दीध-निकाय
23. पायासिराजञ्ञ-सुत्त (२।१०)
परलोकवादका खंडन-मंडन । १—मरनेके साथ जीवन उच्छिन्न—(१) मरे नही लौटते; (२) धर्मात्मा आस्तिकोको भी मरनेकी अनिच्छा, (३) मृत शरीरसे जीवके जानेका चिन्ह नही । २—मत त्यागमें लोक-लाजका भय । ३―सत्कार रहित यज्ञका क्म फल ।
ऐसा मैने सुना—एक समय आयुष्मान् कुमार कस्सप (कुमार काश्यप) कोसल देशमे पॉचसौ भिक्षुओके बळे संघके साथ विचरते, जहॉ सेतव्या (=श्वेताबी) नामक कोसलोका नगर था, वहाँ पहुँचे । वहाँ आयुष्मान् कुमार काश्यप सेतव्यामे सेतव्याके उत्तर सिंसपावनमे विहार करते थे ।
परलोकवादका खंडन मंडन
उस समय पायासी राजन्य (=राजञ्ञ, माण्डलिक राजा) जनाकीर्ण, तृण-काष्ट-उदक-धान्य-सपन्न राज-भोग्य कोसलराज प्रसेनजित द्धारा दत्त, राज-दाय,ब्रह्मदेय सेतव्याका स्वामी होकर रहता था ।
१—मरनेके साथ जीवन उच्छिन्न
उस समय पायासी राजन्यको इस प्रकारकी बुरी धारणा उत्पन्न हुई थी—यह (लोक) भी नही है, परलोक भी नही है, जीव मर कर पैदा नही होते, अच्छे और बुरे कर्मोका कोई भी फल नही होता ।
सेतव्याके ब्राह्मण-गृहस्थाने सुना—श्रमण गौतमको श्रावक (=शिष्य) श्रमण कुमार कस्सप कोसल देशमे पॉचसौ भिक्षुओके बळे संघके साथ ० सिसपावनमे विहार करते है । उन आप कुमार काश्यपकी ऐसी क्ल्याणमय कीर्ति फैली है—वह पंडित=व्यक्त, मेघावी, बहुश्रुत, मनकी बातको कहनेवाले, अच्छी प्रतिभावाले, ज्ञानी, और अर्हत् है । इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है। तब सेतव्याके ब्राह्मण गृहस्थ सेतव्यासे निकलकर, झुंड बॉधकर इकट्ठे उत्तरकी ओर जहाँ सिंसपावन था उस ओर जाने लगे ।
उस समय पायासी राजन्य दिनमे आराम करनेके लिये प्रासादके ऊपर गया हुआ था । पायासी-राजन्यने उन ब्राह्मण गृहस्थोको ० जाते हुए देखा । देखकर अपने क्षत्ता (=प्राइवेट सेक्रेटरी) को संबोधित किया—
“क्यो क्षत्ता । ये सेतव्याके ब्राह्मण गृहस्थ ० सिसपावनकी ओर क्यो जा रहे है ?”
“मो । श्रमण कुमार काश्यप श्रमण गौतमको श्रावक ० सेतव्यामे आये हुए है ० । उन कुमार कस्सपकी ऐसी ० कीर्ति फैली है—वह पण्डित, व्यकत ० । उन्ही कुमार कस्सपके दर्शनके लिये ० जा रहे है ।
“तो क्षत्ता । जहाँ सेतव्याके ब्राह्मण गृहस्थ है वहाँ जाओ । जाकर ० ऐसा कहो—पायासी राजन्य आप लोगोको ऐसा कहता है— आप लोग थोळा ठहरे । पायासीराजन्य भी ० दर्शनार्थ चलेगे । श्रमण
कुमार काश्यप सेतव्याके ब्राह्मण-गृहस्थोको बाल (=मूर्ख)=अव्यक्त समझ (कर कहता) है—यह लोक भी है, परलोक भी है, जीव मरकर होते भी है, अच्छे और बुरे कर्मोके फल भी है । (किन्तु यथार्थमे)—क्षत्ता । यह लोक नही है, परलोक नही है ० ।”
“बहुत अच्छा”—कहकर क्षत्ता ० वहाँ गया । जाकर बोला—“पायासी राजन्य आप लोगोको यह कह रहा है—आप लोग थोळा ठहरे ० ।
तब पायासी राजन्य सेतव्याके ब्राह्मण-गृहस्थोको साथ ले जहाँ सिंसपावनमे आयुष्मान् कुमार काश्यप थे वहाँ गया । जाकर आयुष्मान् काश्यपके साथ कुशल-क्षेम पूछनेके बाद एक ओर बैठ गया ।
सेतव्याके ब्राह्मण-गृहस्थोमे, कितने ० कुमार काश्यपको अभिवादन करके एक ओर बैठ गये, कितने० कुशल-क्षेम पूछनेके बाद एक ओर बैठ गये, कितने कुमार काश्यपकी ओर हाथ जोळकर एक और बैठ गये, कितने अपने नाम-गोत्र को सुना कर एक ओर बैठ गये, कितने चुपचाप एक ओर बैठ गये ।
एक ओर बैठे हुए पायासी राजन्यने आयुष्मान् कुमार काश्यपसे यह कहा—“हे काश्यप । मै ऐसी दृष्टि, ऐसे सिद्धान्तको माननेवाला हूँ—यह लोक भी नही है, परलोक भी नही ० ।”
“राजन्य । पहले ऐसी दृष्टि और ऐसे सिद्धान्तके माननेवालेको मैने न तो देखा था और न सुना था । तुम कैसे कहते हो—यह लोक भी नही है ० । तो राजन्य । तुम्हीसे पूछता हूँ, जैसा तुम्हे सूझे वैसा उत्तर दो—राजन्य । तो क्या समझते हो, ये चाँद और सूरज क्या इसी लोकमे है या परलोकमे, मनुष्य है या देव ॽ”
“हे काश्यप । ये चाँद और सूरज परलोकमे है, इस लोकमे नही, देव है, मनुष्य नही ।”
“राजन्य । इस तरह भी तुम्हे समझना चाहिये—यह लोक भी है, परलोक भी ० ।”
“हे काश्यप । चाहे आप जो कहे, मै तो ऐसा ही समझता हूँ—यह लोक भी नही ० ।”
“राजन्य । क्या कोई तर्क है जिसके बलपर तुम ऐसा मानत हो—यह लोक नही ० ।ॽ”
“हे काश्यप । है ऐसा तर्क, जिसके बलपर मै ऐसा मानता हूँ—यह लोक नही ०”
“राजन्य । वह कैसे ॽ”
(१) मरे नहीं लौटते
