यक्ष श्रामण्य फल ० ।

४—चतुर्थ ध्यान—“और फिर महाराज । भिक्षु सुखको छोळ, दुखको छोळ पहले ही सौमनस्य और दोर्मनस्यके अस्त हो जानेसे न-दुख और न-सुखवाले, तथा स्मृति और उपेक्षासे शुद्ध चौथे ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है । सो इसी शरीरको अपने शुद्ध चित्तसे निर्मल बनाकर बैठता है । उसके शरीरका कोई भाग शुद्ध और निर्मल चित्तसे अव्याप्त नही होता । जैसे महाराज । कोई पुरूष उजले कपळे से शिर तक ढाँककर, पहनकर बैठे, (और) उसके शरीरका कोई भाग उस उजले कपळेसे बे-ढँका न हो । इसी तरह महाराज । भिक्षु इसी शरीरको ० — अव्याप्त नही होता । वह भी महाराज । प्रत्यक्ष श्रामण्यफल ० ।

३—प्रज्ञा

१—ज्ञानदर्शन—“वह इस प्रकार एकाग्र, शुद्ध, निर्मल, निष्पाप, क्लेशोसे रहित, मृदु, मनोरम, और निश्चल चित्त पानेके बाद सच्चे ज्ञानके प्रत्यक्ष करनेके लिये अपने चित्तको नवाता है । वह इस प्रकार जानता है—҅यह मेरा शरीर, भौतिक (=रूपी) चार महाभूतो (=पृथ्वी, जल, तेज ओर वायु से बना, माता और पिताके सयोगसे उत्पन्न, भात दालसे वर्द्धित, अनित्य, छेदन, भेदन, मर्दन, और नाशन योग्य (है) । यह मेरा विज्ञान (=मन) इसमे लग जाता है और बँध जाता है । जैसे महाराज । श्वेत अच्छी जातिवाला, अठपहलू, अच्छा काम किया हुआ, स्वच्छ, प्रसन्न, निर्मल, और सभी गुणोसे युक्त हीरा (हो), और उसमे नीला, पीला, लाल, उजला, या पाडु रगका धागा पिरोया हो । उसे ऑखवाला (कोई) पुरुष हाथमे लेकर देखे—҅यह श्वेत ० हीरा पाडु रगका धागा पिरोया है । इसी तरह महाराज । भिक्षु एकाग्र, शुद्ध ०—चित्तको लगाता है । वह ऐसा जानता है,—҅यह मेरा शरीर भौतिक ० नाशनयोग्य है । और मेरा यह विज्ञान यहॉ लग गया है, फँस गया है । यह भी महाराज प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल० बढकर है ।

२—मनोमय शरीरका निर्माण—“वह इस प्रकारके एकाग्र, शुद्ध ० चित्त पानेके बाद मनोमय शरीरके निर्माण करनेके लिये अपने चित्तको लगाता है । वह इस शरीरसे अलग एक दूसरे भौतिक, मनोमय, सभी अङगप्रत्यङगोसे युक्त, अत्छी पुष्ट इन्द्रियोवाले शरीरका निर्माण करता है ।

जैसे महाराज । कोई पुरुष मूँजसे सरकडेको निकाल ले । उसके मनमे ऐसा हो, ҅यह मूँज है (और) यह सरकडा । मूँज दूसरी है और सरकडा दूसरा है । मूँजहीसे सरकडा निकाला गया है ।҆

“जैसे महाराज । (कोई) पुरुष तलवारको म्यानसे निकाले । उसके मनमे ऐसा हो—҅यह तलवार है और यह म्यान । तलवार दूसरी है ओर म्यान दूसरा । तलवार म्यान हीसे निकाली गई है ।

“या, जैसे महाराज । कोई (सँपेरा) अपने पिटारेसे सॉपको निकाले । उसके मनमे ऐसा हो—҅यह सॉप है यह पिटारा ० ।҆ इसी तरहसे महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र, शुद्ध ० चित्त पाकर मनोमय शरीरके निर्माणके लिये अपने चित्तको लगाता है । सो इस शरीरसे दूसरा ०। यह भी महाराज । प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल ० ।

