दीध-निकाय
33. संगीति-परियाय-सुत्त (३।१०)
१—पावाके नवीन सस्थागारमें बुद्ध । २—गुरुके मरनेपर जैनोमें विवाद । ३—बौद्ध मन्तव्योकी सूची
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् पाँच-सौ भिक्षुओके महाभिक्षु-संघके साथ मल्ल (देश)-मै चारिका करते, जहॉ १पावा नामक मल्लोका नगर है, वहाँ पहुँचे । वहॉ पावामे भगवान् चुन्द कम्मार्र-पुत्रके आम्रवनमे विहार करते थे ।
१-पावाके नवीन संस्थागारमें बुद्ध
उस समय पावा-वासी मल्लोका ऊँचा, नया, सस्थागार (=प्रजातंत्र-भवन) हालही मे बना था, (वहाँ अभी) किसी श्रमण या ब्राह्मण या किसी मनुष्यने वास नही किया था । पावा-वासी मल्लोने सुना—‘भगवान् ० मल्लमे चारिका करते पावामे पहुँचे है, और पावामे चुन्द कर्मार (=सोनार)-पुत्रके आम्रवनमे विहार करते है ।’ तब पावा-वासी मल्ल जहाँ भगवान् थे, वहाँ पहुँचे । पहुँचकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे पावा-वासी मल्लोने भगवानसे कहा—
“भन्ते । यहाँ पावा-वासी मल्लोका ऊँचा (=उव्भतक) नया सस्थागार, किसी भी श्रमण, या ब्राह्रण या किसी भी मनुष्यने न बसा, अभी ही बना है । भन्ते । भगवान् उसको प्रथम परिभोग करे । भगवानके पहिले परिभोग कर लेनेपर, पीछे पावा-वासी मल्ल परिभोग करेंगे, वह पावा-वासी मल्लोके लिये दीर्घरात्र (=चिरकाल) तक हित सुखके लिये होगा ।”
भगवानने मौन रह स्वीकार किया ।
वब पावाके मल्ल भगवानकी स्वीकृति जान, आसनसे उठ भगवानको अभिवादनकर प्रदक्षिणा-कर, जहाँ सस्थारार था, वहाँ गये । जाकर सस्थागारमे सब ओर फर्श बिछा, आसनोको स्थापितकर, पानीके मटके रख, तेलके दीपक जलाकर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये, जाकर भगवानको अभिवादनकर ० एक ओर खळे हो बोले—
“भन्ते । सस्थागार सब ओर बिछा हुआ है, आसन स्थापित है, पानीके मटके रक्खे है, तेल-प्रदीप जलाये गये है । भन्ते । अब भगवान् जिसका काल समझे (वैसा करे) ।”
तब भगवान पहिनकर पात्र-चीवर ले भिक्षु-संघके साथ जहाँ सस्थागार था, वहाँ गये । जाकर पैर पखार, सस्थागारमे प्रवेशकर, पूर्वकी ओर मुँहकर, बीचके खम्भेके आश्रयसे बैठे । भिक्षु-संघ भी पेर पखार, सस्थागारमे प्रवेशकर पूर्वकी ओर मुँहकर, भगवानको आगेकर पश्चिमकी भीतके सहारे बैठा । पावा-वासी मल्लभी पैर परखार, सस्थागारमे प्रवेशकर पच्छिमकी ओर मुँहकर, भगवानको सामने करके पूर्वकी भीतके सहारे बैठे । तब भगवानने पावा-वासी मल्लोको बहुत राततक घार्मिक-कथासे सदर्शित=समापदित, समुतेजित, सप्रहर्षितकर, विसर्जित किया—
“वाशिष्टो । रात तुम्हारी वीत गई, अब तुम जिसका काल समझो (वैसा करो ) ।”
“अच्छा भन्ते ।” पावा-वासी मल्ल आसनसे उठकर अभिवादन, कर चले गये ।”
तब मल्लोके जानेके थोळीही देर बाद, भगवानने शांत (=तूष्णीभूत) भिक्षु-संघको दैख, आयुष्मान् सारिपुत्रको आमत्रीत किया—“सारीपुत्र । भिक्षु-संघ स्त्यान-मृद्ध-रहित है, सारिपुत्र । भिक्षुओको घर्म-कथा कहो, मेरी पीठ १अगिया रही है, मै लेटूँगा ।”
२—गुरुके मरनेपर जैनोंमें विवाद आयुष्मान् सारिपुत्रने भगवानको “अच्छा भन्ते ।” कह उत्तर दिया । तब भगवानने चौपेती सघाटी बिछवा, दाहिनी करवटके बल, पैरपर पैर रख, स्मृति-सप्रजन्यके साथ, उत्थान-सज्ञा मनमे कर, सिंह-शय्या लगाई । उस समय निगठ नात-पुत्त (=तीर्थकर महावीर) अभी अभी पावामे काल किये थे । उनके काल करनेसे निगठोमे फूट पळ दो भाग हो गये थे । वह भडन=कलह=विवादमे पळ, एक दूसरेको मुख (रुपी) शक्तिसे चीरते हुये विहर रहे थे— ‘तू इस घर्म-विनय (=मत, घर्म) को नही जानता, मै इस घर्म-विलयको जानता हूँ । ‘तू कया इस घर्मको जानेगा’ ? ‘तू मिथ्यारुढ है, मै सत्त्यारुढ हूँ ’मेरा (कथन अर्थ-) सहित है, तेरा अ-सहित है’ । ‘तूने पूर्व बोलने (की बात) को पीछे कहा, पीछे बोलने (की बात) को को पहिले कहा’ । ‘तेरा (वाद) बिना विचारका उल्टा है । तूने वाद रोपा, (किन्तु) तू निग्रह-स्थानमे आगया (=निगृहीतोसि)’ । ‘जा वादसे छूटनेकेलिये फिरता फिर’ । यदि सकता है तो समेट’ । ० मानो २नाथ-पुत्तिय निगठोमे एक युद्ध (=बध) ही चल रहा था । जो भी निगठ नाथपुत्तके श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे ० ।
आयुष्मान् सारिपुत्रने भिक्षुओको आमंत्रित किया—
“आवुसो । निगठ नात-पुत्तने पावामे अभी अभी काल किया है । उनके काल करनेसे ० निगठ ० भडन=कलह=विवाद करते, एक दूसरेको मुख-शक्तिसे छेदते विहर रहे है—‘तू इस घर्मको नही जानता ० । निगठ नात-पुत्तके जो श्वेतवस्त्रधारी गृही शिष्य है, वे भी नातपुतिय निगठोमें (वैसेही) निर्विण्ण=विरक्त=प्रति-वाण रुप है, जैसे कि वह (नात-पुत्तके) दुराख्यात, दुष्प्र-वेदित, अ-नैर्यार्णिक, अन्-उपशम-सवर्तनिक, अ-सम्यक्-सबुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, आश्रय-रहित घर्ममे । किन्तु आवुसो । हमारे भगवानका यह घर्म सु-आख्यात (=ठीकसे कहा गया), सु-प्रवेदित (=ठीकसे साक्षत्कार किया गया), नैर्याणिक (=दुखसे पार करनेवाला), उपशम-सवर्तनिक (=शान्ति-प्रापक), सम्यक्-सबुद्ध-प्रवेदित (=बुद्धद्वारा जाना गया) है । यहाँ सबको ही अ-विरुद्ध वचनवाला होना चाहिये, विवाद नही करना चाहिये, जिससे कि यह ब्रह्मचर्य अध्वनिक=(चिर-स्थायी) हो, और वह बहुजन हितार्थ बहुजन-सुखार्थ, लोकके अनुकम्पाके लिये, देव-मनुष्योके अर्थ=हित=सुखके लिये हो । आवुसो । कैसे हमारे भगवानका धर्म ० देव-मनुष्योके अर्थ=हित=सुखके लिये होगा ?
३—बौद्ध-मन्तव्योंकी सुची
१—एकक—“आवुसो । उन भगवान् जाननहार, देखनहार, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्धने एक घर्म ठीकसे बतलाया है । उसमे सबको ही अविरोघ वचनवाला होना चाहिये, विवाद न करना चाहिये, जिसमे कि यह ब्रह्मचर्य अघ्वनिक हो ० । कौनसा एक घर्म ? (१) सब प्राणी आहारपर स्थित (=निर्भर) है । आवुसो । उन भगवानने ० यह एक घर्म यथार्थ बतलाया । इसमे सबको ही ० ।
२—द्विक—“आवुसो । उन भगवान् ० ने दो घर्म यथार्थ कहे है । ० । कोनसे दो ? (१) ना और रुप । अविधा और भव (=आवागमनकी) –तृष्णा । भव (=नित्यता-)दृष्टि और विभव (=उच्छेद-)दृष्टि ।
अह्रीकता (=निर्लज्जता),और अन्-अवत्राप्य (=संकोच-भयरहितता) । ह्री (=लज्जा) और अवपत्रा (=संकोच) । दुर्वचनता और पाप (=दुष्टकी)-मित्रता । सुवचनता और कल्याण (=सु) मित्रता । आपत्ति (=दोष)-कुशलता (=चतुराई), और आपत्ति-व्युत्थान (=०उठाना)-कुशलता । समापत्ति (=ध्यान) कुशलता, और समापत्ति-व्युत्थान-कुशलता । १धातु-कुशलता, और २मनसिकार-कुशलता । (१०) ३आयतन-कुशलता, और ४प्रतीत्य-समुत्पाद-कुशलता । स्थान (=कारण)-कुशलता, और अस्थानकुशलता । आर्जव (=सीधापन) और मार्दव (=कोमलता) । क्षाति(=क्षमा) और सौरत्य(=आचारयुक्तता) । साखिल्य (=मधुर वचनता) और प्रति-सस्तार (=वस्तु या धर्मका छिद्र-पिघान) । अविहिंसा(=अहिंसा) और शौचेय(=मैत्रीभावना) । मुषित-स्मृतिता (=स्मृति-लोप) और अ-सप्रजन्य (=ध्यान न देना) । स्मृति और सप्रजन्य (=ज्ञान, ख्याल) । इन्द्रिय-अगुप्त-દ્દद्वारता (=अजितेन्द्रियता), और भोजनमे अ-मात्रज्ञता (=भोजनमे अपने लिये मात्रा न जानना) । इन्द्रिय-गुप्त-द्वारता और भोजन-मात्रज्ञता । (२०) प्रतिसंख्यान (=अकपन-ज्ञान)-बल और भावना-बल । स्मृति-बल और समाधि-बल । शमथ (=समाधि) और विपश्यना (=प्रज्ञा) । शमथ-निमित्त और विपश्यना-निमित्त । प्रग्रह (=चित्त-निग्रह) और अ-विक्षेप । शील-विपत्ति (=आचार-दोष), और दृष्टि-विपत्ति (=सिद्धान्त-दोष) । शील-सम्पदा (=आचारकी सम्पूर्णता) और दृष्टि-सम्पदा । शील-विशुद्धि (=कायिकवाचिक अदुराचार), और दृष्टि-विशुद्धि (=सत्यके अनुसार ज्ञान) । दृष्टि-विशुद्धि कहते है सम्यक्-दृष्टिके निरंतर अभ्यास (=प्रधान)को । सवेग कहते है सवेजनीय (=वैराग्य करनेवाले) स्थानोमे सविग्न (-चित्तता)का कारण-पूर्वक निरंतर अभ्यास । (३०) कुशल (=उत्तम)धर्मोमे अ-संतुष्टिता, और प्रधान (=निरंतर अभ्यास)मे अ-प्रतिवानता (=निरालसता) । विद्या (=तीन विद्याओ)से विमुक्ति (=आस्त्रवोसे चित्तकी विमुक्ति), और निर्वाण । (३२) आवुसो । उन भगवान्०ने इन दो (=जोळे) धर्मोको ठीकसे कहा है ० ।
३—त्रिक—“आवुसो । उन भगवान्०ने यह तीन धर्म यथार्थ ही कहे है ० ।” कौनसे तीन ॽ तीन अकुशल-मूल (=बुराइयोकी जळ) है । कौनसे तीन० ॽ लोभ अकुशल-मूल, द्वेष अकुशल-मूल, मोह अकुशल-मूल ।
२—तीन कुशल-मूल है—अलोभ ०, अ-द्वेष ० और अ-मोह अकुशलमूल ।
३—तीन दुश्चरित है—काय-दुश्चरित, वचन-दुश्चरित और मन-दुश्चरित ।
४—तीन सुचरित है—काय-सुचरित, वचन-सुचरित, और मन-सुचरित ।
५—तीन अकुशल (=बुरे) वितर्क—काम-वितर्क, व्यापाद (=द्रोह) ० विहिंसा ० ।
६—तीन कुशल (=अच्छे)-वितर्क—नेक्खम्म (=निप्कामता)-वितर्क, अ-व्यापाद ०, अ-विहिंसा ० ।
७—तीन अकुशल-संकल्प (=० वितर्क)—काम-संकल्प, व्यापाद ०, विहिंसा ० ।
