दीध-निकाय
31. सिगालोवाद-सुत्त (३|८)
गृहस्थके कर्तव्य (इह लोक और परलोककी विजय) । १—चार कर्म-क्लेशोका नाश ।
२—चार पापके स्थान । ३—छै सम्पत्तिके नाशके कारण ।
४—मित्र और अमित्र । ५—छै दिशाओकी पूजा ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् राजगृहमे, वेणुवन कलन्दकनिवाषमे विहार कर रहे थे ।
उस समय शृगाल (=सिगाल) गृहपति-पुत्र (=वैश्यका लळका) सवेरे उठकर राजगृहसे निकल भीगे-वस्त्र, भीगे-केश, पुर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, और नीचे सभी दिशाओको हाथ बुरे मित्रोका होना, और बहुत कजूसी, यह छे मनुष्यको बर्बाद कर देते है ॥७॥
(जो) जुआ खेलते है, सुरा पीते है, पराई प्राण-प्यारी स्त्रियो (का गमन करते है),
पंडितका नही, नीचका सेवन करते है, (वह) कृष्ण-पक्षके चन्द्रमाजैसे क्षीण होते है ।।८।।
जो वारुणी (-रत), निर्धन, मुहताज, पियक्कळ, प्रमादी (होता है),
(जो) पानीकी तरह ऋणमे अवगाहन करता है, (वह) शीध्र ही अपनेको व्याकुल करता है ॥९॥
दिनमे निद्राशील, रातके उठनेको बुरा माननेवाला,
सदा (नशामे) मस्त=शौड गृहस्थी (=घर-आवास) नही चला सकता ॥१०॥
‘बहुत शीत है’, ‘बहुत उष्ण है’, ‘अब बहुत सध्या हो गई’,
इस तरह करते मनुष्य धन-हीन हो जाते है ॥११॥
जो पुरुष काम करते शीत-उष्णको तृणसे अधिक नही मानता ।
वह सुखसे वचित होनेवाला नही होता ॥१२॥
४—मित्र और अमित्र
क-मित्र रूपमे अमित्र—“गृहपति-पुत्र । इन चारोको मित्रके रूपमे अमित्र (=शत्रु) जानना चाहिये—(१) पर-धनहारकको मित्र-रूपमे अमित्र जानना चाहिये । (२) केवल बात बनाने वालेको० । (३) (सदा) प्रिय वचन बोलने वालेको ० । (४) अपाय (=हानिकर कृत्यो मे) सहायकको ० । गृहपति-पुत्र ।
१—पर-धनहारक—“चार बातोसे पर-धन-हारकको ० ।—पर-धन-हारक होता है, थोळे (धन) द्वारा बहुत (पाना) चाहता है । (३) भय (=विपत्ति) का काम करता है, (४) और स्वार्थके लिये सेवा करता है ॥१३॥
२—बातूनी—“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे वचीपरम (=केवल बात बनानेवाले)को ० ।— (१) भूत (कालिक वस्तु) की प्रशसा करता है । (२) भविष्यकी प्रशसा करता है । (३) निरर्थक (बात) की प्रशसा करता है । (४) वर्तमानके काममे विपत्ति दिखलाता है ।
३—खुशामदी—“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे प्रियमाणी (=जी हुजूर) को ० ।— (१) बुरे काममे भी अनुमति देता है (२) अच्छे काममे भी अनुमति देता है । (३) सामने तारीफ करता है । और (४) पीठ-पीछे निन्दा करता है ।
भगवानने यह कहा । यह कहकर सुगत शास्ताने यह भी कहा—
“प्राणातिपात, अदत्तादान, मृषावाद (जो) कहा जाता है ।
और परदार-गमन (इनकी) पंडित जन प्रशसा नही करते ॥१॥
२-चार स्थानोंसे पाप नहीं करता
ख “किन चार स्थानोसे पापकर्मको नही करता ॽ (१) छन्द (=राग)के रास्तेमे जाकर पापकर्म करता है । (२) द्वेषके रास्तेमे जाकर ० । (३) मोहके ० । (४) भयके ० । चूँकि गृहपति-पुत्र । आर्य श्रावक न छन्दके रास्ते जाता है, न द्वेषके ०, न मोहके ०, न भयके ० । (अत) इन चार स्थानोसे पाप-कर्म नही करता ।—भगवानने यह कहा । यह कहकर शास्ता सुगतने फिर यह भी कहा—
