दीध-निकाय

34. दसुत्तर-सुत्त (३।११)

१—बौद्ध-मन्तव्यो की सूची उपकारक, भावनीय, परिज्ञेय, प्रहातव्य, हानभागीय विशेषभागीय, दुष्प्रतिवेघ्य, उत्पादनीय, अभिज्ञेय, साक्षात्करणीय घर्म,

ऐसा मैने सुना । एक समय भगवान् पाँचसौ भिक्षुओके बळे संघके साथ चम्पामे गग्गरा पुष्करणी के तीरपर विहार कर रहे थे ।

वहाँ आयुष्यमान् सारिपुत्रने भिक्षुओको आमंन्त्रित किया—“आवुसो भिक्षुओ ।”

“आवुस ।” कहकर उन भिक्षुओने ० उतर दिया ।

आयुष्यमान् सारिपुत्र बोले—

“निर्वाणकी प्राप्ति और दुखके अन्त करनेके लिये,

सारी गाँठोके खोलनेवाले दशोतर घर्मको कहता हूँ ॥१॥

१—बौद्ध मन्तव्यों की सूची१

१—एकक—आवुसो । (१) एक घर्म बहुत उपकारक है । (२) एक घर्म भावना करनेके योग्य है । (३) एक घर्म परिज्ञेय (=त्याज्य) है । (४) एक घर्म प्रहातव्य (=छोळ देने योग्य) है । (५) एक घर्म=हानभागीय है । (६) एक घर्म विशेष भागीय है । (७) एक घर्म दुष्प्रतिवेध्य (=समझनेमे अति कठिन) है । (८) एक घर्म उत्पादनीय है । (९) एक घर्म अभिज्ञेय (=विचारपूर्वक ज्ञातव्य) है । (१०) एक घर्म साक्षातकरणीय है ।

१—कौन एक घर्म बहुत उपकारक है ॽ कुशल घर्मोमे अप्रमाद । यही एक घर्म बहुत उपकारक है ।

२—कौन एक घर्मकी भावना करने योग्य है ॽ अनुकुल कायगत-स्मृति२ (प्राणायाम आदि चार घ्यान) । इसी एस घर्मकी भावना करनी चाहिये ।

३—कौन एक घर्म परिज्ञेय (=त्याज्य) है ॽ आस्त्रव (=चित-मल)-सहित उपादान किया जाननेवाला स्पर्श, यही एक घर्म परिज्ञेय है ।

४—कौन एक घर्म प्रहातव्य है ॽ अहभाव (=अहकार) यही एक घर्म प्रहातव्य है ।

५—कौन एक घर्म हानभागीय (=अवनतिकी ओर ले जानेवाला) है ॽ अ-योनिश मनस्कार ।०

६—कौन एक घर्म विशेषभागीय है ॽ योनिश मनस्कार (मूलके साथ विचारना) । ०

७—कौन एक घर्म दुष्प्रतिवेघ्य है ॽ आनन्तरिक चित-समाघि । ०

८—कौन एक घर्म उत्पादनीय है ॽ अ-कोप्य (=अटल) ज्ञान । ०

९—कौन एक धर्म अभिज्ञेय है ? सभी प्राणी आहारपर स्थित है । ०

१०—कौन एक धर्म साक्षातकरणीय है ? अ-कोप्य (=अटल) चित्तविमुक्ति ।

यही दस धर्म भूत (=वास्तविक) तथ्य—तथा—अवितथ, जन्-अन्यथा, (यथार्थ) और तथागत द्वारा ठीकसे अभिसम्बुद्ध (=बोध किये गये) है ।

२—द्विक—आवुसो । दो धर्म बहुत उपकारक है, दो धर्मोकी भावना करने योग्य है । दो धर्म परिज्ञेय है ० दो धर्म साक्षातकरणीय है ।

१—कौन दो धर्म बहुत उपकारक है? —स्मृति और सम्प्रजन्य । ०

२—कौन दो धर्म भावना करने योग्य है ? शमथ और विपश्यना । ०

३—कौन दो धर्म परिज्ञेय है ? नाम और रूप । ०

४—कौन दो धर्म प्रहातव्य है ? अविधा और भवतृष्णा (आवागमनका लोभ) । ०

५—कौन दो धर्म हानभागीय है ? दुर्वचन और पापोकी मित्रता । ०

६—कौन दो धर्म विशेषभागीय है ? सुवचन और कल्याणमित्रता । ०

७—कौन दो धर्म दुष्प्रतिवेध्य है ? सत्वोके सक्लेश (=मालिन्य) के जो हेतु=प्रत्यय, और विशुद्धिके हेतु-प्रत्यय ।

८—कौन दो धर्म उत्पादनीय है ? दो ज्ञान—क्षयका ज्ञान और उत्पादका ज्ञान ।

९—कौन दो धर्म अभिज्ञेय है ? दो धातु—संस्कृत (स्कंध आदि) और अ-संस्कृत (=अकृत निर्वाण) । ० ।

१०—कौन दो धर्म साक्षात-करणीय है ? विधा और विभुक्ति ।०

३—त्रिक—० तीन धर्म ० ।

१—कौन तीन धर्म बहुत उपकारक है ? सत्पुरुषसहवास, सद्धर्मश्रवण, धर्मानुसार-आचरण ।

२—कौन भावना करने योग्य है ? तीन समाधि—वितर्क विचार सहित समाधि, अवितर्करहित विचारमात्र समाधि, वितर्क-विचार-रहित समाधि । ० ।

३—कौन ० परिज्ञेय (=त्याज्य) है ? तीन वेदनाये—सुखा, दुखा, न सुखा न दुखा । ० ।

४—तीन धर्म प्रहातव्य है ? तीन तृष्णाये—कामतृष्णा और विभव-तृष्णा ।

५—कौन ० हान-भागीय ० ? तीन अकुशल-मूल (=पापोकी जळ) —लोभ, द्वेष और मोह । ० ।

६—कौन ० विशेषभागीय ? तीन कुशल-मूल—अ-लोभ, अ-द्वेष और अ-मोह । ०

७—कौन ० दुष्प्रतिवेध्य है ? तीन निस्सरणीय धातु—कामो (=भोगो) से निस्सरण निष्कामता है । रूपोसे निस्सरण अ-रूपता है । जो कुछ उत्पन्न—संस्कृत—प्रतीत्य-समुत्पन्न है उसका निस्सरण निरोध है । ०

८—कौन०उत्पादनीय है ? तीन ज्ञान—अतीत अंशमे, भविष्य अशमे, और वर्तमान अंशमे ।

९—कौन० अभिज्ञेय है ? तीन धातु—काम धातु, रूप-धातु, और अरूप-धातु । ० ।

१०—कौन० साक्षात्करणीय है ? तीन विधायें—पूर्वजन्मानुस्मृतिज्ञान, सत्वोके जन्म मरण का ज्ञान, आस्त्रवोके क्षय होनेका ज्ञान ।०

ये तीस धर्म भूत ०।

४—चतुष्क—०चार धर्म ०—

१—कौन चार धर्म बहुत उपकारक है ? चार चक्र—अनुकूल देशमे वास, सत्पुरुषका आश्रय, अपनी सम्यक् प्रणिधि (=ठीक अभिलाषा), पूर्वजन्मके पुण्य ।

२—कौन ० भावना करने योग्य है ॽ चार स्मृतिप्रस्थान—भिक्षु कायामे कायानुपश्यी होकर विहार करता है ० १ , वेदनामे वेदनानुपश्यी ० , चितमे ० , घर्ममे ० ।

३—कौन ० परिज्ञेय है ॽ चार आहार—स्थुल या सूक्ष्म कौर करके खाया जानेवाला आहार, स्पर्श ० , मन सचेतना ० , और विज्ञान ० ।

४—कौन ० प्रहातव्य है ॽ

चार ओघ (=बाढ)—काम-ओघ, भव-ओघ, दृष्टि-ओघ, और अविघा-ओघ ।

५—कौन ० हानभागीय ० ॽ चार योग (=मिलन)—काम-योग, भव-योग, दृष्टि-योग, और अविद्या-योग ।

