दीध-निकाय
28. सम्पसादनिय-सुत्त (३।५)
१—परमझानमें बुद्ध तीनो कालमें अनुपम । २—बुद्ध के उपदेशोकी विशेषतायें । ३—बुद्धमें आभिमान-शून्यता ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् नालन्दाके प्रचारिक-आम्रवनमे विहार करते थे ।
तब आयुष्मान् सारिपुत्र जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान सारिपुत्रने भगवानसे यह कहा १—
१—परमझानमें बुद्ध तीनों कालमें अनुपम
“भन्ते । मै ऐसा प्रसन्न (=श्रद्धावान्) हूँ—‘संबोधि (=परम झान) मे भगवानसे बढकर =भूयस्तर कोई दूसरा श्रमण ब्राह्मण न हुआ, न होगा, न इस समय है’ ।”
“सारिपुत्र । तूने यह बहुत उदार (=बळी) आर्षभी वाणी कही । एकाश सिहनाद किया—‘मै ऐसा प्रसन्न हूँ ० ।’ सारिपुत्र । अतीतकालमे जो अर्हत् सम्यक्-सबुद्ध हुए थे, क्या (तूने) उन सब भगवानोको (अपने) चित्तसे जान लिया, कि वह भगवान् ऐसे शीलवाले, ऐसी प्रज्ञावाले, ऐसे विहारवाले, ऐसी विमुक्तिवाले थे ?”
“नही, भन्ते । ”
“सारिपुत्र । जो वह भविष्यकालमे अर्हत् सम्यक्-सबुद्ध होगे, कया उन सब भगवानोको चित्तसे जान लिया ० ?” “नही, भन्ते ।”
“सारिपुत्र । इस समय मै अर्हत् सम्यक्-सबुद्ध हूँ, कया चित्तसे जान लिया, (कि मै) ऐसी प्रज्ञा-वाला ० हुँ ?” “नही भन्ते । ”
“(जब) सारिपुत्र । तेरा अतीत, अनागत (=भविष्य), प्रत्युत्पन्न (=वर्तमान) अर्हत्-सम्यक्-सबुद्धोके विषयमे चेत-परिज्ञान (=पर-चित्तज्ञान) नही है, तो सारिपुत्र । तूने कयो यह बहुत उदार=आर्षभी वाणी कही ० ?”
“भन्ते । अतीत-अनागत-प्रत्युत्पन्न अर्हत्-सम्यक्-सबुद्धोमे मुझे चेत-परिज्ञान नही है, किन्तु (सबका) धर्म-अन्वय (=धर्म-समानता) विदित है । जैसे कि भन्ते । राजाका सीमान्त-नगर दृढ नीववाला, दृढ-प्राकारवाला, एक द्वारवाला हो । वहाँ अज्ञातो (=अपरिचितो) को निवारण करने-वाला, ज्ञातो (=परिचितो) को प्रवेश करानेवाला पंडित=व्यक्त, मेघावी द्वारपाल हो । वहॉ नगरके चारो ओर, अनुपर्याय (=क्रमसे) मार्गपर घूमते हुए (मनुष्य), प्रकारमे अन्ततो बिल्लीके निकलने भरकी भी सधि=विवर न पाये, उसको ऐसा हो—‘जो कोई बळे बळे प्राणी इस नगरमे प्रवेश करते है, सभी इसी द्वारसे ० । ऐसे ही भन्ते । मैने धर्म-अन्वय जान लिया—‘जो अतीतकालमे
अर्हत्-सम्यक्-सबुद्ध हुए, वह सभी भगवान् चितके मल, प्रज्ञाको दुर्बल करनेवाले पॉचो नीवरणोको छोळ, चारो स्मृति-प्रस्थानोमें चित्तको सु-प्रतिष्ठितकर, सात बोध्यगोकी यथार्थसे भावनाकर, सर्वश्रेष्ठ सम्यक्-सबोधिका अभि-संबोधन किये थे—’ । और भन्ते । अनागतमे भी जो अर्हत्-सम्यक्-सबुद्ध होगे, वह सभी भगवान् ० । भन्ते । इस समय भगवान् अर्हत्-सम्यक्-सबुद्धने भी चित्तके उपकलेश ० ।”
२—बुद्धके उपदेशोंकी विशेषतायें
१—“भन्ते । एक बार मै धर्म सुननेके लिये जहॉ भगवान् थे वहॉ गया, तब मुझे भगवानने अच्छे बुरेको विभकत करके उत्तरोत्तर सुन्दर धर्मका उपदेश किया, जैसे जैसे भगवानने मुझे अच्छे बुरेको विभक्तकर उत्तरोत्तर सुन्दर धर्मका उपदेश किया, वैसे वैसे उन धर्मोमेसे कुछको जानकर उन धर्मोमे मेरी निष्ठा हुई, मै शास्ताके प्रति बळा प्रसन्न हुआ—भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध है, भगवानका धर्म अच्छी तरह व्याख्यात है, भगवानका श्रावक-संघ सुमार्गारुढ है ।
