दीध-निकाय

32. आटानाटिय-सुत्त (३।६)

१―आटानाटिय (=भूतो-यक्षोसे) रक्षा । (१) सातो बुद्धोको नमस्कार । (२) चारो महाराजोका वर्णन । (३) रक्षा न माननेवाले यक्षोको दंड । (४) प्रबल यक्षोका नामस्मरण । २―आटानाटिय-रक्षाकी पुनरावृत्ति ।

ऐसा मैने सुना―एक समय भगवान् राजगृहके गृध्रकूट पर्वतपर विहार करते थे ।

तब, चारो महाराज (अपने) यक्षो, गन्धर्वो, कूष्मांडो, और नागोकी बळी भारी सेना लेकर, चारो दिशाओमे रक्षकोको बैठा, योद्धाओकी टोलियोको नियुक्तकर, रात बीतनेपर, प्रकाशमान हो, सारे गृध्रकूट पर्वतको प्रकाशित करते जर्हा भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानको अभिवादनकर बैठ गये । कितने भगवानका समोदनकर, कितने भगवानको अञ्जलिबद्ध प्रणामकर, कितने नाम और गोत्र सुनाकर, और कितने चुपचाप एक ओर बैठ गये ।

१―आटानाटिय (=भूतों-यक्षोंसे) रक्षा

एक ओर बैठे वैश्रवण (=कुबेर) महाराज भगवानसे बोल―“भन्ते । कितने ही बळे बळे यक्ष आपपर अश्रद्धावान् (=अप्रसन्न) है, और कितने श्रद्धावान्, कितने मध्यम यक्ष ०, कितने नीच यक्ष ० । भन्ते । जो इतने यक्ष आपपर अप्रसन्न है, सो क्यो ? (क्योकि) भगवान् जीव-हिंसा न करनेके लिये धर्मोपदेश करते हे, चोरी न करनेके ० । भन्ते । जो यक्ष जीव-हिंसासे विरत नही है, चोरीसे विरत नही है, उन्हे यह अप्रिय और मनके प्रतिकूल मालूम होता है । भन्ते । भगवानके श्रावक जंगलमे एकान्तवास करते है ० । (किन्तु) वहॉ जो बळे बळे यक्ष रहते है, वे भगवानके इस प्रवचनसे अप्रसन्न है । भन्ते भिक्षुओकी ० उपासिकाओकी रक्षा, अ-पीडा और सुख-पूर्वक विहार करनेके लिये उन लोगोको प्रसन्न रखनेको भगवान् आटानाटिय रक्षाका उपदेश करे ।

भगवानने मौनसे स्वीकार किया । तब वैश्रवण महागजने भगवानकी स्वीकृति जान उस समय यह आटानाटिय रक्षा कही―