“छन्द, द्रेष, भय और मोहसे जो घर्मका अतिक्रमण करता है ।
कृष्णपक्षके चन्द्रमाकी भाँति, उसका यश क्षीण होता है ॥२॥
छन्द, द्वेष, भय और मोहसे जो घर्मका अतिक्रमण नही करता ।
शकलपक्षके चन्द्रमाकी भाँति उसका यश बढता है ॥३॥
६―आलस्य―“गृहपति-पुत्र । आलस्यमे पळनेमे यह छै दोष है―(१) ‘(इस समय) बहुत उडा है (सोच) काम नही करता । (२) ‘बहुत गर्म है’― (सोच) काम नही करता । (३) बहुत शाम उडा है (सोच) ० । (४) ‘बहुत सवेरा है’ ० । (५) ‘बहुत भूखा हूँ’ ० । (६) ‘बहुत खाये हूँ’ ० इस प्रकार बहुतसी करणीय बातोको (न करनसे), अनुत्पन्न भोग उत्पन्न नही होते, और अत्पन्न भोग नष्ट हो जाते है । ।”
भगवानने यह कहा । यह कहकर शास्ता सुगतने फिर यह भी कहा―
‘जो (मद्य)पानमे सखा होता है, (सामनेही), प्रिय बनता है, (वह मित्र नही)
जो काम हो जानपेर भी, मित्र रहता है, वही सखा है ॥४॥
अति-निद्रा, पर-स्त्री-गमन, वैर उत्पन्न करना, और अनर्थ करना,
बुरेकी मित्रता और बहुत कजूसी, यह छै मनुष्यकी बर्बाद कर देते है ॥५॥
पाप-मित्र (=बुरे मित्रवाला), पाप-सखा और पापाचारमे अनुरक्त,
मनुष्य इस लोक और पर (लोक) दोनोहीसे नष्ट-भ्रष्ट होता है ॥६॥
जुआ, स्त्री, वारुणी, नृत्य-गीत, दिनकी निद्रा अ-समयकी सेवा,
बुरे मित्रोका होना, और बहुत कजूसी, यह छै मनुष्यको बर्बाद कर देते है ॥७॥
(जो) जुआ खेलते है, सुरा पीते है, पराई प्राण-प्यारी स्त्रियो (का गमन करते है),
पडितका नही, नीचका सेवन करते है, (वह) कृष्ण-पक्षके चन्द्रमाजैसे क्षीण होते है ॥८॥
जो वारुणी (-रत), निर्घन, मुहताज, पियक्कळ, प्रमादी (होता है),
(जो) पानीकी तरह ऋणमे अवगाहन करता है, (वह) शीघ्र ही अपनेको व्याकुल करता है ॥९॥
दिनमे निद्राशील, रातके उठनेको बुरा माननेवाला,
सदा (नशामे) मस्त=शौड गृहस्थी (=घर-आवास) नही चला सकता ॥१०॥
‘बहुत शीत है’, ‘बहुत उष्ण है’, ‘अब बहुत सध्या हो गई’,
इस तरह करते मनुष्य धन-हीन हो जाते है ॥११॥
जो पुरुष काम करते शीत-उष्णको तृणसे अधिक नही मानता ।
वह सुखसे वचित होनेवाला नही होता ॥१२॥
८―मित्र और अमित्र
क-मित्र रूपमें अमित्र―“गृहपति-पुत्र । इन चारोको मित्रके रूपमे अमित्र (=शत्रू) जानना चाहिये―(१)पर-धनहारकको मित्र-रूपमे अमित्र जानना चाहिये । (२) केवल बात बनाने वालेकी० । (३) (सदा) प्रिय वचन बोलने वालेको (४) अपाय (=हानिकर कृत्यो मे) महायकको गृहपति-पुत्र ।
१―पर-धनहारक―“चार बातोसे पर-घन-हारकको ० ।― पर-धन-हारक होता है, थोळे (घन) द्वारा बहुत (पाना) चाहता है। (३)भय =(विपत्ति) का काम करता है, (४) और स्वार्थके लिये सेवा करता है ॥१३॥
२―वातूनी―“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे बचीपरम (=केवल बात बनानेवाले ) को ० ।— (१) भूत (कालिक वस्तु) की प्रशसा करता है । (२) भविष्यकी प्रशंसा करता है । (३) निर्ग्धक (बात)की प्रशसा करता है । (४) वर्तमानके काममे विपत्ति दिखलाता है ।
