दीध-निकाय
29. पासादिक-सुत्त (३।६)
१—तीर्थकर महावीरके मरनेपर अनुयायियोमें विवाद । २—विवादके कारण—गुरु और
घर्मकी अयोग्यता । ३—योग्य गुरु और घर्म । ४—बुघ्द्रके उपदिष्ट घर्म ।
५—बुघ्द्र वचनकी कसौटी । ६—बुघ्द्र-घर्म चित्तको शुद्धिके लिये है ।
७—अनुचित उचित आरामपसन्दी । ८—भिक्षु बुद्धघर्मपर आरुढ ।
९—बुघ्द्र कालवादी यथार्थवादी । १०—अव्याकृत और व्याकृत बाते ।
११—पूर्वान्त और अपरान्त दर्शन । १२—स्मृति प्रस्थान ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् शाक्य (देश)मे वेघञ्ञा नामक शाकयोके आम्रवन-प्रासादमे विहार कर रहे थे ।
१-तीर्थकर महावीरके मरनेपर अनुयायियोंमें विवाद
उस समय निगण्ठ नाथपुत्त (=तीर्थकर महावीर) की पावामे हालहीमे मृत्यु हुई थी । उनके मरनेपर निगण्ठोमे फूट हो गई थी, दो पक्ष हो गये थे, लळाई चल रही थी, कलह हो रहा था । वे लोग एक दूसरेको वचन-रुपी वाणोसे बेधते हुए विवाद करते थे—‘तुम इस घर्मविनय (=घर्म)को नही जानते मै इस घर्मविनयको जानता हूँ । तुम भला इस घर्मविनयको क्या जानोगे ॽ तुम मिथ्या-प्रतिपन्न हो(=तुम्हारा समझना गलत है), मै सम्यक्-प्रतिपन्न हूँ । मेरा कहना सार्थक है और तुम्हारा कहना निरर्थक । जो (बात) पहले कहनी चाहिये थी वह तुमने पीछे कही, और जो पीछे कहनी चाहिये थी, वह तुमने पहले कही । तुम्हारा वाद बिना विचारका उल्टा है । तुमने वाद रोपा, तुम निग्रह-स्थानमे आ गये । इस आक्षेपसे बचनेके लिये यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ ।’ मानो निगण्ठोमे युद्ध (=वघ) हो रहा था ।
निगण्ठ नाथपुत्तके जो श्वेत-वस्त्रघारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी निगण्ठके वैसे दुराख्यात (=ठीकसे न कहे गये), दुष्प्रवेदित (=ठीकसे न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (=पार न लगाने-वाले), अन्-उपशम-सवर्तनिक (=न-शान्तिगामी), अ-सम्यक्-सबुद्ध-प्रवेदित (=किसी बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा(=नीव)-रहित=भिन्न-स्तुप, आश्रय-रहित घर्ममे अन्यमनस्क हो खिन्न और विरक्त हो रहे थे ।
तब, चुन्द समणुद्देस पावामे वर्षावास कर जहॉ सामगाम१ था और जहॉ आयुष्मान् आनन्द थे वहॉ गये । ० बैठ गये । ० बोले—“भन्ते । निगण्ठ नाथपुत्तकी अभी हालमे पावामे मृत्यु हुई है । उनके मरनेपर निगण्ठोमे फूट०।”
ऐसा कहनेपर आयुष्यमान् आनन्द बोले—“आवुस चुन्द । यह कथा भेट रूप है । आओ आवुस चुन्द । जहॉ भगवान् है वहॉ चले । चलकर यह बात भगवानसे कहे ।”
“बहुत अच्छा” कह चुन्दने० उत्तर दिया ।
तब आयुष्मान् आनन्द और चुन्द ० श्रमणोद्देश जहॉ भगवान् थे वहॉ गये । ० एक ओर बैठे आयुष्मान् आन्नद बोले—“भन्ते । चुन्द ० ऐसा कहता है—‘निगण्ठ ० पावामे ०’ ।”
२-विवाद के लक्षण
१—अयोग्य गुरु—“चुन्द । जहॉ शास्ता (=गुरु) सम्यक् सम्बुद्ध नही होता, धर्म दुराख्यात होता है ० और उस धर्ममे शिष्य (=श्रावक) धर्मानुसार मार्गारूढ होकर नही विहार करते, न सामीचि (=ठीक मार्ग) पर आरूढ होते, और न धर्मानुसार चलनेवाले होते है । वहॉ शास्ताकी भी निन्दा होती है, उस धर्मसे ० उस धर्मको छोळकर चलते हो,’ धर्मकी भी निन्दा होती है । इस प्रकार शिष्य प्रशसनीय है, जो ऐसे श्रावकको ऐसा कहे—‘आओ, आयुष्मान् (अपने) गुरुके उपदेश=प्रज्ञप्तिके अनुसार धर्मपर आरूढ हो ।’ तो जो उसे कहता है, जिसे कहता है और जो कहनेपर वैसा कहता है, वह सभी बहुत पाप करते है । सो किस हेतु ॽ चुन्द । दुराख्यात धर्म०मे ऐसा ही होता है ।