२—“भन्ते । इससे भी और बढकर है, जो कि भगवान् कुशल धर्मो (=अच्छाइयो)का उपदेश करते है । (वे कुशल धर्म ये है ) जैसे कि—चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक्-प्रधान, चार ऋद्धि-पाद, पॉच इन्द्रिय, पॉच बल, सात बोध्यडग, आर्य अष्टागिडक मार्ग१ । भन्ते । भिक्षु आस्त्रवो (=चित्त-मलो)के क्षयसे आस्त्रव-रहित चेतोविमुकित (=चित्तकी मुकित) और प्रज्ञाविमुकित (=ज्ञान द्रारा मुकित)को इसी जन्ममे स्वंय जान और साक्षातकरके विहार करता है । भन्ते । कुशल धर्मोमे यह सबसे बढकर है जिन्हे कि भगवान् अशेष जानते है । अशेष जाननेवाले भगवानके लिये कुछ और ज्ञातव्य नही छूटा है, जिसे कि जानकर दूसरा श्रमण या ब्राह्रण भगवानसे कुशल धर्मोमे बढ जाये ।
३—“भन्ते । इससे भी और बढकर है, जो कि भगवान् आयतन प्रज्ञप्तियो (=आयतनोके व्याख्यान)का उपदेश करते है । भन्ते । बाहर और भीतर मिलाकर छै आयतन है—(१) चक्षु और रुप, (२) श्रोत्र और शब्द, (३) घ्राण और गन्ध, (४) जिह्रवा और रस, (५) काया और स्पर्श, (६) मन और धर्म । भन्ते । आयतनप्रज्ञप्तिमे यह सबसे बढकर है, जिसे कि भगवान् अक्षेप जानते है । अक्षेप जाननेवाले ० जिसे कि जानकर दूसरा श्रमण या ब्राह्मण भगवानसे आयतन प्रज्ञप्तिमे बढ जाये ।
४—“भन्ते । इससे भी और बढकर है जो कि भगवान् प्राणियेके गर्भ-प्रवेशके विषयमे उपदेश करते है । भन्ते । प्राणियोका गर्भमे प्रवेश चार प्रकारसे होता है । भन्ते । कोई प्राणी (१) न जानते हुए माताकी कोखमे प्रवेश करता है, न जानते हुए माताकी कोखमे ठहरता है, न जानते हुए माताकी कोखसे निकलता है । यह गर्भमे आनेका पहला प्रकार है । (२) भन्ते । फिर, कोई प्राणी जानते हुए ० प्रवेश करता है, न जानते हुए ० ठहरता ० निकलता है । यह ० दूसरा प्रकार है । (३) भन्ते । फिर, कोई प्राणी जानते हुए ० प्रवेश करता है, ठहरता है, न जानते हुए निकलता है । यह ० तीसरा प्रकार है । (४) भन्ते । फिर, कोई प्राणी जानते हुए ० प्रवेश करता है ० ठहरता ० निकलता है । यह ० चोथा प्रकार है । भन्ते । यह अनुपम गर्भ-प्रवेश (के व्याख्यानो)मे है ।
५—“भन्ते । इससे भी और बढकर है जो कि भगवान् आदेशनाविधिका धर्मोपदेश करते है । भन्ते । चार प्रकारकी आदेशनाविधि है । (१) भन्ते । कोई निमित (=लक्षण) जानकर आदेश करता है—तुम्हारा ऐसा मन है, तुम्हारा वैसा मन है, तुम्हारा ऐसा चित्त है । वह यदि बहुत भी आदेश करता है, तो (भी वह) ठीक वैसा ही होता है, अन्यथा नही । यह पहली आदेशनाविधि है ।
