मज्झिम निकाय

24. रथविनीत-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् राजगृह में कलन्दक-निवाप वेणुवन में विहार करते थे। तब बहुत से जातिभूमिक (= भगवान् के जन्मभूमि कपिल वस्तु में रहने वाले) जातिभूमि (= कपिल-वस्तु) में वर्षावास कर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे उन भिक्षुओ को भगवान् ने यह कहा—

“भिक्षुओ! जातिभूमि में जातिभूमि के भिक्षुओं का कौन ऐसा सम्भावित (= प्रतिष्ठित) भिक्षु है, जो स्वयं अल्पेच्छ (= निर्लोभ) हो, और भिक्षुओं के लिये अल्पेच्छ-कथा (= निर्लोभीपन के उपदेश) का कहने वाला हो; स्वयं सन्तुष्ट हो, और भिक्षुओ के लिये सन्तोष-कथा का करने वाला हो; स्वयं प्रविविक्त (= एकान्त-चिन्तनशील) हो, ॰ प्रविवेक-कथा ॰; स्वयं अ-संसृष्ट (= अनासक्त) हो, ॰ असंसर्ग-कथा ॰; स्वयं आरब्ध-वीर्य (= उद्योगी) हो, ॰ वीर्यारम्भ-कथा ॰; स्वयं शील-सम्पन्न (= सदाचारी) हो, ॰ शील-सम्पदा-कथा ॰; स्वयं समाधि-सम्पन्न हो, ॰ समाधि-सम्पदा-कथा ॰; स्वयं प्रज्ञा-सम्पन्न हो, ॰ प्रज्ञा-सम्पदा-कथा ॰; स्वयं विमुक्ति (= मुक्ति)-सम्पन्न हो, ॰ विमुक्ति-सम्पदा-कथा ॰; स्वयं विमुक्ति-ज्ञान-दर्शन-सम्पन्न (= मुक्ति के ज्ञान का साक्षात्कार जिसने कर लिया) हो, ॰ विमुक्ति-ज्ञान-दर्शन-सम्पदा-कथा ॰; जो सब्रह्मचारियों (= सहधर्मियों) के लिये अववादक (= उपदेशक), =विज्ञापक=सन्दर्शक, समादपक=समुत्तेजक, सम्प्रहर्षक (= उत्साह देने वाला) हो?”

“भन्ते! जाति-भूमि में, आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र है, जाति भूमि के सब्रह्मचारी भिक्षुओ के ऐसे सम्भावित हैं, जो स्वयं अल्पेच्छ ॰ सम्प्रहर्षक हैं।”

उस समय आयुष्मान् सारिपुत्र भगवान् के पास (= अ-विदूर) में बैठे हुये थे। तब आयुष्मान् सारिपुत्र ऐसा हुआ—“अहो! लाभ है (= धन्य हैं) आयुष्मान् पूर्ण मैत्रीयणीपुत्र को, सुलब्ध (= सुन्दर तौर से मिले हैं) लाभ आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र को, जिसकी प्रशंसा समझ समझ कर विज्ञ सब्रह्मचारी (= गुरू-भाई) शास्ता के सामने कर रहे है; और शास्ता (= बुद्ध) उसका अनुमोदन करते हैं। क्या कभी हमारा आयुष्मान् पूर्ण मैत्रयणीपुत्र के साथ समागम होगा, कभी कुछ कथा-संलाप होगा!”

तब भगवान् राजगृह यथेच्छ विहार कर, जिधर श्रावस्ती है, उधर चारिका (= रामत) के लिये चल पड़े। क्रमशः चारिका करते जहाँ श्रावस्ती है, वहाँ पहूँचे। वहाँ भगवान् श्रावस्ती में अनाथ-पिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र ने सुना, कि भगवान् श्रावस्ती में पहूँच गये हैं, (और) ॰ जेतवन में विहार करते हैं। तब आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र शयन-आसन संभालकर, पात्र-चीवर ले जिधर श्रावस्ती है, उधर चारिका के लिय चल पड़े। क्रमशः चारिका करते जहाँ श्रावस्ती, अनाथ-पिंडिक का आराम जेतवन, (और) जहाँ भगवान् थे वहाँ पहूँचें। पहूँचकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठे। एक ओर बैठे आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र को भगवान् ने धार्मिक कथा द्वारा संदर्शित=समादपित=समुत्तेजित सम्प्रहर्षित किया। तब आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र भगवान् की धार्मिक कथा द्वारा ॰ सम्प्रहर्षित हो, भगवान् के भाषण का अभिनन्दन=अनुमोदन कर, आसन से उठ भगवान् को अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर; जहाँ अन्धवन है, वहाँ दिन के विहार के लिये गये।

तब कोई भिक्षु…आयुष्मान् सारिपुत्र के पास जाकर…यह बोला—“आवुस सारिपुत्र! जिन पूर्ण मैत्रायणीपुत्र…भिक्षु का आप बराबर नाम लिया करते थे, वह भगवान् की धार्मिक कथा द्वारा ॰ प्रहर्षित हो, ॰ भगवान् को अभिवादन कर ॰ जहाँ अन्धवन है, वहाँ दिन के विहार के लिये गये।”