८—तीन कुशल संकल्प—नेक्खम्म-संक्लप, अव्यापाद ० अविहिंसा ० ।
९—तीन अकुशल संज्ञाये—काम-संज्ञा, व्यापाद ०, विहिंसा ० ।
१०—तीन अकुशल संज्ञाये—नेक्खम्म-संज्ञा, अव्यापाद ० अ-विहिंसा ० ।
११—तीन अकुशल धातु (=० तर्क-वितर्क)—काम-धातु, व्यापाद ०, विहिंसा ० ।
१२— तीन कुशल धातु—निप्कामता धातु, अव्यापाद ०, अ-विहिंसा ० ।
१३— दुसरे भी तीन धातु (=लोक)— कामधातु, रुप-धातु-अ-रुप-धातु ।
१४— दुसरे भी तिन धातु (=चित्त)— हीन-धातु, मघ्यम-धातु,प्रणीत (-उत्तम)-धातु ।
१५— तीन तृष्णाये—काम—तृष्णा, भव (=आवागमन) ०, विभव ० ।
१६— दूसरी भी तीन तृष्णाये—काम—तृष्णा, रुप ०, अ-रुप ० ।
१७— दूसरी भी तीन तृष्णाये—रुप—तृष्णा, अरुप ०, निरोघ ० ।
१८— तीन सयोजन (=बंघन)— सत्काय-दष्टि, विचिकित्सा (=सदेह), शीलव्रत-परामर्श ।
१९— तीन आस्त्रव (=चित्तमल)— काम आस्त्रव, भव ०, अविधा ० ।
२०—तीन भव (=आवागमन)— काम (-घातुमे) ०, रुप ०, अरुप ० ।
२१—तीन एपणाये (=राग)—काम—एषण, भव ० , ब्रह्मचर्य ० ।
२२—तीन विघ (=प्रकार)—मै सर्वोत्तम हुँ, मै समान हूँ, मै हीन हूँ ।
२३— तीन अध्व (=काल)—अतीत (=भूत)—अध्व, अनागत (=भविष्य) ०, प्रत्युत्पन्न (=वर्तमान) ० ।
२४— तीन अन्त—सत्काय—अन्त, सत्काय-समुदाय (=० उत्पत्ति) ०, सत्काय-निरोध ० ।
२५— तीन वेदनाये (=अनुभव)—सुखा—वेदना, दुखा ०, अदु ख-असुख ० ।
२६—तीन दुखता — दुख-दुखता,संस्कार ०, विपरिणाम ० ।
२७—तीन राशियाँ—मिथ्यात्त्व-नियत—राशि, सम्यकत्व-नियत, अ-नियत ० ।
२८—तीन काक्षाये (=सन्देह)—अतातकालको लेकर काक्षा=विचिकित्सा करता है, नही छूटता, नही प्रसन्न होता है । अनागत कालको लेकर ० । अब प्रत्युत्पन्न कालको ० ।
२९— तीन तथागतके आरक्षणीय—आवुसो । तथागतका कायिक आचार परिशुद्ध है, तथागतको कायदुश्चरित नही है, जिसकी कि तथागत आरक्षा (=गोपन) करे—‘मत दूसरा कोई इसे जान ले ।’ आवुसो । तथागतका वाचिक आचार परिशुद्ध है ० । ० तथागतका मानसिक आचार परिशुद्ध है ० ।
३०—तीन किंचन (प्रतिबघ)—राग—किंचन, द्वेष ० , मोह ० ।
३१—तीन अग्नियाँ—राग—अग्नि, द्वेष ०, मोह ० ।
३२—और भी तीन अग्नियॉ—आहवनीय—अग्नि, गार्हपत्य ० दक्षिण ० ।
३३—तीन प्रकारसे रुपोका सग्रह—सनिदर्शन(=स्व-विज्ञान-सहित दर्शन) अ-प्रतिघ (=अ-पीडाकर) रुप, अ-निदर्शन सप्रतिघ ० , अ-निदर्शन अप्रतिघ ० ।
३४—तीन संस्कार—पुण्य-अभिसंस्कार, अ-पुण्य-अभिसंस्कार, आनिंज्य (=आनेञ्ज) अभिसंस्कार ।
३५—तीन पुद्गल (=पुरुष)—शैक्ष्य (=अमुक्त) ०, अ-शैक्ष्य (=मुक्त) ०, न-शैक्ष्य- न-आ-शैक्ष्य ० ।
३६—तीन स्थविर (=वृद्ध)—जाति (=जन्मसे)—स्थविर, घर्म ०, सम्मति-स्थविर ।
३७—तीन पुण्य-क्रियावस्तु—दानमय-पुण्य-क्रियावस्तु, शीलमय ०, भावनामय ० ।
३८—तीन दोषारोप (=चोदना)-वस्तु—देखे (दोष)से, सुने (दोष) मे, शका किये (दोष) से ।
३९—तीन काम (=भोगोकी) –उपपत्ति (=उपपत्ति, प्राप्त)—आवुसो । कुछ प्राणी वर्तमान काम (=भोग) उपपत्तिवाले है, वह वर्तमान कामोके वशवर्ती होते है, जैसे कि मनुष्य, कुछ देवता, और कुछ विनिपाति (=अवमयोनिवाले), यह प्रथम काम-उपपत्ति है । आवुसो । कुछ प्राणी
निर्मितकाम है, वह (स्वय अपने लिये) निर्माणकार कामोके वशवर्ती होते है, जैसे कि निर्माणरति-देव लोग, यह दूसरी काम-उपपत्ति है । आवुसो । कुछ प्राणी पर-निर्मित-काम है, वह दूसरोके निर्मित कामोके वशवर्ती होते है, जैसे कि पर-निर्मित-वशवर्ती देव लोग, यह तीसरी कामउपपत्ति है ।
४०—तीन सुख-उपपत्तियॉ—आवुसो । कुछ प्राणी सुख उत्पन्नकर सुख-पूर्वक विहरते है, जैसे कि ब्रह्मकायिक देव लोग, यह प्रथम सुख-उपपत्ति है । आवुसो । कुछ प्राणी सुखसे अभिषण्ण=परिपण्ण=परिपूर्ण=परिस्फुट है । वह कभी कभी उदान (=चित्तोल्लाससे निकला वाक्य) कहते है—‘अहो सुख ।’ ‘अहो सुख । ।’ जैसे कि आभास्वर देव ० । आवुसो । कुछ प्राणी सुखसे ० परिपूर्ण ०, है, वह उत्तम (सुखमे) सतुष्ट हो चित-सुखको अनुभव करते है, जैसे शुभ-कृत्स्न देव लोग । यह तीसरी सुख-उपपत्ति है ।
४१—तीन प्रज्ञाये—शैक्ष्य (=अमुकत-पुरुषकी)-प्रज्ञा, अ-शैक्ष्य(=मुकत) ०, न-शैक्ष्य-न-अशैक्ष्य-प्रज्ञा ।
४२—और भी तीन प्रज्ञाये—चिन्ता-मयी प्रज्ञा, श्रुतमयी ०, भावनामयी ० ।
४३—तीन आयुध—श्रुत (=पढा)-आयुघ ०, प्रविवेक (=विवेक) ०, प्रज्ञाविवेक ० ।
४४—तीन इन्द्रियॉ—अन्-आज्ञात-आज्ञास्यामि (=नजानेको जानूँगा)-इन्द्रिय, आज्ञा ०, आज्ञातावी (=अर्हत्-ज्ञान)०।
४५—तीन चक्षु (=नेत्र)—मास-चक्षु, दिव्य-चक्षु, प्रज्ञा-चक्षु ।
४६—तीन शिक्षाये—अधिशील(=शीलविषयक)-शिक्षा, अघि-चित्त (=चित्तविषयक) ०, अघि-प्रज्ञा (=प्रज्ञाविषयक)०।
४७—तीन भावनाये—काय-भावना, चित्त-भावना, प्रज्ञा-भावना ।
४८—तीन अनुत्तरीय (=उतम, श्रेष्ठ)—दर्शन (=विपश्यना, साक्षात्कार)-अनुतरीय, प्रतिषद् (=मार्ग) ०, विमुक्ति (=अर्हत्व, निर्वाण)-अनुत्तरीय ।
४९—तीन समाघि—स-वितर्क-सविचार-समाघि, अवितर्क-विचार-मात्र-समाघि, अवितर्क-अविचार-समाघि ।
५०—और भी तीन समाघि—शून्यता-समाघि, आनिमित्त ०, अ-प्रणिहित-समाधि ।
५१—तीन शौचेय (=पवित्रता)—काय ०, वाक् ०, मन-शौचेय ।
५२—तीन मौनेय (=मौन)—काय ०, वाक् ०, मन-मौनेय ।
५३—तीन कौशल्य—आय ०, अपाय (=विनाश) ०, उपाय-कौशल्य ।
५४—तीन मद—आरोग्य-मद, यौवन-मद, जाति-मद ।
५५—तीन आघिपत्य (=स्वामित्त्व)—आत्माधिपत्य, लोक ०, घर्म ०।
५६—तीन कथावस्तु (=कथा-विषय)—अतीत कालको ले कथा कहे,—‘अतीतकाल ऐसा था ।’ अनागत कालको ले कथा कहे—‘अनागतकाल ऐसा होगा’ । अबके प्रत्युत्पन्नकालको ले कथा कहे—‘इस समय प्रत्युत्पन्न काल ऐसा है’ ।
५७—तीन विद्याये—पूर्व-निवास-अनुस्मृतिज्ञान-विघा (=पूर्वजन्म-स्मरण), प्राणियोके च्युति (=मृत्यु)-उत्पाद (=जन्म)का ज्ञान ०, आस्त्रवोके क्षयका ज्ञान ० ।
५८—तीन विहार—दिव्य-विहार, ब्रह्म-विहार, आर्य-विहार ।
५९—तीन प्रातिहार्य (=चमत्कार)—ऋद्धि ०, आदेशना०, अनुशासनी-प्रातिहार्य । यह आवुसो । उन भगवान् ०।
४—चतुष्क—“आवुसो । उन भगवान् ०ने (यह) चार घर्म यथार्थ कहे है ० । कौनसे चार ॽ
१—चार१ स्मृति-प्रस्थान—आवुसो । भिक्षु कायामे ० कायानुपश्यी विहरता है । वेदनाओमे० । लोकमे० । धर्ममे ० धर्मानुपश्यी ० ।
२—चार सम्यक् प्रधान—(१) भिक्षु अनुत्पन्न पाषक (=बुरे)=अकुशल धर्मोकी अनुत्पत्तिके लिये रुचि उत्पन्न करता है, परिश्रम करता है, प्रयत्न करता है, चित्तको निग्रह=प्रधारण करता है । (२) उत्पन्न पाषक=अकुशल धर्मोके विनाशके लिये (३) ० । अनुत्पन्न कुशल धर्मोकी उत्पत्तिके लिये० । (४) उत्पन्न कुशल धर्मोके स्थिति, अ-विनाश, वृद्धि=विपुलता, भावनासे पूर्ति करनेके लिये० ।
३—चार ऋद्धिपाद—आवुसो । भिक्षु (१) छन्द (=रुचिसे उत्पन्न)-समाधि (के)-प्रधान सस्कारसे युक्त ऋद्धिपादको भावना करता है । (२) चित्त-समाधि-प्रधान-सस्कारसे ० । (३) वीर्य (=प्रयत्न)-समाधि-प्रधान-सस्कार ० । (४) विमर्श-समाधि-प्रधान-सस्कार ० ।
४—चार ध्यान—आवुसो । भिक्षु (१) १प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । (२) ० द्वितीय ध्यान ० । (३) ० तृतीय-ध्यान ० । (४) चतुर्थ-ध्यान ० ।
५—चार समाधि-भावना—(१) ०आविसो । (ऐसी) समाधि-भावना है, जो भावित होनेपर वृद्धि-प्राप्त होनेपर, इसी जन्ममे सुख-विहारके लिये होती है । (२) आवुसो । (ऐसी) समाधि-भावना है, जो भावित होनेपर, वृद्धि-प्राप्त होनेपर, ज्ञान-दर्शन (=साक्षात्कार) के लाभके लिये होती है । (३) आवुसो । ० स्मृति, सम्प्रजन्यके लिये होती है । (४) ० आस्रवोके क्षयके लिये होती है । आवुसो । कौनसी समाधि-भावना है, जो भावित होनेपर, बहुली-कृत (=वृद्धि-प्राप्त) होनेपर इसी जन्ममे सुख-विहारके लिये होती है ॽ आवुसो । भिक्षु ० प्रथम-ध्यान२ ०, ० द्वितीय-ध्यान ०, ० तृतीय-ध्यान ०, ० चतुर्थ ध्यानको-प्राप्त हो विहरता है । आवुसो । यह समाधि-भावना भावित होनेपर ० । (१) आवुसो । कौनसी ० जो भावित होनेपर ० ज्ञान-दर्शनके लाभके लिये होती है ॽ आवुसो । भिक्षु आलोक(=प्रकाश)-सज्ञा (=ज्ञान) मनमे करता है, दिन-सज्ञाका अधिष्ठान (=दृढ-विचार) करता है—‘जैसे दिन वैसी रात, जैसी रात वैसा दिन’ । इस प्रकार खुले, बन्धन-रहित, मनसे प्रभा-सहित चित्तकी भावना करता है । आवुसो । यह समाधि-भावना भावित होनेपर ० । (३) आवुसो । कौनसी ० जो ० स्मृति, सप्रजन्यके लिये होती है ॽ आवुसो । भिक्षुको विदित (=ज्ञानमे आई) वेदना (=अनुभव) उत्पन्न होती है, विदित (ही) ठहरती है, विदित (ही) अस्तको प्राप्त होती है । विदित सज्ञा उत्पन्न होती है, ० ठहरती ०, ० अस्त होती है । विदित वितर्क उत्पन्न ०, ठहरते०, अस्त होते है । आवुसो । यह समाधि-भावना ० स्मृति-सप्रजन्यके लिये होती (४) है । आवुसो । कौनसी है० जो आस्त्रव-क्षयके लिये होती है ॽ आवुसो । भिक्षु पॉच उपादान-स्कधोमे उदय (=उत्पत्ति)-व्यय (=विनाश)-अनुपश्यी (=देखनेवाला) हो विहरता है—‘ऐसा रूप हे, ऐसा रूपका समुदय (=उत्पत्ति), ऐसा रूपका अस्तगमन (=अस्त होना), ऐसी वेदना है ०, ऐसी सज्ञा ०, ० सस्कार ०, ० विज्ञान ० । यह आवुसो ० ।