(२) भन्ते । कोई बिना निमित्तहीके आदेश करता है । मनुष्यके, अमनुष्य (=देवता)के, या देमताओके शब्दको सुनकर आदेश करता है―तुम्हारा ऐसा मन ० । यह दुसरी आदेशनाविधि है । (३) भन्ते । फिर कोईन निमित्तसे और न मनुष्य-अमनुष्यके शब्दको सुनकर आदेश करता हे, बल्कि वितर्क और विचार समाधिमे आरुढके चित्तको अपने चित्तसे जान कर आदेश करता है―ऐसा भी तुम्हारा मन ० । यह तीसरी आदेशनाविधि है । (४) भन्ते । किर कोई ० न वितर्कसे निकले शब्दको सुनकर आदेश करता है, बल्कि वितर्क विचार रहित समाधिमे स्थित हुए चित्तसे चित्तकी बात जान लेता हे―आप (लोगो) के मानसिक संस्कार प्रणिहित (=एकाग्र) है, जिससे इस चित्तके बाद ही यह वितर्क होता है । यह चौथी आदेशनाविधि है । ० ।
६―“भन्ते । इससे भी और वढकर है जो कि भगवान् दर्शनसमापत्तिके विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । चार प्रकारकी दर्शन-समापत्तिया है । (१) भन्ते । कोई श्रमण या ब्राह्मण, उद्योग प्रधान, अनुयोग, अन-आलस्य (=अ-प्रमाद), ठीक मनोयोगके साथ वैसी चित्त-एकाग्रता (=समाधि) को प्राप्त होता है, जैसी चित्त-एकाग्रतासे कि उस एकाग्र (=समाहित) चित्तमे तलवेसे ऊपर, शिरसे नीचे, और चमळा मँढे इस शरीरको नाना प्रकारकी गन्दगीसे भरा पाता है―इस शरीरमे है―केश, रोम, नख, दन्त, चर्म, मास, स्नायु, हड्डी, मज्जा, वृकक, हदय यकृत, क्लोमक, प्लीहा, फुफ्फुस, ऑत, पतली ऑत, उदरस्थ (वस्तुये), पाखाना, पित्त, कफ, पीव, लोहू, पसीना, मेद (=वर), ऑसू, वसा (=चर्वी), लार, नासामल, लसिका (=शरीरके जोळोमे स्थित तरल द्रव्य) ओर मूत्र । यह पहली दर्शन-समापत्ति है । (२) भन्ते । फिर, कोई ० उस एकाग्र चित्तमे ० तलवेसे ऊपर ० इस शरीरको गन्दगी ० केश, रोम ० । पुरुषके भीतर केवल चमळा, मास, खून और हड्डी देखता है । यह दूसरी दर्शनसमापत्ति है । (३) भन्ते । किर, कोई ० उस एकाग्र चित्तमे ० पुरुषके भीतर ० । इस लोक और परलोकमे अ-खंडित, इस लोकमे प्रतिष्ठित और परलोकमे भी प्रतिष्ठित पुरुषके विज्ञान-स्त्रोत (=भूत, भविष्य, वर्तमान तीनो कालोमे बहती जीवनधारा) को जान लेता है । यह तीसरी दर्शनसमापत्ति है । (४) भन्ते । किर कोई ० उस एकाग्र चित्तमे ० । ० इस लोकमे अप्रतिष्ठित और परलोकमे अप्रतिष्ठित पुरुषके विज्ञान-स्रोत ० अ-खंडित । यह चौथी ० ।
७—“भन्ते । इससे भी और बढकर है कि भगवान् पुद्गलप्रज्ञप्ति विषयक धर्मोपदेश करते है । भन्ते । पुद्गल (=पुरुष) सात प्रकारके होते है—(१) रुपसमापत्ति और अरुप समापत्ति दोनो भागोसे विमुक्त (२) प्रज्ञा-विमुक्त (३) कायसाक्षी (४) दृष्टिप्राप्त (५) श्रद्धाविमुक्त (६) धर्मानुसारी, (७) श्रद्धानुसारी । भन्ते । इसके ० ।
८―“भन्ते । इससे भी और बढकर है जो कि भगवान् प्रधानोके विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । सम्बोधि (=परमज्ञान) के सात अडग है (१) स्मृति-सम्बोध्यडग (२) धर्मविचय-सम्बोध्यडग (३) वीर्य-सम्बोध्यडग (४) प्रीति-सम्बोध्यडग (५) प्रश्रब्धि-सम्बोध्यडग (६) समाधि-सम्बोध्यडग (७) उपेक्षा-सम्बोध्यडग । भन्ते । इसके ० ।
