दीध-निकाय
27. अग्गञ्ञ-सुत्त (३।४)
१—वर्णव्यवस्थाका खंडन । २—मनुष्य जातिकी प्रगति । (१) प्रलयके बाद सृष्टि (२) सत्वोका आरम्भिक आहार । (३) स्त्री-पुरुषका भेद । (४) वैयक्तिक सम्पत्तिका आरम्भ । ३—चारो वर्णोका निर्माण । (१) राजा (क्षत्रिय) की उत्पत्ति । (२) ब्राह्मणकी उत्पत्ति । (३) वैश्यकी उत्पत्ति । (४) शूद्रकी उत्पत्ति । (५) श्रमण (=संन्यासी)की उत्पत्ति । ४—जन्म नही कर्म प्रधान है ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् श्रावस्तीमे मृगारमाताके प्रासाद पूर्वाराममे विहार करते थे ।
उस समय वाशिष्ट और भारद्वाज प्रब्रज्या लेनेकी इच्छासे भिक्षुओके साथ परिवास कर रहे थे ।
१—वर्णव्यवस्थाका खंडन
तब भगवान् सायकाल समाधिसे उठ प्रासादसे उतर पीछे छायामे, खुले स्थानमे टहल रहे थे । ० वाशिष्टने भगवानको ० टहलते देखा । देखकर भारद्वाजको सबोधित किया—
“आवुस भारद्वाज । भगवान् ० टहल रहे है । आओ, आवुस भारद्वाज । जहाँ भगवान् है, वहॉ चले । भगवानके पास धर्मोपदेश सुननेको मिलेगा ।”
“हॉ आवुस ।” कह भारद्वाजने वाशिष्टको उत्तर दिया ।
तब वाशिष्ट और भारद्वाज जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर भगवानके पीछे पीछे चलने लगे ।
तब भगवानने वाशिष्टको सबोधित किया—“वाशिष्ट । तुम तो ब्राह्मण-जाति और ब्राह्मण-कुलके हो । ब्राह्मण कुलसे घरसे बेघर हो प्रब्रजित होना चाहते हो । वाशिष्ट । क्या तुम्हे ब्राह्मण लोग नही निंदते है ॽ क्या तुम्हारी हँसी नही उळाते है ॽ”
“हॉ, भन्ते । ब्राह्मण लोग अपने अनुरूप पूरे परिहाससे हमे निन्दते, हँसते है ।”
“वाशिष्ट । किस प्रकार ० ब्राह्मण लोग निदते हँसी उळाते है ॽ”
“भन्ते । ब्राह्मण लोग कहते है—ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, दूसरे वर्ण हीन है, ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण है, दूसरे वर्ण कृष्ण है, ब्राह्मण ही शुद्ध होते है, अब्राह्मण नही, ब्राह्मण ही ब्रह्माके मुखसे उत्पन्न हुये पुत्र, ब्रह्मजात, ब्रह्मनिर्मित, और ब्राह्मदायाद है । सो तुम लोग श्रेष्ठ वर्णसे गिरकर नीच हो गये । ये मुण्डी, श्रमण, नीच (=इब्भ), कृष्ण, भ्रष्ट और ब्रह्माके पैरसे उत्पन्न है । यह आप लोगोको नही चाहिये, यह आप लोगोके अनुरूप नही है, कि आप लोग श्रेष्ठ वर्णको छोळ नीच वर्णके हो जाये, जो ० । भन्ते । ब्राह्मण लोग इसी तरह ० निदते और हँसी उळाते है ।”
“वाशिष्ट । वे ब्राह्मण पुरानी बातोको भूल जानेके कारण ही ऐसा कहते है—ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण ० । वाशिष्ट । ब्राह्मणोकी ब्राह्मणियाँ ऋतुनी होती देखी जाती है, गर्भिणी होती, ० प्रसव
करती ० और बच्चोको दूघ पिलाती ० । वे ब्राह्मण योनिसे उत्पन्न होकर भी ऐसा कहते है—ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण ०। वे ब्रह्माके विषयमे झूठी बात कहते है, मिथ्या भाषणकरके बहुत अ-पुण्य कमाते है ।
