दीध-निकाय
22. महासतिपट्ठान-सुत्त (२।६)
विषय संक्षेप—१—कायानुपश्यना । २—वेदनानुपश्यना । ३—चित्तानुपश्यना । ४—धर्मानुपश्यना ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् कुरु१ (देश)मे कुरुओके निगम (=कस्बे) कम्मास-दममें विहार करते थे ।
विषय-संक्षेप
वहाँ भगवानने भिक्षुओको संबोधित किया—“भिक्षुओ ।”
“भदन्त ।” (कह) भिक्षुओने भगवानको उत्तर दिया ।
“भिक्षुओ । यह जो चार स्मृति-प्रस्थान (=सत्ति-पट्ठान) है, वह सत्त्वोकी विशुद्धिके लिए, शोक कष्टके विनाशके लिए, दुख=दौर्मनस्यके अतिक्रमणके लिये, न्याय (=सत्य)की प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात् करनेके लिये, एकायन (=अकेला) मार्ग है । कौनसे चार ?— भिक्षुओ । वहाँ (इस घर्ममे) भिक्षु कायामे २कायानुपश्यी हो, उद्योगशील अनुभव (=सप्रजन्य) ज्ञान-युकत, स्मृति-मान्, लोक (=संसार या शरीर)में अभिध्या (=लोभ) और दौर्मनस्य (=दुख) को हटाकर विहरता है । वेदनाओ (=सुखादि)मे ३वेदनानुपश्यी हो ० विहरता है । चित्तमे चित्तानु-पश्यी ० । धर्मोमे धर्मानुपश्यी ० ।
१—कायानुपश्यना
(१) आनापान (=प्राणायाम)
“भिक्षुओ । कैसे भिक्षु ४ कायामे, कायानुपश्यी हो विहरता है ?—भिक्षुओ । भिक्षु अरण्यमे, वृक्षके नीचे, या शून्यागारमे, आसन मारकर, शरीरको सीधाकर, स्मृतिको सामने रखकर बैठता है । वह स्मरण रखते सॉस छोळता है, स्मरण रखते ही साँस लेता है । लम्बी साँस छोळते वकत, ‘लम्बी साँस छोळता हूँ-जानता है । लम्बी साँस लेते वकत, ‘लम्बी साँस लेता हूँ’—जानता है । छोटी सॉस छोळते ‘छोटी सॉस छोळता हूँ’—जानता है । छोटी सॉस लेते ‘छोटी सॉस लेता हूँ—जानता है । सारी कायाको जानते (=अनुभव करते) हुये, साँस छोळना सीखता है । सारी कायाको
जानते हुये सॉस लेना सीखता है । कायाके संस्कार (=गति, क्रिया)को शात करते सॉस छोळना सीखता है । कायाके संस्कारको शात करते सॉस लेना सीखता है । जैसे कि—भिक्षुओ । एक चतुर खरादकार (=भ्रमकार) या खरादकारका अन्तेवासी लम्बे (काष्ठ)को रगते समय ‘लम्बा रगता हूँ’—जानता है । छोटेको रगते समय ‘छोटा रगता हूँ’—जानता है । ऐसेही भिक्षुओ । भिक्षु लम्बी सॉस छोळते ०, लम्बी सॉस लेते ०, छोटी सॉस छोळते ०, छोटी सॉस लेते ० जानता है । सारी कायाको जानते (=अनुभव करते ) हुये सॉस छोळना सीखता है, ० साँस लेना ० । काय-संस्कारको शांत करते सॉस छोळना सीखता है, ० सॉस लेना ० । इस प्रकार कायाके भीतरी भागमे कायानुपश्यी हो विहरता है । कायाके बाहरी भागमे ० । कायाके भीतरी और बाहरी भागमे-कायानुपश्यी विहरता है । कायामे समुदय (=उत्पत्ति) धर्मको देखता विहरता है । कायामे व्यय (=विनाश) धर्मको देखता विहरता है । ‘काया है’—यह स्मृति, ज्ञान और स्मृतिके प्रमाणके लिये उपस्थित रहती है । (तृष्णा आदिमे) अ-लग्न हो विहरता है । लोकमे कुछ भी (मै, और मेरा करके) नही ग्रहण करता । इस प्रकार भी भिक्षुओ । भिक्षु कायामे काय-बुद्धि रखते विहरता है ।
(२) ईर्या-पथ
