मज्झिम निकाय

3. धम्मदायाद—सुत्तन्त

ऐसा मैने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओं!”

“भदन्त!”—(कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! (तुम) मेरे धर्म-दायाद (= धर्म की वरासत पाने-वाले) होओ, आमिष-दायाद (= धन-वित्त की वरासत पाने वाले) मत बनो। तुम पर मेरी अनुकम्पा है। सो क्या?-(यही कि) मेरे शिष्य धर्मदायाद होवें, आमिष-दायाद नहीं। यदि भिक्षुओ! तुम मेरे आमिषदायाद होगे, धर्मदायाद नहीं; तो तुम लोग भी ताना मारे जाओगे-’शास्ता (= उपदेष्टा, बुद्ध) के श्रावक (= शिष्य) आमिष-दायाद होकर विहरते हैं, धर्मदायाद होकर नहीं।’ मै भी उसके कारण ताना मारा जाऊँगा-”शास्ता के श्रावक आमिपदायाद होकर विहरते है॰।” यदि भिक्षुओ! तुम मेरे धर्मदायाद होगे, आमिषदायाद नहीं, तो तुम भी ताना नहीं मारे जाओगे, (और लोग कहेंगे)—’शास्ता के श्रावक धर्मदायाद होकर विहरते हैं, आमिषदायाद, होकर नहीं।’ इससे मै भी ताना नहीं मारा जाऊँगा, (और लोग कहेंगे)—॰। इसलिये भिक्षुओ! (तुम) मेरे धर्मदायाद होओ ॰। तुम पर मेरी अनुकम्पा है।॰।

“भिक्षुओ! (मान लो) मैं इस समय भली प्रकार, परिपूर्ण, यथेच्छ, तृप्त्यनुसार भोजन कर चुका हूँ, और मेरे पास अधिक भिक्षान्न बच गया हो। तब भूख की दुर्बलता से पीडित दो भिक्षु आवे। उनको मैं यह कहूँ—“भिक्षुओ! मै ॰ तृप्त्यनुसार भोजन कर चुका हूँ, और मेरे पास ॰। यदि इच्छा हो, तो खाओ। अगर तुम न खाओगे, तो मै अब इसे तृणरहित (स्थान) मे डाल दूँगा, या प्राणिरहित ‘जल में छोड दूँगा’। तब एक भिक्षु के (मन में) हो —’भगवान् ॰ तृप्त्यनुसार भोजन कर चुके हैं, और यह भिक्षान्न अधिक बच गया है। यदि हम न खायेगे, तो भगवान् इसे तृणरहित ॰। किन्तु, भगवान् का यह कहा हुआ है—भिक्षुओ! मेरे धर्मदायाद होओ ॰। और यह भिक्षान्न तो एक आमिष ही है। क्यों न मैं इस भिक्षान्न को बिना खाये ही, इस भूख की दुर्बलता के साथ इस दिन रात को बिताऊँ।’ (तब) वह उस भिक्षान्न को खाकर भूख की दुर्बलता दूर कर उस दिन रात को बिताये। तो (उनमें), वह पहिला ही भिक्षु मुझे पूज्यतर और प्रशसं— नीयतर है। सो किसलिये?—भिक्षुओ! वैसा (करना) चिरकाल तक अलोभ, सन्तोष, सल्लेख (= तप), सुभरता (= सुगमता) और उद्योगपरायणता के लिये उस भिक्षु को (उपकारी) होगा। इसलिये, भिक्षुओ! मेरे धर्मदायाद होओ॰। तुम पर मेरी अनुकम्पा ॰।॰।”

भगवान् ने यह कहा। यह कहकर सुगत (= बुद्ध) आसन से उठकर विहार (= कुटी) के अन्दर चले गये।

तब भगवान् के चले जाने के थोडी ही देर बाद, आयुष्मान् सारि-पुत्र ने भिक्षुओं को संबोधित किया—

“आवुसो, भिक्षुओ!”

“आवुस!” (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र को उत्तर दिया।

आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा—“आवुसो! किन (कारणों) से श्रावक (= शिष्य) शास्ता (= गुरू) से अलग हो विहरते, विवके (= एकान्त चिन्तन) की शिक्षा नहीं ग्रहण करते; और किनसे श्रावक शास्ता से अलग हो विहरते विवेक की शिक्षा ग्रहण करते हैं?”

