मज्झिम निकाय
2. सब्बासव-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्तीमें अनाथपिंडिकके आराम जेतवनमें विहार करते थे। वहॉ भगवान् ने भिक्षुओको संबोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त!”—(कह) उन भिक्षुओने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! सारे आस्त्रवों (= सब्बासव)के संवर (= रोक) नामक (उपदेश)को तुम्हें उपदेशता हूँ। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें (धारण) करो, कहता हूँ।”
“हाँ भन्ते!”—(कह) उन भिक्षुओने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! जानते हुये देखते हुये, मै आस्त्रवों (= मलो) के क्षय (के बारेमें) कहता हूँ, बिना जाने बिना देखे नहीं। भिक्षुओ! क्या जान क्या देख, आस्त्रवोका क्षय होता है ?-योनिसोमनसिकार (= ठीकसे मनमें धारण करना), और अयोनिसोमनसिकार (= बेठीकसे मनमें धारण करना) । बेठीकसे मनमें (धारण) करनेसे, न-उत्पन्न आस्त्रव उत्पन्न होते है, उत्पन्न आस्त्रव बढ़ते है। ठीकसे मनमें (धारण) करनेसे, न-उत्पन्न आस्त्रव उत्पन्न नहीं होते है, और उत्पन्न आस्त्रव नष्ट होते है।
“भिक्षुओ! (1) (कोई कोई) आस्त्रव दर्शन (= विचार)से प्रहातव्य (= त्यागे जा सकते) है; (2) (कोई कोई) संवरसे त्यागे जा सकते है; (3) (कोई कोई) आस्त्रव प्रतिसेवन (= सेवन)से त्यागे जा सकते है; (3) (कोई कोई) आस्त्रव अधिवासन (= स्वीकार) करने से त्यागे जा सकते है; (5) (कोई कोई आस्त्रव परिवरजन (= छोड़ने)से त्यागे जा सकते है; (6) (कोई कोई) आस्त्रव विनोदन (= हटाने)से त्यागे जा सकते है; (7) (कोई कोई) आस्त्रव (है, जो) भावनासे त्यागे जा सकते है।
1. “भिक्षुओ! कौनसे आस्त्रव दर्शनसे प्रहातव्य है ?-भिक्षुओ! अज्ञ, अनाड़ी॰ (जन) मनमें ( धारण ) करने योग्य धर्मो ( = पदार्थो )को नहीं जानता, (और) न मनमे न (धारण) करने योग्य धर्मोको जानता है। वह मनसिकरणीय ( = मनमे धारण करने योग्य) धर्मोको न जान, अ-मनसिकरणीय धर्मोको न जान; जो धर्म मनसिकरणीय नहीं है, उन्हें मनमें (धारण) करता है, और जो धर्म अमनसिकरणीय हैं, उन्हें मनमें नहीं करता।
क. भिक्षुओ! कौनसे धर्म न मनसिकरणीय है, जिन्हे कि वह मनमे करता है ?-भिक्षुओ! (जिन) धर्मोके मनमें करनेसे उसके (भीतर) अनुत्पन्न काम-आस्त्रव (= कामना रूपी मल) उत्पन्न होता है, और उत्पन्न काम-आस्त्रव बढ़ता है; अनुत्पन्न भव-आस्त्रव (= जन्मनेकी इच्छा रूपी मल) उत्पन्न होता है, और उत्पन्न भव-आस्त्रव बढ़ता है; अनुत्पन्न अविद्या-आस्त्रव (= अज्ञान रूपी मल) उत्पन्न होता है ॰। ये धर्म मनसिकरणीय नहीं हैं, जिनको कि वह मनमें करता है।
