दीध-निकाय

21. सक्कपञ्ह-सुत (२।८)

१—इन्द्रशाल गुहामें शक्र । २—पचशिखका गान । ३—तिम्बरुकी कन्या पर पचशिख आसक्त । ४—बुद्ध-धर्मकी महिमा । ५—शक्रके छै प्रश्न ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् मगघमे प्राचीन राजगृहसे पूर्व अम्बसण्ड नामक ब्राह्मण-ग्रामके उत्तर वेदिक (वेदियक) पर्वतकी इन्द्रशाल-गुहामे विहार कर रहे थे, उस समय शक देवेन्द्रको भगवानके दर्शनके लिये इच्छा उत्पन्न हुई ।

१—इन्द्रशाल गुहामें शक्र

तब देवेन्द्र शक्रके मनमे यह आया—“भगवान्, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध इस समय कहाँ विहार करते है ॽ” देवेन्द्र शक्र ० ने भगवान् को मगधमे ० विहार करते देखा । देखकर त्रायस्त्रिश देवोको संबोधित किया—“मार्षो । अभी भगवान् मगधमे प्राचीन राजगृहके ० विहार कर रहे है । चलो मार्षो । हम लोग उन अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् के दर्शनको चले ।”

“अच्छा भन्ते”—कह उन देवोने देवेन्द्र शक्रको उत्तर दिया । तब देवेन्द्र शक्रने पञ्चशिख गन्धर्वपुत्रको संबोधित किया—‘तात । अभी भगवान् मगधमे ० विहार कर रहे है । चलो हम लोग उन ०के दर्शनको चले ।’ “अच्छा भन्ते ।” वह देवपुत्र पञ्चशिख गन्धर्व उत्तर दे (अपनी) वेलुवपण्डु नामक वीणा ले देवेन्द्र शक्रके पास आ गया ।

तब देवेन्द्र शक्र त्रायस्त्रिश देवोको साथ ले देवपुत्र पञ्चशिख गन्धर्वको आगेकर जैसे बलवान् ० वैसे ही त्रायस्त्रिश देवलोकमे अन्तर्धान हो मगधमे, राजगृहसे पूर्व ० वेदिक पर्वतपर प्रकट हुआ ।

उस समय उन देवोके देवानुभावसे वेदिक पर्वत, और अम्बसण्ड ब्राह्मणग्राम सभी अत्यन्त प्रकाशित हो रहे थे । और चारो ओर गॉवके लोग कहते थे—आज वेदिक पर्वत आदिप्त हो रहा है, आज वेदिक पर्वत जल रहा है । आज क्यो वेदिक पर्वत, और अम्बसण्ड ब्राह्मणग्राम सभी अत्यन्त प्रकाशित हो रहे है ॽ उद्वेगके मारे उन्हे रोमाञ्च हो रहा था ।

तब देवेन्द्र शक्रने पञ्चशिख०को संबोधित किया—“पञ्चशिख । ध्यानमग्न, समाधिस्थ तथागतके पास मेरे जैसा कोई सहसा नही जा सकता । पञ्चशिख । यदि आप पहले जाकर भगवान् को प्रसन्न करे (तो अच्छा हो) । पहले आप प्रसन्न कर लेगे तब पीछे हम लोग भगवान् अर्हत् सम्यक-सम्बुद्धके दर्शनके लिये आवेगे ।”

२—पंचशिखका गान

“अच्छा भन्ते ।” कह पञ्चशिख ० देवेन्द्र शक्र ०को उत्तर दे, वेलुवपण्डु वीणा ले जहाँ इन्द्रशाल गुहा थी वहाँ गया । जाकर, इतने फासिलेपर,—जहाँसे कि भगवान् न तो बहुत दूर थे और न बहुत निकट, (खळे होकर) पञ्चशिख ० वेलुवपण्डु वीणाको बजाने लगा । और इन बुद्ध-संबंधी, धर्म-