(१) सातो बुद्धोको नमस्कार

“चक्षुमान, श्रीमान् विपश्योको नमस्कार हो ।

सर्व भूतानुकम्पी शिखीको नमस्कार हो ॥१॥

स्नातक तपस्वी विश्वभूको नमस्कार हो ।

मार-सेनाको छिन्न-भिन्न कर देनेवाले क्रकुच्छन्दको नमस्कार हो ॥२॥

ब्रह्मचारी कोणागमन ब्राह्मणको नमस्कार हो,

सभी प्रकारसे विमुक्त काश्यपको नमस्कार हो ॥३॥

आगिरस श्रीमान् शाक्यपुत्रको नमस्कार हो

जिनने सब दुखोके नाश करनेवाले धर्मका उपदेश किया ॥४॥

और जो दुसरे भी यथार्थ ज्ञान पा निर्वाणको प्राप्त हुये है,

वे सभी महान् निर्भय आस्त्रव-रहित (अर्हत्) सुने ॥५॥

वह देव मनुष्योके हितके लिये है ।

उन विद्याचरणसम्पन्न, महान् और निर्भय गौतमको नमस्कार करते है ॥६॥

(२) चारों महाराजोंका वर्णन

१—धृतराष्ट्र—जहॉसे महान् मण्डलवाला, आदित्य, सूर्य उगता है,

जिसके कि उगनेसे रात नष्ट हो जाती है ॥७॥

जिस सूर्यके उगनेसे कि दिन कहा जाता है,

(वहाँ एक) गम्भीर जलाशय, नदियोके जलवाला समुद्र है ॥८॥

उसे वहॉ नदी-जलवाला समुद्र समझते है ।

यहाँसे वह पूर्व दिशामे है—ऐसा उसके विषयमे लोग कहते है ।

जिस दिशाको कि वह यशस्वी महाराजा पालन करता है ॥९॥

(वह) गन्धर्वोका अधिपति है, उसका नाम धृतराष्ट्र है,

गन्धर्वोके आगे हो नृत्य गीतमे रमण करता है ॥१०॥

उसके बहुतसे पुत्र एक नामवाले सुने जाते है,

और एकानवे (पुत्र) महाबली इन्द्र नामवाले है ॥११॥

वे भी बुद्ध, आदित्य-वंशज निर्भय महान् बुद्धको देख

दूरहीसे नमस्कार करते है—हे पुरुष श्रेष्ठ । पुरुषोत्तम । तुम्हे नमस्कार हो ॥१२॥

तुम कुशलसे समीक्षा करते हो, अमनुष्य (=देवता) भी तुम्हे प्रणाम करते है—

हम लोग ऐसा सदा सुनते है, इसीसे ऐसा कहते है ॥१३॥

जिन (=विजयी) गौतमको प्रणाम करो, जिन गौतमको हम प्रणाम करते है ।

विद्या-आचरण-सम्पन्न गौतम बुद्धको हम प्रणाम करते है ॥१४॥

२—विरुढक-जीव-हिंसक, रुद्र, चोर, शठ, और चुगलखोर,

पीछेमे निन्दा करनेवाले प्रेतजन कहे जाते है, वे जहाँ (रहते है) ॥१५॥

वह (स्थान) यहॉसे दक्षिण दिशामे है—ऐसा लोग कहते है ।

उस दिशाको ये यशस्वी महाराज पालन करते है ॥१६॥

(वह) कूष्माडोके अधिपति है, उनका नाम विरुढक है,

वह कूष्माडोको आगे होके नृत्य गीतमे रमण करते है ॥१७॥

उनके बहुतसे पुत्र ० इन्द्र नामक ० । ॥१८॥

वे भी बुद्धको ० देखकर ० नमस्कार ०॥१९॥

तुम कुशल-समीक्षा करते हो ० ॥२०॥

विजयी गौतमको प्रणाम ० ॥२१॥

३—विरुपाक्ष-जहाँ महान् मंडलवाला आदित्य सूर्य अस्त होता है,

जिसके कि अस्त होनेसे दिन नष्ट हो जाता है ॥२२॥

जिस सूर्यके अस्त हो जानेसे रात कही जाती है ।

वहाँ (एक) गम्भीर जलाशय, नदीजलवाला समुद्र है ॥२३॥

उसे वहाँ ० पश्चिम दिशा ० ॥२४॥

(वह) नागोका अधिपति है, उसका नाम विरुपाक्ष है ।

वह नागोके आगे हो, नृत्य गीतमे रमण करता है ॥२५॥

उसके बहुत पुत्र ० इन्द्र नाम ० ॥२६॥

