दीध-निकाय

26. चककवत्ति-सीहनाद-सुत्त (३।३)

१―स्वावलम्बी बनो । २―मनुष्य क्रमशः अवनतिकी ओर (दृढनेमि जातक)―(१) चक्रवर्ति व्रत । (२) व्रत त्यागसे लोगोमे असन्तोष और निर्धनता । (३) निर्धनता सभी पापोकी जननी । (४) पापोसे आयु और वर्णका हास । (५) पशुवत् व्यवहार और नरसंहार । ३―मनुष्य क्रमशः उन्नतिकी और―(१) पुण्यसे आयु और वर्णकी वृद्धि । (२) मैत्रेय बुद्धका जन्म । ४―भिक्षुओके कर्तव्य ।

ऐसा मैने सुना―एक समय भगवान् मगधके मातुला (स्थान) मे विहार कर रहे थे । वहाँ भगवानने भिक्षुओको संबोधित किया―“भिक्षुओ ।”

“भदन्त ।”―कह उन भिक्षुओने भगवानको उत्तर दिया ।

१-स्वावलम्बी बनो

भगवान् बोले―“भिक्षुओ । आत्मद्वीप=आत्मशरण (=स्वावलम्बी) होकर विहार करो, किसी दूसरेके भरोसे मत रहो, धर्मद्वीप और धर्मशरण होकर विहार करो, किसी दूसरे ० ।

“भिक्षुओ । कैसे भिक्षु ० आत्मशरण, ० धर्मशरण होकर विहार करता है, किसी दूसरेके भरोसेपर नही रहता ? भिक्षुओ । भिक्षु कायामे कायानुपश्यी१ हो, संयमी, सावधान, स्मृतिमान्, और संसारके अनुचित लोभ और दौर्मनस्यको जीतकर विहार करता है―वेदनाओमे वेदनानुपश्यी होकर विहार करता है, चित्तमे चित्तानुपश्यी होकर, धर्मोमे धर्मानुपश्यी होकर ० ।

“भिक्षुओ । भिक्षु इस तरह ० आत्मशरण ० धर्मशरण ० । भिक्षुओ । अपने पैतृक विषयगोचरमे विचरण करो । ० गोचरमे विचरण करनेसे मार कोई छिद्र नही पा सकेगा, मार कोई अवलम्ब नही पा सकेगा । भिक्षुओ । उत्तम धर्मोके ग्रहण करनेके कारण इस प्रकार पुण्य बढता है ।

२―मनुष्य क्रमश: अवनतिकी ओर

दृढनेमि जातक२―“भिक्षुओ । पुराने समयमे चारो दिशाओपर विजय पानेवाला, जनपदोमे स्थिरता और शान्ति रखनेवाला, सात रत्नोसे युकत दृढनेमि नामक एक चक्रवर्ती धार्मिक, धर्म-राजा था । उसके ये सात रत्न थे, जैसे कि―(१) चत्र-रत्न, (२) हस्ति-रत्न, (३) अश्व-रत्न, (४) मणि-रत्न, (५) स्त्री-रत्न, (६) गृहपति-रत्न, और (७) सातवॉ पुत्र-रत्न । एक सहस्त्रसे भी अधिक उसके सूर ० पुत्र थे । वह सागरपर्यन्त इस पृथ्वीको दण्ड और शस्त्रके बिना ही धर्म और शान्तिसे जीतकर राज्य करता था ।

“भिक्षुओ । तब राजा दृढ-नेमि बहुत वर्षो, कई सौ वर्षो, कई सहस्त्र वर्षोके बीतनेपर एक पुरुषसे बोला—‘हे पुरुष । जब तुम दिव्य चक्र-रत्नको अपने स्थानसे खिसके और गिरे देखना तो मुझे सूचना देना ।’ ‘देव । बहुत अच्छा’ कह उस पुरुषने राजाको उत्तर दिया ।

“भिक्षुओ । बहुत वर्षो ० के बीतनेपर उस पुरुषने दिव्य चक्र-रत्नको अपने स्थानसे खिसककर गिरा देखा । देखकर वह पुरुष जहाँ राजा दृढ-नेमि था वहाँ गया, ० बोला—‘सुनिये देव । जानते है आपका दिव्य चक्र-रत्न अपने स्थानसे खिसककर गिर गया है ।’