“१फिर भिक्षुओ । भिक्षु जाते हुये ‘जाता हूँ’—जानता है । बैठे हुये ‘बैठा हूँ’—जानता है । सोये हुये ‘सोया हूँ’—जानता है । जैसे जैसे उसकी काया अवस्थित होती है, वैसेही उसे जानता है । इसी प्रकार कायाके भीतरी भागमे कायानुपश्यी हो विहरता है, कायाके बाहरी भागमे कायानुपश्यी विहरता है । कायाके भीतरी और बाहरी भागोमे कायानुपश्यी विहरता है । कायामे समुदय-(=उत्पति)-धर्म देखता विहरता है, ० व्यय (=विनाश) धर्म ०, ० समुदय-व्यय-धर्म ० । ० ।
(३) सप्रजन्य
“२और भिक्षुओ । भिक्षु जानते (=अनुभव करते) हुये गमन-आगमन करता है । जानते हुये आलोकन=विलोकन करता है । ० सिकोळना फैलाना ०३ सघाटी, पात्र, चीवरको धारण करता है । जानते हुये आसन, पान, खादन, आस्वादन, करता है । ० पाखाना (=उच्चार), पेशाब (=पस्साव) करता है । चलते, खळे होते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, चुप रहते, जानकर करनेवाला होता है । इस प्रकार कायाके भीतरी कायानुपश्यी हो विहरता है । ० ।
(४) प्रतिकूल मनसिकार
“४और भिक्षुओ । भिक्षु पैरके तलवेसे ऊपर, केश-मस्तकसे नीच, इस कायाको नाना प्रकार-के मलोसे पूर्ण देखता (=अनुभव करता) है—इस कायामे है—केश, रोम, नख, दॉत, त्वक् (=चमळा), मास, स्नायु, अस्थि, अस्थि (के भीतरकी) मज्जा, वृक्क, हृदय (=कलेजा), यकृत, कलोमक, प्लीहा (=तिल्ली), फुफ्फुस, ऑत, पतली ऑत (=अत-गुण), उदरस्थ (वस्तुये), पाखाना, पित्त, कफ, पीव, लोहू, पसीना, मेद (=वर), आँसू, वसा (=चर्बी), लार, नासा-मल, ५लसिका, और मूत्र ।
जैसे भिक्षुओ । नाना अनाज शाली, ब्रीही (=धान), मूँग, उळद, तिल, तण्डुलसे दोनो मुखभरी डेहरी (=मुढोली, पुटोली) हो, उसको आँखवाला पुरुष खोलकर देखे—यह शाली है, यह ब्रीही है, यह मूँग है, यह उळद है, यह तिल है, यह तडुल है । इसी प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु पैरके तलवेके ऊपर केश-मस्तकसे नीचे इस कायाको नाना प्रकारके मलोसे पूर्ण देखता है— इस कायामे है ० । उस प्रकार कायाके भीतरी भागमे कायानुपश्यी हो विहरता है । ० ।
(५) धातुमनसिकार
“और फिर भिक्षुओ । भिक्षु इस १कायाको (इसकी) स्थितिके अनुसार (इसकी) रचनाके अनुसार देखता है— इस कायामे है—पृथिवी धातु (=पृथिवी महाभूत ), आप (=जल)-धातु, तेज (=अग्नि) धातु, वायु-धातु । जैसे कि भिक्षुओ । दक्ष (=चतुर) गो-घातक या गो-घातकका अन्तेवासी, गायको मारकर बोटी-बोटी काटकर चौरस्तेपर बैठा हो । ऐसे ही भिक्षुओ । भिक्षु इस कायाको स्थितिके अनुसार, रचनाके अनुसार देखता है । ० । इस प्रकार कायाके भीतरी भागको ० ।
(६-१४) श्मशानयोग
१—“२और भिक्षुओ । भिक्षु एक दिनके मरे, दो दिनके मरे, तीन दिनके मरे, फूले, नीले पळ गये, पीव-भरे, (मृत)-शरीरको श्मशानमे फेकी देखे । (और उसे) वह इसी (अपनी) कायापर घटावे—यह भी काया इसी धर्म (=स्वभाव)–बाली, ऐसी ही होनेवाली, इससे न बच सकनेवाली है । इस प्रकार कायाके भीतरी भाग ० । ० ।
२—“और भिक्षुओ । भिक्षु कौओसे खाये जाते, चील्होसे खाये जाते, गिद्वोसे खाये जाते, कुत्तोसे खाये जाते, नाना प्रकारके जीवोसे खाये जाते, श्मशानमे फेके (मृत-) शरीरको देखे । वह इसी (अपनी) कायापर घटावै—यह भी काया ० । ० ।
३— “और भिक्षुओ । भिक्षु माँस-लोहू-नसोसे बँधे हड्डी-कंकालवाले शरीरको श्मशानमे फेका देखे०।०।
