मज्झिम निकाय

15. अनुमान-सुत्तन्त

ऐसा मैने सुना—

एक समय आयुष्मान् महामौद्गल्यायन भर्ग (देश) में, सुंसुमार-गिरी के भेषकलावन मृगदाव में विहार करते थे। वहां आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने भिक्षुओं को संबांधित किया—“आवुसो भिक्षुओ!”

“आवुस!” (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् महामौद्गल्यायन को उत्तर दिया।

आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने यह कहा—

1—“चाहे आवुसो! भिक्षु (जबानी) यह कहता भी है—आयुष्मान् कहें, मैं आयुष्मानों के वचन (= दोष दिखाने वाले शब्द) का पात्र हूँ; किन्तु यदि वह दुर्वचनी है, दुर्वचन पैदा करने वाले धर्मों से युक्त है; और अनुशासन ग्रहण-करने में अ-क्षम (= असमर्थ) अ-प्रदक्ष्ज्ञिण-ग्राही (= उत्साह-रहित) है। तो फिर स-ब्रह्मचारी न तो उसे (शिक्षा) वचन का पात्र मानते हैं, न अनुश्वासनीय मानते हैं; न उस व्यक्ति में विश्वासोत्पन्न करना (उचित) मानते हैं।

“आवुसो! कौन से हैं दुर्वचन पैदा करने वाले धर्म?—यहाँ आवुसो! भिक्षु पापेच्छ (= बदनीयत) हो, पापिका (= बुरी) इच्छाओं के वशीभूत होता हैं जो कि आवुसो! भिक्षु ॰ पापिका इच्छाओ के वशीभूत है, यह भी आवुसो! दुर्वचन पैदा करने वाले धर्म (= बात) है।

“और फिर आवुसो! भिक्षु आत्मोत्कर्षक (= अपनी उन्नति या प्रशंसा चाहने वाला) होता है, और दूसरे की पतन (या निंदा) चाहने वाला। ॰ यह भी आवुसो दुर्वचन पैदा करने वाला धर्म है।

“और फिर आवुसो! भिक्षु क्रोधी होता है, क्रोध के वशीभूत ॰। ॰।

“॰ भिक्षु क्रोधी होता है, क्रोध के हेतु उपनाह (= ढोंग) से युक्त होता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु क्रोधी होता है, क्रोध के हेतु अभिषंग (= डाह) से युक्त होता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु क्रोधी होता है, क्रोधपूर्ण वाणी का निकालने वाला होता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु दोष दिखलाने पर दोष दिखलाने वाले के लिये प्रतिस्फरण (= प्रतिहिंसा) करता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु दोष दिखलाने से, दोष दिखलाने वाले को नाराज करता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु दोष दिखलाने से, दोष दिखलाने वाले पर उल्टा आरोप करता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु दोष दिखलाने पर दोष दिखलाने वाले के साथ दूसरी दूसरी (बात) ले लेता है, बात को (प्रकरण को) बाहर ले जाता है; कोप, द्वेष अप्रत्यय (= नाराजगी) उत्पन्न कराता है ॰। ॰।

“॰ भिक्षु दोष दिखलाने पर, दोष दिखलाने वाले के साथ अपदान (= साथ छोडना) अ-सम्प्रायण (= अ-स्वीकार) करता है ॰। ॰।

“और फिर आवुसो! भिक्षु भ्रक्षी (= अमरखी) और प्रदाशी। (= निष्ठुर) होता है ॰। ॰।

“॰ ईष्र्यालु और मत्सरी होता है ॰। ॰।

“॰ शठ और मायावी ॰। ॰।

“॰ स्तब्ध (= जड) और अतिमानी (= अभिमानी) ॰। ॰।

“॰ सदृष्टिपरामर्पी (= तुरन्त लाभ चाहने वाला) और आधानग्राही (= हठी) और दुष्प्रति निस्सर्गी (= न त्यागने वाला) होता है ॰। ॰।

2—“चाहे आवुसो! भिक्षु (= यह न भी कहता है—’आयुष्मान् कहें ॰; किन्तु यदि वह सुवचनी है, और सुवचन पेदा करने वाले धम्र्मों से युक्त है; और वह अनुशासन ग्रहण करने में क्षम (= समर्थ) प्रदक्षिण-ग्राही (= उत्साह से ग्रहण करने वाला) है; तो फिर सब्रह्मचारी उसे (उपदेशयुक्त) वचन का पात्र मानते हैं, अनुशासनीय मानते हैं, उस व्यक्ति में विश्वास उत्पन्न करना (उचित) मानते हैं।

“आवुसो! कौन से हैं सुवचन पैदा करने वाले धर्म?—यहाँ आवुसो! भिक्षु न पापेच्छा होता है, न बुरी इच्छाओं के वशीभूत। जो कि आवुसो! भिक्षु न पापेच्छ है, न बुरी इच्छाओं के वशीभूत; यह भी आवुसो! सुवचन पैदा करने वाला धर्म है।

