मज्झिम निकाय

38. महा-तण्हा-संखय-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। उस समय साति केवट्टपुत्त भिक्षु को ऐसी बुरी दृष्टि (= धारणा) उत्पन्न हुई थी—“मैं भगवान् के उपदेश किये धर्म को इस प्रकार जानता हूँ, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (= धावन) करता है, अन्य नहीं।

बहुत से भिक्षुओं ने सुना कि—साति केवट्टपुत्त (= कैवर्त-पुत्र) भिक्षु को ऐसी बुरी दृष्टि उत्पन्न हुई है—॰ संधावन करता है ॰। तब वह भिक्षु जहाँ साति केवट्टपुत्त भिक्षु था, वहाँ गये। जाकर साति केवट्टपुत्त भिक्षु से यह बोले—

“सचमुच, आवुस साति! तुम्हें इस प्रकार की बुरी धारणा उत्पन्न हुई है?—॰संधावन करता है!”

“हाँ आवुसो! ॰ संधावन करता है ॰।”

तब वह भिक्षु उस बुरी धारण से हटाने के लिये साति केवट्टपुत्त भिक्षु को समझाते बुझाते समनुभाषण करने लगे—

“आवुस साति! मत ऐसा कहो, मत भगवान् पर झूठ लगाओ। भगवान् पर झूठ लगाना ठीक नहीं है। भगवान् ऐसा नहीं कहते। आवुस साति! भगवान् के अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य-समुत्पन्न (कार्य-कारण से उत्पन्न) कहा है। प्रत्यय (= हेतु) के बिना विज्ञान (= चेतना) का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।”

इस प्रकार उन भिक्षुओं द्वारा समझाये बुझाये जाने पर भी केवट्टपुत्त साति भिक्षु, उसी बुरी धारणा को दृढ़ता से पकडे कहता था—“मै भगवान् के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूँ ॰।’ जब वह भिक्षु केवट्टपुत्त साति भिक्षु की उस बुरी धारणा को न हटा सके; तब वहाँ भगवान् थे, वहाँ गये; जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये…उन भिक्षुओं ने भगवान् से यह कहा—

“भन्ते! केवट्टपुत्त साति भिक्षु को ऐसी बुरी धारणा (= पापदृष्टि) उत्पन्न हुई है—‘मैं भगवान् के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूँ ॰। हमने भन्ते!कृसाति की इस बुरी धारणा को सुना! तब हम भन्ते!..साति भिक्षु के पास…जाकर यह बोले—सचमुच आवुस साति! तुम्हें इस प्रकार॰?..हाँ आवुसो! ॰ जब हम भन्ते!…साति भिक्षु की इस बुरी धारणा को न हटा सके, तब हमने आकर इस बात को भगवान् से कहा।”

तब भगवान् ने एक भिक्षु को संबोधित किया—“आओ भिक्षु! तुम मेरी ओर से केवट्टपुत्त साति भिक्षु को बोलना—‘आवुस साति! शास्ता (= उपदेशक, बुद्ध) तुम्हें बुला रहे हैं’।”

“अच्छा भन्ते!—“(कह) वह भिक्षु…साति भिक्षु के पास…जाकर यह बोला——“आवुस! शास्ता तुम्हे बुला रहे है।”

“अच्छा, आवुस!”—कहा…केवट्टपुत्त साति भिक्षु जहाँ भगवान् थे, …वहाँ जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे…साति भिक्षु को भगवान् ने यह कहा—

“सचमुच, साति! तुझे इस प्रकार की बुरी धारणा हुई है—‘मैं भगवान् के॰?”

“हाँ, भन्ते! मैं भगवान् के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूँ; कि वही विज्ञान संसरण, संधावन करता है, दूसरा नहीं।”

“साति! वह विज्ञान क्या है?”

