मज्झिम निकाय
16. चेतोखिल-सुंत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुंओं को सम्बोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त”—(कह) उन भिक्षुओ ने भगवान् को उत्तर दिया।
1—भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! जिस किसी भिक्षु के पाँच चेतोखिल (= चित्त के कील) नष्ट (= प्रहीण) नहीं हुये, पाँच चित्त में बद्ध हैं, छिन्न नहीं है; वह इस धर्म-विनय (= बुद्ध-धर्म) में वृद्धि=विरूढि को प्राप्त होगा, यह सम्भव नहीं। कौन से इसके पाँच चेतोखिल अप्रहीण हों?—यहाँ भिक्षुओ? भिक्षु शास्ता (= आचार्य) में कांक्षा=विचिकित्सा (= संदेह) करता है, (संशय से) मुक्त नहीं होता, प्रसन्न (= श्रद्धालु) नहीं होता; (इसलिये) उसका चित्त आतप्य (= तीव्र उद्योग) के लिये, अनुयोग, सातत्य (= निरन्तर अभ्यास) (और) प्रधान (= दृढ़ उद्योग) के लिये नहीं झुकता। जो कि उसका चित्त आतप्य के लिये नहीं झुकता, यह उसका प्रथम चेतोखिल अ-प्रहीण है।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु धर्म मे ॰ द्वितीय ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु संध मे ॰ तृतीय ॰।
“॰ शील में ॰ चतुर्थ ॰।
“॰ सब्रह्मचारियों के विषय में कुपित, असन्तुष्ट, दूषित-चित्त, खिलजात (= काँटा बना) होता है। जो कि भिक्षुओ! जो वह भिक्षु सब्रह्मचारियों के विषय में ॰ खिलजात होता है, (इसलिये) उसका चित्त तीव्र उद्योग के लिये नहीं झुकता; जो कि उसका चित्त तीव्र उद्योग ॰ के लिये नहीं झुकता, यह उसका पंचम चेतोखिल अप्रहीण है।
“यह उसके पाँचों चेतोखिल अप्रहीण होते हैं।
“कौन से इसके पाँच चित्त-बंधन (जेतसोविनिबंध) अ-समुच्छिन्न (= न कटे) होते हैं?—यहाँ भिक्षुओ! भिक्षु कामों (= भोगों) में अ-वीतराग=अ-वीतच्छन्द=अ-वीत-प्रेम, अविगतपिपास (= जिसकी प्यास हटी नहीं), अ-विगत-परिदाह (= जिसकी जलन गई नहीं), अ-विगत तृष्णा होता है। जो कि भिक्षुओ! भिक्षु कामो मे ॰ अविगत तृष्णा होता है; इसलिये उसका चित्त ॰ नहीं झुकता; यह उसका प्रथम चित्त-बन्धन छिन्न नहीं हुआ है।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु काया में अ-वीत-राम ॰ ; यह उसका द्वितीय ॰।
“॰ रूप में अवीतराग ॰॰; यह तृतीय ॰।
“और फिर भिक्षुओ! यथेच्छ उदरपूर भोजन करके शय्या-सुख, स्पर्श-सुख, मृद्ध (= आलस्य)-सुख में फँसा विहरता है। जो कि, भिक्षुओ! ॰; यह उसका चतुर्थ ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु किसी देव-निकाय देवयानि का प्रणिधान (= दृढ़ कामना) करके ब्रह्मचर्य चरण करता है—इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्य से मैं देवता या देवता में से कोई होऊँ। जो कि भिक्षुओ! ॰; यह उसका पंचम चित्त-बंधन छिन्न नहीं हुआ है।
“यह उसके पाँच चेतासो-विनिबंध (= चित्त-बंधन) अ-समुच्छित होते है। भिक्षुओ! जिस किसी भिक्षु के यह पाँच चेतोखिल अप्रहीण हैं, यह पाँच चित्त-विनिबन्धन अ-समुच्छित हैं, वह इस धर्म में वृद्धि=विरूढ़ि को प्राप्त होगा, यह संभव नहीं।
2—“भिक्षुओ! जिस किसी भिक्षु के पाँच चेतोखिल प्रहीण हैं, पाँच चेतसो विनिबंध समुच्छित हैं। वह इस धर्म में वृद्धि=विरूढ़ि को प्राप्त होगा, यह संभव है।
