दीध-निकाय

8. कस्सप-सोहनाद-सुत (१।८)

१—सभी तपस्यायें निन्घ नही । २—सच्ची धर्मचर्या मे सहमत । ३—झूठी शारीरिक तपस्यायें । ४—सच्ची तपस्यायें— (१) शील-सम्पत्ति, (२) चित्त-सम्पत्ति, (३) प्रज्ञा-सम्पत्ति ।

ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् उजुञ्ञाके पास कण्णकत्थल मिगदायमे विहार करते थे । तब अचेल (=नगा) काश्यप जहॉ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर उसने भगवानसे कुशल-समाचार पूछा । कुशल-समाचार पूछ वह एक ओर खळा हो गया । एक ओर खळा हो, अचेल काश्यपने भगवानसे कहा—‘हे गौतम । ऐसा सुना है कि श्रमण गौतम सभी तपश्चरणोकी निन्दा करता है, सभी तपश्चरणोकी कठोरताको बिलकुल बुरा और अनुचित बतलाता है । जो ऐसा कहते है कया वह आपके प्रति ठीक कहनेवाले है ? आपको असत्य = अभूतसे निन्दा तो नही करते ? घर्मके अनुकूल तो कहते है ? वैसा कहनेसे किसी घर्मानुकूल वादका परित्याग या निन्दा तो नही होती ? हम आप गौतमकी निन्दा नही चाहते ।”

१—सभी तपस्यायें निन्घ नहीं

“काश्यप । जो लोग ऐसा कहते है—‘श्रमण गौतम सभी तपश्चरणोकी निन्दा करता है, सभी तपश्चरणोकी कठोरताको बिल्कुल बुरा बतलाता है’ —ऐसा कहनेवाले मेरे बारेमे ठीकसे कहनेवाले नही है, मेरी झूठी निदा करते है । काश्यप । मै किन्ही किन्ही कठोर जीवनवाले तपस्वियोको विशुघ्द्र और अलौकिक दिव्यचक्षुसे ०काया छोळ मरनेके बाद नरकमे उत्पन्न और दुर्गतिको प्राप्त देखता हूँ । काश्यप । मै किन्ही किन्ही कठोर जीवनवाले तपस्वियोको मरनेके बाद स्वर्गलोकमे उत्पन्न और सुगतिको प्राप्त देखता हूँ । किन्ही किन्ही कम कठोर जीवनवाले तपस्वियोको मरनेके बाद नरकमे उत्पन्न और दुर्गतिको प्राप्त देखता हूँ । काश्यप । किन्ही किन्ही ० को ० मरनेके बाद स्वर्गलोकमे उत्पन्न सुगतिको प्राप्त देखता हूँ ।

“जब मै काश्यप । इन तपस्वियोकी इस प्रकारकी अगति, गति, च्युति (=मृत्यु) और उत्पत्ति-को ठीकसे जानता हूँ । फिर मै कैसे सब तपश्चरणोकी निन्दा करुँगा ? सभी कठोर जीवनवाले तपस्वियोकी बिल्कुल निन्दा, शिकायत करुँगा ?

२—सची घर्मचर्यामें सहमत

“काश्यप । कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण पण्ङित, निपुण, शास्त्रार्थमे विजय पाये हुये (और) बालकी खाल उतारनेवाली अपनी बुद्धिसे दूसरोके मतोको छिन्न-भिन्न करते-से दीखते है । वह भी किन्ही किन्ही बातोमे मुझसे सहमत है, किन्ही किन्ही बातोमे सहमत नही । कुछ बातो जिन्हे वे ठीक कहते है, उन्हे हम भी ठीक कहते है । कुछ बातो जिन्हे वे ठीक नही कहते, ह्म भी उन्हे ठीक नही कहते ।

