दीध-निकाय

4. सोणदण्ङ-सुत्त (१।४)

१—ब्राह्ण बनानेवाले घर्म (जात-पात-खङन) । २—शील । ३—प्रज्ञा ।

ऐसा मैने सुना—एक समय पॉचसौ भिक्षुओके महाभिक्षु-संघके साथ भगवान् अग (देश)मे विचरते, जहॉ चम्पा है, वहॉ पहुँचे । वहॉ चम्पामे भगवान् गर्गरा (गग्गरा) पुष्करिणीके तीरपर विहार करते थे।

उस समय सोणदण्ङ (=स्वर्णदण्ड) ब्राह्ण, मगघराज श्रेणिक बिम्बिसार-द्वारा दत्त, जना-कीर्ण, तृण-काष्ठ-उदक-घान्य-सहित राज-भोग्य राज-दाय, ब्रह्मदेय, चम्पाका स्वामी था ।

चम्पा-निवासी ब्राह्मण गृहस्थोने सुना—शाकयकुलसे प्रब्रजित० श्रमण गौतम चम्पामे गर्गरा पुष्करिणीके तीर विहार कर रहे हे । उन भगवान् गौतमका ऐसा मंगल-कीर्ति-शब्द फैला हुआ है—०१ । इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है । तब चम्पा-वासी ब्राह्मण-गृहस्थ चम्पासे निकलकर झुङके झुङ जिघर गर्गरा पुष्करिणी है, उघर जाने लगे । उस समय सोणदण्ङ ब्राह्मण, दिनके शयनके लिये (अपने) प्रासादपर गया हुआ था । सोणदण्ङ ब्राह्मणने चम्पा-निवासी ब्राह्मण-गृहस्थोको ० जिघर गर्गरा पुष्करिणी है, उधर ० जाते देखा । देखकर क्षत्ता (=प्राइवेट सेक्रेटरी)को सम्बोघित किया—०१०।

उस समय चम्पामे नाना देशोके पाँच-सौ ब्राह्मण किसी कामसे वास करते थे । उन ब्राह्मणोने सुना—सोणदण्ङ ब्राह्मण श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जायेगा । तब वह ब्राह्मण जहॉ सोणदण्ङ ब्राह्मण था, वहॉ गये । जाकर सोणदण्ङ ब्राह्मणसे बोले—० २० ।

तब सोणदण्ङ ब्राह्मण महान् ब्राह्मण-गणके साथ, जहॉ गर्गरा पुष्करिणी थी, वहाँ गया । तब वनखङकी आळमे जानेपर, सोणदण्ङ ब्राह्मणके चित्तमे वितर्क उत्पन्न हुआ—‘यदि मै ही श्रमण गौतमसे प्रश्न पृछूँ, तब यदि श्रमण गौतम मुझे ऐसा कहे—ब्राह्मण । यह प्रश्न इस तरह नही पूछना चाहिये, ब्राह्मण । इस प्रकारसे, यह प्रश्न पूछा जाना चाहिये । तब यह परिषद् मेरा तिरस्कार करेगी—अज्ञ (=बाल)= अव्यक्त है, सोणदण्ङ ब्राह्मण, श्रमण गौतमसे ठीकसे (=योनिसो) प्रश्न भी नही पूछ सकता । जिसका यह परिषद् तिरस्कार करेगी, उसका यश भी क्षीण होगा । जिसका यश क्षीण होगा, उसके भोग भी क्षीण होगे । यशसे ही भोग मिलते है । और यदि मुझसे श्रमण गौतम प्रश्न पूछे, यदि मै प्रश्नके उत्तर द्वारा उनका चित्त सन्तुष्ट न कर सकूँ । तब मुझे, यदि श्रमण गौतम ऐसा कहे—ब्राह्मण । इस प्रश्नका ऐसे उत्तर नही देना चाहिये, ब्राह्मण । इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार देना चाहिये । तो यह परिषद् मेरा तिरस्कार करेगी ० । मै यदि इतना समीप आकर भी श्रमण गौतमको बिना देखे ही लौट जाऊँ, तो इससे भी यह परिषद् मेरा तिरस्कार करेगी—बाल=अव्यक्त है, मोणदण्ङ ब्राह्मण, मानी है, भयभीत है, श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जानेमे समर्थ नही हुआ । इतना समीप आकर भी श्रमण गौतमको बिना देखे ही, कैसे लौट गया ? जिसका यह परिषद् तिरस्कार करेगी ०।”

तब सोणदण्ङ ब्राह्मण जहॉ भगवान् थे, वहॉ गया, जाकर भगवानके साथ ० समोदन कर ०

एक ओर बैठ गया । चम्पा-निवासी ब्राह्मण-गृहपति भी—कोई कोई भगवानको अभिवादनकर एक ओर बैठ गये, कोई-कोई समोदनकर ०, कोई-कोई जिधर भगवान् थे, उधर हाथ जोळकर ०, कोई-कोई नाम गोत्र सुनाकर ०, कोई-कोई चुपचाप एक ओर बैठ गये ।