वे भी बुद्धको देखकर ० ॥२७॥

तुम कुशलमे समीक्षा ० ॥२८॥ विजयी गौतमको प्रणाम ० ॥२९॥

४—वैश्रवण—जहाँ रमणीय उत्तर-कुल और सुदर्शन सुमरु पर्वत है,

जहाँपर मनुष्य परिगह-रहित, ममता-रहित उत्पन्न होते है ॥३०॥

वे न बीज बोते है, और न हल जोतते है ।

वे मनुष्य अकृष्ट-पच्य (=स्वंय उत्पन्न) शालीको खाते है ॥३१॥

फन और भूसीसे रहित, शुद्ध और सुगन्धित,

चावलको दूधमे पकाकर भोजन करते है ॥३२॥

बैलकी सवारीपर सभी ओर जाते है ।

पशुकी सवारीपर सभी और जाते है ॥३३॥

स्त्रीको वाहन (=सवारी) बना, ० ।

पुरूषको वाहन बना सभी ओर जाते है ॥३४॥

कुमारी ० कुमारको वाहन बना सभी ओर जाते है ।

उस राजाकी सेवामें यानोपर सवार होकर सभी दिशाओसे आते है ॥३५॥

उस यशस्वी महाराजके पास हस्तियान, अश्वयान,

और दिव्ययान, प्रासाद और शिविकाये है ॥३६॥

उनके नगर आटानाटा, कुमिनाटा, परकुसिनाटा,

नाटसुरिया, परकुसितनाटा—अन्तरिक्षमे बने है ॥३७॥

उसके उत्तरमे कपीवन्त और दूसरी ओर जनौध, (तथा) निन्नावे दूसरे नगर है ।

अम्बर, अम्बरवती नामक नगर है, आलकमन्दा नामकी (उनकी) राजधानी है ॥३८॥

मार्ष । कुबेर महाराजकी राजधानी निसाणा नामकी है ।

इसीलिये कुबेर महाराज वेस्सवण (वैश्रवण) कहे जाते है ॥३९॥

ततोला, तत्तला, ततोतला, ओजसि, तेजसि, ततोजसि,

अरिष्टनेमि, सूर, राजा अन्वेषण करते प्रकाशते है ॥४०॥

वहाँ धरणी नामक एक सरोवर है, जहाँसे जल लेकर,

मेघ वृष्टि करते है, और जहाँसे वृष्टि प्रसरित होती है ।

सागलवती (भागलवती) नामक सभा है, जहाँ यक्ष लोग एकत्रित होते है ॥४१॥

वहाँ नाना पक्षि-समूहोसे युक्त नित्य फलनेवाले वृक्ष है,

जो मयूर, कौञ्च, कोकिल आदि (पक्षियो)के मधुर कूजनसे व्याप्त रहते है ॥४२॥

वहाँ जीवजीव शब्द करते है, और आठवे, चित्रक (शब्द करते है) ।

वनोमे कुकुत्थक, कुलीरक, पोक्खरसातक, शुक, सारिका, दयळमान और बक शब्द करते है ।

वहॉ सदा सर्वकाल कुबेरकी नलिनी शोभायमान रहती है ॥४३-४४॥

‘यहाँसे उत्तर दिशामे है’—ऐसा लोग कहते है,

जिस दिशाको कि वह यशस्वी महाराज पालन करते है ॥४५॥

यक्षोके अधिपति ० ॥४६॥

उनके बहुतसे पुत्र ० इन्द्र नामक ० ॥४७॥

वे भी बुद्धको देखकर ० ॥४८॥

तुम कुशलसे समीक्षा ० ॥४९॥ विजयी गौतमको प्रणाम ० ॥५०॥

(३) रक्षा न माननेवाले यक्षोको दण्ड

“मार्ष । यह आटानाटिय रक्षा भिक्षु ० रक्षाके लिये ० । जो कोई भिक्षु ० इस ० रक्षाको ठीकसे पढेगा और धारण करेगा, उसके पीछे यदि अमनुष्य—यक्ष, यक्षिणी, यक्षका बच्चा, यक्षकी

बच्ची, यक्ष-महामात्य, यक्ष-पार्षद, यक्ष-सेवक, गन्घर्व ०, कूष्माण्ड ०, नाग ० बुरे चित्तसे चले, खळे हो,

बैठे, सोये, तो मार्ष । वह अमनुष्य मेरे ग्राममे या निगममे सत्कार=गुरुकार न पावेंगे । मार्ष । वह

अमनुष्य मेरी आलकमन्दा राजधानीमे रहने नही पावेंगे, और न वह यक्षोकी समितिमें जा सकेंगे । मार्ष ।