६—कौन ० विशेषभागीय ० ॽ चार विसयोग (=वियोग)—कामयोग-विसयोग, भवयोग ०, दृष्टियोग ० और अविद्यायोग ० ।

७—कौन ० दुष्प्रतिवेघ्य ० ॽ चार समाघि—हानभागीय समाघि, स्थितिभागीय विशेष-भागीय समाघि, निर्वेघभागीय समाघि । ०

८—कौन उत्पादनीय है ॽ चार ज्ञान—घर्म-ज्ञान, अन्वय-ज्ञान, परिच्छेद-ज्ञान, सम्मति-ज्ञान ।०।

९—कौन अभिज्ञेय है ॽ चार आर्यसत्य—दुख, समुदय, निरोघ, मार्ग ।०

१०—कौन साक्षातकरणीय है ॽ चार श्रामण्यफल—स्त्रोतआपत्ति, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत्-फल । ०

ये चालीस घर्मभूत ० ।

५—पंचक—० पॉच घर्म ० ।

१—कौन ० पॉच घर्म बहुत उपकारक है ॽ पॉच प्रघान-अङग—(१) भिक्षु श्रद्धालु होता है, तथागतकी बोघिमे श्रद्धा रखता है—वे भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध ० । (२) नीरोग=आतंक रहित होता है, न अघिक शीतल न अघिक उष्ण समविपाकवाली योगाभ्यासके योग्य पाचनशकितसे युकत होता है । (३) शठ नही होता, मायावी नही होता, शास्ताके पास, विद्वानोके पास, या सब्रह्मचारियोके पास अपनेको यथार्थ यथाभूत प्रकट करता है । (४) अकुशल धर्मोको दूर करनेके लिये, कुशल घर्मोके उत्पादके लिये, साहसी दृढपराकम हो वीर्यवान् होकर विहार करता है । कुशल धर्मो स्थामवान्=दृढ-पराक्रमहो, भगोळा नही होता । (५) निर्वेधिक, उदयास्तगामिनी और सम्यक् दुखक्षयगामिनी आर्य प्रज्ञासे युकत होता है ।

२—कौन भावना करने योग्य है ॽ पॉच अडगोवाली सम्यक्-समाघि—प्रीति स्फुरण (=प्रीतिसे व्यापात होना), सुख ० , चित ० , आलोक ० , प्रत्यवेक्षण-निमित ।

३—कौन ० परिज्ञेय है ॽ पञ्च उपादान-स्कन्घ—रुप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान ० ।

४—कौन ० प्रहातव्य है ॽ पॉच नीवरण—कामच्छन्द ० (=भोगोका लोभ), व्यापाद (=द्रोह) ० , स्त्यान-मृद्ध (=काय-मनके आलस्य) , औद्धत्य—कौकृत्य(=हिचकिचाहट), विचिकित्सा (=संदेह) । ०

५—कौन ० हानभागीय ० ॽ पाँच चितके कील (=काँटे)—भिक्षु शास्ताके प्रति संदेह=विचिकित्सा करता है, उनके प्रति श्रद्धा नही रखता, प्रसन्न नही होता । उसका चित संयम,अनुयोग और प्रघान (=अनवरत अघ्यवसाय)की ओर नही झुकता । यह पहला चित्तका कील है । फिर भिक्षु

धर्मके प्रति संदेह ० । ० प्रधानकी ओर नही झुकता । यह दूसरा ० । संघके प्रति ० । शिक्षाके प्रति ० । सब्रह्मचारियोसे कुपित, असंतुष्ट, खिन्न, रहता है तथा उनके प्रति मनमे बुरे भाव रखता है । उसका चित्त० प्रधानकी ओर नही झुकता ।

६—कौन ० विशेषभागीय है ॽ पॉच इन्द्रियाँ—श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा ।

७—कौन ० अप्रतिवेध्य है ॽ पॉच निस्सरणीय धातु—(१) भिक्षु, कामो (=भोगो)मे मन करते वक्त नही दौळता, न प्रसन्न होता है, न स्थित होता है, न विमुक्त होता है । नैष्काम्य (=अनासक्ति, निष्कामता) मे मन करते वक्त दौळता है, प्रसन्न होता है, स्थित होता है, और विमुक्त होता है । उसका वह चित्त सु-गत, सु-भावित, सुव्यवस्थित, सुविमुक्त, कामोसे विमुक्त होता है और कामोके कारण जो आस्त्रव, विधात, परिदाह (=जलन) उत्पन्न होते है, वह उनसे मुक्त हो जाता है । वह उस वेदनाको नही झेलता । यही कामोका निस्सरण कहा गया है । (२) विपक्षके व्यापाद (=द्रोह) मे मन करते ० यही व्यापादका निस्सरण कहा गया है । (३) ० विहिसा ० । (४) ० रूप ० । (५) ० सत्काय मनमे करते ० ।

८—कौन उत्पादनीय है ॽ पाँच ज्ञान-संबंधी सम्यक्-समाधि—(१) यह समाधि वर्तमानमे सुखमय और भविष्यमे भी सुख देनेवाली है ।—ऐसा भीतर ज्ञान उत्पन्न होता है । यह समाधि आर्य और निरामिष (=निर्विषय) ० । यह समाधि कापुरूष (=अनुत्साही पुरूषो) द्वारा सेवित है ० । यह समाधि शान्त, प्रणीत, एकाग्रता प्राप्त और संस्कारोसे अबाधित है । सो, मै स्मृति-सहित इस समाधि-को प्राप्त होता हूँ, और स्मृति-सहित इससे उठता हूँ ० । ०

९—“कौन पॉच धर्म अभिज्ञेय है ॽ पॉच विमुक्ति-आयतन—आवुसो । भिक्षुको शास्ता (=गुरू) या दूसरा कोई पूज्य (=गुरूस्थानीय) सब्रह्मचारी धर्म उपदेश करता है, जैसे जैसे भिक्षुको शास्ता या दूसरा कोई गुरूस्थानीय स-ब्रह्मचारी धर्म उपदेश करता है, वैसे वैसे वह उस धर्ममे अर्थ समझता है, धर्म समझता है, अर्थ-संवेदी (=अर्थ समझनेवाला), धर्म-प्रतिसंवेदी हो, उसे प्रमोद प्राप्त होता है । प्रमुदित (पुरूष) को प्रीति पैदा होती है । प्रीतिमानकी काया प्रश्रब्ध (=स्थिर) होती है, प्रश्रब्ध-काय (पुरूष) सुखको अनुभव करता है । सुखीका चित्त एकाग्र होता है ।—यह प्रथम विमुक्ति-आयतन है । (२) और फिर आवुसो। भिक्षुको न शास्ता धर्म उपदेश करता है, न कोई दूसरा गुरू-स्थानीय सब्रह्मचारी, बल्कि यथाश्रुत (=सुने पढेके अनुसार), यथापर्याप्त (=धर्मग्रंथके अनुसार) (जैसे जैसे) दूसरोको धर्म उपदेश करता है ० । (३) ० बल्कि यथाश्रुत, यथापर्याप्त धर्मको विस्तारसे स्वाध्याय करता है ० । (४) ० बल्कि यथाश्रुत, यथापर्याप्त धर्मको चित्तसे अनुवितर्क करता है, अनुविचार करता है, मनसे सोचता है ० । (५) ० बल्कि उसको कोई एक समाधि-निमित्त सुगृहीत=सुमनसीकृत=सुप्रधारित (=अच्छी तरह समझा), औऱ प्रज्ञासे सुप्रतिबिद्ध (=तह तक जाना गया) होता है, जैसे जैसे आवुसो । भिक्षुको कई एक समाधि-निमित्त ० । ०

(१०) “कौन पॉच धर्म साक्षात्कर्त्तव्य है ॽ पाँच धर्मस्कन्ध—शीलस्कन्ध, समाधिस्कन्ध, प्रज्ञा०, विमुक्ति ०, विमुक्ति ज्ञानदर्शन स्कन्ध । यह पॉच धर्म साक्षात्कर्त्तव्य है ० ।