ख. “भिक्षुओ! कौनसे धर्म मनसिकरणीय है; जिनको कि वह मनमें नही करता?-भिक्षुओ! (जिन) धर्मो को मनमें करनेसे, उस (मनुष्यके भीतर) अनुत्पन्न काम-आस्त्रव उत्पन्न नही होता है, और उत्पन्न नष्ट हो जाता है; अनुत्पन्न भव-आस्त्रव ॰; अनुत्पन्न अविद्या-आस्त्रव ॰ नष्ट हो जाता है। ये धर्म मनसिकरणीय हैं, जिनको कि वह मनमें नहीं करता है।
ग. “अ-मनसिकरणीय धर्मोके मनमे करनेसे, (तथा) मनसिकरणीय धर्मोके मनमें न करनेसे, उस (पुरूष के भीतर) अनुत्पन्न आस्त्रव उत्पन्न होते है, और उत्पन्न आस्त्रव बुद्धिको प्राप्त होते है। वह (पुरूष) इस प्रकार बेठीक तरहसे मनमे (चिन्तन) करता है- (क) क्या मै अतीतकालमें था? क्या मैं नही था अतीतकालमें? मै क्या था अतीतकाल में? मै कैसा था अतीतकाल में? अतीतकाल मै क्या होकर क्या हुआ था ? (ख) क्या मै भविष्यकालमे होऊँगा ? क्या मै भविष्यकालमे न होऊँगा ? मै भविष्यकालमे क्या होऊँगा ? मै भविष्यकालमे कैसा होऊँगा ? मै भविष्यकालमे क्या होकर क्या होऊँगा ? (ग) अब (इस) वर्तमानकालमे अपने भीतर तर्क-वितर्क करता है-मै हूँ न ? नहीं हूँ न ? मै क्या हूँ ? मै कैसा हूँ ? यह सत्व (= प्राणी) कहाँ से आया है ? वह कहाँ जानेवाला होगा ?
—“इस प्रकार बेठीक तौरसे मनमे (धारण) करनेसे छ दृष्टियों (= वादों, मतों)मे से कोई एक दृष्टि उसे उत्पन्न होती है-(1) मेरा आत्मा है, इस प्रकारकी दृष्टि सत्य और दृढ़ (सिद्धान्त) के रूपमें उत्पन्न होती है। या (2) ‘मेरे (भीतर) आत्मा नहीं है’, इस प्रकारकी ॰। (3) ‘आत्माको ही आत्मा समझता हूँ’, ॰। (3) ‘आत्माको ही अनात्मा समझता हूँ’, ॰। (5) ‘अनात्माको ही आत्मा समझता हूँ’, ॰। अथवा (6) उसकी दृष्टि (= मत) होती है—‘जो यह मेरा आत्मा अनुभवकर्ता (वेदक), (तथा) अनुभव होने योग्य है, और तहाँ तहाँ (अपने) भले बुरे कर्मोंके विपाकको अनुभव करता है; वह यह मेरा आत्मा नित्य=ध्रुव=शाश्वत, अपरिवर्तन-शील (= अविपरिणामधर्मा) है, अनन्त वर्षों तक वैसा ही रहेगा’।
—“भिक्षुओ! इसे कहते हैं दृष्टि-गत (= मतवाद) दृष्टि-गहन (= दृष्टिका घना जंगल), दृष्टिकी मरूभुमि (= दृष्टिकान्तार), दृष्टिका काँटा (= दृष्टि-विशुक) दृष्टिकी कुदान, दृष्टिका फंदा (= दृष्टि-संयोजन) । भिक्षुओ! दृष्टि के फंदेमे फँसा अज्ञ अनाडी (पुरूष) जन्म, जरा, मरण, शोक, रोदन-क्रंदन, दुःख-दुर्मनस्कता और हैरानियोंसे नहीं छूटता, दुःखसे परिमुक्त नहीं होता-कहता हूँ।
“और भिक्षुओ! जो आर्योके दर्शनको प्राप्त, आर्यधर्मसे परिचित, आर्यधर्ममें नीत (= प्राप्त ) है; सत्पुरूषोके दर्शनको प्राप्त, सत्पुरूष-धर्मसे परिचित, सत्पुरूष-धर्ममे नीत, बहुश्रुत आर्य-श्रावक (= सन्मार्ग पर आरूढ़ पुरूष, ) है, वह मनसिकरणीय धर्मोको जानता है, और अ-मनसिकरणीय धर्मोको (भी) जानता है। वह मनसिकरणीय…और अ-मनसिकरणीय धर्मोको जान, जो धर्म मनसिकरणीय नहीं हैं, उन्हें…मनमें नहीं करता; जो धर्म मनसिकरणीय हैं, उन्हें…मनमें करता।