वहॉ भी सोणदण्ड ब्राह्मणके (चित्तमे) बहुतसा वितर्क उठ रहा था—‘यदि मै ही श्रमण गौतमसे प्रश्न पूछूँ ० । अहोवत । यदि श्रमण गौतम (मेरी) अपनी त्रैविघक पडिताईमे प्रश्न पूछता, तो मै प्रश्नका उत्तर देकर उसके चित्तको संतुष्ट करता ।’

१—ब्राह्मण बनानेवाले धर्म

तब सोणदण्ड ब्राह्मणके चित्तके वितर्कको भगवानने (अपने) चित्तसे जानकर सोचा—यह सोणदण्ड ब्राह्मण अपने चित्तसे मारा जा रहा है । क्यो न मे सोणदण्ड ब्राह्मणको (उसकी) अपनी त्रैविघक पडिताईमे ही प्रश्न पूछूँ । तब भगवानने सोणदण्ड ब्राह्मणसे कहा—

“ब्राह्मण । ब्राह्मण लोग कितने अंगो (=गुणो)से युक्त (पुरुष)को ब्राह्मण कहते है, और वह ‘मै ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ बोलनेवाला नही होता ?”

तब सोणदण्ड ब्राह्मणको हुआ—‘अहो । जो मेरा इच्छित=आकाक्षित=अभिप्रेत=प्रार्थित था—अहोवत । यदि श्रमण गौतम मेरी अपनी त्रैविघक पडिताईमे प्रश्न पूछता ० । सो श्रमण गौतम मुझसे अपनी त्रैविघक पडिताईमे ही पूछ रहा है । मै अवश्य प्रश्नोत्तरसे उसके चित्तको संतुष्ट करूँगा । तब सोणदण्द ब्राह्मण शरीरको उठाकर, परिषद्की ओर नजर दौळा भगवानसे बोला—

“हे गौतम । ब्राह्मण लोग पॉच अंगोसे युक्त (पुरुष)को, ब्राह्मण कहते है ० । कौनसे पाँच ?

(१) ब्राह्मण दोनो ओरसे सुजात हो ० । (२) अध्यायक (=वेदपाठी) मंत्रधर ० त्रिवेद-पारगत ० । (३) अभिरुप=दर्शनीय ० अत्यन्त (गौर) वर्णसे युक्त हो । (४) शीलवान्०। (५) पंडित, मेघावी, यज्ञ-दक्षिणा (=सुजा) ग्रहण करनेवालोमे प्रथम या द्वितीय हो । इन पॉच अंगोसे युक्तको ० ।”

“ब्राह्मण । इन पॉच अंगोमे एकको छोळ, चार अंगोसे भी ब्राह्मण कहा जा सकता है ० ?”

“कहा जा सकता है, हे गौतम । इन पॉच अंगोमेसे हे गौतम । वर्ण (३)को छोळते है । वर्ण (=रग) क्या करेगा । यदि ब्राह्मण दोनो ओरसे सुजात हो ० । अध्यायक, मंत्रधर० ० हो । शीलवान् ० हो ० । पंडित मेधावी ० हो । इन चार अंगोसे युक्तको, हे गौतम । ब्राह्मण लोग ब्राह्मण कहते है ० ।”

“ब्राह्मण । इन चार अंगोमेसे एक अंगको छोळ, तीन अंगोसे युक्तको भी ब्राह्मण कहा जा सकता है ० ?”

“कहा जा सकता है, हे गौतम । इन चारो अंगोमेसे हे गौतम । मंत्रो (=वेद) (२) को छोळते है । मंत्र क्या करेगे, यदि भो । ब्राह्मण दोनो ओरसे सुजात० हो । शीलवान्० हो । पंडित मेधावी ० हो । इन तीन अंगोसे युक्तको हे गौतम । ब्राह्मण कहते है ० ।”

“ब्राह्मण । इन तीन अंगोमेसे एक अंगको छोळ, दो अंगोसे युक्तको भी ब्राह्मण कहा जा सकता है ० ?”

