दीध-निकाय

30. लक्खण-सुत (३।७)

१—बत्तीस महापुरूष-लक्षण । २—किस कर्म विपाकसे कौन लक्षण ।

ऐसा मैने सुना । एक समय भगवानd श्रावस्तीमे अनाथपिण्डिकके आराम जेतवनमे विहार करते थे ।

वहाँ भगवानने भिक्षुओको संबोधित किया—“भिक्षुओ ।”

“भदन्त ।” कह उन भिक्षुओने भगवानको उत्तर दिया ।

१—बत्तीस महापुरूष-लक्षण

भगवानने यह कहा—“भिक्षुओ । महापुरूषोके बत्तीस महापुरूष-लक्षण है, जिनसे युक्त महापुरूषोकी दो ही गतियॉ होती है तीसरी नही ।—(१) यदि वह घरमे रहता है तो धार्मिक, धर्मराजा, चारो ओर विजय पानेवाला, शान्ति-स्थापक, सात रत्नोसे युक्त चक्रवर्ती राजा होता है । उसके ये सात रत्न होते है—चक्र-रत्न, हस्ति-रत्न, अश्व-रत्न, मणि-रत्न, स्त्री-रत्न गृहपति-रत्न, और सातवॉ पुत्र-रत्न—एक हजारसे भी अधिक सूर-वीर, दूसरेकी सेनाओका मर्दन करनेनाले उसके पुत्र होते है । वह सागरपर्यन्त इस पृथ्वीको दण्ड और शस्त्रके बिना ही धर्मसे जीत कर रहता है । (२) यदि वह घरसे बेघर होकर प्रब्रजित होता है, (तो) संसारके आवरणको हटा देनेवाला अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध होता है ।

भिक्षुओ । वह महापुरूषोके बत्तीस लक्षण१ कौनसे है, जिनसे युक्त होनेसे० ॽ यदि वह घरमे रहता है तो० । यदि वह घरसे बेघर हो प्रब्रजित होता है० । भिक्षुओ । (१) सुप्रतिष्ठित-पाद (=जिसका पैर जमीन पर बराबर बैठता हो) है, यह भी महापुरूष लक्षणोमे एक है । (२) नीचे पैरके तलवेमे सर्वाकार-परिपूर्ण नाभि-नेमि (=पुट्ठी)-युक्त सहस्त्र अरोवाला चक्र होता है । (३) आयतपार्ष्णि (=चौळी घुट्ठीवाला) है । (४) ० दीर्घ-अगुल० । (५) ० मृदु-तरूण-ह्स्त पाद० । (६)० जाल-हस्त-पाद (=अंगुलिया) ० । झिल्लीसे जुळी (७) ० उस्सखपाद(=गुल्फ जिस पादमे ऊपर अवस्थित है)०। (८) ० एणी-जघ (=मृग जैसा-पेडुलीवाला) ० । (९) ० (सीधे) खळे, बिना झुके दोनो घुटनोको अपने हाथके तलवेसे छूता है (आजानुबाहु) ० । (१०) कोषाच्छादित वस्ति-गुह्य (=पुरूष-इन्द्रिय) ० । (११) सुवर्ण वर्ण० काचन समान त्वचावाला० । (१२) सुक्ष्म-छबि (छबि=ऊपरी चमळा) है० जिससे काया पर मैल-धूल नही चिपटती० । (१३) एकैक लोभ, एक एक रोम कूपमे एक एक रोम वाला ० । (१४) ० ऊर्ध्वाग्र-लोभ ० उसके अजन समान नीले तथा प्रदक्षिणा (=बायेसे दाहिनी ओर)से कुडलित लोमोके सिरे ऊपरको उठे है० । (१५) ब्राह्म-ऋजु-गात्र (-लम्बे अकुटिल शरीरवाला) ० । (१६) सप्त-उत्सद (=सातो अंगोमे पूर्ण आकारवाला) ० ।

(१७) सिंह-पूर्वार्द्ध-काय (=जिसका छाती आदि शरीरका ऊपरी भाग सिंहकी भॉति विशाल है) ० । (१८) चिंतान्तरास (=जिसका दोनो कंधोका विचला भाग चितपूर्ण है) ० । (१९) न्यग्रोध-परिमंडल ० जितनी शरीरकी ऊँचाई, उतना व्यायाम (=चोळाई) (और) जितना व्यायाम उतनी ही शरीरकी ऊँचाई । (२०) समवर्त-स्कन्ध (=समान परिमाणके कंधेवाला) ० । (२१) रसग्ग-सग्गी (=सुन्दर शिराओवाला) ० । (२२) सिंह-हनु (=सिंह-समान पूर्ण ठोळीवाला) ० । (२३) चव्वालीस-दन्त ० । (२४) सम-दन्त ० । (२५) अविवर-दन्त) (=दाँतोके बीच कोई छेद न होना) ० । (२६) सु-शुक्ल-दाढ (=खूब सफेद दाढवाला) ० । (२७) प्रभूत-जिह्व (=लम्बी-जीभवाला) ० । (२८) ब्रह्मस्वर, करविक (पक्षीसे) स्वरवाला ० । (२९) अभिनील-नेत्र (=अलसीके पुष्य जैसी नीली आँखोवाला) ० । (३०) गो-पक्ष्म (गाय जैसी पलकवाला) ० । (३१) मैहोके बीचमे श्वेत कोमल कपास सी ऊर्णा (=रोमराजी) है ० । (३२) उष्णीषशीर्षा (=पगळी शिरवाला) ० है । भिक्षुओ । यह महापुरुष-लक्षणोमे है ।

२—किस कर्म-विपाकमें कोन लक्षण

“भिक्षुओ । इन बत्तीस महापुरुष-लक्षणोको बाहरके ऋषि भी जानते है, किंतु यह नही जातने कि किस कर्मके करनेसे किस लक्षणका लाभ होता है ।

