दीध-निकाय
3. अम्बट्ठ-सुत्त (१।३)
१—अम्बष्टका शाक्योपर आक्षेप । २—शाक्योकी उत्पत्ति । ३—जात-पाँतका खडन । ४—विध्या और आचरण । ५—विध्याचरण के चार विघ्न ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओके महान् भिक्षु-सघके साथ कोसल (देश) मे विचरते जहाँ इच्छानगल नामक ब्राह्मण-ग्राम था, वहाँ पहुँचे। वहाँ भगवान् इच्छानगलके इच्छानगल-वनखण्डमे विहरते थे ।
उस समय पौष्करसाति ब्राह्मण, कोसलराज, प्रसेनजित-द्वारा प्रदत्त, राजभोग्य राजदायज्ज ब्रह्म-देय, जनाकीर्ण, तृणकाष्ठ-उदकधान्यसम्पन्न उक्कट्ठाका स्वामी था ।
पौष्करसाति ब्राह्मणने सुना—‘शाक्य-कुलसे प्रब्रजित शाक्य-पुत्र श्रमण गौतम० कोसल-देशमे चारिका करते, इच्छानगलमे ० विहार कर रहे है। उन भगवान् गौतमका ऐसा मगल-कीर्ति शब्द फैला हुआ है । वह भगवान् अर्हत् सम्यक् सबुद्ध, विद्या-आचरण-सम्पन्न, सुगत, लोकविद्, अनुपम पुरुष-दम्यसारथी, देव-मनुष्योके शास्ता, बुद्ध भगवान् है । वह देव-मार सहित इस लोक, श्रमण-ब्राह्मण-देव-मनुष्य-सहित प्रजाको स्वय जानकर,साक्षात् कर, समझाते है । वह आदि-कल्याण, मध्य-कल्याण पर्यवसान-कल्याण वाले धर्मका उपदेश करते है । अर्थ-सहित=व्यजन-सहित, केवल परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्यको प्रकाशित करते है । इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है । उस समय पौष्करसाति ब्राह्मणका अम्बष्ट नामक माणवक अध्यायक, मत्र-धर, निघण्टु, केटुभ (=कल्प), अक्षर-प्रभेद, शिक्षा (=निरुक्त) सहित तीनो वेद, पाँचवे इतिहासका पारड्गत, पद-ज्ञ (=कवि), वैयाकरण, लोकायत (शास्त्र) तथा महापुरूष-लक्षण (=सामुद्रिक शास्त्र) मे निपुण, अपनी पडिताई, प्रवचनमे—‘जो मै जानता हूँ, सो तू जानता है, जो तू जानता है वह मै जानता हूँ (—कहकर आचार्यद्वारा) स्वीकृत किया गया था ।
तब पौष्करसाति ब्राह्मणने अम्बष्ट माणवकको सम्बोधित किया—
“तात । अम्बष्ट । ० इच्छानगलमे विहार करते है ०, इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है । आओ तात । अम्बष्ट । जहाँ श्रमण गौतम है, वहाँ जाओ। जाकर श्रमण गौतमको जानो, कि आप गौतमका (कीर्ति) शब्द यथार्थ फैला हुआ है, या अ-यथार्थ ? क्या ० वैसे है या नही, जिसमे कि हम आप गौतमको जाने ।
“कैसे भो । मै आप गौतमको जानूँगा—कि आप गौतम ० वैसे है यै नही ?”
“तात । अम्बष्ट । हमारे मत्रोमे बत्तीस महापुरूष-लक्षण आये है । जिनसे युक्त महापुरुषकी दो ही गति होती है, तीसरी नही । यदि वह घरमे रहता है, ० चक्रवर्ती राजा होता है । यदि घर से बेघर हो प्रब्रजित होता है,.. अर्हत् सम्यक् सबुद्ध होता है । तात । अम्बष्ट । मै मत्रोका दाता हूँ, तू मत्रोका प्रतिग्रहीता है ।”
पौष्कर-साति ब्राह्मणसे “हाँ, भो।” कह अम्बष्ट माणवक, आसनसे उठ, अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर, घोळीके रथपर चढ, बहुतसे माणवकोके साथ जिधर इच्छानगल बन-खण्ड था, उधर
चला। जितनी रथकी भूमि थी, उतना रथसे जाकर, यानसे उतर, पैदल ही आरामसे प्रविष्ट हुआ । उस समय बहुतसे भिक्षु खुली जगहमे टहल रहे थे । तब अम्बष्ट माणवक जहॉ वह भिक्षु थे वहाँ गया, जाकर उन भिक्षुओसे बोला—
“भो । आप गौतम इस समय कहाँ विहार कर रहे है ॽ हम आप गौतमके दर्शनके लिये यहाँ आये है ।
तब उन भिक्षुओको यह हुआ—‘यह कुलिन प्रसिद्ध (=अम्बष्ट) माणवक, अभिज्ञात (=प्रख्यात) पौष्करसाति ब्राह्मणका शिष्य है । इस प्रकारके कुल-पुत्रौके साथ कथा-सलाप भगवान्-को भारी नही होता ।’ और अमबट्ठ माणवकसे कहा—
“अम्बट्ठ । यह बन्द दर्वाजेवाला विहार (=कोठरी) है, चुपचाप धीरेसे वहॉ जाओ और बराडे(=अलिन्दे)मे प्रवेशकर खासकर, जजीरको खटखटाओ, बिलाईको हिलाओ । भगवान् तुम्हारे लिये द्वार खोल देगे ।”
१—अम्बष्टका शाक्योंपर आक्षेप
तब अम्बट्ठ माणवकने जहाँ वह वद दर्वाजेवाला विहार था, चुपचाप धीरेसे वहाँ जा ० बिलाईको हिलाया । भगवानने द्वार खोल दिया । अम्बष्ट माणवकने भीतर प्रवेश किया । (दूसरे) माणवकोने भी प्रवेशकर भगवानके साथ समोदन किया (और) वह एक ओर बैठ गये । (उस समय) अम्बट्ठ माणवक (स्वय) बैठे हुये भी, भगवान् के टहलते वक्त कुछ पूछ रहा था, स्वय खळे हुये भी बैठे हुये भगवानसे कुछ पूछ रहा था ।