“वाशिष्ट । क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र चार वर्ण है । क्षत्रियोमे भी कितने जीवहिसा करते है, चोरी करते है, मिथ्याचार करते है, झूठ बोलते है ० मिथ्या-दृष्टिवाले होते है। वाशिष्ठ । इस तरह जो घर्म बुरा (=अकुशल), सदोष, असेवनीय, अनार्य, कृष्ण, कृष्णविपाक (=बुरे फल वाला), विद्वान् लोगोसे निन्दित है, उन्हे वे करते देखे जाते है ।
“वाशिष्ट । कितने ब्राह्मण भी ० वैश्य भी ० शूद्र भी जीव-हिसा करनेवाले ० मिथ्या-दृष्टिवाले होते है । इस तरह जो घर्म अकुशल ०, शूद्र भी उनको करते देखे जाते है ।
“वाशिष्ट । कितने क्षत्रिय भी जीव-हीसासे विरत देखे जाते है, चोरी करनेसे विरत ० सम्यक् दृष्टिवाले देखे जाते है । वाशिष्ट । इस तरह जो घर्म अच्छे निर्दोष ० उन्हे करते कितने क्षत्रिय भी देखे जाते है, ब्राह्मण भी ० । वेश्य भी ० । कितने शूद्र भी जीव-हिसासे विरत ० ।
“वाशिष्ट । इन चारो वर्णोमे इस प्रकार कृष्ण और शुक्ल घर्मोको करनेवाले, विद्वान् पुरुषोसे निन्दित और प्रशसित कार्योको करनेवाले, दोनो तरहके मनुष्य पाये जाते है, तो ब्राह्मण कैसे कहते है—ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण ० ? कितु विद्वान लोग इसे वैसा नही मानते । सो क्यो ? वाशिष्ट । इन्ही चारो वर्णोमे जो भिक्षु अर्हत्, क्षीणास्त्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ-प्राप्त, भव-वघन-मुक्त, ज्ञानी और विमुक्त होता है, वह सभीसे बढ जाता है, घर्मसे ही अघर्मसे नही ।
“वाशिष्ट । मनुष्यसे धर्मही श्रेष्ठ है, इस जन्ममे भी परजन्ममे भी । वाशिष्ट । तब इस तरह भी समझाना चाहिये कि मनुष्यमे ० । वाशिष्ट । कोनलराज प्रसेनजित् जानता है, कि अनुपम श्रमण गोतम शाक्य कुलसे प्रब्रजित हुआ है । वाशिष्ट । शाक्य लोग कोसलराज प्रसेनजितके आघीन (=अनुयुत्त=आनुयुक्त) है । शाक्य लोग कोसलराज प्रसेनजितको नमन, अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथ जोळना, तथा सत्कार करते है । वाशिष्ट । जिस तरह शाक्य लोग ० प्रसेनजितको करते हे वैसे ही ०प्रसेनजित् तथागतके प्रति करता है ।—वह क्या इसलिये कि श्रमण गौतम सुजात है, मै दुर्जात हूँ, श्रमण गौतम बलवान् है, मै दुर्बल है, श्रमण गौतम सुन्दर है, मै कुम्प हूँ, श्रमण गौतम बळे भारी है, मै बहुत छोटा हलका हूँ ? (नही) घर्महीका सत्कार करते, गुरुकार करते ० कोसलराज प्रसेनजित् इस प्रकार तथागतको बळा मानता है ० सत्कार करता है ।
“वाशिष्ट । इस प्रकार भी जानना चाहिये कि घर्म ही मनुष्यमे श्रेष्ठ है ० । वाशिष्ट । नाना जातिके, नाना नामके, नाना गोत्रके, नाना कुलके तुम लोग घरसे बेघर हो प्रब्रजित होते हो । ‘तुम लोग कौन हो ?’ पूछे जानेपर ‘हम लोग शाक्यपुत्रीय धमण है’— ऐसा कहते हो । वाशिष्ट । तथागतमै जिसकी श्रद्धा गळी है, जमी है, प्रतिष्ठत है, दृढ है, वह किसी भी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा या ससारमे और किसी (व्यक्ति) से डिगाया नही जा सकता । (और) उसीका कहना ठीक है— मै भगवान् के मृग्दने उत्पन्न, घर्मसे उत्पन्न, घर्म-निम्सित और घर्म-दायाद पुत्र है । सो किस हैतु ? वाशिष्ट । घर्म-काय ब्रह्म-काय, घर्म-भूत, ब्रह्म-भूत—यह तथागतका ही नाम (=अघिवचन) है ।