“कहा जा सकता है, हे गौतम । इन तीनोमेसे हे गौतम । जाति (१) को छोडते है, जाति (=जन्म) क्या करेगी, यदि भो । ब्राह्मण शीलवान् ० हो । पंडित मेधावी ० हो । इन दो अंगोसे युक्तको ब्राह्मण कहते है ० ।”

ऐसा कहनेपर उन ब्राह्मणोने सोणदण्ड ब्राह्मणसे कहा—

“आप सोणदण्ड । ऐसा मत कहे, आप सोणदण्ड ऐसा मत कहे । आप सोणदण्ड वर्ण (=रग) का प्रत्याख्यान (=अपवाद) करते है, मंत्र (=वेद) का प्रत्याख्यान करते है, जाति (=जन्म) का प्रत्याख्यान करते है, एक अंशसे आप सोणदण्ड श्रमण गौतमके ही वादको स्वीकार कर रहे है ।”

तब भगवानने उन ब्राह्मणोसे कहा—

“यदि ब्राह्मणो । तुमको यह हो रहा है—सोणदण्ङ ब्राह्मण अल्पश्रुत है, ० अ-सुवक्ता है, ०

दुष्प्रज्ञ है । सोणदण्ङ ब्राह्मण इस बातमे श्रमण गौतमके साथ वाद नही कर सकता । तो सोणदण्ङ ब्राह्मण

ठहरे, तुम्ही मेरे साथ वाद करो । यदी ब्राह्मणो । तुमको ऐसा होता है— सोणदण्ङ ब्राह्मण वहुश्रुत है, ०

सुवक्ता है, ० पंङित है, सोणदण्ङ ब्राह्मण इस बातमे श्रमण गौतमके साथ वाद कर सकता है, तो तुम

ठहरो, सोणदण्ङ ब्राह्मणको मेरे साथ वाद करने दो ।”

ऐसा कहनेपर सोणदण्ङ ब्राह्मणने भगवानसे कहा—

“आप गौतम ठहरे, आप गौतम मोन धारण करे, मैही धर्मके साथ इनका उत्तर दूँगा ।”

तब सोणदण्ङ ब्राह्मणने उन ब्राह्मणोसे कहा—

“आप लोग ऐसा मत कहे, आप लोग ऐसा मत कहे—आप सोणदण्ङ वर्णका प्रत्याख्यान

करते है ० । मै वर्ण या मंत्र (=वेद) या जाति (=जन्म) का प्रत्याख्यान नही करता ।”

उस समय सोणदण्ङ ब्राह्मणका भांजा अंगक नामक माणवक उस परिषद्मे बैठा था । तब

सोणदण्ङ ब्राह्मणने उन ब्राह्मणोसे कहा—

“आप सब हमारे भांजे अंगक माणवकको देखते है ॽ”

“हॉ. भो ।”

“भो । (१) अंगक माणवक अभिरूप दर्शनीय प्रासादिक, परम (गौर) वर्ण पुष्कलतासे युक्त ० दै । इस परिषद्मे श्रमण गौतमको छोळकर, वर्ण (=रग) मे इसके बराबरका (दूसरा) कोई नही है । (२) अंगक माणवक अध्यायक, (=वेद-पाठी) मंत्रधर निघण्टु-कल्प-अक्षरप्रमेद-सहित तीनो वेद और पाँचवे इतिहासमे पारगत है, पदक (=कवि), वैयाकरण, लोकायत-महापुरुष-लक्षण-(शास्त्रो) मे निपुण है । मैही उसे मंत्रो (=वेद) को पढानेवाला हूँ । (३) अंगक माणवक दोनो ओरसे सुजात है ०। मै इसके माता पिता दोनोको जानता हुँ ०। (यदि) अंगक माणवक प्राणोको भी मारे, चोरी भी करे, परस्त्रीगमन भी करे, मृषा (=झूठ) भी बोले, मध भी पीवे । यहाँपर अब भी। वर्ण क्या करेगा ॽ मंत्र और जाति क्या (करेगी) ॽ जब की ब्राह्मण (१) शीलवान् (=सदाचारी) बृध्दशील (=बढे शीलवाला), बृध्दशीलतासे युक्त होता है, (२) पंङित और मेधावी होता है, सुजा (=यज्ञ-दक्षिणा) – ग्रहण करनेवालोमे प्रथम या ध्दितीय होता है । इन दोनो अंगोसे युक्तको ब्राह्मण लोग ब्राह्मण कहते है । (वह) ‘मै ब्राह्मण हूँ’ कहते, सच कहता है, झूठ बोलनेवाला नही होता ।”

“ब्राह्मण । इन दो अंगोमेंसे एक अंगको छोळ, एक अंगसे युक्तको भी ब्राह्मण कहा जा सकता है ॽ ०।”

“नही, हे गौतम । शीलसे प्रक्षालित है प्रज्ञा (=ज्ञान) । प्रज्ञासे प्रक्षालित है शील (=आचार) ।

जहॉ शील है, वहॉ प्रज्ञा है, जहॉ प्रज्ञा है, वहॉ शील है । शीलवान्को प्रज्ञा (होती है), प्रज्ञावानको शील । किन्तु। शील लोकमे प्रज्ञाओका अगुआ (=अग्र) कहा जाता है । जैसे हे गौतम । हाथसे हाथ धोवे, पैरसे पैर धोवे, ऐसेही हे गौतम। शील-प्रक्षालित प्रज्ञा है ०।”

