मज्झिम निकाय

14. चूल-दुक्ख-क्खन्ध-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् शक्य (देश) में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार करते थे।

तब महानाम शाक्य जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया। आकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठा। एक ओर बैइे महानाम शाक्य ने भगवान् से कहा—

“भन्ते! दीर्घ-रान्न (= बहुत समय) से भगवान् के उपदिष्ट धर्म को मैं इस प्रकार जानता हूँ—लोभ चित्त का उपक्लेश (= मल) है, द्वेष चित्त का उपक्लेश है, मोह चित्त का उपक्लेश है। तो भी एक सयम लोभ-वाले धर्म मेरे चित्त को चिपट रहते हैं। तब मुझे भन्ते! ऐसा होता है—कौन सा धर्म (= बात) मेरे भीतर (= अध्यात्म) से नहीं छूटा है, जिससे कि एक समय लोभधर्म ॰?”

“महानाम! वही धर्म तेरे भीतर से नहीं छूटा, जिससे कि एक समय लोभ-धर्म तेरे चित्त को ॰। महानाम! यदि वह धर्म भीतर से छूटा हुआ होता, तो तु घर में वास न करता, कामोपभोग न करता। चूंकि महानाम! वह धर्म तेरे भीतर से नहीं छूटा, इसलिये तू गृहस्थ है, कामोपभोग करता है। (यह) काम (= भोग) अ-प्रसन्न करने वाले, बहुत दुःख देने वाले, बहुत उपायास (= परेशानी) देने वाले हैं। इनमें आदिनव (= दुष्परिणाम) बहुत हैं। महानाम! जब आर्यश्रावक यथार्थतः अच्छी प्रकार जानकर इसे देख लेता है, तो वह कामों से अकुशल (= बुरे)-धर्मों से, अलग ही में प्रीति-सुख या उससे भी अधिक शांततर (सुख को) नहीं पाता, वह कार्मोंं में ‘लौटने वाला’ होता है। महानाम! आर्यश्रावक को जब काम;(= भोग) अ-प्रसन्न करने वाले, बहुत दुःख देने वाले, बहुत परेशानी करने वाले मालूम होते हैं; ‘इनमें आदिनव बहुत है’ इसे महानाम! जब आर्य-श्रावक यथार्थतः अच्छी प्रकार जानकर इसे देख लेता है; तो वह कामों से अलग, अ-कुशल धर्मों से पृथक् ही, प्रीति सुख या उससे शांततर (सुख) पाता है, तब वह कामों की ओर ‘न-फिरनेवाला’ होता है।

“मुझे भी महानाम! संबोधि (प्राप्त करने) से पूर्व बुद्ध न हो, बोधिसत्व होते समय, यह अप्रसन्न करने वाले, बहु दुःख, बहुत परेशानी करने वाले काम (होते थे), तब ‘इनमें दुष्परिणाम बहुत हैं’—यह ऐसा यथार्थतः अच्छी प्रकार जानकर मैने देखा, किंतु कामों से अलग, अकुशल धर्मों से अलग, प्रीति-सुख, या उनसे शांततर (सुख) नहीं पा सकां इसलिये मैने उतने से कामो की ओर ‘न लौटने वाला’ (अपने को) नहीं जाना। जब महानाम! काम अप्रसन्नकर बहु-दुःखद, बहु-आयासकर हैं; इनमें दुष्परिणाम बहुत है’ यह ऐसा ॰। तो कामों से, अकुशल धर्मों से अलग ही प्रीति-सुख (तथा) उससे भी शांत-तर (सुख) पाया; तब मैने (अपने को) कामों की ओर ‘न लौटनेवाला’ जाना।

“महानाम! कामों का आस्वाद (= स्वाद) क्या है?—महानाम! यह पाँच काम-गुण ॰। कौन से पाँच? (1) इष्ट, कांत, रूचिकर, प्रिय-रूप, काम-युक्त, (चित्त को) रंजित करने वाला, चक्षु से विज्ञेय (= जानने योग्य) रूप। (2) इष्ठ कान्त ॰ श्रोत्र-विज्ञेय शब्द। (3) ॰ घ्राण-विज्ञेय गंध। (4) ॰ जिह्वा-विज्ञेय रस। (5) ॰ काय-विज्ञेय स्पर्श। महानाम! यह पाँच काम-गुण हैं। महानाम! इन पाँच काम गुणों के कारण जो सुख या सौमनस्य (= दिल की खुशी) उत्पन्न होता है, यही कामों का आस्वाद है।