(किन्तु) कुछ बाते जिन्हे वे ठीक नही कहते, उन्हे हम ठीक कहते है । कुछ बाते जिन्हे हम ठीक कहते है, उन्हे हम ठीक कहते है, कुछ बाते जिन्हे हम ठीक नही कहते, उन्हे वे भी ठीक नही कहते, कुछ बाते जिन्हे हम नही—ठीक कहते, उन्हे वे ठीक कहते है, जिन्हे हम ठीक कहते है, उन्हे वे ठीक नही कहते। उनके पास जाकर मे ऐसा कहत्ता हूँ—‘आवुसो । जिन बोतोमे हम लोग सहमत नही है, उन बोतोको अभी जाने दे। जिन बातोमे हम लोग सहमत है, उन्हे ही बुध्दिमान् लोग अच्छी तरहसे (एक) शास्तासे (दुसरे) शास्ताको, एक संघसे (दुसरे) संघको पूछे, चर्चा करे, विचार करे—क्या जो बाते बुरी बुरी मानी गई, सदोप सदोप मानी गई, असेवनीय असेवनीय मानी गई, निकृष्ट निकृष्ट मानी गई, काली काली मानी गई है, उन बातोको किसने बिलकुल छोळ दिया है, श्रमण गौतमने या दुसरे आप गणाचार्योने ॽ काश्यप । जब बुध्दिमान् ० विचारते है— फिर काश्यप । बुध्दिमान् ० विचार करके मेरी ही अधिक प्रशंसा करेगे ।

“और फिर काश्यप । बुध्दिमान् लोग ० विचारते है—जो ये बाते अच्छी अच्छी मानी गई, निर्दोष निर्दोप मानी गई, सेवनीय सेवनीय मानी गई, श्रेष्ठ श्रेष्ठ मानी गई शुक्ल शुक्ल मानी गई है, उन बातोका कौन ठीकसे पालन करता है, श्रमण गौतम या दुसरे आप गणाचार्च ॽ ० । ० काश्यप । बुध्दिमान् ० विचार करके मेरी ही अधिक प्रशंसा करेगे ।

“और फिर काश्यप । बुध्दिमान् ० विचारते है—०जो बाते बुरी ० है, उन्के बिल्कुल छोड दिया है, श्रमण गौतमकी शिष्य-मंडलीने या दुसरे आप गणाचार्योकी शिष्य-मंडलीने ॽ ० फिर काश्यप । बुध्दिमान् ० विचार करके हमारी ही अधिक प्रशंसा करेगे ।

“और फिर काश्यप । बुध्दिमान् ० विचारते है—जो ये बाते अच्छी मानी गई है, कौन इन बातोका ठीकसे पालन करता है ? श्रमण गौतमकी शिष्य-मंडली या दुसरे आप गणाचार्योकी शिष्य-मंडली ? ० फिर काश्यप । बुध्दिमान् ० विचार करके हमारी ही अधिक प्रशंसा करेगे ।

“काश्यप । यह मार्ग (=उपाय) है, यह प्रतिपद् हे, जिसके ध्दारा (कोई भी) स्वंय जान लेगा, स्वंय देख लेगा कि श्रमण गौतम समयोचित बात बोलनेवाला, सच्ची बात बोलनेवाला, सार्थक बात बोलनेवाला, धर्मकी बात बोलनेवाला, धर्मकी बात बोलनेवाला (और) विनयकी बात बोलनेवाला (है) । काश्यप । वह कोन-सा मार्ग है, कौन-सी प्रतिपदा है, जिससे (पुरूष) स्वंय जान लेगा (और) स्वंय देख लेगा कि, श्रमण गौतम समयोयित ० ॽ वे ये है—सम्यग्-दृष्टि (=ठीक सिध्दान्त), ठीक संकल्प, ठीक वचन, ठीक कारबार, ठीक व्यवसाय, ठीक उधोग (=व्यायाम), ठीक स्मृति, और ठीक समाधि ।

