मज्झिम निकाय

19. द्वेधा-वितक्क-सुत्तन्त

ऐसा मैने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया—भिक्षुओ!”

“भदन्त!” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा-“भिक्षुओ! संबोध (= बुद्धत्व-प्राप्ति) से पूर्व भी, बोधि-सत्व होते वक्त मेरे (मन में) ऐसा होता था—’क्यों न दो टूक (= द्वेधा) वितर्क करते करते मैं विहरूँ।’ सो भिक्षुओ! जो काम-वितर्क, व्यापाद-वितर्क, विहिसा-वितर्क (= हिंसा के विषय में मन में तर्क वितर्क) इन (तीनों) को मैंने एक भाग में किया; और जो नैष्काम्य (= फल की इच्छा से रहित कर्म करना)-वितर्क, अव्यापाद-वितर्क, अवि-हिंसा वितर्क इन (तीनों) को एक भाग में किया।

“भिक्षुओ! सो इस प्रकार प्रमाद-रहित, आतापी (= उद्योगी), प्रहितत्ता (= आत्म संयमी) हो विहरते (भी) मुझे काम-वितर्क उत्पन्न होता था। सो मैं इस प्रकार जानता था—उत्पन्न हुआ यह मुझे काम-वितर्क, और यह आत्म-व्याबाधा (= अपने को पीड़ित करने) के लिये है, पर-व्याबाधा के लिये है, उभय (= आत्म-पर-) व्याबाधा के लिये है। (यह) प्रज्ञा-निरोधक (= ज्ञान का नाशक), विघात-पक्षिक (= हानि के पक्ष का), निर्वाण को नहीं ले जाने वाला है। आत्म-व्याबाधा के लिये है—यह सोचते भिक्षुओ! (वह) अस्त हो जाता थां पर-व्याबाधा के लिये है ॰। उभय-व्याबाधा के लिये है ॰। प्रज्ञा-निरोधक, विघात-पक्षिक, न-निर्वाण-संवर्तनिक—यह सोचते भिक्षुओ! (वह) अस्त हो जाता था। सो मैं भिक्षुओ! बार बार उत्पन्न होने वाला कामवितकों को छोडता ही था, हटाता ही था, अलग करता ही था।

“भिक्षुओ! सो इस प्रकार ॰ व्यापाद-वितर्क उत्पन्न होता था ॰।

“भिक्षुओ! सो इस प्रकार ॰ विहिंसा-वितर्क ॰।

“भिक्षुओ! भिक्षु जैसे जैसे ही अधिकतर अनुवितर्क (= वितर्क) करता है, अनुविचार (= विचार) करता है; वैसे ही वैसे चित्त को झुकना होता है। यदि भिक्षुओ! भिक्षु काम-वितर्क को अधिकतर अनुवितर्क करता है, अनुविचार करता है; तो वह निष्काम (= कामना-रहित वितर्क) को छोड़ता है, और काम-वितर्क को बढ़ाता है; (और) उसका चित्त काम-वितर्क की ओर झुकता है। यदि भिक्षुओ! भिक्षु व्यापाद-वितर्क ॰; तो वह अ-व्यापाद वितर्क को छोडता है; ॰। यदि भिक्षुओ! भिक्षु विहिंसा (= हिंसा)-वितर्क को ॰, तो वह अ-विहिसा (= अहिंसा)-वितर्क को छाडता है; ॰। जैसे भिक्षुओ! वर्षा के अन्तिम मास में शरद-काल में (जब चारों ओर) फसल भरी रहती है (उस समय) ग्वाला (अपनी) गायों की रखवाली करता है, वह उन गायों को वहाँ वहाँ से डंडे से हाँकता है, मारता है, रोकता है, निवारता है। सो कि हेतु?—भिक्षुओ! वह ग्वाला उस (खेतों में चरने) के कारण बध, बन्धन, हानि या निन्दा (होने) को देखता है; ऐसे ही भिक्षुओ! मैंने अकुशल-धर्मों (= बुराइयों) के दुष्परिणाम, अपकार, संक्लेश (= मैल) को; (और) कुशल-धर्मों (= अच्छे कामो) की निष्कामता में सुपरिणाम (= आनृशस्य) और परिशुद्धता संरक्षण देखता था।