२—अयोग्य धर्म—“चुन्द । शास्ता असम्यक् सम्बुद्ध घर्म दुराख्यात ०, और यदि श्रावक उस धर्ममे धर्मानुसार मार्गारूढ० होकर विहार करता हो, तो उसे ऐसा कहना चाहिये—‘आवुस । तुम्हे अलाभ है, दुर्लाभ है । शास्ता असम्यक् सम्बुद्ध है, धर्म दुराख्यात० है, और तुम वैसे धर्ममे मार्ग रूढ०हो ।’
“चुन्द । ऐसी हालतमे शास्ता भी निन्घ, धर्म भी निन्घ और श्रावक भी वैसा ही निन्घ है । चुन्द । जो इस प्रकारके श्रावकको ऐसा कहे—‘आप ज्ञानसम्पन्न और ज्ञानानुकूल आचरण करनेवाले है’—तो जो प्रशसा करता है, जिसकी प्रशसा करता है, और जो प्रशसित होकर अधिकाधिक उसी ओर उत्साहित होता है, वह सभी बहुत पाप करते है । सो किस हेतु ॽ चुन्द । दुराख्यात धर्म-विनय०मे ऐसा ही होता है ।
३-योग्य गुरू और धर्म
१—अधन्य शिष्य—“चुन्द । जहॉ शास्ता सम्यक् सम्बुद्ध हो, धर्म स्वाख्यात (=अचछी तरह कहा गया), सुप्रवेदित=नैर्याणिक (=मुक्तिकी ओर ले जानेवाला), शान्ति देनेवाला, तथा सम्यक् सम्बुद्ध-प्रवेदित हो, और उस धर्ममे श्रावक धर्मानुसार मार्गारूढ नही हो, तो उसे ऐसा कहना चाहिये—‘आवुस । तुम्हे बळा अलाभ है, बळा दुर्लाभ है, तुम्हारे शास्ता सम्यक् सम्बुद्ध है, धर्म स्वाख्यात ० है और तुम उस धर्ममे धर्मानुसार मार्गारूढ ० नही हो ।’ चुन्द । ऐसी अवस्थामे शास्ता भी प्रशसनीय है, धर्म भी प्रशसनीय है ओर श्रावक ही उस प्रकार निन्घ है । चुन्द । जो उस प्रकारके श्रावकको ऐसा कहे—आप वैसा ही करे, जैसा आपके शास्ता ०—तो जो कहता है ० सभी बहुत पुण्य करते है । सो किस हेतु ॽ चुन्द । स्वाख्यात ० धर्ममे ऐसा ही होता है ।
२—धन्य शिष्य—“चुन्द । शास्ता सम्यक् सम्बुद्ध हो, धर्म स्वाख्यात ० हो, और श्रावक उस धर्ममे धर्मानुसार मार्गारूढ ० हो । उसे ऐसा कहना चाहिये—‘आवुस । तुम्हे लाभ है, तुम्हारा लाभ बळा सुन्दर है, (जो) तुम्हारे शास्ता सम्यक् सम्बुद्ध है, धर्म स्वाख्यात ० है, ओर तुम भी उस धर्ममे धर्मानुसार मार्गारूढ ० हो ।’ चुन्द । ऐसी अवस्थामे शास्ता भी प्रशसनीय है, धर्म भी प्रशसनीय है, और श्रावक भी उसी तरह प्रशसनीय है । चुन्द । जो इस प्रकारके श्रावकको ऐसा कहे—‘आप ज्ञानप्रतिपन्न है=ज्ञानानुकूल आचरण करते है’—तो जो प्रशसा करता है ० वह सभी बहुत पुण्य करते है । सो किस हेतु ॽ चुन्द । स्वाख्यात धर्मविनय०मे ऐसा ही होता है ।
३—गुरूकी सोचनीय मृत्यु—“चुन्द । जहॉ अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध शास्ता लोकमे उत्पन्न हुए हो, धर्म भी स्वाख्यात ०, (किन्तु) श्रावकोने सद्धर्मको नही समझा, उनके लिये शुद्ध, पूर्ण ब्रह्मचर्य ठीकसे आविष्कृत सरल, सुज्ञेय, युक्तिसगत नही किया गया, देव-मनुष्योमे अच्छी तरह प्रकाशित नही हुआ, और
इसी बीच उनके शास्ता अन्तर्घान हो गये । चुन्द । इस प्रकार शास्ताकी मृत्यु श्रावकाके लिये शोचनीय होती है । सो कयो ? हम लोगोके अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध शास्ता लोकमे उत्पन्न हुए धर्म भी स्वाख्यात ०, किन्तु हम लोगोने इस सद्धर्मका अर्थ नही समझा, और हमारे लिये ब्रह्मचर्य भी आविष्कृत ० नही ० । जब ऐसे शास्ताका अन्तर्घान होता है, जब ऐसे शास्ताकी मृत्यु होती है, तो शोच-नीय होती है ।
४—गुरुकी अशोचनीय मृत्यु——“चुन्द । लोकमे अर्हत् ० शास्ता, घर्म स्वाख्यात ० और श्रावकोके सद्धर्म समझाया गया होता है, उनके लिये ब्रह्मचर्य ० आविष्कृत होता है । उस समय उनका शास्ता अन्तर्घान हो जाता है । चुन्द । इस प्रकारके शास्ताकी मृतयु शोचनीय नही होती । सो किस हेतु ? हम लोगोके अर्हत् ० शास्ता लोकमे उत्पन्न हुए, घर्म स्वाख्यात ० और हम लोग भी ० अर्थ समझे । ० हम लोगोके शास्ताका अन्तर्घान हो गया’ । चुन्द । शोचनीय नही है ।
