मज्झिम निकाय
25. निवाप-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त!” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! नैवापिक (= बहेलिया) मृगों को (यह सोचकर) निवाप (मृगो के शिकार के लिये जंगल के भीतर बोये खेत) नहीं बोता, कि इस मेरे बोये निवाप को खाकर मृग दीर्घायु वर्णवान् (= सुन्दर) (हो) चिरकाल तक गुजारा करें। भिक्षुओ! नैवापिक मृगों के लिये (यह सोच) निवाप बोता है, कि मृग इस मेरे बोये निवाप को अनुप-खज्ज (= खा कर) मूर्छित (= बेसुध) हो भोजन करेंगे, …मूर्छित हो भोजन कर मद को प्राप्त होंगे, मद को प्राप्त हो प्रमादी होंगे; प्रमादी हो इस निवाप के विषय में स्वेच्छज्ञचारी होंगे।
“भिक्षुओ! पहिले मृगों ने नैवापिक के इस बोये निवाप को…मूर्छित हो भोजन किया;..मूर्छित हो भोजन कर मद को प्राप्त हुये, मद को प्राप्त (= मत्त) हो प्रमादी हुये; प्रमादी होकृस्वेच्छाचारी हुये। इस प्रकार भिक्षुओ! वह पहिले मृग नैवापिक के चमत्कार (= ऋद्धयनुभाव) से मुक्त नहीं हुये।
“वहाँ भिक्षुओ! दूसरे मृगों ने यह सोचा—‘जिन उन पहिले मृगों ने नैवापिक के इस बोये निवाप को…मूर्छित हो भोजन किया ॰; नैवापिक के चमत्कार से मुक्त नहीं हुये। क्यों न हम निवाप-भोजन से सर्वथा ही विरत हो जायें, भयभोग से विरत हो अरण्य-स्थानों में अवगाहन कर विहरें।’ (तब) यह निवाप-भोजन से सर्वथा विरत हुये, भय-भोग (= भयपूर्ण भोग) से विरत हो अरण्य-स्थानों को अवगाहन कर विहरने लगे। ग्रीष्म के अन्तिम मास में घास-पानी (= तृण-उदक) के क्षय होने से, उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। अत्यन्त दुर्बल कायावाले उन (मृगांे) का वल-वीर्य नष्ट हो गयां बलवीर्य के नष्ट हो जाने पर नैवापिक के बोये हुये उसी निवापकों खाने के लिये लौटे। उन्होने …मूर्छित हो भोजन किया ॰ इस प्रकार भिक्षुओ! वह दूसरे मृग भी नैवापिक के चमत्कार (= जादू) से मुक्त नहीं हुये।
“भिक्षुओ! तीसरे मृगों ने यह सोचा—‘जिन उन पहिले मृगो ने नैवापिक के इस बोये निवाप को…मूर्छित हो भोजन किया ॰ मुक्त नहीं हुये। (तब) जिन उन दूसरे मृगों ने यह सोचा—॰ निवाप-भोजन से सर्वथा विरत हुये ॰ वह दूसरे मृग भी नैवापिक के …(फन्दे) से मुक्त नहीं हुये। क्यों न हम नैवापिक के बोये इस निवाप का आश्रय लें। वहाँ आश्रय ले..इस… निवापको…अ-मूर्छित (= न बेसुध) हो भोजन करें, अ-मूर्छित हो भोजन करने से हम मद को प्राप्त न होंगे; मद को न प्राप्त होने से प्रमादी नहीं होंगे, प्रमादी न होने से नैवापिक के इस निवाप में स्वेच्छाचारी नहीं होंगे’। (यह सोच) उन्होेंने नैवापिक के बोये उस निवाप का आश्रय लिया। आश्रय ले…निवाप को…अमूर्छित हो भोजन किया, ॰ मद को प्राप्त नहीं हुये, ॰ प्रमादी नहीं हुये, ॰ स्वेच्छाचारी