यही पचास धर्म भूत ० ।

६—षट्क—० छै धर्म ।

१—कौन छै धर्म बहुत उपकारक है ॽ

छै साराणीय धर्म—(१) जब आवुसो । भिक्षुको सब्रह्मचारियोमे गुप्त या प्रकट मैत्री युक्त कायिक कर्म उपस्थित होता है, यह भी धर्म साराणीय=प्रियकरण=गुरूकरण है, संग्रह, अ-विवाद, एकताके लिये है। (२) और फिर आवुसो । भिक्षुको ० मैत्री-युक्त वाचिक-कर्म उपस्थित होता है० । (३) ० मैत्री-युक्त मानस-कर्म्म ० । (४) भिक्षुके जो धार्मिक धर्म-लब्ध लाभ है—अन्तत पात्रमे

चूपळने मात्र भी, उस प्रकारके लाभोको बाँटकर भोगनेवाला होता है, शीलवान् स-ब्रह्म-चारियो सहित भोगनेवाला होता है, यह भी ० । (५) ० जो अखंड=अ-छिद्र, अ-शबल=अ-कल्मप, उचित (=भुजिस्स), विज्ञ-प्रशसित, अ-परामृष्ट (=अनिंदित), समाधिगामी शील है, वैसे शीलोसे स-ब्रह्मचारियोके साथ गुप्त और प्रकट शील-श्रामण्यको प्राप्त हो विहरता है, यह भी ० । (६) ० जो यह आर्य नैर्याणिक दृष्टि है, (जोकि) वैसा करनेवालेको अच्छी प्रकार दुख-क्षयकी ओर ले जाती हे, वेसी दृष्टिसे स-ब्रह्मचारियोके साथ गुप्त और प्रकट दृष्टि-श्रामण्यको प्राप्त हो विहरता हे, यह भी ० ।

२—कौन ० धर्म भावना करने योग्य है ॽ छै अनुस्मृतिस्थान—बुद्ध-अनुस्मृति, धर्म-अनुस्मृति, संघ-अनुस्मृति, शील-अनुस्मृति, त्याग-अनुस्मृति, देव-अनुस्मृति ।०

३—कौन ० धर्म परिज्ञेय है ॽ छै आध्यात्मिक आयतन—चक्षु-आयतन, श्रोत्र-आयतन, घ्राण-आयतन, जिह्वा-आयतन, काय-आयतन और मन-आयतन । ०

४—कौन ० प्रहातव्य है ॽ छै तृष्णा-काय (=० समूह)—रुप-तृष्णा, शब्द ०, गन्ध०, रस०, स्पर्श०, धर्म-तृष्णा । ०

५—कौन ० हानभागीय है ॽ छै अगौरव—भिक्षु शास्ता (=गुरु) मे गौरव सम्मान नही रखता । धर्म ० । संघ ० । शिक्षा ० । अप्रमाद ० । प्रतिसस्तार (=स्वागत) मे गौरव ० नही रखता ।०

६—कौन ० विशेषभागीय है ॽ छै गौरव ।—भिक्षु शास्तामे गौरव ० रखता है । धर्म ० । संघ ० । शिक्षा ० । अप्रमाद ० । प्रतिसस्तारमे गौरव रखता है । ०

७—कौन ० दुष्प्रतिवेध्य है ॽ छ निस्सरणीय धातु—(१) आवुसो । भिक्षु ऐसा बोले—‘मैने मैत्री चित्त-विमुक्तिको, भावित, बहुलीकृत (=बढाई), यानीकृत, वस्तु-कृत, अनुष्ठित, परिचित, सु-समारब्ध किया, किन्तु व्यापाद (=द्रोह) मेरे चित्तको पकळकर ठहरा हुआ है’ उसको ऐसा कहना चाहिये—आयुष्मान् ऐसा मत कहे, भगवानकी निन्दा (=अभ्याख्यान) मत करे, भगवानका अभ्याख्यान करना अच्छा नही है । (यदि वैसा होता तो) भगवान ऐसा नही कहते । यह मुमकिन नही, इसका अवकाश नही, कि मैत्री चित्त-विमुक्ति० सुसमारब्धकी गई हो, और तो भी व्यापाद उसके चित्तको पकळकर ठहरा रहे । यह संभव नही । आवुसो । मैत्री चित्त-विमुक्ति व्यापादका निस्सरण है । (२) यदि आवुसो । भिक्षु ऐसा बोले—‘मैने करुणा चित्त-विमुक्तिको भावित० किया, तो भी विहिसा मेरे चित्तको पकळकर ठहरी हुई है’ ।०। (३) आवुसो । यदि भिक्षु ऐसा बोले—‘मैने मुदिता चित-विमुक्तिको भावित० किया, तो भी अ-रति (=चित्त न लगना) मेरे चित्तको पकळकर ठहरी हुई है’ ।०। (४) ० उपेक्षा चित्तविमुक्तिको भावित० किया, तो भी राग मेरे चित्तको पकळे हुये है, ० । (५) अनिमित्तता चित्तविमुक्तिको भावित० किया, तो भी यह निमित्तानुसारी विज्ञान मुझे होता है’ ।०। (६) ० ‘अस्मि’ (=मै हूँ), मेरा चला गया, ‘यह मै हूँ नही देखता, तो भी विचिकित्सा (=संदेह) वाद-विवाद-रुपी शल्य चित्तको पकळे ही हुये है० ।’

८—कौन ० उत्पादनीय है ॽ अनित्त्य संज्ञा, अनित्त्यमे दुख-संज्ञा, दुखमे अनात्म-संज्ञा, प्रदाण ०, विराग ०, निरोध-संज्ञा ० ।

९—कौन ० अभिज्ञेय है ॽ छै अनुत्तर (=अनुपम)—दर्शन-अनुत्तर, श्रवण-अनुत्तर, लाभ-अनुत्तर, शिक्षा-अनुत्तर, परिचर्यानुत्तर, अनुश्रुतानुत्तर । ०

१०—कौन साक्षातकरणीय है ॽ छै अभिज्ञेय—भिक्षु अनेक प्रकारकी सिद्धियो (=ऋद्धि-बलो) को प्राप्त करता है ० १ ब्रह्मलोक तक को शरीरसे वशमे कर लेता है । अलौकिक दिव्य श्रोत-धातुसे

दिव्य और मानुप, दूर और निकटके दोनो शब्दोको सुनता है, दूरके दूसरे जीवो, और दूसरे मनुष्योके चितको अपने चितसे जान लेता है—सराग या विराग ० । अनेक प्रकारके पूर्व जन्मोको स्मरण करता है । आस्त्रवोके क्षयसे अनास्त्रव चिर्त्तावमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्तिको यही जान, और साक्षात्कार विहार करता है ।

ये साठ धर्म भूत ० ।

७—सप्तक—० सात धर्म ० ।

१—कौन सात धर्म बहुत उपकारक है ॽ सात आर्यधन—श्रद्धा, शील, ह्री (=पापकर्मोसे लज्जा), आत्म-संयम, ज्ञान, पुण्य और प्रज्ञा ।

२—कौन भावना करने योग्य है ॽ सात सम्बोध्यड्ग—स्मृति सम्बोध्यड्ग, धर्मविचय सम्बो-ध्यडग, वीर्य सम्बोध्यडग, प्रीति ०, प्रश्रब्धि ०, समाधि ०, उपेक्षा ० ।

३—कौन ० परिज्ञेय है ॽ सात विज्ञानस्थितियॉ—

सात विज्ञान-स्थिति—(१) आवुसो । (कोई कोई) सत्त्व (=प्राणी) नानाकाय नानासंज्ञा (=नाम)वाले है, जैसेकि मनुष्य, कोई कोई देव, कोई कोई विनिपातिक (=पापयोनि), यह प्रथम विज्ञान-स्थिति है । (२) ० नाना-काय किन्तु एक-संज्ञावाले, जैसे कि प्रथम उत्पन्न ब्रह्मकायिक देव ० । (३) एक-काया नाना-संज्ञावाले, जैसे कि आभास्वर देवता ० । (४) ० एक-काया एक-संज्ञावाले, जैसे कि शुभकृत्स्न देवता ० । (५) आवुसो । कोई कोई सत्त्व रुपसंज्ञाको सर्वथा अतिक्रमणकर, प्रतिघ (=प्रतिहिंसा) संज्ञाके अस्त होनेसे, नाना संज्ञाके मनमे न करनेसे ‘आकाश अनन्त है’ इस आकाश-आनत्य-आयतनको प्राप्त है, यह पॉचवी विज्ञानस्थिति है । (६) ० आकाशानन्तयायतनको सर्वथा अतिक्रमणकर, ‘विज्ञान अनन्त है’ इस विज्ञान-आन्त्य-आयतनको प्राप्त है, यह छठी विज्ञान-स्थिति है, (७) ० विज्ञानानन्तयायतनको सर्वथा अतिक्रमणकर ‘कुछ नही,’ इस आकिंचन्य-आयतनको प्राप्त है । यह सातवी विज्ञान-स्थिति है ।

