मज्झिम निकाय
17. वनपत्थ-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! वनपत्थ-पिरयाय (= नामक उपदेश) को तुम्हें उपदेशता हूँ; उसे सुनो, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूँ?”
“ऐसा ही भन्ते!” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने कहा-“भिक्षुओ! यहाँ (कोई) भिक्षु वनप्रस्थ (= जंगल) का आश्रय लेकर विहरता है। वनप्रस्थ का आश्रय ले विहरते (भी) उसकी अनुपस्थित स्मृति उपस्थित नहीं होती; अ-समाहित चित्त, समाहित (= एकाग्र) नहीं होता; अ-परिक्षीण आस्रव (= मल) परिक्षीण (= नष्ट) नहीं होते; अ-लब्ध अनुत्तर योग-क्षेम (= निर्वाण) उपलब्ध नहीं होता। प्रब्रजित (= सन्यासी) के लिये जो यह अपेक्षित सामग्रियाँ हैं—चीवर (= वस्त्र), पिंडपात (= भिक्षान्न), शयनासन, ग्लान-प्रत्यय-भेपज्य (= रोगी के पथ्य औषध) के सामान, वह (भी) कठिनाई से जुटते हैं। भिक्षुओ! उस भिक्षु को इस प्रकार सोचना चाहिये—“मैं इस जंगल में विहर रहा हूँ; किन्तु इस वन में विहरते (भी) मेरी अनुपस्थित स्मृति उपस्थित नहीं होती ॰ जुटते है’; और भिक्षुओ! उस भिक्षु को रात के वक्त या दिन के वक्त उस वन से चला जाना चाहिये, (वहाँ) नहीं बसना चाहिये।
“यहाँ भिक्षुओ! (एक) भिक्षु वनप्रस्थ का आश्रय लेकर विहरता है। ॰ उसकी अनुपस्थित स्मृति उपस्थित नहीं होती ॰, अलब्ध अनुत्तर योग-क्षेम उपलब्ध नहीं होता; किन्तु प्रब्रजित के लिये जो यह अपेक्षित सामग्रियाँ हैं—चीवर ॰ वह आसानी से जुट जाती हैं। भिक्षुओ! उस भिक्षु को इस प्रकार सोचना चाहिये—’मै इस वनप्रस्थ को आश्रय लेकर ॰ जुट जाती है; लेकिन मैं चीवर के लये घर से बेघर हो प्रब्रजित नहीं हुआ, न पिंडपात के लिये ॰, न शयनासन के लिये ॰, न ग्लान-प्रतयय-भैषज्य के लिये ॰। और इस वनप्रस्थ का आश्रय लेकर विहरते मेरी अनुपस्थित स्मृति उपस्थित नहीं होती ॰।’ भिक्षुओ! उस भिक्षु को ॰ उस वन से चला जाना चाहिये ॰।
“यहाँ, भिक्षुओ! ॰ अनुपस्थित स्मृति उपस्थित होती है, असमाहित चित्त समाहित होता है, अपरिक्षीण आस्रव परिक्षीण होते हैं; अप्राप्त अनुत्तर योगक्षेम प्राप्त होता है; किन्तु प्रब्रजित के लिये जो वह अपेक्षित सामग्रियाँ हैं—’॰, वह कठिनाई से जुटती हैं। भिक्षुओ! उस भिक्षु को इस प्रकार सोचना चाहिये—॰; लेकिन मैं चीवर के लिये घर से बेघर हो प्रब्रजित नहीं हुआ ॰। ॰ मेरी अनुपस्थित स्मृति उपस्थित होती है ॰’। भिक्षुओ! उस भिक्षु को यह जानकर उस वनप्रस्थ में बसना चाहिये, नहीं जाना चाहिये।
“॰ उसकी अनुपस्थित स्मृति उपस्थित होती हे ॰, प्रब्रजित के लिये अपेक्षित सामग्रियाँ—॰ आसानी से मिल जाती हैं। भिक्षुओ! उस भिक्षु को जीवन भर उसी वन में बसना चाहिये, नहीं जाना चाहिये।
“यहाँ भिक्षुओ! (यदि) भिक्षु किसी ग्राम का आश्रय लेकर विहरता है ॰। निगम (= कस्बा) ॰। ॰ नगर ॰। ॰ व्यक्ति (= पुद्गल) ॰। ॰. भिक्षुओ! उस भिक्षु को जीवन भर उस व्यक्ति के साथ रहना चाहिये हटाने पर भी छोडकर नहीं जाना चाहिये।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्अ हो उन भिक्षुओ ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।