तब आयुष्मान् सारिपुत्र शीघ्रता से आसन ले आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र के पीछे (उनका) शिर देखते चल पड़े। तब आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र अन्धवन में घुसरकर एक वृक्ष के नीचे दिन के विहार के लिये बैठे। आयुष्मान् सारिपुत्र भी अन्धवन में घुसकर एक वृक्ष के नीचे दिन के विहार के लिये बैठे। तब आयुष्मान् सारिपुत्र सायंकाल को प्रतिसँल्लयन (= ध्यान) से उठ, जहाँ आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र थे, वहाँ गये, जाकर आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र के साथ…(यथायोग्य कुशल प्रश्न पूछ) एक ओर…बैठ, आयुष्मान् सारिपुत्र ने आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र से यह कहा—

“ेआवुस! हमारे भगवान् के पास (आप) ब्रह्मचर्यवास करते हैं?”

“हाँ, आवुस!”

“क्यों आवुस! शील-विशुद्धि (= आचार-शुद्धि) के लिये भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास करते हैं?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या फिर आवुस! चित्त-विशुद्धि के लिये ॰?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या फिर ॰ दृष्टि-विशुद्धि (= सिद्धान्त ठीक करनें) के लिये ॰?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या फिर ॰ सन्देह दूर करने के लिये (= कांक्षा-वितरण-विशुद्धयर्थ) ॰?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या फिर ॰ मार्ग-अमार्ग-ज्ञान के दर्शन (= समझ, साक्षात्कार) की विशुद्धि के लिये ॰?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या फिर ॰ प्रतिपद् (= मार्ग)-ज्ञान-दर्शन की विशुद्धि के लिये ॰?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या फिर ॰ ज्ञान-दर्शन की विशुद्धि के लिये ?”

“नहीं, आवुस!”

“आवुस! ‘शील-विशुद्धि के लिये क्या आप भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास करते है’, पूछने पर ‘नहीं आवुस!’ कहते हो। ॰ ‘ज्ञानदर्शन की विशुद्धि के लिये क्या आप भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास करते हैं’—पूछने पर भी ‘नहीं, आवुस!’—कहते हो। तो आवुस! किसलिये भगवान् के पास आप ब्रह्मचर्यवास करते है?”

“उपादान (= परिग्रह)-रहित परिनिर्वाण के लिये आवुस! मैं भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास करता हूँ।”

“क्या आवुस! शील-विशुद्धि उपादानरहित परिनिर्वाण है?”

“नहीं, आवुस!” ॰

“क्या आवुस! ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि उपादान-रहित परिनिर्वाण है?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या आवुस! इन (ऊपर गिनाये) धर्मो से अलग है, उपादान रहित परिनिर्वाण?”

“नहीं, आवुस!”

“क्या आवुस! शील-विशुद्धि उपादान रहित परिनिर्वाण है?—पूछने पर ‘नहीं आवुस!’ कहते हो। ॰। ‘क्या आवुस! इन धर्मो से अलग है, उपादान-रहित परिनिर्वाण?’—पूछने पर ‘नहीं आवुस ॰!’ तो फिर आवुस! इस (आपके) कथन का अर्थ किस प्रकार समझना चाहिये?”

“आवुस! शील-विशुद्धि को यदि भगवान् उपादान रहित परिनिर्वाण कहते, तो उपादान सहित परिनिर्वाण ही को उपादान रहित परिनिर्वाण कहते। ॰। आवुस ज्ञान-दर्शन विशुद्धि को यदि भगवान् उपादान-रहित परिनिर्वाण कहते; तो उपादानसहित परिनिर्वाण ही को उपादान रहित परिनिर्वाण कहते। आवुस! इन धर्मो से अलग यदि उपादान रहित परिनिर्वाण होता, तो पृथग्जन (= निर्वाण का अनधिकारी) भी परिनिर्वाण को प्राप्त होगा। (क्योंकि) आवुस! पृथग्जन इन धर्मो से अलग है। तो आवुस! तुम्हें एक उपमा (= दृष्टान्त) कहता हूँ, उपमा से भी कोई कोई विज्ञ पुरूष कहे का अर्थ समझते हैं।

“जैसे आवुस! राज प्रसेनजित् कोसल को श्रावस्ती में बसते कोई अत्यावश्यक काम साकेत में उत्पन्न हा जाये। (तब) उसके लिये श्रावस्ती और साकेत के बीच में सात रथविनीत (= डाक) स्थापित करें। तब आवुस! राजा प्रसेनजित् कोसल श्रावस्ती से निकलकर अन्तःपुर (= राजमहल वाला भीतरी दुर्ग) के द्वार पर पहिले रथ-विनीत (= रथ की डाक) पर चढ़े, पहिले रथविनीत पर आरूढ़ हो। दूसरे रथविनीत से तृतीय रथविनीत को प्राप्त होवें, (वहाँ) द्वितीय रथविनीत को छोड दे, और तीसरे रथविनीत पर आरूढ़ हो। ॰ चैथे ॰। ॰ पाँचवें ॰। छठें रथविनीत को छोड दे, और सातवें रथविनीत पर आरूढ़ हो। सातवें रथविनीत से साकेत के अन्तःपुर के द्वार पर पहूँच जाये। तब अन्तःपुर के द्वार पर प्राप्त उसे मित्र, अमात्य, ज्ञाति=सालोहित ऐसा पूँछे—‘क्या महाराज! इसी रथविनीत द्वारा श्रावस्ती से (चलकर) साकेत के अन्तःपुर द्वार पर पहूँच गये? आवुस! किस तरह उत्तर देने पर राजा प्रसेनजित् (= पसेनदी) कोसल का ठीक उत्तर होगा?”