४— “० माँस-रहित लोहू-लगे, नसोसे बँधे ० । ० । ० माँस-लहु-रहित नसोसे बँधे० ।० ० ।
बंधन-रहित हड्डियोको दिशा-विदिशामे फेकी देखे—कही हाथकी हड्डी है, ० पेरकी हड्डी ०,० जंघाकी हड्डी ०, ० उरुकी हड्डी ०,० कमरकी हड्डी ०,० पीठके काँटे ०,० खोपळी ०, ओर इसी (अपनी) कायापर घटावे ० । ० ।३
५—“औऱ भिक्षुओ । भिक्षु राखके समान सफेद वर्णके हड्डीवाले शरीरको स्मशानमे फेका देखे ० । ० । ० बर्षो-पुरानी जमाकी हड्डियोवाले ० । ० । ० सडी चूर्ण होगई हड्डियोवाले ० । ० ।
२—वेदनानुपश्यना
“कैसे भिक्षुओ । भिक्षु ४ वेदनाओमे वादनानुपश्यी (हो) विहरता है ? —भिक्षुओ । भिक्षु सुख-वेदनाको अनुभव करते ‘सुख-वेदना अनुभव कर रहा हूँ’—जानता है । दुख-वेदनाको अनुभव करते ‘दुखवेदना अनुभव कर रहा हूँ’—जानता है । अदुख-असुख वेदनाको अनुभव करते ‘अदुख-असुख-वेदना अनुभव कर रहा हूँ’—जानता है । स-आमिष (=भोग-पदार्थ-सहित) सुख-वेदनाको
अनुभव करते ० । निर्-आमिष सुख-वेदना ० । स-आमिष दुख-वेदना ० । निर्-आमिष दुख-वेदना ० । स-आमिष अदुख-असुख-वेदना ० । निर्-आमिष अदुख-असुख-वेदना ० । इस प्रकार कायाके भीतरी भाग ० । ० ।
३—चित्तानुपश्यना
“कैसे भिक्षुओ । भिक्षु चित्तमे १चित्तानुपश्यी हो विहरता है ॽ—यहॉ भिक्षुओ । भिक्षु स-राग चित्तको ‘स-राग चित्त है’—जानता है । विराग (=राग-रहित) चित्तको ‘विराग चित्त है’—जानता है । स-द्वेष चित्तको ‘सद्वेष चित्त है’—जानता है । वीत-द्वेष (=द्वेष-रहित) चित्तको ‘वीत-द्वेष चित्त है’—जानता है । स-मोह चित्तको ० । वीत-मोह चित्तको ० । संक्षिप्त चित्तको ० । विक्षिप्त चित्तको ० । महद्-गत (=महापरिमाण) चित्तको ० । अ-महद्गत चित्तको ० । स-उत्तर ० । अन्-उत्तर (=उत्तम) ० । समाहित (=एकाग्र) ० । अ-समाहित ० । विमुक्त ० । अ-विमुक्त ० । इस प्रकार कायाके भीतरी भाग ० । ० ।
४—धर्मानुपश्यना
(१) नीवरण
“कैसे भिक्षुओ । भिक्षु धर्मोमे २धर्मानुपश्यी हो विहरता है ॽ—भिक्षुओ । भिक्षु पॉच नीवरण धर्मोमे धर्मानुपश्यी (हो) विहरता है । कैसे भिक्षुओ । भिक्षु पाँच ३नीवरण धर्मोमे धर्मानुपश्यी हो विहरता है ॽ—यहॉ भिक्षुओ । भिक्षु विद्यमान भीतरी काम-च्छन्द (=कामुकता) को मेरेमे भीतरी काम-च्छन्द विंद्यमान है’—जानता है । अ-विंद्यमान भीतरी कामच्छन्दको ‘मेरेमे भीतरी कामच्छन्द नही विंद्यमान है’—जानता है । अन्-उत्पन्न कामच्छन्दकी जैसे उत्पत्ति होती है, उसे जानता है । जैसे उत्पन्न हुये कामच्छन्दका प्रहाण (=विनाश) होता है, उसे जानता है । जैसे विनष्ट कामच्छन्दकी आगे फिर उत्पत्ति नही होती, उसे जानता है । विंद्यमान भीतरी व्यापाद (=द्रोह) को— ‘मुझमे भीतरी व्यापाद विद्यमान है’—जानता है । अ-विंद्यमान भीतरी व्यापादको—‘मेरेमे भीतरी व्यापाद नही विद्यमान है’—जानता है । जैसे अन्-उत्पन्न व्यापाद उत्पन्न होता है, उसे जानता है । जैसे उत्पन्न व्यापाद नष्ट होता है, उसे जानता है । जैसे विनष्ट व्यापाद आगे फिर नही उत्पन्न होता, उसे जानता है । विद्यमान भीतरी स्त्यान-मृद्ध (=थीन-मिद्ध=शरीर-मनकी अलसता) ० । ० ।