१—“हे काश्यप । मेरे कितने मित्र अमात्य, और एक ही खूनवाले बन्धु है जो जीव-हिसा करते है, चोरी करते है, दुराचार करते है, झूठ बोलते है, चुगली खाते है, कठोर बात बोलते है, निरर्थक प्रलाप करते रहते है, दूसरेके प्रति द्रोह करते है, द्वेष चित्तवाले तथा बुरे सिद्धान्तोके माननेवाले है । वे कुछ दिनोके बाद रोग-ग्रस्त हो बहुत बीमार पळ जाते है । जब मै समझ जाता हूँ कि वे इस बीमारीसे नही उठेगे, तो मै उनके पास जाकर ऐसा ‘कहता हूँ—कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण ऐसी दृष्टि, ऐसे सिद्धान्तको माननेवाले है—जो जीवहिंसा करते है, चोरी करते है ० वे मरनेके बाद नरकमे गिरकर दुर्गतिको प्राप्त होते है । आप लोग तो जीवहिंसा करते थे, चोरी करते थे ० । यदि उन श्रमण और ब्राह्मणोका कहना सच है, तो आप लोग मरनेके बाद नरकमे गिरकर दुर्गतिको प्राप्त होगे । यदि आप लोग मरनेके बाद ० प्राप्त हो तो मुझसे आकर कहे—यह लोक भी है, परलोक भी ० । आप लोगोके प्रति मेरी श्रद्धा और विश्वास है । आप लोग जो स्वय देखकर मुझसे आकर कहेगे मै उसे वैसा ही ठीक समझूँगा ।’
“बहुत अच्छा” कहकर भी वे न तो आकर (स्वय) कहते है और न किसी दूतको ही भेजते है । हे काश्यप । यह एक कारण है जिससे मै ऐसा समझता हूँ—यह लोक भी नही है, परलोक भी नही ० ।”
“राजन्य । तब तुम्हीसे पूछता हूँ ० । तो क्या समझते हो राजन्य । (यदि) तुम्हारे नौकर एक चोर या अपराघीको पकळकर दिखावे—यह चोर या अपराघी है, आप जैसा उचित समझे इसे दण्ड दे । (तब) तुम उन लोगोको ऐसा कहो—इस पुरुषको एक मजबूत रस्सीसे हाथ पीछे करके कसकर बाँघ, शिर मुँळवा, धोषणा करते एक सळकसे दुसरी सळक, एक चौराहेसे दुसरे चौराहे ले जाकर, दक्खिन द्वारसे निकाल, नगरसे दक्खिन बघ्यस्थानमे इसका शिर काट दो ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे उस पुरुषको एक मजबुत रस्सीसे ० वघ्यस्थानमे ले जावे । तब चोर उन जल्लादोसे कहे—‘हे जल्लादो । हे जल्लादो । इस ग्राम या निगममे मेरे मित्र, अमात्य और रक्तसबघी रहते है, आप लोग तब तक ठहरे, जब तक मै उनसे भेट कर लूँ ।’ तो कया उसके ऐसा कहते रहनेपर भी जल्लाद उसका शिर नही काट देगे ?”
“हे काश्यप । यदि चोर जल्लादोको कहे ० तो भी उसके ऐसा कहते रहनेपर भी जल्लाद उसका शिर काट देगे ।”
“राजन्य । जब वह चोर मनुष्य-जल्लादोसे भी छुट्टी नही ले सकता—हे जल्लादो । आप लोग ठहरे ०—तो तुम्हारे मित्र अमात्य, रक्तसबधी, जीवहिसा करनेवाले, चोरी करनेवाले ० मरनेके बाद नरकमे पळकर दुर्गतिको प्राप्त हो कैसे नरकके यमोसे छुट्टी ले सकेगे—आप लोग ठहरे, जब तक मै पायासीराजन्यके पास जाकर कह आऊँ—यह लोक भी है, परलोक भी ० ? इसलिये भी राजन्य । तुम्हे समझना चाहिये—यह लोक भी है, परलोक भी ० ।”
“हे काश्यप । आप चाहे जो कहे मै तो यही समझता हूँ—यह लोक भी नही ० ।
२—“राजन्य । कोई तर्क है जिसके बलपर तुम ऐसा समझते हो—यह लोक भी नही ० ?”
“हे काश्यप । ऐसा तर्क है जिसके बलपर मै ऐसा समझता हूँ—यह लोक भी नही ० । हे काश्यप । मेरे कीतने मित्र, अमात्य ० जीवहिंसासे विरत रहते है, चोरी करनेसे विरत रहते है, दुराचारसे विरत रहते है ० और अच्छे सिद्धान्तोको माननेवाले है । वे कुछ दिनोको बाद रोगग्रस्त हो बहुत बीमार पळ जाते है । जब मै समझता हूँ कि वे इस बीमारीसे नही उठेगे तो ० ऐसा कहता हूँ — कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण ऐसा कहते है—जो जीवहिसासे विरत रहते ० वे मरनेके बाद स्वर्गमे उत्पन्न हो सुगतिको प्राप्त होते है । आप लोग तो जीवहिंसासे विरत ० रहते थे । यदी उन श्रमण और ब्राह्मणोका कहना ठीक है, तो आप लोग ० सुगतिको प्राप्त होगे । यदि ० सुगतिको प्राप्त हो तो आकर मुझसे कहेगे—यह लोक भी है, परलोक भी ० । आप लोगोके प्रति मेरी श्रद्धा और विश्वास है । आप लोग स्वय देखकर जो कहेगे मै उसीको ठीक समझूँगा ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर भी न तो वे आकर स्वय कहते है और न किसी दूतको ही भेजते है । हे काश्यप । इसी कारणसे मै ऐसा समझता हूँ—यह लोक भी नही है ० ।”
“राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ । उपमासे भी कीतने चतुर लोग बातको झट समझ जाते है —राजन्य । मान लो कि कोई मनुष्य चोटी तक सडासमे डूबा हो । तुम अपने नौकरोको आज्ञा दो—‘उस पुरुषको उस सडाससे निकाल दो ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे उस पुरुषको उस सडाससे निकाल दो । उन (नौकरो) को तुम फिर भी कहो—‘उस पुरुषके शरीरको बाँसके टुकळोसे अच्छी तरह साफ करो ।’ ० वे साफ कर दे । उनको तुम फिर भी कहो—‘उस पुरुषके शरीरको पीली मिट्टीसे तीन बार अच्छी तरह उबटन लगा लगाकर साफ करो’ । ० वे साफ करे । उनको तुम फिर भी कहो—‘उस पुरुषके शरीरमे तेल लगाकर पतला स्नान चूर्ण तीन बार लगाकर नहलाओ’ । ० वे नहला दे । उनको तुम फिर भी कहो—‘इस पुरुषके शिर दाढीको मूँळ दो’ । वे मूँळ दे । उनको तुम फिर भी कहो—‘इस पुरुषके लिये अच्छी अच्छी मालाये, अच्छा उबटन और अच्छा अच्छा वस्त्र ले आओ’ । ० वे ले आवे । उनको तुम फिर भी कहो—‘कोठेपर ले जाकर पॉच भोगो (=कामगुणो) से इस पुरुषको सेवित करो’ । ० वे सेवित करो ।
“तो राजन्य । कया समझते हो—अच्छी तरह नहाये, अच्छी तरह ० उबटन लगाये, अच्छी तरह क्षौर किये, माला पहने, साफ वस्त्र घारण किये तथा कोठेपर पाँच भोगोसे सेवित उस पुरुषको फिर भी उसी सडासमे डूबनेकी इच्छा होगी ॽ”
“हे काश्यप । नही ।”
“सो, कयो ॽ”
“हे काश्यप । सडास (=गूथकूप) अपवित्र है, मैला है, दुर्गन्घसे भरा है, घृणित है और मनके प्रतिकूल है ।”
“राजन्य । इसी तरह मनुष्ययोनि देवोके लिये अपवित्र, ० है । राजन्य । एक सौ योजनकी दूरहीसे देवोको मनुष्यकी दुर्गन्घि लगती है । तब भला तुम्हारे मित्र, अमात्य ० स्वर्गलोकमे उत्पन्न हो सुगतिको प्राप्तकर फिर (लौटकर) तुमसे कहनेके लिये कैसे आवेंगे—यह, लोक भी है, परलोक भी ० ॽ
“राजन्य । इस कारणसे भी तुम्हे समझना चाहिये—यह लोक भी है, परलोक भी ० ।”
“हे काश्यप । चाहे आप जो कहे, मै तो ऐसा ही समझता हूँ—यह लोक भी नही, परलोक भी नही०।”
३—“राजन्य । कोई तर्क ० ॽ”
“हे काश्यप । ऐसा तर्क है ० ।”
“राजन्य । वह कया ॽ”
“हे काश्यप । मेरे मित्र, अमात्य ० जीवहिसासे विरत रहनेवाले ० है । ० जब मै समझता हूँ कि इस बीमारीसे ये नही उठेगे तो उनके पास जाकर ऐसा कहता हूँ—
‘कितने श्रमण और ब्राह्मण ऐसा ० जो जीवहिसासे विरत ० वे सुगति प्राप्त करते है । और आप लोग जीवहिसासे विरत रहनेवाले ० है । यदि उन०का कहना सच होगा आप लोग ० सुगति प्राप्त करेगे । यदि मरनेके बाद आप लोग ० सुगति प्राप्त करे तो मेरे पास आकर कहे—यह लोक भी है, पर-लोक भी ०। मेरे प्रति ० । वे न तो स्वय आकर ० ।
“हे काश्यप । इस कारणसे०—यह लोक भी नही, परलोक भी नही ० ।
“राजन्य । तब तुम्हीको मै पूछता हूँ ० । राजन्य । जो मनुष्योका सौ वर्ष है, वह त्रायस्त्रिश देवोके लिये एक रात-दिन है, वैसी तीस रातका एक मास होता है, वैसे बारह मासका एक सवत्सर (वर्ष) होता है, वैसे-देव-सहस्त्र वर्ष त्रायस्त्रिश देवोका आयुपरिमाण है । जो तुम्हारे ० मित्र, अमात्य मरनेके बाद त्रायस्त्रिश देवोके साथ स्वर्गमे उत्पन्न हो सुगतिको प्राप्त हुए है । उन लोगोके मनमे यदि ऐसा हो, जब तक हम लोग दो या तीन रात दिन पाँच दिव्य भोगोका सेवन कर ले, फिर हम पायासी राजन्यके पास जाकर कह आवेगे—यह लोक भी है, परलोक भी ० । और वे आकर कहे—यह लोक भी है, परलोक भी ० ।”
“हे काश्यप । ऐसा नही, तब तक तो हम लोग बहुत पहले ही मर चुके रहेगे । आप काश्यपसे कौन कहता है, कि तावतिस ऐसे दीर्घायु देव है, ॽ मै आप काश्यपमे विश्वास नही करता कि इस प्रकारके दीर्धायु तावतिस देव है ।”
“राज्नय । जैसे कोई जन्मान्घ पुरुष न काला और न उजला देखे, न नीला, न पीला, न लाल, न मजीठ, न ऊँचा नीचा, न तारा, न चाँद और न सूरज देखे । वह ऐसा कहे—न काला है न उजला है न पीला ० न सूरज है और न उनको देखनेवाला कोई है । मै उसे नही जानता, मै उसे नही देखता, इसलिये वह नही है । राजन्य । क्या उसका कहना ठीक होगा ॽ”
“है काश्यप । ऐसा नही । काला, उजला, पीला ० है और उनको देखनेवाला भी है । ‘मै उसे नही जानता हूँ, मै उसे नही देखता हूँ, इसलिये वे नही है’—ऐसा कहनेवाला हे काश्यप । ठीक नही कहता है।”
“राजन्य । मै समझता हूँ कि तुम भी उसी जन्मान्धके ऐसे हो जो मुझे ऐसा कहते हो―हे काश्यप । आपसे कौन कहता है ० । राजन्य । जैसा तुम समझते हो, परलोक वैसा इसी मासकी ऑखोसे नही देखा जा सकता । राजन्य । जो श्रमण ब्राह्मण निर्जन वनोमे एकान्तवास करते है, वे वहॉ प्रसन्न-चित्त हो सयमसे रहते दिव्यचक्षुको पाते है । वे अलौकिक दिव्यचक्षुसे इस लोकको, परलोकको ० देखते है । राजन्य । इस तरह परलोक देखा जाता है, न कि इस मासवाली आँखोसे, जैसा कि तुम समझते हो । राजन्य । इस कारणसे भी तुम्हे समझना चाहिए―यह लोक है, परलोक है ० ।”
“हे काश्यप । आप चाहे जो कहे ० ।”
(२) घर्मात्मा आस्तिकोंको भी मरनेकी अनिच्छा
“राजन्य । कोई तर्क ० ?” “हे काश्यप । ऐसा तर्क है ० ।”
“राजन्य । वह क्या ?”