संबंधी, संघसंबंधी, अर्हत्-संबंधी और भोग-संबंधी गाथाओको गाने लगा—

“भद्रे । सूर्यवर्चसे । तेरे पिता तिम्बरूकी वंदना करता हूँ ।

जिससे हे कल्याणि । मेरी आनन्ददायिनी तू उत्पन्न हुई ।।१।।

जैसे पसीना चूते थके पुरूषके लिये वायु, प्यासेको पानी,

जैसे अर्हतोको धर्म, आगिरसे । वैसे ही तू मुझे प्रिय है ।।२।।

जैसे रोगीको दवा, भूखेको भोजन,

जलतेको पानीकी भाँति भद्रे । मुझे शान्ति प्रदान कर ।।३।।

पुष्परेणुसे युक्त शीतलजलवाली पुष्करिणीको

धूपमे सतप्त गजराजकी भाँति मै तेरे स्तनोदरको अवगाहन करूँ ।।४।।

भाले और अकुश द्वारा निरकुश नागकी भाँति मुझे (तूने) जीत लिया ।

कारण नही जानता, सुन्दरजघीने (मुझे) पागल बना दिया ।।५।।

मेरा मन तेरेमे आसक्त है, मैने (अपना) चित्त तुझे प्रदान कर दिया है ।

पकमे फँसे कमलकी भाँति मै लौटनेमे असमर्थ हूँ ।।६।।

वामोरू । भद्रे । मेरा आलिंगन कर, मन्दलोचने । मुझे आलिंगित कर ।

कल्याणि । गले मिल, यही मेरी चाह है ।।७।।

वकितकेशीने अहो । मेरी कामनाको थोळा शान्त किया,

किन्तु (उसने) अर्हतोमे मेरा अधिक आदर उत्पन्न किया ।।८।।

मैने अर्हत् तथागतोके लिये जो पुण्य किया है,

सर्वागकल्याणी । वह (सब) तेरे साथ भोगनेको मिले ।।९।।

इस पृथ्वी-मंडलपर मैने जो पुण्य किया है,

सर्वांगकल्याणी । ० ।।१०।।

जैसे शाक्यपुत्र मुनि ध्यानद्वारा एकाग्र, एकातसेवी, स्मृतिसयुक्त हो,

अमृत पाना चाहते है, वैसे ही सूर्यवर्चसे । मै तुझे (चाहता हूँ) ।।११।।

जैसे मुनि उत्तम संबोधि (=परमज्ञान)को प्राप्त हो आनंदित होता है,

कल्याणी । उसी तरह तुझसे मिलकर (आलिंगित होकर) मै आनंदित होऊँगा ।।१२।।

यदि त्रायस्त्रिंश (लोक)के स्वामी शक्र मुझे वर दे,

तो भी मेरा प्रेम इतना दृढ है, कि भद्रे । मै उसे न लूँगा ।।१३।।

हालके फूले शालवनकी भाँति सुमेघे । तेरे पिताको

मै स्तुतिपूर्वक नमस्कार करता हूँ, जिसकी तेरी जैसी संतान है ।।१४।।

इन गाथाओके गानेके बाद भगवानने पञ्चशिखसे यह कहा—“पञ्चशिख । तुम्हारे बाजेका

स्वर तुम्हारे गीतके स्वरसे बिलकुल मिला है (और) तुम्हारे गीतका स्वर, तुम्हारे बाजेके स्वरसे बिलकुल मिला है । पञ्चशिख । न तो तुम्हारे बाजोका स्वर तुम्हारे गीत-स्वरसे इधर-उधर जाता है, और न तुम्हारा गीत-स्वर तुम्हारे बाजेके स्वरसे इधर उधर जाता है । तुमने इन बुद्धसंबंधी ० गाथाओको कब रचा ॽ”

३—तिम्बरूकी कन्यापर पंचशिख आसक्र

“भन्ते । जिस समय भगवान् प्रथम प्रथम बुद्ध हो उरूवेलामे नेरञ्जरा नदीके तीरपर अजपाल नामक वर्गदके नीचे विहार कर रहे थे । भन्ते । उस समय मै तिम्बरू गन्धर्वराजकी कन्या भद्रा सूर्यवर्चसापर आसक्त था । (किन्तु) भन्ते । वह भगिनी किसी दूसरे, मातलि संग्राहक

(=सारथी)के पुत्र शिखंङीको चाहती थी । भन्ते । जब मै उसे नही पा सका तो किसी बहानेसे अपनी बेलुवपण्ङु वीणा लेकर जहॉ तिम्बरु गन्घर्वराजका घर था, वहॉ गया । जाकर वेलुवपण्ङु वीणाको बजा, इन वुद्धसंबंघी गाथाओको गाने ० लगा—“भद्रे । सूर्यवर्चसे । ० सन्तान है ॥१-१४॥

“भन्ते । गाना गानेके बाद भद्रा सूर्यवर्चसा मुझसे बोली—‘मार्ष । उन भगवानको मैने प्रत्यक्ष नही देखा है । (किन्तु) त्रायस्त्रिश देवोकी घर्मसभामे जब नृत्य करनेके लिये गई थी, तो उन भगवानके विषयमे सुना था । मार्ष । आप उन भगवानका कीर्तन करते है, इसलिये आज, हम लोगोका समागम हो ।’ भन्ते । उसके साथ वही एक समागम हुआ है । उसके बाद कभी नही ।”

तब देवेन्द्र शक्रके मनमे यह हुआ—‘अब भगवान् प्रसन्न होकर पञ्चशिखसे बाते कर रहे है । तब देवेन्द्र शक्रने पञ्चशिख०को संबोघित किया—

“पञ्चशिख । भगवानको मेरी ओरसे अभिवादन करो—भन्ते । देवेन्द्र शक्र अपने अमात्यो (=मन्त्री) तथा परिजनोके साथ भगवानके चरणोमे शिरसे वन्दना करता है ।’

“अच्छा, भन्ते । ” कह ० पञ्चशिख०ने भगवानको अभिवादनकर कहा—“भन्ते । देवेन्द्र शक्र ० वन्दना करता है ।”

“पञ्चशिख । देवेन्द्र शक्र ० अपने अमात्यो तथा परिजनोके साथ सुखी होवे । देव, मनुष्य असुर, नाग, गन्धर्व सभी सुखी होवे । इन लोगोको तथागत इस प्रकार आशीर्वाद देते है ।”