० भीतरू औद्धत्य-कौकृत्य (=उद्धच्च-कुक्कुच्च=उद्वेग-खेद,) ० । ० ।
० भीतरी विचिकित्सा (=सशय) ० । ० ।
“इस प्रकार भीतर धर्मोमे धर्मानुपश्यी हो विहरता है । बाहर धर्मोमे (भी) धर्मानुपश्यी हो विहरता है । भीतर-बाहर ० । धर्मोमे समुदय (=उत्पत्ति) धर्मका अनुपश्यी (=अनुभव करनेवाला) हो विहरता है । ० व्यय (=विनाश)-धर्म ० । ० उत्पत्ति-विनाश-धर्म ० । स्मृतिके प्रमाणके लिये ही, ‘धर्म है’—यह स्मृति उसकी बराबर विद्यमान रहती है । वह (तृष्णा आदिमे) अ-लग्न हो विहरता है । लोकमे कुछ भी (मै और मेरा) करके ग्रहण नही करता । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु धर्मोमे धर्म-अनुपश्यी विहरता है ।
(२) स्कंध
“और फिर भिक्षुओ । भिक्षु पाँच उपादान१ स्कंध धर्मोमे धर्म-अनुपशयी हो विहरता है । कैसे भिक्षुओ । भिक्षु पाँच उपादानस्कंध धर्मोमे धर्म-अनुपश्यी हो विहरता है ॽ भिक्षुओ । भिक्षु (अनुभव करता है)—‘यह रुप है’, ‘यह रूपकी उत्पत्ति (=समुदय)’, ‘यह रूपका अस्त-गमन (=विनाश) है’ । ० संज्ञा ० । ० संस्कार ० । ० विज्ञान ० । इस प्रकार अध्यात्म (=शरीरके भीतरी) धर्मोमे धर्म-अनुपश्यी हो विहरता है । बहिर्घा (=शरीरके बाहरी) धर्मोमे धर्म-अनुपश्यी शरीरके भीतरी-बाहरी धर्मो (=वस्तुओ) मे समुदय (=उत्पत्ति)-धर्मको अनुभव करता विहरता है । वस्तुओमे विनाश (=व्यय)-धर्मको अनुभव करता विहरता है । वस्तुओमे उत्पत्ति-विनाश-धर्मको अनुभव करता विहरता है । सिर्क ज्ञान और स्मृतिके प्रमाणके लिये ही ‘धर्म है’— यह स्मृति उसको बराबर विद्यमान रहती है । वह अनासक्त हो विहरता है । लोकमे कुछ भी नही ग्रहण करता । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु पाँच उपादान-स्कंधोमे धर्म (=स्वभाव) अनुभव करता (=धर्म-अनुपश्यी) विहरता है ।
(३) आयतन
“और किर भिक्षुओ । भिक्षु छै आध्यात्मिक (=शरीरके भीतरी), बाह्य (=शरीरके बाहरी) २आयतन धर्मोमे धर्म अनुभव करता विहरता है । कैसे भिक्षुओ । भिक्षु छै भीतरी बाहरी आयतन (-रुपी) धर्मोमे धर्म अनुभव करता विहरता है ? —भिक्षुओ । भिक्षु चक्षुको अनुभव करता है, रूपोको अनुभव करता है, और जो उन दोनो (=चक्षु और रुप) करके संयोजन३ उत्पन्न होता है, उसे भी अनुभव करता है । जिस प्रकार अन्-उत्पन्न संयोजनकी उत्पत्ति होती है, उसे भी जानता है । जिस प्रकार उत्पन्न संयोजनका प्रहाण (=विनाश) होता है, उसे भी जानता है । जिस प्रकार प्रहीण (=विनष्ट) संयोजनकी आगे फिर उत्पत्ति नही होती, उसे भी जानता है । श्रोत्रको अनुभव करता है, शब्दको अनुभव करता है ० । घ्राण (=सूँघनेकी शक्ति, घ्राण-इद्रिय)को अनुभव करता है । गंधको अनुभव करता है ० । जिह्वा ० । ० । ० । काया (=त्वक्-इद्रिय, ठंडा गर्म आदि जाननेकी शक्ति) ०‘ स्प्रष्टव्य (=ठंडा गर्म आदि) ० । ० । मनको अनुभव करता है । धर्म (=मनके विषय) को अनुभव करता है । दोनो (=मन और धर्म) करके जो ३संयोजन उत्पन्न होता है, उसको भी अनुभव करता है । ० । इस प्रकार अध्यात्म (=शरीरके भीतर) धर्मो (=पदार्थो) में धर्म (=स्वभाव) अनुभव करता विहरता है, बहिर्घा (=शरीरके बाहर) ०, अध्यात्म-बहिर्घा ० । धर्मोमे उत्पत्ति-धर्मको ०, ० विनाश-धर्मको ०, ० उत्पत्ति-विनाश-धर्मको ० । सिर्फ ज्ञान और स्मृतिके प्रमाणके लिये ० । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु शरीरके भीतर और बाहरवाले छै आयतन धर्मो (=पदार्थो) मे धर्म (=स्वभाव) अनुभव करता विहरता है ।