२— मनुष्य जातिकी प्रगति
(१) प्रलयके बाद सृष्टि
वाशिष्ट । बहुत दिनोके बीतनेके बाद एक समय आवेगा जब उस लोगका सवर्त (=प्रलय) होगा । सवर्त हो जानेपर लोकमे रहनेवाले अधिकतर प्राणी (=सत्व) आभास्वर (देवो) मे रहते है । वे वहाँ मनोमन प्रीतिभद्रा, स्वरप्रभ, आकाशचारी, शुभचारी होकर बहुत दिन रहते है । बहुत दिनोके बितनेके बाद कभी एक समय आयेगा जब उन लोक विश्न (=वृष्टि) होगा ।
होनेपर अनेक सत्व आभास्वर लोकसे च्युत हो यहॉ आते है । वे यहॉ मनोमय ० । उस समय सभी जगह पानी ही पानी होता है । बहुत अन्धकार फैला रहता है । न चाँद और न सूरज दिखाई देते है । न नक्षत्र और न तारे दिखाई देते है । न रात और न दिन मालूम पळते है । न मास और न पक्ष मालूम पळते है । न ऋतु और न वर्ष ० । न स्त्री और न पुरुष ० । सत्त्व है, सत्त्व है—बस यही उनकी सज्ञा होती है ।
(२) सत्वों (मनुष्यों)का आरम्भिक आहार
“तब वाशिष्ट । बहुत दिनोके बीतनेके बाद उन सत्वोके लिये जलपर, गरम दूधके ठडा होनेपर ऊपर मलाईके जमनेकी भाँति रसा पृथिवी फैली । वह वर्ण सम्पन्न, गन्धसम्पन्न, रससम्पन्न थी, जैसे कि मक्खन घीसे सम्पन्न रहता है, इसी तरहसे ० । जैसे कि मधु-मक्खियोका निर्दोष मधु होता है वैसा उसका स्वाद था ।
“वाशिष्ट । तब कोई सत्व लालची था । ‘अरे, यह क्या है’, (सोच, वह) रसा पृथिवीको अँगुलीसे चाटने लगा । ० चाटनेसे उसे तृष्णा उत्पन्न हुई । दूसरे भी सत्व उस सत्वकी देखा देखी रसा पृथ्वीके रसको पाकर अँगुलीसे चाटने लगे । ० उन्हे भी तृष्णा उत्पन्न हुई ।
“वाशिष्ट । तब वे सत्व हाथोसे रसा पृथ्वीको ग्रास-ग्रास करके खाने लगे । ० खानेसे उन सत्वोकी स्वाभाविक प्रभा अन्तर्धान हो गई । ० अन्तर्धान होनेसे चाँद और सूरज प्रकट हुये । चाँद और सूरजके प्रकट होनेपर नक्षत्र और तारे प्रकट हुये । रात और दिनके मालूम होनेसे मास और पक्ष मालूम पळने लगे । मास और पक्षके मालूम ० ऋतु और वर्ष मालूम पळने लगे । वाशिष्ट । इस तरहसे फिर भी लोकका विवर्त (=सष्टि, उदघाटन) होता है ।
“तब, वे सत्व रसा पृथ्वीको (जैसे जेसे) बहुत दिनो तक खाते रहे । ० वैसे वैसे उनका शरीर कर्कश होने लगा, उनके वर्णमे विकार मालूम पळने लगा । कोई सत्व सुन्दर थे तो कोई कुरुष । जो सत्व सुन्दर थे, सो अपनेको कुरूष सत्वोसे ऊँचा समझते थे—हम लोग इन लोगोसे सुन्दर (वर्णवान्) है, हम लोगोसे ये लोग दुर्वर्ण (=कुरूष) है । उनके अपने वर्णके अभिमानसे रसा पृथ्वी अन्तर्धान हो गई । रसा पृथ्वीके अन्तर्धान हो जानेपर वे सत्व इकट्ठे होकर चिल्लाने लगे—‘अहो रस, अहो रस । उसी से आज भी जब मनुष्य कुछ सुरस (चीज) पाते है तो कहने लगते है—‘अहो रस । अहो रस ।’ यह उसी अग्र (=प्रथम) पुराने अक्षर (=बात) को स्मरण करते है, किंतु उसके अर्थको नही जानते ।