“आवुस! दूर से भी इस भाषण का अर्थ जानने के लिये हम आयुष्मान् सारिपुत्र के पास आते हैं। अच्छा हो, आयुष्मान् सारिपुत्र ही इस वचन का अर्थ कहे। आयुष्मान् सारिपुत्र (के मुख) से (उसे) सुनकर भिक्षु धारण करेंगे।”

“तो, आवुसो! सुनो, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूँ।”

“अच्छा, आवुस!” (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र को उत्तर दिया।

आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा—“आवुसो! यहाँ (कोई) शिष्य, गुरू से अलग हो विहरते विवेक की शिक्षा नहीं ग्रहण करते, जिन बातों (= धर्मो) को शास्ता (= गुरू) ने छोडने को कहा, उन्हे नहीं छोडते। जोडने-बटोरने वाले होते है। भागने में पहिले, और एकान्त-चिन्तन में जुआ-गिरा देने वाले होते हैं। इसमें स्थविर (= वृद्ध) भिक्षु तीन कारणों से निन्दा के पात्र होते है—(1) गुरू से अलग हो विहरते, शिष्य विवेक की शिक्षा नहीं ग्रहण करते; यह पहिला कारण है, स्थविर भिक्षुओं के निन्दनीय होने का। (2) जिन बातों को शास्ता ने छोडने को कहा, उन्हें नहीं छोडते; यह दूसरा कारण है ॰। (3) जोडने-बटोरने वाले होते है ॰, यह तीसरा कारण है ॰।

“आवुसो! इन तीन कारणों से स्थविर भिक्षु निन्दनीय होते हैं। आवुसो! वहाँ माध्यम (वयस्क) भिक्षु तीन कारणों से ॰। नव (-वयस्क) भिक्षु तीन कारणो से निन्दनीय होते है—(1) गुरू से अलग ॰। इन कारणों से आवुसो! शास्ता के अभाव मे विहार करते शिष्य विवेक की शिक्षा ग्रहण नहीं करते।

“आवुसो! किन कारणो से शास्ता के अभाव में विहरते शिष्य विवेक की शिक्षा को ग्रहण करते हैं?—आवुसो! यहाँ शास्ता के अभाव में विहरते श्रावक विवेक की शिक्षा ग्रहण करते है। जिन बातो को शास्ता ने छोडने को कहा, उन्हे छोडते है। जोडने-बटोरने वाले नहीं होते। भागने में जुआ गिरा देने वाले होते है; और एकान्त-चिन्तन (= प्रविवेक) मे पहिले होते हैं। यहाँ, आवुसो! स्थविर भिक्षु तीन बातों से प्रशंसनीय होते है—(1) शास्ता के अभाव में ॰ शिक्षा ग्रहण करते हैं, यह पहिली बात है, जिससे स्थविर ॰। (2) जिन बातों को शास्ता ने छोडने को कहा, उन्हें छोडते हैं ॰। (3) जोडने-बटोरने वाले नहीं होते ॰। आवुसो! स्थविर भिक्षु इन तीन बातों से प्रशसनीय होते हैं। वहाँ मध्यम (-वयस्क) भिक्षु ॰। नव (-वयस्क) भिक्षु तीन बातो से प्रशंसनीय होते हैं ॰।॰। आवुसो! इन तीन बातों से भिक्षु प्रशसनीय होते हैं। इन (बातों) से शास्ता के अभाव मे विरहते श्रावक विवेक्की शिक्षा ग्रहण करते हैं।

“आवुसो! लोभ बुरी (वस्तु) है, और द्वेष बुरी (वस्तु) है। लोभकृऔर द्वेष के विनाश के लिए आँख देने वाली, ज्ञान देने वाली मध्यमा-प्रतिपद् (= बीच का मार्ग) है, जो कि शांति, दिव्यज्ञान, संबोधि (= परमज्ञान) और निर्वाण (के प्राप्त करने) के लिये है। आवुसो! कौन है वह आँख देने वाली ॰ मध्यमा प्रतिपद् (जो कि) ॰ निर्वाण के लिये है?—यही आर्य अष्टांगिक-मार्ग; जैसे कि—सम्यग् (= ठीक)—दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यग्-वचन, सम्यक्-कर्मान्त (= कार-बार), सम्यग्-आजीव (= रोजी), सम्यग्-व्यायाम (= उद्योग), सम्यक्-स्मृति, और सम्यक्-समाधि। यह है आवुसो! वह आँख देने वाली ॰ मध्यमा प्रतिपद्, (जो कि) ॰ निर्वाण के लिये है।

“आवुसो! वहाँ क्रोध बुरी (चीज़) है, और उपनाह (= पाखंड) बुरी चीज है ॰; भ्रक्ष (= अमरख) ॰; प्रदाश (= पलास=निष्ठुरता) ॰; ईष्र्या ॰; मात्सर्य (= कजूसी) ॰; माया (= धोखा देना) ॰; शाठ्य (= शठता) ॰; थम्भ (= जडता) ॰; सारम्भ (= हिंसा) ॰; मान ॰; अतिमान ॰; मद ॰; प्रमाद ॰; (= भूल) बुरी (चीज) है। मद और प्रमाद के विनाश के लिये आँख देने वाली ॰ मध्यमा प्रतिपद् है ॰। आवुसो कौन है ॰।”

आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा; (और) सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र के भाषण का अभिनन्दन किया।