(४) बोध्यंग
“और भिक्षुओ । भिक्षु सात बोधि-अंग धर्मो (=पदार्थो) मे धर्म (=स्वभाव) अनुभव करता विहरता है । कैसे भिक्षुओ । ० ॽ भिक्षुओ । भिक्षु । विद्यमान भीतरी (=अध्यात्म) स्मृति संबोधि-अंगको ‘मेरे भीतर स्मृति संबोधि-अंग है’—अनुभव करता है । अ-विद्यमान भीतरी स्मृति संबोधि-अंगको ‘मेरे भीतर स्मृति संबोधि-अंग नही है’—अनुभव करता है । जिस प्रकार अन्-उत्पन्न स्मृति संबोधि-अंगकी उत्पत्ति होती है, उसे जानता है । जिस प्रकार उत्पन्न स्मृति संबोधि-अंगकी भावना परिपूर्ण होती है, उसे भी जानता है । ० भीतरी धर्म-विचय (=धर्म-अन्वेषण) संबोधि-अंग ० । ० वीर्य ० । ० प्रीति ० । ० प्रश्र्नब्धि ० । ० समाधि ० । विद्यमान भीतरी उपेक्षा संबोधि-अंगको ‘मेरे भीतर उपेक्षा संबोधि-अंग है’—अनुभव करता है । अ-विद्यमान भीतरी उपेक्षा संबोधि-अंगको ‘मेरे भीतर उपेक्षा संबोधि-अंग नही है’—अनुभव करता है । जिस प्रकार अन्-उत्पन्न उपेक्षा संबोधि-अंगकी उत्पत्ति होती है, उसे जानता है । जिस प्रकार उत्पन्न उपेक्षा संबोधि-अंगकी भावना परिपूर्ण होती है, उसे जानता है, इस प्रकार शरीरके धर्मोमे धर्म अनुभव करता विहरता, शरीरके बाहर ०, शरीरके भीतर-बाहर ० । ० । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु शरीरके भीतर और बाहर वाले सात संबोधि-अंग धर्मोमे धर्म अनुभव करता विहरता है ।
(५) आर्य-सत्य
“और फिर भिक्षुओ । भिक्षु चार १आर्य-सत्य धर्मोमे धर्म अनुभव करता विहरता है । कैसे ० ॽ भिक्षुओ । ‘यह दुख है’—ठीक ठीक (=यथाभूत=जैसा है वैसा) अनुभव करता है । ‘यह दुखका समुदय (=कारण) है’—ठीक ठीक अनुभव करता है । ‘यह दुखका निरोध (=विनाश) है’—ठीक ठीक अनुभव करता है । ‘यह दुखके निरोधकी ओर ले जानेवाला मार्ग (=दुख-निरोध) गामिनी-प्रतिषद्) है’—ठीक ठीक अनुभव करता है ।
(इति) प्रथम माणवार ।।१।।
“इस प्रकार भीतरी धर्मोमे धर्मोनुपश्यी हो विहरता है । ० । अ-लग्न हो विहरता है । लोकमे किसी (वस्तु)को भी (मै और मेरा) करके नही ग्रहण करता । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु चार आर्य-सत्य धर्मोमे धर्मानुपश्यी हो विहरता है ।
(क) दुख-आर्य-सत्य—
“क्या है भिक्षुओ । दुःख आर्य-सत्य ॽ जन्म भी दुख है । बुढापा (=जरा) भी दुख है । मरण भी दुख है । शोक, परिदेवन (=रोना-काँदना), दुख, दौर्मनस्य, उपायास (=हैरानी-परेशानी) भी दुख है । अ-प्रियोका सयोग भी दुख है । प्रियोका वियोग भी दुख है । इच्छित वस्तु जो नही मिलती वह भी दुख है । सक्षेपमे पाँचो उपादान-स्कंध ही दुख है ।’ क्या है, भिक्षुओ । जन्म (=जाति) ॽ उन उन प्राणियोका उन उन योनियो (=सत्त्वनिकायो)मे जो जन्म=सजाति,=अवक्रमण=अभिनिर्वृत्ति, (भौतिक और अभौतिक) स्कंधोका प्रादुर्भाव, आयतनो (=इन्द्रिय-विषयो)का लाभ है, यही भिक्षुओ । जन्म कहा जाता है । क्या है, भिक्षुओ । बुढापा (=जरा) ॽ उन उन प्राणियोका उन उन योनियोमे जो बूढा होना=जीर्णता, खाडित्य (=दाँत टूटना), पालित्य (=बाल पकना), चमळा-