९―“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् प्रतिषदा (=मार्ग) के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । प्रतिषदा चार है । (९) दुखप्रतिषदा दन्धाभिज्ञा, (२) दुखाप्रतिषदा क्षिप्राभिज्ञा, (३) सुखाप्रतिषदा-दन्धाभिज्ञा, (५) सुखाप्रतिषदा क्षिप्राभिज्ञा । भन्ते । जो यह दुखाप्रतिषदा दन्धाभिज्ञा है वह दोनो प्रकारसे हीन समझी जाती है―दुख (-मय) होनेसे कारण और दन्ध (=धीमी) होनेके कारण । भन्ते । जो यह दुखाप्रतिषदा क्षिप्राभिज्ञा है, वह दुख (-मय) होनेसे हीन समझी जाती है । भन्ते । जो सुखाप्रतिषदा दन्धाभिज्ञा हे, वह दन्धा (=धीमी) होनेके कारण हीन समझी जाती है ।
भन्ते । जो यह सुखाप्रतिषदा क्षिप्राभिज्ञा है वह दोनो प्रकारसे अच्छी समझी जाती है, सुख(मय) होनेव कारण और क्षिप्र (=शीघ्र) होनेके कारण । भन्ते । इसके ० ।
१०—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् भस्स-समाचार (=वाचिक आचरण) के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । कोई (भक्षु) जीत जानेकी इच्छासे न झूठ बोलता है, न लळाई लगानेवाली बात कहता है, न चुगली खाता है और न वैरकी बाते करता है । प्रज्ञापूर्वक सोच समझकर ह्दयडगम करने योग्य समयोचित बात बोलता है । भन्ते । इसके ० ।
११—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् पुरुषके शील-समाचार (=शील संबंधी आचरण) के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । कोई भिक्षु सच्ची श्रद्धावाला होता है, न पाखंडी, न बकवादी, न नैमित्तिक न निष्प्रेषिक न लाभसे लाभ पानेकी इच्छावाला होता है, इन्द्रियोमे संयम रखनेवाला, मात्रासे भोजन करनेवाला, समान आचरण करनेवाला जागरणमे तत्पर, आलस्यसे रहित, वीर्यवान्, ध्यानपरायण, स्मृतिमान्, कल्याणी प्रतिभावाला, अच्छी गतिवाला, धृतिमान्, (और) मतिमान् होता है । सांसारिक भोगोमे लिप्त न हो, स्मृति और प्रज्ञासे युक्त होता है । भन्ते । इसके ० ।
१२—“भन्ते । इससे भी बढकर है जो कि भगवान् अनुशासनविधि-विषयक धर्मोपदेश करते है । भन्ते । अनुशासनविधि चार प्रकारकी होती है—(१) भन्ते । भगवान् अच्छी तरह मन लगाकर दूसरे मनुष्योके भीतरकी बात जान लेते है—यह मनुष्य किसके अनुसार आचरण करता, तीन संयोजनो (=सांसारिक बन्धनो) के क्षयसे मार्गसे च्युत न होनेवाला हो, दृढतापूर्वक सम्बोधिपरायण स्त्रोत-आपन्न होगा । (२) भन्ते । भगवान् ० भीतरकी बात जान लेते है—यह मनुष्य ० तीन संयोजनोके क्षयसे, राग, द्वेष और मोहके दुर्बल हो जानेसे सकृदागामी होगा, और एक ही बार इस लोकमे आकर अपने दुखोका अन्त करेगा । (३) भन्ते । भगवान् ० जान लेते है—यह मनुष्य ० पॉच इसी संसारमे फँसाकर रखनेवाले बन्धनो (=अवरभागीय संयोजनो) के कट जानेसे औपपातिक (=देवता) होगा=उस लोकसे फिर कभी नही लौटेगा (=अनागामी) । (४) भन्ते । भगवान् ० जान लेते है—यह मनुष्य ० आस्त्रवोके क्षय-हो जानेसे आस्त्रव-रहित चेतो-विमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्तिको यही जानकर, साक्षातकर विहार करेगा (=अर्हत होगा) । भन्ते । इसके ० ।