१—कायिक सदाचार— (१) “भिक्षुओ । तथागत पूर्व-जन्म=पूर्व-भव, पूर्व-निवासमे मनुष्य हो, कायिकसदाचार,—दान, शीलाचरण, उपोसथ-व्रत, माता-पिता, श्रमण-ब्राह्मणकी सेवा, बळे लोगोके सत्कार और दूसरे सुकर्मोको स्थिर दृढ हो करनेवाले थे । उन पुण्य कर्मोके संचय, विपुलतासे काया छोळ मरनेके बाद सुगति स्वर्गलोकमे जन्मते है । वहाँ अन्य देवोसे दिव्य आयु, वर्ण, सुख, यश, प्रभुत्व, रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श दस बातोमे बढ जाते है । वे वहॉसे च्युत हो यहॉ आ इस महापुरुष-लक्षणको पा सुप्रतिष्ठितपाद होते है ० । उस लक्षणसे युक्त हो, यदि घरमे रहते है, तो ० चक्रवर्ती राजा होते है । राजा हो क्या पाते है ? किसी भी मनुष्य शत्रुसे अजेय होना—राजा हो यही पाते है । यदि ० प्रव्रजित होते है, तो ० अर्हत्, सम्यक् सबुद्ध होते है । बुद्ध हो क्या पाते है ? आन्तरिक शत्रु=अमित्र—राग, द्वेष, मोह, और श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार ब्रह्मा था संसारमे किसी भी दूसरे विरोधी, बाह्य शत्रुसे अजेय रहते है ।” बुद्ध हो भगवानने यह बात कही । वहॉ यह कहा गया है―—

सत्य, धर्म, दम, संयम, शौच शील और उपोसथ-कर्म,

दान, अहिंसा, और अच्छे कामोमे रत रहकर, दृढ हो उन्होने आचरण किया ।।१।।

वह उस कर्मसे स्वर्ग गये, और क्रीडा, रति तथा सुखको अनुभव करते रहे ।

फिर, वहॉसे च्युत हो यहॉ आ, उन्होने सम-पादोसे पृथ्वीको स्पर्श किया ।।२।।

सामुद्रिक वालोने आकर कहा—सम्प्रतिष्ठित पादवालेकी पराजय कभी नही होती ।

गृहस्थ हो या प्रब्रजित, यह लक्षण इस बातका द्योतक है ।।३।।

घरपर रहते वह विजयी शत्रुओ द्वारा अजेय रहता है ।

उस कर्मके फलसे इस संसारमे वह किसी भी मनुष्यसे जेय नही होता ।।४।।

यदि वह विचक्षण निष्कामताकी ओर रूचिवाला हो प्रब्रज्या लेता है,

तो वह श्रेष्ठ नरोत्तम फिर आवागमनमे नही पळता, यही उसकी धर्मता है ।।५।।

२—प्रिय कारिता—(२) “भिक्षुओ । तथागत पूर्व-जन्म ० मे मनुष्य होकर लोगोके बळे प्रियकारी थे । उन्होने उद्वेग, चंचलता और भयको हटा, धार्मिक बातोकी रक्षाका विधानकर विधिपूर्वक दान दिया । (अत) वे ० सुगतिको प्राप्त हुये । (फिर) वहाँसे च्युत हो यहाँ आ पैरके तलवेमे चक—इस

महापुरुष-लक्षणको पाते है । वे इस लक्षणसे युक्त हो यदि घरमे रहते है ० । राजा होकर क्या पाते है ॽ ब्राह्मण, गृहपति, नैगम (=नागरिक सभासद्), जानपद (=दीहाती सभासद्), कोपाध्यक्ष, मन्त्री, शरीररक्षक, द्वारपाल, सभासद्, राजा और अधीनस्थ कुमार—यह उनका बहुत बळा परिवार होता है । राजा होकर यह पाते है । यदि ० प्रब्रजित होते है, ० अर्हत् सम्यक् संबुद्ध होते है । बुद्ध होकर क्या पाते है ॽ यह भिक्षु-भिक्षुणी, उपासक-उपासिका, देव-मनुष्य, असुर-नाग-गन्धर्व यह उनका बहुत बळा परिवार होता है । बुद्ध होकर यही पाते है ।” भगवानने यह बात कही । वहाँ यह कहा गया है—

पहले, पूर्व जन्मोमे मनुष्य हो बहुतोके सुखदायक थे ।

उद्वेग, त्रास और भयको दूर करनेवाले, रक्षा=आवरण=गृप्तिमे लगे रहे थे ।।६।।

सो उस कर्मसे देवलोकमे जा, उन्होने सुख, क्रीडा रतिको अनुभव किया ।

वहाँसे च्युत हो फिर यहाँ आ, दोनो पैरोमे सहस्त्र अरोवाले फैली पुट्ठीके चक्रको पाये ।।७।।

सौ पुण्य लक्षणोवाले कुमारको देख, आये हुये ज्योतिषियोने कहा—

यह शत्रुमर्दन (तथा) बळे परिवारवाले होगे क्योकि (इनके पैरमे) समन्तनेमि चक्र है ।।८।।

यदि ऐसा (पुरुष) प्रब्रजित नही हो तो चक्र चलाता है, पृथ्वीका शासन करता है ।

क्षत्रिय उस महायशके अनुगामी सेवक बनते है ।।९।।

यदि वह विचक्षण निष्कामताकी ओर रुचिवाला हो प्रब्रजित हो जाता है ।

तो देव, मनुष्य, असुर, प्राणी, राक्षस, गन्धर्व, नाग, पक्षी, चतुष्पाद ।

उस देव-मनुष्योसे पूजित अनुपम महायशस्वीकी सेवा करते है ।।१०।।

३—जीवहिंसाका त्याग—(३-५) “भिक्षुओ । तथागत पूर्व जन्म ० मे मनुष्य होकर जीवहिंसाको छोळ, जीव-हिंसासे विरत रहते थे—दण्ड और शस्त्र छोळ, कृपालु, लज्जालु, दयालु सभी जीवोके हितेच्छु विहार करते थे । सो उस कर्मके करनेके कारण ० तीन लक्षणोको पोते है—(३) घुट्ठी बळी (४) अँगुली लम्बी (५) लम्बा सीधा शरीर होता है । ० राजा हो क्या पाते है ॽ दीर्घ आयुवाले हो, बहुत दिन जीते है । कोई मनुष्य शत्रु उन्हे मार नही सकता । ० बुद्ध होकर क्या पाते है ॽ ० कोई श्रमण-ब्राह्मण या देव ० नही मार सकता ०।” वहाँ यह कहा गया है—