तब भगवानने अम्बष्ट माणवकसे यह कहा—
“अम्बष्ट । क्या बुद्ध=महल्लक आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणोके साथ कथा-सलाप, ऐसे ही होता है, जैसा कि तू चलते खळे बैठे हुये मेरे साथ कर रहा है ॽ”
“नही हे गौतम । चलते ब्राह्मणोके साथ चलते हुये, खळे ब्राह्मणोके साथ खळे हुये, बैठे ब्राह्मणोके साथ बैठे हुये बात करनी चाहिये । सोये ब्राह्मणके साथ सोये बात कर सकते है । किन्तु हे गौतम ! जो मुडक, श्रमण, इभ्य (=नीच) काले, ब्रह्मा (=बन्धु) के पैरकी सतान है, उनके साथ ऐसे ही कथासलाप होता है, जैसा कि (मेरा) आप गौतमके साथ ।”
“अम्बट्ठ । याचक (=अर्थी) की भॉति तेरा यहॉ आना हुआ है । (मनुष्य) जिस अर्थके लिये आवे, उसी अर्थको (उसे) मनमे करना चाहिये । अम्बष्ट । (जान पळता है) तूने (गुरुकुलमे) नही वास किया है, वास करे बिना ही क्या (गुरुकुल-) वासका अभिमान करता है ॽ”
तब अम्बष्ट माणवकने भगवानके (गुरुकुल-) अ-वास कहनेसे कुपित, असतुष्ट हो, भगवानको ही खुनसाते (=खुन्सेन्तो) भगवानको ही निन्दते, भगवानको ही ताना देते—‘श्रमण गौतम दुष्ट है’ (सोच) यह कहा—“हे गौतम । शाक्य-जाति चड है । है गौतम शाक्य-जाति क्षुद्र (=लघुक) है । हे गोतम । शाक्य-जाति बकवादी (=रभस) है । नीच (=इभ्य) समान होनेसे शाक्य, ब्राह्मणोका सत्कार नही करते, ब्राह्मणोका गौरव नही करते, ० नही मानते, ० नही पूजते, ० नही (=खातिर) करते । हे गौतम । सो यह अयोग्य है, जो कि नीच, नीच-समान शाक्य, ब्राह्मणोका सत्कार नही करते ० ।”
इस प्रकार अम्बट्ठने शाक्योपर इभ्य (=नीच) कह यह प्रथम आक्षेप किया ।
“अम्बट्ठ । शाक्योने तेरा क्या कसूर किया है ॽ”
“हे गौतम । एक समय मै (अपने) आचार्य ब्राह्मण पौष्करसातिके किसी कामसे कपिल वस्तु गया और जहाँ शाक्योका सस्थागार (=प्रजातन्त्र-भवन) था, वहाँ पहुँचा । उस समय बहुतसे शाक्य तथा शाक्य-कुमार सस्थागारमे ऊँचे ऊँचे आसनोपर, एक दूसरेको अगुली गळाते हँस रहे
थे, खेल रहे थे । मुझे ही मानो हँस रहे थे । (उनमेसे) किसीने मुझे आसनपर बैठनेको नही कहा । सो हे गौतम । अच्छन्न=अयुक्त है, जो यह इभ्य तथा इभ्य-समान शाक्य ब्राह्मणोका सत्कार नही करते ०।”
इस प्रकार अम्बट्ठ माण्वकने शाक्योपर दूसरा आक्षेप किया ।
“लटुकिका (=गौरय्या) चिळिया भी अम्बट्ठ अपने घोसलेपर स्वच्छन्द-आलाप करती है । कपिलवस्तु शाक्योका अपना (धर) है, अम्बट्ठ । इस थोळी बातसे तुम्हे अमर्प न करना चाहिये ।”
“हे गौतम । चार वर्ण है—क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र । इनमे हे गौतम । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह तीनो वर्ण, ब्राह्मणके ही सेवक है । गौतम । सो यह ० अयुक्त है ० ।”
इस प्रकार अम्बट्ठ माणवकने इभ्य कह, शाक्योपर तीसरी बार आक्षेप किया ।
तव भगवानको यह हुआ—यह अम्बट्ठ माणवक बहुत बढ बढकर शाक्योपर इभ्य कह आक्षोप कर रहा है, क्यो न मै (इससे) गोत्र पूछूँ । तब भगवानने अम्बट्ठ माणवकसे कहा—“किस गोत्रके हो, अम्बट्ठ।”
“काष्णर्यायन हूँ, हे गौतम ।”
२—शाक्योंकी उत्पत्ति
“अम्बट्ठ । तुम्हारे पुराने नाम गोत्रके अनुसार, शाक्य आर्य(=स्वामि)-पुत्र होते है । तुम शाक्योके दासी-पुत्र हो । अम्बष्ट । शाक्य, राजा इक्ष्वाकु (=ओक्काक) को पितामह कह धारण करते (=मानते) है । पूर्वकालमे अम्बट्ठ । राजा इक्ष्वाकुने अपनी प्रिया मनापा रानीके पुत्रको राज्य देनेकी इच्छासे, ओक्कामुख (=उल्कामुख), करण्डु, हत्थिनिक, और सिनीसूर (नामक) चार बळे लळकोको राज्यसे निर्वासित कर दिया। वह निर्वासित हो, हिमालयके पास सरोवरके किनारे (एक) बळे शाक (=सागौन) –वनमे वास करने लगे । (गोरी) जातिके बिगळनेके डरसे उन्होने अपनी बहिनोके साथ सवास (=सभोग) किया । तब अम्बट्ठ । राजा इक्ष्वाकुने अपने अमात्यो और दरबारियोसे पूछा—‘कहाँ है भो । इस समय कुमार ?’
