दीध-निकाय
5. कुटदन्त-सुत्त (१।५)
१—बुद्धकी प्रंशसा । २—अहिंसामय-यज्ञ (महाविजित जातकका)—(१) बहुसामग्रीका यज्ञ; (२) अल्प सामग्रीका महान् यज्ञ ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओके महा-भिक्षु-संघके साथ मगध देशमे विचरते, जहाँ खाणुमत नामक मगधका ब्राह्मण-ग्राम था, वहॉ गये । वहॉ भगवान् खाणुमतमे अम्बलट्ठिका (=आम्रयष्टिका) मे विहार करते थे ।
उस समय कुटदन्त ब्राह्मण, मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार द्वारा दत्त, जनाकीर्ण, तृण-काप्ट-उदक-धान्य-सम्पन्न राज-भोग्य राज-दाय, ब्रह्मदेय खाणुमतका स्वामी होकर रहता था । उस समय कुटदन्त ब्राह्मणको महायज्ञ उपस्थित हुआ था । सात सौ बेल, सातसौ बछळे, सातसौ वछळियॉ, सातसौ बकरियाँ, सातसौ भेळे यज्ञके लिये स्थूण (=खम्भा) पर लाई गई थी ।
खाणुमत-वासी ब्राह्मण गृहस्थोने सुना—शाक्य कुलसे प्रब्रजित शाक्य-पुत्र श्रमण गौतम ० अम्बलट्ठिकामे विहार करते है । उन आप गौतमका ऐसा मंगलकीर्ति-शब्द फैला हुआ है—वह भगवान् अर्हत्, सम्यक्-सबुद्ध, विद्या-आचरण-युक्त, सुगति-प्राप्त, लोकवेत्ता, पुरूषोके अनुपम चाबुक सवार, देव-मनुष्यके उपदेशक, बुद्ध भगवान् है, इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है । तब खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थ खाणुमतसे निकलकर, झुण्डके झुण्ड जिधर अम्बलट्ठिका थी, उधर जाने लगे । उस समय कुटदन्त ब्राह्मण प्रासादके ऊपर, दिनके शयनके लिये गया हुआ था । कुटदन्त ब्राह्मणने खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थोको झुण्डके झुण्ड खाणुमतसे निकलकर, जिधर अम्बलट्ठिका थी, उधर जाते देखा । देखकर क्षत्ता। (=प्राइवेट सेकटरी) को सम्बोधित किया—
“क्या है, हे क्षत्ता । (जो) ० खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थ ० अम्बलट्ठिकामे जा रहे है ?”
“भो । शाक्य कुलसे प्रब्रजित ० श्रमण गौतम ० अम्बलट्ठिकामे विहार कर रहे है । उन गौतम-का ऐसा मंगलकीर्ति-शब्द फैला हुआ है ० । उन्ही आप गौतमके दर्शनार्थ जा रहे है ।”
तब कुटदन्त ब्राह्मणको हुआ—‘मैने यह सुना है, कि श्रमण गौतम सोलह परिष्कारोवाली विविध यज्ञ-सम्पदा (=यज्ञविधि) को जानता है । मै महायज्ञ करना चाहता हूँ । क्यो न श्रमण गौतमके पास चलकर, सोलह परिष्कारोवाली विविध यज्ञ-सम्पदाको पूछूँ ?’ तब कुटदन्त ब्राह्मणने क्षत्ताको सम्बोधित किया—
“तो हे क्षत्ता । जहाँ खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थ है, जाओ । जाकर खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थोसे ऐसा कहो—कुटदन्त ब्राह्मण ऐसा कह रहा है ‘थोळी देर आप सब ठहरे, कुटदन्त ब्राह्मण भी, श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जायेगा ।”
कुटदन्त ब्राह्मणको--‘अच्छा भो । ’ कह क्षत्ता वहाँ गया, जहाँ कि खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थ थे । जाकर ० बोला--‘कुटदन्त ०’ ।
उस समय कई सौ ब्राह्मण कुटदन्तके महायज्ञका उपभोग करनेके लिये खाणुमतमें वास करते थे ।
उन ब्राह्मणोने सुना—कुटदन्त ब्राह्मण श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जायेगा । तब वह ब्राह्मण जहॉ कुटदन्त ० था वहॉ गये । जाकर कुटदन्त ब्राह्मणसे बोले—“सचमुच आप कुटदन्त श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जायेगे ॽ”