“महानाम! कामों का आदिनव (= दुष्परिणाम) क्या है? महानाम! कुल-पुत्र जिस किसी शिल्प से—चाहे मुद्रा से, या गणना से, या संख्यान से, या कृषि से, या वाणिज्य से, गोपालन से, या बाण-अस्त्र से, या राजा की नौकरी (= राज-पोरिस) से, या किसी (अन्य) शिल्प से, शीत-उष्ण-पीडित (= ॰पुरस्कृत), डंस-मच्छर-हवा-धूप-सरीसृप (= साँप बिच्छू आदि) के स्पर्श से उत्पीडित होता, भूख प्यास से मरता, जीविका करता है। महानाम! यह कामों का दुष्परिणाम है। इसी जन्म में (यह) दुःखों का पुंज (= दुःख-स्कंध) काम-हेतु=काम-निदान, काम-अधिकरण (= ॰ विषय) कामों ही के कारण है। महानाम! उस कुल-पुत्र को यदि इस प्रकार उद्योग करते=उत्थान करते, मेहनत करते, वह भोग नहीं मिलते (तो) वह शोक करता है, दुःखी होता है, चिल्लाता है, छाती पीटकर क्रंदन करता है, मूर्छित होता है—’हाय! मेरा प्रयत्न व्यर्थ हुआ, मेरी मेहनत निष्फल हुई!!’ महानाम्! यह भी कामों का दुष्परिणाम ॰, इसी जन्म में दुःख-स्कंध ॰। यदि महानाम! उस कुलपुत्र को इस प्रकार उद्योग करते ॰ वह भोग मिलते है। तो वह उन भोगों की रक्षा के विषय में दुःख=दौर्मनस्य झेलता है—’कहीं मेरे भोग को राजा न हर ले जायें, चोर न हर ले जायें, आग न डाहे, पानी न बहाये, अ-प्रिय-दायाद न ले जायें’। उसके इस प्रकार रक्षागोपन करते उन भोगों को राजा ले जाते हैं ॰; वह शोक करता है ॰—’जो भी मेरा था, वह भी मेरा नहीं है’। महानाम! यह भी कामों का दुष्परिणाम ॰।

“और फिर महानाम! कामों के हेतु=कामनिदान, कामों के झगड़े (= अधिकरण) से कामों के लिये राजा भी राजाओं से झगडते हैं, क्षत्रिय लोग क्षत्रियों से ॰, ब्राह्मण ब्राह्मणों से ॰, गृहपति (= वैश्य) गृहपतियों से ॰, माता पुत्र के साथ ॰, पुत्र भी माता के साथ ॰, पिता भी पुत्र के साथ ॰, पुत्र भी पिता के साथ ॰, भाई भाई के साथ ॰, भाई भगिनी के साथ ॰, भगिनी भाई के साथ ॰, मित्र मित्र के साथ झगडते हैं। वह वहाँ कलह=विग्रह=विवाद करते, एक दूसरे पर हाथों से भी आक्रमण करते हैं, ढेलों से भी ॰, डंडो से भी ॰, शस्त्रों से भी आक्रमण करते हैं। वह वहाँ मृत्यु को प्राप्त होते है, या मृत्यु-समान दुःख को। महानाम! यह भी कामों का दुष्परिणाम ॰।

“और फिर महानाम! कामो के हेतु ॰ ढाल-तलवार (= असि-चम्म) लेकर, धनुष (= धनुष-कलाप=धनुष-लकडी) चढ़ज्ञकर, दोनों ओर से व्यूह रचे संग्राम में दौडते हैं। बाणों के चलाये जाते में, शक्तियों के फेंके जाते में, तलवारों की चमक में, वह बाणों से बिद्ध होते है, शक्तियों से ताडित होते हैं, तलवार से शिर-च्छिन्न होते हैं। वहाँ मृत्यु को प्राप्त होते है, या मृत्यु-समान दुःख को। यह भी महानाम! कामो का दुष्परिणाम ॰।

“और फिर महानाम! कामों के हेतु ॰, तलवार लेकर; धनुष चढ़ाकर, भीगे-लिपे हुये प्राकारो (= उपकारी=शहर-पनाह) को दौडते हैं। बाणों के चलाये जाते में ॰। वह वहाँ मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॰। यह भी महानाम! कामो का दुष्परिणाम ॰।