५——अपूर्णसन्यास—“चुन्द । ब्रह्मचर्य इन अगोसे युक्त होता है, किन्तु शास्ता स्थविर, वृद्ध, चिरप्रब्रजित, अनुभवी, वय प्राप्त नही होते, तो इस प्रकार वह ब्रह्मचर्य इस अड्रगसे अ-पूर्ण होता हे। चुन्द । जब ब्रह्मचर्य इन अड्रगोसे युक्त होता है, और शास्ता स्वविर ० होते है, तब वह ब्रह्मचर्य उस अड्रगसे भी पूरा होता है ।
“चुन्द । ब्रह्मचर्य उन अड्रगोसे भी युक्त होता है, शास्ता भी स्थविर ० होते है, किन्तु उनके रक्तज्ञ (=घर्मानुरागी) स्थविर भिक्षु-श्रावक (=भिक्षु शिष्य) व्यक्त, विनीत, विशारद, योगक्षेम-प्राप्त (=मुक्त) सद्धर्म कथनमे समर्थ, दुसरे पक्षके किये गये आक्षेप (=वाद)को धर्मानुकूल अच्छी तरह समझाकर युक्तिसहित धर्म-देशना करनेमे समर्थ नही होते, तो वह भी ब्रह्मचर्य उस अड्रगसे अपूर्ण होता है । चुन्द । जब इन अड्रगोसे ब्रह्मचर्य होता है, शास्ता भी स्थविर ०, और उनके ० स्थविर भिक्षु-श्रावक भी व्यक्त ० इस प्रकारका ब्रह्मचर्य उस अड्रगसे भी पूर्ण होता है ।
“चुन्द । इन अड्रगोसे युक्त ब्रह्मचर्य हो, शास्ता स्थविर ०,० भिक्षु-श्रावक व्यक्त, ० किन्तु वहॉ मघ्यम (वयस्क) भिक्षु-श्रावक व्यक्त नही ० मघ्यम भिक्षु श्रावक व्यक्त ० नये भिक्षु-श्रावक व्यक्त नही ० नये भिक्षु-श्रावक व्यक्त ० । ० स्थविर ० । ० मघ्यम ० । ० नई भिक्षुणी व्यक्त नही ० ।
“० उनके गृहस्थ श्वेतवस्त्रघारी ब्रह्मचारी उपासक-श्रावक (=गृहस्थ शिष्य) नही ० । ० कामभोगी उपासक श्रावक, व्यक्त ० नही ० , कामभोगी है, ० ब्रह्मचारिणी उपासिका व्यक्त नही, ० । ब्रह्मचारिणी है, कामभोगीनी उपासिका ० नही ० ।
“० ब्रह्मचर्य०देव और मनुष्योमे सुप्रकाशित, समृद्ध, उन्नत , विस्तारित, प्रसिद्ध, और विशाल (=पृथुभूत) नही होता ० । ० ब्रह्मचर्य ० विशाल होता है । इस प्रकार वह ब्रह्मचर्य उस अडगसे अपूर्ण होता है, लाभ और यश नही पाता ।
६—पूर्ण सन्यास—“चुन्द । जब ब्रह्मचर्य इन अडगोसे युक्त होता है —शास्ता स्थविर ० होते है । स्थविर भिक्षु-श्रावक व्यक्त ०, मघ्यम भिक्षु-श्रावक ०, नये भिक्षु-श्रावक व्यक्त ०, स्थविर ०, मघ्यम ० नई भिक्षुणी-श्राविका व्यक्त ० ब्रह्मचारी उपासक गृहस्थ ०, कामभोगी उपासक ०, ० ब्रह्मचारीणी उपासिका ०—तो ब्रह्मचार्य समृद्ध, उन्नत ० होता है । इस प्रकार उस अडगसे परिपूर्ण ब्रह्मचर्य, लाभ और यशको पाता है ।
“चुन्द । इस समयमे लोकमे अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध शास्ता उत्पन्न हुआ हूँ, घर्म स्वाख्यात ०, और मेरे श्रावक सद्धर्मके अर्थको समझे, है उनका ब्रह्मचर्य ० बिलकुल पूर्ण है ।
“चुन्द । मै शास्ता ० स्थविर ० । मेरे स्थविर भिक्षु-श्रावक व्यक्त, विनीत, विशारद ०, मघ्यम भिक्षु-श्रावक भी व्यक्त ०, नये भिक्षु-श्रावक भी व्यक्त ० हे । चुन्द । स्थविर भिक्षुणी-श्राविका, मघ्यम भिक्षुणी-श्राविका और नई भिक्षुणी-श्राविका भी व्यक्त ० चुन्द । मेरे उपासक-श्रावक ० ब्रह्मचारी, कामभोगी है, उपासिका श्राविका ब्रह्मचारीणी कामभोगिनी ० ।