“भिक्षुओ! कौनसे धर्म मनसिकरणीय नहीं हैं…?—भिक्षुओ! (जिन) धर्मोंके मनमें करनेसे उस (पुरूषके भीतर) अनुत्पन्न काम-आस्त्रव उत्पन्न होता है ॰। ये धर्म मनसिकरणीय नहीं हैं, जिनको कि वह मनमे नहीं करता।
ख. “भिक्षुओ! कौनसे धर्म मनसिकरणीय हैं, जिनको कि वह मनमे करता है ?॰। ये धर्म मनसिकरणीय हैं, जिनको कि वह मनमें करता है।
ग. “अ-मनसिकरणीय धर्मो को मनमें न करनेसे, (तथा) मनसिकरणीय धर्मोको मनमें करनेसे, उस (पुरूषके भीतर) न-उत्पन्न आस्त्रव उत्पन्न नहीं होते, और उत्पन्न आस्त्रव नष्ट होते हैं। (तब) वह यह ठीकसे मनमें (ज्ञान) करता है-यह दुःख है, …यह दुःख-समुदय (= दुःखका कारण) है, यह दुःख-निरोध (= दुःखका विनाश) है, …यह दुःख-निरोध की ओर लेजानेवाला मार्ग (= प्रतिपद्) है। इस प्रकार मनमें करनेपर उसके तीन संयोजन (= फंदे, बंधन)—(1) सत्यकायदृष्टि (= कायाके भीतर एक नित्य आत्माकी सत्ताको मानना), (2) विचिकित्सा (= सशय), (3) शीलव्रत-परामर्श (= शील और व्रतका अभिमान)-छुट जाते हैं।—भिक्षुओ! यह दर्शनसे प्रहातव्य आस्त्रव कहे जाते हैं।
2 “भिक्षुओ! कौनसे संवर (= ढाँकने, संयम करने) द्वारा प्रहातव्य आस्त्रव है ?- भिक्षुओ! यहाँ (कोई) भिक्षु ठीकसे जान (= प्रतिसंख्यान) कर, चक्षु (= आँख) इन्द्रियमें संयम करके विहरता है। (तब) चक्षु-इन्द्रियमे असंयम करके विहरनेपर, जो पीडा और दाह देनेवाले आस्त्रव उत्पन्न होते, वह संयम करके विहरनेपर उत्पन्न नहीं होते हैं। ॰ श्रोत्र-इन्द्रिय ॰। ॰ घ्राण-इन्द्रिय ॰। ॰ जिव्हा-इन्द्रिय ॰। ॰ काय-इन्द्रिय ॰। ॰ मन-इन्द्रियमे संयम करके ॰ पीडा और दाह देनेवाले आस्त्रव ॰ उत्पन्न नहीं होते।
“भिक्षुओ! यह संवर-द्वारा प्रहातव्य आस्त्रव कहे जाते हैं।
3. “भिक्षुओ! कौनसे प्रतिसेवन (= सेवन) द्वारा प्रहातव्य आस्त्रव है ?- (क). भिक्षुओ! यहाँ (कोई) भिक्षु ठीकसे जानकर (उतना ही) चीवर (= वस्त्र) का सेवन करता है, जितना कि सर्दी..गर्मीकी पीडा, और मक्खी मच्छर-हवा-धूप-सरीसृप (= साँप बिच्छु) के आघातके रोकनेके लिये (आवश्यक) है; जितना लाजशर्म ढाँकनेके लिये (आवश्यक) है। (ख). ठीकसे जानकर भिक्षान्न (= पिडपात) सेवन करता है; क्रीडा, मद, मंडन-विभुषणके लिये न करके (उतना ही भिक्षान्न सेवन करता है) जितना कि इस शरीरकी स्थितिके लिये (आवश्यक है); (भूखके) प्रकोपके शमन करने तथा ब्रह्मचर्यमे सहायताके लिये (आवश्यक है) । (यह सोचते हुये-) पुरानी (कर्म-विपाक रूपी) वेदनाओं (= पीडाओं)को स्वीकार करूंगा, नई वेदनाओंको न उत्पन्न करूँगा; मेरी (शारीर-) यात्रा निर्दोष होगी, और विहार निर्द्वन्द होगा। (ग). ठीकसे जानकर (वैसेही) निवास-गेह (= शयनाशन) का सेवन करता है; जोकि सर्दी, गर्मी ॰ के आघात के रोकनेके लिये (आवश्यक) है। जो ऋतुकी पीडाको हटाने और एकांत चिन्तनके लिये (उपयोगी) है। (घ). ठीकसे जानकर रोगीके लिये (उपयुक्त) पथ्य औषधकी वस्तुओका सेवन करता है, जिससे कि उत्पन्न व्याधियाँ और पीडायें दूर हो परम निरोगताको प्राप्त हो। भिक्षुओ! जिसके न सेवन करनेसे दाह और पीडा देनेवाले आस्त्रव उत्पन्न होते हैं, और सेवन करनेसे (वह) उत्पन्न नहीं होते; … वह प्रतिसेवनद्वारा प्रहातव्य आस्त्रव कहे जाते है।
३. “भिक्षुओ! कौनसे प्रतिसेवन (= सेवन) द्वारा प्रहातव्य आस्त्रव है ?- (क). भिक्षुओ! यहाँ (कोई) भिक्षु ठीकसे जानकर (उतना ही) चीवर (= वस्त्र) का सेवन करता है, जितना कि सर्दी..गर्मीकी पीडा, और मक्खी मच्छर-हवा-धूप-सरीसृप (= साँप बिच्छु) के आघातके रोकनेके लिये (आवश्यक) है; जितना लाजशर्म ढाँकनेके लिये (आवश्यक) है। (ख). ठीकसे जानकर भिक्षान्न (= पिडपात) सेवन करता है; क्रीडा, मद, मंडन-विभुषणके लिये न करके (उतना ही भिक्षान्न सेवन करता है) जितना कि इस शरीरकी स्थितिके लिये (आवश्यक है); (भूखके) प्रकोपके शमन करने तथा ब्रह्मचर्यमे सहायताके लिये (आवश्यक है) । (यह सोचते हुये-) पुरानी (कर्म-विपाक रूपी) वेदनाओं (= पीडाओं)को स्वीकार करूंगा, नई वेदनाओंको न उत्पन्न करूँगा; मेरी (शारीर-) यात्रा निर्दोष होगी, और विहार निर्द्न्द होगा। (ग). ठीकसे जानकर (वैसेही) निवास-गेह (= शयनाशन) का सेवन करता है; जोकि सर्दी, गर्मी ०२ के आघात के रोकनेके लिये (आवश्यक) है। जो ऋतुकी पीडाको हटाने और एकांत चिन्तनके लिये (उपयोगी) है। (घ). ठीकसे जानकर रोगीके लिये (उपयुक्त) पथ्य औषधकी वस्तुओका सेवन करता है, जिससे कि उत्पन्न व्याधियाँ और पीडायें दूर हो परम निरोगताको प्राप्त हो। भिक्षुओ! जिसके न सेवन करनेसे दाह और पीडा देनेवाले आस्त्रव उत्पन्न होते हैं, और सेवन करनेसे (वह) उत्पन्न नहीं होते; … वह प्रतिसेवनद्वारा प्रहातव्य आस्त्रव कहे जाते है।
४. “भिक्षुओ! कौनसे आस्त्रव अधिवासन (= स्वीकृति) द्वारा प्रहातव्य है ?—भिक्षुओ! यहाँ (एक) भिक्षु ठीकसे जानकर, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मक्खी-मच्छर-हवा-धूप-सरीसृपोंके आघात, को सहने मे समर्थ होता है; वाणी से निकले दुर्वचन, तथा शरीर में उत्पन्न ऐसी दुःखमय, तीव्र, तीक्ष्ण, कटुक, अवाछित, अरूचिकर, प्राणहर पीडाओं को स्वागत करने वाले स्वभाव का होता है। जिनके कि भिक्षुओ! न अधिवासन (= स्वीकार) करने से दाह और पीडा देने वाले आस्रव उत्पन्न होते है, और अधिवासन करने से… (वह) उत्पन्न नहीं होते;.. वह अधिवासन-द्वारा प्रहावव्य आस्रव कहे जाते हैं।