४—बुद्धधर्मकी महिमा

आशीर्वाद पा देवेन्द्र शक्र ० इन्द्रशाल-गुहामे प्रवेशकर, भगवानको अभिवादनकर एक ओर खळा हो गया । त्रायस्त्रिश देव भी इन्द्रशाल-गुहामे प्रवेशकर ० खळे हो गये । देवपुत्र पञ्चशिख गन्धर्व भी ० खळा हो गया ।

उस समय इन्द्रशाल-गुहाका जो भाग टेढा मेढा था, बराबर हो गया, जो सकीर्ण था सो विस्तृत हो गया, और देवोके देवानुभावसे ही गुहा प्रकाशसे भर गई ।

तब भगवानने देवेन्द्र शक्रसे यह कहा—“अद्भुत है, बळा आश्चर्य है, जो आप आयुष्मान् कौशिक (=इन्द्र) जैसे बहुकृत्य, बहुकरणीय पुरुषका यहॉ आगमन हुआ ।।”

“भन्ते । मै चिरकालसे भगवानके दर्शनार्थ आनेकी इच्छा रखता था । किन्तु, त्रायस्त्रिश देवोके कुछ न कुछ काममे लगे रहनेसे भगवानके दर्शनार्थ इतने दिनो तक आनेमे असमर्थ रहा । भन्ते । एक समय भगवान् श्रावस्तीके पास सललागार१ मे विहार कर रहे थे । उस समय मै भगवानके दर्शनार्थ श्रावस्ती गया था । भन्ते । उस समय भगवान् किसी समाधिमे बैठे थे । भुञ्जती नामक वैश्रवणकी परिचारिका उस समय हाथ जोळे भगवानको नमस्कार करती खळी थी । भन्ते । तब मैने भुञ्जतीसे यह कहा—‘भगिनिके । भगवानको मेरी ओरसे अभिवादन करो, और कहो कि देवेन्द्र शक्र० अपने अमात्य और परिजनोके साथ भगवानके चरणोमे शिरसे प्रणाम करता है ।’ ऐसा कहनेपर भुञ्जतीने मुझसे यह कहा—मार्ष भगवानके दर्शनका यह समय नही है, भगवान् समाधिमे है ।’ ‘भगिनि । तो जब भगवान् इस समाधिसे उठे तब ही उनको मेरी ओरसे अभिवादन करके कहना कि देवेन्द्र शक्र भगवानको प्रणाम करता है ।’

“भन्ते । क्या उसने भगवानको अभिवादन किया था ? भगवानको उसकी बात याद है ?”

“देवेन्द्र । हाँ । उसने अभिवादन किया था । मुझे उसकी बात याद है । बल्कि आपके रथकी घळघळाहटहीसे मेरी समाघि टूटी थी ।”

“भन्ते । त्रायस्त्रिंश देवलोकमे मैंने अपनेसे पहले उत्पन्न हुए देवोको कहते सुना है कि जब तथागत अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध संसारमे उत्पन्न होते है, तो असुरोकी संख्या कम हो देवताओकी बढती है । भन्ते । उसे मैंने आँखो देख लिया कि जब तथागत ० ।

“भन्ते । इसी कपिलवस्तुमे बुद्धमे प्रसन्न ० संघमे प्रसन्न और शीलोको पूरा करनेवाली गोपिका नामकी एक शाक्यपुत्री थी । वह स्त्री-चित्तसे विरत रह, और पुरूष-चित्तकी भावनाकर मरनेके बाद सुगतिको प्राप्त हो सवर्गलोकमे उत्पन्न हुई । त्रायस्त्रिंश देवलोकमे पुत्र होकर पैदा हुई । वहॉ भी उसे ‘गोपक देवपुत्र गोपक देवपुत्र’ कहते है ।

“भन्ते । दूसरे भी तीन भिक्षु भगवानके शासनमे ब्रह्मचर्य व्रत पालन करके हीन गन्धर्वलोकमे उत्पन्न हुए । वे पॉच भोगोसे युक्त हो हम लोगोकी सेवा करनेको आते है, हम लोगोकी परिचर्या करनेको आते है । एक बार हम लोगोकी सेवामे आनेपर उनसे गोपक देवपुत्रने कहा—मार्ष । आप लोगोने भगवानके धर्मको क्यो नही सुना ? मैं स्त्री होकर भी बुद्धमें प्रसन्न ० । स्त्रीत्वसे विरत रह, पुरूषत्वकी भावना कर ० देवेन्द्र शक्र०का पुत्र होकर उत्पन्न हुई हूँ । यहॉ भी लोग मुझे गोपक देवपुत्र कहते है । मार्ष आप लोग भगवानके शासनमे ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करके भी हीन गन्धर्वलोकमे उत्पन्न हुए है ।

“यह बळा बुरा मालूम होता है, कि एक ही धर्ममे रहकर भी हम लोग हीन गन्धर्वलोकमे उत्पन्न हुए है ।’

“भन्ते । गोपक देवपुत्रके ऐसा कहनेपर उनमेसे दो देखते देखते स्मृति लाभकर (सचेत हो) ब्रह्मपुरोहित (देवताओके) शरीरको प्राप्त हो गये । एक कामलोकमे ही देव रह गया ।