३—ऋद्धियॉ—“वह इस प्रकारके एकाग्र, शुद्ध ० चित्तको पाकर अनेक प्रकारकी ऋद्धियोकी प्राप्तिके लिये चित्तको लगाता है । वह अनेक प्रकारकी ऋद्धियोको प्राप्त करता है—एक होकर बहुत होता है, बहुत होकर एक होता है, प्रगट होता है, अन्तर्धान होगा है, दीवारके आरपार, प्राकारके आरपार और पर्वतके आरपार बिना टकराये चला जाता है, मानो आकाशमे (जा रहा हो) । पृथिवीमे जलमे जैसा गोते लगाता है, जलके तलपर भी पृथिवीके तलपर जैसा चलता है । आकाशमे भी पलथी मारे हुये उळता है, मानो पक्षी (उळ रहा हो), महा-तेजस्वी सूरज और चॉदको भी छूता है, और मलता है, ब्रह्मलोक तक अपने शरीरसे वशमे किये रहता है ।

“जैसे महाराज । (कोई) चतुर कुम्हार, या कुम्हारका लळका अच्छी तरहसे तैयार की गई मिट्टी से जो बर्तन चाहे वही बनाले और फिर बिगाळ दे ।

“जैसे महाराज । (कोई) चतुर (हाथीके) दॉतका काम करने वाला (=दन्तकार) ० अच्छी तरह सोधे गये दॉत से ० ।

“जैसे महाराज । कोई चतुर सुवर्णकार (=सोनार)० अच्छी तरहसे सोधे गये सोनेसे ० ।—इसी तरह महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र शुद्ध ० चित्त कर ऋद्धिकी प्राप्तिके लिए अपने चित्तको लगाता है । वह अनेक प्रकारकी ऋद्धियोको प्राप्त कर लेता है—एक होकर बहुत ० ।

“यह भी महाराज प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल ०।

४—दिव्य श्रोत्र—“वह इस प्रकार एकाग्रशुध्द ० चितको पाकर दिव्य श्रोत्रधातुके पानेके लिये अपने चित्तको लगाता है, और वह अपने अलौकिक शुद्ध दिव्य, श्रोत्र (=कान) से दोनो (प्रकारके) शब्द सुनता है, देवताओके भी और मनुष्योके भी, दुरके भी और निकटके भी । जैसे महाराज । कोई पुरुष रास्तेमे जा रहा हो, वह सुने भेरीके शब्द, मृदङत्गके शब्द, शख और प्रणवके शब्द । उसके मनमे ऐसा हो, (यह) भेरीका शब्द है, मृदङत्गका शब्द है, शख और प्रणवका शब्द है। इसी तरहसे महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र शुद्ध ० चित्तको पा दिव्य श्रोत्रधातुके लिये अपने चित्तको लगाता है । वह, शुद्ध दिव्य० दुरके भी और नीकटके भी । महाराज । यह भी प्रत्त्यक्ष श्रामण्य-फल० ।

५—परचितज्ञान—“वह इस प्रकार एकाग्र, शुद्ध० चित्तको पाकर दुसरेके चित्तकी बातोको जाननेके लिये अपना चित्त लगाता है। वह दुसरे सत्वोके, दुसरे लोगोके चित्तको अपने चित्तसे जान लेता है—रागसहित चित्तको रागसहित जान लेता है, वैराग्यसहित चित्त०, द्वेषसहित चित०, द्वेषसे रहित चित्त० मोहसहित चित्त०, मोहसे रहित०, सकीर्ण चित्त० विक्षिप्त चित्त०, उदार चित्त० अनुदार चित्त० सासारिक (=साधारण) चित्त०, अलौकिक (=असाधारण) चित्त, एकाग्र चित ०, न-एकाग्र ०, विमुक्त चित्त ०, अ-मुक्त (=बद्ध) चित्त० (को वैसाही जान लेता है),

“जैसे महाराज । स्त्री या पुरुष, या लळका, या जवान, अपनेको सज धजकर दर्पण या शुद्ध, निर्मल, स्वच्छ जल्के पात्रमे अपने मुखको देखते हुये अपने मुखके मैलेपन या स्वछताको ज्योका त्यो जान ले, उसी तरह महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र , शुद्ध ० चित्तको पाकर दुसरेके चित्त ०। वह दुसरे सत्वो और दूसरे लोगोके चित्त ०।—यह भी महाराज । प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल ० ।

६—पूर्वजन्मोका स्मरण—“वह इस प्रकार एकाग्र ० चित्तको पाकर पूर्व जन्मोकी बातोको स्मरण करनेके लिये अपने चित्तको लगाता है । सो नाना पूर्व जन्मोकी बातोको स्मरण करता है । जैसे, एक जाति, दो ०, तीन ०, चार ०, पॉच ०, दस ०, बीस ०, तीस ०, चालीस ०, पचास ०, सौ ०, हजार ०, लाख ०, अनेक सवर्त (=प्रलय) कल्पो, अनेक विवर्त (=सृष्टि) कल्पो, अनेक सवर्त-विवर्त कल्पो (को जानता है)—‘(मै) वहॉ था, इस नाम वाला, इस गोत्र वाला, इस रगका, इस आहार (भोजन) को खाने वाला इतनी आयु वाला था । मैने इस प्रकारके सुख और दुखका अनुभव किया । सो (मै) वहॉ मरकर यहॉ उत्पन्न हुआ,” इस तरह आकार प्रकारके साथ वह अनेक पूर्व जन्मोको स्मरण करता है ।