६—चार अप्रामाण्य (=अ-सीम) —यहॉ आवुसो । भिक्षु (१) मैत्री-युक्त चित्तसे ० ३विहरता है ० । (२) करुणा-युक्त ० । (३) ० मुदिता-युक्त ० । (४) ० उपेक्षा-युक्त ० ।
७—चार अरूप्य (=रूप-रहित-ता)—आवुसो । (१) रूप-सज्ञाओके सर्वथा अतिक्रमणसे, प्रतिघ (=प्रतिहिंसा) सज्ञाके अस्त होनेसे, नानात्व (=नानापन)-सज्ञाके मनमे न करनेसे, ‘आकाश अनन्त है’ इस आकाश-आनन्त्य (=आकाशकी अनन्तता)-आयतन (=स्थान) को प्राप्त हो विहार करता है । आकाशानन्त्यायतनको सर्वथा अतिक्रमण करनेसे ‘विज्ञान अन्नत है’ ‘विज्ञान-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो, विहार करता है । विज्ञानानन्त्यायतनको सर्वथा अतिक्रमण करनेसे,
‘कुछ नही (=नत्थि किचि)’ इस आकिचन्य-आयतनको प्राप्त हो, विहार करता है । आकिचन्यायतनके सर्वथा अतिक्रमण करनेसे, नैवसज्ञा (=न होश ही है)-न-असज्ञा-आयतनको प्राप्त हो विहार करता है ।
८—चार अपाश्रयण (=अवलबन)—आवुसो । भिक्षु (१) सख्यान (=जान)कर किसोको सेवन करता है । (२) सख्यानकर किसी (=एक)को स्वीकार करता है । (३) सख्यानकर किसीको परिवर्जन (=अस्वीकार) करता है । (४) सख्यानकर किसीको हटाता है (=विनोदेति) ।
९—चार आर्य-वंश—आवुसो । भिक्षु (१) जैसे तैसे चीवरसे सन्तुष्ट होता है । जैसे तैसे चीवरसे सन्तुष्ट होनेका प्रशसक होता है । चीवरके लिये अनुचित नही करता । चीवरको न पाकर दुखित नही होता, चीवरको पाकर अलोभी, अलिप्त, अमच्छित, अनासक्त, दुष्परिणाम-दर्शी=नि सरण प्रज्ञावाला हो, परिभोग (=उपभोग) करता है । (अपने) उस जिस तिस चीवरके सन्तोषसे, अपनेको बळा नही मानता, दुसरेको नीच समझता । जो कि वह दक्ष, निरालस, सप्रज्ञान (=जाननेवाला) प्रतिस्मृत (=याद रखनेवाला), होता है, यह कहा जाता है, आवुसो । भिक्षु पुराने अग्रण्य (=सर्वोत्तम) आर्य-वशमे स्थित है । (२) और फिर आवुसो । भिक्षु जैसे तैसे पिडपात (=भिक्षा)से सन्तुष्ट होता है ० । (३) ० जैसे तैसे शयनासन (=निवास)से ० । (४) ओर फिर आवुसो । प्रहाण (=त्याग)मे रमण करनेवाला, प्रहाण-रत होता है । भावनाराम=भावनारत होता है । उस प्रहाणारामतासे प्रहाण-रतिसे, भावनारामतासे भावना-रतिसे न अपनेको बळा मानता है, न दूसरेको नीच मानता है ० ।
१०—चार प्रधान (=अभ्यास, योग)—सवर(=सयम)-प्रधान, प्रहाण ०, भावना ०, अनुरक्षणा-प्रघान । (१) आवुसो। सवर-प्रघान कया है ॽ आवुसो । भिक्षु चक्षु (=ऑख)से रूप देख निमित्त(=रग आकार आदि)-ग्राही नही होता, अनुव्यजन-ग्राही नही होता । जिसमे कि चक्षु-इन्द्रिय-अधिकरणको अ-सवृत (=अ-रक्षित) रख विहरते समय अभिध्या (=लोभ), दौर्मनस्य पापक=अ-कुशल-घर्म उसे मलिन न करे, इसके लिये सवर (=सयम, रक्षा)के लिये यत्न करता है। चक्षु-इन्द्रियकी रक्षा करता है । चक्षु-इन्द्रियमे सयम-शील होता है । श्रोत्रसे शब्द सुनकर ० । घ्राणसे गध सूँघकर ०। जिह्वासे रस चखकर ० । काय (=त्वक्)से स्पर्श छूकर ० । मनसे धर्मको जानकर ० । यह कहा जाता है, आवुसो । सवर-प्रघान । (२) क्या है, आवुसो । प्रहाणप्रघान ॽ आवुसो । भिक्षु उत्पन्न काम-वितर्कको नही पसन्द करता, अस्वीकार (=प्रहाण)करता है, हटाता है, अन्त करता है, नाशको पहुँचाता है । उत्पन्न व्यापाद (=द्रोह)-वितर्कको ० । उत्पन्न विहिसा-वितर्कको ० । तव तब उत्पन्न हुए, पाप=अकुशल घर्मोको ० । आवुसो । यह प्रहाण-प्रधान कहा जाता है । (३) क्या है आवुसो । भावना-प्रधान ॽ आवुसो । भिक्षु विवेक-निश्रित(=०आश्रित), विराग निश्रित निरोघ-निश्रित व्यवसर्ग (=त्याग)-परिणामवाले १स्मृति-सबोघ्यगकी भावना करता है । घर्मविचिय-सबोघ्यगकी भावना करता है । ० वीर्य-सबोघ्यग ० । ० प्रीति-स ० । ० प्रश्रब्घि-सबोघ्यग ० । ० समाघि-सबोघ्यग ० । ० उपेक्षा-सबो ० । यह कहा जाता है, आवुसो । (४) भावना-प्रघान । क्या है, आवुसो । अनुरक्षणा-प्रघान ॽ आवुसो । भिक्षु उत्पन्न हुए अस्थिक २-सज्ञा, पुलवक-सज्ञा, विनीलक-सज्ञा, विच्छिद्रकसज्ञा, उघ्द्रुमातक सज्ञा (रूपी) उत्तम (=भद्रक) समाघि-निमित्तोकी रक्षा करता है । यह आवुसो । अनुरक्षणा-प्रधान है ।
११—चार ज्ञान—घर्म-विषयक-ज्ञान, अन्वय-ज्ञान, परिच्छेद-ज्ञान, समति-ज्ञान ।
१२—और भी चार ज्ञान—दुख-ज्ञान, दुख-समुदय-ज्ञान, दुख-निरोघ-ज्ञान, दुख-निरोघ-गामिनी प्रदिषद्का ज्ञान ।
१३―चार स्त्रोतआपत्तिके अग―सत्पुरुष-सेवन, सद्धर्म-श्रमण, योनिश मनसिकार (=कारण-पूर्वक विचार), धर्मानुघर्म-प्रतिपत्ति ।
१४―चार स्त्रोत-आपन्नके अग—आवुसो । आर्य-श्रावक (१) बुद्धमे अत्यन्त प्रसाद (=श्रद्धा) से युकत होता है―१वह भगवान् अर्हत् समयक्, सबुद्ध (=परम ज्ञानी), विद्या और आचरणसे सपन्न, सुगत (=सुदर गतिको प्राप्त), लोकविद्, पुरुषोको सन्मार्गपर लानेके लिये अनुपम चाबुक सवार, देव-मनुष्योके उपदेशक बुद्ध भगवान् है’ । (२) धर्ममे अत्यन्त प्रसादसे युकत होता है―२‘भगवानका घर्म स्वाख्यात (=सुदर व्याख्यात), है वह इसी शरीरमे फल देनेवाला (सादुष्टिक), सद्य फलप्रद (=अकालिक), यही दिखाई देनेवाला, (निर्वाणके) पास ले जानेवाला, विज्ञ (पुरुषो) को अपने अपने (ही) भीतर विदित होनेवाला है’ । (३) सघमे ० ३भगवानका शिष्य-सघ सुमार्गारूढ है, भगवानका शिष्य-सघ सीघे मार्गपर आरूढ है, न्याय मार्गपर आरूढ है, ठीक मार्गपर आरुढ है । यह जो चार पुरुष-युगल और आठ पुरुष-पुद्गल४ है, यही भगवानका शिष्य-सघ है, जो कि आह्वान करने योग्य है, पाहुना बनने योग्य है, दान देने योग्य है, हाथ जोळने योग्य है, और लोकके लिये पुण्य (बोने) का क्षेत्र है । (४) अ-खड=अछिद्र अ-शबल=अ-कल्मष, योग्य=विज्ञ-प्रशसित, अपरामृष्ट (अनिदित), समाघिगामी, आर्य, कमनीय (=कात) शीलोसे युकत होता है ।
१५―चार श्रामण्य (=भिक्षुपनके) फल―स्त्रोतआपत्ति-फल, सकृदागामि-फल, अनागामि-फल, अर्हतफल ।
१६—चार धातु (=महाभूत)—पृथिवी-धातु, आप-धातु, तेज-धातु, वायु-धातु ।
१७―चार-आहार―(१) औदारिक (=स्थूल) या सूक्ष्म कवलीकार आहार । (२) स्पर्श० ।
(३) मन-सचेतना ० । (४) विज्ञान ० ।
१८―चार विज्ञान (=चेतन, जीव)-स्थितियाँ―(१) आवुसो । रूप प्राप्तकर ठहरे, रूपमे रमण करते, रूपमे प्रतिष्ठित हो, विज्ञान स्थित होता है, नन्दी (=तृष्णा) के सेवनसे वृद्धि=विरूढता को प्राप्त होता है। (२) वेदना प्राप्तकर ० । (३) सज्ञा प्राप्तकर ० । (४) सस्कार प्राप्तकर ० ।
१९―चार अगति-गमन―छन्द (=राग)-गति जाता है, द्वेष-गति ०, मोह-गति ०, भय-गति ० ।
२०―चार तृष्णा-उत्पाद (=०उत्पत्ति)―(१) आवुसो । भिक्षुको चीवरके लिये तृष्णा उत्पन्न होती है । (२) ० पिडपातके लिये ० । (३) ० शयनासन (=निवास) ० । (४) अमुक जन्म-अजन्म (=भवाभव) के लिये० ।
२१―चार प्रतिषद् (=मार्ग) ―(१) दुखवाली प्रतिषद् और देरसे ज्ञान । (२) दुखवाली प्रतिषद् और क्षिप्र (=जल्दी) ज्ञान (३) सुखवाली (=सहल) प्रतिषद् और देरसे ज्ञान । (४) सुखवाली प्रतिषद् और जल्दी ज्ञान ।
२२―और भी चार प्रतिषद्―अ-क्षमा-प्रतिषद् क्षमाप्रतिषद् । दमकी प्रतिषद् शमकी प्रतिषद् ।
२३―चार घर्मपद―अन्-अभिध्या (=अ-लोभ)-धर्मपद । अ-व्यापाद (=अ-द्रोह) ० । सम्यक्-स्मृति ०। सम्यक्-समाधि ० ।
२४—चार धर्म-समादान—(१) आवुसो । वैसा धर्म-समादान (=०स्वीकार), जो वर्तमानमे भी दुखमय, भविष्यमे भी दुख-विपाकी (२) ०वर्तमानमे दुखमय, भविष्यमे सुख-विपाकी । (३) ०वर्तमानमे सुख-मय, भविष्यमे दुख-विपाकी । (४) ० वर्तमानमे सुख-मय, और भविष्यमे सुख-विपाकी ।
२५—चार धर्म-रुकन्ध—शील-स्कन्ध (=आचार-समूह) । समाधि-स्कन्ध । प्रज्ञा-स्कन्ध । विमुक्ति-स्कन्ध ।
२६—चार बल—वीर्य-बल । स्मृतिबल । समाधि-बल । प्रज्ञाबल ।
२७—चार अधिष्ठान (=सकल्प)—प्रज्ञा-बल । सत्य ० । त्याग ० । उपशम ० ।
२८—चार प्रश्न-व्याकरण (=सवालका जवाब)—एकाश-(=है या नही एकमे)-व्याकरण करने लायक प्रश्न । प्रतिपृच्छा (=सवालके रूपमे) व्याकरणीय प्रश्न । विभज्य (=एक अश हॉ भी, दूसरा अश नही भी करके) व्याकरणीय प्रश्न । स्थापनीय (=न उत्तर देने लायक) प्रश्न ।
२९—चार कर्म—आवुसो । (१) कृष्ण (=काला, बुरा) कर्म और कृष्ण-विपाक (=बुरे परिणाम वाला) । (२) ० शुक्लकर्म शुक्ल-विपाक । (३) शुक्ल-कृष्ण-कर्म, शुक्ल-कृष्ण-विपाक । (४) ० अकृष्ण-अ-शुक्लकर्म, अकृष्ण-अशुक्ल-विपाक ।
३०—चार साक्षात्करणीय धर्म—(१) पूर्व-निवास (=पूर्व-जन्म) स्मृतिसे साक्षात्करणीय । (२) प्राणियोका जन्म-मरण (=च्युति-उत्पाद), चक्षुसे साक्षात्करणीय । (३) आठ विमोक्ष, कायासे ० । (४) आस्त्रवोका क्षय, प्रज्ञासे ० ।
३१—चार ओघ (=बाढ)—काम-ओघ । भव (=जन्म) ० । दृष्टि (=मतवाद) ० । अविद्या ० ।