“चक्षुमान (बुद्ध)की मैं उपासिका थी । मेरा नाम गोपिका था ।

बुद्ध और धर्ममे प्रसन्न (=श्रद्धावान्) रहकर प्रसन्न चित्तसे संघकी सेवा करती थी ।।१५।।

“उन्ही बुद्धके धर्मबलसे अभी मैं शक्रका महानुभाव पुत्र हूँ ।

महातेजस्वी हो स्वर्गलोकमे उत्पन्न हुआ हूँ ।

यहाँ भी लोग मुझे गोपकके नामसे जानते है ।।१६।।

“मैंने अपने परिचित भिक्षुओको गन्धर्व शरीर पाये देखा ।

जब पहले हम लोग मनुष्य थे तो वह (भगवान्) गौतमके श्रावक थे ।।१७।।

“अपने घरमे पैर धोकर अन्न और पानसे मैने (उनकी) सेवा की थी,

क्योकि इन लोगोमे बुद्धके धर्मको ग्रहण किया था ।।१८।।

‘बुद्धके उपदिष्ट धर्मको स्वयं अपने समझना चाहिये ।

मैं आप लोगोकी ही सेवा करती और आर्य सुभाषित धर्मको सुनकर, ।।१९।।

‘स्वर्गमे उत्पन्न हो, महातेजस्वी और महानुभाव हो शक्रका पुत्र हुआ हूँ ।

और आप लोग (स्वयं) बुद्धकी सेवामे रह

तथा अनुपम ब्रह्मचर्य व्रत पालन करके (भी) ।।२०।।

‘अयोग्य, हीन कायाको प्राप्त हुए है । यह देखनेमे बळा बुरा मालूम होता है;

कि एक ही धर्ममे रहकर भी आपने हीन कायाको प्राप्त किया है ।।२१।।

‘गन्धर्व शरीरको प्राप्तकर आप लोग देवोकी सेवा-टहलके लिये आते है

(किन्तु पूर्वमे) गृहस्थ रहकर भी मेरी इस विशेषताको देखिये ।।२२।।

‘स्त्री होकर भी आज पुरूष देव हो दिव्य भोगो (कामो)से सेवित हूँ ।’

गोपकके ऐसा कहने पर वे गौतमके श्रावक वैराग्यको प्राप्त हुए ॥२३॥

‘शोककी बात है कि हम लोग दास हो गये है ।’

और उनमे दोने गौतमके धर्मका स्मरणकर अपने उधोग किया ॥२४॥

“कमोमे आदिनवो (=दोषो)को देख, उनमेसे चित्तको उचाट,

वे मारके लगाये हुए कामोके दढ बन्धनको ॥२५॥

हाथी जैसे रस्सीको तोळ देता है, वैसे तोळ, त्रायस्त्रिश देवलोकमे चले गये ।

उस समय इन्द्र और प्रजापतिके साथ सभी देव धर्मसभामे बैठे थे ॥२६॥

वे वेराग्यसे अत्यन्त निर्मल हो बैठे हुए (देवो) से बढ गये ।

उन्हे देखकर देवगणोमे बैठे देवाभिमू (जो देवोको वशमे रखता है) इन्द्रको बळा सवेग हुआ ॥२७॥

अहो । हीन शरीर प्राप्त करते भी यह त्रायस्त्रिश देवोसे बढ गये है ।’

(इन्द्रकी) सवेग-पूर्ण बातको सुनकर गोपकने इन्द्रसे कहा ॥२८॥—

“हे इन्द्र । मनुष्य लोकमे भोगोपर विजय प्राप्त करनेवाले शाक्यमुनि बुध्द प्रसिद्ध है ।

उन्हीके ये पुत्र स्मृतिसे विहिन (हो गये थे, सो), मेरे प्रेरित करनेपर स्मृतिको प्राप्त हुए है ॥२९॥

“यह लोग परवशता पार कर गये है । (इनमे) एक गन्धर्वलोकहीमे रह गया

और दो सम्बोधि (ज्ञान) के मार्गपर चलकर एकाग्र मन हो देवोसे भी बढ गये ॥३०॥

“इस प्रकारके धर्मोपदेशमे किसी शिष्य (=श्रावक) को कोई शका नही रह जाती ।

भवसागर पारगत, छिन्न-विचिकित्सा—विजयी सदेहरहित, उन जननायक (=जिन) बुद्धको नमस्कार है ॥३१॥

“(उन्हीके) उस धर्मको समझकर ये इस विशेषताको प्राप्त हुए है ।

दोनोने ब्रह्मपुरोहित शरीर पाया है ॥३२॥

“मार्ष । उसी धर्मकी प्राप्तिके लिये हम लोग आये हुए है ।

भगवानसे आज्ञा लेकर प्रश्न पूछना चाहता हूँ ॥३३॥

तब भगवानके मनमे यह हुआ—‘यह शक बहुत दिनोसे विशुद्ध है । अवशय ही सार्थक प्रश्न पूछेगा, निरर्थक नही। जिस प्रश्नका उत्तर मै दूँगा उसे वह शीध्र ही समझ लेगा । तब भगवानने देवेन्द्र शकसे कहा—