“भिक्षुओ! सो इस प्रकार प्रमाद-रहित ॰ विहरते निष्कामता-वितर्क उत्पन्न होता था। सो मै इस प्रकार जानता था—’उत्पन्न हुआ यह मुझे निष्कामता-वितर्क; और वह न आत्म-व्याबाधा (= आत्म-पीडा) के लिये है, न पर-व्याबाधा के लिये है, न उभय (= आत्म पर) व्याबाधा के लिये है। यह प्रज्ञा-बर्द्धक है, अ-विघात (= अ-हानि)-पक्षिक, और निर्वाण की ओर ले जाने वाला है। रात को भी भिक्षुओ! यदि मैं उसे अनुवितर्क करता, अनुविचार करता, (तो भी) उसके कारण भय नहीं देखता। दिन को भी ॰। रात-दिन को भी ॰। किन्तु, बहुत देर तक अनुवितर्क; अनुविचार करते मेरी काया क्लान्त (= थकी) हो जाती; काया के क्लान्त होने पर चितत अपह्त (= शिथिल) हो जाता; चित्त के अपहत होने पर चित्त समाधि से दूर (हट) जाता था। सो मैं भिक्षुओ! अपने भीतर (= अध्यात्म) ही चित्त को स्थापित करता था, बैठाता था, एकाग्र करता था, समाहित करता था। सो किस हेतु?—मेरा चित्त (कहीं) अपहत न हो जाये।

“सो इस प्रकार प्रमाद-रहित ॰ विहरते अ-व्यापाद-वितर्क उत्पन्न होता था ॰। ॰ अ-विहिंसा-वितर्क उत्पन्न होता था ॰।

“भिक्षुओं! भिक्षु जैसे-जैसे ही अधिकतर अनुवितर्क करता है ॰। यदि भिक्षुओ! भिक्षु निष्कामता-वितर्क का अधिकतर अनुवितर्क करता है ॰, तो वह कामवितर्क को छोडता है, और निष्कामता-वितर्क को बढ़ज्ञता है; (और) उसका चित्त निष्कामता-वितर्क की ओर झुकता है। यदि भिक्षुओ! भिक्षु अ-व्यापाद-वितर्क ॰, तो वह व्यापाद-वितर्क को छोडता है, और अ-व्यापाद-वितर्क को बढ़ाता है; और उसका चित्त अ-व्यापाद-वितर्क की ओर झुकता है। यदि भिक्षुओ! भिक्षु अ-विहिसा-वितर्क ॰, तो वह विहिंसा-वितर्क को छोडता है, और अ-विहिंसा-वितर्क को बढाता है; और उसका चित्त अ-विहिंसा-वितर्क की ओर झुकता है। जैसे भिक्षुओ! ग्रीष्म के अन्तिम मास में, जब सभी फसल (= सस्य) जमाकर गाँव में चली जाती हैं, ग्वाला गायों को रखता है; वृक्ष के नीचे या चैड़े रह कर उन्हें केवल याद रखना होता है—’यह गाये है’; ऐसे ही भिक्षुओ! याद रखना (मात्र) होता था—’यह धर्म है’। भिक्षुओ! मैने न दबने वाला वीर्य (= उद्योग) आरम्भ कर रक्खा था, न भूलने वाली स्मृति (मेरे) सम्मुख थी, शरीर (मेरा) अचंचल, शान्त था, चित्त समाहित=एकाग्र था।

“सो मैं भिक्षुओ! कामो से विहरित ॰ प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। ॰ द्वितीय ध्यान को ॰। तृतीय-ध्यान को । ॰ ॰ चतुर्थ-ध्यान को ॰। ॰ (= पूर्व-निवासाऽनु-स्मृति)। ॰ प्राणियों के च्युति-उत्पाद के ज्ञान के लिये ॰। ॰ आस्रवो के क्षय के ज्ञान के लिये ॰।