‘देव । हिमवानके पास सरोवरके किनारे महाशाकवन (=साक-सड) है, वही इस वक्त कुमार रहते है । वह जातिके बिगळनेके डरसे अपनी बहिनोके साथ सवास करते है ।’
“तब अम्बट्ठ । राजा इक्ष्वाकुने उदान कहा—‘अहो । कुमार । शाक्य (=समर्थ) है रे । । महाशाक्य है रे कुमार ।’ तबसे अम्बट्ठ । वह शाक्यके नामहीसे प्रसिद्ध हुए, वही (इक्ष्वाकु) उनका पूर्वपुरुष था । अम्बट्ठ । राजा इक्ष्वाकुकी दिशा नामकी दासी थी । उससे कृष्ण (=कण्ह) नामक पुत्र पैदा हुआ । पैदा होतेही कृष्णने कहा—‘अम्मा । धोओ मुझे, अम्मा । नहलाओ मुझे, इस गदगी (=अशुचि) से मुक्त करो, मै तुम्हारे काम आऊँगा ।’ अम्बट्ठ । जैसे आजकल मनुष्य पिशाचोको देखकर ‘पिशाच’ कहते है, वैसेही उस समय पिशाचोको, कृष्ण कहते थे । उन्होने कहा—इसने पैदा होते ही बात की, (अत यह) ‘कृष्ण पैदा हुआ’, ‘पिचाश पैदा हुआ’ । उसी (कृष्ण) से (उत्पन्न वश) आगे काष्णर्यायन प्रसिद्ध हुआ । वही काष्णर्यायनोका पूर्व-पुरुष था । इस प्रकार अम्बष्ट । तुम्हारे माता-पिताओके गोत्रको ख्याल करनेसे, शाक्य आर्य-पुत्र होते है, तुम शाक्योके दासी-पुत्र हो ।”
ऐसा कहनेपर उन माणवकोने भगवानसे कहा—
“आप गौतम । अम्बष्ट माणवकको कळे दासी-पुत्र-वचनसे मत लजावे । हे गौतम । अम्बष्ट माणवक सुजात है, कुल-पुत्र है ० बहुश्रुत ०, सुवक्ता ०, पडित है । अम्बष्ट माणवक इस बातमे आप गौतमके साथ वाद कर सकता है ।”
तब भगवानने उन माणवकोसे कहा—
“यदि तुम माणवकोको होता है—‘अम्बष्ट माणवक दुर्जात है, ० अ-कुलपुत्र है, ० अल्पश्रुत ०,० दुर्वक्ता ०, दुष्प्रज्ञ (=अ-पङित्त) ०। अम्बष्ट माणवक श्रमण गौतमके साथ इस विषयमे वाद नही कर सकता । तो अम्बष्ट माणवक बैठे, तुम्ही इस विषयमे मेरे साथ वाद करो । यदि तुम माणवकोको ऐसा है—अम्बष्ट माणवक सुजात है ०।०। तो तुम लोग ठहरो, अम्बष्ट माणवकको मेरे साथ वाद करने दो ।”
“हे गौतम । अम्बष्ट माणवक सुजात है, ०। अम्बष्ट माणवक इस विषयमे आप गौतमके साथ वाद कर सकता है । हम लोग चुप रहते है। अम्बष्ट माणवक ही आप गौतमके साथ वाद करेगा ।”
तब भगवानने अम्बष्ट माणवकसे कहा—
“अम्बष्ट । यहॉ तुमपर धर्म-सम्बन्धी प्रश्न आता है, न इच्छा होते हुए भी उत्तर देना होगा, यदि नही उत्तर दोगे, या इधर उधर करोगे, या चुप होगे, या चले जाओगे, तो यही तुम्हारा शिर सात टुकळे हो जायगा । तो अम्बष्ट । क्या तुमने बृध्द-महल्लक ब्राह्मणो आचार्य-प्राचार्यो श्रमणोसे सुना है (कि) कबसे काष्ण्यॉयन है, और उनका पूर्व-पुरुष कौन था ॽ”
ऐसा पूछनेपर अम्बष्ट माणवक चुप हो गया ।
दुसरी बार भी भगवानने अम्बष्ट माणवकसे यह पूछा—० ।
तब भगवानने अम्बष्ट माणवकसे कहा—
“अम्बष्ट । उत्तर दो, यह तुम्हारा चुप रहनेका समय नही । जो कोई तथागतसे तीन बार अपने धर्म-सम्बन्धी प्रश्न पूछे जानेपर भी उतर नही देगा, उसका शिर यही सात टुकळे हो जायगा ।”
उस समय बज्रपाणि यक्ष बळे भारी आदीप्त-सप्रज्वलित=चमकते लोह-खड (=अय-कूट) को लेकर, अम्बष्ट माणवकके ऊपर आकाशमे खळा था—‘यदि यह अम्बष्ट माणवक तथागतसे तीन बार अपने धर्म-सम्बन्धी प्रश्न पूछे जानेपर भी उत्तर नही देगा, (तो) यही इसके शिरको सात टुकळे करूँगा ।’ उस बज्रपाणि यक्षको (या तो) भगवान् देखते थे, या अम्बष्ट माणवक । तब उसे देख अम्बष्ट माणवक भयभीत, उद्विग्न, रोमाचित हो, भगवानसे त्राण-लयन-शरण चाहता, बैठकर भगवानसे बोला—
“क्या आप गौतमने कहा, फिरसे आप गौतमने कहे तो ॽ”
“तो कया मानते हो, अम्बष्ट । क्या तुमने सुना है ० ॽ”