“हे वासव (=इन्द्र) । तुम्हारे मनमे तो इच्छा हो, उस प्रश्नको पूछो,

तुम्हारे उन प्रश्नोका मै उत्तर दूँगा ॥३४॥

(इति) प्रथम भाणवार ॥१॥

५—शकके छै प्रश्न

(१) भगवानसे आज्ञा लेकर शक ०ने भगवानसे यह पहला प्रश्न पूछा—

“मार्ष । देव, मनुष्य, असुर, नाग, गन्धर्व और दुसरे प्राणी किस बन्धनमे पळे है ॽ‘वैर, दण्ड, शत्रु और हिसाके भावको छोळ, वैररहित हो विहार करे’ ऐसी इच्छा रखते हुए भी वे दण्ड-सहित, शत्रुता ओर हिसाभावसे युक्त होकर वैर-सहित ही रहते है ।”

इस प्रश्नके पूछनेपर भगवानने उत्तर दिया—“देवेन्द्र । देव, मनुष्य ० सभी ईषर्या और मात्सर्यके बन्धनमे पळे है । वैर, दण्ड ० अवैरी हो ० ऐसी इच्छा रखते हुए भी वे वैर-सहित ० ही रहते है ।”

सतुष्ट होकर देवेन्द्र शक०ने भगवानके भाषणका अभिनन्दन और अनुमोदन किया—“ढीक है भगवान्, ठीक है सुगत । भगवानके प्रश्नोत्तरको सुनकर मेरी शका मिट गई ।

शक०ने भगवानके कथनका अभिनन्दन और अनुमोदनकर, भगवानसे दूसरा प्रश्न पूछा—

(२) “मार्ष । ईर्ष्या और मात्सर्यके कारण (=निदान), समुदय=जन्म=प्रभव क्या है ॽ किसके होनेसे ईर्ष्या और मात्सर्य होते है, किसके नही होनेसे ईर्ष्या और मात्सर्य नही होते ॽ”

“देवेन्द्र । ईर्ष्या और मात्सर्य प्रिय-अप्रियके कारण ० होते है । प्रिय-अप्रियके होनेसे ईर्ष्या मात्सर्य होते है और प्रिय-अप्रियके नही होनेसे ईर्ष्या मात्सर्य नही होते ।

“मार्ष । प्रिय-अप्रियके कारण ० क्या है ॽ किसके होनेसे ० ॽ”

“देवेन्द्र । प्रिय-अप्रिय छन्द (=चाह)के कारण०से होते है । छन्दके होनेसे ० ।”

“मार्ष । छन्दके कारण ० क्या है ॽ किसके होनेसे ० ॽ”

“देवेन्द्र । छन्द वितर्कके कारण०से होता है । वितर्कके होनेसे ० ।”

“मार्ष । वितर्कके कारण ० क्या है ॽ किसके होनेसे ० ॽ”

“देवेन्द्र । वितर्क प्रपञ्चसज्ञासख्याके कारण०से होता है० ।”

“मार्ष । प्रपञ्चसज्ञासख्याके निदान क्या है ॽ किसके होनेसे० ॽ मार्ष । क्या करनेसे भिक्षु प्रपञ्चसज्ञासख्याके विनाश (=निरोध)के मार्गपर आरूढ होता है ॽ”

“देवेन्द्र । सौमनस्य (=मनकी प्रसन्नता, सुख) दो प्रकारके होते है—एक सेवनीय ओर दूसरा अ-सेवनीय । देवेन्द्र । दौर्मनस्य (=चित्तके खेद) भी दो प्रकारके होते है—एक सेवनीय और दूसरा अ-सेवनीय । देवेन्द्र । उपेक्षा भी दो प्रकार ० । देवेन्द्र । सौमनस्य दो प्रकार ० । यह जो कहा है सो किस कारणसे ॽ तो, जिस सौमनस्यको जाने कि उसके सेवनसे बुराइयॉ (=अकुशल धर्म) बढती है और अच्छाइयॉ (=कुशल धर्म) कम होती है, उस प्रकारका सौमनस्य सेवनीय नही है । और, जिस सौमनस्यको जाने कि उसके सेवनसे बुराइयॉ घटती है और अच्छाइयॉ बढती है, उस प्रकारका सोमनस्य सेवनीय है । वैसे ही उस अवस्थामे सवितर्क ओर सविचार तथा अवितर्क और अविचारमे, जो अवितर्क और अविचार है वही श्रेष्ठ है । देवेन्द्र । सौमनस्य दो प्रकार ० । जो कहा है सो इसी कारणसे ।

“देवेन्द्र । दौर्मनस्य दो प्रकार ० । यह जो कहा है सो किस कारणसे ॽ तो जिस दौर्मनस्यको जाने कि उसके सेवनसे बुराइयॉ बढती है ० १वही श्रेष्ठ है । देवेन्द्र । दोर्मनस्य दो प्रकार ० । जो कहा सो इसी कारणसे ।

“देवेन्द्र । उपेक्षा दो प्रकार ० ।

“देवेन्द्र । इस प्रकारका आचरण करनेवाला भिक्षु प्रपञ्चसज्ञासख्याके निरोधके मार्गपर आरूढ होता है ।”