१३—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् परपुढ्गलविमुक्तिज्ञानके विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । भगवान् ० जान लेते है—यह मनुष्य ० स्त्रोतआपन्न ० सकृदागामी ० अनागामी ० चेतोविमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्तिको यही जान और साक्षातकर विहार करेगा (=अर्हत् होगा) ।
१४—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् शाश्वत-वादोके विषयमें धर्मोपदेश करते है । भन्ते । शाश्वतवाद तीन है—(१) भन्ते । कोई श्रमण या ब्राह्मण ०१ उस समाधिको प्राप्त करता है जिससे एकाग्र चित्त होनेपर अनेक प्रकार के पूर्व-जन्मोको स्मरण करता है—जैसे, एक जन्म ०१ । वह ऐसा कहता है—मै अतीत और अनागत कालकी बाते भी जनता हूँ, लोकका सवर्त(=प्रलय) होगा विवर्त (=प्रादुर्भव) होगा । आत्मा ओर लोक शाश्वत, वन्ध्य=कूटस्थ अचल है । प्राणी (नाना योनियोमे) दौळते है, फिरते है, मरते है, उत्पन्न होते है । उनका अस्तित्व सदा रहेगा । यह पहला शाश्वतवाद है (२) भन्ते । फिर, कोई ० एकाग्र चित्त होनेपर ० स्मरण करता है एक सवर्त ० । वह ऐसा कहता—मै अतीत और अनागत कालकी बात जानता हूँ ० । आत्मा ओर लोक शाश्वत है । यह
दूसरा शाश्वतवाद है । (३) भन्ते । फिर कोई ० स्मरण करता है ० दस सवर्त-विवर्त ० । वह ऐसा कहता है—मै अतीत और अनागतकी बाते जानता हूँ । आत्मा और लोक शाश्वत है ० । यह तीसरा शाश्वतवाद है । भन्ते । इसके ० ।
१५—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् पूर्वजन्मानुस्मृतिज्ञान (=पूर्व जन्मके स्मरण) के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । कोई श्रमण या ब्राह्रण ० एकाग्र चित्त होनेपर ० स्मरण करता है—एक जन्म ०, अनेक सवर्तकल्प, अनेक विवर्तकल्प, अनेक सवर्त-विवर्त कल्प । भन्ते । ऐसे देव है जिनकी आयुको न कोई गिन सकता है और न कह सकता है, किन्तु सरूप योनिमे या अरूप योनिमे, संज्ञावाले होकर या संज्ञाके बिना, या नैवसंज्ञा-नासंज्ञा होकर जस जिस आत्म-भाव (=शरीर)मे वे पहले रह चुके है, उन अनेक प्रकारके पूर्व-जन्मोको आकार और नामके साथ स्मरण करते है । भन्ते । इसके ० ।
१६—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् सत्वोके जन्म-मरणके ज्ञानके विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । कोई श्रमण या ब्राह्मण ० एकाग्र चित्त होनेपर अलौकिक विशुद्ध दिव्य चक्षुसे मरते, जनमते, अच्छे, बुरे, सुन्दर, कुरूप, अच्छी गतिको प्राप्त, बुरी गतिको प्राप्त सत्वोको देखता है । तथा ० अपने कर्मानुसार गतिको प्राप्त सत्वोको जान लेता है—ये सत्व कायिक दुराचारसे युक्त थे । ये मरनेके बाद ० दुर्गतिको प्राप्त होगे ।—ये सत्व कायिक सदाचारसे युक्त है । ये मरनेके बाद ० सुगतिको प्राप्त होगे । इस प्रकार अलौकिक विशुद्धि दिव्य चक्षुसे ० सत्वोको देखता है । मरते, जनमते ० सत्वोको जान लेता है । भन्ते । इसके अलावे ० ।