“यह जो भन्ते! वक्ता, अनुभव-कर्ता है, जो कि तहाँ तहाँ (जन्म लेकर) अच्छे, बुरे कर्मो के विपाक को अनुभव करता है।”

“मोघपुरूष! तुमने किसको मुझे ऐसा उपदेश करते सुना? मैंने तो मोघपुरूष! अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य-समुत्पन्न कहा है; प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता (-कहा है)। मोघपुरूष! तू अपनी ठीक से न समझी बात का हमारे पर लांछन लगाता है; अपना नुकसान कर रहा है, और बहुत पाप कमा रहा है; मोघपुरूष! यह तेरे लिये दीर्घकाल तक अहितकर, दुःखकर होगा।”

तब भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—

“तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! क्या इस…साति भिक्षु ने इस धर्म-विनय (= धर्म) में थोड़ा भी अवगाहन कर पाया (= उस्मीकतं) है?”

“क्या कर पायेगा, भन्ते? नहीं भन्ते!”

ऐसा कहने पर केवट्टपुत्त साति भिक्षु सुम्गुम् हो, मूक हो, कंधा गिराकर, नीचे मूँह करके चिन्ता में पड़, प्रतिभाहीन हो बैठा रहा। तब भगवान् ने…साति भिक्षु को सुम्-गुम् हो ॰ प्रतिभा हीन हो बैठे देख..(उसे) यह कहा—

“मोघपुरूष! जानेगा तू इस अपनी बुरी धारणा को। अब मैं भिक्षुओं को पूछता हूँ।”

तब भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—

“भिक्षुओ! तुमने मुझे ऐसा धर्म उपदेश करते देखा है, जैसे कि…साति भिक्षु अपनी ठीक से न समझी बात का, हमारे पर लांछन लगाता है; अपना नुकसान कर रहा है; और बहुत पाप कमा रहा है?”

“नहीं भन्ते! भगवान् ने तो भन्ते! हमें अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य-समुत्पन्न कहा है; प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता है (-कहा है)।”

“साधु, भिक्षुओ! तुम इस प्रकार मेरे उपदेशित धर्म को ठीक से जानते हो—‘अनेक प्रकार से ॰ प्रादुर्भाव नहीं हो सकता’ तो भी यह…साति भिक्षु अपनी ठीक से न समझी ॰ यह उसके लिये दीर्घकाल तक अहितकर दुःखकर होगा।

“भिक्षुओ! जिस जिस प्रत्यय (= निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही वही उसकी संज्ञा (= नाम) होती है। चक्षु (= आँख) के निमित्त रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, चक्षु-र्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। श्रोत्र के निमित्त शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-चिज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। घ्राण (= नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। जिह्वा निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। काया के निमित्त से स्प्रष्टव्य (= छूये जाने वाले विषय) मंे (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। मन के निमित्त से धर्म (= उपरोक्त पाँच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।

“जैसे कि, भिक्षुओ! जिस जिस निमित्त (= प्रत्यय) को लेकर (जो) आग जलती है, वही वही उसकी संज्ञा होती है। काष्ठ के निमित्त से (जो) आग जलती है, काष्ठ-अग्नि ही उसकी संज्ञा होती है। (लकडी की) चुन्नी के निमित्त जो आग जलती है, चुन्नी की आग ही उसकी संज्ञा होती है। तृण के निमित्त (जो) आग जलती है, तृण-अग्नि ही उसकी संज्ञा होती है। कंडे (= गोमय) के निमित्त से (जो) आग जलती है, कंडे की आग ही उसकी संज्ञा होती है। भूसी (= तुष) के मिमित्त से (जो) आग जलती है, भूसी की आग ही उसवकी संज्ञा होती है। कूड़े (= संकार) के निमित्त से (जो) आग जलती है, कूडे की आग ही उसकी संज्ञा होती है। ऐसे ही भिक्षुओ! जिस जिस निमित्त से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही वही उसकी संज्ञा होती है। चक्षु के निमित्त से ॰ मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती हे।

“भिक्षुओ! इस (पाँच स्कंधो) को उत्पन्न देखते हो?”