“हाँ भो । मुझे यह (विचार) हो रहा है (कि) मै भी श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जाऊँ ।”
“आप कुटदन्त श्रमण गौतमके दर्शनार्थ मत जाये । आप कुटदन्त श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जाने योग्य नही है । यदि आप कुटदन्त श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जायेगे, (तो) आप कुटदन्तका यश क्षीण होगा, श्रमण गैतमका यश बढेगा । चूँकि आप कुटदन्तका यश क्षीण होगा, श्रमण गौतमका बढेगा, इस बात (=अंग)से भी आप कुटदन्त श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जाने योग्य नही है । श्रमण गौतम ही आप कुटदन्तके दर्शनार्थ आने योग्य है ० । आप कुटदन्त बहुतोके आचार्य-प्राचार्य है, तीनसौ माणवकोको मंत्र (=वेद) पढाते है । नाना दिशाओसे, नाना देशोसे बहुतसे माणवक (=विधार्थी) मंत्रके लिये, मंत्र-पढनेके लिये, आप कुटदन्तके पास आते है ० । आप कुटदन्त जीर्ण=बुद्ध=महल्लक=अध्वगत वय प्राप्त है । श्रमण गौतम तरूण है, तरूण साधु है ० । आप कुटदन्त मगधराज श्रेणिक बिम्बिसारसे सत्कृत=गुरूकृत=मानित=पूजित=अपचित है ० । आप कुटदन्त ब्राह्मण पौष्कर-सातिसे सत्कृत ० है ० । आप कुटदन्त ० खाणुमतके स्वामी है ० । इस बातसे भी आप कुटदन्त श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जाने योग्य नही है, श्रमण गौतम ही आपके दर्शनार्थ आने योग्य है ।”
१—बुद्धको प्रशंसा
ऐसा कहनेपर कुटदन्त ब्राह्मणने, उन ब्राह्णोसे यह कहा—
“तो भो । मेरी भी सुनो, कि क्यो हमी श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जाने योग्य है, आप श्रमण गौतम हमारे दर्शनार्थ आने योग्य नही है । श्रमण गौतम भी । दोनो ओरसे सुजात है ०, इस बातसे भी हमी श्रमण गौतमके दर्शनार्थ जाने योग्य है, आप श्रमण गौतम हमारे दर्शनार्थ आने योग्य नही । श्रमण गौतम बळे भारी जाति-संघको छोळकर प्रब्रजित हुए है ०। श्रमण गौतम शीलवान् आर्यशीलयुक्त कुशल-शीली=अच्छे शीलसे युक्त ० । श्रमण गौतम सुवक्ता=कल्याण-वाक्करण । श्रमण गौतम बहुतोके आचार्य-प्राचार्य ० । ० काम-राग-रहित, चपलता-रहित ० । ० कर्मवादी-त्रियावादी ० । ब्राह्मण संतानोके निष्पाप अग्रणी ० । ० अमिश्र उच्चकुल क्षत्रिय कुलसे प्रब्रजित ० । ० आढ्य महाधनी, महाभोगवान्-कुलसे प्रब्रजित ० । श्रमण गौतमके पास दूसरे राष्ट्रो दूसरे जनपदोसे पूछनेके लिये आते है ० । ० अनेक सहस्त्र देवता प्राणोसे शरणागत हुए ० । श्रमण गौतमके लिये ऐसा मंगलकीर्ति शब्द फैला हुआ है—कि वह भगवान् ०१ । श्रमण गौतम बत्तीस महापुरूष-लक्षणोसे युक्त है ० । श्रमण गोतम ‘आओ, स्वागत’ बोलनेवाले, समोदक, अब्भाकुटिक (=अकुटिलभ्रू), उत्तान-मुख, पूर्वभाषी ० । ० चारो परिषदोसे सत्कृत=गुरूकृत ० ० । श्रमण गोतममे बहुतसे देव और मनुष्य श्रद्धावान् है ० । श्रमण गौतम जिस ग्राम या नगरमे विहार करते है, उसे अ-मनुष्य (=देव, भूत आदि) नही सताते ० । श्रमण गौतम सधी (=सधाधिपति), गणो, गणाचार्य, बळे तीर्थकरो (=संप्रदायस्थापको) मे प्रधान कहे जाते है ० । जैसे किसी-किसी श्रमण ब्राह्मणका यश, जैसे कैसे हो जाता है, उस तरह श्रमण गौतम का यश नही हुआ है । अनुपम विद्या-चरण-सम्पदासे श्रमण गौतमका यश उत्पन्न हुआ है । भो । पुत्र-सहित, भार्या-सहित, अमात्य-सहित मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार प्राणोसे श्रमण गोतमका शरणागत हुआ है ० । ० राजा प्रसेनजित् कोसल ० । ० ब्राह्मण पौष्करसातिसे ० ० । श्रमण गौतम खाणुमतमे आये है । खाणुमतमे अम्बलट्ठिकामे विहार करते है । जो कोई श्रमण या