“चुन्द । मेरा यह ब्रह्मचर्य समृद्ध उन्नत, विस्तारित, प्रसिद्ध, विशाल और देव मनुष्योमे सुप्रकाशित है । चुन्द । आज जितने शास्ता लोकमे उत्पन्न हुए है उनमे मै किसी एकको भी नही देखता हूँ, जो मेरे जैसा लाभ और यश पानेवाले हो । चुन्द । आज तक लोकमे जितने सघ या गण उत्पन्न हुए है, उनमे एक सघको भी नही देखता हूँ जिसने मेरे भिक्षुसघके समान लाभ और यश पाया हो । चुन्द । जिसके बारेमे अच्छी तरह कहनेवाले कहते है कि (इस सघका) ब्रह्मचर्य सब तरहसे सम्पन्न, सब तरहसे परिपूर्ण, अ-न्यून अन्-अघिक, सु-आख्यात=सु-प्रकाशित और परिपूर्ण है । अच्छी तरह कहनेवाले यही कहते है ।
“चुन्द । उद्दक रामपुत्र कहता था—‘देखते हुए नही देखता’ । क्या देखते हुए नही देखता ॽ अच्छी तरह तेज किये छुरेके फलको देखता है, घारको नही । चुन्द । इसीको कहते है—देखते हुए भी ० । चुन्द । जो कि उद्दक राम-पुत्र हीन, ग्राम्य, मूर्खोके योग्य, अनार्य, अनर्थक कहता था वह छुरेका ही ख्याल करके । चुन्द । जिसे कि अच्छी तरह कहनेवाले कहते है—देखते हुए भी नही देखता ।
“० कया देखते हुए नही देखता ॽ इस प्रकारके सब तरहसे सम्पन्न ० ब्रह्मचर्यको वैसा नही देखता है, इस प्रकार इसे नही देखता । ‘यहॉसे इसे निकाल दे, तो वह अघिक शुद्ध होगा’—इस प्रकार इसे नही देखता, ‘यहॉ इसे मिला दे, तो वह अघिक शुद्ध होगा’—इस प्रकार इसे नही देखता । इसे कहते है—‘देखते हुए नही देखता’ । चुन्द । जिसके बारेमे अच्छी तरह कहनेवाले ० ।
४-बुद्धके उपदिष्ट धर्म
“अत चुन्द । जिस घर्मको मैने बोघकर तुम्हे उपदेश किया है, उसे सभी मिल जुलकर ठीक समझे बुझे, विवाद न करे । जिसमे कि यह ब्रह्मचर्य अच्छा ओर चिरस्थायी होगा, जो कि लोगोके हित, सुखके लिये, ससारपर अनुकम्पाके लिये, देव मनुष्योके अर्थके लिये, हितके लिये, सुखके लिये होगा ।
“चुन्द । मैने किन घर्मोको बोधकर तुम्हे उपदेश किया है, जिन्हे कि सभी मिलजुलकर समझे बूझे, विवाद न करे ० ॽ (वे ये है१) जैसे कि—चार स्मृतिप्रस्थान, चार सम्यक् प्रघान, चार ऋद्धिपाद, पॉच इन्द्रिय, पॉच बल, सात बोघ्यडग और आर्य अष्टाडगिक मार्ग । चुन्द । मैने इन्ही घर्मोको बोघकर उपदेश किया है, जिसे कि सभी लोग मिलजुलकर ० । चुन्द । उन्हीके विषयमे विना विवाद किये, मिलजुलकर समझना बूझना चाहिये, ऐसा समझो।
५-बुद्ध-वचनकी कसौटी
“यदि काई सब्रह्मचारी सघमे धर्म (=बुद्धवचन)-भाषण करता हो और वहॉ तुम्हारे मनमे ऐसा हो—‘यह आयुष्मान् इस अर्थको गलत लगाते है, ओर वाक्य-योजना (=व्यजन) ठीक नही लगाते’—तो न उसका अभिनन्दन करना चाहिये और न निन्दना चाहिये । बिना अभिनदन किये बिना निन्दे उससे यो कहना चाहिये—‘आवुस । इस अर्थके लिये ऐसा वाक्य या वैसा वाक्य है ॽ कौन इनमे अघिक ठीक जँचता है, इन वाक्योका यह अर्थ या वह अर्थ, कौन अघिक ठीक जँचता है ॽ’ यदि तो भी वह ऐसा कहे—‘आवुस । इस अर्थमे यही वाक्य अघिक ठीक जँचते है, इन वाक्योका यही अर्थ ठीक है (जैसा मैने कहा) । तो उसे न लेना चाहिये, न हटाना चाहिये । बिना लिये या हटाये उस अर्थ और उन वाकयोकी ठीकसे लगानेके लिये स्वय अच्छी तरह समझा देना चाहिये ।
“चुन्द । यदि सघमे और भी कोई सब्रह्मचारी (=गुरुभाई) घर्म भाषण करता हो, और वहॉ तुम्हारे मनमे हो—‘ये आयुष्मान् ‘अर्थ’ गलत समझते है वाकयोको ठीकसे जोळते है’ तो न तो उसका
अभिनन्दन करना चाहिये और न उसे निन्दना चाहिये ।० बल्कि उससे यो कहना चाहिये—‘आवुस ।० कौन ठीक हैॽ’ यदि तो भी वह वैसा कहे ० तो ० उसे अच्छी तरह समझाना चाहिये ।
“चुन्द । यदि ० सब्रह्मचारी धर्म भाषण करता हो, और वहॉ तुम्हारे मनमे हो—‘० अर्थ ठीक समझते है, किन्तु, वाक्योको ठीक नही जोळते’ । ० तो उसे अच्छी तरह समझा देना चाहिये ।
