मज्झिम निकाय
21. ककचूपम-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। उस समय आयुष्मान् मोलिय फग्गुण भिक्षुणियों के साथ अत्यधिक संसर्ग रखते थे। इतना संसर्ग रखते थे, ..कि यदि…(उनके) सामने कोई भिक्षुणियों की शिकायत करता, तो उससे आयुष्मान् मोलिय फग्गुण कुपित=असन्तुष्ट हो अधिकरण (= संघ के सामने अभियोग) भी करते। यदि कोई उन भिक्षुणियों के सामने आयुष्मान् मोलिय फग्गुण की शिकायत करता, तो वह (भी) कुपित असन्तुष्ट हो अधिकरण करतीं।…।
तब कोई भिक्षु जहाँ भगवान् थे, वहाँ…जाकर, भगवान् को अभिवादन कर, …एक ओर बैठ भगवान् से बोला—
“भन्ते! आयुष्मान् मोलिय फग्गुण भिक्षुणियों के साथ अन्यन्त संसर्ग रखते हैं ॰।”
तब भगवान् ने एक भिक्षु को संबोधित किया—
“आओ भिक्षु! तुम मेरे वचन से मोलिय फग्गुण भिक्षु को कहो—’आवुस फग्गुण! (= फाल्गुण)! शास्ता तुम्हे बुला रहे हैं’।”
“अच्छ, भन्ते!” (कह) भगवान् को उत्तर दे, वह भिक्षु…आयुष्मान् मोलिय फग्गुण के पास जाकर यह बोला—
“आवुस फग्गुण! तुम्हे शास्ता बुला रहे हैं।”
“अच्छा आवुस!” कह…आयुष्मान् मोलिय फग्गुण…भगवान् के पास जाकर, …एक ओर बैठ गये।
एक ओर बैठ आयुष्मान् ॰ फग्गुण को भगवान् ने यह कहा—“फग्गुण! सचमुच ही तू भिक्षुणियों के साथ अत्यन्त संसर्ग रखता है, ॰ कुपित असन्तुष्ट हो अधिकरण करती हैं?”
“हाँ, भन्ते!”
“क्यों फग्गुण! तु कुलपुत्र (हो) श्रद्धापूर्वक घर से बेघर बन प्रब्रजित हुआ है?”
“हाँ, भन्ते!”
“फग्गुण! यह तेरे समान श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रब्रजित कुलपुत्र के लिए योग्य नहीं, कि तू भिक्षुणियों के साथ अन्यन्त संसर्ग रक्खे। इसलिए फग्गुण! चाहे तेरे सामने भी कोई भिक्षुणियों की शिकायत करे, तो फग्गुण! जो तेरे भीतर घर किये राग हैं, जो घर किये वितर्क (= ख्याल) हैं, उनको छोड देना। वहाँ फग्गुण! तुझे इस प्रकार सीखना चाहिये—’मेरे चित्त में विकार नहीं आने पायेगा, दुर्वचन मैं मुँह से नहीं निकालूँगा, द्वेषरहित हो मैत्रीभाव से हित और अनुकम्पक हो विहरूँगा’। इस प्रकार फग्गुण! तुझे सीखना चाहिये। इसलिये फग्गुण! चाहे तेरे सामने कोई उन भिक्षुणियों को हाथ से पीटे भी, ढेले से…, दण्ड से…, शस्त्र से प्रहार भी करे, तो भी फग्गुण! जो तेरे भीतर घर किये राग हैं ॰ अनुकम्पक हो विहरूँगा। इस प्रकार फग्गुण! ॰। इसलिये फग्गुण! चाहे तेरे सामने ॰ शिकायत करें; ॰। चाहे तेरे सामने ॰ प्रहार भी करें ॰। ॰ सीखना चाहिये।”
तब भगवान् ने उन भिक्षुओं को संबोधित किया—