सिकुळना, आयुकी हानि, इन्द्रियोका परिपाक है, यही भिक्षुओ । बुढापा कहा जाता है । क्या है, भिक्षुओ । मरण ॽ उन उन प्राणियोका उन उन योनियोसे जो च्युत होना=च्यवनता, बिलगाव, अन्तर्धान होना, मृत्यु, मरण, काल करना, स्कन्धोका बिलगाव, कलेवरका छूटना, जीवनका विच्छेद है, यही ० । क्या है भिक्षुओ । शोक ॽ उन उन व्यसनोसे युक्त, उन उन दुखोसे पीडित (व्यक्ति)का जो शोक=शोचना=शोचितत्व, भीतर शोक, भीतर परिशोक है, यही ० । क्या है, भिक्षुओ । परिदेव ॽ उन उन व्यसनोसे युक्त, उन उन दुखोसे पीडित (व्यक्ति)का जो आदेवन=परिदेवन (=रोना-काँदना), आदेव=परिदेव=आदेवितत्त्व=परिदेवितत्त्व है, यही ० । क्या है, भिक्षुओ । दुख ॽ भिक्षुओ । जो शारीरिक दुख=शारीरिक पीडा, कायाके स्पर्शसे (हुआ) दुख=अ-सात अनुभव (=वेदमा) है, यही ० । कया है, भिक्षुओ । दौर्मनस्य ? भिक्षुओ । जो मानसिक दुख=मानसिक पीडा, मनके स्पर्शसे (हुआ) दुख=अ-सात (=प्रतिकूल) अनुभव है, यही ० । क्या है, भिक्षुओ । उपायास ॽ भिक्षुओ । उन उन व्यसनोसे युक्त, उन उन दुखोसे पीडित (व्यक्ति) का, जो आयास=उपायास (=हैरानी-परेशानी) =आयासितत्त्व=उपायासितत्त्व है, यही ० । क्या है, भिक्षुओ । ‘अप्रियोका सयोग भी दुख’ ॽ किसी (पुरूष)के अन्-इष्ट (=अनिच्छित)=अ-कान्त=अमानाप जो रूप, शब्द, गध, रस, स्प्रष्टव्य वस्तुये है, या जो उसके अनर्थाभिलाषी, अ-हिताभिलाषी,=अ-प्राशु-इच्छुक, अ-मंगल-इच्छुक (व्यक्ति) है, उनके साथ जो समागम=समबधान, मिश्रण है, यही ० । क्या है, भिक्षुओ । ‘प्रियोका वियोग भी दुख’ ॽ किसी (पुरूष)के इष्ट=कान्त=मनाप जो रूप, शब्द, गध, रस, स्प्रष्टव्य वस्तुये है, या जो उसके अर्थाभिलाषी, हिताभिलाषी=प्राशु-इच्छुक, मंगल-इच्छुक माता, पिता, भ्राता, भगिनी, कनिष्ठा (वहिन), मित्र, अमात्य, या जाति, रक्तसंबंधी है, उनके साथ अ-संगति=अ-समागम=अ-समबधान=अ-मिश्रण है, यही ० । क्या है, भिक्षुओ । ‘इच्छित वस्तु जो नही मिलती, वह भी दुख’ ॽ भिक्षुओ । जन्मनेके स्वभाववाले प्राणियोको यह इच्छा उत्पन्न होती है—‘अहो । हम जन्म स्वभाववाले न होते, हमारे लिये जन्म न आता’, किन्तु यह इच्छा करनेसे मिलनेवाला नही । यही भी ‘इच्छित वस्तु जो नही मिलती, वह भी दुख’ है । भिक्षुओ । जरा-स्वभाववाले प्राणियोको इच्छा होती है—‘अहो । हम जरा स्वभाववाले न होते, हमारे लिये जरा न आती’, किन्तु यह इच्छा करनेसे मिलनेवाला नही है । यह भी ० । भिक्षुओ । व्याधि-स्वभाववाले प्राणियोको इच्छा होती है—० । भिक्षुओ । मरण-स्वभाववाले प्राणियोको इच्छा होती है—० । भिक्षुओ । शोक-स्वभाववाले प्राणियोको इच्छा होती है—० । भिक्षुओ । परिदेव-स्वभाववाले ० । ० दुख-स्वभाववाले ० । ० दौर्मनस्य-स्वभाववाले ० । ० उपायास-स्वभाववाले ० । क्या है, भिक्षुओ । ‘संक्षेपमे पाँचो उपादानस्कंध ही दुख है ॽ जैसे कि रूप-उपादान-स्कंध, वेदना०, संज्ञा०, संस्कार०, विज्ञान-उपादानस्कंध—यही भिक्षुओ । ‘संक्षेपमे पाँचो उपादानस्कंध ही दुख’ कहे जाते है ।