इस प्रकार भगवानने शकके पूछे प्रश्नका उत्तर दिया । सतुष्ट होकर शक० ने भगवानके भाषणका अभिनन्दन और अनुमोदन किया ।—“ठीक है भगवान् ० ।”

(३) तब देवेन्द्र शकने ० अनुमोदन करके भगवानसे और प्रश्न पूछा—

“मार्ष । क्या करनेसे भिक्षु प्रातिमोक्ष-सवर (=भिक्षु-सयम)से युक्त होता है ॽ

“देवेन्द्र । कायिक आचरण (=कायसमाचार) भी दो प्रकारके होते है, एक सेवनीय और दूसरे असेवनीय । देवेन्द्र । वाचिक आचरण (=वाकसमाचार) भी दो ० । देवेन्द्र । पर्येषण (=भोगोकी चाह) भी दो ० ।

“कायिक आचरण दो ० । यह जो कहा गया है सो किस कारणसे ॽ तो जिस कायिक आचरण-

को जाने ० । देवेन्द्र । वाचिक आचरण दो ० । जिस वाचिक आचरणको जाने ० । देवेन्द्र । पर्येप दो ० । तो जिस पर्येषणको जाने ० । देवेन्द्र । इस प्रकार आचरण करनेसे भिक्षु प्रतिमोक्ष-सवरसे युव होता है ।”

इस प्रकार भगवानने ० उत्तर दिया । सतुष्ट हो ० देवेन्द्र शकने ० अनुमोदन किया ० देवेन्द्र शकने ० और प्रश्न पूछा—

(४) “मार्ष । क्या करनेसे भिक्षु इन्द्रिय-सयम (=सवर) से युक्त होता है ?”

“देवेन्द्र । चक्षुसे ज्ञेय (=जो ऑखसे देखे जावे) रूप दो प्रकारके होते है—एक सेवनीय औ दूसरे असेवनीय । श्रोत्रसे ज्ञेय शब्द भी ० । ध्राणसे ज्ञेय गन्ध भी ० । जिह्वासे ज्ञेय रस भी ० । काया ज्ञेय स्पर्श भी ० । मनसे ज्ञेय धर्म भी ० ।”

ऐसा कहनेपर देवेन्द्र शकने भगवानसे यह कहा—भन्ते । भगवानके इस सक्षिप्त भाषणका अ मै इस प्रकार विस्तार पूर्वक समझता हूँ—

“भन्ते । जिस चक्षुसे ज्ञेय रूपको सेवन करनेसे बुराइयॉ बढे और अच्छाइयॉ धटे, उस प्रकार चक्षुसे ज्ञेय रूप सेवितव्य नही है । और भन्ते । जिस०से बुराइयॉ घटे और अच्छाइयॉ बढे, ० सेवनीय है

“०जिस श्रोत्रसे ज्ञेय शब्दको ० ।

“जिस ध्राणसे ज्ञेय गन्धको ० ।

“०जिस जिह्वासे ज्ञेय रसको ० ।

“०जिस कायासे ज्ञेय स्पर्शको ० ।

“०जिस मनसे ज्ञेय धर्मको ० ।

“भन्ते । आपके सक्षिप्त भाषणका अर्थ मै इस प्रकार विस्तार पूर्वक समझता हूँ । भगवानके प्रश्नोत्तरको सुनकर मेरी शका दूर हो गई, सदेह मिट गये ।”

(५) तब देवेन्द्र शकने ० और प्रश्न पूछा—“मार्ष । कया सभी श्रमण और ब्राह्मण एक ही सिद्धान्तके प्रतिपादन करनेवाले, एक ही शीलको माननेवाले, एक ही अभिप्राय=एक ही अध्याशवाले है ?”

”देवेन्द्र । सभी श्रमण और ब्राह्मण एक ही सिद्धान्तके ० नही है ?”

”मार्ष । सभी श्रमण और ब्राह्मण एक ही सिद्धान्त०के क्यो नही है ?”

”देवेन्द्र । ससारके सभी लोग भिन्न-भिन्न धातुके बने है । ससारके सभी लोगोके अनेक और भिन्न-भिन्न धातुके बने रहनेके कारण, जो जीव जिस धातुका बना रहता है उसीको हठ-पूर्वक दृढतापूर्वक ग्रहण कर लेता है—यही सच्चा है, और दूसरे सभी झूठ । इसीलिये सभी श्रमण ओर ब्राह्मण एक ही सिद्धान्तके ० नही है ।”

“मार्ष । कया सभी श्रमण और ब्राह्मण अत्यन्त निष्ठावान्, अत्यन्त योग-क्षेमवाले, अत्यन्त ब्रह्मचारी, सुन्दर लक्ष्यवाले (=अत्यन्त पर्यवसानके) है ? ।”

“देवेन्द्र । सभी श्रमण और ब्रह्मण अत्यन्तनिष्ठ ० नही है ?”

“मार्ष । सभी श्रमण और ब्राह्मण अत्यन्त निष्ठावान् ० क्यो नही है ?”