४—कौन ० प्रहातव्यहे ॽ सात अनुशय—कामराग-अनुशय, प्रतिघ ०, दृष्टि ०, विचिकित्सा ०, मान ०, भव-राग ०, और अविद्या-अनुशय ।

५—कौन ० दानभागीय है ॽ सात असद्धर्म—भिक्षु अश्रद्ध होता है, अह्रीक ० , अन्-अप-त्रपी ० , अल्प-श्रुत ०, कुसीत ०, मूढ-स्मृति ०, दुष्प्रज्ञ ० ।

६—कौन ० विशेषभागीय है ॽ सात सद्धर्म—भिक्षु श्रद्धालु होता है, ह्रीमान् ० , अपत्रयी ०, बहुश्रुत ०, आरब्धवीर्य ०, उपस्थित-स्मृति ०, प्रज्ञावान् ० । ०

७—कौन ० दुप्प्रतिवेध्य है ॽ सात सत्पुरुष-धर्म—भिक्षु धर्मज्ञ होता है, अर्थज्ञ, आत्मज्ञ, मात्रज्ञ, कालज्ञ, पुरुषज्ञ, पुद्गल (=व्यकितज्ञ) ।

८—कौन ० उत्पादनीय है ॽ सात संज्ञायें—अनित्य-संज्ञा, अनात्म ०, अशुभ ०, आदिनव (दोष) , प्रहाण ०, विराग ०, और निरोध-संज्ञा । ०

९—कौन ० अभिज्ञेय है ॽ

सात१ निर्देश-वस्तु—(१) आवुसो । भिक्षु शिक्षा (=भिक्षु-नियम) ग्रहण करने मे तीव्र-

छन्द (=बहुत अनुरागवाला) होता है, भविष्यमे भी शिक्षा ग्रहण करनेमे प्रेम-रहित नही होता । (२) धर्म-निशांति (=विपश्यना)मे तीव्र-छन्द होता है, भविष्य मे भी धर्म-निशांति प्रेम-रहित नही होता । (३) इच्छा-विनय (=तृष्णा-त्याग)मे ० । (४) प्रतिसल्लयन (=एकातवास)मे ० । (५) वीर्यारम्भ (=उद्योग)मे ० । (६) स्मृतिके निष्पाक(=परिपाक)मे ० । (७) दृष्टि-प्रति-वेध (=सन्मार्ग-दर्शन)मे ० ।

१०—(१) फिर क्षीणास्त्रव भिक्षुका चित्त विवेककी ओर झुका=प्रवण=प्राग्भार होता है । (२) और विवेकमे स्थित होता है । (३) निष्कामतामे रत होता है । (४) आस्त्रवोके उत्पन्न करनेवाले सभी धर्मोसे रहित होता है । (५) ० चारो स्मृति प्रस्थान भावित होते है, सुभावित । ० (६) ० पाँच इन्द्रियाँ भावित और सुभावित होती है ० । (७) ० आर्य अष्टाड्गिक मार्ग भावित और सुभावित होते है ० । यह भी उसका बल होता है, जिसके सहारे वह जानता है कि मेरे सभी आस्त्रव क्षीण हो गये ।

ये सत्तर धर्म भूत ० ।

(इति) प्रथम माणवार ।।९।।

८—अष्टक—० आठ धर्म ० ।

१—“कौन ० बहुत उपकारक है ॽ आठ हेतु-प्रत्यय, जो कि अ-प्राप्त आदि-ब्रह्मचर्य (=शुद्ध सन्यास) सवधिनी प्रज्ञाकी प्राप्ति और प्राप्तकी वृद्धि, विपुलता और भावनाके पूरा करनेके लिये है । कौन आठ ॽ —(१) भिक्षु शास्ता या दूसरे गुरू-स्थानीय सब्रह्मचारिके आश्रयसे विहार करता है, जिससे उसमे तीव्र ह्री (=लज्जा)=अपत्रया, प्रेम और गौरव वर्तमान रहता है । यह प्रथम हेतु और प्रथम प्रत्यय ० भावना पूरा करनेके लिये है । (२) ० आश्रयसे विहार करता है ०, और समय समयपर उनके पास जाकर प्रश्नोको पूछता है—‘भन्ते । यह कैसे ॽ इसका क्या अर्थ है ॽ’ उसे वे आयुष्मान अ-स्पष्टको स्पष्ट, अ-सरलको सरल करते है, अनेक प्रकारसे शंका-स्थानीय बातोसे शंका दूर करते है । यह दूसरा हेतु ० । (३) उस धर्मको सुनकर शरीर और मन दोनोसे पालन करता है—यह तीसरा हेतु ० । (४) ० भिक्षु शीलवान् होता है, प्रातिमोक्ष सवर (=भिक्षुसयमो)से सयत होकर विहार करता है, आचारविहार-सम्पन्न होता है, थोळेसे भी दोषोमे भय देखता है, शिक्षापदोको मन लगाकर सीखता है । यह चौथा हेतु ० । (५) ० भिक्षु बहुश्रुत और श्रुतसचयी (=पढेको याद रखनेवाला) होता है । जो धर्म आदि-कल्याण, मध्य-कल्याण, अन्त-कल्याण—सार्थक=सव्यञ्जन है जो केवल=शुद्ध, परिपूर्ण ब्रह्मचर्यको प्रकाशित करते है, उस प्रकारके धर्म उसने बहुत सुने धारण किये होते है, वचनसे परिचित, मनसे आलोचित, दर्शनसे खुब अच्छी तरह जाने होते है । यह पाँचवॉ हेतु ० । (६) ०बुराइयो (=अकुशल धर्मो)के नाश (=प्रहाण)के और कुशल धर्मोको पैदा करनेके लिये, भिक्षु आरब्धवीर्य (=यत्नशील) होकर विहार करता है । ० । यह छठा हेतु० । (७) ०भिक्षु स्मृतिमान् होता है, परम स्मृति और प्रज्ञासे युक्त होता है । बहुत दिन पहले किये या कहेको स्मरण करता है । यह सातवॉ हेतु० । (८) ०भिक्षु पाँच उपादान-स्कन्धोके उदय (=उत्पत्ति) और व्यय (=विनाश)को देखते हुए विहार करता है—यह रूप है, यह रूपका समुदाय, यह रूपका अस्त हो जाना, यह वेदना०, संज्ञा ०, संस्कार ० और विज्ञान ० । यह आठवाँ हेतु ० ।

२—कौन ० भावना करने योग्य है ? आर्य अष्टाडगिक मार्ग—सम्यक् दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यग्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यग्-आजीव, सम्यग्-व्यायाम्, सम्यक्-स्मृति, सम्यक्-समाधि ।

३—कौन ० परिज्ञेय है ? आठ लोकधर्म—लाभ, अलाभ, यश, अयश, निन्दा, प्रशंसा, सुख, दुख ।०

४—कौन ० प्रहातव्य है ? आठ झूठी बाते—मिथ्या-दृष्टि, मिथ्या-संकल्प, मिथ्या-वाग्, मिथ्या-कर्मान्त, मिथ्या-अजीव, मिथ्या-व्यायाम, मिथ्या-स्मृति, मिथ्या-समाधि । ०

५—कौन ० हानभागीय है ?