“भिक्षुओ । तब राजा दृढ-नेमि अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमारको बुलाकर यह बोला—तात कुमार । मेरा दिव्य चक्र-रत्न ० गिर गया है । मैने ऐसा सुना है—‘जिस चक्रवर्ती राजाका चक्र-रत्न ० गिर जाता है, वह राजा बहुत दिन नही जीता । मनुष्यके सभी भोगोको मैने भोग लिया, अब दिव्य भोगोके संग्रहका समय आया हे । तात कुमार । सुनो, समुद्र-पर्यन्त इस पृथ्वीको ग्रहण करो । मै शिर और दाढी मुँळवा, काषाय वस्त्र धारणकर, घरसे बेघर हो प्रब्रजित होऊँगा ।’

“भिक्षुओ । तब राजा ० अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमारको राज्यका भार दे ० प्रब्रजित हो गया । भिक्षुओ । उस राजर्षिके प्रब्रजित होनेके एक सप्ताह बाद ही दिव्य चक्र-रत्न अन्तर्धान हो गया ।

“भिक्षुओ । तब एक पुरुष जहॉ मूर्धाभिषिक्त (=Sovereign) क्षत्रिय राजा था, वहाँ गया, ० और बोला—‘देव । जानते है, दिव्य चक्र-रत्न अन्तर्धान हो गया ।’

“भिक्षुओ । तब वह मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा दिव्य चक्र-रत्नके अन्तर्धान होनेपर बळा खेद और असंतोष प्रगट करने लगा । वह जहाँ राजर्षि था वहॉ गया, जाकर राजर्षिसे बोला—देव । जानते है, दिव्य चक्र-रत्न अन्तर्धान हो गया ।

(१) चक्रवर्ति-व्रत

“भिक्षुओ । ऐसा कहनेपर राजर्षिने ० राजासे कहा—‘तात । दिव्य चक्र-रत्नके अन्तर्धान हो जानेसे तुम खेद और असंतोष मत प्रकट करो । तात । दिव्य चक्र-रत्न तुम्हारा पैतृक दायाद नही है । तात । सुनो, तुम चक्रवर्ति-व्रतका पालन करो । ऐसी बात है, कि जब तुम आर्य चक्रवर्ति-व्रतका पालन करोगे, तो उपोसथकी पूर्णिमाके दिन शिरसे स्नानकर, उपोसथ व्रतकर जब तुम प्रासादके सबसे ऊपरवाले तल्लेपर जाओगे, तो तुम्हारे सामने सहस्त्र अरोसे युकत, नेमि-नाभिके साथ, और सभी प्रकारसे परिपूर्ण दिव्य चक्र-रत्न प्रकट होगा ।’

‘देव । वह आर्य चक्रवर्ति-व्रत कया है ॽ’

‘तात । तो तुम अपने आश्रितोमे, सेनामे, क्षत्रियोमे, अनुगामियोमे, ब्राह्रणोमे, गृहपतियोमे, नैगमो और जानपदोमे, श्रमण और ब्राह्रणोमे, मृग और पक्षियोमे धर्महीके लिये, धर्मका सत्कार करते ० गुरुकार करते ० सम्मान करते, ० पूजन करते, श्रद्धाभाव रखते, धर्मध्वज हो, धर्मकेतु हो, धर्माधिपति हो, सभी धार्मिक बातोकी रक्षाके लिये विधान करो । तात । तुम्हारे राज्यमे कही भी अधर्म न होने पावे । तात । जो तुम्हारे राज्यमे निर्धन है, उन्हे धन दो । ० जो तुम्हारे राज्यमे श्रमण और ब्राह्मण मद-प्रमादसे विरत हो क्षान्तिके अभ्यासमे लगे है, केवल आत्म-दमन, केवल आत्म-शमन, केवल आत्म-निर्वापन करते है, उनके पास समय समयपर जाकर पूछना चाहिये—भन्ते । कया भलाई है, कया बुराई कया सदोष (=सावद्य) है, कया निर्दोष (=अनवद्य), कया सेवनीय है, कया असेवनीय कया करनेसे मेरा भविष्य अहित और दुखके लिये होगा, कया करनेसे मेरा भविष्य हित और सुखके लिये होगा ॽ उनके कहे हुएको सुन, जो बुराई है उसका त्याग करो और जो भलाई है उसका ग्रहण करके पालन करो ।—तात । यही चक्रवर्ति-व्रत है ।’