अपनी मृत्यु, क्षय और भयको देख, वह दूसरेको मारनेसे विरत रहे ।

उस सुचरितसे स्वर्ग सुकृतके फल-विपाकको भोगा ।।१।।

वहॉसे च्युत हो यहाँ आ तीन लक्षण पाये—

घुट्ठी बळी होती है, ब्रह्माके ऐसा सीधा, शुभ और सुजात शरीर होता है ।।१२।।

और शिशुकी भुजाके समान मनोहर सुन्दर भुजाये तथा अँगुली मृदु, तरुण और लम्बी होती है ।

महापुरुषके इन तीन श्रेष्ठ लक्षणोसे युक्त कुमारको दीर्घजीवी बतलाते है ।।१३।।

यदि गृहस्थ होता है तो दीर्घायु होता है, और यदि प्रब्रजित होता है तो उससे भी अधिक दिन जीता है ।

(स्व-) वशी हो ऋद्धिभावनाके लिये जीता है इस प्रकार वह लक्षण दीर्घायुता का है ।।१४।।

४—सुन्दर भोजनका दान—(६) “जो कि भिक्षुओ । ० सुन्दर और स्वादिष्ट खाद्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य, पेयका दान देते थे । ० इस कर्मके करनेसे ० लक्षण ० —सप्त-उत्सद—दोनो हाथ, दोनो पैर, दोनो कंधे और गर्दन भरे रहते है । ० राजा होकर सुन्दर भोजन, और पान पाते है ० । ० बुद्ध होकर सुन्दर भोजन और पान पाता है ।’

० यह कहा गया है—

सुन्दर और स्वादिष्ट खाद्य भोज्य लेह्य अशनके दाता थे ।

इस सुचरित कर्मसे वह नन्दन-काननमे बहुत दिनो तक प्रमोद करते रहे ।।१५।।

यहाँ आकर वह सप्त-उत्सद प्राप्त करते है उनके हाथ पैरके तलवे मृदु होते है ।

लक्षणज्ञ उनको खाद्य भोज्यका लाभी होना बतलाते है ।।१६।।

यह (लक्षण) गृहस्थ होनेपर भी यही बतलाता है, प्रब्रजित होने पर भी वह उसे पाते है ।

उन्हे उत्तम खाद्य-भोज्यका लाभी, (तथा) सभी गृहस्थ-बंधनोका छेदक कहा गया है ।।१७।।

५—मेल कराना—(७-८) “जो कि भिक्षुओ । ० दान, प्रिय वचन, अर्थंचर्या (=उपकारका काम) और समानताका व्यवहार—इन चार संग्रह-वस्तुओसे लोगो का संग्रह करते थे उस कर्मके करनेसे ० लक्षण०—(७) हाथ पैर मृदु तरुण, तथा (८) जालवाले होते है । ० राजा होनेपर ब्राह्मण, गृहपति, कोषाध्यक्ष ० सभी परिजन उनके मेलमे रहते है । ० बुद्ध होनेपर भिक्षु, भिक्षुणी ० उनके सभी परिजन मेलमे रहते है ।”०

दान, अर्थ-चर्या, प्रिय वचन और समान भावसे,

करके बहुत लोगोका संग्रह, उस अप्रमाद गुणसे स्वर्ग जाता है ।।१८।।

वहाँसे च्युत हो यहॉ आ मृदु=तरुण और जालवाले ।

अत्यन्त रुचिर, सुन्दर और दर्शनीय शिशु जैसे हाथ पैरको पाता हे ।।१९।।

परिजनका प्रिय होता है, संग्रह करके इस पृथ्वीको वश मे करता है ।

प्रियवक्ता और हित-सुखका अन्वेषक बन प्रिय गुणोका आचरण करता है ।।२०।।

यदि सभी काम-भोगोको छोळता है, तो जितेन्द्रि हो लोगोको धर्म कहता है,

उसके धर्मोपदेशसे प्रसन्न हो लोग धर्मानुसार आचरण करते है ।।२१।।

६—अर्थ-धर्मका उपदेश—(९-१०) “भिक्षुओ । ० लोगोको अर्थ-संबंधी, और धर्म-संबंधी बाते करते, निर्देश करते थे, प्राणियोके हित और सुखके लिये धर्म-यज्ञ करते थे ० दो लक्षण—उत्सग-पाद (=ऊपरे उठ गुल्फोवाला पैर), और ऊध्वॉग्रलोम (=शरीरके लोम ऊपरकी ओर गिरे रहते है, साधारण लोगोके लोम नीचेकी ओर) । ० राजा होकर कामभोगियोमे अग्र, श्रेष्ठ=प्रमुख उत्तम और प्रवर होते है ० । बुद्ध होकर सभी सत्वोमे अग्र, श्रेष्ठ ० ।”