“तब वाशिष्ट । उन प्राणियोके (लिये) रसा पृथ्वीके अन्तर्हित हो जानेपर अहिच्छत्रक (=नागफनी) सी भूमिकी पपळी प्रकट हुई । वह वर्णसम्पन्न, गन्धसम्पन्न और रससम्पन्न थी, जैसे कि मक्खन घीसे सम्पन्न ० । जैसे ० मधु ० । वाशिष्ट । तब वे सत्व भूमिकी पपळीको खाने लगे । वे उसीको बहुत दिनो तक खाते रहे ।० उन सत्वोके शरीर अधिकाधिक कर्कश होने लगे, उनके वर्णमे विकार मालूम पळने लगा । ० । उनके वर्णके अभिमानसे भूमिकी पपळी अन्तर्धान हो गई ।
“तब वाशिष्ट । ० उसके अन्तर्धान होनेपर भद्रलता (=एक स्वादिष्ट लता) प्रकट हुई । जैसे कि कलम्बुक (=सरकण्डा) प्रकट होता है । वह वर्ण-सम्पन्न (थी) ० मधु ० ।
“वाशिष्ट । तब वे सत्व भद्रलताको खाने लगे । ० उसे बहुत दिनो तक खाते रहे । ० उनके शरीर अधिकाधिक कर्कश होने लगे । उनके वर्णमे बिकार मालूम पळने लगा । ० । उनके वर्णके अभिमानसे उनकी वह भद्रलता अन्तर्धान हो गई । ० अन्तर्धान होनेपर वे इकट्ठे होकर चिल्लाने लगे— “हाय रे हमे । हाय हमारी कैसी अच्छी भद्रलता थी ।’ उसीसे आज भी मनुष्य लोग कुछ दुखमे पळनेपर ऐसा कहा करते है—‘हाय रे हमे । हाय हमारी भद्रलता थी ।।’ आज भी दुख पळनेपर मनुष्य उसी पुरानी बातको स्मरण करते है, किन्तु उसके अर्थको नही जानते ।
(३) स्त्री-पुरुषका भेद
“वाशिष्ट । तब उनकी भद्रलताके अन्तर्घान हो जानेपर, अकृष्ट-पच्य (=बिना बोया जोता) धान प्रादुर्भूत हुआ, वह चावल कण और तुषके बिना (तथा) सुगन्धित था । जिसे वह शामके भोजनके लिये शामको लाते थे । किर वह प्रात बढकर पककर तैयार हो जाता था । जिसे वह प्रात प्रातराशके लिये लाते थे, वह शामको बढकर पक जाता था । काटा मालूम नही होता था । तब ० उस अकृष्ट-पच्य शालीको वह बहुत दिनो तक खाते रहे । ० उन सत्वोके शरीर अधिकाधिक कर्कश होने लगे । उनके वर्णमे विकार मालूम पळने लगा । स्त्रियोको स्त्री-लिग, पुरुषोको पुरुष-लिग उत्पन्न हो गये । स्त्री, पुरुषको बार बार ऑख लगाकर देखने लगी, पुरुष स्त्रीको ० । परस्पर ऑख लगाकर देखनेसे, राग उत्पन्न हो गया, शरीरमे (प्रेमकी) दाह लगने लगी । दाहके कारण उन्होने मैथुन कर्म किया । वाशिष्ट । उस समय लोग जिन्हे मैथुन करते देखते उनपर कोई घूली फेकता, कोई कीचळ फेकता और कोई गोबर फेकता था―‘हट जा वृषली (=शूद्री) । हट जा वषली । कैसे एक सत्व दूसरे सत्वको ऐसा करेगा ।’ सो आज भी लोग किन्ही किन्ही देशोमे (नवोढा) बघूको ले जाते समय, घूली, फेकता ० । वह उसी पुरानी बातको स्मरण कर कितु उसका अर्थ नही जानते । वाशिष्ट । उस समय जो अघर्म समझा जाता था, वही अब धर्म समझा जाता है । वाशिष्ट । जो सत्व उस समय मैथुन-कर्म करते, वह तीन मास भी, दो मास भी गॉव या निगममे नही आने पाते थे, उस समय बार बार गिरने लगे, अधर्ममे पतित हुये थे, तब, उसी अघर्मको छिपाने के लिये घर बनाना आरम्म किया ।