“भिक्षुओ । ‘बहुत अच्छा’ कहकर ० राजर्षिको उत्तर दे राजा आर्य-चक्रवर्ति-व्रतका पालन करने लगा । उस आर्य चक्रवर्ति-व्रतके पालन करते हुए उपोसथकी पूर्णिमाके दिन ० उसके सामने सहस्त्र अरोवाला ० दिव्य चक्र-रत्न प्रकट हुआ । देखकर ० राजाके मनमे यह आया—मैने ऐसा सुना है— जिस ० प्रासादके ऊपरके तल्लेपर स्थित राजाके सामने ० दिव्य चक्र-रत्न प्रकट होता है, वह चक्रवर्ती राजा होता है । मै चक्रवर्ती राजा होऊँगा । भिक्षुओ । तब ० राजाने आसनसे उठ, चादरको एक कन्धेपर कर बाये हाथसे झारीको ले, दाहिने हाथसे चक्र-रत्नका अभिषेक किया ०—‘आप चक्र-रत्न प्रवृत हो, =आप चक्ररत्न विजय करे) ।’ भिक्षुओ । तब चक्र-रत्न समुद्र-पर्यन्त पृथ्वीको जीत ०१ अन्त पुरमे न्याय-प्राड्गणके द्वारपर आ अक्षाहत (=दृढ) हो गया ० ।

(२) व्रतके त्यागसे लोगोमें असन्तोष और निर्धनता

“भिक्षुओ । दूसरा भी राजा चक्रवर्ती ० तीसरा ० चौथा ० पॉचवॉ ० छठाँ ० सातवॉ भी राजा चक्रवर्ती बहुत वर्षो ०के बीतनेपर एक पुरुषको बुलाकर बोला—० जब चक्र-रत्न अपने स्थानसे खिसक ० । भिक्षुओ । तब ० राजा दिव्य चक्र-रत्नके अन्तर्धान हो जानेसे खेद, असंतोष प्रकट करने लगा । उसने राजर्षिके पास जाकर आर्य चक्रवर्ति-व्रत नही पूछा । वह अपनी ही बुद्धिसे राज करने लगा । उसके अपनी ही बुद्धिसे राज करनेपर उसका राज्य वैसा ही उन्नतिको प्राप्त नही हुआ, जैसा कि पहले आर्य चक्रवर्ति-व्रत पालन करनेवोले राजाओका राज्य ।

“भिक्षुओ । तब, अमात्य (=मन्त्री), सभासद्, कोपाध्यक्ष, महामन्त्री, अनीकस्थ (=सेनापति) द्वार-पाल, और वे जो अपनी विद्याके बलसे जीविका चलाते थे, सभी आकर ० राजासे बोले—‘देव । आपके अपनी ही बुद्धिसे राज करनेके कारण आपका राज्य वैसा उन्नति नही कर रहा है, जैसा कि पहले आर्य चक्रवर्ति-व्रत पालन करनेवाले राजाओका । देव । आपके राज्यमे अमात्य, सभासद् ०, हम लोग, और जो दूसरे लोग है सभी चक्रवर्ति-व्रत धारण करे । देव । आपके राज्यमे अमात्य, सभासद्०, हम लोग, और जो दूसरे लोग है सभी चक्रवर्ति-व्रत धारण करे । देव । आप हम लोगोसे आर्य चक्रवर्ति-व्रत पूछे । आपके आर्य चक्रवर्ति-व्रत पूछनेपर हम लोग बतलायेगे ।’

(३) निर्धनता सभी पापोकी जननी

“भिक्षुओ । तब ० राजाने अमात्यो० को बुलाकर (इकट्ठाकर) उनसे आर्य चक्रवर्ति-व्रत पूछा ० उन लोगोने उसे सब कुछ बतलाया । उसे सुनकर उसने धार्मिकी बातोकी रक्षाका प्रबन्ध तो कर दिया, किन्तु निर्धनोको धन नही दिया, ० उससे दरिद्रता बहुत बढ गई, ० उससे गई, ० उससे एक मनुष्य दूसरेकी चीज चुराने लगा । उस (चोर)को पकळकर लोग राजाके पास ले गये—‘देव । इस पुरुषने दूसरोकी चीज चोरी की है ।’