“है काश्यप । मै ऐसे सदाचारी तथा पुण्यात्मा (=कल्याणधमि) श्रमण ब्राह्मणोको देखता हूँ, जो जीनेकी इच्छा रखते है, मरनेकी इच्छा नही रखते, दुखसे दूर रह सुख चाहते है । हे काश्यप । तब मेरे मनमे यह होता है―यदि ये सदायारी, पुण्यात्मा श्रमण ब्राह्मण यह जानते कि मरनेके बाद हमारा श्रेय होगा, तो वे ० इसी समय विष खा, छुरा भोक, गला-घोट, गळहेमे गिरकर (आत्मघात) कर लेते । चूँकि ये सदाचारी पुण्यात्मा श्रमण और ब्राह्मण ऐसा नही जानते, कि मरकर उनका श्रेय होगा, इसी लिये वे ० (आत्मघात) नही करते । यह भी काश्यप । ० न यह लोक, न पर-लोक ० ।”
“राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ । उपमासे भी कितने चतुर लोग झट वातको समझ जाते है । राजन्य । पुराने समयमे एक ब्राह्मणकी दो स्वियॉ थी । एकको दस या बारह वर्षका एक लळका था और दुसरी गर्भवती थी । इतनेमे वह ब्राह्मण मर गया । तब उस लळकेने अपनी माँकी सौतसे यह कहा―जो यह धन, धान्य और सोना चाँदी है सभी मेरा है । तुम्हारा कुछ नही है । यह सब मेरे पिता का तर्का (=दाय) है । उसके ऐसा कहने पर ब्राह्मणी बोली―तबतक ठहरो जबतक मै प्रसव कर लूँ । यदि वह लळका होगा तो उसका भी आघा हिस्सा होगा, यदि लळकी होगी तो उसे भी तुम्हे पालना होगा ।
“दुसरी बार भी उस लळकेने अपनी मॉकी सौतसे यह कहा―जो यह घन ० ।
“दूसरी बार भी ब्राह्मणी बोली―तबतक ठहरो ० ।
“तीसरी बार भी ० ।
“तब उस ब्राह्मणीने (यह सोच) छुरा ले, कोठारीमे जा अपना पेट फाळ डाला, कि अभी प्रसव करना चाहिये, चाहे लळका हो या लळकी । (इस प्रकार) वह स्वय मर गई और गर्भ भी नष्ट हो गया ।
“जिस प्रकार बुरी तरहसे दायकी इच्छा रखनेवाली वह मर्ख अजान स्त्री नाशको प्राप्त हुई, तुम भी परलोककी इच्छा रखते मूर्ख, अजान हो उसी तरह नाशको प्राप्त होगे, जैसे कि वह ब्राह्मणी ० ।
“राजन्य । इसीलिये वे ० श्रमण ब्राह्मण अपरिपक्व को नही पकाते, बल्कि पण्डितोकी तहर परिपाककी प्रतीक्षा करते है । राजन्य । उन ० श्रमण ब्राह्मणोको जीनेमे मतलब है । वे ० जितना अघिक जीते है उतना ही अघिक पुण्य करते है । लोगोके हितमे लगे रहते है, लोगोंके सुखमें लगे रहते है ।
“राजन्य । इस कारणसे भी तुम्हे समझना चाहिये ० ।”
“हे काश्यप । चाहे आप जो कहे, ० यह लोक नही ० ।
१—“राजन्य । कोई तर्क ० ॽ” “हे काश्यप । ऐसे तर्क है ० ।”
“राजन्य । वह क्या ॽ”
(३) मृत शरीरसे जीवके जानेका चिन्ह नहीं
“हे काश्यप । मेरे नौकर लोग चोरको पकळकर मेरे पास ले आते है—‘स्वामिन् । यह आपका चोर है, इसे जो उचित समझे दण्ड दे ।’ उन्हे मै ऐसा कहता हूँ—‘तो इस पुरुषको जीते जी एक बळे हडेमे डाल, मुँह बदकर, गीले चमळेसे बाँघ गीली मिट्टी लेपकर चुल्हेपर रख ऑच लगावो ।’
‘बहुत अच्छा’ कह वे उस पुरुषको ० आँच लगाते है ।
“जब मै जान लेता हूँ कि वह पुरुष मर गया होगा तब मै उस हडेको उतार, धीरेसे मुँह खोलकर देखता हूँ, कि उसके जीवको बाहर निकलते देखूँ, कितु उसके जीवको निकलते हुये नही देखता । हे काश्यप । इस कारणसे भी ० यह लोक भी नही ० ।
“राजन्य । तब मै तुम्हीसे पूछता हूँ ० ।
“राजन्य । दिनमे सोते समय क्या तुमने कभी स्वप्नमे रमणीय आराम, रमणीय वन, रमणीय भूमि या रमणीय पुष्करिणी नही देखी है ॽ”
“हे काश्यप । हाँ, दिनमे ० रमणीय पुष्करिणी देखी है ।”
“उस समय कुबळे भी, बौने भी, स्त्रियॉ भी, कुमारियाँ भी क्या तुम्हारे पहरेमे नही रहती ॽ”
“हे काश्यप । हॉ, उस समय ० पहरेमे रहती है ।”
“वे क्या तुम्हारे जीवको (उद्यानके लिये) निकलते और भीतर आते देखते है ॽ”
“नही, हे काश्यप ।”
“राजन्य । जब वे तुम्हारे जीते हुयेके जीवको निकलते और भीतर आते नही देख सकते, तो तुम मरे हुयेके जीवको निकलते या भीतर आते कैसे देख सकते हो ॽ”
“राजन्य । इस कारणसे भी ० यह लोक है ० ।”
“हे काश्यप । चाहे आप जो कहे ० ० ।”
२—“राजन्य । कोई तर्क ० ॽ”
“हे काश्यप । ऐसा तर्क है ० ।”
“० वह कया ॽ”
“हे काश्यप । मेरे नौकर चोरको ० । उन्हे मै ऐसा कहता हूँ—इस पुरुषको (पहले) जीते जी तराजूपर तौलकर, रस्सीसे गला घोटकर मार दो, और फिर तराजूपर तौलो । ‘बहुत अच्छा’ कहकर ० वे तौलते है । जब वह जीता रहता है तो हलका होता है, किंतु मरकर वही लोथ भारी हो जाती है ।
“हे कस्सप । इस कारणसे भी ० यह लोक नही ० ।”
“राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ ० । राजन्य । जैसे कोई पुरुष किसी सतप्त, आदीप्त, सप्रज्बलित दहकते हुये लोहेके गोलेको तराजूपर तौले, और फिर कुछ समयके बाद उसके ठडा हो जाने पर उसे तौले । तो वह लोहेका गोला कब हलका होगा ॽ जब आदीप्त है तब, या जब ठडा हो गया है तब ॽ”
“हे काश्यप । जब वह लोहेका गोला अग्नि और वायुके साथ हो, आदीप्त होता है ०, तब हलका होता है । जब वह लोहेका गोला अग्नि और वायुके साथ नही होता, तो ठडा और बुझा भारी हो जाता है । राजन्य । इसी तरहसे जब यह शरीर आयुके साथ, श्वासके साथ, विज्ञानके साथ रहता है, तो हलका होता है । जब यह शरीर आयु ० श्वास ० विज्ञानके साथ नही ० रहता है तो भारी हो जाता है ।