(४) वैयत्किक सम्पतिका आरम्भ
“वाशिष्ट । तब किसी आलसीके मनमे यह आया―‘शाम सुबह, दोनो समय धान (=शाली) लानेके लिये जानेका कष्ट कयो उठावे ? क्यो न एक ही बार शाम-सुबह दोनोके खानेके लिये शाली ले आवे ।’ तब वह प्राणी एक ही बार ० ले आया । तब, कोई दूसरा प्राणी उस प्राणीके पास गया जाकर बोला―‘आओ, हम लोग शालि लानेके लिये चले ।’ हे सत्व । हम ० एक ही बार ० ले आये है ।’
“तब वाशिष्ट । वह सत्व भी उस सत्वकी देखादेखी एक ही बार शालि ले आया―‘यह तो बहुत अच्छा है, (सोचा) । वाशिष्ट । तब कोई प्राणी जहॉ वह पुरुष था वहॉ गया, जाकर बोला―‘आओ । शालि लाने चले ।’ ‘हे सत्व । हम ० एक ही बार ० दो दिनोके लिये ले आये है ।’ वाशिष्ट । तब वह सत्व भी उसकी देखादेखी एक ही बार चार दिनोके लिये शालि ले आया यह तो बहुत अच्छा है’ ।० देखादेखी आठ दिनके लिये ० ।
“तबसे प्राणी शालि एक जगह जमा करके खाने लगे । तब चावलके ऊपर कन भी भूसी भी होने लगी ।
(तब किसी जगहसे) एक बार उखाळ लेनेपर फिर नही जमनेके कारण वह स्थान (खाली) मालुम होने लगा । शालि (का खेत) खड खड दिखलाई देने लगी ।
“वाशिष्ट । तब वे सत्व इकट्ठे हो, ० चिल्लाने लगे―‘हम प्राणियोमे पाप धर्म प्रकट हो रहे है । हम लोग पहले मनोमय ० थे, बहुत दिन तक जीते थे । बहुत दिनोके बीतनेके बाद जलमे पृथ्वी हुई, वर्ण-सम्पत्र ० । उस रसा पृथ्वीको हम लोग ग्रास ग्रास करके खाने लगे ० स्वाभाविक प्रभा अन्तर्घान हो गई । उसके अन्तर्घान होनेसे चाँद सूरज ० नक्षत्र और तारे ० रात-दिन ० मास-पक्ष ० ऋतु-वर्ष ० । रसा पृथ्वीको हम लोग बहुत दिनो तक खाते रहे । तब, हम लोगोके पाप अकुशल घर्मके प्रादुर्भूत होनेके कारण रसा पृथ्वी अन्तर्घान हो गई । ० अन्तर्घान होनेपर भूमिमे पपळी ० । उसे हम लोग ० खाते रहे । ० ।० पाप (=अकुशल घर्म) के प्रादुर्भत होनेके कारण भूमिकी पपळी अन्तर्घान हो गई । ० भद्रलता अन्तर्घान हो गई । ० उस शालिको हम लोग बहुत दिनो तक खाते रहो । तब, हम
लोगोके पाप=अकुशल धर्मके प्रकट होनेसे कन भी, भूसी भी चावलके ऊपर आ गई ० । आओ, हम लोग शालि (-खेत) बॉट ले, मेड (=मर्यादा) बॉध दे । तब उन लोगोने शालि बॉट ली, और मेड बॉध दी ।
“वाशिष्ट । तब कोई लालची सत्व अपने भागकी रक्षा करता दूसरेके भागको चुरा कर खा गया । उसे लोगोने पकळ लिया, पकळकर बोले—‘हे सत्व । तुम यह पाप-कर्म करते हो, जो कि ० दूसरेके भागको चुराकर खा रहे हो । मत फिर ऐसा करना ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने उन सत्वोको उत्तर दिया । दूसरी बार भी वह ० दूसरेके भागको चुराकर खा गया । लोगोने उसे पकळ लिया, ० बोले—तुम यह पाप कर्म ० । तीसरी बार भी ० । कोई हाथसे मारने लगा, कोई डलेसे, कोई लाठीसे । वाशिष्ट । उसीके बादसे चोरी, निन्दा, मिथ्या-भाषण ओर दण्ड-कर्म होने लगे।