“और फिर महानाम! कामों के हेतु ॰ सेंध भी लगाते हैं, (गाँव) उजाड कर ले जाते हैं, चोंरी (= एकागारिक=एक घर को घेरकर चुराना) भी करते हैं, रहज़नी (= परिपन्थ) भी करते हैं, पर-स्त्री-गमन भी करते हैं। तब उसको राजा लोग पकड कर नाना प्रकार की सजा (= कम्मकरण) कराते हैं—चाबुक से पिटवाते हैं, बेंत से भी ॰, जुर्माना करते है, हाथ भी काटते हैं, पैर भी काटते हैं, हाथ पैर भी काटते हैं। कान भी ॰, नाक भी ॰, कान-नाक भी ॰ बिलंगथालिक भी करते है, शंख-मूर्धिका भी ॰, राहुमुख भी ॰, ज्योतिमालिका भी ॰, हस्त-प्रज्योतिका भी ॰, एरक-वर्तिका भी ॰, चीरक-वासिका भी ॰, ऐणेयक भी ॰, वडिश-मांसिका भी ॰, कार्षापणक भी ॰, खारापनच्छिक भी ॰, परिघ-परिवर्तिक भी ॰, पलाल-पीठक भी ॰, तपाये तेल से भी नहलाते हैं, कुत्तो से भी कटवाते हैं, जीते जी शूलीपर चढ़वाते हैं, तलवार से शीश कटवाते हैं। वह वहाँ मरण को प्राप्त होते हैं, मरण-समान दुःखों को भी। यह भी महानाम! कामों का दुष्परिणाम ॰।

“और फिर महानाम! काम के हेतु ॰ काया से दुश्चरित (= पाप) करते हैं, वचन से ॰, मन से ॰ वह वह काय ॰-वचन ॰-मन से दुश्चरित करके, शरीर छोडने पर मरने के बाद, अपाय=दुर्गति=विनिपात, निरय (नर्क) में उत्पन्न हेाते हैं। महानाम! जन्मान्तर में यह कामों का दुष्परिणाम दुःख-पुंज काम-हेतु=काम-निदान, कामों का झगडा कामों ही के लिये होता है।

एक समय महानाम! मैं राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर विहार करता था। उस समय बहुत से निगंठ (= जैन-साधु) ऋषिगिरि की कालिशिला पर खड़े रहने (का व्रत) ले, आसन छोड, उपक्रम करते, दुःख, कटू, तीव्र, वेदना झेल रहे थे। तब मैं महानाम! सायंकाल ध्यान से उठकर, , जहाँ ऋषिगिरि के पास कालशिला थी, जहाँ पर कि वह निगंठ थे; वहाँ गया। जाकर उन निगंठो से बोला—’आवुसो! निगंठो! तुम खड़े क्यों हो, आसन छोड़े…दुःख, कटुक, तीव्र वेदना झेल रहे हो!” ऐसा कहने पर उन निगंठो ने कहा—’आवुस! निगंठ नाथपुत्त (= जैनतीर्थंकर महावीर) सर्वज्ञ=सर्वदर्शी, आप अखिल (= अपरिशेष) ज्ञान=दर्शन को जानते हैं—’चलते, खड़े, साते, जागते, सदा निरंतर (उनको) ज्ञान=दर्शन उपस्थित रहता है’। वह ऐसा कहते हैं—’निगंठो! जो तुम्हारा पहिले का किया हुआ कर्म है, उसे इस कड़वी दुष्कर-क्रिया (= तपस्या) से नाश करों, और जो इस वक्त यहाँ काय-वचन-मन से संवृत (= पाप न करने के कारण रक्षित, गुप्त) हो, यह भविष्य के लिये पाप का न करना हुआ। इस प्रकार पुराने कर्मों का तपस्या से अन्त होने से, और नये कर्मों के न करने से, भविष्य में चित्त अन्-आस्रव (= निर्मल) होगां भविष्य में आस्रव न होने से, कर्म का क्षय (होगा), कर्म-क्षय से दुःख का क्षय; दुःख-क्षय से वेदना (= झेलना) का क्षय, वेदना-क्षय से सभी दुःख-नष्ट होगे। हमें यह (विचार) रूचता है=खमता है, इसमें हम संतुष्ट है।’

“ऐसा कहने पर मैंने महानाम! उन निगंठो से कहा—’क्या तुम आवुसो! निगंठो! जानतो हो ‘हम पहिले थे ही, हम नहीं न थे?’ ‘नहीं आवुस!’ ‘क्या तुम आवुसो! निगंठो! यह जानते हो—’हमने पूर्वं में पापकर्म किये ही हैं, नहीं नहीं किये?’ ‘नहीं आवुस!’ ‘क्या तुम आवुसो! निगंठो! यह जानते हो—अमुक अमुक पाप कर्म किये है’? ‘नहीं आवुस!’ ‘क्या तुम आवसो! निगंठो! जानते हो, इतना दुःख नाश हो गया,