० यह कहा गया—

पहले बहुतोको अर्थधर्म संबंधी-बाते कही, उपदेश की ।

प्राणियोके हित और सुखका दाता बन, मत्सर रहित हो धर्म-यज्ञ किया ।।२२।।

उस सुचरित कर्मसे वह सुगतिको प्राप्त हो प्रमुदित होता है ।

यहॉ आकर उत्तम और प्रमुख होनेके लिये दो लक्षण पाता है ।।२३।।

उसके लोम ऊपरकी ओर गिरे रहते है, पैरकी घुट्ठी(=गुल्फ) मिली होती है।

वह मास, रुधिर तथा चमळेसे अच्छी तरह ढकी, और चरणके ऊपर शोभायमान रहती है ।।२४।।

वैसा व्यक्ति घरमे रहता है तो काम-भोगियोसे श्रेष्ठ होता है ।

उससे बढकर कोई नही होता । वह सारे जम्बूद्वीपको जीतकर रहता है ।।२५।।

अनुपम गृह-त्यागकर प्रब्रजित हो सभी प्राणियोमे श्रेष्ठ होता है ।

उससे बढकर कोई नही होता, वह सारे लोकको जीतकर विहार करता है ।।२६।।

७—सत्कार पूर्वक शिक्षण—(११) “जो कि भिक्षुओ । पहले जन्ममे ० शिल्प, विद्या,

आचरण और (नाना) कर्मोको बळे सत्कारपूर्वक सिखाते थे—कि (विद्यार्थी) शीघ्र जान जाये, शीघ्र सीख जाये, देर तक हैरान न हो । ० लक्षण—मृगके समान जघा होती है । ० चक्रवर्ती राजा हो राजाके योग्य, राजाके अनुकूल (वस्तुओ) को शीघ्र पाते है ० । ० बुद्ध होकर श्रमणोके योग्य० वस्तुओ तथा भोगो को शीघ्र पाते है ० ।”

“०यहाँ कहा गया है—

‘शिल्प, विद्या और आचरणके कर्मोको कैसे शीघ्र जान ले, यह चाहता है ।’

जिसमे किसीको कष्ट न हो, इसलिये बहुत शीघ्र पढाता है, क्लेश नही देता ।।२७।।

उस सुखदायक पुण्यकर्मको करके परिपूर्ण सुन्दर जंघाको पाता है ।

(जो कि) गोल, सुजात, चढाव-उतार, ऊर्ध्वरोमा तथा सूक्ष्म चर्म-वेष्ठित होती है ।।२८।।

उस पुरूषको लोग एणीजघ कहते है, इस लक्षणको शीघ्र सम्पत्तिदायक बताते है,

यदि वह घरहीमे रहना पसंद करता है, और संसारमे आकर प्रब्रजित नही होता ।।२९।।

यदि वैसा विचक्षण (पुरूष) निष्कामताकी इच्छासे प्रब्रजित होता है,

तो योग्यताके अनुकूल ही वह अनुपम गृहत्यागी उसे शीघ्र पा लेता है ।।३०।।

८—हितकी जिज्ञासा—(१२) “जो कि भिक्षुओ । वह ० श्रमणो—ब्राह्मणोके पास जाकर प्रश्न करते थे—“भन्ते । क्या कुशल (=भलाई) है, और क्या अ-कुशल ॽ क्या सदोष है, क्या निर्दोष ॽ क्या सेवनीय है, क्या अ-सेवनीय है ॽ क्या करना मेरे लिये चिरकाल तक अहित, दुखके लिये होगा ॽ क्या करना मेरे लिये चिरकाल तक हित, सुखके लिये होगा ॽ वह इस कर्मके करनेसे ० ० लक्षण ०—० सूक्ष्म-छबि (=पतलेचिकने चर्मवाला) होते है । ० उनके शरीरपर धूली नही जमती ।० चक्रवर्ती राजा होकर महाप्रज्ञ होते है । काम-भोगियोमे न तो कोई उनके समान और न कोई उनसे बढकर प्रज्ञावाले होते है । बुद्ध होकर महाप्रज्ञ, पृथुप्रज्ञ, तीव्रबुद्धि, क्षिप्रबुद्धि, तीक्ष्णप्रज्ञ, निर्वेधिकप्रज्ञ होते है । समस्त प्राणियोमे उनके समान या बढकर कोई नही होता । ०

० यहाँ कहा गया है—

पहले पूर्व-जन्मोमे, जाननेकी इच्छासे प्रब्रजितोके पास

उनकी सेवा करके प्रश्न किया करता था, और उनके उपदेशोपर ध्यान देता था ।।३१।।

प्रज्ञा-प्रदाता कर्मोसे मनुष्य होकर सूक्ष्म-छबि होता है ।

उत्पत्तिके लक्षणको जाननेवाले कहते है—वह सुक्ष्मबातोको झट समझ जायेगा ।।३२।।

यदि वह प्रब्रजित नही होता, तो चक्रवर्ती राजा होकर पृथ्वीपर राज करता है ।

न्याय करने, अर्थोके अनुशासन और परिग्रहमे उसके समान या उससे बढकर कोई नही होता ।।३३।।

यदि वह ० प्रब्रजित हो जाता है,

तो अनुपम विशेष प्रज्ञाका लाभ करता है, वह श्रेष्ठ महामेघासे बोधि प्राप्त करता है ।।३४।।

९—अक्रोध और वस्त्र-दान—(१३) “जो कि भिक्षुओ । ० क्रोधरहित बहुत परेशानकरने वाले नही थे, और बहुत कहनेपर भी द्वेष, कोप, द्रोहको नही प्राप्त होते थे, बहुत कहनेपर भी उन्हे बाते नही लगती थी, न वह कुपित होते थे, न मारपीट करते थे और न कुछ कहते थे । क्रोध, द्वेष, दौर्मनस्य नही प्रकट करते थे । और उन्होने अलसी, कपास, कौषेय और कम्बलके सूक्ष्मवस्त्रोके सूक्ष्म और मृदु आस्तरणो (=बिछौनो) और प्रावरणो (=ओढनो) का दान किया था । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहाँसे च्युत हो यहाँ आ यह लक्षण पाये—सुवर्ण-वर्ण=काचनके समान चर्मवाले । ० चक्रवर्ती राजा होकर अलसी, कपास, कौषेय और कम्बलके सूक्ष्म

वस्त्रोके सूक्ष्म और मृदु आस्तरणो और प्रावरणोके पानेवाले होते है । ० बुद्ध होकर ० प्रावरणोके पानेवाले होते है ० । ० यहॉ कहा गया है—