आठ कुसीत (=आलस्य) वस्तु—यहॉ आवुसो । भिक्षुको (जब) कर्म करना होता है, उसके (मनमे) ऐसा होता है—‘कर्म मुझे करना है, किन्तु कर्म करते हुये मेरा शरीर तकलीफ पायेगा, क्यो न मै लेट (=चुप) रहूँ।’ वह लेटता है, अप्राप्तकी प्राप्तिके लिये—अनधिगतके अधिगमके लिये, असाक्षात्कृतके साक्षात्कारके लिये उद्योग नही करता । यह प्रथम कुसीत-वस्तु है । (२) और फिर आवुसो । भिक्षु, कर्म किये होता है, उसको ऐसा होता है, मैने कामकर लिया, काम करते मेरा शरीर थक गया, क्यो न मै पळ रहूँ । वह पळ रहता है, ० उद्योग नही करता० । (३) भिक्षुओ मार्ग जाना होता है। उसको यह होता है—‘मुझे मार्ग जाना होगा, मार्ग जानेमे मेरा शरीर तकलीफ पायेगा, क्यो न मै पळ रहूँ ।’ वह पळ रहता है, ० उद्योग नही करता० । (४) ० भिक्षु मार्ग चल चुका होता है । उसको यह होता है—‘मैं मार्ग चल चुका, मार्ग चलनेमे मेरे शरीरको बहुत तकलीफ हुई० । (५) ० भिक्षुको ग्राम या निगममे पिडचार करते सूखा-भला भोजन भी पूरा नही मिलता । उसको ऐसा होता है—‘मै ग्राम या निगममे पिडचार करते सूखा-भला भोजन भी पूरा नही पाता, सो मेरा शरीर दुर्बल असमर्थ (होगया), क्यो न मै लेट रहूँ,० । (६) ० पिडचार करते रूखा-सूखा भोजन यथेच्छ पा लेता है । उसको ऐसा होता है—मै ० पिंडचार करते रूखा-सूखा ० पाता हूँ, सो मेरा शरीर भारी है, अस्वस्थ है, मानो मासका ढेर है, क्यो न पळ जाऊँ० । (७) ० भिक्षुको थोळी सी (=अल्पमात्र) बीमारी उत्पन्न होती है, उसको यह होता है—यह मुझे अल्पमात्र बीमारी उत्पन्न हुई है, पळ रहना उचित है, क्यो न मैं पळ जाऊँ० । (८) ० भिक्षु बीमारीसे उठा होता है , उसको ऐसा होता है, ० सो मेरा शरीर दुर्बल असमर्थ है, ० ।

६—कौन ० विशेषभागीय ?

आठ आरब्ध वस्तु—यहाँ आवुसो । भिक्षुको कर्म करना होता है । उसको यह होता है—‘काम मुझे करना है, काम न करते हुये , बुद्धोके शासन (=धर्म) को मनसे लाना मुझे सुकर नही, क्यो न मै अप्राप्तकी प्राप्तिके लिये=अनधिगतके अधिगमके लिये, अ-साक्षात्कृतके साक्षात्कारके लिये उद्योग करूँ ।’ सो ० उद्योग करता है, यह प्रथम आरब्ध-वस्तु है । (२) ० भिक्षु काम कर चुका होता है, उसको ऐसा होता है—‘मै कामकर चुका हूँ, कर्म करते हुये मै बुद्धोके शासनको मनमे न कर सका’‚ क्यो न मै ० उद्योग करूँ ० । (३) ० भिक्षुको मार्ग जाना होता है । उसको ऐसा होता है० । (४) ० भिक्षु मार्ग चल चुका होता है ० । (५) ० भिक्षु ग्राम या निगममे पिंडचार करते सूखा-भला भोजन भी पूरा नही पाता, ० सो मेरा शरीर हल्का कर्मण्य (=काम लायक) है० । (६) ० सूखा-रूखा भोजन पूरा पाता है, ० सो मेरा शरीर बलवान्, कर्मण्य है० । (७) भिक्षुको अल्पमात्र रोग उत्पन्न होता है,० हो सकता है मेरी बीमारी बढ जाय, क्यो न मै० । (८) ० भिक्षु बीमारीसे उठा होता है, ० हो सकता है, मेरी बीमारी फिर लौट आये, क्यो न मै०१।

७—कौन ० दुष्प्रतिवेध्य है ? ब्रह्मचर्य-वासके आठ अक्षण=असमय (है) ब्रह्मचर्य-वासके लिये—(१) आवुसो । लोकमे तथागत अर्हत् सम्यक् सबुद्ध उत्पन्न होते है, और उपशम=परिनिर्वाणके लिये, सवोविगामी, सुगत (=सुन्दर गतिको प्राप्त=बुद्ध) द्वारा प्रवेदित (=साक्षात्कार किये) धर्मको उपदेश करते है, (उस समय) यह पुद्गल (=पुरुष) निरय (=नरक) मे उत्पन्न रहता है, यह प्रथम अक्षण ० है । (२) और फिर यह तिर्यक-योनि (=पशु पक्षी आदि) मे उत्पन्न रहता है० । (३) प्रेत्य-विषय (=प्रते-योनि) मे उत्पन्न हुआ होता है ० । (४) ० असुर-काय (=असुर-योनि) ० । (५) दीर्घायु देव-निकाय (=देव-योनि )मे ० । (६) ० प्रत्यन्त (=मध्य देशके बाहरके ) देशोमे अ-पडित म्लेच्छोमे उत्पन्न हुआ होता है, जहाँपर कि भिक्षुओकी गति (=जाना) नही, न भिक्षुणियोकी, न उपासकोकी, न उपासिकाओकी ० । (७) मध्यदेश (=मज्झिमजनपद)मे उत्पन्न होता हे, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि (=उत्टा मत) = विपरीत-दर्शनका होता है—दान दिया (-कुछ) नही है, यज्ञ किया ०, हवन किया ०, सुकृत दुष्कृत कर्मोका फल=विपाक नही, यह लोक नही, परलोक नही, माता नही, पिता नही, पिता नही, औपपातिक (=अयोनिज) सत्त्व नही, लोकमे सम्यग्-गत (=ठीक रास्तेपर)=सम्यक्-प्रतिपन्न श्रमण ब्राह्मण नही, जो कि इस लोक और परलोकको स्वयं साक्षात्कर, अनुभवकर, जाने ० । (८) ० मध्य-देशमे होता है, किन्तु वह है, दुष्प्रज्ञ, जळ=एड-मूक (=भेळसा गूँगा), सुभाषित दुर्भापितके अर्थको जाननेमे असमर्थ, यह आठवाँ अक्षण है । (९) तथागत ० लोकमे उत्पन्न नही होते ० ० मध्य-देशमे उत्पन्न होता है, और वह प्रज्ञा-वान्, अजळ=अनेड-मूक होता है, सुभाषित दुर्भाषितके अर्थको जाननेमे समर्थ होता है ० ।

८—कोन० उत्पाद्य है ? आठ महापुरुषवितर्क—यह धर्म अल्पेच्छो (त्यागियो) का हे, महेचछो-का नही, संतुष्टका, असंतुष्टका नही, एकान्तवासप्रियका, जनसमारोहप्रियका नही, उत्साहीका, आलसीका नही, उपस्थितस्मृतिका, मूढस्मृतिका नही, समहित (=एकाग्रचित) का, असमाहितका नही, प्रज्ञावानका, मूर्खका नही, प्रपञ्च-रहित पुरुषका, प्रपञ्चीका नही । ०

९—कौन ० अभिज्ञेय है ?