३—म्फूठी शारीरिक तपस्यायें

“काश्यप । यही मार्ग है, यही प्रतिपद् है जिससे स्वंय ० ।

ऐसा कहनेपर अचेल काश्यपने भगवानसे कहा—“आवुस गौतम । उन श्रमणो और ब्राहमणोकी ये तपस्यायें उनके श्रमण और ब्राहमण-भाव-के धोतक है, जैसे कि—नंगा रहना, सभी आचार विचारोको छोळ देना हथचट्टा व्रत, बुलाई भिक्षाका त्याग, ठहरिये-कहकर दी गई भिक्षाका त्याग, अपने लिये लाई भिक्षाका त्याग, अपने लिये पकाये भोजनका त्याग, हाळीके भिक्षाका त्याग, ओखलके मुँहसे निकाली भिक्षाका त्याग, पटरा, दण्ड या मुँहसे निकाली मूसलके बीचसे लाई भिक्षाका त्याग, निमन्त्रणका त्याग, दो भोजन करने वालोके बीचसे लाई ०, गर्भिणी स्त्री ध्दारा लाई ०, दुध पिलाती स्त्री ध्दारा लाई ०, अन्य पुरुषके पास गई स्त्री ध्दारा लाई०, चन्दावाली भिक्षाका त्याग, वहॉसे भी नही (लेता) जहॉ कोई कुता खळा हो, वहॉ से भी नही जहॉ मक्खियॉ भन-भन कर रही हो, न मॉस, न मछली, न सुरा, न कच्ची शराब, न

चावलकी शराब (=तुषोदक) ग्रहण करता है । वह एक ही घरसे जो भिक्षा मिलती है लेकर लौट जाता, एक ही कौर खानेवाला होता है, दो घरसे जो भिक्षा ०, दो ही कोर खानेवाला, सात घर ० सात कौर० । वह एक ही कलछी खाकर रहता है, दो०, सात ० । वह एक एक दिन बीच दे करके भोजन करता है, दो दो दिन०, सात सात दिन, ०। इस तरह वह आधे आधे महीने पर भोजन करते हुये विहार करता है ।

“आवुस गौतम । कुछ श्रमण और ब्राह्मणोके ये भी तपस्या करनेके तरीके है, जिनसे उनका श्रमण-ब्राह्मण-भाव घोतित होता है । वह साग मात्र खाता है० केवल सामा खाकर रहता है या केवल नीवार (=तिन्नी) ० । चमळा खाकर रहता है, सेवाल ०, कण०, कॉजी०, खली०, तृण०, गोबर०, या जंगलके फल-फूल, या वृक्षसे स्वंय गिरे फलको खाकर रहता है ।

“आवुस गौतम । कुछ श्रमणो और ब्राह्मणोके ये भी० । वह सनका बना कपळा धारण करता है, श्मशानके वस्त्रोको धारण०, कफन०, फेके चिथळे०, बल्कल०, मृगचर्म०, मृगके चमळेको बीचमे छेद करके उसमे शिर डालकर धारण०, कुशके बनाये वस्त्र०, चटाई०, मनुष्यके केशके कम्बल०, धोळेके बालके कम्बल०, उल्लूके पंख० । शिर और दाढीके बालोको नोचनेवाला होता है, शिर और दाढीके बालोको नुचवाता है । आसनको छोळकर सदा ठळेसरी रहता है । उकळूँ बैठनेवाला (हो) सदा उकळूँ ही बैठता है । कॉटोपर (ही) बैठता या सोता है । तख्तेपर सोता है । जमीनपर सोता है । एक ही करवटसे सोता है । शरीरपर धूल और गर्दा लपेटे रहता है । केवल खुली ही जगहपर रहता है । जहॉ पाता है वही बैठ जाता है । मैला खाता है । केवल गरम पानी पीता है । सुबह-दोपहर ओर शाम तीन बार जल शयन-करता है ।”

४—सच्ची तपस्यायें

“काश्यप । जो नंगा रहता है, आचार-विचारको छोळ देता है० । वह शील-सम्पत्ति, चित्त-सम्पत्ति और प्रज्ञासम्पत्तिकी भावना नही कर पाता और वह उनका साक्षात्कार भी नही कर पाता । अत वह श्रामण्य और ब्राह्मणसे बिल्कुल दूर है । काश्यप । जब भिक्षु वैर और द्रोहसे रहित होकर मैत्री-भावना करता है । चित्त-मलोके क्षय होनसे निर्मल चित्तकी मुक्ति ओर प्रज्ञाकी मुक्तिको इसी जन्ममे स्वंय जान कर साक्षात् कर प्राप्तकर विहार करता है । काश्यप । (यथार्थमे) वही भिक्षु श्रमण या ब्राह्मण कहलाता है ।

“काश्यप । साग मात्र खानावाला ० है । वह शील-समपत्ति, चित्-समपत्ति और प्रज्ञा-समपत्ति की भावना नही कर पाता ० ।

“काश्यप । जो सनका बना कपळा धारण करता ह० ।”