वह पूर्वजन्ममे अ-क्रोधी रहा, और सूक्ष्म तलवाले सूक्ष्म वस्त्रोको,

जैसे पृथ्वीको सूर्य वैसे दान करता रहा ।।३५।।

उसके कारण यहॉसे मरकर स्वर्गमे उत्पन्न हुआ, और पुण्यफलको भोगकर,

कल्पतरुको जैसे इन्द्र वैसे कनकके शरीर जैसे (शरीर) वाला हो यहॉ उत्पन्न हुआ ।।३६।।

प्रब्रज्याकी चाह छोळ यदि गृहमे रहता है, तो महती पृथ्वीको जीतकर शासन करता है ।

वह सात रत्नोको तथा शुचि, विमल, सूक्ष्म चर्मको भी पाता है ।।३७।।

यदि बेघरवाला होता है, तो सुन्दर आच्छादन और प्रावरणके वस्त्रोको पाता है ।

वह पूर्वके कियेका फल भोगता है, (क्योकि) कियेका लोप नही होता ।।३८।।

१०—मेल करना—(१४) “जो कि भिक्षुओ । ० चिरकालसे लुप्त, अतिचिरकालसे चले गये जातिभाइयो, मित्रो, सुह्यदो और सखाओको मिलानेवाले थे । माताको पुत्रसे मिलानेवाले थे, पुत्रको मातासे मिलानेवाले थे, पिताको पुत्रसे ० । पुत्रको पितासे ० । भाईको भाईसे ० । भाईको भगिनीसे ० । भगिनीको भाईसे । मिलाकर मोद करते थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो यहॉ आ यह महापुरुष-लक्षण पाते है—कोषाच्छादित-वस्तिगुह्य (=पुरुष-इन्द्रिय) इस लक्षणसे युक्त होते है । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० वहुत पुत्रोवाले होते है । उनके शूर, वीर, परसेना-प्रमर्दक सहस्त्रसे अधिक पुत्र होते है ० । ० बुद्ध होकर ० बहुत पुत्रो (=शिष्यो) वाले होते है । उनके शूर, वीर पर (=मार)-सेना-प्रमर्दक अनेको हजार पुत्र होते है ० ।” यहाँ यह कहा गया है—

पहले अतीतके पूर्वजन्मोमे चिर-लुप्त चिर-प्रवासी

जातिवालो, सुह्यदो, सखाओको उसने मिलाया, मिलाकर मोद करता था ।।३९।।

उस कर्मसे स्वर्ग जा, उसने सुख, क्रीडा, रतिको अनुभव किया ।

वहॉसे च्युत हो फिर यहॉ आ कोशाच्छादित ढँकी वस्तिको पाता है ।।४०।।

गृहस्थ होनेपर उसके बहुतसे पुत्र, सहस्त्रसे अधिक आत्मज होते है,

जो कि शूर, वीर, शत्रु-सन्तापक, प्रीति-उत्पादक और प्रियवद होते है ।।४१।।

प्रब्रजित रहनेपर उसके बहुतसे वचनानुगामी पुत्र होते है ।

गृहस्थ हो या प्रब्रजित, वह लक्षण इस बातका धोतक है ।।४२।।

११—योग्य-अयोग्य पुरुषका ख्याल—(१५, १६) “जो कि भिक्षुओ । ०जनता(=महाजन)के सग्राहक, सम-विषम पुरुषका ज्ञान सखते थे, विशेष पुरूषका ज्ञान रखते थे—‘यह इसके योग्य है’, ‘यह उसके योग्य है’ । इस प्रकार पहले उस उस विषयमे पुरुषोकी विशेषता (का ख्याल) करनेवाले थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो, यहाँ आ दो महापुरुष-लक्षण पाते है— (१५) न्यग्रोघ परिमंडल, और (१६) (आजानु-बाहु)सीधे खळे बिना झुके वह दोनो जानुको अपने हाथके तलवोसे छूते है, परिमार्जित करते है । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० आढय=महाधनी, महाभोगवान्, बहुत सोने चॉदीवाले, बहुत वित्त-उपकरणवाले, बहु-धनधान्यवाले, भरे कोश-कोठारवाले होते है ० । ० बुद्ध होकर ० आढय, महाधनी, महाभोगवान् होते है । उनके यह धन होते है, जैसे कि श्रद्धा-धन, शीलधन, ही (=लज्जा)-धन, अपत्रपा (=सकोच)-धन, श्रुत (=विधा)-धन, त्याग धन, प्रज्ञा-धन ० । ० यहॉ यह कहा गया है—

तुलना, परीक्षा और चिन्तन करके जनताके संग्रहको देख,

यह इसके योग्य है—इस प्रकार पहले वह पुरुषोमे विशेषताका (ख्याल) करता था ।।४३।।

(इसीसे) पृथिवीपर खळ हो बिना झुके हाथसे दोनो जानुओको छूता है ।

और बचे हुए पुण्यके विपाकसे (बर्गद) वृक्ष जैसे परिमंडल (भरे शरीरवाला) होता है ।।४४।।

नाना प्रकारके लक्षणोके जानकार, चतुर पुरुषोने यह भविष्य कथन किया—

(वह) छोटे बच्चेपनसे अनके प्रकारके गृहस्थोके योग्य (भोगो) को पाता है ।।४५।।

यहाँ राजा हो भोगोका भोगनेवाला होता है, असके गृहस्थोके योग्य (भोग) बहुत होते है ।

यदि सारे भोगोका त्याग करता है तो अनुपम, उत्तम, श्रेष्ठ धनको पाता है ।।४६।।

१२—परहिताकांक्षा—(१७-१९) “जो कि भिक्षुओ । ० बहुत जनोका अर्थाकाक्षी=हिता-काक्षी,=प्राशु-आकाक्षी, मंगलाकाक्षी थे—इनकी श्रद्धा बढे, शील बढे, पुत्र बढे, त्याग बढे, धर्म बढे, प्रज्ञा बढे, धन-धान्य बढे, खेत-घर बढे, दोपाये-चौपाये बढे, पुत्र-दारा बढे, दास-कमकर बढे, जातिभाई बढे, मित्र बढे, बंधु बढे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहाँसे च्युत हो, यहाँ आ तीन महापुरुष-लक्षणोको पाते है—(१७) सिंह-पूर्वार्द्ध काय होते है, (१८) चितातरास (=दोनो कंधोके बीचका भाग भरा), (१९) समवर्त्त-स्कंध (=समान परिमाणकी गर्दन) होते है । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० अपरिहाण धर्मा होते है—उनका धन-धान्य क्षीण (=परिहाण) नही होता, खेत-घर, दोपाये-चौपाये, पुत्र-दारा, दास-कमकर जाति-भाई, बंधु, मित्र—सभी सम्पत्ति क्षीण नही होती ० । ० बुद्ध होकर ० अपरिहाणधर्मा होते है—उनकी श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग, प्रज्ञा—सभी सम्पत्ति क्षीण नही होती ० । ० यहॉ यह कहा गया है—