“भिक्षुओ । ऐसा कहनेपर ० राजा उस पुरुषसे बोला—‘क्या सचमुच तुमने दूसरोकी चीज चुराई हे ॽ’ ‘हॉ देव । सचमुच ।’

‘किस कारणसे ॽ’ ‘देव । रोजी नही चलती थी ।’

“भिक्षुओ । तब राजाने उस पुरुषको धन दिलवाया—‘हे पुरुष । इस धनसे तुम अपनी रोजी चलाओ, माता पिताको पालो, पुत्र और दाराको पोसो, अपने कारबारको चलाओ, ऐहिक और पारलौकिक सुख-प्राप्तिके लिये श्रमण तथा ब्राह्मणोको दान दो ।’

“भिक्षुओ । ‘देव । बहुत अच्छा ।’ कहकर उस पुरुषने ० राजाको उत्तर दिया ।

“भिक्षुओ । एक दूसरे पुरुषने भी चोरी की । उसे ० राजाके पास ले गये ० ।’

‘० राजा ०—क्या सचमुच ० ॽ’

‘देव । सचमुच ।’

‘किस कारणसे ॽ’

‘देव । रोजो नही चलती थी ।’

“भिक्षुओ । ० राजाने उस पुरुषको घन दिलवाया—‘हे पुरुष । इस धनसे ० दान दो ।’

“भिक्षुओ । ‘देव । बहुत अच्छा ।’ कहकर उस पुरुषने ० राजाको उत्तर दिया ।

“भिक्षुओ । मनुष्योने सुना—जो दूसरेकी चीजको चुराता है, उसे राजा धन दिलवाता है । सुनकर उन लोगोके मनमे यह आया—‘हम लोग भी दूसरोकी चीजको चुरावे ।’

“भिक्षुओ । तब किसी पुरुषने चोरी की । उसे लोग पकळकर ० राजाके पास ले गये—‘देव । ‘इस । पुरुषने चोरी की है ।’

‘० राजा ०—क्या सचमुच ० ॽ’ ‘देव । सचमुच ।’

‘किस कारणसे ॽ’

‘देव । रोजी नही चलती थी ।’

“भिक्षुओ । तब राजाके मनमे यह आया—यदि जो जो चोरी करता जावे उसे उसे मैं धन दिलवाता रहूँ, तो इस प्रकार चोरी बहुत बढ जायगी । अत मै इसे कळी चेतावनी दूँ, जळहीको काट दूँ, इसका शिर कटवा दूँ । भिक्षुओ । तब राजाने पुरुषोको आज्ञा दी—इस पुरुषको एक मजबूत रस्सीसे ० बॉधकर ० इसका शिर काट दो ।’

‘देव । बहुत अच्छा’ कह ० उसका शिर काट दिया ।

“भिक्षुओ । तब मनुष्योने सुना—जो चोरी करते है राजा ० उनका शिर कटवा देता है । सुनकर उनके मनमे यह हुआ—हम लोग भी तेज तेज हथियार बनवावे, ० बनवाकर जिनकी चोरी करेंगे उनका ० शिर काट लेंगे । उन लोगोने तेज तेज हथियार बनवाये, ० बनवाकर उन्होने ग्राम-घात भी करना आरम्भ कर दिया, निगम-घात भी ०, नगर-घात भी ०, मार्गमे यात्रियोको लूट लेना भी ० । वे जिसकी चोरी करते थे, उसका ० शिर काट लेते थे ।

(४) पापोमे आयु और वर्णका ह्रास

“भिक्षुओ । इस तरह, निर्धोनोको धन न दिये जानेसे दरिद्रता बहुत बढ गई, (उससे) ० चोरी बहुत बढ गई, ० (उससे) हथियार बहुत बढ गये, ० (उससे) खून खराबी बहुत बढ गई, ० (उससे) उनकी आयु घटने लगी, वर्ण (=रुप) भी घटने लगा । आयु और वर्णके घटनेपर अस्सी हजार वर्षकी आयुवाले पुरुषोके पुत्र चालीस सहस्त्र वर्षकी आयुवाले हो गये ।

