मज्झिम निकाय

11. चूल-सीहनाद-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”

“भदन्त!” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! यहाँ ही प्रथम श्रमण (= संन्यासी महात्मा) (है), यहाँ द्वितीय श्रमण, यहाँ तृतीय श्रमण, यहाँ चतुर्थ श्रमण है, दूसरे मत (= प्रवाद) श्रमणों से शून्य है।—इस प्रकार भिक्षुओ! अच्छी तरह से सिंहनाद (= सीहनाद) करो।

“हो सकता है भिक्षुओ! अन्य तैर्थिक (= दूसरे मत वाले) यह कहें—’आयुष्मानों को क्या आश्वास=क्या बल है, जिससे कि तुम आयुष्मान् यह कहते हो—यहाँ ही श्रमण है, ॰’। ऐसा कहने वाले अन्य मनानुयायियों को भिक्षुओ! तुम ऐसा कहना—’आवुसो! उन भगवान् जाननहार, देखनहार, अर्हत् सम्यक् संबुद्धने हमे चार धर्म (= बात) बतलाये हैं, जिनको हम अपने भीतर देखते हुये ऐसा कहते हैं—’यहाँ ही श्रमण है ॰। कौन से चार?—आवसो! (1) हमारी शास्ता (= उपदेशक) में श्रद्धा (= प्रसाद) है, (2) धर्म में श्रद्धा है, (3) शील (= सदाचार) में परिपूर्ण कारिता (= पूरा करने वाला होना), (4) सहधर्मी गृहस्थ और प्रब्रजित हमारे प्रिय=मनाप हैं। आवुसो! उन भगवान् ॰ सम्यक्-सम्बुद्ध ने हमे यह चार धर्म बतलाये हैं, जिनको हम अपने भीरत देखते हुये ऐसा कहते हैं—यहाँ ही श्रमण ॰।’

“हो सकता है, भिक्षुओ! अन्य मतानुयायी यह कहे—’आवुसो! (1) जो हमारा शास्ता (= गुरू) है, (उस) शास्ता में हमारी भी श्रद्धा है; जो हमारा धर्म है, (उस) धर्म में हमारी भी श्रद्धा है;(3) जो हमारे शील (= सदाचार) हैं, (उन) शीलों में हमारी भी परिपूर्णकारिता है। हमारे भी सहधर्मी गृहस्थ और प्रब्रजित प्रिय=मनाप हैं। आवुसो! तुम्हारे और हमारे यहाँ क्या विशेष=नाना-करण=अधिप्पाय है? ऐसा कहने वाले अन्यमतानुयायियों को भिक्षुओ! तुम ऐसा कहना—’आवुसो! क्या (= आप लोकों की) एक निष्ठा है, या पृथग् (= अलग) निष्ठा?’ ठीक से उत्तर देने पर भिक्षुओ! अन्यमतावलम्बी यह उत्तर देंगे—’एक निष्ठा है आवुसो! पृथग् निष्ठा नहीं हैं।’ ‘आवुसो! वह निष्ठा क्या सराग के सम्बन्ध में है, या वीतराग के सम्बन्ध में?’ ठीक से उत्तर देने पर अन्यमतावलम्बी यह कहेंगे—’वीतराग के सम्बन्ध मे है वह निष्ठा, आवुसो! सराग के सम्बन्ध में नहीं।’ ‘आवुसो! वह निष्ठा क्या सद्वेष के सम्बन्ध में, या वीतद्वेष के सम्बन्ध में ॰?’ ॰’॰ वीतद्वेष के सम्बन्ध में ॰।’ ‘समोह के सम्बन्ध में, या वीतमोह के ॰?’ ॰ ‘॰ वीतमोह के सम्बन्ध में ॰ं’ ‘.॰ स-तृष्णा के सम्बन्ध में, या वीत-तृष्ण के ॰?’ ॰ ‘॰ वीततृष्ण के सम्बन्ध में ॰।’ ‘॰ स-उपादान (= बटोरने वाले) के सम्बन्ध में, या अनुपादान के ॰?’ ॰’॰ अनुपादान के सम्बन्ध में ॰।’ ‘॰ विद्दसु (= ज्ञानी) ॰ या अ-विद्दसुके ॰?’ ॰ ‘॰ विद्दसुके सम्बन्ध में ॰।’ ‘॰ अनुरूद्ध=प्रतिविरूद्ध के सम्बन्ध में या अन्-अनुरूद्ध=अप्रतिविरद्ध के ॰ ॰?’ ॰ ‘॰ अननुरूद्ध=अप्रतिविरूद्ध के सम्बन्ध में ॰।’ ‘॰प्रपंचाराम=प्रपंचरति के सम्बन्ध में या निष्प्रपंचाराम के ॰?’ ॰ ‘॰ निष्प्रपंचाराम के सम्बन्ध में वह निष्ठा है आवुसो! प्रपंचाराम=प्रपंचरति के सम्बन्ध में नहीं।’