“जैसे महाराज । (कोई) पुरुष अपने गॉवसे दुसरे गॉवको जावे, वह फिर भी उस गाँवसे अपने गॉवमे लौट आवे। उसके मनमे ऐसा हो—‘मै अपने गॉवसे अमुक गॉवमे गया, वहॉ ऐसे खळा रहा, ऐसे बेठा, ऐसे बोला, ऐसे चुप रहा । उस गॉवसे भी अमुक गॉवमे गया, वहॉ भी ऐसे खळा ०—सो मै उस गाँवसे अपने गॉवमे लौट आया। इसी तरह महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र ० अनेक पूर्व जन्मोको ०— जैसे, एक जन्म ०। मै वहॉ था, इस नाम वाला ०। इस तरह आकार प्रकारके साथ ०। यह भी महाराज प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल ०।

७— दिव्य चक्षु—“वह इस प्रकार एकाग्र ० चित्तको पाकर प्राणियोके जन्म मरण (के विषय) मे जाननेके लिये अपने चित्तको लगाता है । वह शुध्द और अलौकिक दिव्य चक्षसे मरते उत्पन्न होते, हीन अवस्थामे आये, अच्छी अवस्थामे आये, अच्छे वर्ण (=रग) वाले, बुरे वर्ण वाले, अच्छी गतिको प्राप्त, बुरी गतिको प्राप्त, अपने कर्मके अनुसार अवस्थाको प्राप्त, प्राणियोको जान लेता है—ये प्राणि शरीरसे दुराचरण, वचनमे दुराचरण, और मनने दुराचरण करते हुये, साधुपुरुषोकी निन्दा करते थे, मिथ्या दृष्टि (=बुरे सिद्धान्त) रखते थे, बुरी धारणा(=मिथ्यादृष्टि) के काम करते थे । (अब) वह मरनेके बाद नरक, और दुर्गतिको प्राप्त हुये है । और यह (दुसरे)

प्राणी शरीर, वचन और मनसे सदाचार करते, साधुजनोकी प्रशसा करते, ठीक धारणा (=सम्यक् दृष्टि) वाले, सम्यक् दृष्टिके अनुकूल आचरण करते थे, सो अब अच्छी गति और स्वर्गको प्राप्त हुये है ।—इस तरह शुद्ध अलौकिक दिव्य चक्षुसे ० जान लेता है ।

“जैसे महाराज । चौरस्तेके बीचमें प्रासाद (=महल) हो । वहॉ ऑखवाला (कोई) मनुष्य खळा हो मनुष्योको घरमे घुसते भी और बाहर आते भी एक सळकसे दुसरी सळकमे घूमते, चौरस्तेके बीचमे पास बैठे भी देखे । उसके मनमे ऐसा होवे—‘यह मनुष्य घरमे घुसते है, यह बाहर निकल रहे है, यह एक सळकसे दुसरी सळकमे घूम रहे है, यह चौरस्तेके बीचमे बैठे है ।’ इसी तरह महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र,० चित्तको पाकर प्राणियोके जन्म मरण जानने ० । वह० दिव्य चक्षुसे प्राणियोको मरते जीते ० जान लेता है—‘यह प्राणी शरीर० दुर्गति० । ये प्राणी० सुगति० । इस प्रकार० दिव्य चक्षुसे प्राणियोको जन्म लेते ० जान लेता है । यह भी महाराज । प्रत्यक्ष० ।

८—दुख-क्षय-ज्ञान—“वह इस प्रकार एकाग्र ० चित्तको पाकर आस्त्रवो (=चित्तमलो) के क्षयके (विषयमे) जाननेके लिये ० । वह ‘यह दुख है’ इसको भली भाति जान लेता है, ‘यह दुख समुदय (=दुखका कारण) है ०’, ‘यह दुख-निरोध (=दुखका नाश) है’ ०, ‘यह दुखोसे बचनेका मार्ग है’० जान लेता है । ‘यह आस्त्रव है’ ०, ‘यह आस्त्रव है’ ०, ‘यह आस्त्रवोका समुदय है’ ०, ‘यह आस्त्रवोका निरोध है’ ०, ‘यह आस्त्रवोके निरोधका मार्ग है’ ०। ऐसा जानने और देखनेसे कामास्त्रव१से उसका चित्त मुक्त हो जाता है, भवआस्त्रवसे ०, अविघ्या-आस्त्रवसे ० । ‘जन्म खतम हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, करना था सो कर लिया, अब यहॉके लिये करनेको नही रहा’—ऐसा जान लेता है ।