“यदि सघमे ० धर्म भाषण करता हो । और तुम्हारे मनमे ऐसा हो—‘ये आयुष्मान् अर्थको भी ठीक समझते है, वाक्योको भी ठीक जोळते है’—तो उसे साधुकार देना चाहिये, अभिनन्दन, अनुमोदन करना चाहिये । ० उसे ऐसा कहना चाहिये— ‘आवुस । हम लोगोको लाभ है, हम लोगोको सुन्दर लाभ है, कि आप आयुष्मान् जैसे अर्थज्ञ वाक्यज्ञ ब्रह्मचारीके दर्शनका अवसर मिलता है ।
६—बुद्ध-धर्म चित्तकी शुद्धिके लिये
“चुन्द । मै दृष्टधार्मिक (=इसी जन्ममे) आस्त्रवो (=चित्तमलो) के सवर (=समय) के ही लिये धर्मोपदेश नही करता, और न चुन्द । केवल परजन्मके आस्त्रवोहीके नाशके लिये । चुन्द । मै दृष्धार्मिक और पारलौकिक दोनो ही आस्त्रवोके सवर और नाशके लिये धर्मोपदेश करता हूँ । इसलिये, चुन्द । मैने जो तुम्हे चीवर-सबधी अनुज्ञा दी है, वह सर्दी रोकनेके लिये, गर्मी रोकनेके लिये, मक्खी-मच्छर-हवा-धूप-सॉप-बिच्छूके आघात (=स्पर्श)को रोकनेके लिये, तथा लाज शर्म ढॉकनेके लिये पर्याप्त है ।
“जो मैने पिण्डपात (=भिक्षा)-सबधी अनुज्ञा दी है सो इस शरीरको कायम रखनेके लिये, निर्वाह करनेके लिये, (क्षुघाकी) पीडा शात करनेके लिये, और ब्रह्मचर्यकी सहायताके लिये, पर्याप्त है—‘इस तरह पुरानी वेदनाओका (इस समय) सामना करता हूँ, और नई वेदनाओको उत्पन्न नही करुँगा, मेरी जीवन-यात्रा चलेगी, निर्दोष और सुखमय विहार होगा’ ।
“जो मैने शयनासन(=घर विस्तरा) सबधी अनुज्ञा दी है, सो सर्दी रोकनेके लिये ० सॉप बिचछूके आघातको रोकनेके लिये और ऋतुओके प्रकोपसे बचने तथा ध्यानमे रमण करनेके लिये पर्याप्त है ।
“जो मैने रोगीके पथ्य-औपधकी वस्तुओ (=ग्लान-प्रत्यय-भैपज्य-परिष्कारो)के सबधमे अनुज्ञा दी है, सो होनेवाले रोगोके रोकने और अच्छी तरह स्वस्थ रहनेके लिये पर्याप्त है ।
७—अनुचित और उचित आराम पसन्दी
१—अनुचित—“चुन्द । ऐसा हो सकता है कि दूसरे मतवाले परिब्राजक ऐसा कहे—‘शाक्यपुत्रीय श्रमण आरामपसद हो विहार करते है । ऐसा कहनेवाले० को यह कहना चाहिये—‘आवुस । वह आरामपसदी क्या है ॽ आरामपसन्दी नाना प्रकारकी होती है ।’ चुन्द । यह चार प्रकारकी आरामपसदी निकृष्ट=ग्राम्य, मूढ-सेवित, अनर्थ-युक्त है, जो न निर्वेदके लिये, न विरागके लिये, न निरोधके लिये, न शान्तिके लिये, न अभिज्ञाके लिये, न सम्बोधिके लिये, न निर्वाणके लिये है । कौन सी चार ॽ (१) चुन्द । कोई कोई मूर्ख जीवोका वध करके आनन्दित होता है, प्रसन्न होता है । यह पहली आरामपसन्दी है । (२) चुन्द । कोई चोरी करके ० । यह दूसरी ० । (३) चुन्द । कोई झूठ बोलकर० । यह तीसरी० । (४) चुन्द । कोई पॉच भोगोसे सेवित होकर ० । यह चौथी ० । यह चार सुखोपभोग आरामपसदी निकृष्ट ० है । हो सकता है, चुन्द । दूसरे मतवाले साधु ऐसा कहे—‘इन चार सुखोपभोग, आरामपसन्दीसे युक्त हो शाक्यपुत्रीय श्रमण विहार करते है’ । उन्हे कहना चाहिये—‘ऐसी बात नही है । उनके विषयमे ऐसा मत कहो, उनपर झूठा दोषारोपण न करो ।’
२—उचित—“चुन्द । चार आरामपसन्दी पूर्णतया निर्वेद=विरागके लिये, निरोधके लिये, शान्तिके लिये, अभिज्ञाके लिये, सम्बोधिके लिये और निर्वाणके लिये है । कौन सी चार ॽ (१) चुन्द । भिक्षु कामोको छोळ, अकुशल धर्मोको छोळ, वितर्क-विचार-युक्त विवेकसे उत्पन्न प्रीति-सुखवाले प्रथम
घ्यानको प्राप्त कर विहार करता है । यह पहली ० है । (२) चुन्द । भिक्षु ०१ समाघिसे उत्पन्न प्रीतिसुख वाले द्वितीय घ्यानको प्राप्तकर विहार करता है । यह दूसरी ० है । (३) चुन्द । ० तृतीय घ्यानको प्राप्तकर विहार करता है । यह तीसरी ० । (४) चुन्द । ० चतुर्थ घ्यानको प्राप्त कर विहार करता है । यह चौथी ० । चुन्द । यही चार आरामपसन्दी एकान्त निर्वेदके लिये ० है । चुन्द । हो सकता है, दूसरे मतवाले परिब्राजक कहे—शाक्यपुत्रीय श्रमण ० आरामपसदी ० । उन्हे ‘हॉ’ कहना चाहिये—वह तुम्हारे लिये ठीक कहते है, मिथ्या झूठा दोष नही लगाते ।