‘हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! अपने आहार से (उन्हंे) उत्पन्न हुआ देखते हो?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! जो उत्पन्न होने वाला है, अपने आहार के निरोध से वह निरूद्ध (= नष्ट) होने वाला होता है—इसे देखते हो?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘यह (पाँच स्कंध) उत्पन्न हुआ है, या नहीं’—यह दुविधा करते सन्देह (= विचिकित्सा) उत्पन्न होती है न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! अपने आहार से उत्पन्न हुआ है, या नहीं-॰?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘जो उत्पन्न होने वाला है, (वह) अपने आहार (= स्थिति के आधार) के निरोध से निरूद्ध होने वाला होता है, या नहीं’—यह दुविधा करते सन्देह उत्पन्न होता है न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘यह (= पाँच स्कंध) उत्पन्न हैं’—यह अच्छी प्रकार प्रज्ञा से देखने पर सन्देह नष्ट हो जाता है न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! इसे अपने आहार से उत्पन्न ॰। ॰ ‘जो उत्पन्न होने वाला है, (वह) अपने आहार निरोध से निरूद्ध होने वाला होता है’—यह ठीक से अच्छी प्रकार प्रज्ञा से देखने पर सन्देह नष्ट हो जाता है न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘यह (पंच स्कंध) उत्पन्न हैं—इस (विषय में) तुम सन्देह-रहित हो न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘वह अपने आहार से उत्पन्न हैं’—इस (विषय) में भी तुम सन्देह-रहित हो न?”

“हाँ, भन्ते!”

“॰ अपने आहार के निरोध से निरूद्ध होने वाला होता है—इस (विषय) में भी तुम सन्देह-रहित हो न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘यह उत्पन्न है’—इसे ठीक से अच्छी प्रकार जानना सुदृष्ट (= अच्छा दर्शन) है न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! ‘(यह) अपने आहार से उत्पन्न है—॰। ॰ अपने आहार के निरोध से निरूद्ध होने वाला होता है’—यह ठीक से अच्छी प्रकार जानना सुदृष्ट है न?”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! क्या तुम इस ऐसे परिशुद्ध, उज्वल, दृष्ट (= दर्शन, ज्ञान) में भी आसक्त होंगे, रमोगे, ‘(मेरा) धन है’—समझोगे, ममता करोगे? भिक्षुओ! (मेरे) उपदेशे धर्म को कुल्ल (= नदी पार करने के बेड़े) के समान, (यह) पार होने के लिये है, पकड़ कर रखने के लिये नहीं है—(समझोगे)?”

“(पकड कर रखने के लिये) नहीं है भन्ते!”

“भिक्षुओ! तुम इस ऐसे परिशुद्ध, उज्वल, दृष्ट में भी आसक्त न होना, न रमना, ‘(मेरा) धन हैं’—न समझना, ममता न करना। बल्कि भिक्षुओ! मेरे उपदेशे धर्म को कुल्ल (= बेडे) के समान समझना, (यह) पार होने के लिये है, पकड रखने के लिये नहीं है।”

“हाँ, भन्ते!”

“भिक्षुओ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिये, आगे उत्पन्न होने वाले (सत्वों) की सहायता (= अनुग्रह) के लिये यह चार आहार हैं। कौन से चार?—(पहिला) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार (= कवल, कवल करने खाने योग्य) आहार; दूसरा स्पर्श (आहार); तीसरा मनः-संचेतना (= मन से विषय का ख्याल करके तृत्पिलाभ करना), चैथा विज्ञान (= चेतना)।

“भिक्षुओ! इन चार आहारों का क्या निदान (= हेतु) है=क्या समुदय है? (यह) किससे जन्में है=किससे संभूत हैं?—भिक्षुओ! इन चारों आहारों का निदान है तृष्णा। ॰ समुदय है, तृष्णा। यह जन्मे हैं तृष्णा से = यह संभूत है तृष्णा से।