ऐसा कहनेपर अचेलक काश्यपने भगवानसे यह कहा—“हे गौतम । श्रामण्य दुष्कर है, ब्राह्मण दुष्कर है ।”

“काश्यप । संसारमे लोग ऐसा कहते है—श्रामण्य दुष्कर है, ब्राह्मण्य दुष्कर है । काश्यप । जो नंगे रहते है, आचार विचारको छोळ देते है ०। इतने मात्रसे श्रामण्य और ब्राह्मण्य दुष्कर, सुदुष्कर होना तो श्रामण्य ब्राह्मण्यको दुष्कर ओर सुदुष्कर कहना उचित नही ।

“काश्यप । चूकि इस प्रकारकी तपश्चर्य्यासे बिल्कुल भिन्न होने हीके कारण श्रामण्य और ब्राह्मण्य दुष्कर है, इसी लिये यह कहना ठीक है—‘श्रामण्य दुष्कर है, ब्राह्मण्य दुष्कर है’ । काश्यप । जब भिक्षु०१ वैर-रहित० । काश्यप । (यथार्थमे) यही भिक्षु० ।

“काश्यप । कच्चा साग खानेवाला होता है ० ।

“काश्यप । सनका बना कपळा धारण करता है ० ।

० अचेल काश्यपने ० कहा —“है गौतम । श्रामण्य दुर्ज्ञेय है, ब्राह्मण्य दुर्ज्ञेय है ।”

“० नंगे रहते है ० । काश्यप । यदि इस प्रकारकी कठोर तपस्या करनेसे ० । यदि इतने मात्रसे ० दुर्ज्ञेय ० होता । इन्हे तो ० पनिहारी तक भी जान सकती है । ० ।

“काश्यप । साग मात्र खानेवाला होता है ० ।

“काश्यप । सनका बना वस्त्र धारण करता है ० ।

ऐसा कहनेपर अचेल काश्यपने भगवानसे कहा—“हे गौतम । वह शीलसम्पत्ति कौनसी है, वह चित्तसम्पत्ति कौनसी है, वह प्रज्ञासम्पत्ति कौनसी है ?”

(१) शील-सम्पत्ति

“काश्यप । जब संसारमे तथागत अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध ० उत्पन्न होते है ०१ । आचार-नियमो (=शिक्षापदो) को मानता है और उनके अनुकूल चलता है, काया और वचनसे अच्छे कर्म करनेमे लगा रहता है । सदाचारी, परिशुद्ध, अपनी इन्द्रियोको वशमे रखनेवाला, स्मृतिमान्, सावधान और संतुष्ट (रहता है) । काश्यप । भिक्षु कैसे शीलसम्पन्न होता है ? काश्यप । भिक्षु हिंसाको छोळ हिंसासे विरत रहता है, दण्ड और शस्त्रको छोळ देता है । संकोची, दयालु, और सभी जीवोकी ओर स्नेह दिखाते हुए विहार करता है । यह भी उसकी शीलसम्पत्ति होती है । ० २ । जैसे, कितने हि श्रमण और ब्राह्मण श्रद्धासे दिये भोजनको खाकर इस प्रकारकी बुरी जीविकासे जीवन व्यतीत करते है, जैसे—शान्ति-कर्म (=मिन्नत मानना), प्रणिधि-कर्म (=मिन्नत पूरा करना) ०३ वैद्य-कर्म । इस या इस प्रकारकी दूसरी बुरी जीविकाओसे विरत रहता है । यह भी उसकी शीलसम्पत्ति है ।

“काश्यप । वह भिक्षु इस प्रकार शीलसम्पन्न हो, शीलसवरके कारण कहीसे भय नही देखता। जैसे काश्यप । मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा, शत्रुओको बिल्कुल दमन करनेके बाद कही भी शत्रुओसे भय नही देखता । काश्यप । इसी प्रकार शीलसवरके कारण भिक्षु कहीसे भय नही खाता है, जो यह ० । वह इस आर्य शीलस्कन्घ (=शुद्ध शीलपुज) से युक्त हो अपने भीतर निर्दोष सुखको अनुभव करता है । काश्यप । भिक्षु इस प्रकार शीलसम्पन्न होता है । काश्यप । यह शीलसम्पत्ति है ।