३२—चार योग (=मिलना)—काम-योग । भव० । दृष्टि० । अविद्या० ।
३३—चार विसयोग (=वियोग)—काम-योग-विसयोग । भवयोग०। दृष्टयोग०। अविद्यायोग०।
३४—चार गन्ध—अभिध्या (=लोभ)-काय-गन्ध । व्यापाद (=द्रोह) कायगन्ध । शील-ब्रत-परामर्श० । ‘यही सच है’ पक्षपात ०।
३५—चार उपादान—काम-उपादान । दृष्टि ० । शील-व्रत-परामर्श ० । आत्म-वाद ० ।
३६—चार योनि—अडजयोनि । जरायुज योनि । सस्वेदज ० । औपपातिक (=अयोनिज) ० ।
३७—चार गर्भ-अवक्रान्ति (=गर्भप्रवेश)—(१) आवुसो । कोई कोई (प्राणी) ज्ञान (=होश) बिना माताकी कोखमे आता है, ज्ञान-बिना मातृ-कुक्षिमे ठहरता है, ज्ञानबिना मातृ-कुक्षिसे निकलता है, यह पहली गर्भावक्रान्ति है । (२) और फिर आवुसो । कोई कोई ज्ञान-सहित मातृकुक्षिमे आता है, ज्ञान-बिना ० ठहरता है, ज्ञान-बिना ० निकलता है०। (३) ० ज्ञान-सहित ० आता है, ज्ञान-सहित ० ठहरता है, ज्ञान-बिना ० निकलता है ० । (४) ० ज्ञान-सहित आता है, ज्ञान-सहित ० ठहरता है, ज्ञान-सहित ० निकलता है ० ।
३८—चार आत्म-भाव-प्रतिलाभ (=शरीर-धारण)—(१) आवुसो । (वह) आत्म-भाव-प्रतिलाभ जिस आत्म-भाव-प्रतिलाभमे आत्म-सचेतना (=अपनेको जानना) ही पाता है, परसचेतना, नही पाता (२) ० पर-सचेतनाको ही पाता है, आत्मसचेतनाको नही । (३) ० आत्मसचेतना भी ०, पर-सचेतना भी ० (४) ० । न आत्म-सचेतना ०, न पर-सचेतना० ।
३९—चार दक्षिणा-विशुद्धि (=दान-शुद्धि)—(१) आवुसो । दक्षिणा (=दान) दायकसे शुद्ध किन्तु प्रतिग्राहकसे नही (२) ० प्रतिग्राहकसे शुद्ध ०, किन्तु दायकसे नही । (३) ० न दायकसे०, न प्रतिग्राहकसे ० । (४) ० दायकसे भी ०, प्रतिग्राहकसे भी ० ।
४०—चार संग्रह-वस्तु—दान, वैयावर्त्य (=सेवा), अर्थ-चर्या, समानार्थता ।
४१—चार अनार्य-व्यवहार—मृषावाद (=झूठ), पिशुन-वचन (=चुगली), सप्रलाप (=बकवाद), पुरुष-वचन ।
४२—चार आर्य-व्यवहार—मृपा-वाद-विरतता, पिशुन-वचन-विरतता, सप्रलाप-विरतता, परुष-वचन-विरतता ।
४३—चार अनार्य-व्यवहार—अदृष्टमे दृष्ट-वादी बनना, अ-श्रुतमे श्रुत-वादिता, अ-स्मृतमे स्मृतवादिता, अ-विज्ञातमे विज्ञात-वादिता ।
४४—और भी चार अनार्य-व्यवहार—दृष्टमे अदृष्ट-वादिता, श्रुतमे अश्रुत-वादिता । स्मृतिमें अस्मृतवादिता, विज्ञातमे अ-विज्ञात-वादिता ।
४५—और भी चार आर्य-व्यवहार—दृष्टमे दृष्टवादिता, श्रुतमे श्रुत-वादिता, स्मृतमे स्मृत-वादिता, विज्ञातमे विज्ञात-वादिता ।
४६—चार पुद्गल (=पुरुष)—(१) आवुसो । कोई कोई पुद्गल आत्म-तप, अपनेको संताप देनेमे लगा रहता है । (२) कोई कोई पुद्गल परन्तप, पर (=दूसरे)को संताप देनेमे लगा रहता है । (३) ० आत्म-तप ० भी ० रहता है, परन्तप, भी ० । (४) ० न आत्म-तप ०, न परन्तप ०, वह अनात्मतप अपरतप हो इसी जन्ममे शोकरहित, सुखित, शीतल, सुखानुभवी ब्रह्मभूत आत्माके साथ विहार करता है ।
४७—और भी चार पुद्गल—(१) आवुसो । कोई कोई पुद्गल आत्म-हितमे लगा रहता है, परहितमे नही । (२) ० परहितमे लगा रहता है, आत्महितमे नही । (३) ० न आत्म-हितमे लगा रहता है, न परहितमे । (४) ० आत्महितमे भी लगा रहता है, पर-हितमे भी० ।
४८—और भी चार पुद्गल—(१) तम तम-परायण । (२) तम ज्योति-परायण । (३) ज्योति तमपरायण (४) ज्योति ज्योति-परायण ।
४९—और भी चार पुद्गल—(१) श्रमण अचल । (२) श्रमण पद्म (=रक्त कमल) । (३) श्रमण-पुडरीक (=श्वेतकमल) । (४) श्रमणोमे श्रमण-सुकुमार ।
यह आवुसो । उन भगवान् ० ।
(इति) प्रथम माणावार ।।१।।
५—पचक—“आवुसो । उन भगवान् ० ने पॉच धर्म यथार्थ कहे है ० । कौनसे पाँच ॽ—
१—पॉच स्कंध—रुप०, वेदना०, संज्ञा०, संस्कार०, विज्ञान-स्कंध ।
२—पॉच उपादान-स्कन्ध—रुप-उपादान-स्कन्ध, वेदना०, संज्ञा०, संस्कार०, विज्ञान-उपा-दानस्कन्ध ।
३—पॉच काम-गुण—(१) चक्षुसे विज्ञेय इष्ट=कान्त=मनाप, प्रिय, काम-सहित=रजनीय (=चित्तको रजन करनेवाले) रुप । (२) श्रोत-विज्ञेय ० शब्द । (३) घ्राण-विज्ञेय ० गन्घ । (४) जिह्रा-विज्ञेय ० रस । (५) काम-विज्ञेय ० स्पर्श ।
४—पॉच गति—निरय (=नर्क) । तिर्यक् (=पशु पक्षी आदि) योनि । प्रेत्य-विषय (=भूत प्रेत आदि) । मनुष्य । देव ।
५—पाँच मात्सर्य (=हसद)=आवासमात्सर्य, कुल ०, लाभ ०, वर्ण ०, धर्म ० ।
६—पॉच नीवरण—कामच्छन्द(=काम-राग) ०, व्यापाद ०, स्त्यान-मृद्ध ० । औद्धत्य-कौकृत्य ०, विचिकित्सा ० ।
७—पॉच अवरभागीय संयोजन—सत्काय-दृष्टि, विचिकित्सा, शील-व्रत-परामर्श, कामच्छन्द, व्यापाद ।
८—पॉच उध्व-भागीय संयोजन—रुप-राग, अरुप-राग, मान, औद्धत्य, अविद्या ।
९—पाँच शिक्षापद—प्राणातिपात(=प्राण-बध)-विरति, अदत्तादान-विरति, काम-मिथ्या-चारविरति, मृषावाद-विरति, सुरा-मेरय-मद्य-प्रमादस्थान-विरति ।
१०—पाँच अभव्य (=अयोग्य) स्थान—(१) आवुसो । क्षीणास्त्रव (=अर्हत्) भिक्षु जानकर प्राण-हिंसा करनेके अयोग्य है । (२) अदत्तादान (=चोरी)=स्तेय करनेके अयोग्य है । (३) ० मैथुन-सेवन करनेके अयोग्य है । (४) ० जानकर मृपावाद (=झूठ बोलने)के ० । (५) ० सन्निधि-कारक हो (=जमाकर) कामोको भोगकरनेके ०; जैसे कि पहिले गृहस्थ होते वक्त था ।
११—पाँच व्यसन—ज्ञातिव्यसन, भोग०, रोग०, शील०, दृष्टि० । आवुसो । प्राणी ज्ञाति-व्यसनके कारण या भोगव्यसनके कारण, या रोगव्यसनके कारण, काया छोळ मरनेके बाद अपाय दुर्गति विनिपात, निरय (=नर्क)को प्राप्त होते है । आवुसो । शीलव्यसनके कारण या दृष्टि-व्यसनके कारण प्राणी० ।
१२—पाँच सम्पद् (प्राप्ति)—ज्ञाति-सम्पद्, भोग०, आरोग्य०, शील०, दृष्टि० । आवुसो । प्राणी ज्ञाति-सम्पदके कारण०, भोग-सम्पद् ० , आरोग्य-सम्पदके कारण काया छोळ मरनेके बाद सुगति स्वर्गलोकमे नही उत्पन्न होते । आवुसो । शीलसपदके कारण या दृष्टिसपदके कारण प्राणी ० ।
१३—पॉच आदिनव (=दुष्परिणाम) है, शील-विपत्ति (=आचार-दोष)के कारण दुशील (पुरुष)को—(१) आवुसो । शील-विपन्न=दुशील(=दुराचारी) प्रमादसे बळी भोग-हानिको प्राप्त होता है, शील-विपन्न दुशीलके लिये यह प्रथम दुष्परिणाम है । (२) और फिर आवुसो । शील-विपन्न,=दुशीलके लिये बुरे निन्दा-वाकय उत्पन्न होते है, यह दूसरा दुष्परिणाम है । (३) और फिर आवुसो । शील-विपन्न=दुशील, चाहे क्षत्रिय-परिषद्, चाहे ब्राह्मण-परिषद, चाहे गुहपति-परिषद्, चाहे श्रमण-परिषद्, चाहे जिस परिषद् (=सभा)मे जाता है, अ-विशारद होकर, मूक होकर, जाता है । यह तीसरा ० । (४) और फिर आवुसो । शील-विपन्न=दुशील, समूढ (=मोहप्राप्त) होकर काल करता है, यह चौथा ० । (५) और फिर आवुसो । शील-विपन्न काया छोळ मरनेके बाद अपाय=दुर्गति=विनिपात, निरय (=नर्क)मे उत्पन्न होता है, यह पॉचवॉ ० ।
१४—पाँच गुण (=आनृशस्य)है, शील-सम्पदासे शीलवानको—(१) आवुसो । शील-सम्पन्न शीलवानको अप्रमादके कारण, बळी भोग-राशिकी प्राप्ति होती है, शीलवानको शील-संपदासे यह प्रथम गुण है । (२) ० सुन्दर कीर्ति शब्द उत्पन्न होते है ० । (३) ० जिस जिस परिषदमे जाता है, विशारद होकर, अ-मूक होकर, जाता है ० । (४) ० अ-समूढ हो काल करता है ० । (५) ० काया छोळ मरनेके बाद सुगति=स्वर्गलोकमे उतपन्न होता है ० ।
१५—पाँच धर्मोको अपनेमे स्थापितकर आवुसो । आरोपी (=दूसरेपर दीषारोप करनेवाले) भिक्षुको दूसरेपर आरोप करना चाहिये—(१)कालसे कहूँगा, अकालसे नही । (२) भूत (=यथार्थ) कहूँगा, अभूत नही । (३) मधुर कहूँगा, कटु नही । (४) अर्थ-सहित (=स-प्रयोजन) कहूँगा, अनर्थसहित नही । (५) मैत्री-भावसे कहूँगा, द्रोह-चित्तसे नही । ।
१६-पॉच प्रधानीय (=प्रधानके) अग— (१) यहॉ आवुसो । भिक्षु श्रद्धालु होता है, तथागतकी बोधि (=परमज्ञान)पर श्रद्धा रखता है—ऐसे वह भगवान् अर्हत्, सम्यक् सबुद्ध० । (२) आबाधा (=रोग)-रहित आतक-रहित होता है । न बहुत शीतल, न बहुत उष्णसम-विपाक-वाली, प्रधान (=योगाभ्यास)के योग्य ग्रहणी (=पाचनशक्ति)से युक्त होता है । (३) शास्ताके पास, या विज्ञोके पास, या स-ब्रह्मचारियोके पास अपनेको यथाभूत (=जैसा है वैसा) प्रकट करनेवाला, अशठ=अ-मायावी होता है । (४) अकुशल धर्मोके विनाशके लिये, कुशल धर्मोकी प्राप्तिके लिये, आरब्ध-वीर्य(=यत्नशील)हो विहरता है, कुशल धर्मोमे स्थाम-वान=दृढपराक्रम=घुरा (कंधेसे) न फेकनेवाला (होता है) । (५) निर्वेधिक (=अन्तस्तल तक पहुँचनेवाली), सम्यक् दुख-क्षयकी ओर ले जाने-वाली, उदय-अस्त-गामिनी, आर्य प्रज्ञासे संयुक्त, प्रज्ञावान् होता है ।
१७—पाँच शुद्धावास (=देवलोक विशेष)—अविभ, अतप्यॅ (=अतप्प), सुदस्स (=सुदर्श), सुदस्सी (=सुदर्शी), अकनिष्ट ।
१८—पाँच अनागामो—अन्तरापरिनिर्वायी, उपहत्य-परिनिर्वायी, असंस्कार ०, स-संस्कार ०, ऊध्वॅस्त्रोत-अकनिष्ठ-गामी ।