“वाशिष्ट । तब वे प्राणी इकट्ठे हो कहने लगे—‘प्राणियोमे पाप-धर्म प्रकट हुये है, जो कि चोरी ० । अत हम लोग ऐसे एक प्राणीको निर्वाचित करे, जो हम लोगोके निन्दनीय कर्मोकी निन्दा करे, उचित कर्मोको बतलावे, निकालने योग्यको निकाल दे । और हम लोग उसे अपने शालिमेसे भाग दे ।’
३—चारों वर्णोंका निर्माण
(१) राजा (क्षत्रिय)की उत्पत्ति
“वाशिष्ट । तब वे प्राणी, जो उनमे वर्णवान् (=सुन्दर), दर्शनीय, प्रासादिक, और महाशक्ति-शाली था उसके पास जाकर बोले—‘हे सत्व । उचितानुचितका ठीकसे अनुशासन करो, निन्दनीय कर्मोकी निन्दा करो, उचित कर्मोको बतलाओ, निकालने योग्यको निकाल दो, हम लोग तुम्हे शालिका भाग देगे ।’ ‘बहुत अच्छा’ कह ० स्वीकार कर लिया । वह ठीकसे उचितानुचितका अनुशासन करता था ० लोग उसे शालिका भाग देते थे । “वाशिष्ट । महाजनो द्वारा सम्मत होनेसे ‘महासम्मत महासम्मत’ करके उसका पहला नाम पळा । क्षेत्रोका अधिपति होनेसे ‘क्षत्रिय क्षत्रिय’ करके दूसरा नाम (क्षत्रिय) पळा । धर्मसे दूसरोका रञ्जन करता था, अत ‘राजा राजा’ करके तीसरा नाम (राजा) पळा ।
“वाशिष्ट। इस तरह इस क्षत्रिय मडलका पुराने अग्रण्य अक्षरसे निर्माण हुआ । उन्ही पुरुषोका, दूसरोका नही, धर्मसे, अधर्मसे नही । “वाशिष्ट । मनुष्यमे धर्म ही श्रेष्ठ है, इस जन्ममे भी और परजन्ममे भी ।
(२) ब्राह्मणकी उत्पत्ति
तब, उन्ही प्राणियोमे किन्ही किन्हीके मनमे यह हुआ—प्राणियोमे पापधर्म प्रादुर्भूत हो गये है, जो कि चोरी ० होती है । अत हम लोग पाप=अकुशल धर्मोको छोळ दे । उन लोगोने पाप अकुशल धर्मोको छोळ दिया । वाशिष्ट । पाप अकुशल धर्मोको छोळ (=बाह) दिया, इसीलिये ‘ब्राह्मण ब्राह्मण’ करके उनका पहला नाम पळा । वे जगलमे पर्णकुटी बनाकर वही ध्यान करते थे । उनके पास अगार न था, धुआ न था, मुसल न था, वह शासको शामके भोजनके लिये सुबहको सुबहके भोजनके लिये ग्राम, निगम और राजधानियोमे जाते थे । भोजन कर फिर जगलमे अपनी कुटीमे आकर ध्यान करते थे । उन्हे देखकर मनुष्योने कहा—ये सत्व जगलमे पर्णकुटी बना ध्यान करते है, इनके पास अगार नही, धुआ नही, मुसल नही ० ध्यान करते है । ‘ध्यान करते है’ करके उनका दूसरा नाम ध्यायक पळा । वाशिष्ट । उन्ही सत्वोमे कितने जगलमे पर्णकुटी बना ध्यान न पूरा कर सकनेके कारण ग्राम या निगमके पास आकर ग्रथ बनाते हुये रहने लगे । उन्हे देखकर मनुष्योने कहा—० ग्रथ बनाते हुये रहते है, ध्यान नही करते । ‘ध्यान नही करते’ ‘ध्यान नही करते’ करके अध्यापक यह तीसरा नाम पळा । वाशिष्ठ । उस समय वह नीच समझा जाता था, कितु आज वह श्रेष्ठ समझा जाता है ।
“वाशिष्ट । इस तरह इस ब्राह्मण-मडलका पुराने अग्रण्य अक्षरसे निर्माण हुआ, उन्ही प्राणियोका, दूसरोका नही, धर्मसे अ-धर्मसे नही । वाशिष्ट । धर्म ही मनुष्यमे श्रेष्ठ है, इस जन्ममे भी और परजन्ममे भी ।
(३) वैश्यकी उत्पत्ति