“यह ऐसाही है, ब्राह्मण । शील-प्रक्षालित प्रज्ञा है, प्रज्ञा-प्रक्षालित शील है । जहॉ शील हे, वहॉ प्रज्ञा, जहॉ प्रज्ञा है वहॉ शील । शीलवानको प्रज्ञा होती है, प्रज्ञावानको शील । किन्तु लोकमे शील प्रज्ञाका सर्दार कहा जाता है । ब्राह्मण । शील क्या है ॽ प्रज्ञा क्या है ॽ”

“हे गौतम । इस विषयमे हम इतनाही भर जानते है । अच्छा हो यदि आप गौतमही ... (इसे कहे) ।”

“तो ब्राह्मण । सुनो, अच्छी तरह मनमे करो, कहता हूँ ।”

“अच्छा भो । ” (कह) सोणदण्ड ब्राह्मणने भगवानको उत्तर दिया । भगवानने कहा—

२—शील

“ब्राह्मण । तथागत लोकमे उत्पन्न होते१ ० । इस प्रकार भिक्षु शीलसम्पन्न होता है । यह भी ब्राह्मण वह शील है ।

३—प्रज्ञा

“० प्रथम ध्यान ०१ । ० द्वितीय ध्यान ० । ० तृतीयध्यान ० । ० चतुर्थध्यान ० । ० ज्ञानदर्शनके लिये चित्तको लगाता है ० । ० अब कुछ यहॉ करनेको नही है’ यह जानता है । यह भी उसकी प्रज्ञामे है । ब्राह्मण । यह है प्रज्ञा ।”

ऐसा कहनेपर सोणदण्ड ब्राह्मणने भगवानसे यह कहा—

“आश्चर्य । हे गौतम ।। आश्चर्य । हे गौतम ।। ०२ । आजसे आप गौतम मुझे अजलिबद्ध शरणागत उपासक धारण करे । भिक्षु-संध सहित आप मेरा कलका भोजन स्वीकार करे ।”

भगवानने मौनसे स्वीकार किया । तब सोणदण्ड ब्राह्मण भगवानकी स्वीकृति जान, आसनसे उठकर, भगवानको अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चला गया । ० ।

तब सोणदण्ड ब्राह्मणने उस रातके बीतनेपर अपने घरमे उत्तम खाध-भोज्य तय्यार करा भगवानको काल सूचित किया—‘हे गौतम । (चलनेका) काल है, भोजन तय्यार है’ ।

तब भगवान् पूर्वाहण समय पहिनकर, पात्र-चीवर ले भिक्षु-संघके साथ जहॉ ब्राह्मण सोणदण्डका घर था, वहाँ गये । जाकर बिछे आसन पर बैठे । तब सोणदण्ड ब्राह्मणने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको अपने हाथसे उत्तम खाध-भोज्य द्धारा सतर्पित=सप्रवारित किया । तब सोणदण्ड ब्राह्मण भगवानके भोजन कर पात्रसे हाथ हटा लेनेपर, एक छोटा आसन ले, एक ओर बैठा गया । एक ओर बैठे हुए सोणदण्ड ब्राह्मणने भगवानसे कहा—

“यदि हे गौतम । परिषदमे बैठे हुए मै आसनसे उठकर, आप गौतमको अभिवादन करू, तो मुझे वह परिषद तिरस्कृत करेगी । वह परिषद् जिसका तिरस्कार करेगी, उसका यश भी क्षीण होगा । जिसका यश क्षीण होगा, उसका भोग भी क्षीण होगा । यशसे ही तो हमारे भोग मिले है । मै यदि हे गौतम । परिषद्मे बैठे हाथ जोळुँ, तो उसे आप गौतम मेरा प्रत्युपस्थान (=खळा होना) समझे । मै यदि हे गौतम । परिषद्मे बेठा साफा (=वेष्ठन) हटाऊँ, उसे आप गौतम मेरा शिरसे अभिवादन समझे । मै यदि हे गौतम । यानमे बैठा हुआ, यानसे उतरकर, आप गौतमको अभिवादन करूँ, उससे वह परिषद् मेरा तिरस्कार करेगी ० । मै यदि हे गौतम । यानमे बैठाही पतोद-लट्ठी (=कोळेका डंडा) ऊपर उठाऊँ, तो उसे आप गौतम मेरा यानसे उतरना धारण करे । यदि मै हे गौतम । यानमे बैठा हाथ उठाऊँ, उसे आप गौतम मेरा शिरसे अभिवादन स्वीकार करे ।”

तब भगवान् सोणदण्ड ब्राह्मणको धार्मिक-कथासे ० समुत्तेजित ० कर, आसनसे उठकर चल दिये ।