इतना दुःख नाश करना है, इतना दुःखनाश होने पर सब दुःख नाश हो जायेगा?’ ‘नहीं आवुस!’ ‘क्या तुम आवुसो! निगंठो! जानते हो—इसी जन्म में अकुशल (= बुरे) धर्मों का प्रहाण (= विनाश), और कुशल (= अच्छे) धर्मों का लाभ (होना है)? ‘नहीं आवुस!’ ‘इस प्राकर ॰ निगंठो! तुम नहीं जानते—हम पहिले थे, या नहीं ॰। इसी जन्म में अकुशल धर्मों का प्रहाण, और कुशल धर्मों का लाभ (होना है)। ऐसा ही होने (ही) से तो आवुस! निगंठो! जो लोक में रूद्र (= भयंकर) खुन-रंगेहाथ वाले, क्रुर-कर्मा, मनुष्यों में नीच जातिवाले (= पंचा जाता) हैं, वह निगंठो में साधु बनते हैं।’ ‘आवुस! गौतम! सुख से सुख प्राप्य नहीं है, दुःख से सुख प्राप्य है। आवुस! गौतम! यदि सुख से सुख प्राप्य होता, तो राजा मागध श्रेणिक बिंबसर सुख प्राप्त करता। राजा मागध श्रेणिक बिंबसार आयुष्मान् (= आप) से बहुत सुख-विहारी है।’ ‘आयुष्मान् निगंठो ने अवश्य, बिना विचारे जल्दी में यह बात कही।’ ‘आवुस! गौतम! सुख से सुख नहीं प्राप्य है, दुःख से सुख प्राप्य है। सुख से यदि आवुस! गौतम! सुख प्राप्त होता, तो राजा मागध श्रेणिक बिंबसार सुख प्राप्त करता; राजा मागध श्रेणिक बिंबसार आयुष्मान् गौतम से बहुत सुख-विहारी है। (आप लोगों को) तो मुझे ही पूछना चाहिये—आयुष्मानों के लिये कौन अधिक सुख विहारी है, राजा ॰ बिंबसार या आयुष्मान् गौतम?’ ‘अवश्य आवुस! गौतम! हमने बिना विचारे जल्दी में बात कही। नहीं आवुस! गौतम! सुख से सुख प्राप्य है ॰। जाने दीजिये इसे, अब हम आयुष्मान् गौतम से पूछते हैं—आयुष्मानों के लिये कौन अधिक सुख-विहारी है, राजा ॰ बिंबसार या आयुषमान् गौतम?’ ‘तो आवुसो! निगंठो तुमको ही पूछते हैं, जैसा तुम्हें जँचे, वैसा उत्तर दो। तो क्या मानते हो आवुसो! निगंठो! क्या राजा ॰ बिंबसार काया से बिना हिले, वचन से बिना बोले, सात रात-दिन केवल (= एकांत) सुख अनुभव करते विहार कर सकता है?’ ‘नहीं आवुस!’ ‘तो क्या मानते हो, आवुसो! निगंठो! ॰ छः रात-दिन केवल सुख अनुभव करते विहार कर सकता है?’ ‘नहीं आवुस!’ ‘॰ पाँच रात-दिन ॰’ ‘॰ चार रात-दि॰।’ ‘॰ तीन रात-दिन॰।’ ‘॰ दो रात-दिन ॰।’ ‘॰ एक रात-दिन ॰?’ ‘नहीं आवुस!’ ‘आवुसो! निगंठो! मैं काय से बिना हिले, वचन से बिना बोले एक रात-दिन॰, दो रात-दिन॰, तीन रात-दिन॰, चार॰, पाँच॰, छः॰, सात रात-दिन केवल-सुख अनुभव करता विहार कर सकता हूँ। तो क्या मानते हो आवुसो! निगंठो! ऐसा होने पर कौनर अधिक सुख-विहारी है। राजा मागध श्रेणिक बिंबसार, या मै?’ ‘ऐसा होने पर तो राजा मागध श्रेणिक बिंबसार से आयुष्मान् गौतम ही अधिक सुख-विहारी हैं।”

भगवान् ने, यह कहा, महानाम शाक्य ने सन्तुष्ट हो भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।