“भिक्षुओ! एक बार भिक्षुओं ने मेरे चित्त को प्रसन्न (= आराधित) किया था। एक बार भिक्षुओ! मैंने भिक्षुओं को संबोधित किया…’भिक्षुओ! मै एकासन (एक-) भोजन सेवन करता हूँ।…एकसन-भोजन का सेवन करते मैं स्वास्थ्य, निरोग, स्फूर्तिं, बल और प्राशुविहार (= सुखपूर्वक रहना) (अपने में) पाता हूँ। आओ। भिक्षुओ! तुम भी एकासन भोजन-सेवन…कर स्वास्थ्य व को प्राप्त करो’। भिक्षुओ! उन भिक्षुओं को मुझे अनुशासन (= उपदेश) करने की आवश्यकता नहीं थी। ..उन भिक्षुओ को याद दिला देना भर ही मेरा काम था। जैसे भिक्षुओ! उद्यान (= सुभूमि) में चैरस्ते पर कोढा सहित, घोडे़ जुता आजानेय (= उत्तम घोडों) का रथ खडा हो, उसे एक चतुर रथाचार्य, अश्व को दमन करने वाला सारथी चढ़कर, बायें हाथ से जोत (= रश्मि) को पकड कर, दाहिने हाथ मे कोड़े को ले, जैसे चाहे, जिधर चाहे ले जाये लौटावे; ऐसे ही भिक्षुओ! उन भिक्षुओं को मुझे अनुशासन करने की आवश्यकता न थी ॰ मेरा काम था।
“इसलिये भिक्षुओ? तुम भी अकुशल (= बुराई) को छोडो। कुशल धर्मो (= नेकियो) में लगो। इस प्रकार तुम भी इस धर्म ..मे वृद्धि=विरूढ़ि, विपुलता को प्राप्त होंगे। जैसे भिक्षुओ! गाँव या निगम (= कस्बे) के पास (= अ-विदूर) फलंगो (= सघनता) से आच्छादित महान् शाल (= साखू)-वन हो; उसका कोई अर्थकारी=हितकारी=योगक्षेमकारी पुरूष उत्पन्न हो; वह उस शाल के रस (= ओज) की अपहरण करने वाली टेढ़ी यष्ठियों को काटकर बाहर ले जाये, वन के भीतरी भाग को अच्छी तरह साफ कर दे; और जो शाल-यष्टियाँ सीधी सुन्दर तौर से निकली हैं, उन्हे अच्छी तरह रक्खे। इस प्रकार भिक्षुओ! वह शाल वन दूसरे समय पीछे वृद्धि=विरूढ़ि=विपुलता को प्राप्त होवे। ऐसे ही भिक्षुओ! तुम भी बुराई को छोडो ॰ विपुलता को प्राप्त होगे।
“भिक्षुओ! भूतकाल में इसी श्रावस्ती में वैदेहिका नामक गृह-पत्नी (= गृहस्थ स्त्री, वैश्य स्त्री) थी। वैदेहिका गृहपत्नी की ऐसी मंगल कीर्ति फैली हुई थी—वैदेहिका गृहपत्नी सौरता (= सुरत) है; निवाता (= निष्कलह) है, उपशान्त है। वैदेहिका गृहपत्नी के पास काली नाम दक्ष, आलस्थरहित, अच्छे प्रकार काम करने वाली दासी थी। तब भिक्षुओ! काली दासी के (मन में) यह हुआ—’मेरी आर्या (= अय्या=स्वामिनी) की ऐसी मंगलकीर्ति फैली हुईै है—॰। क्या मेरी आर्या भीतर में क्रोध के विद्यमान रहते उसे प्रकट नहीं करती, या अविद्यमान रहते? चूँकि मेरे काम अच्छी तरह किये होते हैं, इसलिये मेरी अय्या भीतर में क्रोध होते हुये भी प्रकट नहीं करती, नहीं है (यह बात) नहीं। क्यों न मैं अय्या की परीक्षा करूँ।’ तब भिक्षुओ! काली दासी दिन (चढ़ने पर) उठी। तब भिक्षुओ! वैदेहिका गृहपत्नी ने काली दासी से यह कहा—’अरे हे काली!’
