मज्झिम निकाय

1. मूलपरियाय-सुत्तन्त

ऐसा मैने सुना—

एक समय भगवान् उक्कट्ठाके सुभगवनमे सालराजके नीचे विहार करते थे। वहां भगवान् ने भिक्षुओंको संबोधित किया—“भिक्षुओ!”

“भदन्त!”—(कह) उन भक्षुओने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! सारे धर्मोंके मूल नामक (= मूलपरियाय) (उपदेश) को तुम्हे उपदेशता हूँ। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें (धारण) करो, कहता हूँ।”

“हाँ भन्ते!”—(कह) उन भिक्षुओंने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान ने यह कहा—“भिक्षुओ! आर्योंके दर्शनसे वंचित, आर्यधर्मसे अपरिचित, आर्यधर्ममे अविनीत (= न पहुँचे); सत्पुरूषो के दर्शनसे वंचित, सत्पुरूषोके धर्मसे अपरिचित, सत्पुरूषोके धर्ममे अविनीत; अश्रुतवान् (= अज्ञ), पृथग्जन (= अनाडी) पृथ्वीको पृथ्वीके तौर पर समझता है, पृथ्वीको पृथ्वीके तौरपर समझकर पृथ्वी मानता है, पृथिवी-द्वारा मानता है, पृथिवीसे मानता है, पृथ्वी मेरी है-मानता है, पृथ्वीका अभिनन्दन करता है। सो किसलिये?-उसे ठीकसे मालूम नहीं है-कहूँगा। पानीको पानीके तौरपर समझता है ॰। तेजको तेजके तौरपर समझता है ॰। वायुको वायुके तौरपर समझता है ॰। भूतों (= भूत-प्रेतों)को भूतके तौरपर समझता है ॰। देवताओंको देवताके तौरपर समझता है ॰। प्रजापतिको प्रजापतिके तौरपर समझता है ॰। ब्रह्माको ब्रह्माके तौरपर समझता है ॰। आभास्वर (देवताओ) को आभास्वरके तौरपर समझता है ॰। सुभकिण्ह (= शुभकृत्स्न देवताओं) को, सुभकिण्हके तौरपर समझता है ॰। वेहप्फल (= वृहत्फल देवताओं) को वेहप्फलके तौरपर समझता है ॰। अभिभू (देवता) को अभिभूके तौरपर समझता है ॰। आकासानंचायतन (= अनन्त आकाशके निवासी देवताओ)को आकासानंचायतनके तौरपर समझता है ॰। विञ्ञाणंचायतन (= अनन्त विज्ञान जिनका घर है, उन देवताओं) को विञ्ञाणंचायतनके तौरपर समझता है ॰। आकिचञ्ञायतन (= जिनका आयतन कुछ नहीं है, उन देवताओं) को आकिंचञ्ञायतनके तौरपर समझता है ॰। नेवसञ्ञानासञ्ञायतन [=जिनको न संज्ञा (= होश) है, न असंज्ञा, उन देवताओं] को नेवसञ्ञायतनके तौरपर समझता है ॰। दृष्ट (= देखे) को दृष्टके तौरपर समझता है ॰। श्रुत (= सुने)को श्रुतके तौरपर समझता है ॰। स्मृत (= यादमे आये ) को स्मृतके तौरपर समझता है ॰। विज्ञात

(= जाने गये) को विज्ञातके तौरपर समझता है ॰। एकत्त्व (= अकेलेपन) को एकत्त्वके तौरपर समझता है ॰। नानात्त्व (= अनेकपन) को नानात्त्वके तौरपर समझता है ॰। सर्व (= सारे)को सर्व के तौरपर समझता है ॰। निर्वाणको निर्वाणके तौरपर समझता है, निर्वाणको निर्वाणके तौरपर समझकर निर्वाणको मानता है, निर्वाणद्वारा मानता है, निर्वाणसे मानता है, निर्वाण मेरा है-मानता है, निर्वाणको अभिनन्दन करता है। सो किसलिये?-उसे ठीकसे मालूम नहीं है—कहूँगा।

अश्रुतवान् पृथग्जनके द्वारा प्रथम भूमिपरिच्छेद।

“भिक्षुओ! वह भिक्षु भी, जोकि सेख (= शैक्ष्य=जिसको अभी सीखना बाकी है) पहुँचे-हुये-मनवाला नहीं है, सर्वोत्तम योगक्षेम (= कल्याणकारी पद)की चाहमे विहरता है; वह भी पृथ्वीको पृथ्वीके तौरपर समझता है; पृथ्वीको पृथ्वीके तौरपर समझकर या तो पृथ्वी मानता है, या पृथ्वीद्वारा मानता है, या पृथ्वीसे मानता है, या पृथ्वी मेरी है-ऐसा मानता है, या पृथ्वीका अभिनंदन करता है। सो किसलिये ?-(अभी) उसे ठीक से मालुम करना है-कहूँगा। पानीको ॰। तेजको ॰। वायुको ॰। भूतोको ॰। देवताओंको ॰। प्रजापतिको ॰। ब्रह्माको ॰। आभास्वरोको ॰। शुभकृतस्नोंको ॰। वृहत्फलोको ॰। अभिभूको ॰। आकासानंचायतनको ॰। विञ्ज्ञानचायतनको ॰। आकिंचन्जायतनको ॰। नेवसन्जानाजायतनको ॰। दृष्ट ॰। श्रुत ॰। स्मृत ॰। विज्ञात ॰। एकत्त्व ॰। नानात्त्व ॰। सर्व ॰। निर्वाण ॰।