5. “भिक्षुओं! कौनसे परिवर्जन (बँचने) द्वारा प्रहातव्य आस्रव हैं?-भिक्षुओ! यहाँ (एक) भिक्षु ठीक से जानकर, चण्ड (= क्रुर) हाथी को (दुर से) बँचता है, चण्ड घोड़े.., चण्ड बैल.., चण्ड कुत्ते.., सॉप, खाईं, कॉटे की बारी, दह, जलप्रपात, चन्दनिका (गड़हा), ओलिगल्ल (= गडही) से (बँचता है)। जैसे अनुचित आसन पर बैठे, जैसे अनुचित विचरण स्थान पर विचरते, जैसे बुरे मित्रों को सेवन करते (देख) जानकर, सब्रह्मचारी (= एक जैसे व्रत पर आरूढ़ गुरूभाई) बुरे स्थानों मे चले जायें; ठीक से जानकर, वैसे अनुचित आसन, वैसे अनुचित विचरण-स्थान, वैसे बुरे मित्रो के सेवन से, बँचता है। भिक्षुओ! जिसके परिवर्जन न करने से दाह और पीडा देने वाले आस्रव उत्पन्न होते है, और परिवर्जन करने से… (वह) उत्पन्न नहीं होते; भिक्षुओ! यह परिवर्जन द्वारा प्रहातव्य आस्रव कहे जाते हैं।
6. “भिक्षुओ! कौन से विनोदन (= हटाने) द्वारा प्रहातव्य आस्रव है?-भिक्षुओ! यहां (एक) भिक्षु ठीक से जानकर, उत्पन्न हुये काम-वितर्क (= काम-वासना संबंधी संकल्प-विक्ल्प) का स्वागत नहीं करता, (उसे) छोडता है, हटाता है, अलग करता है, मिटाता है; उत्पन्न हुये व्यापाद-वितर्क (= द्रोह के ख्याल) का॰; उत्पन्न हुये विहिंसा-वितर्क (= प्रतिहिसा के ख्याल) का॰; पुनः पुनः उत्पन्न होने वाले पापी विचारों (= धर्मो) का ॰। भिक्षुओ! जिसके न हटाने से दाह और पीडा देने वाले आस्रव उत्पन्न होते है, और विनोदन करने से.. (वह) उत्पन्न नहीं होते;.. यही (वह) विनोदन द्वारा प्रहातव्य आस्रव कहे जाते है।
7. “भिक्षुओ! कौन से भावना (= चितन, ध्यान) द्वारा प्रहातव्य आस्रव है?-भिक्षुओ! यहाँ (एक) ठीक से जानकर, विवेक-युक्त, विराग-युक्त, निरोध-युक्त, मुक्ति-परिणाम वाले स्मृति-संबोध्यग1 की भावना करता है; ठीक से जानकर, ॰ धर्मविचय-संबोध्यंगकी ॰ ; ॰ वीर्य-संबोध्यंगकी ॰ ; ॰ प्रीति-संबोध्यंगकी ॰; प्रश्रब्धि-संबोध्यंगकी ॰ ; ॰ समाधि-संबोध्यंगकी ॰; उपेक्षा-संबोध्यंगकी ॰ भावना करता है। भिक्षुओ! जिसकी भावना न करने से ॰;…यही (वह) भावना द्वारा प्रहातव्य आस्रव कहे जाते है।
“भिक्षुओ! जब भिक्षु के दर्शन-द्वारा प्रहातव्य आस्रव दर्शन से नष्ट हो गये, संवर-द्वारा प्रहातव्य सवर से ॰, प्रतिसेवन-द्वारा प्रहातव्य प्रतिसेवन से ॰, अधिवासन-द्वारा प्रहातव्य अधिवासन से॰, परिवर्जन-द्वारा प्रहातव्य परिवर्जन से॰, विनोदन-द्वारा प्रहातव्य विनोदन से॰, भावना-द्वारा प्रहातव्य भावना से नष्ट हो गये; तो भिक्षुओ! वह भिक्षु सारे आस्रवों (= सब्बासव) के संवर से युक्त हो विहर रहा है; उसने तृष्णा को छिन्न कर दिया, संयोजन (= बंधन) को मानाऽभिसमय (= अभिमान के दर्शन) से अच्छी तरह हटा दिया; (उसने) दुःख का अन्त कर दिया।”
भगवान् ने यह कहा; सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओ ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।