“और फिर आवुसो! भिक्षु न आत्मोत्कर्षक होता, न पर-अपकर्षक। ॰ यह भी आवुसो! सुवचन पैदा करने वाला धर्म है।

“॰ न क्रोधी होता है, न क्रोधाऽभिभूत ॰। ॰।

“॰ न क्रोधी ॰ न क्रोध के हेतु उपनाही ॰। ॰।

“॰ न क्रोधी ॰ न क्रोध के हेतु अभिषंगी ॰। ॰।

“॰ न क्रोधी ॰ न क्रोधपूर्ण बातों का करने वाला होता है ॰। ॰।

“॰ दोष दिखलाने पर दोष दिखलाने वाले को प्रतिस्फरण (= प्रतिहिंसा) नहीं करता है ॰। ॰।

“॰ न ॰ नाराज करता है ॰। ॰।

“॰ न ॰ उल्टा आरोप करता है ॰। ॰।

“॰ न ॰ दूसरी दूसरी बात ले लेता है, न बात को प्रकरण से बाहर ले जाता है, न कोप, द्वेष, अप्रत्यय उत्पन्न कराता है ॰। ॰।

“॰ न ॰ अपदान अ-सम्प्रायण करता है ॰। ॰।

“॰ न भ्रक्षी न प्रदाशी होता है ॰। ॰।

“॰ न ईष्र्यालु और न मत्सरी होता है ॰। ॰।

“॰ न शठ और न मायावी ॰। ॰।

“॰ न स्तब्ध (= जड) और न अतिमानी (= अभिमानी) ॰। ॰।

“॰ न सन्दृष्टिपरामर्षी न आधानग्राही (= हठी) और ॰ सुप्रति-निस्सर्गी होता है।

3—“वहाँ आवुसो! भिक्षु अपने ही अपने को इस प्रकार समझावे (= अनुमान करे) जो व्यक्ति पापेच्छ है, पापि का इच्छा के वशीभूत है, वह पुद्गल मुझे अप्रिय=अमनाप है। और मैं भी तो पापेच्छ हूँ, पापिका इच्छा के वशीभूत हूँ; (इसलिये) मैं भी दूसरों को अप्रिय=अमनाप होऊँगा—यह जानते हुये आवुसो! भिक्षु को ऐसा चित्त उत्पन्न करना चाहिये—मैं पापेच्छ नहीं होऊँगा, मै पापि का इच्छाओ के वशीभूत नहीं होऊँगा।

“जो पुद्गल आत्मोत्कर्षक होता है, और पर-अपकर्षक; वह मुझे अप्रिय=अमनाप होता है; और (यहाँ) मैं ही आत्मोत्कर्षक, और पर-अपकर्षक हूँ; (इसलिये) मैं भी दूसरों को अप्रिय=अमनाप होऊँगा, यह जानते हुये आवुसो! भिक्षुको ऐसा चित्त उत्पन्न करना चाहिये—मैं आत्मोत्कर्षक नहीं होऊँगा, मैं पर-अपकर्षक नहीं होऊँगा।

“जो पुद्गल क्रोधी होता है, क्रोध के वशीभूत ॰।

“॰ क्रोधी होता है, क्रोध के हेतु उपनाही ॰।

“॰ क्रोधी ॰ क्रोध के हेतु अभिपंगी ॰।

“॰ क्रोधी ॰ क्रोध-पूर्ण वचन निकालने वाला ॰।

“जो पुद्गल दोष दिखाये जाने पर, दोष दिखलाने वाले को प्रति-स्फरण करता है ॰।

“॰ दोष दिखलाने वाले को नाराज कराता है ॰।

“॰ दोष दिखलाने वाले पर उल्टा आरोप करता है ॰।

“॰ दूसरी दूसरी बात ले लेता है, बात को प्रकरण से बाहर ले जाता है; कोप, द्वेष अप्रत्यय (= नाराज़गी) उत्पन्न करता है ॰।

“॰ अपदान और सम्प्रायण करता है ॰।

“॰ भ्रक्षी और प्रदाशी होता है ॰।

“॰ ईष्र्यालु और मत्सरी होता है ॰।

“॰ शठ और मायावी होता है ॰।

“॰ स्तब्ध और अतिमानी होता है ॰।

“जो पुद्गल सन्दृष्टि-पसमर्षी आधानग्राही और दुष्प्रति-निस्सर्गी होता है, वह पुद्गल मुझे अप्रिय (= अमनाप) और यहाँ मैं ही हूँ, सन्दृष्टि-परामर्षी ॰; (इसलिये) मैं भी दूसरों को अप्रिय=अमनाप होऊँगा—यह जानते हुये आवुसो! भिक्षुको ऐसा चित्त उत्पन्न करना चाहिये—मैं सन्दृष्टि-परामर्षी ॰ नहीं होऊँगा।

