मज्झिम निकाय
31. चूल-गोसिंग-सुत्तन्त
एक समय भगवान् नादिक के गिंजकावसथ में विहार करते थे। इस सम आयुष्मान् अनुरूद्ध, आयुष्मान् नन्दिय, आयुष्मान् किम्बिल, गोसिंग-सालवनदाय में विहार करते थे।
तब भगवान् सायंकाल को एकान्त चिन्तन से उठकर वहाँ गोसिंग सालवनदाय था, वहाँ गये। दावपालक (= वनपाल) ने दूर से ही भगवान् को आते देखा। देख कर भगवान् से कहा—
“महाश्रमण! इस दाव में प्रवेश मत करो। यहाँ पर तीन कुलपुत्र यथाकाम (= मौज से) विहर रहे हैं। इनको तकलीफ मत दो।”
आयुष्मान् अनुरूद्ध ने दाव-पाल को भगवान् के साथ बात करते सुना। सुन कर दाव-पाल से यह कहा—
“आवुस! दाव-पाल! भगवान् को मत मना करो। हमारे शास्ता भगवान् आये है।”
तब आयुष्मान् अनुरूद्ध जहाँ आयुष्मान् नन्दिय और आयुष्मान् किम्बिल थे, वहाँ गये। जाकर बोले—
“आयुष्मानों! चलो आयुष्मानो! हमारे शास्ता भगवान् आ गये।”
तब आयुष्मान् अनुरूद्ध, आ॰ नन्दिय, आ॰ किम्बिल ने भगवान् की अगवानी कर, एक ने पात्र-चीवर ग्रहण किया, एक ने आसन बिछाया, एक ने पादोदक रक्खा। भगवान् ने बिछाये आसन पर बैठ पैर धोया। वे भी आयुष्मान्, भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे हुए आयुष्मान् अनुरूद्ध को भगवान् ने कहा—
“अनुरूद्धो! खमनीय तो है?=यापनीय तो है? पिंड के लिये तो तुम लोक तकलीफ़ नहीं पाते?”
“खमनीय है भगवान्! ॰”
“अनुरूद्धो! क्या एक चित्त, परस्पर मोद-सहित, दूध-पानी हुए, परस्पर प्रिय दृष्टि में देखते, विहरते हो?”
“हाँ भन्ते! हम एक-चित्त॰।”
“तो कैसे अनुरूद्धो! तुम एक-चित्त ॰?”
“भन्ते! मुझे यह विचार होता है—‘मेरे लिये लाभ है’ ‘मेरे लिये सुलाभ प्राप्त हुआ है’ जो ऐसे स-ब्रह्मचारियों (= गुरू भाइयों) के साथ विहरता हूँ भन्ते! इन आयुष्मानों में मेरा कायिक कर्म अन्दर और बाहर से मित्रतापूण्र होता है, वाचिक कर्म अन्दर और बाहर से मित्रतापूर्ण होता है, मानसिक कर्म अन्दर और बाहर ॰। तब भन्ते! मुझे यह होता है—क्यों न मैं अपना मन हटाकर, इन्हीं आयुष्मानों के चित्त के अनुसार बर्तूं। सो भन्ते! मैं अपने चित्त को हटा कर इन्हीं आयुष्मानों के चित्तों का अनुवर्तन करता हूँ। भन्ते! हमारा शरीर नाना है किन्तु चित्त एक..।”
आयुष्मान् नन्दिय ने भी कहा—“भन्ते! मुझे यह होता है ॰।”
आयुष्मान् किम्बिल ने भी कहा “भन्ते! मुझे यह ॰।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों! अनुरूद्धो! क्या तुम प्रमाद-रहित, आलस्य-रहित, संयमी हो, विहरते हो?”
“भन्ते! हाँ हम प्रमाद-रहित ॰।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धो! क्या अनुरूद्धो! इस प्रकार प्रमाद-रहित उद्योगी और एकाग्र चित्त हो विहरते, तुम्हें उत्तर-मनुष्य धर्म (= दिव्य-शक्ति=) अलमार्य-ज्ञान-दर्शन सुखपूर्वक विहार करना प्राप्त हुआ?”
“क्या होगा भन्ते! हमें?—यहाँ हम भन्ते! यथेच्छ ॰ प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरते हैं। भन्ते! प्रमाद-रहित ॰ विहरते यह उत्तर-मनुष्य-धर्म ॰ प्राप्त हुआ है।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धो! किन्तु इस विहार को पार करने के लिये, इस विहार को शान्त करने के लिये, क्या अनुरूद्धो! दूसरा कोई उत्तर-मनुष्य-धर्म प्राप्त हुआ?”