(२) चित्त-सम्पत्ति

“० ४ प्रथम ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है । यह भी उसकी चित्त-सम्पत्ति है । ० दूसरे ध्यान । ० तीसरे ध्यान, ० । ० चौथे ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है । यह भी उसकी चित्त-सम्पत्ति है ।

(३) प्रज्ञा-सम्पत्ति

“वह इस प्रकार समाहित एकाग्रचित्त हो ० ५ ज्ञान-दर्शन की ओर अपने चित्तको लगाता है । ० ५ यह उसकी प्रज्ञा-सम्पत्ति होती है ० आवागमनके किसी कारणको नही देखता । यह भी उसकी प्रज्ञा-सम्पत्ति होती है । काश्यप । यही प्रज्ञा-सम्पत्ति है ।

“काश्यप । इस शील-सम्पत्ति, चित्त-सम्पत्ति और प्रज्ञा-सम्पत्तिसे अच्छी और सुन्दर दूसरी शील-सम्पत्ति, चित्त-सम्पत्ति और प्रज्ञा-सम्पत्ति नही है ।

“काश्यप । कोई-कोई श्रमण और ब्राह्मण है जो शीलवादी है । वे अनेक तरहसे शील (=सदाचार)की प्रशंसा करते है । काश्यप । जहॉ तक सबसे श्रेष्ठ परमशील (का संबंध) है वहॉ तक मै किसी दूसरेको अपने बराबर नही देखता, अधिकका तो कहना ही क्या । अत वहाँ इस शीलके विषयमे ही श्रेष्ठ हूँ ।

“काश्यप । कोई कोई श्रमण ब्राह्मण है जो तपस्याको बुरा समझते है । वे अनेक प्रकारसे तपस्याको बुरा माननेकी ही तारीफ करते है । काश्यप । जहॉ तक सबसे श्रेष्ठ परम तपस्याको बुरा मानना है, वहॉ मै किसी दूसरेको अपने बराबर नही देखता ०।

“काश्यप । कोई कोई ० प्रज्ञावादी (=ज्ञान ही मुक्तिका मार्ग है ऐसा समझनेवाले) है । वे अनेक प्रकारसे प्रज्ञाकीही प्रशंसा करते है । काश्यप । जहॉ तक ० प्रज्ञा है वहॉ तक ०। अत ० मैं ही श्रेष्ठ हूँ ।

“काश्यप । कोई कोई ० विमुक्तिवादी है । वे अनेक प्रकारसे विमुक्तिहीकी प्रशंसा ० । काश्यप । जहॉ तक ० विमुक्ति है वहॉ तक ० । अत ० मै ही श्रेष्ठ हूँ ।

५—बुध्दका सिंहनाद

“काश्यप । हो सकता है दूसरे मतवाले परिब्राजक ऐसा कहे—‘श्रमण गोतम सिंहनाद करता है । (किन्तु) उस सिंहनादको वह सूने घरमे करता है, परिषद्मे नही’ । उन्हे कहना चाहिये—‘ऐसी बात नही है । श्रमण गौतम सिंहनाद करता है, और परिषद्मे करता है ।’ काश्यप । हो सकता है, दूसरे मतवाले परिब्राजक ऐसा कहे—‘श्रमण गौतम सिंहनाद करता है, परिषद्मे (भी) करता है, किन्तु निर्भय होकर नही करता’ । उन्हे कहना चाहिये—‘ऐसी बात नही है। श्रमण गोतम सिंहनाद ० और निर्भय होकर करता है । ० उन्हे ऐसा कहना चाहिये ।—काश्यप । हो सकता है ० ऐसा कहे—‘श्रमण गौतम सिंहनाद ० किन्तु उसे कोई प्रश्न नही पूछता ।’ ० उसे प्रश्न भी पूछते है। ० ऐसी बात भी नही है कि प्रश्नोके पूछे जानेपर वह उनका उत्तर नही दे सकता है । प्रश्नोके पूछे जानेपर वह उनका (ठीक ठीक) उत्तर भी दे देता है । ० ऐसी बात भी नही है कि प्रश्नोके उत्तर नही जँचते हो, प्रश्नोके उत्तर जँचते भी है । ० ऐसी बात भी नही कि (उसका उत्तर) सुननेके योग्य नही होता है, वह सुननेके योग्य होता है ।० ऐसी बात भी नही कि उनके सुननेवाले प्रसन्न नही होते है, प्रसन्न होते है । ० ऐसी बात भी नही कि वे प्रसन्नताकी लही प्रगट करते है, वे प्रसन्नताको प्रकट करते है । ० ऐसी बात भी नही है कि (उसका) वह (उत्तर) सत्यका दिखानेवाला नही होता, वह सत्यका दिखानेवाला होता है ।