दूसरोकी श्रद्धा, शील, श्रुत, बुद्धि, त्याग, धर्म, बहुतसी भलाइयो,

धन, धान्य, घर-खेत, पुत्र, दारा, चौपाये, ।।४७।।

जाति-भाई, बन्घु, मित्र, बल, वर्ण, और सुख दोनो,

न क्षीण हो—यह चाहता था, और उन्हे समुन्नत (देखना) चाहता था ।।४८।।

(इस) पूर्वके किये सुचरित कर्मसे वह सिंहपूर्वार्द्ध-कार्य,

समवर्त्तस्कंध, और चितान्तरास होता है, इसका पूर्व कारण क्षय न (चाहना) है ।।४९।।

गृहस्थ रहनेपर धन-धान्य, पुत्र-दारा, चौपायोसे बढता है ।

धनत्यागी प्रब्रजित हो महान् धर्मता सम्बोधि (=बुद्धत्त्व) को पाता है ।।५०।।

१३—पीळा न देना—(२०) “जो कि भिक्षुओ । ० हाथ, डला, दण्ड या शस्त्रसे प्राणि-योको पीडा न देते थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो, यहॉ आ इस महापुरुष-लक्षणको पाते है—रसग्गसग्गी=उनके कंठमे शिराये (=रसवाहिनियाँ) समान वाहिनी और ऊपरकी और जानेवाली उत्पन्न होती है । ० चकवर्ती राजा होकर ० नीरोग=निरातक, न-अतिशीत-न-अति उष्ण, समान विपाक-वाली पाचनशक्ति (=गहनी) से युक्त होते है ० । ० बुद्ध होकर ० नीरोग, निरातक ० समान विपाक-वाली पाचनशक्तिसे युक्त होते है । ० यहॉ यह कहा गया है—

हाथ, दड, डले, या शस्त्रसे मारने-पाटनेसे

पीडा देने या डरानेके लिये नही सताया, वह जनाताको न सतानेवाला था ।।५१।।

उससे वह मरकर सुगति पा आनन्द करता है, सुखफलवाले कर्मोसे सुख पाता है,

(उसकी) पाचनशक्ति स्वयं ठीक रहती है । यहाँ आकर वह रसग्गसग्गी होता है ।।५२।।

इसीसे अतिचतुरो और विचक्षणोने कहा—यह नर बहुत सुखी होगा ।

गृहस्थ हो या प्रब्रजित, वह लक्षण इस बातका द्योतक है ।।५३।।

१४—प्रिय दृष्टि—(२१,२२) “जो कि भिक्षुओ । ० तिर्छि उल्टी नजर न देखते थे, सरल सीधे मन, और प्रिय चक्षुसे लोगोको देखते थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत

हो, यहॉ आ इन दो महापुरुष-लक्षणोको पाते है—(२१) आभिनीलनेत्र, और (२२) गोपक्ष्म ० । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० जनता (=बहुजन)के प्रिय-दर्शन होते हे, ब्राह्मण, वैश्य, नागरिक सभासद्(=नैगम), दीहाती सभासद् (=जानपद), गणक १ (=एकीटेन्ट), महामात्य, अनीकस्थ (=सेनानायक), घ्वारपाल, अमात्य, पारिपध राजा, भोग्य (=भोगिय) कुमारोका प्रिय=मनाप होते है ० । ० बुद्ध होकर जनताके प्रिय दर्शन होते है, भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिका, देव, मनुष्य, असुर, नाग, गघर्व—सबके प्रिय=मनाप होते है ।’ ० यहॉ यह कहा गया है—

न तिर्छी न उल्टी नजरसे देखता था,

सरल तथा सीधे मन, प्रिय चक्षुसे लोगोको देखता था ।।५४।।

सुगति (=स्वर्ग) में वह फलविपाक भोगता है, मोद करता है ।

और यहां (आ) अभिनील नेत्र, और गोपक्ष्म सुन्दर्शन होता है ।।५५।।

अभियुक्त=चतुर, लक्षणोमे बहु पंडित,

सूक्ष्म नेत्रो (की परख) मे कुशल पुरुष उसे प्रियदर्शन कहते है ।।५६।।

प्रिय दर्शन (पुरुष) गृहस्थ रहनेपर लोगोका प्रिय होता है ।

यदि गृहस्थ न हो श्रमण होता है, तो बहुतोका प्रिय, शोकनाशक होता है ।।५७।।

१५—सुकार्यमे अगुआपन—(२३) “जो कि भिक्षुओ । ० अच्छे कामोमे बहुत जनोके अगुआ ये, कायिक सुचरित, मानसिक सुचरित, दान देने, शील ग्रहण करने, उपोसथ (=उपवास) करने, माता-पिता-श्रमण-ब्राह्मणकी सेवा, कुल ज्येष्ठके सम्मान, और (दूसरे) उन उन अच्छे कामोमे लोगोके प्रधान थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो यहॉ आ इस महापुरुष-लक्षणको पाते है, उप्णीष-शीर्षा होते है ० । ० चक्रवर्त्ती राजा होकर ० —ब्राह्मण-वैश्य, नैगम-जानपद, गणक, महामात्त्य, अनीकस्थ, द्वारपाल (=दीवारिक), अमात्त्य, पारिषध, राजा, भोगीय, कुमार—जनता उनकी अनुयायिनि होती है ० । ० वृद्ध होकर ० भिक्षु-भिक्षुणी, उपासक-उपासिका, देव, मनुष्य, असुर, नाग, गघर्व—महाजन उनके अनुयायी होते है ०।० यहॉ यह कहा गया है—