“क्या है अय्या!’
‘क्यों रे दिन चढ़ने पर उठी है?’
‘कुछ नहीं अय्या!’
‘कुछ नहीं रे! (यह) हमारी दुष्टा दासी दिन (चढ़ने पर) उठती है’—(कह) कुपित, असन्तुष्ट हो भौवें टेढ़ी कर ली।
“तब भिक्षुओ! काली दासी को यह हुआ—‘मेरी अय्या भीरत में क्रोध के विद्यमान रहते उसे प्रकट नहीं करती, अविद्यमान रहते नहीं; ॰ नहीं है (यह बात) नहीं। क्यों न मै फिर अय्या को अच्छी तरह परखूँ।’ तब भिक्षुओ! काली दासी और दिन (चढ़ाकर) उठी। तब वैदेहिाक गृहपत्नी ने काली दासी से यह कहा—
‘अरे हे काली!”
‘क्या है अय्या!’
‘क्यों रे! और दिन (चढ़ाकर) उठी है?’
‘कुछ नहीं अय्या!’
‘कुछ नहीं रे! (यह) हमारी दुष्टा दासी और दिन (चढाकर) उठती है’—(कह) कुपित असन्तुष्ट हो भौवें टेढ़ी कर कटुवचन कहा। तब भिक्षुओ! काली दासी को यह हुआ—‘मेरी अय्या भीरत में क्रोध के विद्यमान रहते ॰ नहीं है (यह बात) नहीं। क्यों न मै फिर अय्या को अच्छी तरह परखूँ। तब भिक्षुओ! काली दासी और दिन (चढ़ाकर) उठी। फिर भिक्षुओ! वैदेहिका गृहपत्नी ने काली दसी से यह कहा—
‘अरे हे काली!’
‘क्या है अय्या!’
‘क्यों रे! और भी दिन चढ़ाकर उठी है?’
‘कुछ नहीं अय्या!’
‘कुछ नहीं रे! (यह) हमारी दुष्टा दासी और भी दिन चढ़ाकर उठती है।’—(कह) कुपित असन्तुष्ट हो, किवाड की बिलाई (= सूची) उठाकर उसे मारा। शिर फुट गया। तब भिक्षुओ! काली दासी ने फूटे शिर से लोहू बहाते पडोसियों को चिल्ला कर कहा—‘देखो अय्या! सौरता के काम को! देखो अय्या! निवाता के काम को!! देखो अय्या! उपशान्ता के काम को!!! कैसे (कोई) अकेली दासी को ‘तू दिन (चढ़े) उठी’—(कह) कुपित असन्तुष्ट को किवाड़ की बिलाई (= सूची) उठाकर मारैगी, और शिर को फोड डालैगी!!!’ तब भिक्षुओ! वैदेहिका गृहपत्नी के इस प्रकार के अपकीर्ति के शब्द फैले—‘धिक्कार है, वैदेहिका गृहपत्नी को! अ-सौरता है वैदेहिका गृहपत्नी, अ-निवाता है ॰, अन्-उपशान्ता है वैदेहिका गृहपत्नी।’
“इसी प्रकार भिक्षुओ! यहाँ एक भिक्षु तभी तक सोरत रहता है, निवात (= निष्कलह) उपशान्त, होता है, जब तक अप्रिय शब्द-पथ में वह नहीं पड़ता; जब (उस) भिक्षु पर अ-प्रिय शब्द-पथ पडता है, तब भी (रहे) तो (उसे) सोरत जानना चाहिये, निवात ॰, उपशान्त जानना चाहिये। भिक्षुओ! मैं उस भिक्षु को सुवच नहीं कहता, जो कि चीवर, भिक्षान्न, शयन-आसन, रोगी के पथ्य-औषध सामग्री के कारण सुवच होता है, मृदु-भाषिता को प्राप्त होता है। सो किस हेतु?—भिक्षुओ! (वह) भिक्षु, चीवर, पिंडपात (= भिक्षान्न) शयन-आसन, रोगी के पथ्य-औषधि सामग्री के न मिलने पर सुवच नहीं होता है, न मृदुभाषिता को प्राप्त होता है। सो किस हेतु?—भिक्षुओ! (वह) भिक्षु, चीवर, पिंडपात (= भिक्षान्न), शयन-आसन, रोगी के पथ्य-औषध-सामग्री के न मिलने पर सुवच नहीं रहेगा, न मृदुभाषिता को रक्खेगा। भिक्षुओ! जो भिक्षु केवल धर्म का सत्कार करते, ॰ गुरूकार करते, ॰ पूजा करते, सुवच होता है, मृदुभाषिता को प्रान हाता है, उसे मैं सुवच कहता हूँ। इसलिये भिक्षुओ! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये—