नहीं हुये। तब भिक्षुओ! नैवापिक और नैवापिक-परिषद् को यह हुआ—‘यह चौथे मृग शठ पाखंडी (= केटूभी) हैं; यह तीसरे मृग ऋद्धिमान परजन हैं; यह इस छोडे़ निवाप को खाते हैं, किन्तु हम इनके गमन-आगमन को नहीं जानते। क्यों न हम इस छोडे निवाप के सारे प्रदेश को बडे़ बडे़ डंडों के रूँधान से चारों ओर से घेर दें, जिसमें कि (इन) तीसरे मृगों के आश्रय को देखें; जहाँ पर कि वह पकडे जा सकते है’। (यह सोच) उन्होने ॰ डंडो के रूँधान से घेर दिया। (फिर) भिक्षुओ! नैवापिक और नैवापिक-परिषद् ने तीसरे मृगों के आश्रय (= स्थान) को देखा, जहाँ कि वह पकड़े गये। इस प्रकार भिक्षुओ! वह तीसरे मृग भी नैवापिक के…(फंदे से) मुक्त नहीं हुये।
“भिक्षुओ! चैथे मृगों ने यह सोचा—‘जिन पहिले मृगों ने ॰ मूर्छित हो भोजन किया ॰ मुक्त नहीं हुये। जिन दूसरे मृगों ने ॰, निवाप भोजन से सर्वथा विरत हुये ॰ मुकत नहीं हुये। जिन तीसरे मृगों ने ॰ अ-मूर्छित हो भोजन किया ॰ मुकत नहीं हुये। क्यों न हम (वहाँ) आश्रय (= स्थान) ग्रहण करे, जहाँ नैवापिक और नैवापिक-परिषद् की गति नहीं है। वहाँ आश्रय ग्रहण कर नैवापिक के इस बोये निवाप को अमूर्छित हो भोजन करें;…अमूर्छित हो भोजन करने से मद को न प्राप्त होंगे, ॰। ॰‘स्वंच्छाचारी न होंगे’ उन्होंने (तब) जहाँ नैवापिक और नैवापिक-परिषद् की गति न थी, वहाँ आश्रय ग्रहण किया। ॰ अमूर्छित हो भोजन किया ॰ स्वेच्छाचारी नहीं हुये। तब भिक्षुओ! नैवापिक और नैवापिक-परिषद् को यह हुआ—‘यह चैथे मृग शठ (= सथ) पाखंडी (= केटुभी) हैं, यह चैथे मृग ऋद्धिमान् (= होशियार) परजन हैं। (यह) हमारे छोडे़ निवाप को भोजन करते हैं, किन्तु हम इनके गमन-आगमन को नहीं जानते। क्यों न हम ॰ चारों ओर से घेर दें; जिसमें कि चैथे मृगों के आश्रय को देखें; जहाँ पर कि वह पकड़े जा सकते हैं।’ (यह सोच) उन्होने ॰ सारे प्रदेश को घेर दियां (किन्तु) भिक्षुओ! नैवापिक और नैवापिक-परिषद् ने चैथे मृगों के आश्रय को नहीं देख पाया, जहाँ पर कि वह पकडे जाते। तब भिक्षुओ! नैवापिक और नैवापिक-परिषद को यह हुआ—‘यदि हम चैथे मृगों को घट्टित करेंगे। इस प्रकार सारे मृग इस बोये निवाप को छोड देंगे; क्यों न हम चैथे मृगों की उपेक्षा कर दें।’ (तब) भिक्षुओ! नैवापिक और नैवापिक-परिषद् ने चैथे मृगों को उपेक्षित किया। इस प्रकार भिक्षुओ! चैथे मृग नैवापिक के…(फंदे) से छूटे।
“भिक्षुओ! अर्थ को समझाने के लिये मैंने यह उपमा (= दृष्टान्त) कही है। भिक्षुओ! निवाप यह पाँच काम-गुणों (= भोगों) का नाम है;…नैवापिक यह पापी मार का नाम है;…नैवापिक-परिषद् यह मार-परिषद् का नाम है; भिक्षुओ! मृग-समूह यह श्रमण-ब्राह्मणों का नाम है।