१९—पॉच चेतोखिल (=चितके कीले)— (१) आवुसो । भिक्षु शास्ता (=धर्माचार्य) मे काक्षा=विचिकित्सा (=संदेह) करता है, (संदेह)-मुवत नही होता, प्रसन्न नही होता । उसका चित्त उद्योगके लिये, अनुयोगके लिये, सातत्य (=निरन्तर लगन)के लिये प्रधानके लिये नही झुकता, जो कि यह इसका चित्त ० नही झुकता, यह प्रथम चेतो-खिल (चित्त-कील) है । (२) और फिर आवुसो । भिक्षु धर्ममे काक्षा=विचिकित्सा करता है० । (३) ० संघमे काक्षा=विचिकित्सा करता है० । (४) सब्रह्मचारियोमे दुष्ट-चित्त, असन्तुष्ट-मन, कील समान, कुपित होता है, जो वह आवुसो । भिक्षु सब्रह्म-चारियोमे ० कुपित होता है, (इसलिये) उसका चित्त ० प्रधानके लिये नही झुकता, यह पाँचवाँ चेतो-खिल है ।
२०—पाँच चित्त-विनिबन्ध— (१) आवुसो । भिक्षु कामो (=कामवासनाओ) में अवीतराग अ-वीतच्छन्द अविगत-प्रेम अविगत-पिपास, अविगत-परिदाह अविगत-तृष्णा (=तृष्णा-रहित नही) होता; उसका चित्त ० प्रधानके लिये नही झुकता । जो इसका चित्त ० नही झुकता, यह प्रथम चित्त-विनिबन्ध है । (२) ओर आवुसो । कायामे ० अविगत-तृष्णा होता ० । (३) रुपमे अ-वीत-राग होता है० । (४) और फिर आवुसो । भिक्षु यथेच्छ पेटभर खाकर श्य्या-सुख, स्पर्श-सुख, मृद्ध (=आलस्य) सुख लेते विहरता है ० । (५) और फिर आवुसो । भिक्षु किसी एक देव-निकाय (=देवलोक)की इच्छासे ब्रह्मचर्य-पालन करता है—‘इस शील, व्रत, तप, ब्रह्मचर्यसे मै (अमुक) देव होऊँगा’ । जो आवुसो । वह भिक्षु किसी एक देव-निकायकी इच्छासे ब्रह्मचर्य-पालन करता है०, उसका चित्त० प्रधानके लिये नही झुकता, ०, यह पाँचवाँ चित्त-विनिबध है ।
२१—पाँच इन्द्रिय—चक्षु-इन्द्रिय, श्रोत्र०, घ्राण०, जिह्वा, काया (=त्वक्) ० ।
२२—और भी पाँच इन्द्रिय—सुख-इन्द्रिय, दुख, न-सुख-न-दुख०, सौमनस्य०, उपेक्षा० ।
२३—और भी पाँच इन्द्रिय—श्रद्धा-इन्द्रिय, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा० ।
२४—पाँच नि सरणीय-धातु—(१) आवुसो । भिक्षुको काम (=भोग) मे मन करते, काममे चित्त नही दौळता, प्रसन्न नही होता, स्थित नही होता, विमुक्त नही होता, किन्तु, नैष्काम्यको मनमे करते चित्त दौळता, प्रसन्न होता, स्थित होता, विमुक्त होता है । उसका वह चित्त सुगत, सुभावित, सु-उत्थित, सु-विमुक्त, कामोसे वियुक्त होता है, और कामोके कारण जो आस्त्रव, विधात, परिदाह (=जलन) उत्पन्न होते है, उनसे वह मुक्त है, उस वेदनाको वह नही झेलता—यह कामोका नि सरण कहा गया है । (२) और किर आवुसो । भिक्षुको व्यापाद (=द्रोह) मनमे करते व्यापादमे चित्त नही दौळता०, किन्तु अव्यापाद (=अद्रोह) को मनमे करते०, यह व्यापादका निस्सरण कहा गया है । (३) ० भिक्षुको विहिसा (=हिंसा) मनमे करते ०, किन्तु, अ-विहिंसाको मनमे करते०, यह विहिंसा-निस्सरण कहा गया है । (४) ० रुपोके मनमे करते०, किन्तु, अ-रुपको मनमे करते ०, यह रुपोका निस्सरण कहा गया है । (५) और किर आवुसो । भिक्षुको सत्काय (=आत्मवाद) मनमे करते०, किन्तु, सत्काय-निरोधको मनमे करते०, यह सत्कायका निस्सरण कहा गया है ।
२५—पाँच विमुक्ति-आयतन—(१) आवुसो । भिक्षुको शास्ता (=गुरु) या दूसरा कोई पूज्य (=गुरु-स्थानीय) स-ब्रह्मचारी धर्म उपदेश करता है, जैसे जैसे आवुसो । भिक्षुको शास्ता या दूसरा कोई गुरु-स्थानीय स-ब्रह्मचारी धर्म उपदेश करता है, वैसे वैसे वह उस धर्ममे, अर्थ समझता है, धर्म समझता है । अर्थ-संवेदी (=अर्थ समझनेवाला), धर्म-प्रतिसंवेदी हो, उसे प्रमोद (=प्रामोद्य) प्राप्त होता है ।
प्रमुदित (पुरुष) को प्रीति पैदा होती है । प्रीति-मानकी काया प्रश्रब्ध (=स्थिर) होती है, प्रश्रब्ध-काय (पुरुष) सुखको अनुभव करता है । सुखीका चित्त एकाग्र होता है । यह प्रथम विमुक्त्यायतन है । (२) और फिर आवुसो । भिक्षुको न शास्ता धर्म उपदेश करता है, न दूसरा कोई गुरु-स्थानीय सब्रह्मचारी, बल्कि यथा-श्रुत (=सुनेके अनुसार), यथा-पर्याप्त (=धर्म-शास्त्रके अनुसार) (जैसे जैसे) दूसरोको धर्म-उपदेश करता है० । (३) ० बल्कि यथाश्रुत, यथा-पर्याप्त धर्मको विस्तारसे स्वाध्याय करता है० । (४) ० बल्कि यथाश्रुत यथा-पर्याप्त धर्मको चित्तसे अनु-वितर्क करता है, अनुविचार करता है, मनसे सोचता है० । (५) ० बल्कि उसको कोई एक समाधि-निमित्त, (=०आकार) सुगृहीत=सुमनसीकृत=सु-प्रधारित (=अच्छी तरह समझा), (और) प्रज्ञासे सु-प्रतिबिद्ध (=तहतक जाना गया) होता है, जैसे जैसे आवुसो । भिक्षुको कोई एक समाधि-निमित्त ० ।
२६—पॉच विमुक्ति-परिपाचनीय संज्ञा—अनित्य-संज्ञा, अनित्यमे दुख-संज्ञा, दुखमे अनात्म-संज्ञा,प्रहाण-संज्ञा, विराग-संज्ञा ।
यह आवुसो । उन भगवान्०ने० ।
६—षट्क “आवुसो । उन भगवान्० ने छै धर्म यथार्थ कहै है ० । कौनसे छै ॽ
१—छै अध्यात्म (=शरीरमे)-आयतन—चक्षु-आयतन, श्रोत्र०, घ्राण०, जिह्वा०, काय०, मन-आयतन ।
२—छै बाह्य-आयतन—रुप-आयतन, शब्द०, गन्ध०, रस०, स्प्रष्टव्य (=स्पर्श)०, धर्म-आयतन ।
३—छै विज्ञान-काय (=०समुदाय)—चक्षु-विज्ञान, श्रोत्र०, घ्राण०, जिह्वा०, काय० मनो-विज्ञान ।
४—छै स्पर्श-काय—चक्षु-सस्पर्श श्रोत्र०, घ्राण०, जिह्वा०, काय०, मन सस्पर्श ।
५—छै वेदना-काय—चक्षु-सस्पर्शज वेदना, श्रोत्र-सस्पर्शज०, घ्राणसस्पर्शज०, जिह्वा-सस्पर्शज०, काय-सस्पर्शज०, मन सस्पर्शज-वेदना ।
६—छै संज्ञा-काय—रुप-संज्ञा, शब्द०, गन्ध०, रस०, स्प्रष्टव्य० धर्म०, ।
७—छै संचेतना-काय—रुप-संचेतना, शब्द०, गन्ध०, रस०, स्प्रष्टव्य०, धर्म० ।
८—छै तृष्णा-काय—रुप-तृष्णा, शब्द०, गन्ध०, रस०, स्प्रष्टव्य०, धर्म-तृष्णा ।
९—छै अ-गौरव—(१)यहॉ आवुसो । भिक्षु शास्तामे अ-गौरव (=सत्कार-रहित), अ-प्रतिश्रय (=आश्रय-रहित) हो विहरता है । (२) धर्ममे अगौरव ० । (३) संघमे अगौरव ० । (४) शिक्षामे अगौरव ० । (५) अप्रमादमे अ-गौरव ० । (६) स्वागत (=प्रति-सस्तार) मे अ-गौरव ० ।
१०—छै गौरव—(१) ०शास्तामे सगौरव, स-प्रतिश्रय, हो विहरता है, (२) धर्ममे०, (३) संघमे ०, (४) शिक्षामे०, (५) अप्रमादमे०, (६) प्रतिसंस्तारमे० ।
११—छै सौमनस्य-उपविचार—(१) चक्षुसे रुप देखकर सौमनस्य (=प्रसन्नता)-स्थानीय रुपोका उपविचार (=विचार) करता है । (२) श्रोत्रसे शब्द सुनकर० । (३) घ्राणसे गन्ध सूँघकर० । (४) जिह्वासे रस चखकर० । (५) कायासे स्प्रष्टव्य छूकर० । (६) मनसे धर्म जानकर० ।
१२—छै दौर्मनस्य-उपविचार—(१) चक्षुसे रुप देखकर दौर्मनस्य (=अप्रसन्नता)-स्थानीय रुपोका उपविचार करता है । (२) श्रोत्रसे शब्द० । (३)घ्राणसे गन्ध० । (४) जिह्वासे रस० । (५) कायासे स्प्रष्टव्य छूकर० । (६) मनसे धर्म० ।
१३—छै उपेक्षा-उपविचार—(१) चक्षुसे रुपको देखकर उपेक्षा-स्थानीय रुपोका उपविचार करता है । (२) श्रोत्रसे शब्द० । (३) घ्राणसे गन्ध० । (४) जिह्वासे रस० । (५) कायासे स्प्रष्टव्य० । (६) मनसे धर्म० ।
१४—छै साराणीय धर्म—(१) यहाँ आवुसो । भिक्षुको सब्रह्मचारियोमे गुप्त या प्रकट मैत्री
युक्त कायिक कर्म उपस्थित होता है, यह भी धर्म साराणीय=प्रियकरण=गुरुकरण है, संग्रह, अ-विवाद, एकताके लिये है । (२) और फिर आवुसो । भिक्षुको ० मैत्री युक्त वाचिक-कर्म उपस्थित होता है० । (३) ० मैत्री-युक्त मानस-कम्मॅ० । (४) भिक्षुके जो धार्मिक धर्म-लब्ध लाभ है—अन्तत पात्रमे चुपळने मात्र भी, उस प्रकारके लाभोको बॉटकर भोगनेवाला होता है, शीलवान् स-ब्रह्म-चारियो सहित भोगनेवाला होता है, यह भी ० । (५) ० जो अखड=अ-छिद्र, अ-शवल=अ-कल्मष, उचित(=भुजिस्स), विज्ञ-प्रशसित, अ-परामृष्ट (=अनिदित), समाधिगामी शील है, वैसे शीलोमे स-ब्रह्मचारियोके साथ गुप्त और प्रकट शील-श्रामण्यको प्राप्त हो विहरता है, यह भी ० । (६) ० जो यह आर्य नैर्याणिक दृष्टि है, (जो कि) वैसा करनेवालेको अच्छी प्रकार दुख-क्षयकी ओर ले जाती है, वैसी दृष्टिसे स-ब्रह्मचारियोके साथ गुप्त और प्रकट दृष्टि-श्रामण्यको प्राप्त हो विहरता है, यह भी ० ।
१५-छै विवाद-मूल—(१)यहॉ आवुसो । भिक्षु क्रोधी, उपनाही (=पाखडी) होता है, जो वह आवुसो । भिक्षु क्रोधी उपनाही होता है, वह शास्तामे भी अगौरव=अप्रतिश्रय हो विहरता है, धर्ममे भी ०, संघमे भी ०, शिक्षा (=भिक्षु-नियम) को भी पूरा करनेवाला नही होता है । आवुसो । जो वह भिक्षु शास्तामे भी अगौरव ० होता है, वह संघमे विवाद उतपन्न करता है, जो विवाद कि बहुत लोगोके अहितके लिये=बहुजन-असुखके लिये, देव-मनुष्योके अनर्थ, अहित, दुखके लिये होता है । आवुसो । यदि तुम इस प्रकारके विवाद-मूलको अपनेमे या बाहर देखना, (तो) वहॉ आवुसो । तुम उस दुष्ट विवाद-मूलक नाशके लिये प्रयत्न करना । यदि आवुसो । तुम इस प्रकारके विवाद-मूलको अपनेमे या बाहर न देखना, तो तुम उस दुष्ट विवाद-मूलके भविष्यमे न उत्पन्न होने देनेके लिये उपाय करना । इस प्रकार इस दुष्ट (=पापक) विवाद-मूलका प्रहाण होता है, इस प्रकार इस दुष्ट विवाद-मूलकी भविष्यमे उत्पति नही होती । (२) और फिर आवुसो । भिक्षु मर्षी (=अमरखी) पलासी (=निष्ठुर), होता है । (३) ईष्यालु, मत्सरी होता है ० । (४) ० शठ, मायावी होता है ० । (५) ० पापेच्छु, मिथ्यादृष्टि होता है ० (६) ० सदृष्टि-परामर्शी (=तुरन्त चाहनेवाला), आधान-ग्राही (=हठी), दुप्रति-निस्सर्गी (=मुश्किल से छोळनेवाला) होता है ० ।