“ऐसा ही है हे गौतम । जैसा कि आपने कहा । तबसे ही काप्ण्र्यायन हुए, और वही काप्ण्र्यायनोका पूर्व-पुरुष था ।”
ऐसा कहनेपर (दुसरे) माणवक उन्नाद=उच्चशब्द=महा-शब्द (=कोलाहल) करने लगे—
“अम्बष्ट माणवक दुर्जात है । अ-कुलपुत्र है। अम्बष्ट माणवक शाक्योका दासी-पुत्र है । शाक्य, अम्बष्ट माणवकके आर्य (=स्वामि)-पुत्र होते है । सत्यवादी श्रमण गौतमको हम अश्रद्धेय बनाना चाहते थे ।”
तब भगवानने देखा—‘यह माणवक, अम्बष्ट माणवकको दासी-पुत्र कहकर अधिक लजाते है, क्यो न मै (इसे) छुळाऊँ।’ तब भगवानने माणवकोसे कहा—
“माणवको । तुम अम्बष्ट माणवकको दासी-पुत्र कहकर बहुत अधिक मत लजवाओ । वह कृष्ण महान् ऋषि थे । उन्होने दक्षिण-देशमे जाकर ब्रह्ममत्र पठकर, राजा इक्ष्वाकुके पास जा (उसकी) क्षुद्र-रूपी कन्याको मॉगा । तब राजा इक्ष्वाकुने—‘अरे यह मेरी दासीका पुत्र होकर क्षुद्र-रूपी कन्याको मॉगता है’ (सोच), कुपित हो असन्तुष्ट हो, वाण चढाया। लेकीन उस वाणको न वह छोळ सकता था, न समेट सकता था । तब अमात्य और पार्षद (=दर्बारी) कृष्ण ऋषिके पास जाकर बोले—
‘भदन्त । राजाका मगल हो, भदन्त । राजाका मगल (=स्वस्ति) हो ।’
‘राजाका मगल होगा, यदि राजा नीचेकी ओर वाण(=क्षुरप्र को छोळेगा । (लेकिन) जितना राजाका राज्य है, उतनी पृथ्वी फट जायगी ।’
‘भदन्त । राजाका मगल हो, जनपद (=देश) का मगल हो ।’
‘राजाका मगल होगा, जनपदका भी मगल होगा, यदि राजा ऊपरकी ओर वाण छोळेगा, (लेकिन) जहॉ तक राजाका राज्य है, सात वर्ष तक वहाँ वर्षा न होगी।’
‘भदन्त । राजाका मगल हो, दैव वर्षा करे ।’
‘० देव भी वर्षा करेगा, यदि राजा ज्येष्ठ कुमारपर वाण छोळे । कुमार स्वस्ति पूर्वक (रहेगा किन्तु) गजा हो जायेगा ।’
“तब माणवको । अमात्योने इक्ष्वाकुसे कहा—‘ ज्येष्ठ कुमारपर वाण छोळे, कुमार स्वस्ति-सहित (किन्तु) गजा हो जायेगा । राजा इक्ष्बाकुने ज्येष्ठ कुमारपर वाण छोळ दिया । उस ब्रमदण्डसे भयभीत, उद्विग्न, रोमाचित, तर्जित राजा इक्ष्बाकुने ऋषिको कन्या प्रदान की । माणवको । अम्बष्ट माणवको दासी-पुत्र कह, तुम मत बहुत अघिक लजवाओ । वह कृष्ण महान् ऋषि थे ।”
३—जात-पाँतका खंडन
तब भगवानने अम्बष्ट माणवको सम्बोधित किया—
“तो अम्बष्ट । यदि (एक) क्षत्रिय-कुमार ब्राह्मण-कन्याके साथ सहवास करे, उनके सहवाससे पुत्र उत्पन्न हो । जो क्षत्रिय-कुमारसे ब्राह्मण-कन्यामे पुत्र उत्पन्न होगा, क्या वह ब्राह्मणोमे आसन और पानी पायेगा ?” “पायेगा हे गौतम ।”
“कया ब्राह्मण श्राद्घ, स्थालि-पाक, यज्ञ या पाहुनाईमे उसे (साथ) खिलायेगे ?”
“खिलायेगे हे गौतम ।”
“कया ब्राह्मण उसे मत्र (=वेद) बँचायेगे ?” बँचायेगे हे गौतम ।”
“उसे (ब्राह्मणी) स्त्री (पाने)मे रुकावट होगी, या नही ?”
“नही रुकावट होगी ।”
“कया क्षत्रिय । उसे क्षत्रिय-अभिषेकसे अभिषिक्त करेगे ?”
“नही, हे गौतम । कयोकि माताकी ओरसे हे गौतम । वह ठीक नही है ।”
“तो . अम्बष्ट । यदि एक ब्राह्मण-कुमार क्षत्रिय-कन्याके साथ सहवास करे, और उनके सहवाससे पुत्र उत्पन्न हो । जो वह ब्राह्मण-कुमारसे क्षत्रिय-कन्यासे पुत्र उत्पन्न हुआ है, क्या वह ब्राह्मणोसे आसन पानी पायेगा ?”
“पायेगा हे गौतम ।”
“कया ब्राह्मण श्राद्ध, स्थालिपाक, यज्ञ या पाहुनाईमे उसे (साथ) खिलायेगे ?”
“खिलायेगे हे गौतम ।”
“ब्राह्ण उसे मत्र बँचायेगे, या नही ?”
“बँचायेगे हे गौतम ।”
“क्या उसे (ब्राह्मण-) स्त्री (पाने) मे रुकावत होगी ?”