घर्मके सु-आचरणमे प्रमुख था, धर्मचर्य़ामें रत था,

जनताका अगुआ था, अत (उसने) स्वर्गमे पुण्यका फल भोगा ।।५८।।

सुचरितका फल अनुभवकर यहॉ आ उप्णीष-शीर्षत्त्व फल पाया ।

लक्षण-पारखियोने भविष्यकथन किया—यह बहुत जनोका प्रधान होगा ।।५९।।

यहॉ मनुष्य (लोक)मे पहले उसके पास प्रतिभोग्य (=बलि) ले जाते है,

यदि क्षत्रिय भूपति होता है, तो बहुतसे प्रतिहारक२ पाता है ।।६०।।

यदि वह मनुज प्रब्रजित होता है, तो धर्मोका जानकार=विसवी होता है।

गुणमें अनुरक्त हो, उसके अनुशासन पर बहुतसे चलनेवाले होते है ।।६९।।

१६—सत्यवादिता—(२४-२५) “जो कि भिक्षुओ । ० झूठको त्याग सत्यवादी, सत्यसध, स्थाता=विश्वासपात्र, लोगोके अविश्वासपात्र नही थे सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो, यहॉ आ इन दो महापुरुष-लक्षणोको पाते है— (२४) एकैकलोमा और (२५) उनके दोनो भौहोके बीच श्वेत कोमल रुईकी जैसी ऊर्णा उत्पन्न होती है० । ० चक्रवर्त्ती राजा

होकर ० ब्राह्मण-वैश्य ० कुमार—महाजन उनके समीपवर्ती होते है ० । ० बुद्ध होकर भिक्षु-भिक्षुणी ० नाग-गंधर्व—महाजन उनके समीपवर्ती होते है ० । ० यहाँ यह कहा गया है—

पूर्वजन्ममे उसने सत्त्यप्रतिज्ञ, दोहरी बात न बोलनेवाला हो झूठको त्यागा था,

किसीका वह अ-विश्वासी न था, भूत=तथ्य (=सत्य)ही बोलता था ।।६२।।

(इसीसे) भौहोके बीच श्वेत, सुशुकल कोमल तूल जैसी ऊर्णा उत्पन्न हुई ।

रोम-कूपोमे दोहरे (रोम) नही जन्मे, वह एकैक लोभचिताग था ।।६३।।

बहुतसे उत्पत्तिके लक्षणोके जानकर लक्षणज्ञोने आकर उसका भविष्यकथन किया—

इसकी ऊर्णा और लोभ जैसे सुस्थित है, उससे इसके बहुत मे पाशर्ववर्ती होगे ।।६४।।

गृहस्थ रहनेपर लोग पाश्र्ववर्ती होगे (यह) किये कर्मोसे (उनका) अग्रस्थायी होगा ।

त्यागमय अनुपम प्रब्रज्या ले बुद्ध होनेपर लोग उपवर्तन पाश्वचर होगे ।।६५।।

१७—झगळा मिटाना—(२६, २७) “जो कि भिक्षुओ । ० चुगली त्याग, चुगलकी बातसे विरत थे, इनमे फूट डालनेके लिये यहाँ सुनकर वहाँ कहनेवाले न थे, न उनमे फूट डालनेके लिये वहाँ सुनकर यहाँ कहनेवाले थे । बल्कि फूटे हुओको मिलानेवाले, मिले हुओके अनुप्रदाता हो, एकता-प्रेमी, एकता-रस, एकतानन्दी हो एकता करनेवाली वाणीके बोलनेवाले थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहाँसे च्युत हो, यहाँ आ इन दो महापुरुष-लक्षणोको पाते है—(२६) चौवालीस दाँतोवाले, (२७) अ-विरल दाँतोवाले ० । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० अभेद्य-परिषद् होते है, उनकी परिपद्—ब्राह्मण-वैश्य नैगम, जानपद, गणक, महामात्य, अनीकस्थ, द्वारपाल, अमात्य, पारिपद्य, राजा, भोग्य कुमार अभेद्य (=न फूटनेवाले) होते है ० । ० बुद्ध होकर अभेद्य-परिषद् होते है, उनकी परिषद् भिक्षु-भिक्षुणी ० नाग, गंधर्व अभेद्य होते है ० । ० यहाँ यह ०—

एकतावालोको फोळनेवाली, फूट बढानेवाली, विवादकारी,

कलहप्रवर्द्धक, अकृत्यकारी, और मिलोको फोळनेवाली बातको नही बोलते थे ।।६६।।

अविवाद-वर्द्धक, फूटोको मिलानेवाले सुवचनको ही बोलते थे,

लोगोके कलहको दूर करते थे, एकता-सहितोके साथ आनन्द और प्रमोद करते थे ।।६७।।

इससे स्वर्गमे वह फलविपाकको अनुभव करता, वहाँ मोद करता रहा,

यहाँ (जन्मकर) उसके मुखमे चालीस अविरल, जुळे दाँत होते है ।।६८।।

यदि क्षत्रिय भूपति होता है, तो उसकी परिषद् न फूटनेवाली होती है ।

यदि विरज विमल श्रमण होता है, तो उसकी परिषद् अनुरक्त अचल होती है ।।६९।।

१८—मधुरभाषिता—(२८, २९) “जो कि भिक्षुओ । ० कठोर वचन त्याग कठोर वचनसे विरत रहते थे । जो वह वाणी नेला सरल कर्णसुखा, प्रेमणीया, हृदयगमा, पौरी (=सभ्य, नागरिक), बहु-जनकान्ता=बहुजनमनापा है, वैसी वाणीके बोलनेवाले थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो यहॉ आ इन दो महापुरुष-लक्षणोको पाते है—(२८) ब्रह्मस्वर, (२९) करविंकभाणी ० । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० आदेय-वाक् होते है, उनकी बातको ब्राह्मण-वैश्य ० कुमार ग्रहण करते है ० । ० बुद्ध होकर आदेय-वाक् होते है, उनकी बातको भिक्षु-भिक्षुणी ० नाग, गंधर्व ग्रहण करते है ० । ० यहॉ यह कहा गया है—