‘केवल धर्म का सत्कार करते ॰ पूजा करते सुवच होऊँगा, मृदुभाषिता (सोवचस्यता) को प्राप्त होऊँगा। भिक्षुओ! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये।
“भिक्षुओ! यह पाँच वचन-पथ (= बात कहने के मार्ग) हैं, जिने से दूसरे तुमसे बात करते बोलते हैं—(1) काल से या अकाल से; (2) भूत (= यथार्थ) से या अ-भूत से; (3) ‘स्नेह से या परूषता (कटुता) से; (4) सार्थकता से या निरर्थकता से; (5) मैत्रीपूर्ण चित्त से या द्वेषपूर्ण चित्त से। भिक्षुओ! चाहे दूसरे काल से बात करें, या अकाल से; ॰ भूत से ॰; ॰ स्नेह से ॰; सार्थकता से ॰; ॰ मैत्रीपूर्ण चित्त से बात करें, या द्वेषपूर्ण चित्त से, वहाँ भिक्षुओ! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये—मैं अपने चित्त को विकार-युक्त न होने दूँगा, और न दुर्वचन (मुँह से) निकालूँगा, मैत्री भाव से हितानुकम्पी होकर वहरूँगा, न कि द्वेषपूर्ण चित्त से। उस (विरोधी) व्यक्ति को भी मैत्री-पूर्ण चित्त से आप्लावित कर विहरूँगा। उसके लक्ष्य (= आरम्भण) करके सारे लोक को विपुल, विशाल, =अप्रमाण मैत्रीपूर्ण चित्त से आप्लावितरकर, अ-वैरता=अ-व्यापादिता (= द्रोह-रहितता) से परिप्लावित कर विहरूँगा।-इस प्रकार भिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये।
“जैसे भिक्षुओ! (कोई) पुरूष (हाथ मे) कुदाल लेकर आये, और वह ऐसा कहा—मैं इस महा-पृथिवी को अ-पृथिवी करूँगा। वह वहाँ वहाँ खोदे, वहाँ वहाँ (मिट्टी को) फेंके, वहाँ वहाँ रक्खे, वहाँ वहाँ छोड़े—‘(अब) तू अ-पृथिवी हुई, (अब) तु अ-पृथिवी हुई। तो क्या मानते हो भिक्षुओ! क्या वह पुरूष इस महापृथिवी को अ-पृथिवी कर सकेगा?”
“नही भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“भन्ते! यह महापृथिवी गम्भीर है, अ-प्रमेय है, यह अ-पृथिवी (= पृथिवी का अभाव) नहीं की जा सकती, वह पुरूष (नाहक में) हैरानी और परेशानी का भागी होगा।”
“ऐसे ही भिक्षुओ! यह पाँच वचन-पथ जिनके द्वारा दूसरे तुम्हे बोलेंगे—(1) काल से या अकाल से ॰ उसको लक्ष्य मानकर सारे लोक को पृथिवी समान, विपुल, विशाल ॰ अवैरता से, परिप्लावित कर विहरूँगा।—इस प्रकार भिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये।
“जैसे भिक्षुओ! (कोई) पुरूष लाख या हल्दी या नील, या मजीठ लेकर आये, (और) यह कहे—‘मैं इस आकाश में रूप (= चित्र) लिखूँगा, रूप प्रकट करूँगा’। तो क्या मानते हो भिक्षुओ! क्या वह पुरूष इस आकाश में रूप लिख सकेगा? रूप प्रकट कर सकेगा?”