ब्राह्मण हमारे गाँव-खेतमे आते है, वह (हमारे) अतिथि होते है । अतिथि हमारा सत्करणीय=गुरूकरणीय=माननीय=पूजनिय है । चूकि भो । श्रमण गौतम खाणुमतमे आये है ० । श्रमण गौतम हमारे अतिथि है । अतिथि हमारा सत्करणीय ० है । इस बातसे भी ० । भो । मै श्रमण गौतमके इतने ही गुण कहता हूँ । लेकिन वह आप गौतम इतने ही गुणवाले नही है, आप गौतम अपरिमाण गुणवाले है।”
इतना कहनेपर उन ब्राह्मणोने कुटदन्त ब्राह्मणसे कहा—“जैसे आप कुटदन्त श्रमण गौतमके गुण कहते है, (तब तो) यदि वह आप गौतम यहाँसे सौ योजनपर भी हो, तोभी पाथेय बाँधकर, श्रद्धालु कुलपुत्रको (उनके) दर्शनार्थ जाना चाहिये । तो भी । (चलो) हम सभी श्रमण गौतमके दर्शनार्थ चलेगे ।”
तब कुटदन्त ब्राह्मण महान् ब्राह्मण-गणके साथ, जहॉ अम्बलटिठका थी, जहॉ भगवान् थे, वहॉ गया । जाकर उसने भगवानके साथ समोदन किया । खाणुमतके ब्राह्मण गृहस्थोमे कोई-कोई भगवानको अभिवादन कर, एक ओर बैठ गये । कोई-कोई समोदन कर ०, ० जिधर भगवान् थे, उधर हाथ जोळकर ०, ० चुपचाप एक ओर बेठ गये ।
एक ओर बैठे हुए कुटदन्त ब्राह्मणने भगवानसे कहा—“हे गौतम । मैने सुना है कि—श्रमण गौतम सोलह परिष्कार-सहित त्रिविध यज्ञ-सम्पदाको जानते है । भो । मै सोलह परिष्कार-सहित यज्ञ-सम्पदाको नही जानता । मै महायज्ञ करना चाहता हूँ । अच्छा हो यदि आप गौतम, सोलह परिष्कार-सहित त्रिविध यज्ञ-सम्पदाका मुझे उपदेश करे ।”
“तो ब्राह्मण । सुनो, अचछी तरहसे मनमे करो, कहता हूँ ।”
“अचछा भो ।” कुटदन्त ब्राह्मणने भगवानसे कहा । भगवान् बोले—
२—अहिंसामय यज्ञ (महाविजित-जातक)
(१) बहुसामग्रीका यज्ञ
१—राज्य-यद्ध—“पूर्व-कालमे ब्राह्मण । महाधनी, महाभोगवान्, बहुत सोना चाँदीवाला, बहुत वित्त उपकरण (=साधन)वाला, बहुवन-धान्यवान् भरे-कोश-कोष्ठागारवाला, महाविजित नामक राजा था । ब्राह्मण । (उस) राजा महाविजितको एकान्तमे विचारते चित्तमे यह ख्याल उत्पन्न हुआ—‘मुझे मनुष्योके विपुल भोग प्राप्त है, (मै) महान् पृथ्वीमंडलको जीतकर, शासन करता हूँ । क्यो न मै महायज्ञ करुँ, जो कि चिरकाल तक मेरे हित-सुखके लिये हो ।’ तब ब्राह्मण । राजा महाविजितने पुरोहित ब्राह्मणको बुलाकर कहा—‘ब्राह्मण । यहाँ एकान्तमे बैठ विचारते, मेरे चितमे यह ख्याल उत्पन्न हुआ—० क्यो न मै महायज्ञ करुँ ०। ब्राह्मण । मै महायज्ञ करना चाहता हूँ । आप मुझे अनुशासन करे, जो चिरकाल तक मेरे हित-सुखके लिये हो ।’ ऐसा कहनेपर ब्राह्मण । पुरोहित ब्राह्मणने राजा महाविजितसे कहा—‘आप का देश संकटक, उत्पीळा-सहित है । (राज्यमे) ग्राम-घात (=गॉवोकी लूट) भी दिखाई पळते है, बटमारी भी देखी जाती है । आप ऐसे संकटक उत्पीळा-सहित देशसे बलि (=कर) लेते है । इससे आप इस (देश) के अकृत्य-कारी है । शायद आप का (विचार) हो, दस्युओ (=डाकुओ) के कीलको हम बध, बन्धन, हानि, निन्दा, निर्वासनसे उखाळ देंगे । लेकिन इस दस्यु-कील (=लूट-पाट रूपी कील) को, इस तरह भलीभॉति नही उखाळा जा सकता । जो मारनेसे वच रहेगे, वह पीछे राजाके जनपदको सतायेंगे । ऐसे दस्युकीलका इस उपायसे भली प्रकार उन्मूलन हो सकता है, कि राजन् । जो कोई आपके जनपदमे कृषि गोपालन करनेका उत्साह रखते है, उनको आप बीज और भोजन प्रदान करे । ० वाणिज्य करनेका उत्साह रखते है, उन्हे आप पूँजी (=प्राभृत) दे । जो राजपुरूषाई (=राजाकी नौकरी) करनेका उत्साह रखते है, उन्हे आप भत्ता-वेतन (=भत्त-वेतन) दे । (इस प्रकार) वह लोग
अपने काममे लगे, राजाके जनपदको नही सतायेगे । आप को महान् (धन-धान्यकी) राशि (प्राप्त) होगी, जनपद (=देश) भी पीडा-रहित, कटक-रहित क्षेम-युक्त होगा । मनुष्य भी गोदमे पुत्रोको नचातेसे, खुले घर विहार करेगे ।’
“राजा महाविजितने पुरोहित ब्राह्मणको—‘अच्छा भी ब्राह्मण ।’ कहा । राजाके जनपदमे जो कृषि-गो-रक्षा करना चाहते थे, उन्हे राजाने बीज-भत्ता सम्पादित किया । जो राजाके जनपदमे वाणिज्य करनेके उत्साही थे, उन्हे पूँजी सम्पादित की । जो राजाके जनपदमे राज-पुरुषाईमे उत्साही हुए, उनका भत्ता-वेतन ठीक कर दिया । उन मनुष्योने अपने अपने काममे लग, राजाके जनपदको नही सताया । राजाको महाधनराशि प्राप्त हुई । जनपद अकटक अपीडित क्षेम-युक्त हो गया । मनुष्य हर्षित, मोदित, गोदमे पुत्रोको नचातेसे खुले घर विहार करने लगे ।
“ब्राह्मण । तब राजा महाविजितने पुरोहित ब्राह्मणको बुलाकर कहा—‘भो । मैने दस्युकील उखाळ दिया । मेरे पास महाराशि हे ० । हे ब्राह्मण । मै महायज्ञ करना चाहता हूँ । आप मुझे अनुशासन करे, जो कि चिरकाल तक मेरे हित-सुखके लिये हो’ ।
२—होम-यज्ञ‘तो आप । जो आपके जनपदमे जानपद (=ग्रामीण), नैगम (=शहरके) अनुयुक्तक क्षत्रिय है, आप उन्हे कहे—‘मै भो । महायज्ञ करना चाहता हूँ, आप लोग मुझे अनुज्ञा (=आज्ञा) करे, जो कि मेरे चिरकाल तक हित-सुखके लिये हो’ । जो आपके जनपदमे जानपद या नैगम अमात्य पारिपघ (=समासद्) ० । जनपदमे जानपद या नैगम ब्राह्मण महाशाल (=धनी) ०।० जानपद या नैगम गृहपति (=वैश्य) नेचयिक (=धनी) ० । राजा महाविजितने ब्राह्मण पुरोहितको— ‘अच्छा भो’ कहकर, जो राजाके जनपदमे ० अनुयुक्तक क्षत्रिय ०’ अमात्य पारिपघ ०, ० ब्राह्मण महाशाल ०, ० गृहपति नेचयिक थे, उन्हे राजा महाविजितने आमत्रित किया—‘भो । मै महायज्ञ करना चाहता हूँ, आप लोग मुझे अनुज्ञा करे, जो कि चिरकाल तक मेरे हित-सुखके लिये हो’ । ‘राजा । आप यज्ञ करे महाराज यह यज्ञका काल है ।’ ब्राह्मण । यह चारो अनुमति-पक्ष उसी यज्ञके (चार) परिष्कार होते है ।
“(वह) राजा महाविजित आठ अगोसे युक्त था । (१) दोनो ओरसे सुजात ० । (२) अभिरूप=दर्शनीय ० ब्रह्मवर्णी=ब्रह्मवृद्धि, दर्शनके लिये अवकाश न रखनेवाला । (३) शीलवान् ० । (४) आढय महाधनवान् महाभोगवान्, बहुत चॉदी सोनेवाला, बहुत वित्त-उपकरणवाला, बहुत धन-धान्यवाला, परिपूर्ण-कोश-कोष्ठागारवाला, (५) बलवती चतुरगिनी सेनासे युक्त, आश्रयके लिये अपवाद-प्रतिकार (=ओवाद्-पटिकार) के लिये यशसे मानो शत्रुओको तपातासा था । (६) श्रद्धालु, दायक=दानपति श्रमण-ब्राह्मण दरिद्र-आर्थिक (=मँगता) बन्दीजन (=वणिब्बक) याचकोके लिये खुले-द्वार-वाला प्याउ-सा हो, पुण्य करता था । (७) बहुश्रुत, सुने हुओ, कहे हुओका अर्थ जानता था—इस कथनका यह अर्थ है’ इस कथनका यह अर्थ है’ । (८) पडित=व्यकत मेधावी, भूत-भविष्य-वर्तमानसबधी बातोको सोचनेमे समर्थ । राजा महाविजित, इन आठ अगोसे युक्त (था) । यह आठ अग उसी यज्ञके आठ परिष्कार होते है ।