१६-छै धातु—पृथिवी-धातु, आप०, तेज०, वायु०, आकाश०, विज्ञान० ।
१७-छै निस्सरणीय-धातु—(१) आवुसो । भिक्षु ऐसा बोले—‘मैने मैत्री चित्त-विमुकितको भावित, बहुलीकृत (=बढाई), यानीकृत, वस्तु-कृत, अनुष्ठित, परिचित, सु-समारब्घ किया, किन्तु व्यापाद (=द्रोह) मेरे चित्तको पकळकर ठपरा हुआ है’ उसको ऐसा कहना चाहिये—आयुष्मान् ऐसा मत कहे, भगवानकी निन्दा (=अभ्याख्यान) मत करे, भगवानका अभ्याख्यान करना अच्छा नही है । (यदि वैसा होता तो) भगवान् ऐसा नही कहते । यह मुमकिन नही, इसका अवकाश नही, कि मैत्री चित्त-विमुकित ० सुसमारब्धकी गई हो, और तो भी व्यापाद उसके चित्तको पकळकर ठहरा रहे । यह संभव नही । आवुसो । मैत्री चित्तृविमुक्ति व्यापादका निस्सरण है । (२) यदि आवुसो । भिक्षु ऐसा बोले—‘मैने करुणा चित्त-विमुक्तिको भावित ० किया, तो भी विहिंसा मेरे चित्तको पकळकर ठहरी हुई है’ ।०। (३) आवुसो । यदि भिक्षु ऐसा बोले—‘मैने मुदिता चित्त-विमुक्तिको भावित ० किया, तो भी अ-रति (=चित्त न लगना) मेरे चित्तको पकळकर ठहरी हुई है’ ।०। (४) ० उपेक्षा चित्त-विभुक्तिको भावित ० किया, तो भी राग मेरे चित्तको पकळे हुये है, ० । (५) अनिमितत्ता चित्त-विमुक्तिको भावित० किया, तो भी यह निमित्तानुसारी विज्ञान मुझे होता है’ ।०। (६) ० ‘अस्मि’(=मै हूँ), मेरा चला गया, ‘यह मै हूँ’ नही देखता, तो भी विचिकित्सा (=संदेह) वाद-विवाद-रुपी शल्य चित्तको पकळे ही हुये है ० ।’
१८-छै अनुत्तरीय—दर्शन०, श्रवण०, लाभ०, शिक्षा०, परिचर्या०, अनुस्मृति० ।
१९-छै अनुस्मृति-स्थान—बुद्ध-अनुस्मृति, धर्म०, संघ०, शील०, त्याग०, देवता-अनुस्मृति ।
२०—छै शाश्वत-विहार—(१) आवुसो । भिक्षु चक्षुसे रुपको देखकर न सुमन होता है, न दुर्मन होता है । स्मरण करते, जानते उपेक्षक हो विहार करता है । (२) श्रोत्रसे शब्द सुनकर ० । (३) ध्राणसे गंध सूँघकर ० (४) जिह्वासे रस चखकर ० । (५) कायासे स्प्रष्टव्य छूकर ० । (६) मनसे धर्मको जानकर ० ।
२१—छै अभिजाति (=जाति, जन्म)—(१) यहाँ आवुसो । कोई कोई कृष्ण-अभिजातिक (=नीच कुलमे पैदा) हो, कृष्ण (=काले=बुरे) धर्म करता है । (२) ० कृष्णाभिजातिक हो शुक्ल-धर्म करता है । (३) ० कृष्णाभिजातिक हो अ-कृष्ण-अशुक्ल निर्वाणको पैदा करता है । (४) ० कृष्णाभिजातिक (=ऊँचे कुलमे उत्पन्न) हो शुक्ल-धर्म (=पुण्य) करता है । (५) शुक्ल-अभिजातिक हो, कृष्ण-धर्म (=पाप) करता है । (६) ० शुक्लाभिजातिक हो अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाणको पैदा करता है ।
२२—छै निर्वेध-भागीय सज्ञा—(१) अनित्य सज्ञा । (२) अनित्यमे दुख सज्ञा । (३) दुखमें अनात्म-सज्ञा । (४) प्रहाण-सज्ञा । (५) विराग-सज्ञा । (६) निरोध-सज्ञा ।
आवुसो । उन भगवानने यह ० ।
७—सप्तक—“आवुसो । उन भगवान्०ने (यह) सात धर्म यथार्थ कहे है ० ।
१—सात आर्य-धन—श्रद्धा-धन, शील०, ह्री (=लज्जा) ०, अपत्रपा (=संकोच)०, श्रुत०, त्याग०, प्रज्ञा ० ।
२—सात बोध्यंग—स्मृति-संबोध्यग, धर्म-विचय०, वीर्य०, प्रीति०, प्रश्रब्धि०, समाधि०, उपेक्षा०, ।
३—सात समाधि-परिष्कार—सम्यक्-दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक्-व्यामाम, सम्यक्-स्मृति ।
४—सात अ-सद्धर्म—भिक्षु अ-श्रद्ध होता है, अह्रीक (=निर्ल्लज्ज)०, अन्-अपत्रपी (=अपत्रपा-रहित) ०, अल्पश्रुत ०, कुसीत (=आलसी) ०, मूढ-स्मृति ०, दृष्प्रज्ञ ० ।
५—सात सद्धर्म—श्रद्धालु होता है, ह्रीमान् ०, अपत्रपी ०, बहुश्रुत० । आरब्ध-वीर्य (=निरालसी), उपस्थित-स्मृति ०, प्रज्ञावान् ० ।
६—सात सत्पुरुष-धर्म— धर्मज्ञ ०, अर्थज्ञ ०, आत्मज्ञ ०, मात्रज्ञ ०, कालज्ञ०, परिषतज्ञ०, पुद्गलज्ञ ० ।
७—सात १निर्दश-वस्तु—(१) आवुसो । भिक्षु शिक्षा (=भिक्षु-नियम) ग्रहण करनेमे तीव्रछन्द (=बहुत अनुरागवाला) होता है, भविष्यमे भी शिक्षा ग्रहण करनेमे प्रेम-रहित नही होता । (२) धर्म-निशांति (=विपश्यना) मे तीव्र-छन्द होता है, भविष्यमे भी धर्म-निशांतिमे प्रेम-रहित नही होता । (३) इच्छा-विनय (=तृष्णा-त्याग)मे ० । (४) प्रतिसत्लयन (=एकांतवास) मे ० ।
(५) वीर्यारम्भ (=उद्योग)मे ० । (६) स्मृतिके निष्पाक(=परीपाक)मे ० । (७) द्रष्टि-प्रति-वेध (=सन्मार्ग-दर्शन) मे ० ।
८—सात संज्ञा—अनित्य-संज्ञा, अनात्म ०, अशुभ ०, आदिनव ०, प्रहाण ०, विराग ०, निरोध ०।
९—सात बल— श्रद्धाबल, वीर्य ०, स्मृति ०, समाधि , प्रज्ञा ०, ह्री ०, अपत्राप्य ० ।
१०—सात विज्ञान-स्थिति—(१) आवुसो । (कोई कोई) सत्त्व (=प्राणी) नानाकाय नानासज्ञा (=नाम)वाले है, जैसे कि मनुष्य, कोई कोई देव, कोई कोई विनिपातिक (=पापयोनि), यह प्रथम विज्ञान-स्थिति है । (२) ० नाना-काय किन्तु एक-सज्ञावाले, जैसे कि प्रथम उत्पन्न ब्रह्मकायिक देव ० । (३) एक-काया नान-सज्ञावाले, जैसे कि आभास्वर देवता ० । (४) ० एक-सज्ञावालै, जैसे कि शुभकृत्स्न देवता ० । (५) आवुसो । कोई कोई सत्त्व रुपसज्ञाको सर्वथा अतिक्रमणकर, प्रतिघ (=प्रतिहिंसा) संज्ञाके अस्त होनेसे, नाना संज्ञाके मनमे न करनेसे ‘आकाश अनन्त है’ इस आकाश-आनत्य-आयतनको प्रप्त है, यह पाँचवी विज्ञानस्थिति है । (६) ० आकाशानन्त्यायतनको सर्वथा अतिक्रमणकर, ‘विज्ञान अनन्त है’ इस विज्ञान-अनन्त-आयतनको प्राप्त है, यह छठी विज्ञान-स्थिति है, (७) ० विज्ञानानन्त्यायतनको सर्वथा अतिक्रमणकर ‘कुछ नही,’ इस आकिचन्य-आयतनको प्राप्त है । यह सातवी विज्ञान-स्थिति है ।
११—सात दक्षिणेय (=दान-पात्र) व्यक्ति है—उभयतोभाग-विमुक्त, प्रज्ञा-विमुक्त, काय-साक्षी, दृष्टिप्राप्त, श्रद्धाविमुक्त, धर्मानुसारी, श्रद्धानुसारी ।
१२—सात अनुशय—काम-राग-अनुशय, प्रतिघ ०, दृष्टि ०, विचिकित्सा ०, मान ०, भवराग ०, अविद्या ० ।
१३—सात संयोजन—अनुनय-संयोजन, प्रतिघ ०, दृष्टि ०, विचिकित्सा ०, मान ०, भवराग ० अविधा ० ।
१४—सात—अधिकरण-शमथ तब तब उत्पन्न हुए अधिकरणो (=झगळो)के शमनके लिये—— (१) समुख-विनय देना चाहिये (२) स्मृतिविनय ०, (३) अमूढ-विनय ०, (४) प्रतिज्ञातकरण । (५) यद्भूयसिक, (६) तत्पापीयसिक, (७) तिणवत्थारक ।
(इति) द्वितीय माणवार ॥२॥
यह आवुसो । उन भगवान्०ने ० ।
८—अष्टक—“आवुसो । उन भगवान्०ने आठ धर्म यथार्थ कहे है ० ।
१—आठ मिथ्यात्व (=झूठ)—मिथ्याद्रष्टि, मिथ्यासंकल्प, मिथ्यावाक्, मिथ्या-कर्मान्त, मिथ्याव्यायाम, मिथ्यास्मृति, मिथ्यासमाधि ।
२—आठ सम्यकत्व (=सच)—सम्यग्-दृष्टि, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यग्-आजीव, सम्यग्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति, सम्यक्-समाधि ।
३—आठ दक्षिणेय पुद्गल—स्त्रोत आपन्न, स्त्रोतआपत्ति-फल साक्षात्कार करनेमे तत्पर, सकृदागामी, सकृदागामी-फल-साक्षात्कार-तत्पर, अनागामी, अनागामी-फल-साक्षात्कार-तत्पर, अर्हत्, अर्हत्फल-साक्षात्कार-तत्पर ।
४—आठ कुसीत(=आलस्य) वस्तु—(१) यहॉ आवुसो । भिक्षुको (जब) कर्म करना होता है, उसके (मनमे) ऐसा होता है—‘कर्म मुझे करना है, किन्तु कर्म करते हुये मेरा शरीर तकलीफ पायेगा, क्यो न मै लेट (=चुप) रहूँ ।’ वह लेटता है, अप्राप्तकी प्राप्तिके लिये=अनधिगतके लिये, असाक्षात्कृतके साक्षात्कारके लिये उद्योग नही करता । यह प्रथम कुसीत-वस्तु है । (२) और फिर आवुसो । भिक्षु, कर्म किये होता है, उसको ऐसा होता है, मैने कामकर लिया, काम करते मेरा शरीर थक गया,
कयो न मै पळ रहूँ । वह पळ रहता है, ० उद्योग नही करता ० । (३) भिक्षुको मार्ग जाना होता है । उसको यह होता है—‘मुझे मार्ग जाना होगा, मार्ग जानेमे मेरा शरीर तकलीफ पायेगा, कयो न मै पळ रहूँ ।’ वह पळ रहता है, ० उद्योग नही करता ० । (४) ० भिक्षु मार्ग चल चुका होता है । उसको यह होता है—‘मै मार्ग चल चुका, मार्ग चलनेमे मेरे शरीरको बहुत तकलीफ हुई ० । (५) ० भिक्षुको ग्राम या निगममे पिंडचार करते सूखा-भला भोजन भी पूरा नही मिलता । उसको ऐसा होता है—‘मै ग्राम या निगममे पिंडचार करते सूखा-भला भोजन भी पूरा नही पाता, सो मेरा शरीर दुर्बल असमर्थ (होगया), कया न मै लेट रहूँ ० । (६) ० पिंडचार करते रुखा-सूखा भोजन यथेच्छ पा लेता है । उसको ऐसा होता है—मै ० पिंडचार करते रुखा-सूखा ० पाता हूँ, सो मेरा शरीर भारी है, अस्वस्थ है, मानो मासका ढेर है, कयो न पळ जाऊँ ० । (७) ० भिक्षुको थोळी सी (=अल्पमात्र) बीमारी उत्पन्न होती है, उसको यह होता है—यह मुझे अल्पमात्र बीमारी उत्पन्न हुई है, पळ रहना उचित है, कयो न मै पळ जाऊँ ० । (८) ० भिक्षु बीमारीसे उठा होता है, उसको ऐसा होता है, ० सो मेरा शरीर दुर्बल असमर्थ है, ० ।