“भिक्षुओ! उन पहिले श्रमण-ब्राह्मणों ने उस बोये निवाप (अर्थात्) मार के इस लोक-आमिष (= विषयों) को…मूर्छित हो भोजन किया;…वह मूर्छित हो भोजन कर मद को प्राप्त हुये, मद को प्राप्त हो प्रमादी हुये, प्रमादी हो मार के इस निवाप में, इस लोकामिप में स्वेच्छाचारी हुये। इस प्रकार भिक्षुओ! वह पहिले श्रमण-ब्राह्मण मार के…(फन्दे) से नहीं छूटे। जैसे कि वह पहिले मृग (थे), भिक्षुओ! उन्हीं के समान मैं (इन) पहिले श्रमण-ब्राह्मणों को कहता हूँ।
“भिक्षुओ! दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों ने यह सोचा—‘जिन उन प्रथम श्रमण-ब्राह्मणों ने मार के बाये इस निवाप को=लोकामिष को मूर्छित हो खाया ॰। इस प्रकार ॰ वह ॰ मार के…(फंदे) से नहीं छूटे। क्यों न हम लोक-आमिष रूपी निवाप-भोजन से सर्वथा ही विरत हो जायें; भय-भोग से विरत हो अरण्य-स्थानों को अवगाहन कर विहरें’। (तब वह) लोक-आमिष रूपी निवाप-भोजन से सर्वथा ही विरत हो गये; ॰ अरण्य स्थानों को अवगाहन कर विहरने लगे—वह वहाँ शाकााहरी भी हुये, सर्वो (= श्यामाक)-भोजी भी हुये, नीवार (= तीन्नी) भक्षी भी हुये ॰ (जमीन पर) पडे फलो के खाने वाले भी हुये। ग्रीष्म के अन्तिम समय में घास पानी के क्षय होने से ॰ बल-वीर्य नष्ट हो जाने से (उनकी) चित्त की विमुक्ति (= मुक्ति=शांति) नष्ट हो गई, चित्त की विमुक्ति के नष्ट होने पर, लोक-आमिष रूपी मार के बोये उसी निवाप को लौट कर खाने लगे। उन्होंने ॰ मूर्छित हो खाया ॰। इस प्रकार भिक्षुओ! वह दूसरे श्रमण-ब्राह्मण भी मार के…(फंदे) से नहीं छूटे। जैसे कि वह दूसरे मृग (थे) भिक्षुओ! उन्हीं के समान मैं (इन) दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों को कहता हूँ।
“भिक्षुओ! तीसरे श्रमण-ब्राह्मणों ने यह सोचा—‘जिन उन प्रथम श्रमण-ब्राह्मणों ने ॰ मूर्छित हो भोजन किया ॰ (वह) मारके…(फंदे) से नहीं छूटे। ॰ दूसरे श्रमण-ब्राह्मण ॰ भोजन से सर्वथा विरत हो गये ॰, —(फिर) उसी निवाप को लौट कर खाने लगे ॰ वह मार के…(फंदे) से नहीं छूटे। क्यों न हम मार के बोये लोकामिष-रूपी इस निवाप का आश्रय लें। वहाँ आश्रय ले…इस…लोकामिष रूपी निवाप को अमूर्छित (= न-बेसुध) हो भोजन करें। ॰ लोकामिष रूपी निवापों में स्वेच्छाचारी नहीं होंगे।’ (तब) उन्होंनें मार के बोये लोक-आमिष-रूपी निवाप का आश्रय लिया। आश्रय लेकर…निवाप को अमूर्छित हो भोजन किया ॰ वह मार के बोये लोकामिष-रूपी निवाप में स्वेच्छाचारी नहीं हुये। किन्तुं उनकी यह दृष्टियाँ (= धारणायें) हुईं—(1) ‘लोक शाश्वत (= नित्य) है’, (2) ‘लोक अशाश्वत है’, (3) ‘लोक अन्तवान् है’, (4) ‘अन्त-रहित (= अनन्तवान्) लोक है’, (5) ‘सोई जीव है सोई शरीर है’, (6) ‘जीव अन्य, शरीर अन्य है’, (7) ‘तथागत (= बुद्ध, मुक्त) मरने के बाद होते है’, (8) ‘तथागत मरने के बाद नहीं होते’, (9) ‘तथागत मरने के बाद होते भी हैं, नहीं भी होते है’, (1॰) ‘तथागत मरने के बाद न होते हैं, न नहीं होते है’।—इस प्रकार भिक्षुओ! वह तीसरे श्रमण-ब्राह्मण भी मार के..(फंदे) में नहीं छूटे। जैसे कि वह तीसरे मृग (थे), भिक्षुओ! उन्हीं के समान मैं (इन) तीसरे श्रमण-ब्राह्मणों को समझता हूँ।