“देवेन्द्र । जो भिक्षु तृष्णाके ख्याल (=सख्या) से विमुक्त है, वे अत्यन्त-निष्ठावान् ० है । इसीसे सभी श्रमण और ब्राह्मण अत्यन्त-निष्ठावान् नही है ।”

इस प्रकार भगवानने देवेन्द्र शकके पूछे प्रश्नका उत्तर दिया । सतुष्ट होकर देवेन्द्र शकने अनुमोदन किया । ० दूसरा ० और प्रश्न पूछा—

(६) “भन्ते । तृष्णा रोग है, तृष्णा धाव है, तृष्णा शल्य है, तृष्णा ही, पुरुषको उन-उन योनियोमे

ले जानेके लिये खीचती है । इसीके कारण पुरुषकी वृद्धि और हानि होती है ।

“भन्ते । जिन प्रश्नोके उत्तरकी दूसरे श्रमण और ब्राह्मणोसे पूछ कर मै नही पा सका था, उन्हे भगवानने स्पष्ट कर दिया । मेरी जो शका ओर दुविधा बहुत दिनोसे पूरी न हूई थी, उसे भगवानने दूरकर दिया ।”

“देवेन्द्र । क्या तुमने इन प्रश्नोको कभी किसी दूसरे श्रमण ब्राह्मणसे पूछा छा था ?”

“भन्ते । हॉ मैने इन प्रश्नोको दुसरे श्रमण ब्राह्मणोसे पूछा था ।”

“देवेन्द्र । जिस प्रकार उन्होने उतर दिया, यदि तुम्हे भार न हो तो, कहो ।”

“भन्ते । जहॉ आप जैसे बैठे हो वहॉ मुझे भार क्योकर हो सकता है ॽ”

“देवेन्द्र । तो कहो ।”

“भन्ते । जो श्रमण और ब्राह्मण निर्जन बनमे वास करते है उनके पास जाकर मैने इन प्रश्नोको पूछा । पूछनेपर वे लोग उत्तर न दे सके । बल्कि मुझहीसे पूछने लगे—

“आप कौन है ?” उनके पूछनेपर मैने कहा— मार्ष । मै देवेन्द्र शक० हूँ । तब वे मुझहीसे पूछने लगे— ‘देवेन्द्र । आपने कौन-सा पुण्य करके इस पदको प्राप्त किया है ?’ उन लोगोको मैने यथा-ज्ञान यथाशकित धर्मका उपदेश किया । वे उतनेहीसे सतुष्ट हो गये— ‘देवेन्द्र शकको हम लोगोने देख लिया । जो हम लोगोने पूछा उसका उत्तर उसने दे दिया ।’ (इस प्रकार) वे मेरे ही शिष्य (=श्रावक) वन जाते है, न कि उनका मै । भन्ते । मै (तो), भगवानका स्त्रोतआपन्न, अविनिपातधर्मा, नियत सम्बोधिपरायण श्रावक हूँ ।”

“देवेन्द्र । तुम्हे स्मरण है क्या इसके पहले तुमको कभी ऐसा सतोष और सौमनस्य हुआ था ?”

“भन्ते । स्मरण है, इसके पहले भी मुझे ऐसा सतोष और सौमनस्य हो चुका है ।”

“देवेन्द्र । जैसे तुम्हे स्मरण है इसके पहले भी ० उसे कहो ।”

“भन्ते । बहुत दिन हुये कि देवासुर सग्राम हुआ था । उस सग्राममे देवोकी विजय हुई और असुरोकी पराजय । भन्ते । उस सग्रामको जीतकर मेरे मनमे यह हुआ—‘अब जो दिव्य-ओज और असुर-ओज है, दोनोका देव लोग भोग करोगे ।’ भन्ते । मेरा वह सतोष और सौमनस्य लळाई झगळेके सम्बन्घमे था । निर्वेदके लिये नही, विरागके लिये नही, निरोघके लिये नही, शान्तिके लिये नही, ज्ञानके लिये नही, सम्बोधिके लिये और निर्वाणके लिये नही । भन्ते । जो यह भगवानके धर्मोपदेशको सुनकर सतोष और सौमनस्य हुआ है वह लळई-झगळेका नही, कितु पूर्णतया निर्वेद ० के लिये ।”

“देवेन्द्र । क्या देखकर यह कह रहे हो, कि तुमने ऐसा सतोष सौमनस्य पाया ?”