शैक्ष्यके द्वारा द्वितीय भूमिपरिच्छेद ।

“भिक्षुओ! वह भिक्षु भी, जोकि अर्हत् है क्षीणास्त्रव (= राग आदिसे मुक्त), (ब्रह्मचर्य-) वास-समाप्त-कर-चुका, कृतकरणीय, व अवहितभार (= भारको फेंक चुका), सच्चे-पदार्थको-पाचुका, भव (= संसार)के बंधनोको काट चुका, यथार्थ ज्ञानद्वारा मुक्तहो चुका है; वह भी पृथ्वीको पृथ्वीके तौरपर पहिचानता है; पृथ्वीको पृथ्वीके तौरपर पहिचानकर न पृथ्वीको मानता है, न पृथ्वीद्वारा मानता है, न पृथ्वीसे मानता है, न पृथ्वी मेरी है—मानता है न पृथ्वीको अभिनन्दन करता है। सो किस हेतुसे ?-उसे (यह ठीकसे मालूम है-कहुँगा। पानी ॰। तेज ॰। ॰।

क्षीणास्त्रवके द्वारा पहिले प्रकारसे तृतीय भूमिपरिच्छेद।

“भीक्षुओ। वह भिक्षु भी, जोकि अर्हत् है क्षीणास्त्रव ॰; वह भी पृथ्वीको पृथ्वीके तौर पर पहिचानता है ॰ पहिचानकर न पृथिवीको मानता है, ॰। सो किस हेतुसे ?-रागके नष्ट हो जानेसे, वीतराग होनेसे-कहूँगा । पानी ॰। ॰।

क्षीणास्त्रवके द्वारा द्वितीय प्रकारसे चतुर्थ भूमिपरिच्छेद।

“भीक्षुओ। वह भिक्षु भी, जोकि अर्हत् है क्षीणास्त्रव है ॰; वह भी पृथिवीको पृथिवीके तौर पर पहिचानता है ॰ पहिचानकर न पृथिवीको मानता है, ॰। सो किस हेतुसे?-द्वेपके नष्ट हो जानेसे, वीतद्वेप होनेसे-कहूँगा । पानी ॰। ॰।—

क्षीणास्त्रवके द्वारा तृतीय प्रकारसे पंचम भूमिपरिच्छेद।

“भीक्षुओ। वह भिक्षुभी, जोकि अर्हत् है क्षीणास्त्रव है ॰; वह भी पृथिवीको पृथिवीके तौर पर पहिचानता है, ॰ पहिचानकर न पृथिवीको मानता है ॰। सो किस वजहसे ?-मोहके नष्ट हो जानेसे, वीतमोह होनेसे-कहूँगा । पानी ॰। ॰।

क्षीणास्त्रवके द्वारा चौथे प्रकारसे षष्ठ भूमिपरिच्छेद।

“भीक्षुओ। तथागत अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध (= यथार्थ परमज्ञानी) भी पृथिवीको पृथिवीके तौर पर पहिचानता है, ॰ पहिचानकर न पृथिवीको मानते है ॰। सो किस वजहसे ?-तथागतने ठीकसे जान लिया है-कहूँगा । पानी ॰। ॰।

शास्ता (= उपदेष्टा=बुद्ध) द्वारा पहिले प्रकारसे सप्तम भूमिपरिच्छेद।

“भीक्षुओ। तथागत ॰ भी, ॰ पहिचानकर न पृथिवीको मानते है ॰। सो किस वजहसे? नन्दी (= तृष्णा) दुःखका मूल है-ऐसा जानकर, ‘भव (= संसार)मे जन्मने वालेको जरा और मरण (अवश्यंभावी) है’। इसलिये भिक्षुओ! तथागत सारी ही तृष्णाओके क्षय, विराग, निरोध, त्याग, विसर्जनसे, सर्वोत्तम सम्यक्-सबोधि (= यथार्थ परमज्ञान) के जानकार (= अभिसंबुद्ध=संबुद्ध) हैं-कहता हूँ। पानी ॰। ॰।”

शास्ताद्वारा दुसरे प्रकारसे अष्टम भूमिपरिच्छेद।

—भगवान् ने यह कहा, (किन्तु) उन भिक्षुओंने भगवान् के भाषणका अभिनन्दन नहीं किया।1