“जैसे महाराज । पहाळ के ऊपर स्वच्छ, प्रसन्न और निर्मल जलाशय (हो) । वहॉ ऑखवाला (कोई) मनुष्य किनारेपर खळा होकर, सीप, घोघा, और जलजन्तु, तैरती खळी मछलियॉ, देखे। उसके मनमे ऐसा हो—‘यह जलाशय स्वच्छ, प्रसन्न और निर्मल है । इसमे ये सीप ०’ उसी तरह महाराज । भिक्षु इस प्रकार एकाग्र० चित्तको पाकर आस्त्रवोके क्षयके लिये०। वह ‘यह दुख है’ ० ०। ‘यह आस्त्रव है’ ० ० जान लेता है । जानने और देखनेसे कामास्त्रवसे भी उसका चित्त मुक्त हो जाता है, भवआस्त्रव ०, अविघ्यआस्त्रव ० । ‘मै मुक्त हो गया, मै मुक्त हो गया’—ज्ञान होता है । आवागमन क्षीण० । यह भी महाराज । प्रत्यक्ष ० ।

“महाराज । इस प्रत्यक्ष श्रामण्य-फलसे बढकर कोई दूसरा प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल नही है ।”

(भगवानके) ऐसा कहनेपर मगधराज ० अजातशत्रुने भगवानसे कहा—

“आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । जैसे उलटेको सीधा करदे, जैसे ढँकेको खोल दे, जैसे मार्ग भूलेको मार्ग बता दे, जैसे अन्धकारमे तेलका दीपक दिखादे, जिसमे कि ऑखवाले रूपको देखे, उसी तरहसे भन्ते । भगवानने अनेक प्रकारसे धर्मको प्रकाशित किया । भन्ते । यह मै भगवानकी शरणमे जाता हूँ, धर्मकी और भिक्षु-सघकी भी । आजसे यावज्जीवन भगवान् मुझे अपनी शरणमे आया उपासक स्वीकार करे । भन्ते । मैने एक बळा भारी अपराध किया है जो अपनी मूर्खता, मूढता और पापोके कारण राज्यके लिये अपने धार्मिक धर्मराज पिताकी हत्या की । सो भन्ते । भविष्यमे सँभलकर रहनेके लिये मुझ अपराधी पापीको क्षमा करे ।”

“तो महाराज । अपनी मूर्खता, मूढता और पापोसे जो तुमने अपने धार्मिक धर्मराज पिताकी हत्या कर दी, सो बळा भारी अपराध और पाप किया । (कितु) चूकि महाराज । तुम

अपने पापको स्वीकारकर भविष्यमे सँभलकर रहनेकी प्रतिज्ञा करते हो, इसलिये मै तुमको क्षमा करता हूँ । आर्यधर्ममे यह वृद्धि (की बात) ही समझी जाती है, यदि कोई अपने पापको समझकर और स्वीकार करके भविष्यमे उस पापको न करने और धर्माचरण करनेकी प्रतिज्ञा करता है ।”

(भगवानके) ऐसा कहनेपर राजा मागध वैदेहीपुत्र, अजातशत्रुने भगवानसे कहा—“भन्ते । तो मै अब जाता हूँ, मुझे बहुत कृत्य है, बहुत करणीय है ।”

“महाराज । जिसका तुम समय समझते हो ।”

तब राजा ० अजातशत्रु भगवानके कहे हुयेका अभिनन्दन और अनुमोदन कर आसनसे उठ भगवानकी वन्दना और प्रदक्षिणाकर चला गया ।

तब भगवानने राजा ० अजातशत्रुके जानेके बाद ही भिक्षुओको सबोधित किया—“भिक्षुओ । इस राजाका सस्कार अच्छा नही रहा, यह राजा अभागा है । यदि भिक्षुओ । यह राजा अपने धार्मिक धर्मराज पिताकी हत्या न करता, तो आज इसे इसी आसनपर बैठे विरज (=मल रहित), निर्मल धर्मचक्षु (=धर्मज्ञान) उत्पन्न हो जाता ।”

भगवानने यह कहा, भिक्षुओने भगवानके भाषणका बळी प्रसन्नतासे अभिनन्दन किया ।