“० उन्हे कहना चाहिये—‘ऐसी बात नही है। श्रमण गौतम सिंहनाद करता है, परिषद्मे ०, निर्भय ०, उसे लोग प्रश्न पूछते है, पूछे हुए प्रश्नोका उत्तर देता है, वह उत्तर चित्तको जँचता है, सुननेके योग्य होता है, सुननेवाले प्रसन्न हो जाते है, प्रसन्नताको वे प्रगट करते है, वह उत्तर सत्यको दिखानेवाला होता है, वे (सत्य को) प्राप्त करते है । काश्यप । उन्हे ऐसा कहना चाहिये ।

“काश्यप । एक समय मै राजगृहमे गृध्रकूट पर्वतपर विहरता था । वहॉ मुझे न्यग्रोघ१ तप-ब्रह्मचारीने प्रश्न पूछा । प्रश्नका उत्तर मैने दे दिया । मेरे उत्तर देनेपर वह अत्यन्त संतुष्ट हुआ ।”

“भला, भगवानके धर्मको सुनकर कौन अत्यन्त संतुष्ट नही होगा । भन्ते । मै आपके धर्मको सुनकर अत्यन्त संतुष्ट हूँ । भन्ते । आपने खूब कहा है, आपने खूब कहा है । भन्ते । जैसे उलटे हुएको सीधा कर दे, ढकेको खोल दे, भटके हुएको मार्ग दिखा दे, अन्धकारमे तेलका दीपक

रख दे, जिसमे कि आँखवाले रूप देख ले, इसी प्रकार भगवानने अनेक प्रकारसे धर्मको प्रकाशित किया ।

भन्ते । यह मै आपकी शरण जाता हूँ, धर्मकी और भिक्षुसंधकी भी। भगवानके पाससे मुझे प्रब्रज्या मिले।

उपसम्पदा मिले ।’

“काश्यप । जो दूसरे मतके परिब्राजक इस (मेरे) धर्ममे प्रब्रज्या और उपसम्पदा चाहते है,

वह चार महीने परिवास (=परीक्षार्थ वास) करते है। चार महिनोके बीतनेपर (यदि) वे (उससे) संतुष्ट रहते है, तो भिक्षु प्रब्रज्या देते है, और भिक्षु-भावके लिये उपसम्पदा देते है। अभी तो मै केवल इतनाही जानता हूँ कि तुम कोई मनुष्य हो (अभी तो तुमसे परिचयही हुआ है) ।”

“भन्ते। यदि दूसरे मतवाले परिब्राजक, जब इस धर्ममे प्रवज्या और उपसम्पदा चाहते है, तो (भिक्षु उन्हे) चार महीनोके लिये परिवास देते है, चार महीनोके बाद ० । (तो) मै चार साल तक परिवास करूँगा, चार सालके बीतनेपर यदि भिक्षु लोग मुझसे प्रसन्न हो, तो मुझे प्रब्रज्या और उपसम्पदा देगे ।”

अचेल काश्यपने भगवानके पास प्रब्रज्या पाई । उपसम्पदा पाई । उपसम्पदा पानेके बाद आयुष्मान् काश्यप एकान्तमे प्रमादरहित, उधोगयुक्त, आत्मनिग्रही हो विहरते थोळेही समयमे जिसके लिये कुलपूत्र धरसे बेधर हो साधु होते है, उस अनुपम ब्रह्मचर्यके छोर (=निर्वाण) को इसी जन्ममे स्वंय जानकर साक्षात् कर, प्राप्त कर विहार करने लगे । “आवागमन छूट गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, जो करना था सो कर लिया, और यहॉ कुछ करनेको (शेष) नही रहा”—जान लिया । आयुष्मान् काश्यप अर्हतोमेसे एक हुये ।१