“जैसे भिक्षुओ! (किसी) महावन में गहरा महान् जलाशय (= पल्वल) हो, (और) उसका आश्रय ले महान् मृगों का समूह विहार करता हो। कोई पुरूष उस (मृग-समूह) का अनर्थ-आकांक्षी अ-हित-आकांक्षी=अ-योग-क्षेम-आकांक्षी उत्पन्न होवे। वह उस (मृगसमूह) के क्षेम (= सुरक्षित), कल्याणकारण, प्रीति पूर्वक गन्तव्य मार्ग को बन्द कर दे, और अकेले चलने लायक (= एक चर) कुमाग्र को खोल दे, और एक-चारिका (= जाल) रख दे। इस प्रकार वह महान् मृगसमूह दूसरे समय में विपत्ति में तथा क्षीणता को प्राप्त होवे। और भिक्षुओ! उस महान् मृगसमूह का कोई पुरूष हिताकांक्षी=योग-क्षेमकांक्षी उत्पन्न होवे। वह उस (मृग-समूह) के क्षेम ॰ मार्ग को खोल दे, एक-चर कुमार्ग को बन्द कर दे और एक चारिका (= जाल) का नाश कर दे। इस प्रकार वह महान् मृगसमूह दूसरे समय वृद्धि=विरूढ़ि (और) विपुलता को प्राप्त होवे।

“भिक्षुओ! अर्थ के समझाने (= विज्ञापन) के लिये मैंने उपमा (= दृष्टान्त) कही। यहाँ यह अर्थ है। भिक्षुओ! ‘गहरा महान् जलाशय’ यह कामों (= कामनाओं, भोगों) का नाम है। ‘महान् मृगसमूह’ यह प्राणियों का नाम है। अनर्थाकांक्षी अहिताकांक्षी अयोग-क्षेमाकांक्षी पुरूष यह मार=बुराइयाँ (= पाप्मा) का नाम है। कुमार्ग यह आठ प्रकार के मिथ्या मार्ग है; जैसे—(1) मिथ्या दृष्टि (= झूठी धारणा), (2) मिथ्या-संकल्प, (3) मिथ्या-वचन, (4) मिथ्या कर्मान्त (= ॰ कायिककर्म), (5) मिथ्या-आजीव (= ॰ जीविका), (6) मिथ्या व्यायाम (= ॰ कोशिश), (7) मिथ्या स्मृति, (8) मिथ्या समाधि। ‘एकचर’, भिक्षुओ! यह नन्दी=राग का नाम है। ‘ःएक चारिका’ भिक्षुओ! यह अविद्या का नाम है। भिक्षुओ! अर्थाकांक्षी, हिताकांक्षी, योगक्षेमाकांक्षी पुरूष—यह तथागत अर्हत् सम्यक् सबुद्ध का नाम है। क्षेम=स्वस्तिक ॰, प्रीति-गमनीय मार्ग, यह आर्य-अष्टांगिक-मार्ग का नाम है, जैसे कि—(1) सम्यक् दृष्टि, (2) सम्यक्-संकल्प, (3) सम्यग् वचन, (4) सम्यक् कर्मान्त, (5) सम्यगाजीव, (6) सम्यग् व्यायाम, (7) सम्यक् स्मृति, (8) सम्यक् समाधि। इस प्रकार भिक्षुओ! मैंने क्षेम=स्वस्तिक, प्रीति-गमनीय मार्ग को खोल दिया; दोनो ओर से एक-चर कुमार्ग को बन्द कर दिया, एक-चारिका (= अविद्या) को नाश कर दिया। भिक्षुओ! श्रावको के हितैषी, अनुकम्पक, शास्ता को अनुकम्पा करके जो करना था, वह तुम्हारे लिये मैंने कर दिया। भिक्षुओ! यह वृक्ष-मूल हैं, यह सूने घर हैं, ध्यानरत होओ। भिक्षुअेा मत प्रमाद करो, मत पीछे अफसोस करने वाले बनना—यह तुम्हारे लिये हमारा अनुशासन है।”

भगवान ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुअेां ने भगवान् के भाषण का अनुमोदन किया।