आठ अभिभ्वायतन—एक (पुरुष) अपने भीतर (=अध्यात्म) रुप-संज्ञी (=रुपकी लो लगानेवाला) बाहर थोळे सुवर्ण दुवर्ण रुपोको देखता है—‘उनको अभिभवन (=लुप्त) कर जानता हूँ, देखता हूँ’ इस संज्ञावाला होता है । यह प्रथम अभिभ्वायतन है । (२) एक (पुरुष) अध्यात्ममे अरुप-संज्ञी, बाहर अप्रमाण (=अतिमहान्) सुर्वर्ण दुर्वर्ण रुपोको देखता है ० । (३) ० अध्यात्ममे अरुपसज्ञी, बाहर सुवर्ण दुर्वर्ण रुपोको देखता है ० । (४) ० अध्यात्ममे अरुप-सज्ञी, बाहर अप्रमाण सुवर्ण दुर्वर्ण रुपोको ० । (५) ० अध्यात्ममे अरुपसज्ञी बाहर नील, नीलवर्ण, नील-निदर्शन, नील-निर्भास रुपोको देखता है, जैसे कि नील, नीलवर्ण, नील-निदर्शन अलसीका फूल, या जैसे दोनो ओरसे रगळा (=पालीश किया) नीला० काशीका वस्त्र, ऐसे ही अध्यात्ममे अरुप-सज्ञी बाहर नील ० रुपोको देखता है । उन्हे अभिभवनकर ० । (६) ० अध्यात्ममे अरुप-सज्ञी बाहर पीत (=पीला), पीत वर्ण, पीत-निदर्शन, पीत-निर्भास रुपोको देखता है, जैसे कि ० कर्णिकार पुष्प, या जैसे ० पीला ० काशीका वस्त्र ० । (७) ० ० बाहर लोहित (=लाल) ० रुपोको देखता है, जैसे कि ० बन्धु-जीवक पुष्प, या जैसे ० लोहित ० काशीका वस्त्र ० । (८) ० ० बाहर अवदात (=सफेद) ० रुपोको देखता है, जैसे कि अवदात ० ओषधी-तारक (=शुक्र), या जैसे अवदात ० बनारसी वस्त्र । ०

१०—किनको साक्षात् करना चाहिये ? आठ विमोक्ष—(१) (स्वयं) रुपी (=रुपवान्) रुपोको देखता है, यह प्रथम विमोक्ष है । (२) एक (पुरुष) अध्यात्ममे अरुपी-सज्ञी बाहर रुपोको देखता है ० । (३) सुभ (=शुभ्र) हीसे मुक्त (=अधिमुक्त) हुआ होता है ० । (४) सर्वथा रुप-सज्ञाको अतिक्रमण कर, प्रतिघ (=प्रतिहिंसा)–संज्ञाके अस्त होनेसे, नानापनकी संज्ञा (=ख्याल) के मनमे

न करनेसे, ‘आकाश अनन्त है’ इस आकाश-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है ० (५) सर्वथा आकाशानन्त्यायनको अतिक्रमण कर, ‘विज्ञान अनन्त है’ इस विज्ञान-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है ० । (६) सर्वथा विज्ञाना नन्त्यायतनको अतिक्रमणकर, ‘किंचित् (=कुछ भी) नही’ इस आकिंचन्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है ० । (७) सर्वथा आकिचन्यायतनको अतिक्रमणकर ‘नही सज्ञा है, न असज्ञा’ इस नैव-सज्ञा-न-असज्ञा-आयतनको ० । (८) सर्वथा नैवसज्ञा-नासज्ञायतनको अतिक्रमणकर, सज्ञा-वेदयितनिरोध (=जहॉ होशका ख्याल ही लुप्त हो जाता है)को प्राप्त हो विहरता है ।

ये अस्सी धर्म भूत ० ।

९—नवक—० नव धर्म ० ।

१—कौन बहुत उपकारक—ठीकसे मनमे लानेवाले नव धर्म हे ? ठीकसे मनमे लानेसे प्रमोद उत्पन्न होता है, प्रमुदितको प्रीति होती है, प्रीतियुक्त मनवालेका शरीर शान्त ० । शान्त शरीर वाला सुख अनुभव करता है, सुखीका चित्त एकाग्र होता है । एकाग्र चित्त ठीकसे जानता देखता है । ठीकसे जानते देखते निर्वेद (=उदासीनता) को प्राप्त होता हे । उदास हो विरक्त होता है । विरागसे मुक्त होता है । यह नव ० ।

२—कौन ० भावना करने योग्य है ? नव पारिशुद्धिप्रवानीय अड्ग—शील-विशुद्धि पारिशुद्धि प्राधानीय अड्ग, चित्त-विशुद्धि ०, दृष्टि ०, काक्षावितरण ०, मार्गामार्गज्ञान-दर्शन ०, प्रति-पदाज्ञानदर्शन ०, ज्ञानदर्शन ०, प्रज्ञा ०, विमुक्ति । ०

३—कौन ० परिज्ञेय है ? नव सत्वावास—नानाकाया और नानासंज्ञावाले सत्व है, जैसे—मनुष्य—कितने देव, और कितने औपपातिक । यह प्रथम सत्वावास है ।

० एकात्मसंज्ञा ० जैसे—प्रथम उत्पन्न बह्मकायिक देव । दूसरा ० ।

एककाया और नानासंज्ञा ० जेसे—आभास्वर देव । तीसरा ० ।

एककाया और एकसंज्ञा ०, जैसे—शुभकिकुत्स्न देव । यह चौथा ।

असंज्ञी और अप्रतिसवेदी सत्व है जैसे—असज्ञीसत्व देव । यह पॉचवॉ ।

सर्वश रुपसंज्ञाओके हट जानेसे, प्रतिघ संज्ञाके अस्त हो जानसे, नानात्मसंज्ञाओको ठीकसे मनमे न लानेसे, अनन्न आकाश करके आकाशानन्त्यायतनको प्रप्त करता है । यह छठा ।

सर्वँश आकाश०को छोळ अनन्त विज्ञान ० । यह सातवॉ ।

० नैनसंज्ञानासंज्ञाको प्राप्त करता है । यह नवॉ ।

४—कोन ० प्रहातव्य है ? नव तृष्णामूलक धर्म—तृष्णाके होनेसे खोजना, खोजनेसे पाना, ० विनिश्चय, ० छन्दराग, ० अध्यवसान, ० परिग्रह, ० मात्सर्य, ० आरक्षा, आरक्षाधिकरणके होनेसे दण्डादान, शस्त्रादान, कलह विग्रह, विवाद ‘तू तू, मै मै’ चुगली और झूठ बोलना होते है, अनेक पाप, अकुशल धर्म होने लगते है । ०

५—कोन ० हानभागीय है ? नव आघात (=द्वेष) वस्तु—‘मेरा अनर्थ किया हे,’ (सोच) द्वेष करता है ।’ अनर्थ करता हे,’ ०, ०करेगा० । मेरे प्रिय मनापका अनर्थ किया है ०, ०करता०, करेगा० ।

मेरे अ-प्रिय=अ-मनापका अर्थ किया ० करता० करेगा ।

६—कौन ० विशेष-भागीय है ? नव आघात-प्रतिविनय (=द्रोहका हटाना) मेरा अनर्थ किया, तो उससे क्या हुआ ?’ अपने द्वेषको दबाता है । ० करता है ० अनर्थ करेगा ० ।

० प्रिय=मनापका अनर्थ किया । ० करता ० करेगा ० ० अपने द्वेषको दबाता है ।

अप्रिय और अपमानका अर्थ किया । ० करता ० करेगा ० द्वेषको दबाता है ।

७—कौन०दुष्प्रतिवेध्य है ? नव नानत्त्व—धातुओके नानात्त्वसे स्पर्श नानात्त्व उत्पन्न होता है, स्पर्श-नानात्त्वसे ० वेदना-नानात्त्व उत्पन्न होता है, वेदना-नानात्त्वसे संज्ञा-नानात्त्व०, संज्ञा-नानात्त्वसे

संकल्प-नानात्व ०, संकल्प-नानात्वसे छन्द-नानात्व ०, छन्द-नानात्वसे परिदाह-नानात्व०, ० पर्येषण-नानात्व ०, ० लाभ-नानात्व ०, ०

८—कौन ० उत्पाद्य है ॽ नव संज्ञा—अशुभ, मरण, आहारमे प्रतिकूल, सारे संसारमे अ-रति, अनित्यमे दुख, दुखमे अनात्म, प्रहाण और विरागसंज्ञा ।