१७—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् ऋद्धिविध (=दिव्यशक्ति)के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । ऋद्धिविध दो प्रकारकी है । भन्ते । जो आस्त्रव-युक्त और उपाधि-युक्त ऋद्धियॉ है, वह अच्छी नही कही जाती । भन्ते । जो आस्त्रव-रहित और उपाधि-रहित ऋद्धियॉ है, वह अच्छी कही जाती है । (१) भन्ते । वह कोनसी उपाधि-युक्त और आस्त्रव-युक्त ऋद्धियॉ है, जो अच्छी नही कही जाती ॽ—
ऋद्धियॉ—“वह इस प्रकारके एकाग्र, शुद्ध ० चितको पाकर अनेक प्रकारकी ऋद्धिकी प्राप्तिके लिये चितको लगाता है । वह अनेक प्रकारकी ऋद्धियोको प्राप्त करता है—एक होकर बहुत होता है, बहुत होकर एक होता है, प्रकट होता है । अन्तर्धान होता है । दीवारके आरपार, प्राकारके आरपार और पर्वतके आरपार बिना टकराये चला जाता है, मानो आकाशमे (जा रहा हो) । पृथिवीमे गोते लगाता है मानो जलमे (लगा रहा हो) । जलके तलपर भी चलता है जैसे कि पृथिवीके तलपर । आकाशमे भी पालथी मारे हुए उळता है, जैसे पक्षी (उळ रहा हो), महातेजस्वी सूरज और चॉदको भी हाथसे छूता है, और मलता है, ब्रह्मलोक तक अपने शरीरसे वशमे किये रहता है ।
“भन्ते । यह ऋद्धि आस्त्रव-युक्त आधि-युक्त है, जो कि अच्छी नही कही जाती । (२) भन्ते । वह कौन सी आस्त्रव-रहित और उपाधि-रहित ऋद्धि है, जो कि अच्छी कही जाती है ॽ—भन्ते । यदि भिक्षु चाहता है—‘प्रतिकलमे, अप्रतिकूल ख्याल रख विहार करुँ’ तो वह अप्रतिकूल ख्याल रख विहार करता है । यदि वह चाहता है—‘अप्रतिकूलमे प्रतिकूल ख्याल रख विहार करुँ’ तो वह प्रति-कूल ख्याल रख विहार करता है । यदि वह चाहता है—‘प्रतिकूल और अप्रतिकूलमे अप्रतिकूल ख्याल रख विहार करुँ’, तो ० (वह वैसा ही करता है) । यदि वह चाहता है—‘प्रतिकूल ओर अप्रतिकूलमे प्रतिकूल ख्याल रख (=संज्ञावाला हो)कर विहार करुँ’, तो ० (वह वैसा ही करता है) । यदि वह चाहता है—‘प्रतिकूल और अप्रतिकूल दोनोका ख्याल न कर स्मृतिमान् और सावधान हो उपेक्षा भावसे
दूसरा शाश्वतवाद है । (३) भन्ते । फिर कोई ० स्मरण करता है ० दस सवर्त-विवर्त ० । वह ऐसा कहता है—मै अतीत और अनागतकी बाते जानता हूँ । आत्मा और लोक शाश्वत है ० । यह तीसरा शाश्वतवाद है । भन्ते । इसके ० ।
१५—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् पूर्वजन्मानुस्मृतिज्ञान (=पूर्व जन्मके स्मरण) के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । कोई श्रमण या ब्राह्रण ० एकाग्र चित्त होनेपर ० स्मरण करता है—एक जन्म ०, अनेक सवर्तकल्प, अनेक विवर्तकल्प, अनेक सवर्त-विवर्त कल्प । भन्ते । ऐसे देव है जिनकी आयुको न कोई गिन सकता है और न कह सकता है, किन्तु सरूप योनिमे या अरूप योनिमे, संज्ञावाले होकर या संज्ञाके बिना, या नैवसंज्ञा-नासंज्ञा होकर जस जिस आत्म-भाव (=शरीर)मे वे पहले रह चुके है, उन अनेक प्रकारके पूर्व-जन्मोको आकार और नामके साथ स्मरण करते है । भन्ते । इसके ० ।
