मज्झिम निकाय
13. महादुक्खक्खन्ध-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
तब बहुत से भिक्षु पूर्वाह्न के समय पहिनकर पात्र चीवर ले श्रावस्ती में पिंडचार के लिये प्रविष्ट हुये। तब उन भिक्षुओं को हुआ—श्रावस्ती में भिक्षाचार करने के लिये अभी बहुत सबेरा है, क्यों न हम जहाँ अन्य-तैर्थिक (= दूसरे-मतवाले) परिब्राजकों का आराम है, वहाँ चले। तब वह भिक्षु जहाँ अन्यतैर्थिक परिब्राजको का आराम था, वहाँ गये; जाकर अन्य तैर्थिक परिब्राजको के साथ (यथायोग्य कुशल प्रश्न पूछ)… एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे उन भिक्षुओ से अन्य तैर्थिक परिब्राजकों ने यह कहा—
“आवुसो! श्रमण गौतम कामों (= भोगों) के परित्याग को कहते हैं, हम भी कामों के परित्याग को कहते हैं। आवुसो! श्रमण गौतम रूपो के परित्याग को कहते हैं, हश्र भी ॰। ॰ वेदना के परित्याग को कहते हैं। यहाँ अवुसो! हमारे और श्रमण गौतम के धर्मोपदेश मे या धर्मोपदेश के अनुशासन करने में क्या विशेष (= भेद) है, क्या अधिक है, क्या नानाकरण (= अन्तर) है?”
तब उन भिक्षुओं ने उन अन्य तैर्थिक परिब्राजकों के भाषण का न अनुमोदन (= अभिनंदन) किया, न प्रतिवाद (= प्रतिक्रोश) किया। बिना अनुमोदन किये, बिना प्रतिवाद किये यह (सोचकर) आसन से उठकर चल दिये, कि भगवान् के पास इस भाषण का अर्थ समझेंगे। तब यह भिक्षु श्रावस्ती में भिक्षाचार करके, भोजनोपरान्त पिंडपात से निबटकर जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठकर उन भिक्षुओ ने भगवान् से यह कहा—
“भन्ते! (आज) हम पूर्वाह्न समय पहिनकर पात्र चीवर ले श्रावस्ती में पिंडचार के लिये प्रविष्ट हुये ॰, कि भगवान् के पास इस भाषण का अर्थ समझेंगे।”
“भिक्षुओ! वैसा कहने वाले अन्यतैर्थिकों को तुम्हें यह कहना चाहिये—’आवुसो! क्या है कामों (= भोगों) का आस्वाद, क्या है परिणाम (= आदिनव), क्या है निस्सरण (= निकास)? क्या है रूपों का आस्वाद ॰? क्या है वेदनाओं का आस्वाद ॰?’ ऐसा कहने पर भिक्षुओ! अन्यतैर्थिक परिब्राजक नहीं (उत्तर) दे सकेंगे, और (इस) पर विघात (= रोष) को प्राप्त होंगे। सो किस हेतु?—क्योकि भिक्षुओ! वह (उनका) विषय नहीं है। भिक्षुओ! देव, मार (= प्रजापति देवता), ब्रह्मा सहित सारे लोक मे; श्रमण ब्राह्मण देव-मानुष सहित सारी प्रजा में, मैं उस (पुरूष) को नहीं देखता, जो इन प्रश्नों का उत्तर दे चित्त को सन्तुष्ट करे, सिवाय तथागत या तथा— गत के शिष्य या यहाँ से सुने हुये के।
1—“भिक्षुओं! क्या है कामों का दुष्परिणाम? भिक्षुओ! यहाँ कुल-पुत्र जिस (किसी) शिल्प से—चाहे मुद्रा से, या गणना से, या संख्यान से, या कृषि से, या वाणिज्य से, गो-पालन से, या वाण-अस्त्र से, या राजा की नौकरी से, या किसी अन्य शिल्प से—शीत-उष्ण-पीडित, डंस-मच्छर-हवा-धूप-सरीसृप (= साँप बिच्छु) के स्पर्श से उत्पीड़ित होता, भूख-प्यास से मरता, जीविका करता है। भिक्षुओ! यह कामों का दुष्परिणाम है। इसी जन्म में काम के हेतु=काम-निदान, काम के अधिकरण (= विषय) से (यह लोक) दुःखो का पुंज है। भिक्षुओ! उस कुलपुत्र को यदि इस प्रकार उद्योग करते=उत्थान करते, मेहनत करते, वह भोग नहीं उत्पन्न होते, (तो) वह शोक करता है, दुःखी होता है, चिल्लाता है, छाती पीटकर क्रंदन करता