“भिक्षुओ । यह दुख आर्यसत्य कहा जाता है ।
(ख) दुख-समुदय आर्यसत्य—
“क्या है, भिक्षुओ । दुख-समुदय आर्यसत्य ॽ जो यह राग-युक्त, नन्दी—उन उन (वस्तुओ) मे अभिनन्दन करनेवाली, आवागमनकी तृष्णा है, जैसे कि भोग-तृष्णा, भव(=जन्म)-तृष्णा, विभव-तृष्णा । भिक्षुओ । वह तृष्णा उत्पन्न होने पर कहाँ उत्पन्न होती है, स्थित होनेपर कहाँ स्थित होती है ॽ जो लोकमे (मनुष्यका) प्रिय, सात (=अनुकूल) है, वही यह तृष्णा उत्पन्न होनेपर उत्पन्न होती है, स्थित होनेपर स्थित होती है । क्या है लोकमे प्रिय, सात ॽ चक्षु लोकमे प्रिय=सात है, यहाँ यह तृष्णा ० उत्पन्न होती है ० । श्रोत्र ० । घ्राण ० । जिह्वा ० । काय ० । मन ० । (चक्षुका विषय) रूप ० । शब्द ० । गन्ध ० । रस ० । स्प्रष्टव्य ० । धर्म ० । चक्षुर्विज्ञान (=ऑख और रूपके संबंधसे उत्पन्न ज्ञान) ० । श्रोत्रविज्ञान ० । घ्राणविज्ञान ० । जिह्वाविज्ञान ० । कायविज्ञान ० । मनोविज्ञान ० ।
चक्षु-सस्पर्श (=ऑखका उसके विषय रुपके साथ समागम) ० । श्रोत्रसस्पर्श ० । घ्राणसस्पर्श ० । जिह्वासस्पर्श ० । कायसस्पर्श ० । चक्षु-सस्पर्शज वेदना (=ऑख और रुपके समागमसे जो ज्ञान होता है, और उसमे अनुकूलता या प्रतिकूलताको देखकर चित्तको दुख या सुख होता है वह वेदना कही जाती है) ० । श्रोत्रसस्पर्शज वेदना ० । घ्राणसस्पर्शज वेदना ० । जिह्वासस्पर्शज वेदना ० । कायसस्पर्शज वेदना ० । मन सस्पर्शज वेदना ० । रुपसज्ञा (=रुप संबंधी ज्ञानका अनुभव) ० । शब्दसंज्ञा ० । गध-संज्ञा ० । रससज्ञा ० । स्प्रष्टव्यसज्ञा ० । धर्मसज्ञा ० । रुपसचेतना (=रुपका ख्याल ) ० । शब्दसचेतना ० । गधसचेतना ० । रससचेतना ० । स्प्रष्टव्यसचेतना ० । धर्मसचेतना ० । रुपतृष्णा ० । शब्दतृष्णा ० । गधतृष्णा ० । रसतृष्णा ० । स्प्रष्टव्यतृष्णा ० । धर्मतृष्णा ० । रुपवितर्क ० । शब्दवितर्क ० । गधवितर्क ० । रसवितर्क ० । स्प्रष्टव्यवितर्क ० । धर्मवितर्क ० । रुपविचार ० । शब्दविचार ० । गधविचार ० । रसविचार ० । स्प्रष्टव्यविचार ० । धर्मविचार लोकमे प्रिय सात है, यहाँ वह तृष्णा ० उत्पन्न होती है ० ।
“भिक्षुओ । यह दुखसमुदय आर्यसत्य कहा जाता है ।
(ग) दुख-निरोघ आर्यसत्य
“कया है, भिक्षुओ । दुखनिरोध आर्यसत्य ॽ जो उसी तृष्णाका सर्वथा निरोध, त्याग=प्रति-निस्सर्ग, मुक्ति=अन्-आलय है । भिक्षुओ । वह तृष्णा कहॉ प्रहीण=निरुद्ध होती है ॽ लोकमे जो प्रिय=सात है, यहॉ वह तृष्णा प्रहीण=निरुद्ध होती है । कया है लोकमें प्रिय सात ॽ चक्षु ०१ धर्मविचार लोकमे प्रिय=सात है, यहाँ वह तृष्णा प्रहीण=निरुद्ध होती है ।
“भिक्षुओ । यह दुखनिरोध आर्यसत्य कहा जाता है ।
(च) दुख-निरोधगामिनी प्रतिषद् आर्यसत्य