“रुकावह न होगी हे गौतम ।”
“कया उसे क्षत्रिय क्षत्रिय-अभिषेकसे अभिषिकत करेगे ?”
“नही, हे गौतम ।”
“सो किस हेतु ?”
“(कयोकि) हे गौतम । पिताकी ओरसे वह ठीक नही है ।”
“इस प्रकार अम्बष्ट । स्त्रीकी ओरसे भी, पुरूषकी ओरसे भी क्षत्रिय ही श्रेष्ठ है, ब्राह्मण हीन है । तो . अम्बष्ट यदि ब्राहमण किसी ब्राह्मणको छुरेसे मुडित करा, घोळेके चाबुकसे मारकर, राष्ट्र या नगरसे निर्वासित कर दे । क्या वह ब्राह्मणोमे आसन, पानी पायेगा ?”
“नही, हे गौतम ।”
“क्या ब्राह्मण श्राद्ध स्थालिपाक, यज्ञ, पाहुनाईसे उसे खिलायेगे ?”
“नही, हे गौतम ।”
“ब्राह्मण उसे मत्र बँचायेगे या नही ?”
“नही, हे गौतम ।”
“उसे (ब्राह्मण-)स्त्री (पाने)मे रूकावट होगी या नही ?”
“रूकावट होगी, हे गौतम ।”
“तो अम्बष्ट । यदि क्षत्रिय (एक पुरुषको) किसी कारणसे छुरेसे मुडित करा, घोळेके चाबुकसे मारकर, राष्ट्र या नगरसे निर्वासित कर दे । क्या वह ब्राह्मणोमे आसन पानी पायेगा ?”
“पायेगा हे गौतम ।”
“क्या ब्राह्मण ० उसे खिलायेगे ?” “खिलायेगे हे गौतम ।”
“क्या ब्राह्मण उसे मत्र वँचायेगे ?”
“वँचायेंगे हे गौतम ।”
“उसे स्त्रीमे रुकावट होगी, या नही ?”
“रुकावट नही होगी हे गौतम ।”
“अम्बट्ठ । क्षत्रिय बहुतही निहिन (=नीच) हो गया रहता है, जबकि उसको क्षत्रिय किसी कारणसे मुडित कर ० । इस प्रकार अम्बष्ट । जब वह क्षत्रियोमे परम नीचताको प्राप्त है, तब भी क्षत्रिय ही श्रेष्ठ है, ब्राह्मण हीन है । ब्रह्मा सनत्कुमारने भी अम्बवष्ट । यह गाथा कही है—
४—विद्या और आचरण
‘गोत्र लेकर चलनेवाले जनोमे क्षत्रिय श्रेष्ठ है ।
‘जो विद्या और आचरणसे युक्त है, वह देवमनुष्योमे श्रेष्ठ है ॥१॥”
“सो अम्बष्ट । यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमारने उचित ही गायी(=सुगीता) है, अनुचित नही गायी है,—सुभाषित है, दुर्भाषित नही है, सार्थक है, निरर्थक नही है, मै भी सहमत हूँ, मै भी अम्बष्ट कहता हूँ—‘गोत्र लेकर० ।”
“क्या है, हे गौतम । चरण, और क्या है विद्या ?”
“अम्बष्ट । अनुपम विद्या-आचरण-सम्पदाको जातिवाद नही कहते, नही गोत्र-वाद कहते, नही मान-वाद—‘मेरे तू योग्य है’, ‘मेरे तू योग्य नही है’ कहते है । जहॉ अम्बष्ट । आवाह-विवाह होता है, वही यह जातिवाद, गोत्रवाद, मानवाद, ‘मेरे तू योग्य है’, ‘मेरे तू योग्य नही है’ कहा जाता है । अम्बट्ठ । जो कोई जातिवादमे बँधे है, गोत्रवादमे बँधे है, (अभि-)मान-वादमे बँधे है, आवाह-विवाहमे बँधे है, वह अनुपम विद्या-चरण-सम्पदासे दूर है । अम्बष्ट । जाति-वाद-बन्धन, गोत्र-वाद-बन्धन, मान-वाद-बन्धन, आवाह-विवाह-बन्धन छोळकर, अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाका साक्षात्कार किया जाता है ।
“क्या है, हे गौतम । चरण, और क्या है विद्या ?”