९—कौन अभिज्ञेय है ॽ नव अनपूर्व (=क्रमश) -विहार—(१) आवुसो । भिक्षु काम और अकुशल धर्मोसे अलग हो, वितर्क-विचार सहित विवेकज प्रीति सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । (२) ०१ द्वितीय ध्यान ० । (३) ० तृतीय-ध्यान ० । (३) ० तृतीय-ध्यान० । (४) ० चतुर्थ ध्यान ० । (५) ० आकाशानन्त्यायतनको प्राप्त हो विहरता है (६) विज्ञानानन्त्यायतन ० । (७) ० आकिचन्यायतन ० । (८) ० नैवसंज्ञाना-संज्ञायतन ० । (९) ० संज्ञा-वेदयित-निरोध ० ।

१०—कौन ० साक्षातकरणीय है ॽ नव अनुपूर्व-निरोध—(१) प्रथम ध्यान प्राप्तकी काम-संज्ञा (=कामोपभोगका ख्याल) निरुद्ध (=लुप्त) होती है । (२) द्वितीय ध्यानवालेका वितर्क-विचार निरुद्ध होता है । (३) तृतिय ध्यानवालेकी प्रीति निरुद्ध होती है (४) चतुर्थ ध्यान प्राप्तका आश्वास-प्रश्वास (=सॉस लेना) निरुद्ध होता है । (५) आकाशानन्त्यायतन प्राप्तकी रुप-संज्ञा निरुद्ध होती है । (६) विज्ञानानन्त्यायतन-प्राप्तकी आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा ० । (७) आकिचन्यायतन-प्राप्तकी विज्ञानानन्त्यायतन संज्ञा ० । (८) नैव-संज्ञा-नासज्ञायतन-प्राप्तकी आकिचन्यायतन संज्ञा ० । (९) सज्ञा-वेदयित-निरोध-प्राप्तकी संज्ञा (=होश) और वेदना (=अनुभव) निरुद्ध होती है ।

ये नब्बे धर्म भूत ० ।

(इति) तृतीय भाणवार ।।३।।

१०—दशक—०दश धर्म ० ।

(१) “कौन दश धर्म बहुत उपकारक है ॽ दश नाथ-करण धर्म—(१) आवुसो । भिक्षु शीलवान्, प्रातिमोक्ष (=भिक्षुनियम) -सवर (=कवच) से सवृत (=आच्छादित) होता है । थोळीसी बुराइयो (=वद्य) मे भी भय-दर्शी, आचार-गोचर-युक्त हो विहरता है, (शिक्षापदोको) ग्रहणकर शिक्षापदोको सीखता है । जो यह आवुसो । भिक्षु शीलवान्०, यह भी धर्म नाथ-करण (=न अनाथ करनेवाला) है । (२) ० भिक्षु बहु-श्रुत, श्रुत-घर, श्रुत-संचय-वान् होता है । जो वह धर्म आदि-कल्याण, मध्य-कल्याण, पर्यवसान-कल्याण, सार्थक=सव्यंजन है, (जिसे) केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य कहते है; वैसे धर्म, (भिक्षु) के बहुत सुने, ग्रहण किये, वाणीसे परिचित, मनसे अनुपेक्षित, दृष्टिसे सुप्रतिविद्ध (=अन्तस्तल तक देखे) होते है, यह भी धर्म नाथ-करण होता है । (३) ० भिक्षु कल्याण-मित्र=कल्याण-सप्रवक होता है । जो यह भिक्षु कल्याण-मित्र ० होता है, यह भी ० । (४) ० भिक्षु सुवच, सौवचस्य (=मधुरभाषिता) वाले धर्मोसे युक्त होता है । अनुशासनी (=धर्म-उपदेश) मे प्रदक्षिणग्राही=समर्थ (=क्षम) (होता है), यह भी ० । (५) ० भिक्षु सब्रह्मचारियोके जो नाना प्रकारके कर्तव्य होते है, उनमे दक्ष=आलस्य-रहित होता हे, उनमे उपाय=विमर्शसे युक्त, करनेमे समर्थ=विधानमे समर्थ, होता है । ० यह भी ० । (६) ० भिक्षु अभिधर्म (=सूत्रमे), अभि-विनय (=भिक्षु-नियमोमे) धर्म-काम (=धर्मेच्छु), प्रिय-समुदाहार (=दूसरेके उपदेशको सत्कारपूर्वक सुननेवाला, स्वयं उपदेश करनेमे उत्साही), बळा प्रमुदित होता है, ० यह भी ० । (७) भिक्षु जैसे तैसे चीवर, पिंडपात, शयनासन, ग्लान-प्रत्यय-

भैषज्य-परीष्कारसे सन्तुष्ट होता है ० । (८) ० भिक्षु अकुशल-धर्मोके विनाशके लिये, कुशल-धर्मोकी प्राप्तिके लिये उद्योगी (=आरब्ध-वीर्य) स्थामवान्=दृढपराक्रम होता है । कुशल-धर्मोमे अनिक्षिप्त धुर (=भगोळा नही) होता ० । (९) ० भिक्षु स्मृतिमान्, अत्युत्तम स्मृति-परिपाकसे युक्त होता है, बहुत पुराने किये, बहुत पुराने भाषण कियेका भी स्मरण करनेवाला, अनुस्मरण करनेवाला होता है ० । (१०) ० भिक्षु प्रज्ञावान् उद्य-अस्त-गामिनी, आर्य निर्बेधिक (=अन्तस्तल तक पहुँचनेवाली), सम्यक्-दुख-क्षय-गामिनी प्रज्ञासे युक्त होता है ० ।

२—कौन दश धर्म भावना करने योग्य है ?—दश कृत्स्नायतन—(१) एक (पुरूष) ऊपर नीचे आळे-बेळे अद्वितीय (=एक मात्र) अप्रमाण (=अतिमहान्) पृथिवी-कृत्स्न (=सव पृथिवी) जानता है । (२) ० आप-कृत्स्न ० । (३) ० तेज-कृत्स्न ० । (४) ० वायु-कृत्स्न ० । (५) ० नील-कृत्स्न ० । (६) ० पीत-कृत्स्न ० । (७) ० लोहित-कृत्स्न ० । (८) ० अवदात-कृत्स्न ० । (९) ० आकाश-कृत्स्न ० । (१०) ० विज्ञान-कृत्स्न ० ।

३—“कौन दश धर्म परिज्ञेय है ?—दश आयतन (=इन्द्रिय और विषय) । (१) चक्षु-आयतन, (२) रूप आयतन, (३) श्रोत ०, (४) शब्द ०, (५) घ्राण ०, (६) गंध ०, (७) जिह्वा ०, (८) रस ०, (९) काय-आयतन, (१०) स्प्रष्टव्य-आयतन ।

४—“कौन दश धर्म प्रहातव्य है ?—दश मिथ्यात्त्व (=झूठा) । (१) मिथ्या-दृष्टि (=झूठी धारणा), (२) मिथ्या-संकल्प, (३’) मिथ्या-वचन, (४) मिथ्या-कर्मान्त (=झूठा कारबार), (५) मिथ्या-आजीव (=झूठी रोजी), (६) मिथ्या-व्यायाम (=० उद्योग), (७) मिथ्या-स्मृति, (८) मिथ्या-समाधि, (९) मिथ्या-ज्ञान, (१०) मिथ्या-विमुक्ति । ०

५—“कौन दश धर्म हानभागीय है ?—दश अकुशल कर्मपथ (=दुष्कर्म) । (१) हिंसा, (२) चोरी, (३) व्यभिचार, (४) झूठ, (५) चुगली, (६) कटुभाषण, (७) बकवास, (८) लोभ, (९) द्रोह, (१०) मिथ्या-दृष्टि (=उल्टा मत) । ०

६—“कौन दश धर्म विशेषभागीय है ?—दश कुशल कर्मपथ (=पुण्यके कर्म) । (१) हिंसा-त्याग, (२) चोरी-त्याग, (३) व्यभिचारत्याग, (४) झूठत्याग, (५) चुगलीत्याग, (६) कटुभाषण-त्याग, (७) बकवासत्याग, (८) लोभ-त्याग, (९) द्रोह-त्याग, (१०) उल्टी मतका त्याग । ०