“क्या होगा भन्ते! हमें?—यहाँ हम भन्ते! यथेच्छ ॰ द्वितीय ध्यान ॰। ॰ तृतीय ध्यान ॰। ॰ चतुर्थ ध्यान ॰। ॰ आकाशानन्त्यायसन ॰। ॰ विज्ञानानन्त्यायतन ॰। ॰ नैव-संज्ञानासंज्ञायतन को प्राप्त हो विहरते हैं। प्रज्ञा से देखकर हमारे आस्रव नष्ट हो गये। भन्ते! इस विहार के अतिक्रमण के लिये, इस विहार को शान्त करने के लिये, यह दूसरा उत्तर-मनुष्य-धर्म ॰ प्राप्त हुआ है। भन्ते! इस सुखपूर्वक विहार से बढ़ कर उत्तर दूसरे सुख विहार को हम नहीं जानते।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धो! इस सुख-पूर्वक विहार से बढ़कर उत्तम दूसरा सुख पूर्वक विहार नहीं है।”
तब भगवान् आयुष्मान् अनुरूद्ध, आयुष्मान् नन्दिय, और आयुष्मान् किम्बिल को धार्मिक कथा द्वारा संदर्शित, समुत्तेजित, प्रशंसित कर आसन से उठ कर, चले गये।
तब आयुष्मान् अनुरूद्ध, आयुष्मान् नन्दिय, और आयुष्मान् किम्बिल भगवान् को (कुछ दूर) पहूँचा कर लौट आये। आयुष्मान् नन्दिय और आयुष्मान् किम्बिल ने आयुष्मान् अनुरूद्ध से यह कहा—
“क्या हमने आयुष्मान् अनुस्द्ध को यह कहा था—‘हम इन इन विहारों की पूर्णता को प्राप्त है’ जो कि आयुष्मान् अनुरूद्ध ने भगवान् के सन्मुख हमारे बारे में आस्रवों के क्षय पर्यन्त (की बात) कही?”
“मुझे आयुष्मानो ने नहीं कहा—‘हम इन इन विहारों की पूर्णता को प्राप्त है’ किन्तु मैनें आयुष्मानों के चित्त (की बात) को अपने चित्त से जान कर जाना कि, यह आयुष्मान् इन इन विहारों की पूर्णता को प्राप्त हैं। देवताओं ने मुझे इस बात को बतलाया है—यह आयुष्मान् ॰। उसे मैंने भगवान् के प्रश्न करने पर कहा।”
तब दीर्ध-परजन नाम यक्ष (= देवता) जहाँ भगवान् नले वहाँ गया; जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर खडा हुआ। एक ओर खडे हुए दीर्घपरजन यक्ष ने भगवान् से यह कहा—
“वज्जियों को लाभ है। सुन्दर लाभ मिला है, भन्ते! वज्जी जनता को, जहाँ कि तथागत अर्हत्-सम्यक्-सम्बुद्ध विहरते हैं, और आयुष्मान् अनुरूद्ध, आयुष्मान् नन्दिय, आयुष्मान् किम्बिल—ये तीन कुल-पुत्र भी (विहरते) हैं। ॰—
दीर्घपरजन यक्ष के शब्द को सुनकर भूमिवारी देवताअेां ने शब्द किया—वज्जियों को ॰। भूमिवासी देवताओं के शब्द को सुनकर चातुर्महाराजिक देवताओ ने ॰। ॰ त्रायस्त्रिश देवताओं ने ॰। ॰ याम देवताओं ने ॰। ॰ तुषित देवताओं ने ॰। ॰ निर्माण-रति देवताओं ने ॰। पर-निर्मित-वशवर्ती देवताओं ने ॰। ॰ ब्रह्म-कायिक देवताओं ने ॰। इस प्रकार उसी क्षण उसी मुहूर्त में वह आयुष्मान् ब्रह्मलोक पर्यन्त विदित हो गये।—
“ऐसाही है दीर्घ! यह, ऐसा ही है दीर्घ! यह; क्योंकि दीर्ध! जिस कुल से यह तीनों कुलपुत्र घर से बेघर हो प्रब्रजित हुए यदि वह कुछ भी इन तीनों कुलपुत्रो को प्रसन्न चित्त से स्मरण करे तो वह उसके लिये दीर्घ-काल तक हितकर सुखकर होगा। दीर्घ! जिस कुल-समुदाय से ॰। ॰ जिस ग्राम से ॰। ॰ जिस निगम (= कस्बे) से ॰। ॰ जिस नगर से ॰। ॰ जिस जन-पद (= देश) से यह तीनों कुलपुत्र घर से बेघर हो प्रब्रजित हुए, यदि वह जनपद भी इन तीनों कुल पुत्रों को प्रसन्नचितत से स्मरण करे, तो वह उसके लिये दीर्घकाल तक हितकर सुखकर होगा।
“यदि दीर्घ! क्षत्रिय ॰। ॰ ब्राह्मण ॰। ॰ वैश्य ॰। ॰ शूद्र भ प्रसन्नचित्त ॰ सुखकर होगा। दीर्घ! देवता-मार-ब्रह्मा-सहित, श्रमण-ब्राह्मण, देव-मनुष्य युक्त सारी प्रजा इन तीनों कुलपुत्रों का प्रसन्नचित्त से स्मरण करे; तो देवता-मार-ब्राह्मण-सहित श्रमण-ब्राह्मण, देव-मनुष्य युक्त सारी प्रजा के लिये दीर्घकाल तक हितकर, सुखकर होगा। क्योंकि यह तीनों कुंलपुत्र बहुत जनों के सुख के लिये, बहुत जनों के हित के लिये, लोक की अनुकंपा के लिये देव-मनुष्यों के अर्थ, हित, सुख के लिये तत्पर हैं।”
भगवान् ने यह कहा, संतुष्ट हो दीर्घ-परजन यक्ष ने भगवान् ने भाषण को अभिनंदित किया।