३―खुशामदी―“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे प्रियमाणी (=जो हूजूर) को ० ।—(१) बुरे काममे भी अनुमति देता है (२) अच्छे काममें भी अनुभनि देता है । (३) सामने तारिफ करता है । और (४) पीठ-पीछे निन्दा करता है ।
४—नाश में सहायक—“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे अपाय-सहायकको ०—(१) सुरा, मेरय, मद्य-पान (जैसे) प्रमादके काममे फँसनेमे साथी होता है । (२) बेवक्त चौरस्ता घूमनेमे साथी होता है (३) समज्या देखनेमे साथी होता है । (४) जुआ खेलने (जैसे) प्रमादके काममे साथी होता है ।
भगवानने यह कहकर, फिर यह भी कहा—
‘पर-घन-हारी मित्र, और जो वचीपरम मित्र है ।
प्रिय-भाणी मित्र और जो अपायेमे सखा है ॥१४॥
यह चारो अमित्र है, ऐसा जानकर पडित पुरुष,
खतरे-वाले रास्तेकी भॉति (उन्हे) दूरसे ही छोळ दे ॥१५॥
ख-मित्र—“गृहपति-पुत्र । इन चार मित्रोको सुहृद् जानना चाहिये—(१) उपकारी मित्रको सुहृद् जानना चाहिये । (२) सुख दुखको समान भोगनेवाले मित्रको० । (३) अर्थ (की प्राप्तिका उपाय) बतलानेवाले मित्रको० । (४) अनुकपक मित्रको० ।
१—उपकारी—“गृहपति-पुत्र चार बातोसे उपकारी मित्रको सुहृद् जानना चाहिये—(१)प्रमत्त (=भूल करनेवाले)की रक्षा करता है । (२) प्रमत्तकी सपत्तिकी रक्षा करता है । (३) भयभीतका रक्षक (=शरण) होता है । (४) काम पळ जानेपर, उसे दुगना लाभ उत्पन्न करवाता है ।
२—समान सुख दु:खी—“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे समान-सुख-दुख मित्रको सुहृद् जानना चाहिये—(१) इसे गोप्य (बात) बतलाता है । (२) इसकी गोप्य-बातको गुप्त रखता है । (३) आपद्मे इसे नही छोळता (४) इसके लिये प्राण भी देनेको तैयार रहता है ।
३—हितवादी—“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे अर्थ-आख्यायी (=हितवादी) मित्रको सुहृद् जानना चाहिये—(१) पापका निवारण करता है । (२) पुण्यका प्रवेश कराता है । (३) अ-श्रुत (विघा)को श्रुत करता है । (४) स्वर्गका मार्ग बतलाता है ।
४—अनुकम्पक—“गृहपति-पुत्र । चार बातोसे अनुकपक मित्रको सुहृद् जानना चाहिये—(१) मित्रके (घनसपत्ति) होनेपर खुश नही होता । (२) न होनेपर भी खुश नही होता । (३) (मित्रकी) निन्दा करनेवालेको रोकता है । (४) प्रशसा करनेपर प्रशसा करता है ।
यह कहकर फिर यह भी कहा—
“जो मित्र उपकारक होता है, सुख-दुखमे जो सखा (बना) रहता है,
जो मित्र हितवादी होता है, और जो मित्र अनुकपक होता है ॥१६॥
यही चार मित्र है, बुद्धिमान् ऐसा जानकर,
सत्कार-पूर्वक माता-पिता और पुत्रकी भाँति उनकी सेवा करे ॥१७॥
सदाचारी पडित मघुमक्खीकी भाँति भोगोको सचय कर,
प्रज्बलित अग्निकी भॉति प्रकाशमान होता है ।
(उसके) भोग (=सपत्ति) जैसे वल्मीक बढता है, वैसे बढते है ॥१८॥
इस प्रकार भोगोका सचयकर अर्थ-सपन्न कुलवाला (जो) गृहस्थ,
चार भागमे भोगोको विभाजित करे, वही मित्रोको पावेगा ॥१९॥
एक भागको स्वय भोगे, दो भागोको काममे लगावे ।
चौथे भागके आपत्कालमे काम आनेके लिये रख छोळे ॥२०॥
५—छै दिशाओंकी पूजा