३—उचितका फल—“हो सकता है चुन्द । दूसरे मतके परिब्राजक पूछे—‘आवुस । इन चार आरामपसदियोसे युकत हो विहार करनेपर क्या फस=आनृशस होता है ॽ तो चुन्द । ० उन्हे ऐसे उत्तर देना चाहिये—‘आवुस । इन ० के चार आनृशस हो सकते है । कौनसे चार ॽ (१) ० भिक्षु तीन सयोजनो (=बन्घनो)के नाशसे अविनिपातघर्मा, नियत, सम्बोघिपरायण स्त्रोत-आपन्न होता है । यह पहला फल, पहला आनृशस है । (२) ० । फिर भिक्षु तीन ० सयोजनोके नाश, राग, द्वेप, मोहके दुर्बल हो जानेसे सकृदागामी होता है, वह एक ही बार इस लोकमे आकर दुखका अन्त करता है । (३) ० फिर, भिक्षु पॉच अवरभागीय सयोजनो (=इसी ससारमे फँसाये रखनेवाले बन्घनो)के नष्ट होनेसे औपपातिक (देवता) हो वहॉ निर्वाणको पाता है, उस लोकसे नही लौटता । (४) ० और फिर भिक्षु ० आस्त्रवोके क्षय से आस्त्रव-रहित चेतोविमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्तिको यही स्वय जान, साक्षात् कर विहार करता है । यह चौथा फल=आनृशस है । आवुस । इन चार आरामपसदियोमे युक्त हो करनेवालोके ये ही चार आनृशस होने चाहिये ।
८-भिक्षु घर्मपर आरूढ
“हो सकता है, चुन्द । दूसरे मतके परिब्राजक ऐसा कहे—‘शाकयपुत्रीय श्रमण अस्थितघर्मा (=जिन्हे घर्ममे स्थिरता नही है) होकर विहार करते है ।’ तो चुन्द । ऐसे कहनेवाले ० को ऐसा कहना चाहिये—‘आवुसो । उन जाननहार, देखनहार, अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध भगवानने शिष्यो (=श्रावको)को जो घर्मदेशना दी है, वह यावज्जीवन अनुल्लघनीय है । आवुसो । जैसे नीचेतक गळा, अच्छी तरह गळा इन्द्रकील (=किलेके द्वारपर गळा कील) या लोहेका कील, अचल और दृढ होता है, उसी तरह उन ० भगवानने श्रावकोको जो धर्मदेशना दी है, वह यावज्जीवन अनुलधनीय है । आवुसो । जो भिभु समाप्त-ब्रह्मचर्य, कृतकृत्य, भारमुकत, परमार्थ-प्राप्त (=अनुप्राप्त-सदर्थ) सासारिक बधनोसे मुक्त, सम्यक् ज्ञानसे विमुक्त क्षीणास्त्रव, अर्हत् है, वह नौ बातोके अयोग्य है । आवुसो । (१) अनास्त्रव भिक्षु जान बूझकर जीव मारनेके अयोग्य है । (२) ० चोरी ० । (३) मैथुन सेवन ० । (४) जान बूझकर झूठ बोलने ० । (५) पहिले गृहस्थ के वक्त के सासारिक भोगोके जोळने बटोरने ० । (६) राग के रास्ते जाने मे ० । (७) ० द्वेषके रास्ते जाने मे ० । (८) ० मोहके रास्ते जानेमे ० । (९) क्षीणास्त्रव भिक्षु भयके रास्ते जानेमे अयोग्य है । आवुसो । जो ० अर्हत् है ० वह इन नौ बातोके अयोग्य है ।
६-बुद्घ कालवादी यथार्थवादी
१—कालवादी—“हो सकता है, चुन्द । दूसरे मतके परिब्राजक कहे—‘अतीत कालको लेकर श्रमण गौतम अघिक ज्ञान=दर्शन बतलाता है, अनागत कालको लेकर श्रमण गौतम अघिक ज्ञान=दर्शन बतलाता है, अनागत कालको लेकर अघिक ज्ञान=दर्शन नही बतलाता—सो यह क्या है, सो यह कैसे’ ॽ वे दुसरे मतके परिब्राजक बाल=अजानकी भाँति दूसरे प्रकारके ज्ञान=दर्शनसे दूसरे प्रकारके ज्ञानदर्शनका ज्ञापन करना मानते है । चुन्द । अतीत कालके विषयमे तथागतको स्मृतिके अनुसार ज्ञान होता है, वह जितना चाहते है, उतना स्मरण करते है ।