“भिक्षुओ । चालीस सहस्त्र वर्षोकी आयुवाले पुरुषोमे भी कोई चोरी करने लगा । उसे लोग ० राजाके पास ले गये —‘देव । इस पुरुषने चोरी की है ।’

‘० राजा ०— सचमुच ० ॽ’

‘नही, देव ।’

यह जानबूझकर झूठ बोलने हुआ ।

“भिक्षुओ । इस तरह, निर्धनोको धन न दिये जानेसे ० झूठ बोलना बढा, ० उन सत्वोकी आयु और उनका वर्ण भी घटने लगा । ० उनके पुत्र बीस सहस्त्र वर्षोहीकी आयुवाले हो गये ।

“० उनमेसे भी किसीने चोरी की । तब, किसी पुरुषने ० राजाको इसकी सूचना दी—देव । अमुक पुरुषने ० चोरी की है । ऐसी चुगली हुई ।

“भिक्षुओ । इसी तरह, निर्धनोको, धन न दिये जानेके कारण ० चुगली उत्पन्न हुई । चुगली खाना बढनेसे उन सत्वोकी आयु घट गई, वर्ण भी घट गया । ० उनके पुत्र दस सहस्त्र वर्षोकी ही आयुवाले हुए ।

“भिक्षुओ । दस सहस्त्र वर्षोकी आयुवाले मनुष्योमे कोई तो सुन्दर, ओर कोई कुरूप हुए । वहाँ जो प्राणी (=सत्व) कुरूप थे वे सुन्दर प्राणियोके प्रेममे पळ दूसरेकी स्त्रियोसे दुराचार करने लगे ।

“भिक्षुओ । इस तरह, निर्धनोको धन न दिये जानेसे ० दुराचार बढा ।

“० उनके पुत्र पॉच सहस्त्र वर्षोहीकी आयुवाले हुए । ० उन लोगोमे दो बाते बहुत बढी—कठोर वचन, और निरर्थक प्रलाप करना । ० (उससे) उन प्राणियोकी आयु घट गई, और वर्ण भी घट गया । ० उनके पुत्र कितने ढाई सहस्त्र वर्षोकी आयुवाले हुए ।

“भित्रुओ । ढाई सहस्त्र वर्षोकी आयुवाले मनुष्योमे अनुचित लोभ और बहुत हिसाभाव बढा । ० आयु भी ० वर्ण भी ० । ० उनके पुत्र एक सहस्त्र वर्षोकी आयुवाले हुए ।

“भिक्षुओ । ० उनके मिथ्या-दृष्टि (बुरे सिद्धान्तोमे विश्वास करना) बहुत बढ गई । ० आयु भी ० वर्ण भी ० । ० उनके पुत्र पॉच सौ वर्षोकी आयुवाले हुए । ० उन लोगोमे तीन बाते बहुत बढी—अधर्धमे राग, अनुचित लोभ और मिथ्या-धर्म । इन तीन बातो (=धर्मो)के बहुत बढनेपर उन सत्वोकी आयु भी ० वर्ण भी ० । ० उनके पुत्र कोई ढाई सौ वर्षोकी आयुवाले, और कोई दो सौ वर्षोकी आयुवाले हुए । भिक्षुओ । ढाई सौ वर्षोकी आयुवाले मनुष्योमे ये बाते बढी, माता पिता के प्रति गौरव का अभाव श्रमणोके प्रति, ब्राह्मणोके प्रति, और परिवारके ज्येष्ठ पुरूषोके प्रति श्रद्धाका अभाव ।