“पुरोहित ब्राह्मण चार अगोसे युक्त (था) । (१) दोनो ओरसे सुजात ० । (२) अध्यायक मत्र-धर ० त्रिवेद-पारगत ० । (३) शीलवान् ० । (४) पडित=व्यक्त मेधावी ० सुजा (=दक्षिणा) ग्रहण करनेवालोमे प्रथम या द्वितीय था । पुरोहित ब्राह्मण इन चार अगोसे युक्त (था) । वह चार अग भी उसी यज्ञके परिष्कार होते है ।
“तब ब्राह्मण । पुरोहित ब्राह्मणने पहिले राजा महाविजितको तीन विधियोका उपदेश किया । (१) यज्ञ करनेकी इच्छावाले आप को शायद कही अफसोस हो—‘बळी धनराशि चली
जायगी’, सो आप राजाको यह अफसोस न करना चाहिये । (२) यज्ञ करते हुए आप राजाको शायद कही अफसोस हो—० चली जा रही है ०। (३) यज्ञ कर चुकनेपर आप राजाको शायद कही अफसोस हो—‘बळी धन-राशि चली गई’, सो यह अफसोस आपको न करना चाहिये । ब्राह्मण । इस प्रकार पुरोहित ब्राह्मणने राजा महाविजितको यज्ञ (करने) से पहले तीन विधियॉ बतलाई ।
“तब ब्राह्मण । पूरोहित ब्राह्मणने यज्ञसे पूर्व ही राजा महाविजितके (हृदयसे) प्रतिग्राहकोके प्रति (उत्पन्न होनेवाले) दश प्रकारके विप्रतिसार (=चित्तको बुरा करना) हटाये—(१) आपके यज्ञमे प्राणातिपाती (=हिसारत) भी आवेगे, प्राणातिपात-विरत (=अ-हिसारत) भी । जो प्राणातिपाती है, (उनका प्राणातिपात) उन्हीके लिये है, जो वह प्राणातिपात विरत है, उनके प्रति आप यजन करे, मोदन करे, आप उनके चित्तको भीतरसे प्रसन्न (=स्वच्छ) करे । (२) आपके यज्ञमे चोर भी आवेगे, अ-चोर भी । जो वहॉ चोर है, वह अपने लिये है, जो वहॉ अ-चोर है, उनके प्रति आप यजन करे, मोदन करे, आप अपने चित्तको भीतरसे प्रसन्न करे। (३) ० व्यभिचारी ०, अ-व्यभिचारी भी ०। (४) ० मृषावादी (=झूठे) ०, मृषावाद-विरत भी ०। (५) ० पिशुनवाची (=चुगुलखोर) ०, पिशुन-वचन-विरत भी ०। (६) ० परुषवाची (=कटुवचनवाले) ०, परुष-वचनविरत भी ०। (७) सप्रलापी (=बकवादी) ०, सप्रलाप-विरत भी ०। (८) ० अभिध्यालु (=लोभी) ०, अभिध्या-विरत ०। (९) ०—व्यापन्न-चित्त (=द्रोही) अ-व्यापन्नचित्त-भी ०। (१०) ० मिथ्यादुष्टि (=झूठे मत वाले) ०, सम्यग्-दृष्टि (=सत्यमतवाले) भी । जो वहॉ मिथ्या दृष्टि है, वह अपनेही लिये है, जो वहॉ सम्यग्-दृष्टि है, उनके प्रति आप यजन करे, मोदन करे, आप अपने चित्तको भीतरसे प्रसन्न करे । ब्राह्मण । पुरोहित ब्राह्मणने यज्ञसे पूर्व ही राजा महाविजितके (ह्दयसे) प्रतिग्राहको (=दान लेनेवालो) के प्रति ( उत्पन्न होनेवाले), इन दस प्रकारके विप्रतिसार (=चित्त-विकार) अलग कराये ।
“तब ब्राह्मण । पुरोहित ब्राह्मणने यज्ञ करते वक्त राजा महाविजितके चित्तका सोलह प्रकारसे सदर्शन=समादपन=समुत्तेजन सप्रहर्षण किया— (१) शायद यज्ञ करते वक्त आप राजाको (कोई) बोलनेवाला हो—राजा महाविजित महायज्ञ कर रहा है, किन्तु उसने नैगम-जानपद अनुयुक्तक क्षत्रियो (=माडलिक या जागीरदार राजाओ) को आमंत्रित नही किया, तो भी यज्ञ कर रहा है । (सो अब) ऐसा भी आपको धर्मसे बोलनेवाला कोई नही है । आप नैगम (=शहरी), जानपद (=देहाती) अनुयुक्तक क्षत्रियोको आमंत्रित कर चुके है। इससे भी आप इसको जाने । आप