७—“कौन दस धर्म (=बाते) दुष्प्रतिवेध्य है ?—दश आर्यवास२ (१) आवुसो । भिक्षु पॉच अंगो (=बातो)से हीन (=पञ्चाडग-विप्रहीण) होता है । (२) छै अंगोसे युक्त (=पडग-युक्त) होता है । (३) एक आरक्षा वाला होता है । (४) अपश्रयण (=आश्रय) वाला होता है । (५) पनुन्न-पच्चेक-सच्च (होता है) । (६) समवयसट्ठेसन । (७) अन्-आविल (=अमलिन)-संकल्प० । (८) प्रश्रब्ध-काय-संस्कार० । (९) सुविमुक्त-चित्त० । (१०) सुविमुक्त-प्रज्ञ०। (१) आवुसो । भिक्षु कैसे पाँच अगोसे हीन होता है ? यहाँ आवुसो । भिक्षुका कामच्छन्द (=काम-राग) प्रहीण (=नष्ट) होता है, व्यापाद प्रहीण ०, स्त्यान-मृद्ध ०, औद्धत्य कौकृत्य ०, विचिकित्सा ० । इस प्रकार आवुसो । भिक्षु पञ्चाडग-विप्रहीण होता है । (२) कैसे आवुसो भिक्षु षडग-युक्त होता है ? आवुसो । भिक्षु चक्षुसे रूपको देख न सु-मन होता है, न दुर्मन, स्मृति-सप्रजन्य-युक्त उपेक्षक हो विहरता है । श्रोत्रसे शब्द सुनकर ० । घ्राणसे गंध सूँघकर ० । जिह्वासे रस चखकर ०, कायसे स्प्रष्टव्य छूकर ० , मनसे धर्म जानकर ० ० । (३) आवुसो । एकारक्ष कैसे होता है ? आवुसो । भिक्षु स्मृतिकी रक्षासे युक्त होता है । (४) आवुसो । भिक्षु कैसे चतुरापश्रयण होता है ? आवुसो । भिक्षु सख्यानकर (=समझकर) एकको करता

है, संख्यानकर एकको स्वीकार करता है, संख्यानकर एकको हटाता है, संख्यानकर एकको वर्जित करता है,० । (५) आवुसो । भिक्षु कैसे पनुन्न-पच्चेक-सच्च होता है ? आवुसो । जो वह (=उलटे) श्रमण-ब्राह्मणोके पृथक् (=उलटे) श्रमण-ब्राह्मणोके पृथक् (=उलटे) प्रत्येक (=एक एक) सत्य (=सिद्धांत) होते है, वह सभी (उसके) पणुन्न=त्यक्त=वान्त=मुक्त=प्रहीण, प्रतिप्रश्रब्ध (=शमित) होते है ० । (६) आवुसो । कैसे समवयसट्ठेसन, (=सम्यक्-विसृष्टैषण) होता है ? आवुसो । भिक्षुकी काम-एषणा प्रहीण (त्यक्त) होती है, भव-एषणा ०, ब्रह्मचर्य-एषणा प्रशमित होती है, ० । (७) आवुसो । भिक्षु कैसे अनाविल-सकल्प होता है ? आवुसो । भिक्षुका काम-सकल्प प्रहीण होता है, व्यापाद-संकल्प ०, हिंसा-संकल्प ० । इस प्रकार आवुसो । भिक्षु अनाविल (=निर्मल)-संकल्प होता है । (८) आवुसो । भिक्षु कैसे प्रश्रब्ध-काय होता है ? ० भिक्षु ० चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है, ० । (९) आवुसो । भिक्षु कैसे विमुक्त-चित्त होता है ? आवुसो । भिक्षुका चित्त रागसे विमुक्त होता है, ०द्वेषसे विमुक्त होता है, ०मोहसे विमुक्त होता है, इस प्रकार ० । (१०) कैसे ० सुविमुक्ति-प्रज्ञ होता है ? आवुसो । भिक्षु जानता है—‘मेरा राग प्रहीण हो गया, उच्छिन्न-मूल=मस्तकच्छिन्न-तालकी तरह, अभाव-प्राप्त, भविष्यमे उत्पन्न होनेके अयोग्य, हो गया है ।’ ० मेरा द्वेष ० । ० मेरा मोह ० । ० ।

८—“कौन दश धर्म उत्पादनीय है ?—दश संज्ञा (=ख्याल) । (१) अ-शुभसंज्ञा (=वस्तुओकी बनावटमे गदगी देखना), (२) मरण-संज्ञा, (३) आहारमे प्रतिकूलताका ख्याल, (४) सब संसारमे अनभिरति (=अनासक्ति)-संज्ञा, (५) अनित्य-संज्ञा, (६) अनित्यमे दुख-संज्ञा, (७) दुखमे अनात्म-संज्ञा, (८) प्रहाण(=त्याग)-सज्ञा, (९) विराग-संज्ञा, (१०) निरोध (=नाश)-संज्ञा० ।

९—“कौन दश धर्म अभिज्ञेय है ?—दश निर्जर (=जीर्ण करनेवाले, नाशक) वस्तु । (१) सम्यग्-दृष्टि (=ठीक मत) से इस (पुरूष) की मिथ्या-दृष्टि जीर्ण होती है, और जो मिथ्या-दृष्टिके कारण अनेक बुराइयाँ उत्पन्न होती है, वह भी उसकी जीर्ण होती है । सम्यग्-दृष्टिके कारण अनेक अच्छाइया (=कुशल धर्म=पुण्य) भावनाकी पूर्णताको प्राप्त होती है, (२) सम्यक्-संकल्पसे उसका मिथ्या-सकल्प जीर्ण होता है ० । (३) सम्यक्-वचनसे इसका मिथ्या-वचन जीर्ण होता है ० । (४) सम्यक्-कर्मान्त (=ठीक कारबार)से उसका मिथ्या-कर्मान्त जीर्ण होता है ० । (५) सम्यग्-आजीव (=ठीक रोजी)से उसका मिथ्या-आजीव जीर्ण होता है ० । (६) सम्यग्-व्यायाम (=ठीक उद्योग)से उसका मिथ्या-व्यायाम जीर्ण होता है ० । (७) सम्यक्-स्मृतिसे उसकी मिथ्या-स्मृति जीर्ण होती है ० । (८) सम्यक्-समाधिसे उसकी मिथ्या-समाधि जीर्ण होती है ० । (९) सम्यग्-ज्ञानसे उसका मिथ्या-ज्ञान जीर्ण होता है ० । (१०) सम्यग्-विमुक्ति (=ठीक मुक्ति)से उसकी मिथ्या-विमुक्ति जीर्ण होती है । और जो मिथ्या-विमुक्तिके कारण अनेक बुराइयॉ उत्पन्न होती है, वह भी उसकी जीर्ण होती है । सम्यग्-विमुक्तिके कारण अनेक अच्छाइयॉ भावनाकी पूर्णताको प्राप्त होती है । यह दश धर्म अभिज्ञेय है ।

१०—“कौन दश धर्म साक्षातकर्तव्य है ?—दश अशैक्ष्यधर्म—(१) अशैक्ष्य (=अर्हत्,=मुक्त पुरूष)-सम्यग्-दृष्टि, (२) ० सम्यक्-संकल्प, (३) ० सम्यग्-वाक्—(४) ० सम्यक्-कर्मान्त, (५) ० सम्यक्-आजीव, (६) ० सम्यग्-व्यायाम, (७) ० सम्यक्-स्मृति, (८) ० सम्यक्-समाधि, (९) ० सम्यग्-ज्ञान (१०) अ-शैक्ष्य सम्यग्-विमुक्ति । यह दश धर्म साक्षात्-कर्त्तव्य है ।

“इस प्रकार ये सौ धर्म (=वस्तुये) भूत, तथ्य=तथा=अ-वितथ=अन्-अन्यथा, सम्यक् (=यथार्थ) और तथागत द्वारा ठीकसे अभिसबुध्द (=बोध किये गये) है ।”

आयष्मान् सारिपुत्रने यह कहा । सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओने आयुष्मान् सारिपुत्रके भाषणका अभिनन्दन किया ।

(इति पाथिकवग्ग ॥३॥)

दीघनिकाय समाप्त ॥