“अम्बष्ट । संसारमे तथागत उत्पन्न होते है ०१ ।०। इसी प्रकार भिक्षु शरीरके चीवर-पेटके
खानेसे सन्तुष्ट होता है । ० । इस तरह अम्बष्ट । भिक्षु शील-सम्पन्न होता है ० १ ।
२वह प्रीति-सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । यह भी उसके चरणमे होता ।० द्वितीय ध्यान ० । ० तृतीय ध्यान ० । ० चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है, यह भी उसके चरणमे होता है । अम्बष्ट । यह चरण है । ० सच्चे ज्ञानके प्रत्यक्ष करनेके लिए, (अपने) चित्तको नवाता है, झुकाता है । सो इस प्रकार एकाग्र चित्त ०३ । इस तरह आकार-प्रकार के साथ अनेक पूर्व-(जन्म-) निवासोको जानता है । यह भी अम्बष्ट । उसकी विद्यामे है । ० विशुद्ध अलोकिक दिव्यचक्षुसे ०४ प्राणियोको देखता है । यह भी अम्बष्ट । उसकी विद्यामे है । ०५ ‘जन्म खतम हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, करना था सो कर लिया, अब यहॉ (करने)के लिये कुछ नही रहा’—यह भी जानता है । यह भी उसकी विद्यामे है । यह अम्बष्ट । विद्या है । अम्बष्ट । ऐसा भिक्षु विद्या-सम्पन्न कहा जाता है । इसी प्रकार चरण-सम्पन्न, इस प्रकार विद्या-चरण-सम्पन्न होता है । इस विद्या-सम्पदा, तथा चरण-सम्पदासे बढकर दूसरी विद्या-सम्पदा या चरण-सम्पदा नही है ।
५—विद्याचरणके चार विघ्र
"अम्बष्ट । इस अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाके चार विघ्न होते है । कोनसे चार ? (१) कोई श्रमण या ब्राह्मण अम्बष्ट । इस अनुपम विद्या-चरण सम्पदाको पूरा न करके, बहुतसा विविध झोरी-मत्रा (=वाणप्रस्थीक सामान) लेकर—‘फल मूलाहारी होऊँ’ (सोच) वन-वासके लिय जाता है । वह विद्या-चरणसे भिन्न वस्तुका सेवन करता है । इस अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाका यह प्रथम विघ्न है । (२)और फिर अम्बष्ट । जब कोई श्रमण या ब्राह्मण इस अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाको पूरा न करके, फलाहारिता को भी पूरा न करके, कुदाल ले ‘कन्द-मूल फलाहरी होऊँ’ (सोच) विद्या-चरणसे भिन्न वस्तुको सेवन करता है ।० यह द्वितीय विघ्न है । (३) और फिर अम्बष्ट । ० फलाहारिताको न पूरा करके, गॉवके पास या निगम (=कस्बा) के पास अग्निशाला बना अग्नि-परिचण (=होम आदि) करता रहता है ० । ० यह तृतीय विघ्न है । (४) और फिर अम्बष्ट । ० अग्नि-परिचर्याको भी न पूरा करके, चौरस्तेपर चार द्वारोवाला आगार बनाकर रहता है, कि यहॉ चारो दिशाओसे जो श्रमण या ब्राह्मण आयेगा, उसका मै यथाशक्ति=यथावल सत्कार करूँगा । अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाके अम्बष्ट । यह चार विघ्न है ।
“तो अम्बष्ट । क्या आचार्य-सहित तुम इस अनुपम विद्याचरण-सम्पदाका उपदेश करते हो ?”
“नही हे गोतम । कहॉ आचार्य-सहित मै और कहॉ अनुपम विद्या-चरण-सम्पदा । हे गौतम । आचार्य-सहित मै अनुपम विद्या-चरण-सम्पदासे दूर हूँ ।”
“तो अम्बष्ट । इस अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाको पूरा न कर, झोली आदि (=खारी-विविध) लेकर ‘फलाहारी होऊँ’ (सोच), क्या तुम आचार्य-सहित वनवासके लिये वनमे प्रवेश करते हो ?
“नही हे गौतम ।”
“० । ० । चौरस्तेपर चार द्वारोवाला आगार बनाकर रहते हो, कि जो यहाँ चारो दिशाओसे श्रमण या ब्राह्मण आयेगा, उसका यथाशक्ति सत्कार करूँगा ?” “नही हे गोतम ।”
“इस प्रकार अम्बष्ट । आचार्य-सहित तुम इस अनुपम विद्या-चरण-सम्पदासे भी हीन हो, ओर यह जो अनुपम विद्या-चरण-सम्पदाके चार विघ्न (=अपाय-मुख) है, उनसे भी हीन । तुमने अम्बष्ट । क्यो आचार्य ब्राह्मण पौष्कर-सातिसे सीखकर यह वाणी कही—‘कहाँ इव्भ, (=नीचा,इभ्य) काले,
पैरसे उत्पन्न मुडक श्रमण है, और कहॉ त्रैविद्य (=त्रिवेदी) ब्राह्मणोका साक्षात्कार’ ? स्वंय अपायिक (=दुर्गतिगामी) भी, (विद्या-चरण) न पूरा करते (हुए भी), अम्बष्ट । अपने आचार्य ब्राह्मण पौष्करसातिका यह दोष देखो । अम्बष्ट । पौष्करसाति ब्राह्मण राजा प्रसेनजित् कोसलका दिया खाता है । राजा प्रसेनजित् कोसल उसको दर्शन भी नही देता । जब उसके साथ मंत्रणा भी करनी होती है, तो कपळेकी आळसे मत्रणा करता है । अम्बष्ट । जिसकी धार्मिक दी हुई भिक्षाको (पौष्करसाति) ग्रहण करता है, वह राजा प्रसेनजित् कोसल उसे दर्शन भी नही देता ।। देखो अम्बष्ट । अपने आचार्य ब्राह्मण पौष्करसातिका यह दोष ।। तो क्या मानते हो अम्बष्ट । राजा प्रसेनजित् कोसल हाथीपर बैठा, या रथके ऊपर खळा उग्रोके साथ या राजन्योके साथ कोई सलाह करे, और उस स्थानसे हटकर एक ओर खळा हो जाय । तब (कोई) शूद्र या शूद्र-दास आजाय, वह उस स्थानपर खळा हो, उसी सलाहको करे—जिसे कि राजा प्रसेनजित् कोसलने की थी, तो वह राज-कथनको कहता है, राजमंत्रणाकी मंत्रित करता है, इतनेसे क्या वह राजा या राज-अमात्य हो जाता है ?”
“नही हे गौतम ।”
“इसी प्रकार के अम्बष्ट । जो वह ब्राह्मणोके पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता, मंत्र-प्रवक्ता (थे), जिनके कि पुराने गीत, प्रोक्त, समीहित (=चिन्तित) मंत्रपद(=वेद)को ब्राह्मण आजकल अनुगान, अनुभाषण करते है, भाषितको अनुभाषित, वाचितको अनुवाचित करते है, जैसे कि—अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अगिरा, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु। ‘उनके मंत्रोको आचार्य-सहित मै अध्ययन करता हूँ’, क्या इतनेसे तुम ऋषि या ऋषित्वके मार्गपर आरूढ कहे जाओगे ? यह संभव नही ।
“तो क्या अम्बष्ट । वृद्ध=महल्लक ब्राह्मणो, आचार्यो-प्राचार्योको कहते सुना है कि जो वह ब्राह्मणोके पूर्वज ऋषि ० अट्टक ० (थे), क्या वह ऐसे सुस्नात, सुविलिप्त (=अगराग लगाये), केश मोछ सँवारे मणिकुण्डल आभरण पहिने, स्वच्छ (=श्वेत) वस्त्र-धारी, पॉच काम-भोगोमे लिप्त, युक्त, घिरे रहते थे, जैसे कि आज आचार्य-सहित तुम ?”