“भिक्षुओ । इसी तरह, निर्धनोको धन न देने के कारण ० श्रद्धाका अभाव । इन बातोके बढनेसे उन प्राणियोकी आयु ० वर्ण ० । ० उनके पुत्र सौ वर्षोकी आयुवाले हुए । भिक्षुओ । एक समय आयेगा जब इन मनुष्योके पुत्र दस वर्षोकी आयुवाले होगे । भिक्षुओ । ० उनमे पॉच वर्षकी कुमारी ही प्रतिगृह जाने योग्य हो जायेगी । भिक्षुओ । दस वर्षोकी आयुवाले मनुष्योमे ये रस लुप्त (=अन्तर्धान) हो जायेगे, जैसे कि, घी, मक्खन, तेल, मधु, गुळ और नमक । ० उस समय मनुष्योका कोदो (=कुद्रूस) ही श्रेष्ठ (=अग्र) भोजन होगा, जैसा कि इस समय शालिमासौदन(=पोलाव) प्रधान भोजन है । भिक्षुओ । दस वर्षोकी आयु वाले मनुष्योमे दस सदाचार (=कुशल कर्म-पथ) बिलकुल लुप्त हो जायेंगे, दस अ-सदाचार (=अकुशल कर्म-पथ) अत्यन्त बढ जायेगा । ० कुछ कुशल नही रह जायेगा, फिर कुशलका करनेवाला कहाँ ॽ

(५) पशुवत् व्यवहार और नरसंहार

भिक्षुओ । ० उनमेसे जो माता पिता का गौरव नही करनेवाले ० होगे वे ही अच्छे, प्रशंसनीय समझे जायेगे, जैसे कि इस माता पिता का गौरव नही करनेवाले ० प्रशंसनीय समझे जाते है ।

“० उन लोगो मे भेळ-बकरे, कुक्कुट-सूकर, श्वान-शृगालकी भॉति मॉका, या मौसीका, या मामीका, या गुरूपत्नीका, या बळे लोगोकी स्त्रियोका कुछ विचार न रहेगा । बिलकुल अनर्थ हो जायेगा ।

“० उन लोगोमे एक दूसरेके प्रति बळा तीव्र क्रोध, तीव्र व्यापाद (=प्रतिहिंसा), तीव्र दुर्भावना, तीव्र बंधकचित्त उत्पन्न होगे । माताको पुत्रके प्रति, पुत्रको माता के प्रति, भाईको भाईके प्रति, भाईको बहन के प्रति, बहनको भाईके प्रति तीव्र क्रोध ० । भिक्षुओ । जैसे व्याधको मृग देखकर तीव्र क्रोध ० होता है, उसी तरह ० उन सत्वोमे परस्पर तीव्र क्रोध ० माताको पुत्रके प्रति ० ।

“भिक्षुओ । ० उनमे एक सप्ताह शस्त्रान्तरकल्प होगा—वे एक दूसरेको मृग समझने लग जायेंगे । उनके हाथोमे तीक्ष्ण शस्त्र प्रकट होगे । वे तीक्ष्ण शस्त्रोसे—यह मृग है, यह मृग है—करके एक दूसरेको जानसे मार डालेगे ।

३—मनुष्य क्रमश: उन्नतिकी ओर

“भिक्षुओ । तब उन सत्वोमे कुछके मनमे ऐसा होगा—‘न मुझे दूसरोसे काम और न दूसरोको मुझसे काम । अत चलो हम लोग घने तृणोमे, या घने जंगलोमे, या घने वृक्षोमे, या नदीके किसी दुर्गम स्थानमे, या कठिन पर्वतोपर, जाकर वन्य (जंगली) मूल और फल खाकर रहे ।’ फिर वे घने तृणोमे ० जाकर एक सप्ताह वन्य फल मूल खाकर रहेगे । एक सप्ताह वहाँ रहनेके बाद घने तृणोसे ० निकलकर वे एक दूसरेको आलिड्गनकर एक दूसरेके प्रति अपनी शुभ कामनाये प्रकट करेगे ।

(१) पुरायकर्मसे आयु और वर्णकी वृद्धि

“भिक्षुओ । तब उन सत्वोके मनमे यह होगा—हम लोग पाणे (=अकुशल धर्मो) के करनेके कारण इस प्रकारके घोर जाति-विनाशको प्राप्त हुए है, अत पुण्य का आचरण करना चाहिये । किन पुण्यो (=कुशल धर्मो)का आचरण करना चाहिये ॽ हम लोग जीवहिंसासे विरत रहे, इस कुशल धर्मको ग्रहण करे (इसीके अनुकूल) आचरण करे ।’ तब वे जीवहिंसासे विरत रह, ० आचरण करने लगेंगे । उस कुशल धर्मको ग्रहण करनेके कारण वे आयसे भी और वर्णसे भी बढेगे । आयुसे भी, वर्णसे भी बढते हुए उन दस वर्षोकी आयुवाले मनुष्योके पुत्र वर्षकी आयुवाले होगे ।