यजन करे, आप मोदन करे, आप अपने चित्तको भीतरसे प्रसन्न करे । (२) शायद ० कोई बोलनेवाला हो—० नैगम जानपद अमात्यो (=अधिकारी), पार्षदो (=सभासद्) को आमंत्रित नही किया ० । (३) ० ० ब्राह्मण महाशालो ०। (४) ० ० नेचयिक गृहपतियो (=धनी वेश्यो) को ०। (५) शायद कोई बोलनेवाला हो— राजा महाविजित यज्ञ कर रहा है, किन्तु वह दोनो ओरसे सुजात नही है ० । तो भी महायज्ञ यजन कर रहा है । ऐसा भी आपको धर्मसे कोई बोलनेवाला नही है । आप दोनो ओरसे सुजात है । इससे भी आप राजा इसको जाने। आप यजन करे, आप मोदन करे, आप अपने चित्तको भीतरसे प्रसन्न करे । (६) ० ० अभिरूप=दर्शनीय ० । ० । (७) ० ० शीलवान् ० ०। (८) ० ० आढ्य महा भोगवान् बहुत सोना चॉदी वाले, बहुत वित्त-उपकरण-वान्, वहु-धन-धान्य-वान्, कोश-कोष्ठागार-परिपूर्ण ० ०। (९) ० ० बलवती चतुरगिनी सेनासे ०” (१०) ० ० श्रध्दालु दायक ० ०। (११) ० ० बहुश्रुत ० ०। (१२) ० ० पण्ङित=व्यक्त मेधावी ० ०। (१३) ० ० पुरोहित दोनो ओरसे सुजात ० ०। (१४) ० ० पुरोहित ० अध्यायक मंत्रधर ० ०। (१५) ० ० पुरोहित ० शीलवान् ० ०। (१६) ० ० पुरोहित ० पंङित=व्यक्त ० ०। ब्राह्मण । महायज्ञ यजन करते हुये, राजा महाविजितके चित्तको पुरोहित ब्राह्मणने इन सोलह विधियोसे समुत्तेजित किया ।
“ब्राह्मण । उस यज्ञमे गाये नही मागी गई, बकरे-भेळे नही मारी गई, मुर्गे सुअर नही मारे गये, न नाना प्रकारके प्राणी मारे गये । न यूप (=यज्ञ-स्तभ)के लिये वृक्ष काटे गये । न पर-हिसाके लिये दर्भ (=कुश) काटे गये । जो भी उसके दास, प्रेष्य (=नौकर), कर्मकर थे, उन्होने भी दण्ड-तर्जित, भय-तर्जित हो, अश्रुमुख, रोते हुये सेवा नही की । जिन्होने चाहा उन्होने किया, जिन्होने नही चाहा उन्होने नही किया । जिसे चाहा उसे किया, जिसे नही चाहा उसे नही किया । घी, तेल, मक्खन, दही, मघु, खाड(=फाणित)से वह यज्ञ समाप्तिको प्राप्त हुआ ।
“तब ब्राह्रण । नैगम-जानपद अनुयुक्तक-क्षत्रिय, ० अमात्य-पार्षद, ० महाशाल (=घनी) ब्राह्मण, ० नेचयिक-गृहपति (=घनी वैश्य) बहुतसा घन-घान्य ले, राजा महाविजितके पास जाकर बोले-‘देव । यह बहुतसा घन-घान्य (=सापतेय्य) देवके लिये लाये है, इसे देव स्वीकार करे’ । ‘नही भो । मेरे पास भी यह बहुत सा घर्मसे उपार्जित सापतेय्य है । यह तुम्हारे ही पास रहे, यहॉसे भी और ले जाओ । राजाके इन्कार करनेपर एक ओर जाकर, उन्होने सलाह की—‘यह हमारे लिये उचित नही, कि हम इस घन-घान्यको फिर अपने घरको लौटा ले जाये । राजा महाविजित महायज्ञ कर रहा है, हन्त । हम भी इसके अनुगामी हो पीछे पीछे यज्ञ करनेवाले होवे ।
“तब ब्राह्रण । यज्ञवाट (=यज्ञस्थान)के पूर्व ओर नैगम जानपद अनुयुक्तक क्षत्रियोने अपना दान स्थापित किया । यज्ञवाटके दक्षिण ओर ० अमात्य-पार्षदोने ० । पश्चिम ओर ० ब्राह्मण महाशालोने ० । ० उत्तर ओर ० नेचयिक वैश्योने ० । ब्राह्मण । उन (अनु) यज्ञोमे भी गाये नही मारी गई ० । घी, तेल, मक्खन, दही, मघु, खॉळसे ही वह यज्ञ सम्पादित हुये ।
“इस प्रकार चार अनुमति-पक्ष, आठ अगोसे युकत राजा महाविजित, चार अगोसे युकत पुरोहित ब्राह्मण, यह सोलह परिष्कार और तीन विघियॉ हुई । ब्राह्मण । इसे ही त्रिविघ यज्ञ-सपदा और सोलह-परिष्कार कहा जाता है।”
ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण उन्नाद उच्चशब्द = महाशब्द करने लगे—‘अहो यज्ञ । अहो । यज्ञ-सपदा । । ’ कुटदन्त ब्राह्रण चुपचाप ही बैठा रहा । तब उन ब्राह्मणोने कुटदन्त ब्राह्मणसे यह कहा—
“आप कुटदन्त किसलिये श्रमण गौतमके सुभाषितको सुभाषितके तौरपर अनुमोदित नही कर रहे है ॽ”
“भो । मै, श्रमण गौतमके सुभाषितको सुभाषितके तौरपर अन्-अनुमादन नही कर रहा हूँ । शिर भी उसका फट जायगा, जो श्रमण गौतमके सुभाषितको सुभाषितके तौरपर अनुमोदन नही करेगा । मुझे यह (विचार) हो रहा है, कि श्रमण गौतम यह नही कहते—‘ऐसा मैने सुना’ , या ऐसा हो सकता है’ । बल्कि श्रमण गौतमने—‘ऐसा तब था, इस प्रकार तब था’ , कहा है । तब मुझे ऐसा होता है—‘अवश्य श्रमण गौतम उस समय (यातो) यज्ञ-स्वामी राजा महाविजित थे, या यज्ञके करानेवाले पुरोहित ब्राह्मण थे । कया जानते है, आप गौतम । इस प्रकारके इस यज्ञको करके या कराके, (मनुष्य) काया छोळ मरनेके बाद सुगति स्वर्ग-लोकमे उत्पन्न होता है ॽ”
“ब्राह्रण । जानता हूँ इस प्रकारके यज्ञ ० । मै उस समय उस यज्ञका याजयिता पुरोहित ब्राह्मण था ।”
(२) अल्पसामग्रीका महान यज्ञ
“हे गौतम । इस सोलह परिष्कार त्रिविघ यज्ञ-सपदासे भी कम सामग्री (=अर्थ) वाला, कम किया (=समारभ)-वाला, किन्तु महाफल-दायी कोई यज्ञ है ॽ”
“है, ब्राह्रण । इस ० से भी ० महाफलदायी ।”
“हे गौतम । वह इस ० से भी ० महाफलदासी यज्ञ कौन है ॽ”
१—दान-यज्ञ—“ब्राह्मण । वह जो प्रत्येक कुलमे शीलवान् (=सदाचारी) प्रब्रजितोके लिये नित्य दान दिये जाते है । ब्राह्मण । वह यज्ञ इस० से भी ० महाफलदायी है ।”
“हे गौतम । क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो वह नित्य दान इस ० से भी ० महाफलदायी है ॽ”
“ब्राह्मण । इस प्रकारके (महा) यज्ञोमे अर्हत् (=मुक्तपु रूप), या अर्हत्-मार्गारूढ नही आते । सो किस हेतु ॽ ब्राह्मण । यहॉ दण्ङ-प्रहार और गल-ग्रह (=गला पकळना) भी देखा जाता है । इस लिये इस प्रकारके यज्ञोमे अर्हत् ० नही आते । जोकि वह नित्य-दान ० है, इस प्रकारके यज्ञमे ब्राह्मण । अर्हत् ० आते है । सो किस हेतु ॽ वहॉ ब्राह्मण । दंङ-प्रहार, गल-ग्रह नही देखा जाता। इसलिये इस प्रकारके यज्ञमे ० । ब्राह्मण । यह हेतु है, यह प्रत्यय है, जिससे कि नित्य दान ० उस ० से भी ० महाफलदायी है ।”
“हे गौतम । क्या कोई दुसरा यज्ञ, इस सोलह-परिष्कार-त्रिविघ-यज्ञसे भी अधिक फलदायी, इस नित्यदान ० से भी अल्प-सामग्री-वाला अल्पसमारम्भवाला और महाफलदायी, महामाहात्म्यवाला है ॽ”
“हे, ब्राह्मण । ०।”
“हे गौतम । वह यज्ञ कौन सा है, (जो कि) इस सोलह ० ॽ”
“ब्राह्मण । जो कि यह चारो दिशाओके संधके लिये (=चातुदिस संध उदिस्स) विहारका वनवाना है । यह ब्राह्मण । यज्ञ, इस सोलह ०।”
“हे गौतम । क्या कोई दुसरा यज्ञ, इस ० त्रिविध यज्ञसे भी ०, इस नित्यदान ० से भी, इस विहार-दानसे भी अल्प-सामग्रीक अल्प-क्रियावाला, और महाफलदायी महामाहात्म्यवाला है ॽ”
“है ब्राह्म्ण । ० ।”
“हे गौतम । कौन सा है ० ॽ”
२—त्रिशरण-यज्ञ—“ब्राह्मण । यह जो प्रसन्नचित्त हो बुध्द (परम-ज्ञानी) की शरण जाना है, धर्म (=परम-तत्व) की शरण जाना है, संध (=परम तत्व-रक्षक-समुदाय) की शरण जाना है, ब्राह्म्ण । यह यज्ञ, इस ० त्रिविध यज्ञसे भी ० ० ।”