“गृहपति-पुत्र । यह छै—दिशाये जाननी चाहिये । (१) माता-पिताको पूर्व-दिशा जानना चाहिये । (२) आचार्योको दक्षिण-दिशा जानना चाहिये । (३) पुत्र-स्त्रीको पश्चिम-दिशा ० । (४) मित्र-अमात्योको उत्तर-दिशा ० । (५) दास-कमकरको नीचेकी दिशा ० । (६) श्रमण-ब्राह्मणोको ऊपरकी दिशा ० ।
१—माता पिताकी सेवा—“गृहपति-पुत्र । पॉच तरहसे माता-पिताका प्रत्युपस्थान (=सेवा) करना चाहिये—(१) (इन्होने मेरा) भरण-पोषण किया है, अत मुझे (इनका) भरण-पोषण करना चाहिये । (२) (मेरा काम किया है, अत) मुझे इनका काम करना चाहिये । (३) (इन्होने कुल-वश कायम रक्खा, अत) मुझे कुल-वश कायम रखना चाहिये । (४) (इन्होने मुझे दायज्ज=वरासत दिया, अत) मुझे दायज्ज प्रतिपादन करना चाहिये । (५) मृत प्रेतोके निमित्त श्राद्ध-दान देना चाहिये । इस प्रकार पॉच तरहसे सेबित (माता-पिता) पुत्रपर पाँच प्रकारसे अनुकपा करते है—(१) पापसे निवारित करते है । (२) पुण्यमे लगाते है । (३) शिल्प सिखलाते है । (४) योग्य स्त्रीसे संबंघ कराते है । (५) समय पाकर दायज्ज निष्पादन करते है । गृहपति-पुत्र । इन पॉच बातोसे पुत्रद्धारा माता-पिता-रुपी पूर्वदिशाका प्रत्युपस्थान होता है । इस प्रकार इस (पुत्र)की पूर्वदिशा प्रतिच्छत्र (=ढँकी, सुरक्षित) क्षेम-युकत, भय-रहित होती है ।
२—आचार्यकी सेवा—“गृहपति-पुत्र । पाँच बातोसे शिष्यको आचार्य-रुपी दक्षिण-दिशाका प्रत्युपस्थान करना चाहिये । (१) उत्थान (=तत्त्परता)से, (२) उपस्थान (=हाजिरी=सेवा)से, (३) सुश्रूषासे, (४) परिचर्या=सत्संगसे, (५) सत्कार-पूर्वक शिल्प सीखनेसे । गृहपति-पुत्र । इस प्रकार पॉच बातोसे शिष्यद्धारा आचार्य सेवित हो, पाँच प्रकारसे शिष्यपर अनुकंपा करते है—(१) सु-विनयसे युक्त करते है । (२) सुन्दर शिक्षाको भली-प्रकार सिखलाते है । (३) ‘हमारी (विधाये) परिपूर्ण रहेगी’ सोच सभी शिल्प सभी श्रुत(=विद्या)को सिखलाते है । (४) मित्र-अमात्योको सुप्रतिपादन करते है । (५) दिशाकी सुरक्षा करते है ।
३—पत्नीकी सेवा—“गृहपति-पुत्र । पाँच प्रकारसे स्वामीको भार्या-रुपी पश्चिम-दिशाका प्रत्युपस्थान करना चाहिये—(१) सन्मानसे, (२) अपमान न करनेसे, (३) अतिचार (पर-स्त्री-गमन आदि) न करेनेसे, (४) ऐश्वर्य-प्रदानसे, (५) अलंकार-प्रदानसे गृहपति-पुत्र । इन पाँच प्रकारोसे स्वामिद्धारा भार्यारुपी पश्चिम-दिशाका प्रत्युपस्थान होनेपर, (वह) स्वामिपर पॉच प्रकारसे अनुकंपा करती है—(१) (भार्याद्धारा) कर्मान्त (=काम-काज) भली प्रकार होते है । (२) परिजन (=नौकर-चाकर) बशमे रहते है । (३) (स्वंय) अतिचारिणी नही होती । (४) अर्जितकी रक्षा करती है । (५) सब कामोमे निरालस और दक्ष होती है ।
४—मित्रोकी सेवा—“गृहपति-पुत्र । पॉच प्रकारसे मित्र-अमात्य-रुपी उत्तर-दिशाका प्रत्युप-स्थान करना चाहिये— (१) दानसे, (२) प्रिय-वचनसे, (३) अर्थ-चर्या (=कामकर देने)से, (४) समानता (प्रदर्शन)से, (५) विश्वास-प्रदानसे । गृहपति-पुत्र । इन पॉच प्रकारोसे प्रत्युपस्थान की गई मित्र-अमात्यरुपी उत्तर-दिशा, पाँच प्रकारसे (उस) कुल-पुत्रपर अनुकंपा करती है—(१) प्रमाद (=भूल, आलस्य)कर देनेपर रक्षा करते है । (२) प्रमत्तकी संपत्तिकी रक्षा करते है । (३) भयके समय शरण (=रक्षक) होते है । (४) आपत्कालमे नही छोळते । (५) दूसरी प्रजा (=लोग) भी (ऐसे मित्र-अमात्यवाले) इस पुरुषका सत्कार करती है ।