“राजन्य । इस कारणसे भी ० यह लोक है ० ।”
“हे काश्यप । आप चाहे जो कहे ० ।”
३—“राजन्य । कोई तर्क ० ॽ”
“हे काश्यप । ऐसा तर्क है ० ।”
“० वह कया ॽ”
“हे काश्यप । मेरे नौकर चोरको ० । उन्हे मै ऐसा कहता हूँ—इस पुरुषको बिना मारे चमळा, मास, स्नायु, हड्डी और मज्जा अलग अलग कर दो, जिससे मै उसके जीवको निकलते देख सकूँ ।
‘बहुत अच्छा’ कह वे ० अलग अलग कर देते है । जब वह मरणासन्न होता है, तो मै उनमे ऐसा कहता हूँ—इसको चित सुला दो, जिसमे कि मै इसके जीवको निकलते देख सकूँ । वे उस पुरुषको चित सुला देते है कितु हम उसके जीवको निकलते नही देखते ।
“फिर भी उन नौकरोको मै ऐसा कहता हूँ—इसे पट ०, करवट ०, दूसरी करवट ० , ऊपर खळा करो, हाथसे पीटो, ढेलासे मारो, लाठीसे मारो, शस्त्रसे मारो, हिलाओ डुलाओ, जिसमे कि मै इसके जीव ० । वे उस पुरुषको ० किंतु हम उसके जीवको निकलते नही देखते ।
“उसकी वही आँखे रहती है, वही रूप रहते है, वही आयतन, किंतु देख नही सकता । वही श्रोत्र ०, वही शब्द ० किंतु सुन नही सकता । वही नासिका ०, वही गन्घ ० किंतु सूँघ नही सकता । वही जिह्वा०, वही रस ० किंतु चख नही सकता । वही शरीर ०, वही स्प्रष्टव्य ० किंतु स्पर्श नही कर सकता ।
“हे कस्सप । इस कारण भी ० यह लोक नही ० ।”
“राजन्य । तो एक उपमा कहता हूँ ० । राजन्य । बहुत दिन हुये कि एक शख बजानेवाला शख लेकर नगरसे बाहर, जहाँ एक ग्राम था वहाँ गया । जाकर बीच गाँवमे खळा हो तीन बार शख बजा, शखको जमीनपर रख, एक ओर बैठ गया । राजन्य । तब उन सीमान्त देशके लोगोके मनमे यह हुआ—अरे । ऐसा रमणीय, सुन्दर, मदनीय, चित्ताकर्षक और मोहित करनेवाला शब्द किसका है ॽ वे सभी इकट्ठे होकर शख बजानेवालेसे बोले—अरे । ऐसा ० शब्द किसका है ॽ”
‘यही शख है जिसका ऐसा ० शब्द है ।’
“उन लोगोने उस शखको चित रख दिया—हे शख, बजो, बजो । किंतु शख नही बजा । उन लोगोने उस शखको पट, करवट ० । किंतु शख नही बजा ।
“राजन्य । तब शख बजानेवालेके मनमे यह आया—गाँवके रहनेवाले बळे मूर्ख है । इन्हे ठीक तरहसे शख बजाना नही आता ॽ उसने उन लोगोके देखते देखते शखको उठा, तीन बार बजा, वहाँसे चल दिया ।
“राजन्य । तब उस गाँववालोके मनमे यह आया—जब यह शख पुरुष, व्यायाम, और वायुके साथ होता है तब बजता है । जब यह शख न पुरुषके साथ, न व्यायामके साथ और न वायुके साथ होता है, तब नही बजता ।”
“राजन्य । उसी तरहसे जब यह शरीर आयुके साथ, श्वासके साथ, और विज्ञानके साथ होता है तब हिलता, डोलता, खळा रहता, बैठता, और सोता है । चक्षुसे रूप देखता है, कानसे शब्द सुनता है, नाकमे गघ सूँघता है, जिह्वासे रसका आस्वादन करता है, शरीरमे स्पर्श करता है तथा मनसे घम्मॉको जानता है । जब यह शरीर न आयुके साथ ० होता है, तब न हिलता न डोलता ० ।
“राजन्य । इस कारणसे भी ० यह लोक है ० ।”
“हे काश्यप । चाहे आप जो कहे ०।”
४-० “राजन्य । वह कैसे ॽ”
“हे काश्यप । मेरे नौकर चोरको ० । उन्हे मै ऐसा कहता हूँ—इस पुरुषकी खाल उतार लो, जिसमे कि मै उसके जीवको देख सकूँ । वे ० खाल उतारते है, किन्तु हम लोग उसके जीवको नही देखते । फिर भी उन्हे मै कहता हूँ—इसका मास, स्नायु, हड्डी और मज्जा काट डालो, जिसमे कि मै इसके जीवको देख सकूँ । वे उस पुरुषके मास०को काट डालते है, किन्तु हम लोग उसके जीवको नही देखते ।
“हे काश्यप । इस कारणसे भी ० यह लोक नही है ० ।”
“राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ ० । पुराने समयमे कोई अग्नि-उपासक जटिल (=जटाघारी) जगलके बीच पर्णकुटीमे रहता था । राजन्य । तब उस प्रदेशमे व्यापारियोका एक सार्थ (=कारवॉ) आया । वे व्यापारी उस अग्नि-उपासक जटिलके आश्रमके पास एक रात रह कर चले गये । राजन्य । तब अग्नि-उपासक जटिलके मनमे यह हुआ—जहाँ इन व्यापारियोका मालिक है वहाँ चलूँ, इन लोगोसे कुछ सामान मिलेगा । तब वह ० जटिल उठकर जहॉ बजारोका मालिक था वहॉ गया । जाकर उस बजोरोके आवास (=टिकनेके स्थान)मे एक छोटे, उतान ही लेट सकनेवाले बच्चेको छूटा पाया । देखकर उसके मनमे यह हुआ—यह मेरे लिये उचित नही है कि कोई मनुष्यका बच्चा मेरे देखते मर जाये । अत इस बच्चेको अपने आश्रममे ले जा, और पाल-पोषकर बळा करना चाहिये । तब उस जटिलने उस बच्चेको अपने आश्रममे ले जा, पालपोषकर बळा किया ।
“जब वह लळका दस या बारह वर्षका हुआ तब उस जटिलको देहात (=जनपद)मे कुछ काम पळा । तब वह जटिल उस लळकेसे यह बोला—तात । मै देहात जाना चाहता हूँ, तुम अग्निकी सेवा करना । अग्नि बुझने न पाये । यदि अग्नि बुझे तो यह कुल्हाळी है, ये लकळियाँ, ये दोनो अरणी है, अग्नि उत्पन्न करके फिर अग्निकी सेवा करना । तब उस (लळके) के खेलमे लगे रहनेसे (एक दिन) आग बुझ गई । उस लळकेके मनमे यह हुआ—पिताने मुझे ऐसा कहा था—हे तात । अग्निकी सेवा करना, अग्नि बुझने न पावे । यदि अग्नि बुझे तो यह कुल्हाळी ० । अत मुझे अग्नि उत्पन्नकर, अग्निकी सेवा करनी चाहिये ।