“हे गौतम । क्या कोई दुसरा यज्ञ ० ० इन शरण-गमनोसे भी अल्प-सामग्रीक, अल्प-क्रियावान् और महाफलदायी, महामाहात्म्यवान् है ॽ”
“है ब्राह्म्ण । ० ।”
“हे गौतम । कौनसा है, ० ॽ”
३—शिक्षापद-यज्ञ—“ब्राह्म्ण । वह जो प्रसन्न (=स्वच्छ)-चित्त (हो) शिक्षापदो (=यमनियमो) का ग्रहण करना है— (१) अ-हिंसा, (२) अ-चोरी, (३) अव्यभिचार, (४) झूठ-त्याग, (५) सुरा-मेरय-मघ-प्रमाद-स्थान-विरमण (=नशा-त्याग) । यह यज्ञ ब्राह्म्ण । ० ० इन शरण-गमनोसे भी ० महा-माहात्म्यवान् है ।”
“हे गौतम । क्या कोई दुसरा यज्ञ ० ० इन शिक्षापदोसे भी ० महामाहात्म्यवान् है ॽ”
“है ब्राह्मण । ० ।”
“हे गौतम । कौनसा है ० ॽ”
४—शील-यज्ञ—“ब्राह्म्ण । जब लोकमे तथागत उत्पन्न होते है ॽ ०१ । इस प्रकर ब्राह्मण शील-सम्पन्न होता है ० ।
५—समाधि-यज्ञ—० प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । ब्राह्मण । यह यज्ञ पूर्वके यज्ञोसे अल्प-सामग्रीक ० और महामाहात्म्यवान् है ।”
“क्या है, हे गौतम । ० ० इस प्रथम ध्यानसे भी ०१ ?”
“है ० ।” “कौन है ० ?”
“० ० द्वितीय-ध्यान ० ० ।” “तृतीय-ध्यान ० ० ।” “० ० चतुर्थ-ध्यान ० ० ।” “ज्ञान दर्शनके लिये चित्तको लगाता, चित्तको झुकाता है ० ० ।”
६—प्रज्ञा-यज्ञ—“० ० ०नही अब दूसरा यहॉके लिये है, जानता है ० ० । यह भी ब्राह्मण । यज्ञ पूर्वके यज्ञोसे अल्प-सामग्रीक ० और ० महामाहात्म्यवान् है । ब्राह्मण । इस यज्ञ-संपदासे उत्तरितर (=उत्तम) प्रणीततर दूसरी यज्ञ-संपदा नही है ।’
ऐसा कहनेपर कुटदन्त ब्राह्मणने भगवानसे कहा—
“आश्चर्य । हे गौतम । अद्भुत । हे गौतम । ०२ मै भगवान् गौतमकी शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु संधकी भी । आप गौतम आजसे मुझे अंजलि-बद्ध शरणागत उपासक धारण करे । हे गौतम । यह मै सात सौ बैलो सात सौ बछळो, सात सौ बकरो, सात सौ भेळोको छोळवा देता हूँ, जीवन-दान देता हूँ, (वह) हरी घासे चरे, ठंडा पानी पीवे, ठंडी हवा उनके (लिये) चले ।”
तब भगवानने कुटदन्त ब्राह्मणको आनुपूर्वी-कथा कही ०३ । कुटदन्त ब्राह्मणको उसी आसनपर विरज विमल=धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ—“जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह नाशमान है’ । तब कुटदन्त ब्राह्मणने दृष्टधर्म ० हो भगवानसे कहा—
“भिक्षु-संधके साथ आप गौतम कलका मोरा भोजन स्वीकार करे ।”
भगवान् ने मौनसे स्वीकार किया । तब कुटदन्त ब्राह्मण भगवानकी स्वीकृति जान, आसनसे उठकर, भगवानको अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर चला गया ।
तब कुटदन्त ब्राह्मणने उस रातके बीतनेपर, यज्ञवाट (=यज्ञमंडप) मे उत्तम खाघ-भोज्य तैयार करा, भगवानको काल सूचित कराया ०४ । भगवान् पूर्वाह्ण समय पहिनकर पात्र-चीवर ले, भिक्षु-संघके साथ, जहॉ कुटदन्त ब्राह्मणका यज्ञवाट था, वहॉ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठे । कुटदन्त ब्राह्मणने बुद्ध-प्रमुख भिक्षु-संघको अपने हाथसे उत्तम खाघ-भोज्य द्वारा सन्तर्पित=सप्रवारित किया । भगवानके भोजन कर पात्रसे हाथ हटा लेनेपर, कुटदन्त ब्राह्मण एक छोटा आसन ले, एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठ हुये, कुटदन्त ब्राह्मणको भगवान्, धार्मिक कथासे सदर्शित=समादपित=समुत्तेजित, सप्रहर्षित कर, आसनसे उठकर चले गये ।