चुन्द । अनागत कालके विषयमे तथागतको बोधिसे उत्पन्न ज्ञान उत्पन्न होता है—‘यह मेरा अन्तिम जन्म है, फिर आवागमन नही है ।’ चुन्द । यदि अतीत की बात अतथ्य=अभूत और अनर्थक हो, तो तथागत उसे नही कहते । चुन्द । अतीतकी बात तथ्य=भूत किन्तु अनर्थक हो, तो उसे भी तथागत नही कहते । वहाँ तथागत उस प्रश्नके उत्तर देनेमे काल जानते है । ० अनागतकी ० । वर्तमानकी ० । चुन्द । इस प्रकार तथागत अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न धर्मोके विषयमे कालवादी (=कालोचित वक्ता), भूतवादी (सत्यवक्ता), अर्थवादी, धर्मवादी विनयवादी है । इसलिये वे तथागत कहलाते है ।
२—यथार्थवादी—“चुन्द । देवताओ, मार, ब्रह्मा सहित सारे लोक, देव-मनुष्य-श्रमण-ब्राह्मण सहित सारी जनताने जो कुछ देखा, सुना, पाया, जाना, खोजा, मनसे विचारा है, सभी तथागतको ज्ञात है । इसीलिये वे तथागत कहे जाते है । चुन्द । जिस रातको तथागत अनुपम सम्यक् सम्बोधिको प्राप्त करते है, और जिस रातको उपाघिरहित परिनिर्वाण प्राप्त करते है, इन दो समयो के बीचमे जो कहते है, और निर्देश करते है, वह सब वैसा ही होता है, अन्यथा नही । इस लिये ० । चुन्द । तथागत यथावादी तथाकारी और यथाकारी, तथावादी होते है । इस प्रकार यथावादी तथाकारी यथाकारी तथावादी । इसलिये ० । चुन्द । इस ० सारे लोक ० मे तथागत विजेता (=अभिभू),=अ-पराजित (=अनभिभूत), एक बात कहनेवाले, द्रष्टा और वशवर्ती होते है । इसलिये० ।
१०—अव्याकृत और व्याकृत बातें
१—अव्याकृत—“हो सकता है, चुन्द । दूसरे मतके परिब्राजक ऐसा पूछे—‘आवुस । क्या तथागत मरनेके बाद रहते है’ यही सच है और बाकी सच झूठ ॽ ०’ (उन्हे) ऐसा कहना चाहिये—‘आवुसो । भगवानने ऐसा नही कहा है—‘तथागत मरनेके बाद रहते है, यही सच, और बाकी सब झूठ ।’ यदी दूसरे ० ऐसा पूछे—० ‘क्या तथागत मरनेके बाद नही रहते, यही सच ० ॽ’ ० उन्हे ऐसा कहना चाहिये —‘आवुसो । भगवानने ऐसा भी नही कहा है—तथागत मरनेके बाद नही रहते, यही सच ०’ । यदि ० पूछे—० क्या तथागत मरनेके बाद रहते भी है और नही भी रहते है, यही सच०ॽ’ ० भगवानने ऐसा भी नही कहा है । ० यदि पूछे—०‘क्या०न रहते है और न नही रहते है०ॽ’ ०भगवानने ऐसा भी नही कहा है । ० यदि पूछे—‘आवुस । श्रमण गौतमने इस विषयमे क्यो कुछ नही कहा ॽ’ ०तो उन्हे ऐसा कहना चाहिये —‘आवुसो । न तो यह अर्थोपयोगी है, न धर्मोपयोगी, न ब्रह्मचर्योपयोगी न निर्वेदके लिये है, न विरागके लिये, न निरोधके लिये, न शाति (=उपशम)के लिये, न ज्ञानके लिये, न सम्बोधिके लिये है, न निर्वाणके लिये । इसी लिये भगवानने उसे नही कहा ।’
२—व्याकृत—“०यदि ऐसा पूछे—‘श्रमण गौतमने क्या कहा है ॽ’ ०ऐसा उत्तर देना चाहिये—भगवानने कहा है—‘यह दुख है, यह दुख-समुदय है, यह दुख-निरोध है, यह दुखनिरोधगामिनी प्रतिपद् है ।’ ०यदि ऐसा पूछे—‘आवुस । श्रमण गैतमने इसे किस लिये बताया है ॽ’ ०ऐसा उत्तर देना चाहिये—‘आवुसो । यही अर्थोपयोगी, धर्मोपयोगी ० है । इसीलीये भगवानने इसे बताया है ।’
११—पूर्वान्त और अपरान्त दर्शन
“चुन्द । जो पूर्वान्त सबधी दृष्टियॉ (=मत) है, मैने उन्हे भी ठीकसे कह दिया, बेठीकके विषयमे मै और क्या कहूँगा ॽ चुन्द । जो अपरान्त-सबधी दृष्टियाँ है, मैने उन्हे भी ० कह दिया ० ।
१—पूर्वान्त दर्शन—“चुन्द । वे पूर्वान्त सबधी दृष्टियाँ कौन है जिन्हे मैने ० कह दिया ० ॽ चुन्द । कितने श्रमण ब्राह्मण ऐसा कहनेवाले और इस सिद्धान्तके माननेवाले है—‘आत्मा और लोक शाश्वत (=नित्य) है’, यही सच है और दूसरा झूठ ।—‘आत्मा और लोक अशाश्वत है’ ० । ‘आत्मा और लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनो है’ ० । ‘आत्मा औऱ लोक न शाश्वत और न अशाश्वत है ०’ । आत्मा और लोक स्वयकृत ० । ‘आत्मा और लोक परकृत ० । ‘आत्मा और लोक अघीत्य-(=अभावसे)