५—आठ आरब्ध-वस्तु—(१) जब आवुसो । भिक्षुको कर्म करना होता है । उसको यह होता है—‘काम मुझे करना है, काम न करते हुये, बुद्धोके शासन (=धर्म)को मनमे लाना मुझे सुकर नही, कयो न मै अप्राप्तकी प्राप्तिके लिये=अनधिगतके अधिगमके लिये, अ-साक्षात्कृतके साक्षात्कारके लिये उद्योग करुँ ।’ सो ० उद्योग करता है, यह प्रथम आरब्ध-वस्तु है । (२) ० भिक्षु काम कर चुका होता है, उसको ऐसा होता है—‘मै काम कर चुका हूँ, कर्म करते हुये मै बुद्धोके शासनको मनमे न कर सका’, कयो न मै ० उद्योग करुँ ० । (३) ० भिक्षुको मार्ग जाना होता है । उसको ऐसा होता है ० । (४) ० भिक्षु मार्ग चल चुका होता है ० । (५) ० भिक्षु ग्राम या निगममे पिंडचार करते सूखा-भला भोजन भी पूरा नही पाता, ० सो मेरा शरीर हल्का कर्मण्य (=काम लायक) है ० । (६) ० सूखा-रुखा भोजन पूरा पाता है, ० सो मेरा शरीर बलवान्, कर्मण्य है ० । (७) भिक्षुको अल्पमात्र रोग उत्पन्न होता है, ० हो सकता है मेरी बीमारी बढ जाय, कयो न मै ० । (८) ० भिक्षु बीमारीसे उठा होता है, ० हो सकता है, मेरी बीमारी फिर लौट आवे, कयो न मै ० ।
६—आठ दान-वस्तु—(१) आसक्त हो दान देता है । (२) भयसे ० । (३) ‘मुझको उसने दिया है’—(सोच) दान देता है । (४) ‘देगा’ (सोच) ० । (५) ‘दान करना अच्छा है’ (सोच) ० । (६) ‘मै पकाता हूँ, ये नही पकाते, पकाते हुए न पकानेवालोको न देना अच्छा नही’ (सोच) देता है । (७) ‘यह दान देने’ से मेरा मंगलकीर्ति शब्द फैलेगा’ (सोच) देता है । (८) चित्तके अलंकार, चित्तके परिष्कारके लिये दान देता है ।
७—आठ दान-उपपत्ति (=उत्पत्ति)—(१) आवुसो । कोई कोई पुरुष, श्रमण या ब्राह्मणको अन्न, पान, वस्त्र, यान, माला, गध, विलेपन, शय्या, आवसथ (=निवास), प्रदीप दान देता है । वह, जो देता है, उसकी भी तारीफ करता है । वह क्षत्रिय महाशाल (=महाधनी) ब्राह्मण-महाशाल. गृहपति-महाशालको पाँच भोगो (=काम-गुणो)से समर्पित=संयुकत हो विचरते देखता है । उसको ऐसा होता है—अहो । मै भी काया छोळ मरनेके बाद क्षत्रिय-महाशालो०की स्थिति (=सहव्यता) मे उत्पन्न होऊँ । वह इसको चित्तमे धारण करता है, इसका चित्तमे अधिष्ठान (=दृढ संकल्प) करता है, इसकी चित्तमे भावना करता है । उसका वह चित्त, हीन (-उत्पत्ति) छोळ, उत्तमकी भावनाकर, वही उत्पन्न होती है । यह मै शीलवान् (=सदाचारी)का कहता हूँ, दु शीलका नही । आवुसो । विशुद्ध होनेसे शीलवानकी मानसिक प्रणिधि (=अभिलाषा) पूरी होती है । (२) और फिर आवुसो । ० दान देता है । वह जो देता है, उसकी प्रशंसा करता है । वह सुने होता है—चातुर्महाराजिक देव लोग दीर्घायु सुरुप, बहुत सुखी, (होते है) । उसको ऐसा होता है—अहो । मै शरीर छोळ मरनेके बाद
चातुर्महाराजिक देवोमे उत्पन्न होऊँ ० । (३) ० वह सुने होता―त्रायस्त्रिश देव लोग ० । (४) ० याम देव ० । (५) ० तुषित ० । (६) ० निर्माण-रति-देव ० । (७) ० परनिर्मित-वशवर्ती देव ० । (८) ब्रह्मकायिक देव ० ।
८―आठ परिषद्―क्षत्रिय-परिषद् । ब्राह्मण ० । गृहपति ० । श्रमण ० । चातुर्महाराजिक ० । त्रायस्त्रिश ० । मार ० । ब्रह्म ० ।
९―आठ अभिभ्वायतन―एक (पुरुष) अपने भीतर (=अध्यात्म) रुप-संज्ञी (=रुपकी लौ लगानेवाला) बाहर थोळे सुवर्ण दुर्वर्ण रुपोको देखता है, ‘उनको अभिभवन (=लुप्त)कर जानता हूँ, देखता हूँ―संज्ञावाला होता है। यह प्रथम अभिभ्वायतन है । (२) एक (पुरुष) अध्यात्ममे अरुप-संज्ञी, बाहर अप्रमाण (=अतिमहान्) सुवर्ण दुर्वर्ण रुपोको देखता है ० । (३) ० अध्यात्ममे अरुपसंज्ञी बाहर थोळे सुवर्ण दुर्वर्ण रुपोको देखता है ० । (५)० अध्यात्ममे अरुप-संज्ञी बाहर अप्रमाण सुवर्ण दुर्वर्ण रुपोको ० । (५) ० अध्यात्ममे अरुपसंज्ञी बाहर नील, नीलवर्ण, नील-निदर्शन नील-निर्भास रुपोको देखता है, जैसे कि नील, नीलवर्ण, नील-निदर्शन अलसीका फूल, या जैसे दोनो ओरसे रगळा (=पालिश किया) नीला० काशी वस्त्र । ऐसे ही अध्यात्ममे अरुप-संज्ञी बाहर नील ० रुपोको देखता है । उन्हे अभिभवनकर ० । (६) ० अध्यात्ममे अरुप-संज्ञी बाहर पीत (=पीला), पीतवर्ण, पीत-निदर्शन, पीत-निभास रुपोको देखता है, जैसे कि ० कर्णिकार पुष्प, या जैसे ० पीला ० बनारसी वस्त्र ० । (७) ० बाहर लोहित (=लाल) ० रुपोको देखता है, जैसे कि ० बधु-जीवक-पुष्प, या जैसे ० लोहित ० बनारसी वस्त्र ० । (८) ० ० बाहर अवदात (=सकेद) ० रुपोको देखता है, जैसे कि अवदात ० औषधी-तारका (=शुक्र), या जैसे अवदात ० बनारसी वस्त्र । ०
१०―आठ विमोक्ष―(१) (स्वंय) रुपी (=रुपवान्) रुपोको देखता है, यह प्रथम विमोक्ष है । (२) एक (पुरुष) अध्यात्ममे अरुपी-संज्ञी बाहर रुपोको देखता है ० । (३) सुभ (=शुभ्र) हीसे मुक्त (=अधिमुक्त) हुआ होता है ० । (४) सर्वथा रुप-संज्ञाको अतिक्रमण कर, प्रतिघ (=प्रति-हिंसा) संज्ञाके अस्त होनेसे, नानापनकी संज्ञा (=ख्याल) को मनमे न करनेसे, ‘आकाश अनन्त है’ इस आकाश-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है ० । (५) सर्वथा आकाशानन्त्यायतनको अतिक्रमण कर, ‘विज्ञान अनन्त है’ इस विज्ञान-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है ० । (६) सर्वथा विज्ञानानन्त्यायतनको अतिक्रमणकर, ‘किचित् (=कुछ भी) नही’ इस आकिचन्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है ० । (७) सर्वथा आकिंचन्यायतनको अतिक्रमणकर ‘नही संज्ञा है, न असंज्ञा’ इस नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतनको ० । (८) सर्वथा नैवसंज्ञा-नासंज्ञायतनको अतिक्रमणकर, संज्ञा-वेदयितनिरोध (=जहाँ होशका ख्याल ही लुप्त हो जाता है) को प्राप्त हो विहरता है ।
आवुसो । उन भगवान्०ने ० यह ।
९―नवक―“आवुसो । उन भगवान्०ने यह नव धर्म यथार्थ कहे है ० ।
१―नव आघात-वस्तु―(१) ‘मेरा अनर्थ (=बिगाळ) किया’, इसलिये आघात (=बदला-लेनेका ख्याल) रखता है । (२) ‘मेरा अनर्थ कर रहा है ० । (३) ‘मेरा अनर्थ करेगा ० । (४) ‘मेरे प्रिय=मनापका अनर्थ किया ० । (५) ० ० अनर्थ करता है ० । (६) ० ० अनर्थ करेगा ० । (७) ‘मेरे अ-प्रिय-अमनापके अर्थ (=प्रयोजन) को किया ० । (८) ० करता है ० । (९) ० करेगा ० ।
२―नव आघात-प्रतिविनय (=हटाना)―(१) ‘मेरा अनर्थ किया तो (बदलेमे अनर्थ करनेसे मुझे) कया मिलनेवाला है’ इससे आघातको हटाता है । (२) ‘मेरा अनर्थ करता है, तो कया मिलनेवाला है’ इससे ० । (३) ० करेगा ० । (४) मेरे प्रिय-मनापका अनर्थ किया, तो कया मिलनेवाला है ० । (५) ० अनर्थ करता है ० । (६) ० अनर्थ करेगा ० । (७) ‘मेरे अप्रिय=अमनापके अर्थको किया है ० । (८) ० करता है ० । (९) ० करेगा ० ।
३—नव सत्त्वावास (=जीवलोक)—(१) आवुसो । कोई सत्त्व नानाकाय (=०शरीर) और नाना संज्ञा (=नाम) वाले है, जैसे कि मनुष्य, कोई कोई देव, कोई कोई विनिपातिक (=पापयोनि), यह प्रथम सत्त्वावास है । (२) ० नाना-काय एक-संज्ञावाले, जैसे प्रथम उत्पन्न ब्रह्मकायिक देव । (३) ० एक-काय नाना-संज्ञावाले, जैसे आभास्वर देव लोग । (४) ० एक- काया एक संज्ञावाले, जैसे शुभकृत्स्न देव लोग । (५) ० संज्ञा-रहित, प्रतिवेदन (=होश)-रहित जैसे कि असंज्ञी-सत्त्व देव लोग । (६) रूप-संज्ञाको सर्वथा अतिक्रमण कर, प्रतिघ-संज्ञा (=प्रतिहिंसाके ख्याल) के अस्त होने, नानापन की संज्ञाको मनमे न करनेसे, ‘आकाश अनन्त है’ इस आकाश-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त है ० । (७) ० आकाशानन्त्यायतनको सर्वथा अतिक्रमण कर ‘विज्ञान अनन्त है’ इस विज्ञान-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त है ० । (८) ० विज्ञानानन्त्यायतनको सर्वथा अतिक्रमणकर ‘किचित् नही’ इस आकिचन्य-आयतनको प्राप्त है ० । (९) आवुसो । ऐसे सत्त्व है, (जो कि) आकिंचन्यायतनको सर्वथा अतिक्रमणकर, नैव-संज्ञा-नासंज्ञा (=न होश न बेहोश)–आयतनको प्राप्त है, यह नवम सत्त्वावास है ।
४—नव अक्षण=असमय (है) ब्रह्मचर्य-वासके लिये—(१) आवुसो । लोकमे तथागत अर्हत् सम्यक् सबुद्ध उत्पन्न होते है, और उपशम=परिनिर्वाणके लिये, सुगत (=सुन्दर गतिको प्राप्त—बुद्ध) द्धारा प्रवेदित (=साक्षात्कार किये) संबोधिगामी, धर्मको उपदेश करते है । (उस समय) यह पुद्गल (=पुरुष) निरय (=नर्क) मे उत्पन्न रहता है, यह प्रथम अक्षण० है। (२) और फिर यह तिर्यक्-योनि (=पशु पक्षी आदि) मे उत्पन्न रहता है ० । (३) प्रेत्य-विषय (=प्रेत-योनि) मे उत्पन्न हुआ होता है० । (४) ० असुर-काय (=असुर-योनि) ० । (५) दीर्धायु देव-निकाय (=देव-योनि) मे० । (६) ० प्रत्यन्त (=मध्य देशके बाहरके) देशोमे अ-पंडित म्लेच्छोमे उत्पन्न हुआ होता है, जहॉपर कि भिक्षुओकी गति (=जाना) नही, न भिक्षुणियोकी, न उपासकोकी, न उपासिकाओकी ० । (७) ० मध्यवेश (=मज्झिमजनपद) मे उत्पन्न होता है, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि (=उल्टीमत)—विपरीत-दर्शनका होता है—‘दान दिया (-कुछ) नही है, यज्ञ किया ०, हवन किया ०, सुकृत दुष्कृत कर्मोका फल—विपाक कुछ नही, यह लोक नही, परलोक नही, माता नही, पिता नही, औपपातिक (=अयोनिज) सत्त्व नही, लोकमे सम्यग्-गत (=ठिक रास्तेपर)=सम्यक्-प्रतिपत्र श्रमण ब्राह्मण नही, जो कि इस लोक और परलोकको स्वंय साक्षातकर, अनुभवकर, जाने ० । (८) ० मध्य-देशमे होता है, किन्तु वह है, दुष्प्रज्ञ, जळ=एड-मूक (=भेळसा गुँगा), सुभाषित दुर्भाषितके अर्थको जाननेमे असमर्थ, यह आठवाँ अक्षण है । (९) तथागत ० लोकमे उत्पन्न नही होते ० ० मध्य-देशमे उत्पन्न होता है. और वह प्रज्ञावान्, अजळ—अनेड-मूक होता है, सुभाषित दुर्भाषितके अर्थको जाननेमे समर्थ होत है ० ।