“भिक्षुओ! इस तृष्णा का क्या निदान है ॰?— ॰ वेदना ॰।

“॰ वेदना ॰ ?—॰ स्पर्श ॰।

“॰ स्पर्श ॰ ?—॰ षड्-आयतन ॰।

“॰ षड्-आयतन ॰ ?—॰ नाम-रूप ॰।

“॰ नाम-रूप ॰ ?—॰ विज्ञान ॰।

“॰ विज्ञान ॰ ?—॰ संस्कार ॰।

“॰ संस्कार ॰ ?—॰ अविद्या ॰।

“इस प्रकार भिक्षुओ! अ-विद्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान, विज्ञान के कारण नाम-रूप, नाम-रूप के कारण षड्-आयतन, षड्-आयतन के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान (= ग्रहण या ग्रहण करने की इच्छा), उपादान के कारण भव (= संसार), भव के कारण जन्म, जन्म के कारण जरा-मरण, शोक, रोना-काँदना, दुःख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती हैं। इस प्रकार इस केवल (= खालिस) दुःख-स्कन्ध (= दुःख-समुदाय) की उत्पत्ति होती है।

“भिक्षुओ! जाति (= जन्म) के कारण जरा-मरण होता है—यह जो कहा। भिक्षुओ! जाति के कारण जरा-मरण होता है या नहीं—इसमे तुम्हे क्या जान पड़ता है?

“जाति के कारण जरा-मरण होता है। भन्ते! हमको यही जान पडता है, कि जाति के कारण जरा-मरण होता है।

“भिक्षुओ! भव के कारण जाति (= जन्म) होती है—यह जो कहा। भिक्षुओ! भव के कारण जाति होती है या नहीं—इसमें तुम्हें क्या जान पड़ता है?”

“॰ भव के कारण, भन्ते! जाति होती है ॰।”

“॰ उपादान के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ तृष्णा के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ वेदना के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ स्पर्श के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ षड्-आयतन के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ नाम-रूप के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ विज्ञान के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ संस्कार के कारण ॰ ?—॰।”

“॰ अविद्या के कारण ॰ ?—॰।”

“साधु, भिक्षुओ! तुम भी भिक्षुओ! इस प्रार कहो, मैं भी ऐसे ही कहता हूँ—‘इसके होने पर यह होता है, इसके उत्पन्न होने से यह उत्पन्न होता है’—जो कि वह अविद्या के कारण संस्कार, संस्कार के कारण विज्ञान, विज्ञान के कारण, नाम-रूप के कारण षड्-आयतन, षड्-आयतन के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा-मरण, जरा-मरण के कारण शोक, रोना-काँदना, दुःख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है।—इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध (= दुःख-पुंजं) की उत्पत्ति होती है।

“अविद्या के पूर्णतया विरक्त होने से, (अविद्या के) नष्ट होने से संस्कार का नाश (= निरोध) होता है, संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, विज्ञान के निरोध से नाम-रूप का निरोध होता है, नाम-रूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है, षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है, उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है, भव के निरोध से जाति का निरोध होता है, जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक रोने-काँदने, दुःख=दौर्मनस्य हैरानी-परेशानी का निरोध होता है।—इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध का निरोध होता है।

‘भिक्षुओ! ‘जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है’—यह जो कहा। भिक्षुओ! जाति के निरोध से जरामरण का निरोध होता है या नहीं होता—यहाँ तुम्हें कैसा जान पडता है?”

“‘जाति के निरोध से जरा मरण का निरोध होता’ भन्ते! (यहाँ) भन्ते! हमें होता है—जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है।”

“॰ भव के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ उपादान के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ तृष्णा के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ वेदना के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ स्पर्श के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ षड्-आयतन के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ नाम-रूप के निरोध से ॰?—॰।”

“॰ विज्ञान के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ संस्कार के निरोध से ॰ ?—॰।”

“॰ अविद्या के निरोध से ॰ ?—॰।”