समुत्पन्न है’, यही सच और दूसरा झूठ । सुख-दूख शाश्वत है ० । ० अशाश्वत है ० । ० शाश्वत-अशाश्वत दोनो है ० । ० न शाश्वत न अशाश्वत ३ ० । ० स्वयकृत ० । ० परकृत ० । ० स्वयकृत और परकृत ० सुख-दुख न स्वयकृत न परकृत बल्कि अधीत्य-समुत्पन्न है, यही सच और दूसरा झूठ ।’
“चुन्द । जो श्रमण ब्राह्मण ऐसा कहते और समझते है—‘आत्मा और लोक शाश्वत है’—यही सच और दूसरा झूठ’, उनके पास जाकर मै ऐसा पूछता हूँ—‘आवुस’ । ऐसा जो कहते हो—‘आत्मा और लोक शाश्वत है ॽ’ सो कहा जाता है, किन्तु जो कि वह ऐसा कहते है—‘यही सच है और दूसरा झूठ’ उससे मै सहमत नही । सो किस हेतु ॽ चुन्द । क्योकि दूसरा समझनेवाले भी प्राणी है ।
“चुन्द । इस प्रज्ञप्ति (=व्याख्यान) मे मै किसी को अपने समान भी नही देखता, बढकर कहाँसे ॽ बल्कि प्रज्ञप्तिमे मै ही बढ-चढकर हूँ ।
“तो चुन्द । जो श्रमण या ब्राह्मण ऐसा कहते और समझते है—‘आत्मा और लोक शाश्वत है ० । अशाश्वत ० । ० । सुख-दुख शाश्वत् ०, यही सच और दूसरा झूठ— उनके पास जाकर मै ऐसा कहता हूँ—आवुस । ऐसा जो कहते हो ० सो० है ॽ किन्तु जो कि वह ऐसा कहते है—‘यही सच और दूसरा झूठ’, उससे मै सहमत नही । सो किस हेतु ॽ चुन्द । क्योकि दूसरा समझनेवाले प्राणी भी है ।
“चुन्द । इस प्रज्ञप्तिमे, मै किसीको अपने समान भी नही देखता, बढकर कहॉसे । बल्कि प्रज्ञप्तिमे मै ही बढ-चढकर हूँ ।
“चुन्द । जो पूर्वान्त-सबधी दृष्टियॉ है, मैने उन्हे भी जैसा कहना चाहिये था, कह दिया, और जैसा नही कहना चाहिये था, उसके विषय मे मै और क्या कहूँगा ॽ
२—अपरान्त दर्शन—“चुन्द । अपरान्त-सबधी दृष्टियॉ कौन है जिन्हे जैसा कहना चाहिये था मैने कह दिया ०, जैसा नही कहना चाहिये था, उसके विषयमे मै और क्या कहूँगा ॽ चुन्द । कितने श्रमण ब्राह्मण ऐसे वादके ऐसे मतके माननेवोले है—‘आत्मा रूपवान् है, मरनेके बाद अरोग (=परम सुखी) रहता है’—० । आत्मा रूप-रहित है ० । आत्मा रूपवान् और रूपरहित है ० । ० न रूपवान् और न रूपरहित ० । ० सज्ञावाला है ० । ० सज्ञा-रहित ० । ० न सज्ञावान् और न सज्ञा-रहित ० । ० उच्छिन्न और नष्ट हो जाता है, मरनेके बाद नही रहता ० ।
“चुन्द । ० उनके पास जाकर मै ऐसा कहता हूँ— “आवुस । है ऐसा, जैसा कि कहते हो—आत्मा रूपवान् है ० । किन्तु जो कि वह ऐसा कहते है—‘यही सच और दूसरा झूठ’, उससे मै सहमत नही । सो किस हेतु ॽ चुन्द । क्योकि दूसरा समझनेवाले प्राणी भी है । ० किसीको अपने समान नही देखता ० ।
चुन्द । अपरान्त-सबधी दृष्टियॉ ये ही है जिन्हे कि ० मैने कह दिया ० ।
१२—स्मृति प्रस्थान
“चुन्द । इन्ही पूर्वान्त और अपरान्त सबधी दृष्टियो१के दूर करनेके लिये, अतिक्रमण करनेके लिये, इस तरह मैने चार स्मृतिप्रस्थानोका । उपदेश किया है । कौनसे चार ॽ—(१) ०१ कायामे कायानुपश्यी हो ०२ विहरता है । चुन्द । इन पूर्वान्त और अपरान्त सबधी दृष्टियोके दूर करनेके लिये ही ० मैने चार स्मृतिप्रस्थानोका उपदेश किया है ।”
उस समय आयुष्मान् उपवाण भगवानके पीछे हो, भगवानको पखा झल रहे थे ।
तब आयुष्मान् उपवाणने भगवानसे कहा—“आश्चर्य भन्ते । अद्भुत भन्ते । भन्ते । यह धर्मोपदेश (=धर्मपर्याय) पासादिक (=बळा सुन्दर) है ।”
“तो उपवाण । तुम इस धर्मपर्यायको पासादिक ही करके धारण करो ।”
भगवानने यह कहा । सतुष्ट हो आयुष्मान् उपवाणने भगवानके भाषणका अभिनन्दन किया ।