“नहीं भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“भन्ते! यह आकाश अ-रूपी=अ-दर्शन (= अ-निदर्शन) है, यहाँ रूप लिखना” रूप का प्रादर्भाव करना सुकर नहीं। वह पुरूष (नाहक में) हैरानी और परेशानी का भागी होगा।”
“ऐसे ही भिक्षुओ, यह पाँच वचन-पथ जिनके द्वारा दूसरे तुक्हें बोलेंगे—(1) काल से, उसको लक्ष्य मानकर सारे लोक को आकाश-समान विपुल विशाल विहरूँगा।
—इस प्रकार भिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये।
“जैसे भिक्षुओ! (कोई) पुरूष जलती तृण की उल्का (= लुकारी) को लेकर आये, (और) यह कहे—‘मैं इस तृण-उल्का से गंगा नदी को संतप्त करूँगा, परितप्त करूँगा’। तो क्या मानते हो भिक्षुओ! क्या वह पुरूष उस जलती तृण-उल्का से गंगानदी को सन्तप्त कर सकेगा, परितत्प कर सकैगा?”
“नही भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“भन्ते! गंगानदी गम्भीर है, अप्रमेय है; वह जलती तृण-उल्का से नहीं सन्तप्त की जा सकती, परितप्त नहीं की जा सकती। वह पुरूष (नाहक में) ॰।
“ऐसे ही भिक्षुओ! यह पाँच वचन-पथ, जिनके द्वारा दूसरे तुमसे बोलेंगे—(1) काल में ॰ उसको लक्ष्य मानकर सारे लोक को गंगा-समान विपुल विशाल ॰ विहरूँगा।
“जैसे भिक्षुओ! (एक) मर्दित, सुमर्दित, सु-परिमर्दित, मृदु, तूलवाली, खर्खराहट-रहित, भरभराहट-रहित बिल्ली के (चमड़े की) खाल (= भस्रा) हो। तब कोई पुरूष काठ या कठला (= ठीकरा) लेकर आये और बोले—मैं इस ॰ बिल्ली की खाल को (इस) काठ या कठला से खुर्खुरी बनाऊँगा, भर्भरी बनाऊँगा। तो क्या मानते हो भिक्षुओ! ॰।
“नहीं भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“भन्ते! यह बिल्ली की खाल मर्दित ॰ है, काठ या कठला से खर्खुरी, भर्भरी नहीं बनाई जा सकती। वह पुरूष (नाहक में) ॰ ।”
“ऐसे ही भिक्षुओ! यह वचनपथ ॰ —काल में ॰ उसको लक्ष्य मानकर सारे लोक को बिल्ली की खाल के समान ॰ विहरूँगा।
“भिक्षुओ! चोर लुटेरे चाहे दोनों ओर मुठिया लगे आरे से भी अंग अंग को चीरें, तो भी यदि वह मन को द्वेषयुक्त (= दूषित) करे, तो वह मेरा शसनाकर (= उपदेशानुसार चलने वाला) नहीं है। वहाँ पर भी भिक्षुओ! ऐसा सीखना चाहिये—‘मैं अपने चित्त को ॰ अव्यापादिता से प्लावित कर विहरूँगा। ऐसा भिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये।
“भिक्षुओ! तुम इस ककचूपम (= क्रकचोपम=आरे के दृष्टान्तवाले) उपदेश को बार बार मन में करो। देखते हो भिक्षुओ! उस वचनपथ को अणु या स्थूल, जिसे तुम नहीं पसन्द करते?
“नहीं भन्ते!”
‘इसलिये भिक्षुओ! इस क्रकचोपम उपदेश को निरन्तर मन में करो, वह तुम्हें चिरकाल तक हित, सुख के लिये होगा।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट को उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।