“नही, हे गौतम ।”
“क्या वह ऐसा शालिका भात, शुद्ध मासका तीवन (=उपसेचन), कालिमारहित सूप, अनेक प्रकारकी तरकारी (=व्यंजन) भोजन करते थे, जैसे कि आज आचार्य-सहित तुम ?”
“नही, हे गौतम ।”
“क्या वह ऐसी (साळी) वेष्टित कमनीयगात्रा स्त्रियोके साथ रमते थे, जैसे कि आज आचार्य-सहित तुम ?”
“क्या वह ऐसी कटे बालोवाली घोळियोके रथपर लम्बे डंडेवाले कोळोसे वाहनोको पीटते गमन करते थे, जैसे कि ० तुम ?”
“नही, हे गौतम ।”
“क्या वह ऐसे खॉई खोदे, परिघ (=काष्ट-प्राकार) उठाये, नगर-रक्षिकाओमे (=नगरूपकारिकासु) दीर्घ-आयु-पुरूषोसे रक्षा करवाते थे, जैसे कि ० तुम ?”
“नही, हे गौतम ।”
“इस प्रकार अम्बष्ट । न आचार्य-सहित तुम ऋषि हो, न ऋषित्वके मार्गपर आरूढ । अम्बष्ट । मेरे विषयमे जो तुम्हे संशय=विमति हो वह प्रश्न करो, मैं उसे उत्तरसे दूर करूँगा।”
यह कह भगवान् विहारसे निकल, चऋम (=टहलने)के स्थानपर खळे हुए । अम्बष्ट माणवक भी विहारसे निकल चऋमपर खळा हुआ । तब अम्बष्ट माणवक भगवानके पीछे पीछे टहलता भगवान् के
शरीरमे ३२ महापुरूष-लक्षणोको ढूँढता था । अम्बष्ट माणवकने दोको छोळ बत्तीस महापुरूष-लक्षणोमेसे अधिकाश भगवानके शरीरमे देख लिये । ० ।
तब अम्बष्ट माणवकको ऐसा हुआ—‘श्रमण गौतम बत्तीस महापुरूष-लक्षणोसे समन्वित, परिपूर्ण है, और भगवानसे बोला—“हन्त । हे गौतम । अब हम जायेगे, हम बहुत कृत्यवाले बहुत कामवाले है ।”
“अम्बष्ट । जिसका तुम काल समझते हो ।”
तब अम्बष्ट माणवक वडवा(=धोळी)-रथपर चढकर चला गया ।
उस समय पौष्कर-साति ब्राह्मण, बळे भारी ब्राह्मण-गणके साथ, उककटठासे निकलकर, अपने आराम (=बगीचे)मे, अम्बष्ट माणवककी ही प्रतिक्षा करते बैठा था । तब अम्बष्ट माणवक जहाँ अपना आराम था वहाँ गया । जितना यान (=रथ)का रास्ता था, उतना यानसे जाकर, यानसे उतरकर पैदल ही जहाँ पौष्कर-साति ब्राह्मण था, वहॉ गया । जाकर ब्राह्मण पौष्कर-सातिको अभिवादनकर एक ओर बैठे गया । एक ओर बैठे अम्बष्ट माणवकसे पौष्कर-साति ब्राह्मणने कहा—
“क्या तात । अम्बष्ट । उन भगवान् गौतमको देखा ॽ”
“भो । हमने उन भगवान गौतमको देखा ।”
“क्या तात । अम्बष्ट । उन भगवान् गौतमका यथार्थ यश फैला हुआ है, या अयथार्थ ॽ क्या आप गौतम वैसे ही है, या दूसरे ॽ”
“भो । यथार्थमे उन भगवान् गौतमके लिये शब्द (=यश) फैला हुआ है । आप गौतम वैसेही है, अन्यथा नही । आप गौतम बत्तीस महापुरूष-लक्षणोसे समन्वित परिपूर्ण है ।”
“तात । अम्बष्ट । क्या श्रमण गौतमके साथ तुम्हारा कुछ कथा-सलाप हुआ ॽ”
“भो । मेरा श्रमण गौतमके साथ कथा-सलाप हुआ ।”
“तात । अम्बष्ट । श्रमण गौतमके साथ क्या कथा-सलाप हुआ ॽ”
तब अम्बष्ट माणवकने जितना भगवानके साथ कथा-सलाप हुआ था, सब पौष्कर-साति ब्राह्मणसे कह दिया । ऐसा कहनेपर ब्राह्मण पौष्कर-साति०ने अम्बष्ट माणवकसे कहा—
“अहो । हमारा पंडितवा-पन ।। अहो । हमारा बहुश्रुतवा-पन ।। अहोवत । रे ।। हमारा त्रैविधक-पन । इस प्रकारके नीच कामसे पुरूष, काया छोळ मरनेके बाद, अपाय=दुर्गति=विनिपात=निरय (=नरक)मे ही उत्पन्न होता है, जो अम्बट्ठ । उन आप गौतमसे इस प्रकार चिढाते हुए तुमने बात की । और आप गौतम हम (ब्राह्मणो)के लिये भी ऐसे खोल खोलकर बोले । अहोवत । रे ।। हमारा त्रैविधकपन ।।। ” (यह कह पौष्कर-सातिने) कुपित, असंतुष्ट हो, अम्बष्ट माणवकको पैदलही वहॉसे हटाया, और उसी वक्त भगवानके दर्शनार्थ जोनेको (तैयार) हुआ । तब उन ब्राह्मणोने पौष्करसाति ब्राह्मणसे यह कहा—
“भो । श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जानेको आज बहुत विकाल है । दूसरे दिन आप पौष्कर-साति श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जावे ।”
इस प्रकार पौष्कर-साति ब्राह्मण अपने घरमे उत्तम खाद्य भोज्य तैयार करा, यानोपर रखवा, मशाल (=उल्का)की रोशनीमे उक्कट्ठासे निकल, जहॉ इच्छानगल वन-खण्ड था, वहॉ गया । जितनी यानकी भूमी थी, उतनी यानसे जाकर, यानसे उतर पैदलही जहॉ भगवान् थे वहाँ पहुँचा । जाकर ऊगवानके साथ सम्मोदनकर (कुशल-प्रश्न पूछ) एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे पौष्कर-साति ब्राह्मणने भगवानसे कहा—
“हे गौतम । क्या हमारा अन्तेवासी अम्बष्ट माणवक यहाँ आया था ?”