दुसरे अमनुष्य उससे रोटी-बेटीका सम्बन्ध हटा लेंगे, बहुत परिहास करेंगे, खाली बर्तनसे उसका शिर भी

ढँक देंगे । उसके शिरके सात टुकळे कर देगे ।

“मार्ष । कितने अमनुष्य चण्ड, रुद्र और तेज स्वभावके है । वे न तो महाराजाओको मानते है, न

उनके अघिकारियो (=पुरुषक) को, और न अघिकारियोके अघिकारियोको । मार्ष । वे अमनुष्य महाराजोके

बागी (=अवरुद्ध) कहे जाते है मार्ष । जैसे मगघराजके राज्यमे महाचोर (=डाकू) है, वे न तो राजाको

मानते है, न राजाके अघिकारियोको ० । वे महाचोर डाकू राजाके बागी कहे जाते है । मार्ष । उसी तरह

चण्ड, रुद्र ० अमनुष्य है, जो न तो ० ।

(४) प्रबल यज्ञोंका नाम-स्मरण

“मार्ष । कोई भी अमनुष्य—―यक्ष या यक्षिणी ०, गन्घर्व ०, कुम्भण्ड ० या नाग ०, द्वेषयुक्त चित्तसे भिक्षु ० के पीछे जाय तो इन यक्षो, महायक्षो, सेनापतियो और महासेनापतियोको पुकारना चाहिये, टेर देनी चाहिये, चिल्लाना चाहिये—―यह यक्ष पकळ रहा है, शरीरमे प्रवेश कर रहा है, सताता है, ० बहुत सताता ० । ० डराता ० । ० बहुत डराता ० । यह यक्ष नही छोळता । किन यक्षो, महायक्षो, सेनापतियो, महासेनापतियोको (पुकारना चाहिये) ? —

“इन्द्र, सोम, वरुण, भारद्वाज, प्रजापति, चन्दन, कामश्रेष्ठ, घण्डु और निर्धण्डु ।।५१।।

प्रणाद (=पनाद), श्रौपमन्यव, देवसूत मातलि, गन्घर्व चित्रसेन और देवपुत्र राजा नल ।।५२।।

सातागिर, हैमवत, पूराणक, करती, गुळ, शिवक१, मुचलिन्द, वैश्वामित्र और युगन्धर ।।५३।।

गोपाल, सुप्परोघ, हिरि, नेत्ति, मन्दिय, पञ्चाल चण्ड आलवक२,

पर्जन्य (=पज्जुन्न) सुमन, सुमुख, दधिमुख, मणि (भद्र) मणिचर, दीर्घ और सेरिसिक ।।५४।।

“इन यक्षो ० को पुकारना ० चाहिये—―० यह यक्ष पकळ रहा है ० ।

“मार्ष । यह आटानाटिय-रक्षा भिक्षु ० ।

“मार्ष । अब हम लोग जायेंगे, हम लोगोको बहुत काम है, बहुत करणीय है ।”

जैसा महाराजो । तुम काल समझते हो (वैसा करो) ।”

तब चारो महाराज आसनसे उठ ० अन्तर्घान हो गये । वे यक्ष भी ० अन्तर्घान हो गये ।

प्रथम भाणवार ॥१॥

२—―आटानाटिय-रक्षाकी पुनरावृत्ति

तब भगवानने उस रातके बीतनेपर भिक्षुओको संबोधित किया―—

“भिक्षुओ । रातको चारो महाराज ० जहाँ मै था वहाँ आये । ० बैठ गये । ० चैश्रवण महा-

राजने कहा-भन्ते । किरने बळे बळे यक्ष ०३ आसनसे उठ अन्तर्घान हो गये ।

“भिक्षुओ । आटानाटिय-रक्षाको पढो, ग्रहण करो, धारण करो । भिक्षुओ । आटानाटिय

रक्षा भिक्षुओ ० की रक्षा, अ-पीडा अविहिंसा और सुखपूर्वक विहारके लिये सार्थक है ।”

भगवानने यह कहा । सतुष्ट हो भिक्षुओने भगवानके भाषणका अभिनन्दन किया ।