है, मूर्छित होता है-’हाय! मेरा प्रयत्न व्यर्थ हुआ, मेरी मेहनत निष्फल हुई!!” भिक्षुओ! यह भी कामों का दुष्परिणाम है ॰। दुःख का पुंज है। यदि भिक्षुओ! उस कुलपुत्र को इस प्रकार उद्योग करते ॰ वह भोग उत्पन्न होते है; तो वह उन भोगों की रक्षा के लिये दुःख=दौर्मनस्य झेलता है—’कहीं मेरे भोग को राजा न हर ले, चोर न हर ले जायें, आग न डाहे, पानी न बहा ले जाये, अप्रिय दायाद न ले जायें’ उसके इस प्रकार रक्षा=गोपन करते उन भोगों को राजा हर ले जाते हैं ॰; वह शोक करता है ॰—’जो भी मेरा था, वह भी मेरा नहीं है’। भिक्षुओ! यह भी कामों का दुष्परिणाम ॰।
“और फिर भिक्षुओ! कामो के हेतु=काम-निदान, कामों के विषय में, कामों के लिये राजा भी राजाओ से झगड़ते हैं; क्षत्रिय लोग क्षत्रियों से झगड़ते हैं; ब्राह्मण ब्राह्मणों से ॰; गृहपति (= वैश्य) गृहपतियों से ॰; माता पुत्र के साथ झगड़ती है; पुत्र भी माता के साथ ॰; पिता भी पुत्र के साथ ॰; पुत्र भी पिता के साथ ॰; भाई भाई के साथ ॰; भाई भगिनी के साथ ॰; भगिनी भाई के साथ ॰; मित्र मित्र के साथ झगड़ते हैं। वह वहाँ कलह=विग्रह=विवाद करते, एक दूसरे पर हाथों से भी आक्रमण करते हैं, ढलों से भी ॰; डंडो से भी ॰ शस्त्रों से भी आक्रमण करते हैं। वह वहाँ मृत्यु को प्राप्त होते हैं, या मृत्यु-समान दुःख को। भिक्षुओ! यह भी कामों का दुष्परिणाम ॰।
“और फिर भिक्षुओ! कामों के हेतु ढाल-तलवार (= असि-चर्म) लेकर, तीर-धनुष चढ़ाकर, दोनों ओर से व्यूह रचे, संग्राम में दौडते हैं। वाणों के चलाये जाते में, शक्तियों के फेंके जाते में, तलवारों की चकाचैंध में, वह बाणों से बिद्ध होते हैं, शक्तियों से ताडित होते हैं, तलवार से शिरच्छिन्न होते हैं। वह वहाँ मृत्यु को प्राप्त होते है, या मृत्युसमान दुःख को। यह भी भिक्षुओ! कामों का दुष्परिणाम ॰।
“और फिर भिक्षुओ! कामों के हेतु ॰, ढाल-तलवार लेकर, धनुर्बाण चढ़ाकर, भीगे-लिपे प्राकारों (= उपकारी=शहर-पनाह) की ओर दौडते है। वाणों के चलाये जाते में ॰।
“और फिर भिक्षुओं! कामों के हेतु ॰ संध भी लगाते है, (गाँव) उजाड कर ले जाते हैं, चोरी (= एकागारिक, एक घर में घुसकर चुराना) भी, रहज़नी (= परिपन्थ) भी करते हैं, परस्त्रीगमन भी करते हैं। तब उन्हें राजा लोग पकडकर नाना प्रकार के दंड (= कम्मकरण) देते हैं—चाबुक से भी पिटवाते हैं, बंत से भी ॰, जुर्माना भी करते हैं, हाथ भी काटते हैं, पैर भी काटते हैं, हाथ-पैर भी काटते हैं, कान भी ॰, नाक भी ॰, कान-नाक भी ॰, बिलंग-थालिक भी करते॰ हैं, शंखमुंडिका भी ॰, राहुमुख भी ॰, ज्योर्तिमालिका भी ॰, हस्त-प्रज्योतिका भी ॰, एरकवर्तिका भी ॰, चीरकवासिका भी ॰, ऐणेयक भी ॰, बडिशमंसिका भी ॰, कार्षापणक भी ॰, खरापतच्छिका भी ॰, परिघपरिवर्तिका ीाी ॰, पलालपीठक भी ॰, तपाये तेल से भी नहलाते हैं, कुत्तों से भी कटवाते हैं, जीते जी शूली पर चढ़वाते हैं, तलवार से शिर कटवाते हैं। वह वहाँ मरण को प्राप्त होते हैं, मरण समान दुःख को भी ॰, यह भी भिक्षुओ! कामो का दुष्परिणाम ॰।
“और फिर भिक्षुओ! काम के हेतु काया से दुश्चरित (= पाप) करते, वचन से ॰, मन से दुश्चरित करते हैं। वह काय ॰-वचन ॰ मन से दुश्चरित करके, शरीर छोडने पर मरने के बाद, अपाय=दुर्गति=विनिपात, निरय (= नर्क) में उत्पन्न होते हैं। भिक्षुओ! यह कामों का जन्मान्तर में दुष्परिणाम दुःख-पुंज काम-हेतु=काम-निदान (ही है) कामों का झगडा कामों (= भोगों) ही के लिये होता है।