“कया है भिक्षुओ । दुखनिरोघगामिनी प्रतिषद् आर्यसत्य ॽ यही आर्य अष्टागिक मार्ग जैसे कि—सम्यगदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यगवचन, सम्यककर्मान्त, सम्यगआजीव, सम्यगव्यायाम, सम्यक्-स्मृति, सम्यकसमाधि । कया है भिक्षुओ । सम्यगदृष्टि ॽ जो दुख-विषयक ज्ञान है, दुखसमुदय-विषयक ज्ञान है, दुख-निरोधविषयक ज्ञान है, दुखनिरोधगामिनीप्रतिषद-विषयक ज्ञान है, भिक्षुओ । यह सम्यग्-दष्टि कही जाती है । कया है, भिक्षुओ । सम्यकसंकल्प ॽ निष्कामता (=अनासकित)का संकल्प, अ-व्यापाद (=अद्रोह)संकल्प, अहिंसासंकल्प, यह भिक्षुओ । सम्यकसंकल्प कहा जाता है । कया है, भिक्षुओ । सम्यगवचन ॽ झूठत्याग, चुगलीत्याग, कटुवचनत्याग, बकवासका त्याग, यह भिक्षुओ । सम्यगवचन कहा जाता है । कया है, भिक्षुओ । सम्यककर्मान्त ॽ हिंसात्याग, चोरीत्याग, व्यभिचारत्याग, यह ० । क्या है, भिक्षुओ । सम्यग्आजीव ॽ भिक्षुओ । आर्यश्रावक मिथ्याआजीव (=झूठी जीविका)को छोळ सम्यग्आजीवसे जीविका चलाता है, यह ० । कया है, भिक्षुओ । सम्यगव्यायाम ॽ भिक्षुओ । यहॉँ भिक्षु अनुत्पन्न पापो=बुराइयो (=अकुशलघर्मो)को न उत्पन्न होने देनेके लिये छन्द (=इच्छा) उत्पन्न करता है, उद्योग करता है, =वीर्यारम्भ करता है, चित्तको रोकता थामता है । उत्पन्न पापो=बुराइयोके नाशके लिये छन्द उत्पन्न करता है ० । अनुत्पन्न सुकर्मो (=कुशलधर्मो)के उत्पादनके लिये छन्द उत्पन्न करता है ० । उत्पन्न कुशलघर्मेोकी स्थिति, अ-नाश, वृघ्द्रि, विपुलता, भावनाकी पूर्णताके लिये छन्द उत्पन्न करता है ० । यह ० । कया है, भिक्षुओ । सम्यकस्मृति ॽ जब भिक्षुओ । भिक्षु ०२ कायामे कायानुपश्यी हो विहरता है । ० चित्तमे चित्तानुपश्यी ० । यह कही जाती है भिक्षुओ । सम्यकस्मृति । कया है, भिक्षुओ । सम्यकसमाधि ॽ भिक्षुओ । यहाँ भिक्षु कामोसे अलग हो, बुराइयोसे
अलग हो वितर्क और विचारयुक्त विवेकसे उत्पन्न प्रीति सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहार करता है । ०१ द्वितीय ध्यान ० । ० तृतीय ध्यान ० । ० चतुर्थ ध्यान ० । यह कही जाती है भिक्षुओ । सम्यक्-समाधि ।
“भिक्षुओ । यह दुखनिरोधगामिनी प्रतिषद् आर्यसत्य कहा जाता है ।
“इस प्रकार भीतरी धर्मोमें धर्मानुपश्यी हो विहरता हें ० ।। अ-लग्न हो विहरता है । लोकमे किसी (वस्तु) को भी (मै और मेरा) करके नही ग्रहण करता । इस प्रकार भिक्षुओ । भिक्षु चार आर्य-सत्य घर्मोमें धर्मानुपश्यी हो विहरता है।
“भिक्षुओ । जो कोई इन चार स्मृति-प्रस्थानोकी इस प्रकार सात वर्ष भावना करे, उसको दो फलोमे एक फल (अवश्य) होना चाहिए—इसी जन्ममें आज्ञा (=अर्हत्व) का साक्षात्कार या २ उपाधि शेष होनेपर अनागामी-भाव । रहने दो भिक्षुओ । सात वर्ष, जो कोई इन चार स्मृति-प्रस्थानो-को इस प्रकार छै वर्ष भावना करे ० । ० पाँच वर्ष ० । ० चार वर्ष ० । ० तीन वर्ष ० । ० दो वर्ष ० । ० एक वर्ष ० । सात मास ० । ० छै मास ० । ० पाँच मास ० । ० चार मास ० । ० तीन मास ० । ० दो मास ० । ० एक मास ० । ० अर्द्ध मास ० । ० सप्ताह ० ।
“भिक्षुओ । ‘वह जो चार स्मृति-प्रस्थान है, वह सत्त्वोकी विशुद्धिके लिए, शोक-कष्टके विनाशके लिए, दुख दीर्मनस्यके अतिक्रमणके लिये, न्याय (=सत्य) की प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात् करनेके लिये, एकायन मार्ग है ।’ यह जो (मैने) कहा, इसी कारणसे कहा ।”
भगवानने यहा कहा, सन्तुष्ट हो, उन भिक्षुओने भगवानके भाषणको अभिनन्दित किया ।३
१—इति मूलपरियायवग्ग (१।१)