“भिक्षुओ! दो प्रकार की दृष्टियाँ (= धारणायें) हैं—भव (= संसार)-दृष्टि, विभव (= अ-संसार)दृष्टि। भिक्षुओ! जो कोई श्रमण ब्राह्मण भवदृष्टि में लीन, भवदृष्टि को प्राप्त, भवदृष्टि में तत्पर हैं; वह विभवदृष्टि से विरूद्ध हैं; और, भिक्षुओ! जो श्रमण ब्राह्मण विभवदृष्टि में लीन, विभवदृष्टि को प्राप्त, विभवदृष्टि में तत्पर हैं, वह भवदृष्टि से विरूद्ध है। भिक्षुओ! जो श्रमण ब्राह्मण इन दोनों दृष्टियों के समुदय (= उत्पत्ति) अस्तगमन, आस्वाद, आदिनव (= परिणाम) निस्सरण (= निकास) को यथार्थतया नहीं जानते, वह सराग (हैं), सद्वेष, समोह, सतृष्णा, स-उपादान, अ-विद्दसु (= अज्ञानी), अनुरूद्ध=प्रतिविरूद्ध, प्रपंचाराम प्रपंचरत, है; वह जाति, जरामरण, शोक-परिदेव (= क्रंदन)-दुःख-उपायासो से नहीं छूटे हैं—यह मैं कहता हूँ। (और) भिक्षुओ! जो श्रमण ब्राह्मण इन दोनों दृष्टियो के समुदय ॰को यथार्थतया जानते हैं, वह वीतराग (हैं), वीतद्वेप ॰ निष्प्रपंचरत हैं, वह जाति, जरामरण, ॰से छूटे है—यह मैं कहता हूँ।

“भिक्षुओ! यह चार उपादान (= आग्रह, ग्रहण) हैं। कौन से चार?—(1) काम (= इन्द्रियभोग)-उपादान। (2) दृष्टि (= धारणा)-उपादान, (3) शीलव्रत-उपादान; (4) -आत्मवाद-उपादान।

भिक्षुओ! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण (अपने को) सर्व-उपादान-परिज्ञावादी (= सारे उपादानों को त्याग का मत रखने वाले) कहते हुये भी, वह ठीक तौर से सारे उपादानों के परिज्ञा (= परित्याग) को प्रज्ञापित नहीं करते। काम-उपादान की परिज्ञा को कहते हैं, (किन्तु) दृष्टि ॰, शील-व्रत ॰, आत्मवाद-उपादान की परिज्ञा को नहीं प्रज्ञापित करते। सो किस कारण?—यह आप श्रमण ब्राह्मण (उन) तीन बातों (= स्थानों) को ठीक से नहीं जानते, इसीलिये वह श्रमण ब्राह्मण (अपने को) सर्व-उपादान-परिज्ञावादी कहते भी ॰, आत्मवाद-उपादान की परिज्ञा को नहीं प्रज्ञापन करते।—

“भिक्षुओ! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण (अपने को) सर्व-उपादान-परिज्ञा-वादी कहते भी ॰। काम ॰, (और) दृष्टि-उपादान को परिज्ञा को प्रज्ञापते हैं, (किन्तु) शीलव्रत ॰, (और) आत्मवाद-उपादान की परिज्ञा को नहीं प्रज्ञापते। सो किस कारण?—॰ उन दो बातों को ठीक से नहीं जानते ॰।