५—सेवककी सेवा—“गृहपति-पुत्र । पॉच प्रकारसे आर्यक (=मालिक)को दास-कर्मकर रुपी
निचली-दिशाका प्रत्युपस्थान करना चाहिये—(१) बलके अनुसार कर्मान्त (=काम) देनेसे, (२) भोजन-वेतन (=भत्त-वेतन)-प्रदानसे, (३) रोगि-सुश्रूषासे, (४) उत्तम रसो (वाले पदार्थो) को प्रदान करनेसे, (५) समयपर छुट्टी (=वोसग्ग) देनेसे । गृहपति-पुत्र । इन पॉचो प्रकारोसे प्रत्युपस्थान किये जानेपर दास-कर्म-कर पाँच प्रकारसे मालिकपर अनुकंपा करते है—(१) (मालिकसे) पहिले (विस्तरसे) उठ जोनेवाले होते है । (२) पीछे सोनेवाले होते है । (३) दियेको (ही) लेनेवाले होते है । (४) कामोको अच्छी तरह करनेवाले होते है । (५) कीर्ति-प्रशंसा फैलानेवाले होते है ।
६—साधु-ब्राह्मणकी सेवा—“गृहपति-पुत्र । पाँच प्रकारसे कुल-पुत्रको श्रमण-ब्राह्मण-रुपी ऊपरकी-दिशाका प्रत्युपस्थान करना चाहिये—(१) मैत्री-भाव-युक्त कायिक-कर्मसे, (२) मैत्री-भाव-युक्त वाचिक-कर्मसे, (३) ० मानसिक-कर्मसे, (४) (उनके लिये) खुला द्रार रखनेसे, (५) आमिष (=खान-पानकी वस्तु)के प्रदान करनेसे । गृहपति-पुत्र । इन पॉच प्रकारोसे प्रत्युपस्थान किये गये श्रमण-ब्राह्मण इन छै प्रकारोसे कुल-पुत्रपर अनुकंपा करते है—(१) पाप (=बुरा) से निवारण करते है । (२) कल्याण (=भलाई) मे प्रवेश कराते है । (३) कल्याण (-प्रदान)-द्वारा इनपर अनुकंपा करते है (४) अ-श्रुत (विद्या)को सुनाते है । (५) श्रुत (विद्या)को दृढ कराते है । (६) स्वर्गका रास्ता बतलाते है ।”
माता-पिता पूर्वदिशा है, आचार्य दक्षिण दिशा ।
पुत्र-स्त्री पश्चिम दिशा है, मित्र-अमात्य उत्तर दिशा ॥२१॥
दास-कर्मकर नीचेकी दिशा है, श्रमण-ब्राह्मण ऊपरकी दिशा ।
गृहस्थको अपने कुलमे इन दिशाओको अच्छी तरह नमस्कार करना चाहिये ॥२२॥
पंडित, सदाचारपरायण स्नेही, प्रतिभावान्,
एकान्तसेवी तथा आत्मसंयमी (पुरुष) यशको पाता है ॥२३॥
उद्योगी, निरालस आपत्तिमे न डिगनेवाला,
अटूट नियमवाला, मेघावी (पुरुष) यशको प्राप्त होता है ॥२४॥
(मित्रोका) संग्राहक, मित्रोका काम करनेवाला उदार डाह-रहित
नेता, विनेता, तथा अनुनेता (पुरुष) यशको पाता है ॥२५॥
जो कि यहॉ दान प्रिय-वचन, अर्थचर्या करता है,
और उस उस (व्यक्ति) मे योग्यतानुसार समानताका (बर्ताव करता है) ॥२६॥
संसारमे यह संग्रह चलते रथकी आणी (=नाभि) की भॉति है ।
यदि यह संग्रह न हो, तो न माता पुत्रसे
मान-पूजा पावे, और न ही पिता पुत्रसे ॥२७॥
पंडित लोग इन संग्रहोको चूँकि अच्छी तरह ख्याल रखते है,
इसीसे वे बळप्पन पाते है, और प्रशंसनीय होते है ॥२८॥”
ऐसा कहनेपर श्रृगाल गृहपति-पुत्रने भगवानसे यह कहा—“आश्चर्य । भन्ते ।। अद्भुत । भन्ते ।। ० १आजसे मुझे भगवान् अंजलि-बद्ध शरणागत उपासक धारण करे ।”