‘आवुस! इस प्रकार उत्तर देने पर राजा प्रसेनजित् कोसल का उत्तर ठीक उत्तर हेागा—मुझे श्रावस्ती में बसते मेरा कोई अत्यावश्यक काम साकेत में उत्पन्न हो गया। (तब) उसके लिये श्रावस्ती और साकेत के बीच में सात रथविनीत स्थापित किये गये। तब मै श्रावस्ती से निकलकर ॰ सातवें रथ-विनीत पर आरूढ़ हो सातवें रथविनीत से साकेत के अन्तःपुर-द्वार पर पहूँच गया। इस प्रकार उत्तर देने पर राजा प्रसेनजित् कोसल का उत्तर ठीक उत्तर होगा।”

“ऐसे ही आवुस! शील-विशुद्धि तभी तक (है) जब तक कि (पुरूष) चित्तविशुद्धि को (प्राप्त नहीं होता); चित्त-विशुद्धि तभी तक जब तक कि दृष्टि-विशुद्धि को (प्राप्त नहीं होता); दृष्टि-विशुद्धि तभी तक जब तक कि कांक्षावितरण-विशुद्धि को (प्राप्त नहीं होता); ॰ जब तक कि मार्गामार्ग-ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि को ॰ ; ॰ जब तक कि प्रतिपद्-ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि को; ॰ जब तक कि ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि को ॰, ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि तभी तक (है) जब तक कि उपादान-रहित परिनिर्वाण को (प्राप्त नहीं होता)। आवुस! अनुपादा (= उपादान रहित) परिनिर्वाण के लिये भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास करता हूँ।”

ऐसा कहने पर आयुष्मान् सारिपुत्र ने आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र से यह कहा—“आयुष्मान् का क्या नाम है; सब्रह्मचारी आयुष्मान् को (किस नाम से) जानते है?”

“आवुस! पूर्ण (मेरा) नाम है, मैत्रायणीपुत्र करके सब्रह्मचारी मुझे जानते हैं।”

“आश्चर्य है आवुस! अद्भुत आवुस!! जैसे शास्ता (= बुद्ध) के शासन (= उपदेश) को भली प्रकार जानने वाला बहुश्रुत श्रावक गंभीर गम्भीर प्रश्नों को समझ समझ कर व्याख्यान करे; वैसे ही आयुष्मान पूण्र मैत्रायणीपुत्र ने (व्याख्यान किया)। लाभ है सब्रह्मचारियों को, लाभ सुलब्ध हुआ सुब्रह्मचारियों को, जो कि आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र को दर्शन, और सेवन के लिये पाते हैं। चेलण्डुक (= अंगोछा) से भी यदि सब्रह्मचारी आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र को हाथ से धारण करके दर्शन और सेवन के लिये पावें; उनको भी लाभ है, उनको भी लाभ सुलब्ध हुआ है। हमें भी लाभ है, हमें भी लाभ सुलब्ध हुआ है, जो कि हम आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र को दर्शन और सेवन के लिये पाते हैं।”

ऐसा कहने पर आयुष्मान् पूर्ण मैत्रायणीपुत्र ने आयुष्मान् सारिपुत्र से यह कहा—“आयुष्मान् क्या नाम है; सब्रह्मचारी आयुष्मान् को (किस नाम से) जानते हैं?”

“आवुस! उपतिष्य मेरा नाम है, सारिपुत्र करके मुझे सब्रह्मचारी जानते हैं।”

“अहो! भगवान् के समान (= शास्तृ-कल्प) श्रावक (= बुद्ध-शिष्य) से संलाप करते हुये भी मैं नही जान सका, कि (यह) आयुष्मान् सारिपुत्र हैं। यदि हम जानते कि यह आयुष्मान् सारिपुत्र हैं, तो इतना भी हमें न सूझ पडता। आश्चर्य आवुस! अद्भूत आवुस!! जैसे शास्ता के शासन को सम्यक् जानने वाला बहुश्रुत श्रावक गंभीर गंभीर प्रश्नों को समझ समझ कर व्याख्यान करे, वैसे ही आयुष्मान् सारिपुत्र ने (व्याख्यान किया)। लाभ है सब्रह्मचारियों को, लाभ सुलब्ध हुआ सब्रह्मचारियों को ॰ जो कि हम आयुष्मान् सारिपुत्र को दर्शन और सेवन के लिये पाते है।”

इस प्रकार दोनों महानागों (= महावीरों) ने एक दूसरे के सुभाषित का समनुमोदन किया।