“भन्ते । छै अर्थोको देखकर ० कह रहा हूँ ।— मार्ष । देव रूपमे ।

यही रहते-रहते मैने फिर आयु प्राप्त की है, इस प्रकार आप जाने ॥३५॥

भन्ते । यह पहला अर्थ है कि जिसे देखकर कि मैने इस प्रकारका सतोष और सौमनस्य पाया ।

‘दिव्य आयुके क्षीण दो जानेपर इस शरीरसे च्युत होकर,

मै अपनी इच्छानुसार जहाँ मन होगा उसी गर्भमे प्रवेश करूँगा ।’ ॥३६॥

“मन्ते । यह दूसरा अर्थ है कि० ।

“सो मै तथागतके शासन (=धर्म) मे रत रहकर स्मृतिमान्,

तथा सावधान हो ज्ञानपूर्वक विहार करूँगा ॥३७॥

“भन्ते । यह तीसरा अर्थ ० ।

“ज्ञानपूर्वक आचरण करते हुये मुझे सम्बोधि प्राप्त होगी ।

मै परमार्थको जानकर विहार करूँगा, यही इसका अन्त होगा ॥३८॥

ले जानेके लिये खीचती है । इसीके कारण पुरुषकी वृद्धि और हानि होती है ।

“भन्ते । जिन प्रश्नोके उत्तरकी दूसरे श्रमण और ब्राह्मणोसे पूछ कर मै नही पा सका था, उन्हे भगवानने स्पष्ट कर दिया । मेरी जो शका ओर दुविधा बहुत दिनोसे पूरी न हूई थी, उसे भगवानने दूरकर दिया ।”

“देवेन्द्र । क्या तुमने इन प्रश्नोको कभी किसी दूसरे श्रमण ब्राह्मणसे पूछा छा था ?”

“भन्ते । हॉ मैने इन प्रश्नोको दुसरे श्रमण ब्राह्मणोसे पूछा था ।”

“देवेन्द्र । जिस प्रकार उन्होने उतर दिया, यदि तुम्हे भार न हो तो, कहो ।”

“भन्ते । जहॉ आप जैसे बैठे हो वहॉ मुझे भार क्योकर हो सकता है ॽ”

“देवेन्द्र । तो कहो ।”

“भन्ते । जो श्रमण और ब्राह्मण निर्जन बनमे वास करते है उनके पास जाकर मैने इन प्रश्नोको पूछा । पूछनेपर वे लोग उत्तर न दे सके । बल्कि मुझहीसे पूछने लगे—

“आप कौन है ?” उनके पूछनेपर मैने कहा— मार्ष । मै देवेन्द्र शक० हूँ । तब वे मुझहीसे पूछने लगे— ‘देवेन्द्र । आपने कौन-सा पुण्य करके इस पदको प्राप्त किया है ?’ उन लोगोको मैने यथा-ज्ञान यथाशकित धर्मका उपदेश किया । वे उतनेहीसे सतुष्ट हो गये— ‘देवेन्द्र शकको हम लोगोने देख लिया । जो हम लोगोने पूछा उसका उत्तर उसने दे दिया ।’ (इस प्रकार) वे मेरे ही शिष्य (=श्रावक) वन जाते है, न कि उनका मै । भन्ते । मै (तो), भगवानका स्त्रोतआपन्न, अविनिपातधर्मा, नियत सम्बोधिपरायण श्रावक हूँ ।”

“देवेन्द्र । तुम्हे स्मरण है क्या इसके पहले तुमको कभी ऐसा सतोष और सौमनस्य हुआ था ?”

“भन्ते । स्मरण है, इसके पहले भी मुझे ऐसा सतोष और सौमनस्य हो चुका है ।”

“देवेन्द्र । जैसे तुम्हे स्मरण है इसके पहले भी ० उसे कहो ।”

“भन्ते । बहुत दिन हुये कि देवासुर सग्राम हुआ था । उस सग्राममे देवोकी विजय हुई और असुरोकी पराजय । भन्ते । उस सग्रामको जीतकर मेरे मनमे यह हुआ—‘अब जो दिव्य-ओज और असुर-ओज है, दोनोका देव लोग भोग करोगे ।’ भन्ते । मेरा वह सतोष और सौमनस्य लळाई झगळेके सम्बन्घमे था । निर्वेदके लिये नही, विरागके लिये नही, निरोघके लिये नही, शान्तिके लिये नही, ज्ञानके लिये नही, सम्बोधिके लिये और निर्वाणके लिये नही । भन्ते । जो यह भगवानके धर्मोपदेशको सुनकर सतोष और सौमनस्य हुआ है वह लळई-झगळेका नही, कितु पूर्णतया निर्वेद ० के लिये ।”

“देवेन्द्र । क्या देखकर यह कह रहे हो, कि तुमने ऐसा सतोष सौमनस्य पाया ?”

“भन्ते । छै अर्थोको देखकर ० कह रहा हूँ ।— मार्ष । देव रूपमे ।

यही रहते-रहते मैने फिर आयु प्राप्त की है, इस प्रकार आप जाने ॥३५॥

भन्ते । यह पहला अर्थ है कि जिसे देखकर कि मैने इस प्रकारका सतोष और सौमनस्य पाया ।

‘दिव्य आयुके क्षीण दो जानेपर इस शरीरसे च्युत होकर,

मै अपनी इच्छानुसार जहाँ मन होगा उसी गर्भमे प्रवेश करूँगा ।’ ॥३६॥

“मन्ते । यह दूसरा अर्थ है कि० ।

“सो मै तथागतके शासन (=धर्म) मे रत रहकर स्मृतिमान्,

तथा सावधान हो ज्ञानपूर्वक विहार करूँगा ॥३७॥

“भन्ते । यह तीसरा अर्थ ० ।

“ज्ञानपूर्वक आचरण करते हुये मुझे सम्बोधि प्राप्त होगी ।

मै परमार्थको जानकर विहार करूँगा, यही इसका अन्त होगा ॥३८॥