“ब्राह्मण । तेरा अन्तेवासी अम्बष्ट माणवक यहॉ आया था ।”
“हे गौतम । अम्बष्ट माणवकके साथ क्या कथा-सलाप हुआ ॽ”
“ब्राह्मण । अम्बष्ट माणवकके साथ मेरा कुछ कथा-सलाप हुआ ।”
“हे गौतम । अम्बष्ट माणवकके साथ क्या कथा-सलाप हुआ ॽ”
तब भगवानने, अम्बष्ट माणवकके साथ जितना कथा-सलाप हुआ था, (वह) सब पौष्करसाति
ब्राह्मणसे कह दिया । ऐसा कहनेपर पौष्कर-साति ब्राह्मणने भगवानसे कहा—
“बालक है, हे गौतम । अम्बष्ट माणवक । क्षमा करे, हे गौतम । अम्बष्ट माणवकको ।”
“सुखी होवे, ब्राह्मण। अम्बष्ट माणवक ।”
तब पौष्कर-साति ब्राह्मण भगवानके शरीरमे ३२ महापुरुष-लक्षणोको ढूँढने लगा ०१ ।
पौष्कर-साति ब्राह्मणको हुआ— ‘श्रमण गौतम बत्तीस महापुरुष-लक्षणोसे समन्वित, परिपूर्ण है’, और भगवानसे बोला—
“भिक्षुसध सहित आप गौतम आजका भोजन स्वीकार करे ।”
भगवानने मौनसे स्वीकार किया ।
तब पौष्करसाति ब्राह्मणने भगवानकी स्वीकृति जान, भगवानसे कालनिवेदन किया—
“(भोजनका) काल है, हे गौतम । भात तैयार है ।” तब भगवान् पहिनकर पात्र-चीवर ले, जहाँ ब्राह्मण
पौष्कर-सातिके परोसनेका स्थान था, वहॉ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठ गये । तब पौष्कर-साति
ब्राह्मणने भगवानको अपने हाथसे उत्तम खाद्यभोज्यसे सतर्पित-सप्रवारित किया, और माणवकोने
भिक्षु-संघको । पौष्कर-साति ब्राह्मण भगवानके भोजनकर, पात्रसे हाथ हटा लेनेपर, एक दुसरे नीचे
आसनको ले, एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे हुए, पौष्कर-साति ब्राह्मणको भगवानने आनुपूर्वी-कथा
कहो ०१ जैसै कि दानकी कथा, शील-कथा, स्वर्ग-कथा, भोगोके दुष्परिणाम, अपकार, मलिन-
करण, और निष्कामता (=भोग-त्याग) के माहात्म्यको प्रकाशित किया । जब भगवानने
पौष्कर-साति ब्राह्मणको उपयुक्त-चित्त, मृदु-चित्त, आवरणरहित-चित्त, उद्गत-चित्त—प्रसन्न-चित्त
जाना, तो जो बुध्दोका खीचने वाला धर्म उपदेश है—दुख, कारण, विनाश, मार्ग—उसे
प्रकाशित किया, जैसे शुध्द, निर्मल वस्त्रको अच्छी तरह रग पकळता है, वैसेही पौष्कर-साति
ब्राह्मणको उसी आसनपर विरज विमल धर्म-चक्षु—‘जो कुछ उत्पन्न होनेवाला (=समुदय-धर्म)
है, वह नाशवान् (=निरोध-धर्म) है’ —उत्पन्न हुआ ।
तब पौष्कर-साति ब्राह्मणने दृष्ट-धर्म ० हो भगवानसे कहा—
“आश्चर्य । हे गौतम ।। अद्भुत हे गौतम ।।। ०२ (अपने) पुत्र-सहित भार्या-सहित,
परिषढ्-सहित, अमात्य- सहित, मै भगवान् गौतमकी शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संधकी भी ।
आजसे आप गौतम मुझे अजलिवध्द शरणागत उपासक धारण करे । जैसे उक्कट्ठामे आप गौतम
दूसरे उपासक-कुलोमे आते है, वैसेही पुष्कर-साति कुलमे भी आवे । वहाँपर माणवक (=तरूण
ब्राह्मण) या माणविका जाकर भगवान् गौतमको अभिवादन करेगे, आसन या जल देगे । या
(आपके प्रति) चित्तको प्रसन्न करेगे । वह उनके लिये चिरकाल तक हित-सुखके लिये होगा ।”
“सुन्दर (=कल्याण) कहा, ब्राह्मण ।”