“भिक्षुओ! उन चैथे श्रमण-ब्राह्मणों ने सोचा—‘जिन उन प्रथम श्रमण-ब्राह्मणों ने ॰ मूर्छित हो भोजन किया ॰ (वह) मार के…(फंदे) से नहीं छूटे। जो यह दूसरे श्रमण ब्राह्मण ॰ भोजन से सर्वथा विरत हो गये ॰ (फिर) उसी निवाप को लौटकर खाने लगे ॰ वह (भी) मारके…(फंदे) से नहीं छूटे। जो वह तीसरे श्रमण-ब्राह्मण ॰ अमूर्छित हो भोजन करने लगे ॰, उनकी यह दृष्टियाँ (= धारणायें) हुईं—॰, (और) वह तीसरे श्रमण-ब्राह्मण भी मार के…(फंदे) से नहीं छूटे। क्यों न हम वहाँ आश्रय ग्रहण करें, जहाँ मार और मार-परिषद् की गति नहीं है। वहाँ आश्रय ग्रहण कर मार के बोये इस लोकामिष-रूपी निवाप को…अमूर्छित हो भोजन करें। ..अमूर्छित हो भोजन करने से मद को न प्राप्त होंगे, ॰ स्वेच्छाचारी न होंगे। (तब) उन्होंने वहाँ आश्रय ग्रहण किया जहाँ मार और मार-परिषद् की गति नहीं। वहाँ आश्रय ग्रहण कर…अमूर्छित हो उन्होंने मार के बोये लोकामिष-रूपी निवाप को भोजन किया। ॰ लोकामिष-रूपी निवाप में स्वेच्छाचारी नहीं हुये। इस प्रकार भिक्षुओ! यह चतुर्थ श्रमण-ब्राह्मण मार के…(फंदे) से छूटे। जैसे भिक्षुओ! चैथे मृग थे, उन्हीं के समान मैं इन चैथे श्रमण-ब्राह्मणों को कहता हूँ।
“भिक्षुओ! कैसे मार और मार-परिषद् की गति नहीं होती?—(1) यहाँ भिक्षुओ! भिक्षु कामों से रहित बुरी बातों से रहित ॰ प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। भिक्षुओ! इसे कहते हैं—‘भिक्षु ने मार को अंधा कर दिया, मार-चक्षु से अपद (= अगम्य) वन कर वह पापी से अदर्शन हो गया। (2) और फिर ॰ द्वितीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰ अदर्शन हो गया। (3) और फिर ॰ तृतीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰ अदर्शन हो गया। (4) और फिर चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰ अदर्शन हो गया। (5) और फिर ॰—‘आकाश अनन्त है’—इस आकाश-आनन्त्य-आयतन को प्राप्त हो विहरता है। ॰ अदर्शन हो गया। (6) और फिर ॰ विज्ञान-आनन्त्य-आयतन को प्राप्त हो विहरता है। ॰ अदर्शन हो गया। (7) और फिर ॰ आकिंचन्यायतन को प्राप्त हो विहरता है। ॰ अदर्शन हो गया। (8) और फिर ॰ नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतन को प्राप्त हो विहरता है। मार-चक्षु से अ-पद (= अगम्य) बन कर पापी से अदर्शन हो गया; लोक से विसक्तिक (= अनासक्त) हो उत्तीर्ण हो गया है।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण का अनुमोदन किया।