५—नव अनुपूर्व (=क्रमश)-विहार—(१) आवुसो । भिक्षु काम और अकुशल धर्मोसे अलग हो, वितर्क-विचार सहित विवेकज प्रीति सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । (२) ०१ द्वितीय ध्यान ० । (३) ० तृतीय-ध्यान ० । (४) ० चतुर्थ ध्यान ० । (५) ० आकाशानन्त्यायतनको प्राप्तहो विहरता है (६) विज्ञानानन्त्यायतन ० । (७) ० आकिचन्यायतन ० । (८) ० नैवसंज्ञानासज्ञायतन ० । (९) ० संज्ञा-वेदयित-निरोध ० ।
६—नव अनुपूर्व-निरोध—(१) प्रथम ध्यान प्राप्तको काम-संज्ञा (=कामपभोगका ख्याल) निरुद्ध (=लुप्त) होती है । (२) द्वितीय ध्यानवालेका वितर्क-विचार निरुद्ध होता है । (३) तृतीय ध्यानवालेकी प्रीति निरुद्ध होती है (४) चतुर्थ ध्यान-प्राप्तका आश्वास-प्रश्वास (=सॉस लेना) निरुद्ध होता है । (५) आकाशानन्त्यायतन प्राप्तकी रूप-संज्ञा निरुद्ध होती है । (६) विज्ञानानन्त्यायतन-
प्राप्तकी आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा ० । (७) आकिचन्यायतन-प्रात्पकी विज्ञानन्त्यायतन संज्ञा ०। (८) नैव-संज्ञा-नासंज्ञा-यतन-प्राप्तकी आकिचन्यायतन संज्ञा ० । (९) संज्ञा-वेदयित-निरोध-प्राप्तकी (=होश) और वेदना (=अनुभव) निरूद्ध होती है ।
(इति) तृतीय भाणवार ॥३॥
आवुसो । उन भगवान्०ने यह ० ।
१०—दशक—“आवुसो । उन भगवान्०ने दश धर्म यथार्थ कहे ० । कौनसे दश ॽ—
१—दश नाथ-करण धर्म—(१) आवुसो । भिक्षु शीलवान्, प्रातिमोक्ष (=भिक्षुनियम)-सवर (=कवच)से सवृत (=आच्छादित) होता है । थोळीसी बुराइयो (=वद्य) मे भी भय-दर्शी, आचार-गोचर-युक्त हो विहरता है, (शिक्षापदोको) ग्रहणकर शिक्षापदोको सीखता है । जो यह आवुसो । भिक्षु शीलवान्०, यह भी धर्म नाथ-करण (=न अनाथ करनेवाला) है । (२) ० भिक्षु बहु-श्रुत, श्रुत-घर, श्रुत-संचय-वान् होता है । जो वह धर्म- आदिकल्याण, मध्यकल्याण, पर्यवसान-कल्याण, सार्थक=सव्यजन है, (जिसे) केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य कहते है , वैसे धर्म, (भिक्षु) के बहुत सुने, ग्रहण किये, वाणीसे परिचित, मनसे अनुपेक्षित, दृष्टिसे सुप्रतिबिद्ध (=अन्तस्तल तक देखे) होते है, यह भी धर्म नाथ-करण होता है । (३) ० भिक्षु कल्याण-सहाय=कल्याण-सप्रवक होता है । जो यह भिक्षु कल्याण-मित्र० होता है, यह भी० । (४) ० भिक्षु सुवच, सौवचस्य (=मधुर-भाषिता)वाले धर्मोसे युक्त होता है । अनुशासनी (=धर्म-उपदेश) मे प्रदक्षिणग्राही=समर्थ (=क्षम) (होता है) यह भी० । (५) ० भिक्षु सब्रह्मचारियोके जो नाना प्रकारके कर्तव्य होते है, उनमे दक्ष=आलस्यरहित होता है, उनमे उपाय=विमर्शसे युक्त, करनेमे समर्थ=विधानमे समर्थ,होता है । ० यह भी० । (६) ० भिक्षु अभिधर्म (=सूत्रमे), अभि-विनय (=भिक्षु-नियमोमे) धर्म-काम (=धर्मेच्छु), प्रिय-समुदाहार (=दसरेके उपदेशको सत्कारपूर्वक सुननेवाला, स्वयं उपदेश करनेमे उत्साही), बळा प्रमुदित होता है, ० यह भी ० । (७) भिक्षु जैसे तैसे चीवर, पिंडपात, शयनासन, ग्लान-प्रत्यय-भैषज्य-परिष्कारसे सन्तुष्ट होता है ० । (८) ० भिक्षु अकुशल-धर्मोके विनाशके लिये, कुशल-धर्मोकी प्राप्तिके लिये उद्योगी (=आरब्ध-वीर्य) स्थामवान्=दृढपराक्रम होता है । कुशल-धर्मोमे अनिक्षिप्तघुर (=भगोळा नही) होता ०। (९)० भिक्षु स्मृतिमान्, अत्युत्तम स्मृति-परिपाकसे युक्त होता है, बहुत पुराने किये, बहुत पुराने कथितका भी स्मरण करनेवाला, अनुस्मरण करनेवाला होता है ० । (१०) ० भिक्षु प्रज्ञावान् उदय-अस्त-गामिनी, आर्य, निर्वेधिक (=अन्तस्तल तक पहुँचनेवाली), सम्यक्-दुख-क्षय-गामिनी प्रज्ञासे युक्त होता है ० ।
२—दश कृत्स्नायतन—(१) एक (पुरूष) ऊपर नीचे टेढे अद्वितीय (=एक मात्र) अप्रमाण (=अतिमहान्) पृथिवी-कृत्स्न (=सब कुछ पृथिवी है) जानता है । (२) ० आप-कृत्स्न ० । (३) ० तेज कृत्स्न ० । (४) ० वायु-कृत्स्न ० । (५) ० नील-कृत्स्न ० । (६) ० पीत-कृत्स्न ० । (७) ० लोहित-कृत्स्न ० । (८) ० अवदात-कृत्स्न ० । (९) ० आकाश-कृत्स्न ० । (१०) ० विज्ञान-कृत्स्न ० ।
३—दश अकुशलकर्म-पथ (=दुष्कर्म)—(१) प्राणातिपात (=हिंसा) । (२) अदत्तादान (=चोरी)। (३) काम-मिथ्याचार (=व्यभिचार) । (४) मृषावाद (=झूठ) । (५) पिशुन वचन (=चुगली) । (६) परूष-वचन (कटुवचन) । (७) सप्रलाप (=बकवास) । (८) अभिध्या (=लोभ) । (९) व्यापाद (=द्रोह) । (१०) मिथ्या-दृष्टि (=उल्टीमत) ।
४—दश कुशलकर्म-पथ (=सुकर्म)—(१) प्राणातिपात-विरति । (२) अदत्तादान-विरति । (३) काम-मिथ्याचार-विरती । (४) मृषावाद-विरति । (५) पिशुनवचन-विरति । (६) परूष-वचन-विरति। (७) सप्रलाप-विरति । (८) अन्-अभिध्या । (९) अ-व्यापाद । (१०) सम्यगदृष्टि ।
५—दश आर्य-वास—(१) आवुसो । भिक्षु पॉच अंगो (=बातो)से हीन (=पञ्चाड्ग-विप्रहीण) होता है । (२) छै अंगोसे युक्त (=षडग-युक्त) होता है । (३) एक रक्षा वाला होता है । (४) अपश्रयण (=आश्रय) वाला होता है । (५) पनुन्न-पच्चेकसच्च (=मतोके आग्रहका पूर्णतया त्यागी) होता है । (६) समवय-सट्ठेसन । (७) अन्-आविल (=अमलिन) -संकल्प ० (८) प्रश्रब्ध-कायसंस्कार ० । (९) सुविमुक्त-चित्त० । (१०) सुविमुक्त-प्रज्ञ ०।
(१) आवुसो । भिक्षु पॉच अंगोसे हीन कैसे होता है ॽ यहॉ आवुसो । भिक्षुका कामच्छन्द (=काम-राग) प्रहीण (=नष्ट) होता है, व्यापाद प्रहीण ०, स्त्यान-मृद्ध ०, औद्धत्य-कौकृत्य ०, विचिकित्सा ०। इस प्रकार आवुसो । भिक्षु पञ्चाङग-विप्रहीण होता है । (२) कैसे आवुसो । भिक्षु षडग-युक्त होता है ॽ आवुसो । भिक्षु चक्षुसे रुपको देख न सु-मन होता है, न दुर्मन, स्मृति-सप्रजन्य-युक्त उपेक्षक हो विहरता है । श्रोत्रसे शब्द सुनकर ० । घ्राणसे गंध सूँघकर ०। जिह्वासे रस चखकर ०, कायसे स्प्रष्टव्य छूकर ०, मनसे धर्म जानकर ० ० । (३) आवुसो । एकारक्ष कैसे होता है ॽ आवुसो । भिक्षु स्मृतिकी रक्षासे युक्त होता है । (४) आवुसो । भिक्षु कैसे चतुरापश्रयण होता है ॽ आवुसो । भिक्षु सख्यान (=समझ) कर एकको सेवन करता है, संख्यानकर एकको स्वीकार करता है, संख्यानकर एकको हटाता है, संख्यानकर एकको वर्जित करता है, ० । (५) आवुसो । भिक्षु कैसे पनुन्न-पच्चेक-सच्च होता है ॽ आवुसो । जो वह पृथक् (=उलटे) -श्रमण-ब्राह्मणोके पृथक् (=उलटे) प्रत्येक (=एक एक) सत्य (=सिद्धांत) होते है, वह सभी (उसके) पणुन्न=त्यक्त=वान्त=मुक्त=प्रहीण, प्रतिप्रश्रब्ध (=शमित) होते है ० । (६) आवुसो । कैसे ‘समवसट्ठेसन, (=सम्यग्-विसृष्टैषण) होता है ॽ आवुसो । भिक्षुकी काम-एषणा प्रहीण (=त्यक्त) होती है, भवएपणा ०, ब्रह्मचर्य-एषणा प्रशमित होती हे, ० । (७) आवुसो । भिक्षु कैसे अनाविल-संकल्प होता है ॽ आवुसो । भिक्षुका काम-संकल्प प्रहीण होता है, व्यापाद-संकल्प ०, हिंसा-संकल्प ० । इस प्रकार आवुसो । भिक्षु अनाविल (=निर्मल) -संकल्प होता है । (८) आवुसो । भिक्षु कैसे प्रश्रब्ध-काय-होता है ॽ ० भिक्षु ० १चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है, ० । (९) आवुसो । भिक्षु कैसे विमुक्त-चित्त होता है ॽ आवुसो । भिक्षुका चित्त रागसे मुक्त होता है, ०द्वेषसे विमुक्त होता है, ० मोहसे विमुक्त होता है, इस प्रकार ० । (१०) कैसे ० सुविमुक्त-प्रज्ञ होता है ॽ आवुसो । भिक्षु जानता है—‘मेरा राग प्रहीण हो गया, उच्छिन्न-मूल=मस्तकच्छिन्न-तालकी तरह, अभाव-प्राप्त, भविष्यमे उत्पन्न होनेके अयोग्य, हो गया है ।’ ० मेरा द्वेष ० । ० मेरा मोह ० । ० ।
६—दश अशैक्ष्य (=अर्हत्) -धर्म—(१) अशैक्ष्य सम्यग्-दृष्टि । (२) ० सम्यक्-संकल्प । (३) ० सम्यक्-वाक् । (४) ०सम्यक्-कर्मान्त । (५) ० सम्यक्-आजीव । (६) ० सम्यक्-व्यायाम । (७) ० सम्यक्-स्मृति । (८) ० सम्यक्-समाधि । (९) ० सम्यक्-ज्ञान । (१०) अशैक्ष्य सम्यक्-विमुक्ति ।
“आवुसो । उन भगवान०ने ० ।”
तब भगवान् ने उठकर आयुष्मान् सारिपुत्रको आमंत्रित किया—
“साधु, साधु, सारिपुत्र । सारिपुत्र तूने भिक्षुओके अच्छा सङगीति-पर्याय (=एकताका ढग) उपदेशा ।”
आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा; शास्ता (=बुद्ध) इससे सहमत हुए । सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओने (भी) आयुष्मान् सारिपुत्रके भाषणका अभिनन्दन किया ।