“तब उस लळकेने अग्नि निकालनेके लिये कुल्हाळीसे दोना अरणियोको फाळ डाला । किन्तु अग्नि नही निकली । अरणियोको दो टुकडोमे, तीन टुकळोमे ० पाँच टुकळोमे, दस टुकळोमे, सौ टुकळोमे काट डाला, फिर उन टुकळोको ओखलमे कूट डाला, ओखलमे कूटकर हवामे उळा दिया जिसमे कि अग्नि निकले । अग्नि नही निकली ।
“तब वह जटिल जनपदमे अपना काम समाप्तकर, जहॉ अपना आश्रम था वहाँ आया । आकर उस लळकेसे बोला—तात । अग्नि बुझी तो नही ॽ” ‘हे तात । खेलमे लग जानेके कारण अग्नि बुझ गई । तब मेरे मनमे यह आया—पिताने मुझे ऐसा कहा था—तात । अग्निकी सेवा करना ० । अत अग्नि उत्पन्नकर अग्निकी सेवा करनी चाहिये । तब अरणियोको मैने दो टुकळोमे ० अग्नि नही निकली ।’
“तब उस जटिलके मनमे यह आया—यह बालक नादान, मूर्ख है । कैसे ठीकसे अग्नि उत्पन्न करेगा । उसके देखते देखते उसने अरणियोको ले, अग्नि उत्पन्न कर, उस लळकेसे कहा—तात । अग्नि इस प्रकार उत्पन्न होती है, न कि उस बेढगे तरीकेसे जिससे कि तुम अग्निको खोज रहे थे ।
“राजन्य । तुम भी उसी तरह बाल और अजान होकर अनुचित प्रकारसे परलोककी खोजकर रहे हो । राजन्य । इस बुरी धारणाको छोळो, जिससे कि तुम्हारा भविष्य अहित और दुखके लिये न होवे ।”
२—मतत्यागमें लोकलाजका भय
१—“आप काश्यप । जो कहे, किन्तु मै इस बुरी धारणाको नही छोळ सकता हूँ । कोसलराज प्रसेनजित् और दूसरे राजा भी जानते है कि पायासी राजन्य इस दृष्टि इस सिद्धान्तका माननेवाला है—यह लोक भी नही ० ।
“हे काश्यप । यदि मै इस बुरी घारणाको छोळ दूँ, तो लोग मुझे ताना देगे—पायासी-राजन्य मूर्ख, अजान भ्रममे पळा हुआ था । मै को कोघसे भी, अमरखसे भी, निष्ठुरतासे भी इसे लिये रहूँगा ।”
“राजन्य । तो मै एक उपमा ० । पुराने समयमे बहुतसे बजारे एक हजार गाळियोके साथ पूर्व देश (=जनपद)से पश्चिम देश (=जनपद)से पश्चिम देश (=जनपद)को जा रहे थे । वे जिस जिस मार्गसे जाते शीघ्र ही तृण, काष्ठ और हरे पत्तोको नष्ट कर देते थे । उस सार्थ (=कारवॉ)मे पॉच पाँच सौ गाळियोके दो मालिक थे । तब उन दोनोके मनमे यह हुआ—हम बजारोका, एक हजार गाळियोके साथ यह बहुत बळा सार्थ है । हम लोग जिस जिस रास्तेसे जाते है ० । तो हम लोग इस समुहको दो भागोमे बॉट दे । एकमे पाँच सौ गालियॉ और दुसरे मे पाँच सौ गाळियॉ । उन लोगोने उस सार्थको दो भागोमे बॉट दिया ।
“बजारोका एक मालिक बहुत-सा तृण, काष्ठ और जल साथमे ले एक ओर चल पळा । दो तीन दिन जानेके बाद उसने एक काले, लाल ऑखोवाले, तीर धनुष लिये, कुमुदकी माला पहने, भीगे कपळे और भीगे केशके साथ, कीचळ लगे हुए चक्कोवाले एक सुन्दर रथपर सामनेसे आते हुये एक पुरुषको देखा । देखकर यह बोला—‘आप कहॉसे आते है ॽ’
‘अमुक जनपदसे ।’
‘आप कहॉ जायेगे ॽ’
‘अमुक जनपदको ।’
‘कया अगले कान्तारमे बळी वृष्टि हुई है ॽ’
‘हॉ अगले कान्तारमे बळी वृष्टि ० । मार्ग पानीसे भर गये है । बहुत तृण, काष्ठ और उदक है । आह लोग अपने पुराने तृण, काष्ठ और उदकके भारको यही फेक दे । हल्की गाळियोको ले जल्दी जल्दी आगे जाये, बैलोको व्यर्थ कष्ट मत दे ।’
“तब वह बजारोका मालिक बजारोसे बोला—‘यह पुरुष ऐसा कहता है—आगेवाले कान्तारमे ० बैलोको कष्ट मत दे । आप लोग पुराने तृण०को यही छोळ दे । गाळियोको हल्काकर आगे चले ।’
‘बहुत अच्छा’ कह ० पुराने तृणको ० छोळ ० आगे चले ।
“वे न तो पहली चट्टीपर तृण ० पा सके, न दूसरी चट्टीपर ० न सातवी चट्टीपर । वे सभी बळी आपत्तिमे पळे, और उस सार्थमे जितने मनुष्य और पशु थे सभीको वह राक्षस खा गया । वहाँ बची हुई हड्डियाँ रह गई ।
“जब बजारोके दूसरे मालिकने समझा—कि उस सार्थके निकले काफी दिन बीत चुके, तो वह भी बहुतसे तृण०को साथमे ले आगे चला । दो तीन दिन जानेके बाद उसने एस काले, लाल ऑखोवाले ० । ० बैलोको व्यर्थमे कष्ट मत दे ।’
“तब उसके मनमे यह हआ—‘यह पुरुष ऐसा कहता है—आगेके कान्तारमे बळी वृष्टि ० । यह पुरुष न तो हम लोगोका मित्र है, न रकत-सबघी । इसमे हम लोगोका कैसे विश्वास हो ॽ ये पुराने तृण ० छोळने योग्य नही है । इसलिये इसी तरह आगे चलना चाहिये ।
“बहुत अच्छा’ कह० वे बजारे चले । उन लोगोने न तो पहली चट्टीपर तृण ० पाया ०, न सातवी
चट्टीपर० । और उन्होने देखा, कि उस सार्थसे जितने मनुष्य और पशु थे, सभीको यह राक्षस खा गया है । उनकी वहाँ हड्डियाँ बची रह गई है ।
“तब उसने बजारोको सबोधित किया—उस मूर्ख मालिक सार्थवाह (=नायक) होनेके कारण वह सार्थ इस प्रकार नष्ट हो गया । अच्छा हम लोगोके पास जो अल्प मूल्यवाले सामान है, उन्हे छोळ, इस समूहके जो बहुमूल्य माल है, उन्हे ले ले ।
‘बहुत अच्छा’ कह ० और उस कान्तारको स्वस्तिपूर्वक पार किया ।
“राजन्य । इसी प्रकार तुम भी बाल, अजान हो अनुचित रीतिसे परलोककी खोज करते नष्ट होगे, जैसे वह पहला सार्थ । जो तुम्हारी बातोके सुनने और माननेवाले है वे भी ० ।
“राजन्य । इस बुरी धारणाको छोळ दो, जिसमे कि तुम्हारा भविष्य अहित और दुखके लिये न हो ।”
२—“आप काश्यप चाहे जो कहे ० कोसलराज प्रसेनजित और दूसरे राजा भी ० ।”
राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ ० । बहुत पहले, एक सूअर पालनेवाला पुरूष अपने गाँवसे दूसरे गाँवमे गया । वहाँ उसने सूखे मैलेका एक ढेर देखा । उस ढेरको देखकर उसके मनमे यह आया—यह सूखे मैलेका एक बळा ढेर है । यह मेरे सूअरोका भक्ष्य है । अत मै यहाँसे सूखे मैलेको ले चलूँ । तब वह अपनी चादर पसार, बहुतसे सूखे मैलेको बटोर गठरी बाँध, शिरपर रख चल दिया । उसके रास्तेमे जाते वक्त अचानक बळी वृष्टि होने लगी । वह चूते और टपकते मैलेकी गठरीको लिये, शिरसे पैर तक मैलेसे लथपथ जा रहा था ।
“उसे देखकर लोग कहने लगे—क्या आप पागल है ॽ क्या आप सनकी है ॽ क्यो इस चूते टपकते मैलेकी गठरीको लिये शिरसे पैर तक मैलेसे लथपथ जा रहे है ॽ’
“ ‘आप ही लोग पागल है । आप ही लोग सनकी है । यह तो मेरे सूअरोका खाद्य है ।’
“राजन्य । उसी तरह तुम मैलेकी गठरीको ले जानेवालेके समान मालूम पळते हो । राजन्य । इस बुरी धारणाको छोळ दो ० ।”
३—“आप काश्यप चाहे जो कहे ० ।” ०
“राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ ० । पुराने समयमे दो जुआरी जुआ खेलते थे । उनमेसे एक जुआरी हार या जीतके पासेको निगल जाता था । दूसरे जुआरीने उस ०को ० निगलते देखा । देखकर उस जुआरीसे कहा—
“तुम तो बिलकुल जीत लेते हो । मुझे पासोको दो, कि मै उनको पूज लूँ । ‘बहुत अच्छा’ कह उस जुआरीने दूसरे जुआरीको पासे दे दिये ।
“तब वह जुआरी पासोको विषमे भिगो दूसरे जुआरीसे बोला—‘आओ, जूआ खेले ।’
“बहुत अच्छा’ ० ।
“जुआरियोने पासा फेका फिर भी वह जुआरी ० पासाको निगल गया । दूसरे जुआरीने पहले जुआरीको ० निगलते हुये देखा । देखकर उस जुआरीसे कहा—
“तेज विषमे भिगोये पासेको निगलते हुये यह पुरुष नही समझ रहा है ।
रे पापी, धूर्त । (पासेको) निगल । इसका फल भोगेगा ॥१॥’
“राजन्य । तुम भी उसी जुआरीके समान मालूम होते हो । राजन्य । इस बुरी धारणाको छोळ दो । तुम्हारा भविष्य ० ।”
४—“चाहे आप काश्यप जो कहे ० ।” ०
“राजन्य । तो मै एक उपमा कहता हूँ ० । पुराने समयमे एक बळा समृद्ध देश (=जनपद)
था । तब एक मित्रने दूसरे मित्रसे कहा—जहॉ वह जनपद है वहॉ चले । थोळे ही दिनो मे कुछ धन कमा लायेगे।
“ ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे जहॉ वह जनपद था वहॉ गये । वहॉ उन लोगोने एक जगह बहुत सा सन पळा देखा । देखकर एक मित्रने दूसरे मित्रसे कहा—यह बहुत सन फेका पळा है । तुम भी सनका एक गट्ठर बॉध लो, और मै भी सनका एक गट्ठर बाँध लूँ । दोनो सनके गट्ठरको लेकर चलेगे ।
‘बहुत अच्छा’ कह, सनके गट्ठरको बॉधकर वे दोनो सनके गट्ठरको लिये जहॉ दूसरा गाँव था वहॉ पहुँचे । वहॉ उन लोगोने बहुतसा सनका कता सूत फेका देखआ । देखकर एक मित्रने दूसरे मित्रसे कहा—जिसके लिये सन होता है, वह सनका कता सूत यहॉ बहुतसा पळा है । सो तुम सनके गट्ठरको यही छोळ दो, (और) मै भी सनके गट्ठरको यही छोळ दूँगा । दोनो सनके कते सूतका भार बनाकर ले चले ।
“मित्र । देखो, मै इस सनके भारको दूसरे ला रहा हूँ (और) यह बळी अच्छी तरह बँधा है । मेरे लिये यही काफी है ।’
“तब पहले मित्रने सनके गट्ठरको छोळ सनके कते सूतका एक भार ले लिया । वे जहॉ दूसरा गाँव था, वहॉ पहुँचे । वहाँ उन्होने ० बुने हुये टाटको फेका देखा । देख कर एक मित्रने दूसरे मित्रसे कहा—‘जिसके लिये सन या सनका सूत चाहिये, वह टाट यहॉ ० है । अत सनके गट्ठरको छोळ दो ० । दोनो टाटके भारको लेकर चले ।’ ० दूसरे ० । मेरे लिये यही काफी ० ।’
“तब उस मित्रने सनके कते सूतके भारको छोळ टाटके भारको ले लिया ।
“वे दूसरे गॉव ० । ० बहुतसा क्षौम (=अलसीका सन) फेका देखा, बहुतसा क्षौमका कता सू०, ० बहुतसे क्षौमके वस्त्र ०,० कपास ०, तॉबा ०, रॉगा ०, सीसा ०, चाँदी ० सुवर्ण ० ।
‘तुम ० गट्ठरको छोळ दो ० । दोनो सुवर्णके भारको लेकर चले ।’
‘इस सनके भारको मै दूरसे ला रहा हूँ । यह बहुत अच्छा कसकर बधा है । मेरे लिये यही काफी है ०।”
“तब उस मित्रने चॉदीके भारको छोळकर सुवर्णके भारको ले लिया । वे दोनो जहॉ उनका गॉव था, वहॉ लौय आये ।
“तब उनमे जो सनके भारको लेकर घर लौटा, उसके न मॉ-बाप उससे प्रसन्न हुये, न पुत्र, न स्त्री ०, न मित्र, न आमत्य ० । और न उसके बाद उसे सुख और सौमनस्य प्राप्त हुआ । और जो मित्र सोनेका भार लेकर घर लौटा, उसके मॉ-बाप बळे प्रसन्न हुये, पुत्र स्त्री ० । उसके बाद उसे बहुत सुख और सौमनस्य प्राप्त हुआ ।
“राजन्य । तुम भी उस सनके भार ढोनेवालेके सदृश हो । राजन्य । इस बुरी धारणाको छोळ दो । तुम्हारा भविष्य ० ।”
“आप काश्यपकी पहली ही उपमासे मै सतुष्ट और प्रसन्न हो गया था । कितु मैने इन विचित्र प्रश्नोत्तरोको सुननेकी इच्छाहीसे, ये उलटी बाते कही ।
“आश्चर्य हे काश्यप । अद्भुत हे काश्यप, जैसे उलटेको सीधा करदे, ढँके हुयेको खोल दे, ० । उसी तरह आपने अनेक प्रकारसे धर्मको प्रकाशित किया । हे काश्यप । मै उन भगवान् गौतमकी शरणमे जाता हूँ, धर्म, और भिक्षु सघकी भी । हे काश्यप । आजसे जन्म भरके लिये मुझे उपासक धारण करे ।”
३—सत्काररहित यज्ञका कमफल