“वाशिष्ट । उन्ही प्राणियोमे कितने मैथुन कर्म करके नाना कामोमे लग गये । वाशिष्ट । मैथुन कर्म करके नाना कामोमे लग जानेके कारण ‘वैश्य’ ‘वैश्य’ नाम पळा । वाशिष्ट । इस तरह इस वैश्य-मंडलका पुराने अग्रण्य अक्षरसे नाम पळा । ० वाशिष्ट । घर्मही मनुष्यमे श्रेष्ठ है ० ।
(४) शूद्रकी उत्पत्ति
“वाशिष्ट । उन्ही प्राणियोमे बचे जो क्षुद्र-आचारवाले प्राणी थे । ‘क्षुद्र-आचार’ ‘क्षुद्र-आचार’ करके शूद्र अक्षर उत्पन्न हुआ । वाशिष्ट । इस तरह ० । वाशिष्ट धर्म ही मनुष्यमे श्रेष्ठ है ० ।
(५) श्रमण (=सन्यासी) की उत्पत्ति
“वाशिष्ट । एक समय था जब क्षत्रिय भी―‘मै श्रमण होऊँगा’ (सोच) अपने धर्मको निदते घरसे बेघर हो प्रब्रजित हो जाता था । ब्राह्मण भी ० । वैश्य भी ० । शुद्र भी ० ।
“वाशिष्ट । इन्ही चार मंडलोसे श्रमण-मंडलकी उत्पत्ति हुई । उन्ही प्राणियोका ० । धर्म ही मनुष्योमे श्रेष्ठ ० ।
४―जन्म नहीं कर्म प्रधान है
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी कायासे दुराचार, वचन और मनसे दुराचारकर, मिथ्या-दृष्टिवाले हो, मिथ्या-दृष्टिके
(=झूठी धारणा) अनुकूल आचरण करते है । और उसके कारण मरनेके बाद ० दुर्गति ० नरकमे उत्पन्न होते है । ब्राह्मण भी ० । वैश्य भी ० । शूद्र भी ० । श्रमण भी ० ।
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी कायासे सदाचार करके ० सम्यग्-दृष्टि ० । और उसके कारण मरनेके बाद ० स्वर्गंमे उत्पन्न होते है । ब्राह्मण भी ० । वैश्य भी ० । शूद्र भी ० । श्रमण भी ० ।
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी काया ० वचन ० मनसे दोनो (तरहके) कर्म करके, (सच झूठ दोनो) – से मिश्रित दृष्टि (=धारणा) रख, मिश्रित दृष्टिवाले कर्मको करके काया छोळ मरनेके बाद सुख दुख (दोनो) भोगनेवाले । ब्राह्मण भी ० । वैश्य भी ० । शूद्र भी ० । श्रमण भी ० ।
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी काया ० वचन ० मनसे सयत ० हो सैतीस बोधि-पाक्षिक१ धर्मोकी भावना करके इसी लोकमे निर्वाणको प्राप्त करता है । ब्राह्मण भी ० । वैश्य भी ० । शूद्र भी ० । श्रमण भी ० ।
“वाशिष्ट । इन्ही चार वर्णोमे जो भिक्षु अर्हत्=क्षीणास्त्रव, समाप्त-ब्रह्मचर्य, कृतकृत्य, भार-मुक्त, परमार्थ-प्राप्त, भववधन-मुक्त, ज्ञानी और विमुकत होता है, वही उनमे श्रेष्ठ कहा जाता है । धर्मसे, अधर्मसे नही । वाशिष्ट । धर्म ही मनुष्यमे श्रेष्ठ है, इस जन्ममे भी और परजन्ममे भी ।
“वाशिष्ट । ब्रह्मा सनत्कुमारने भी गाथा कही है―
‘गोत्र लेकर चलनेवाले जनोमे क्षत्रिय श्रेष्ठ है ।
जो विद्या ओर आचरणसे युक्त है, वह देवमनुष्योमे श्रेष्ठ है’ ।।१।।
“वाशिष्ट । यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमारने ठीक ही कही है, वेठीक नही कही । सार्थक कही, अनर्थक नही । इसका मै भी अनुमोदन करता हूँ―
‘गोत्र लेकर ०’ ।।१।।
भगवानने यह कहा । संतुष्ट हो वाशिष्ट और भारद्वाजने भगवानके भाषणका अनमोदन किया ।