1—“क्या है भिक्षुओ! कामों का निस्सरण (= निकास)?—भिक्षुओ! जो यह कामों से छन्द=राग का हटाना, छन्द=राग का परित्याग, यह कामों का निस्सरण है। भिक्षुओ! जो कोई श्रमण ब्राह्मण इस प्रकार कामों के आस्वाद, कामों के आदिनव (= दुष्परिणाम), दुष्परिणाम से निस्सरण, निस्सरण से उसे यथाभूत (= उसके स्वरूप को यथार्थ से) नहीं जानते, वह स्वयं कामों को छोडेंगे या दूसरों को वैसा (करने के लिये) शिक्षा देंगे, जिस पर चलकर कि वह (पुरूष) कामों को छोडेगा; यह सम्भव नहीं। भिक्षुओ! जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इस प्रकार कामों के आस्वाद, आस्वाद से दुष्परिणाम, दुष्परिणाम से निस्सरण, निस्सरण उसे यथाभूत जानते हैं; वह स्वयं कामों को छोड़ेंगे, ॰ यह सम्भव है।
“क्या है भिक्षुओ! वेदनाओं का आस्वाद?—यहाँ भिक्षुओं! भिक्षु कामों से विरहित, बुरी बातों से विरहित, सवितर्क और सविचार, विवेक से उत्पन्न प्रीति और सुखवाले ॰ प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगता है। जिस समय भिक्षुओ! भिक्षु कामों से विरहित ॰ प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरता है; उस समय न अपने को पीडित करने का ख्याल रखता है, न दूसरे को पीडित करने का ख्याल रखता है, न (अपने और पराये) दोनों को ॰। व्याबाधा (= पीडा पहुँचाने) से रहित वेदना ही को उस समय अनुभव करता है; भिक्षुओ! वेदनाअें के आस्वाद को अन्याबाधता पर्यन्त, मैं कहता हूँ।
“और फिर भिक्षुओं! भिक्षु वितर्क और विचार के शान्त होने पर भीतरी शन्ति तथा चित्त की एकाग्रता वाले वितर्क-रहित-विचार रहित प्रीति सुखवाले द्वितीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰ तृतीय-ध्यान को ॰। ॰ चतुर्थ-ध्यान को ॰। जिस समय भिक्षुओ! भिक्षु सुख और दुःख के परित्याग से, सौमनस्य (= चित्तोल्लास) ओर दौर्मनस्य (= चित्त-सन्ताप) के पहिले ही अस्त हो जाने से, सुख-दुःख-विरहित उपेक्षा से स्मृति की शुद्धि वाले चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगता है, उस समय न वह अपने को पीडित करता है ॰। भिक्षुओ! वेदनाओं का आस्वाद को अव्याबाधता पर्यन्त मै कहता हूँ।
“क्या है भिक्षुओ! वेदनाओं का दुष्परिणाम?—जो कि भिक्षुओ! वेदना अनित्य, दुःख और विपरिणाम (= विकार) स्वभाव वाली है; यही वेदनाओं का आदिनव (= दुष्परिणाम) है।
“क्या है भिक्षुओ! वेदनाओं का निरसरण?—जो कि भिक्षुओ! वेदनाओं से छन्द=राग का हटाना, छन्द=राम का प्रहाण (= त्याग) यही वेदनाओं का निस्सरण है।
“भिक्षुओ! जो कोई श्रमण ब्राह्मण इस प्रकार वेदनाओं के आस्वाद को आस्वादन करते, आदिनव को आदिनव की भाँति, निस्सरण को निस्सरण की भाँति ठीक तौर से नहीं जानते; वह स्वयं वेदनाओं को त्यागेंगे, और दूसरों को वैसा करने के लिये अनुशासन करेंगे, यह सम्भवनहीं। किन्तु, भिक्षुओ! जो कोई श्रमण ब्राह्मण इस प्रकार वेदनाओं के आस्वाद को आस्वादन न करते, आदिनवको आदिनव की भाँति ॰ जानते है; वह स्वयं वेदनाओं को त्यागेंगे ॰ यह सम्भव है।”
भगवान् ने यह कहा; सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।