“हे काश्यप । मै एक महायज्ञ करना चाहता हूँ । हे काश्यप । आप निर्देश करे जिससे मेरा भविष्य हित और सुखके लिये हो । जिस प्रकारके यज्ञमे गौवे काटी जाती है, भेळ बकरियॉ काटी जाती है, कुक्कुट और सूकर काटे जाते है, तीन प्रकारके प्राणी मारे जाते है । उसके करनेवाले मिथ्या-दृष्टि, मिथ्या-सकल्प मिथ्या-वाक्, मिथ्या-कर्मान्त, मिथ्या-आजीव, मिथ्या-व्यायाम, मिथ्या-स्मृति और मिथ्या-समाधिवाले है । इस प्रकारके यज्ञका न तो अच्छा फल होता है, न अच्छा लाभ होता है, न अच्छा गौरव होता है ।”
“राजन्य । जैसे कोई कृषक बीज और हल लेकर वनमे प्रवेश करे । वह वहाँ बुरे खेतमे, ऊसर भूमिमे, बालू और कॉटोवाली जगहमे सळे हुए, सूखे हुए, सार-रहित, न जमने लायक बीजको बोये । वृष्टि भी यथा समय खूब न बरसे । तो क्या वे बीज वृद्धि और विपुलताको प्राप्त होगे ॽ क्या कृषक अच्छा फल पायेगा ॽ”
“नही, हे काश्यप ।”
“राजन्य । उसी तरह जिस यज्ञमे गौवे काटी जाती है ० उस यज्ञसे न महाफल ० होता है । राजन्य । जिस यज्ञमे गौवे नही काटी जाती है ० उस यज्ञसे महाफल ० होता है ।
“राजन्य । जैसे कोई कृषक बीज और हल लेकर बनमे प्रवेश करे । वहॉ बालू और कॉटोसे रहित अच्छे खेतमे अच्छे स्थानमे अखड, अच्छे, सूखे नही, सारवाले और शीघ्रतासे जमने योग्य बीजको बोए । कालोचित खूब वृष्टि भी होए । तो क्या वे बीज वृद्धि और विपुलताको प्राप्त होगे ॽ”
“हॉ, हे काश्यप ।”
“राजन्य । उसी तरह, जिस प्रकारके यज्ञमे गौवे नही काटी जाती है, ० उस प्रकारके यज्ञसे महाफल ०।”
तब पायासी राजन्य सभी श्रमण, ब्राह्मण, कृषण (=गरीब), साधु और भिखमगोको दान दिलवाने लगा । उस दानमे कनी और बिलड्ग (=कॉजी)के भोजन दिये जाते थे—मोटे पुराने वस्त्र दिये जाते थे । दान बॉटनेके लिये उत्तर नामक एक माणावक बैठाया गया था ।
वह दान देकर ऐसा कहा करता था—इस दान द्वारा मेरा इसी लोकमे पायासी राजन्यसे समागम हो, परलोकमे नही ।
पायासी राजन्यने सुना कि उत्तर माणवक दान दे कर ऐसा कहा करता है—“इस दान द्वारा ० । तब पायासी राजन्यने उत्तर ०को बुलाकर कहा—तात उत्तर । क्या यह सच बात है कि तुम दान देनेके बाद ऐसा कहा करते हो—इस दानसे ० ॽ
“जी हॉ ।”
“तात उत्तर । ० ऐसा क्यो कहते हो—इस दानसे ० ॽ तात उत्तर । हम तो पुण्य कमाना चाहते है, दानके फलहीकी तो हमे इच्छा है ।”
“आपके दानमे कनी और काँजीका भोजन दिया जाता है, मोटे पुराने वस्त्र दिये जाते है, जिन्हे कि आप पैरसे भी नही छूये, खाना और पहनना तो दूर रहे । आप हम लोगोके प्रिय और मनाप है । हम लोग अपने प्रियको अप्रियके साथ कैसे देख सकते है ॽ”
“तात उत्तर । तो जिस प्रकारका भोजन मै स्वय करता हूँ, उसी प्रकारका भोजन बाँटो, जिस प्रकारके वस्त्र मै पहनता हूँ, उसी प्रकारके वस्त्र बॉटो ।”
‘बहुत अच्छा’ कह उत्तर माणवक ० जिस प्रकारका भोजन पायासी राजन्य स्वय करता था,
उसी प्रकारका भोजन बॉटने लगा, जिस प्रकारके वस्त्र पायासी राजन्य स्वय पहनता था, उसी प्रकारके वस्त्र बॉटने लगा ।
तब पायासी राजन्य बिना सत्कार रहित दान दे, दूसरेके हाथसे दान दिलवा, वेमनसे दान दे, फेक कर दान दे, मरनेके बाद चातुर्महाराजिक देवोके बीच उत्पन्न हुआ । उसे सेरिस्सक नाम छोटा-सा विमान मिला और जो उत्तर नामक माणवक उस दानपर बैठाया गया था, वह सत्कारपूर्वक दान दे, अपने हाथोसे दान दे, मनसे दान दे, ठीकसे दान दे, मरनेके बाद सुगतिको प्राप्त हो स्वर्ग लोग मे त्रायस्त्रिश देवोके बीच उत्पन्न हुआ ।
उस समय आयुष्मान् गवाम्पति अपने छोटे सेरिस्सक विमानपर दिनके विहारके लिये सदा बाहर निकला करते थे । तब पायासी देवपुत्र जहाँ आयुष्मान् गवाम्पति थे वहॉ गया । जाकर ० एक ओर खळा हो गया । एक ओर खळे पायासी ० को ० गवाम्पति यह बोले—
“आवुस । आप कौन है ॽ”
“भन्ते । मै पायासी राजन्य हूँ ।”
“आवुसो । क्या आप इस धारणाके थे—यह लोक नही है ० ॽ”
“भन्ते । हाँ, मै इस दृष्टिका था—यह लोक नही है ० । कितु मै आर्य कुमार काश्यपके द्वारा इस बुरी धारणासे हटाया गया ।”
“आवुस । जो उत्तर नामक माणवक आपके दानमे बैठाया गया था सो कहॉ उत्पन्न हुआ है ॽ”
“भन्ते । जो उत्तर नामक ० वह सत्कार पूर्वक ० दान दे मरनेके बाद ० हुआ है त्रार्यास्त्रश देवोके बीच उत्पन्न हुआ है । और मै भन्ते । सत्कारके बिना ० दान दे मरनेके बाद चातुर्महाराजिक देवताओमे उत्पन्न हुआ हूँ। भन्ते गवाम्पति । तो आप मनुष्य लोकमे जाकर कहे—सत्कार पूर्वक दान दो, अपने हाथसे दान दो ० । पायासी राजन्य सत्कारके बिना ० दान दे ० चातुर्महाराजिक देवोके बीच उत्पन्न हुआ, और ० उत्तर माणवक ० त्रार्यास्त्रश देवताओमे ० ।”
तब आयुष्मान् गवाम्पति मनुष्य-लोकमे आकर लोगोको यह उपदेश देने लगे—
“सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथसे दान दो, मनसे दान दो, ठीकसे दान दो । पायासी राजन्य सत्कारके बिना ० दान देकर मरनेके बाद चातुर्महाराजिक देवोके बीच उत्पन्न ० और उत्तर माणवक ० त्रायस्त्रिश देवोमे उत्पन्न हुआ है ।”
(इति महावग्ग ॥२॥)