गाली झगळा और पीडादायक, वाधक, बहुजनमर्दक,

कठोर तीखे वचनको वह नही बोलता था, सुसंगत सकारण मधुर वचनको ही बोलता था ।।७०।।

मनको प्रिय, हृदयगम, कर्णसुख वचनको वह बोलता था

(इस) वाचिक सुचरितके फलको (उसने) अनुभव किया, स्वर्गमे पुण्यफलको भोगा ।।७१।।

सुचरितके फलको भोगकर यहॉ आ वह ब्रह्मस्वर है,

उसकी जिह्वा विपुल ऐर पृथुल होती है, और वह आदेय-वाक् होता है ।।७२।।

बात करनेपर गृहस्थको संतुष्ट करता है । यदि वह मनुष्य प्रब्रजित होता है,

बहुतोको बहुतसा सुभाषित सुनानेवाले (उस पुरूष) के वचनको जनता ग्रहण करती है ।।७३।।

११—भावपूर्ण वचन—(३०) “जो कि भिक्षुओ । ० बकवाद छोळ बकवादसे विरत रहते थे, कालवादी (=समय देखकर बोलनेवाले), भूत(=यथार्थ)-वादी, अर्थवादी, धर्मवादी, विनयवादी हो, तात्पर्य-सहित, पर्यन्त-सहित, अर्थ-सहित, भावपूर्ण (=निधानवती) वाणी बोलनेवाले थे । सो उस कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहॉसे च्युत हो यहाँ आ इस महापुरूष-लक्षणको पाते है−सिंह-हनु होते है । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० किसी मानव शत्रु=प्रत्यर्थिकसे अजेय होते है ० । ० बुद्ध होकर राग, द्वेष, मोह—भीतरी शत्रुओ, तथा किसी भी श्रमण-ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा—संसारके बाहरी शत्रुओसे अजेय होते है ० । ० यहॉ यह कहा गया है—

बुद्धके वचनमे बकवाद नही थी, अ-सयत बातका वहॉ रास्ता न था,

(वचनसे उसने) अहितको हटा, और बहुजनोके हित-सुखको कहा था ।।७४।।

इसलिये यहाँसे च्युत हो स्वर्गमे उत्पन्न हो (उसने) सुकृतके फलविपाकको भोगा,

च्युत हो यहाँ आकर सिंह-हनुत्त्वको प्राप्त किया ।।७५।।

(इससे वह) मनुजेन्द्र, मनुजाधिपति, महानुभाव, सुदुर्जेय राजा होता है,

देवपुरमे कल्पद्रुमके नीचे इन्द्रसा समान ही होता है ।।७६।।

यदि वैसा पुरूष वैसे शरीरवाला होता है, तो यहॉ दिशाओ, प्रतिदिशाओ और विदिशाओमे,

गंधर्व, असुर, यक्ष, राक्षस, सुर द्वारा सुजेय नही होता ।।७७।।

२०—सच्ची जीविका—(३१, ३२) “जो कि भिक्षुओ । ० मिथ्या-आजीव (=बुरी रोजी) को छोळ सम्यग्-आजीवसे जीविका चलाते थे—तराजूकी ठगी, कस (=बटखरे)की ठगी, मान(=नाप)की ठगी, रिश्वत (=उत्कोटन), वचना, कृतघनता (=निकति), साचियोग (=कुटिलता), छेदन, बंध, बंधन, विपरामोस (=डाका), आलोप (=लूटना), सहसाकार (=खून आदि कार्य)से विरत थे । सो उन कर्मके करनेसे ० स्वर्ग ० । वहाँसे च्युत हो यहॉ आ इन दो महापुरूष लक्षणोको पाते है—(३१) समदन्त होते है, और (३२) सु-शुक्ल-दाढ । ० चक्रवर्ती राजा होकर ० शुचि-परिवार होते है, उनके परिवार—ब्राह्मण-वैश्य ० कुमार शुचि होते है ० । ० बुद्ध होकर ० शुचि-परिवार होते है, उनके परिवार—भिक्षु-भिक्षुणी ० नाग, गंधर्व शुचि होते है । बुद्ध होकर यह पाते है ।” भगवानने यह बात कही । वहॉ यह (गाथाये) कही गई है—

मिथ्या-आजीवको छोळ उसने सम्यक, शुचि धर्मानुकूलजीविका की ।

अ-हितको हटाया, और बहुत जनोके हित-सुखका आचरण किया ।।७८।।

निपुण, विद्धान, सत्पुरूषो द्वारा प्रशंसित (कर्मो)को करके वह पुरूष स्वर्गमे सुख-फल

अनुभव करता है, श्रेष्ठ देवलोकके समान रति क्रीडासे युक्त हो रमण करता है ।।७९।।

वहाँसे च्युत हो बँचे सुकृतके फलसे मनुष्य-योनि पा

समान और शुद्ध सुशुक्ल दॉतोको पाता है ।।८०।।

चतुरो द्वारा सम्मत बहुतसे सामुद्रिक-ज्ञाता मनुष्योने आकर उसका भविष्य-कथन किया—

समदन्त और शुचि-सुशुक्ल-दन्त, शुचि परिवारगणसे युक्त होता है ।।८१।।

राजाका शुचि परिवार बहुत जनोवाला होता है, वह महापृथिवीका शासन करता है,

किन्तु जबर्दस्तीसे नही, न (वहॉ) देशको पीडा होती है, वह जनताके हित-सुखको करता है ।।८२।।

यदि साधु होता है, तो पापरहित, उघळे कपाटवाला, डर-बाघा-रहित,

शमित-मल श्रमण होता है, और इस लोक परलोक दोनोहीको देखता है ॥८३॥

उसके उपदेशानुगामी बहुतसे गृहस्थ और साधु निन्दित अ-शुचि, पापको हटाते है,

वह शुचि परिवारसे युक्त होता है, और मलके काँटे तथा कलि-क्लेश (=पापके मालिन्य) को हटाता है ॥८४॥