“कौन से उसके पाँच चेतोखिल प्रहीण हैं? ॰ यहाँ भिक्षुओ! भिक्षु शास्ता में कांक्षा=विचिकित्सा नहीं करता, (संशय-)मुक्त होता है, प्रसन्न होता है; (इसलिये) उसका चित्त आतप्य ॰ के लिये झुकता है। जो कि उसका चित्त तीव्र उद्योग के लिये झुकता है; यह उसका प्रथम चेतोखिल प्रहीण हुआ।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु धर्म में ॰ ; ॰ द्वितीय ॰।
“॰ संघ में ॰ ; ॰ तृतीय ॰।
“॰ शिक्षा में ॰ ; ॰ चतुर्थ ॰।
“॰ सब्रह्मचारियेां के विषय में कुपित, असन्तुष्ट, दूषित-चित्त, खिलजात (= काँटे सा) नहीं होता; जो वह ॰ ; पंचम ॰।
“यह उसके पाँच चेतोखिल प्रहीण होते हैं।
“कौन से इसके पाँच चेतसो-विनिबंध (= चित्त के बंधन) समुच्छित होते है?—यहाँ भिक्षुओ! भिक्षु कामों में वीतराग=वीतच्छन्द=वीतप्रेम, विगत-पिपास, विगत-परिदाह, विगत-तृष्ण होता है; जो कि भिक्षुओ! भिक्षु कामो में वीतराग ॰ होता है; इसलिये उसका चित्त आतप्य॰ झुकता है; यह उसका प्रथम चेतसो-विनिबंध समुच्छिन्न हुआ।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु काया में वीतराग ॰ द्वितीय ॰।
“॰ रूप में वीतराग ॰ तृतीय ॰।
“॰ यथेच्छ उदरपूर भोजन करके शय्या-सुख, स्पर्श-सुख, मृद्ध-सुख में फँसा नहीं विहरता। जो कि भिक्षुओ ॰ चतुर्थ ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु किसी देवनिकाय का प्रणिधान करके ब्रह्मचर्य चरण नहीं करता—॰। जो कि भिक्षुओ! ॰ यह उसका पंचम चेतसो विनिबंध छिन्न हुआ।
“यह उसके पाँच चेतसो-विनिबंध समुच्छिन्न हुये।
“भिक्षुओ! जिस किसी भिक्षु के पाँच चेतोखिल प्रहीण हैं, पाँच चेतसो-विनिबन्ध समुच्छिन्न है, वह इस धर्म में वृद्धि=विरूढ़ि को प्राप्त होगा, यह सम्भव है।
“वह (1) छन्द-समाधि-प्रधान-संस्कार-युक्त ऋद्धिपाद की भावना करता है; (2) वह वीर्य-समाधि=प्रधान-संस्कार-युक्त ऋद्धिपाद की भावना करता है; (3) वह चित्त समाधि के प्रधान संस्केार से युक्त ॰; (4) वह समाधि-इन्द्रिय के प्रधान संस्कार से युक्त ऋद्धिपाद की भावना करता है। विमर्श समाधि के प्रधान-संस्कार से युक्त ऋद्धिपाद की भावना है। (यह) पाँचवाँ (विमर्श) समाधि-प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपाद, उत्सोढि (= उत्साह) है। भिक्षुओ! सो वह भिक्षु उत्सोढि के पन्द्रह अंगों से युक्त निर्वेद (= वैराग्य) के लिये योग्य है, संबोधि (= परमज्ञान) के लिये योग्य हैं, सर्वोत्तम (= अनुत्तर) योगक्षेम (= निर्वाण) की प्राप्ति के लिये योग्य है।
‘जैसे भिक्षुओ! आठ, दस या बारह मुर्गी के अंडे हो; वह मुर्गी द्वारा भली प्रकार सेये=परिस्वेदित, परिभावित हो; चाहे मुर्गी की यह इच्छा न भी हो—’अहोवत! मेरे चूज़े (= कुक्कुट-पोतक) पादनख से या मुखतुंड से अंडे को फोडकर स्वस्तिपूर्वक निकल आयें।’ तो भी वह चूज़े पादनख से, या मुखतुंड से अंडे को फोडकर स्वस्तिपूर्वक निकल आने के योग्य है; ऐसे ही भिक्षुओ! उत्सोढि के पन्द्रह अंगो से युक्त भिक्षु निर्वेद के लिये योग्य है, सम्बोधि के लिये योग्य है, अनुत्तर योगक्षेम की प्राप्ति के लिये योग्य है।”
भगवान् ने यह कहा, उन भिक्षुओं ने सन्तुष्ट हो, भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।