“भिक्षुओ । तब उन सत्वोके मनमे यह होगा—‘हम लोग कुशल धर्म ग्रहण करनेके कारण आयुसे भी और वर्णसे भी बढ रहे है । अत, हम लोग और भी अधिक सुकर्म (=कुशल धर्म) करे । क्या कुशल करे ॽ हम लोग चोरी करनेसे विरत रहे, मिथ्याचारसे विरत रहे, मिथ्याभाषणसे विरत रहे, चुगली खानेसे विरत रहे, कठोर बोलनेसे विरत रहे, व्यर्थ बकवादसे विरत रहे, अनुचित लोभको छोळ दे, हिंसाभावको छोळ दे. मिथ्यादृष्टिको छोळ दे । अधर्ममे राग, दुष्ट लोभ, मिथ्याधर्म इन तीन बातो को छोळ दे, माता पिताके प्रति गौरव करे ० । इन कुशल धर्मोको धारणकर आचरण करे ।’

“वे माता पिताके प्रति गौरव करेगे ० इन कुशल धर्मोको धारणकर आचरण करेगे । आचरण करनेके कारण वे आयुसे भी वर्णसे भी बढेगे । ० उनके पुत्र चालीस वर्ष ० । ० उनके पुत्र अस्सी वर्ष ० । ० उनके पुत्र सौ वर्ष ० । ० उनके पुत्र बीस सौ वर्ष ० । ० चालीस सौ वर्ष ० । ० दो सहस्त्र ० । ० चार ० । ० आठ ० । ० बीस ० । ० चालीस ० । ० अस्सी सहस्त्र वर्ष ० ।

(२) मैत्रेय बुद्धका जन्म

“भिक्षुओ । अस्सी सहस्त्र वर्षकी आयुवाले मनुष्योमे पॉच सौ वर्षोकी आयुवाली कुमारी, पतिके गृह जानेके योग्य होगी । ० उनके तीन ही रोग रहेगे—इच्छा, उपवास और जरा । ० (उस समय)जम्बु-द्वीप समृद्ध ओर सम्पन्न होगा—ग्राम, निगम, जनपद और राजघानी कुक्कुट-सम्पातिक (=मुर्गीकुदान घरोवाली) रहेगे । ० नर्कट या सरकडेके वनकी तरह जम्बुद्वीप मानो नरक तक मनुष्योकी आबादीसे भर जायेगा । ० (उस समय) यह वाराणसी समृद्ध, सुन्दर, सम्पन्न और सुभिक्ष केतुमती नामकी राजघानी होगी । ० जम्बुद्वीपमे केतुमती राजधानी आदि चौरासी हजार नगर होगे । ० केतुमती राजधानीमे शख नामक चक्रवर्ती, धार्मिक, धर्म-राजा ० उत्पन्न होगा । वह सागर-पर्यन्त इस पृथ्वीको दण्ड और शस्त्रके बिना ही धर्मसे जीतकर राज्य करेगा । ० उस समय मैत्रेय नामक भगवान् अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध, संसारमे उत्पन्न होगे । ० जैसे कि इस समय मै ० । वे देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण-ब्राह्मण सहित, देव-मनुष्य-युकत इस लोकको, स्वयं (परम ज्ञानको) जान और साक्षात् कर उपदेश देगे, जैसे कि इस समय मै ० उपदेश देता हूँ । वे आदि कल्याण, मध्य-कल्याण, अन्त-कल्याण धर्मका उपदेश करेगे । सार्थक, स्पष्ट, बिल्कुल पूर्ण (और) शुद्ध ब्रह्मचर्यको वतलायेंगे । जैसे कि

इस समय मै ० । वे कई लाख भिक्षुओके संघके साथ रहेगे, जैसे कि अभी मै कई सौ भिक्षुओके साथ ० ।