4—“वहाँ आवुसो! भिक्षु को अपने आप इस प्रकार प्रत्यवेक्षण (= परीक्षण) करना चाहिये—क्या मैं पापेच्छ हूँ, पापि का इच्छओं के वशीभूत हूँ। यदि आवुसो! भिक्षु प्रत्यवेक्षण करते देखे, कि वह पापेच्छ है, पापि का इच्छाओ के वशीभूत है; तो आवुसो! उस भिक्षुको उन बुरे=अकुशल धर्मों (= बातों) के परित्याग के लिये उद्योग करना चाहिये। परन्तु यदि आवुसो! भिक्षु प्रत्यवेक्षण करते देखे, कि वह पापेच्छ नहीं है, पापि का इच्छाओ के वशीभूत नहीं है; तो आवुसो! उस भिक्षु को उसी प्रीति=प्रामोद्य (= खुशी) के साथ रात दिन कुशल धर्मों (= अच्छी बातों) को सीखते विहार करना चाहिये।

“और फिर आवुसो! भिक्षु को अपने आप इस प्रकार प्रत्यवेक्षण करना चाहिये—क्या मैं आत्मोत्कर्षक हूँ, पर-उपकर्षक। यदि ॰।

“॰ —क्या मैं क्रोधी, क्रोध के वशीभूत हूँ ॰।

“॰ —क्या मैं क्रोधी, क्रोध-हेतु उपनाही हूँ ॰।

“॰ —क्या मैं क्रोधी, ॰ अभिषंगी ॰।

“॰ —क्या मैं क्रोधी, ॰ क्रोध-पूर्ण वचन निकालने वाला ॰।

“॰ —क्या मैं दोष दिखाये जाने पर, दोष दिखाने वाले का प्रतिस्फरण (= प्रतिहिंसा) करता हूँ ॰।

“॰ — ॰, दोष दिखाने वाले को नाराज करता हूँ ॰।

“॰ — ॰ दोष दिखाने वाले पर उल्टा आरोप करता हूँ ॰।

“॰ — ॰ दूसरी दूसरी बात ले लेता हूँ, बात को प्रकरण से बाहर ले जाता हूँ, कोप, द्वेष, अप्रत्यय उत्पन्न करता हूँ।

“॰ — ॰ अपदान और सम्प्रायण करता हूँ ॰।

“॰ — ॰ भ्रक्षी और प्रदाशी हूँ ॰।

“॰ — ॰ ईष्र्यालु और मत्सरी हूँ ॰।

“॰ — ॰ शठ और मायावी हूँ ॰।

“॰ — ॰ स्तब्ध और अतिमानी हूँ ॰।

“॰ — ॰ सन्दृष्टि-परामर्शी, आधानग्राही और दुष्प्रति-निस्सर्गी हूँ ॰ रात दिन कुशल धर्मो को सीखता विहार करना चाहिये।

“यदि आवुसो! भिक्षु प्रत्यवेक्षण करते अपने में सभी पापक=अकुशल-धर्मो (= बुराइयों) को अप्रहीण (= अ-परित्यक्त) देखे; तो आवुसो! उस भिक्षु को उन सभी पापक=अकुशल धर्मों के ग्रहाण (= नाश) के लिये प्रयत्न करना चाहिये। किन्तु यदि आवुसो! भिक्षु प्रत्यवेक्षण करते अपने में सभी बुरे=अकुशल धर्मों को प्रहीण समझे; तो आवुसो! उस भिक्षु को उसी प्रीति=प्रामोद्य के साथ रात दिन कुशल धर्मों का अभ्यास करते विहार करना चाहिये।

“जैसे आवुसो! दहर (= कमसिन) युवा शौकीन स्त्री पुरूष परिशुद्ध उज्वल आदर्श (= दर्पण) या स्वच्छ जलपात्र में अपने मुख के प्रतिबिम्ब को देखते हुये—यदि वहाँ रज (= मैल)=अंगण को देखता है, तो उस रज या अंगण प्रहाण (= दूर करने) की कोशिश करता है; यदि वहाँ रज या अंगण नहीं देखता, तो उसी से सन्तुष्ट होता है—’अहो! लाभ है मुझे! परिशुद्ध है मेरा (मुख)!!’ ऐसे ही आवुसो! यदि भिक्षु प्रत्यवेक्षण कर अपने सभी पापक=अकुशल धर्मों को अप्रहीण देखे, तो ॰ प्रयत्न करना चाहिये। किन्तु यदि आवुसो! ॰ सीखते विहार करना चाहिये।”

आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओ ने आ. महामौद्गल्यायन के भाषण का अभिनन्दन किया।