“भिक्षुओ! कोई कोई ॰ कहते भी ॰। काम ॰, दृष्टि ॰, (और) शीलव्रत-उपादान की परिज्ञा (= परित्याग) को प्रज्ञायते (= बतलाते) हैं, (किन्तु) आत्मवाद-उपादान की परिज्ञा नहीं प्रज्ञायते। सो किस कारण?—॰ इस एक बात को ठीक से नहीं जानते ॰।

“भिक्षुओ! इस प्रकार के धर्मविनय (= मत) में जो शास्ता के सम्बन्ध में श्रद्धा है, वह सम्यग्गत (= ठीक स्थान में) नहीं कही जाती; जो धर्म में श्रद्धा ॰; जो शीलों में परिपूर्ण-कारिता ॰; जो सहधर्मियो में प्रिय-मनापता है, वह सम्यग्गत नहीं कही जाती। सो किस कारण? क्योंकि यह ऐसे धर्म-विनय (= मत) के विषय में है, (जो कि) दुराख्यात (= ठीक से नहीं व्याख्यान किया गया) दुष्प्रवेदित (= ठीक से न जाना गया), अ-नैर्याणिक (= न पार कराने वाला), अन्-उपशम-संवर्तनिक (= शांति को न प्राप्त कराने वाला), अ-सम्यक्-संबुद्ध-प्रवेदित (= यथार्थज्ञानी द्वारा नहीं जाना गया) है।

“भिक्षुओ! तथागत अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध (अपने को) सर्व-उपादान-परिज्ञावादी कहते हुये, ठीक तौर से सभी उपादानों की परिज्ञा को प्रज्ञापते हैं—काम-उपादान ॰, दृष्टि ॰, शीलव्रत ॰, (और) आत्मवाद (= आत्मा कोई नित्यवस्तु है, यह सिद्धान्त)-उपादान की परिज्ञा को प्रज्ञापते है। भिक्षुओ! ऐसे धर्म में जो शास्ता के सम्बन्ध में श्रद्धा है, वह सम्यग्गत (= ठीक स्थान मे) कही जाती है; ॰ ॰। सो किस हेतु?—क्योंकि यह ऐसे धर्म के विषय मे है, (जो कि) सु-आख्यात, सुप्रवेदित, नैर्याणिक, उपशम-संवर्तनिक (और) सम्यक्-संबुद्ध-प्रवेदित है।

“भिक्षुओ! यह चार उपादान किस निदान (= कारण) वाले=किस समुदय वाले, किस जाति वाले=किस प्रभव (= उत्पत्ति) वाले हैं?—यह चारों उपादान तृष्णा-निदान वाले, तृष्णा-समुदय वाले, तृष्णा-जाति वाले, (और) तृष्णा-प्रभव वाले हैं।

“भिक्षुओ! तृष्णा किस निदान वाली है, ॰?—वेदना-निदान वाली ॰।

“॰ वेदना किस निदानवाली, ॰?—स्पर्श-निदान वाली ॰।

“॰ स्पर्श किस निदानवाला, ॰?—षडायतन-निदान वाला ॰।

“॰ षडायतन किस निदानवाला, ॰?—नाम-रूप-निदान वाला ॰।

“॰ नामरूप किस निदानवाला, ॰?—विज्ञान-निदान वाला ॰।

“॰ विज्ञान किस निदानवाला, ॰?—संस्कार-निदान वाला ॰।

“॰ संस्कार किस निदानवाला, ॰?—अविद्या-निदान वाला ॰।

“जब भिक्षुओ! भिक्षु की अविद्या नष्ट हो जाती है, और विद्या उत्पन्न हो जाती है; अविद्या के विराग से (तथा) विद्या की उत्पत्ति से न काम-उपादान पकडा (= उपात्त) जाता है, न दृष्टि-उपादान, ॰ न आत्मवाद-उपादान पकडा जाता है; उपादान (= पकडना) न करने से भयभीत नहीं होता, भयभीत न होने पर इसी शरीर से निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। ‘जन्म क्षीण हो गया, ब्रह्मचर्यवास पूरा हो गया, करना था सो कर लिया, और अब यहाँ कुछ (करने को) नहीं है’—यह जान लेता है।”

भगवान् ने यह कहा। सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।