“भिक्षुओ । तब शख राजा उस प्रासादको, जिसे कि इन्द्र (विश्वकर्मासे) बनवायेंगा, तैयार करा उसमे रहकर, उसे दानकर देगा । श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, राही, साधु और याचकोको दान देकर मैत्रेय भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्धके पास ० प्रब्रजित हो जायेगा । वह इस प्रकार प्रब्रजित हो, अकेला रह, वीतहराग हो, अप्रमत्त हो, संयमी और आत्मनिग्रही हो विहार करते शीघ्र ही ० उस अनुपम ब्रह्मचर्यके फलको इसी जन्ममे स्वयं जान और साक्षात् कर विहार करेगा ।

४—भिक्षुओंके कर्तव्य

“भिक्षुओ । आत्म-शरण होकर विहार करो, आत्मद्वीप (=स्वावलम्बी) होकर विहार करो, दूसरेके भरोसेपर मत रहो, धर्म-शरण, धर्मद्वीप ० । भिक्षुओ । कैसे भिक्षु आत्म-शरण ० धर्म-शरण ० होकर विहार करता है ॽ

“भिक्षुओ । भिक्षु कायामे कायानुपश्यी होकर विहार करता है ०१ ।

“भिक्षुओ । इस प्रकार भिक्षु आत्म-शरण ० धर्म-शरण ० होकर विहार करता है ० ।

“भिक्षुओ । ० (ऐसा करनेसे) आयुसे भी बढोगे, और वर्णसे भी । सुखसे भी बढोगे, भोगसे भी बढोगे, बलसे भी बढोगे ।

“भिक्षुओ । भिक्षुकी आयु क्या है ॽ भिक्षुओ । भिक्षु छन्द समाधि प्रधान संस्कारसे युक्त ऋद्धि-पादकी भावना करता है । वीर्य समाधि ० चित्तसमाधि ० वीमसा-समाधि प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है । वह इन चार ऋद्धिपादोकी भावना करनेसे, बार बार अभ्यास करनेसे, इच्छा रहनेपर अपनी आयु (अभी १०० वर्ष) कल्प भरकी उससे कुछ अधिक तक रख सकता है । यही भिक्षुकी आयु है ॽ

“भिक्षुओ । भिक्षुका वर्ण क्या है ॽ भिक्षुओ । भिक्षु शीलवान् होता है, प्रातिमोक्षके संयमसे सयत होकर विहार करता है, आचार विचारसे युक्त होता है, थोळे भी बुरे कर्मसे भय खाता है, नियमो (=शिक्षा-पदो)के अनुसार आचरण करता है । भिक्षुओ । भिक्षुका यही वर्ण है ।

“भिक्षुओ । भिक्षुका सुख क्या है ॽ भिक्षुओ । भिक्षु भोग (=काम) और पापो (=अकुशल धर्मो)से अलग रह सवितर्क, सविचार विवेक-ज प्रीतिसुखवाले प्रथम ध्यान२ को प्राप्त होकर विहार करता करता है । द्वितीय, ० तृतीय ० चतुर्थ ध्यान ० । भिक्षुओ । यही भिक्षुका सुख है ।

“भिक्षुओ । भिक्षुका भोग क्या है ॽ भिक्षुओ । भिक्षु मैत्री-युक्त चित्तसे एक दिशा ०३ । करुणा ० । मुदिता ० । उपेक्षा-युक्त चित्तसे ० । भिक्षुओ । यही भिक्षुका भोग है ।

“भिक्षुओ । भिक्षुका क्या बल है ॽ भिक्षुओ । भिक्षु आस्त्रवो (=चित्तमलो)के क्षय हो जानेसे आस्त्रव-रहित चित्तकी विभक्ति, प्रज्ञा द्वारा विमुक्तिको इसी जन्ममे जानकर, साक्षात् कर विहार करता है । भिक्षुओ । यही भिक्षुका बल है ।

“भिक्षुओ । मै दूसरा एक भी बल नही देखता, जो ऐसे मार-बलको जीत सके । भिक्षुओ । अच्छे (=कुशल) धर्मोके करनेके कारण इस प्रकार पुण्य बढता है ।”

भगवानने यह कहा । संतुष्ट हो भिक्षुओने भगवानके भाषणका अभिनन्दन किया ।