१६—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् सत्वोके जन्म-मरणके ज्ञानके विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । कोई श्रमण या ब्राह्मण ० एकाग्र चित्त होनेपर अलौकिक विशुद्ध दिव्य चक्षुसे मरते, जनमते, अच्छे, बुरे, सुन्दर, कुरूप, अच्छी गतिको प्राप्त, बुरी गतिको प्राप्त सत्वोको देखता है । तथा ० अपने कर्मानुसार गतिको प्राप्त सत्वोको जान लेता है—ये सत्व कायिक दुराचारसे युक्त थे । ये मरनेके बाद ० दुर्गतिको प्राप्त होगे ।—ये सत्व कायिक सदाचारसे युक्त है । ये मरनेके बाद ० सुगतिको प्राप्त होगे । इस प्रकार अलौकिक विशुद्धि दिव्य चक्षुसे ० सत्वोको देखता है । मरते, जनमते ० सत्वोको जान लेता है । भन्ते । इसके अलावे ० ।
१७—“भन्ते । इससे भी बढकर है, जो कि भगवान् ऋद्धिविध (=दिव्यशक्ति)के विषयमे धर्मोपदेश करते है । भन्ते । ऋद्धिविध दो प्रकारकी है । भन्ते । जो आस्त्रव-युक्त और उपाधि-युक्त ऋद्धियॉ है, वह अच्छी नही कही जाती । भन्ते । जो आस्त्रव-रहित और उपाधि-रहित ऋद्धियॉ है, वह अच्छी कही जाती है । (१) भन्ते । वह कोनसी उपाधि-युक्त और आस्त्रव-युक्त ऋद्धियॉ है, जो अच्छी नही कही जाती ॽ—
ऋद्धियॉ—“वह इस प्रकारके एकाग्र, शुद्ध ० चितको पाकर अनेक प्रकारकी ऋद्धिकी प्राप्तिके लिये चितको लगाता है । वह अनेक प्रकारकी ऋद्धियोको प्राप्त करता है—एक होकर बहुत होता है, बहुत होकर एक होता है, प्रकट होता है । अन्तर्धान होता है । दीवारके आरपार, प्राकारके आरपार और पर्वतके आरपार बिना टकराये चला जाता है, मानो आकाशमे (जा रहा हो) । पृथिवीमे गोते लगाता है मानो जलमे (लगा रहा हो) । जलके तलपर भी चलता है जैसे कि पृथिवीके तलपर । आकाशमे भी पालथी मारे हुए उळता है, जैसे पक्षी (उळ रहा हो), महातेजस्वी सूरज और चॉदको भी हाथसे छूता है, और मलता है, ब्रह्मलोक तक अपने शरीरसे वशमे किये रहता है ।
“भन्ते । यह ऋद्धि आस्त्रव-युक्त आधि-युक्त है, जो कि अच्छी नही कही जाती । (२) भन्ते । वह कौन सी आस्त्रव-रहित और उपाधि-रहित ऋद्धि है, जो कि अच्छी कही जाती है ॽ—भन्ते । यदि भिक्षु चाहता है—‘प्रतिकलमे, अप्रतिकूल ख्याल रख विहार करुँ’ तो वह अप्रतिकूल ख्याल रख विहार करता है । यदि वह चाहता है—‘अप्रतिकूलमे प्रतिकूल ख्याल रख विहार करुँ’ तो वह प्रति-कूल ख्याल रख विहार करता है । यदि वह चाहता है—‘प्रतिकूल और अप्रतिकूलमे अप्रतिकूल ख्याल रख विहार करुँ’, तो ० (वह वैसा ही करता है) । यदि वह चाहता है—‘प्रतिकूल ओर अप्रतिकूलमे प्रतिकूल ख्याल रख (=संज्ञावाला हो)कर विहार करुँ’, तो ० (वह वैसा ही करता है) । यदि वह चाहता है—‘प्रतिकूल और अप्रतिकूल दोनोका ख्याल न कर स्मृतिमान् और सावधान हो उपेक्षा भावसे
विहार करुँ, तो स्मृतिमान और सावधान हो उपेक्षा भावसे ही विहार करता है । भन्ते । यह ऋद्धि आस्त्रवरहित और उपाधि-रहित होनेसे अच्छी समझी जाती है ।
१८―“भन्ते । इसके ० । उसे भगवान् अशेप जानते है । आपको ० जानने के लिये कुछ बचा नही है, जिसे जानकर कि दूसरा श्रमण या ब्राह्मण ऋद्धिविध (=दिव्यशक्ति)मे आपसे बढ जाये ।
“भन्ते । वीर्यवान्, दृढ, पुरुषोचित स्थिरतासे युक्त, पुरुषोचित वीर्यसे युक्त, पुरुषोचित परा-क्रमसे युक्त, श्रद्धायुक्त महापुरूप कुलपुत्रके लिये जो प्रप्तव्य है, उसे आपने प्राप्तकर लिया है । भन्ते । भगवान् न तो हीन, ग्राम्य अज्ञ लोगोके करने लायक, अनार्य और अनर्थक सांसारिक सुखविलासमे पळे है, और न आप दुख, अनार्य और अनर्थक आत्मक्लमथानुयोगमे (=शरीरको नाना प्रकारकी तपस्यासे कष्ट देना) युक्त है, इसी लोकमे सुख देनेवाले चार आघिचैतसिक (=चित्तसंबंधी) ध्यानोको भगवान् इच्छानुसार सुखपूर्वक बहुत प्राप्त करते है ।
“भन्ते । यदि मुझे ऐसा पूछे―आवुस सारिपुत्र । क्या अतीत कालमे कोई श्रमण या ब्राह्मण सम्बोधिमे भगवानसे बढकर था ? ० भन्ते । मै उत्तर दूँगा―‘नही’ । ० क्या अनागत कालमे ० होगा ? ० मै उत्तर दूँगा―‘नही’ । क्या अभी कोई ० है ? ० मै उत्तर दूँगा―‘नही’ ।
“भन्ते । यदि मुझे ऐसा पूछे―आवुस सारिपुत्र । क्या अतीत कालमे कोई श्रमण या ब्राह्मण सम्बोधिमे भगवानके सदृश था ? ० मै उत्तर दूँगा―‘नही’ । ० क्या अनागत कालमे कोई ० होगा ? ० ‘नही’ । ० क्या अभी कोई ० है ? ‘नही’ ।
“भन्ते । यदि मुझे कोई ऐसा पूछे―क्या आयुष्मान् सारिपुत्र । (भगवान्) कुछको जानते है और कुछको नही जानते ? ऐसा पूछे जानेपर, भन्ते । मै यह उत्तर दूँगा―‘आवुस । भगवानके मुँहसे मैने ऐसा सुना है, भगवानके मुँहसे जाना है ।―अतीत काल मे जो अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध थे, वे सम्बोधिमे मेरे बराबर थे ।’ आवुस । भगवानके मुँहसे मैने ऐसा सुना है ० । अनागतमे ० होंगे । ० ऐसा सुना है ० । एक ही लोकधातुमे एक एक ही समय एक साथ दो अर्हत् सम्यक सम्बुद्ध नही हो सकते है । ऐसा सम्भव नही है ।’
“भन्ते । किसीके पूछनेपर यदि मै ऐसा उत्तर दूँ तो भगवानके विषयमे मेरा कहना ठीक तो होगा, भगवानके विषयमे कोई झूठी निन्दा तो नही होगी, यह कथन धर्मानुकूल तो होगा ?”
“सारिपुत्र । ० किसीके पूछनेपर यदि तुम ऐसा उत्तर दो, तो ० यह कथन धर्मानुकूल ही होगा ० ।”
३―बुद्धमे अभिमान शून्यता
ऐसा कहनेपर आयुष्मान् उदायीने भगवानसे कहा―“भन्ते । आश्चर्य है ० तथागतकी अल्पे-च्छता, संतोष, निर्मलचित्तताको, कि तथागत इस प्रकारकी बळी ऋद्धिवाले होते भी, इस प्रकार महानु-भाव होते भी, अपनेको प्रकट नही करते । भन्ते । यदि इनमेसे एक बातको भी दूसरे मतवाले साधु अपनेमे पावे तो उसीको लेकर पताका उळाते फिरे । भन्ते । आश्चर्य है ० ।”
“उदायि । देखो―तथागतकी अल्पेच्छता ० कि अपनेको प्रकट नही करते । यदि इनमेसे एक भी बात०को लेकर वे पताका उळाते फिरे । उदायि । दोखो ।”
तब भगवानने आयुष्मान् सारिपुत्रको सम्बोधित किया―“सारिपुत्र । तो तुम भिक्षु-भिक्षुणियोको, उपासक-उपासिकाओको यह धर्मपर्याय (=धर्मोपदेश) कहते रहो । सारिपुत्र । जिन अज्ञोको सन्देह होगा―तथागतमे काक्षा=विमति (=संदेह) होगी, वह दूर हो जायेगी ।”
इस प्रकार आयुष्मान् सारिपुत्रने भगवानके सम्मुख अपने सम्प्रसाद (=श्रद्धा) को प्रकट किया । इसलिये इस उपदेशका नाम सम्पसादनिय पळा ।