“साधु, भिक्षुओ! तम भी भिक्षुओ! इस प्रकार कहो, मैं भी ऐसे कहता हूँ—‘इसके न होने पर यह नहीं होता, इसके निरोध पर इसका निरोध होता है’; जो कि यह अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है; संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, ॰ नाम-रूप ॰, ॰ षड्-आयतन ॰, ॰ स्पर्श ॰,

॰ वेदना ॰, ॰ तृष्णा ॰, ॰ उपादान ॰, ॰ भव ॰, ॰ जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक रोने-काँदने, दुःख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी का निरोध होता है।

“भिक्षुओ! इस प्रकार (पूर्वोक्त क्रम से) जानते देखते हुये क्या तुम पूर्व के छोर (= पूर्व-अन्त=पुराने समय या पुराने जन्म) की ओर दौडोगे—‘अहो! क्या हम अतीत-काल में थे, या हम अतीत-काल में नहीं थे? अतीत-काल में हम क्या थे? अतीत-काल में हम कैसे थे? अतीत-काल में क्या होकर हम क्या हुये थे?”

“नहीं, भन्ते!”

“भिक्षुओ! इस प्रकार जानते देखते हुये, क्या तुम बाद के छोर (= अपर-अन्त=आगे आने वाले समय) की ओर दौडोगे—‘अहो! क्या हम भविष्य काल में होंगे, या हम भविष्य काल में नहीं होगे? भविष्य काल में हम क्या होंगे? ॰ हम कैसे होंगे? भविष्य काल में क्या होकर हम क्या होंगे?”’

“नहीं, भन्ते!”

“भिक्षुओ! इस प्रकार जानते देखते हुये, क्या तुम इस वर्तमान काल में अपने भीतर इस प्रकार कहने-सुनने वाले (= कथकथी) होंगे—‘अहो! क्या मै हूँ, ॰ या मैं नहीं हूँ? मैं क्या हूँ? मैं कैसा हूँ? यह सत्व (= प्राणी) कहाँ से आया? वह कहाँ जाने वाला होगा?’—?”

“नहीं, भन्ते!”

“भिक्षुओ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम ऐसा कहोगे—‘शास्ता (= उपदेष्टा) हमारे गुरू है, शास्ता के गौरव (के ख्याल) से हम ऐसा कहते है’—?”

“नहीं, भन्ते!”

“॰ ऐसा कहोगे—‘श्रमण (= संन्यासी) ने हमें ऐसा कहा, श्रमण के वचन से हम ऐसा कहते है’—?”

“नहीं, भन्ते!”

“भिक्षुओं! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम दूसरे शास्ता के अनुगामी होंगे?”

“नहीं, भन्ते!”

“॰ क्या तुम नाना श्रमण ब्राह्मणों के (जो वह) व्रत, कौतुक, मंगल (-संबंधी क्रियायें) है, उन्हें सार के तौर पर ग्रहण करोगे?”

“नहीं, भन्ते!”

“क्या भिक्षुओ! जो तुम्हारा अपना जाना है, अपना देखा है, अपना अनुभव किया है; उसी को तुम कहते हो?”

“हाँ, भन्ते!”

“साधु, भिक्षुओ! मैंने भिक्षुओ! तुम्हें समयान्तर में नहीं तत्काल फलदायक, यहीं दिखाई देने वाले, विज्ञों द्वारा अपने आप में जानने योग्य इस धर्म के पास उपनीत किया (= पहूँचाया) है। भिक्षुओ! ‘यह धर्म समयान्तर नहीं’ तत्काल फलदायक है, (इसका परिणाम) यहीं दिखाई देने वाला है, (यह) विज्ञो द्वारा अपने आप में जानने योग्य है’—यह जो कहा है, वह इसी (उक्त कारण) से ही कहा है।

“भिक्षुओ! तीन के एकत्रित होने से गर्भ धारण होता है—माता और पिता एकत्र होते हैं, किंतु माता ऋतुमती नहीं होती और गंधर्व उपस्थित नहीं होता; तो गर्भ-धारण नहीं होता। माता-पिता एकत्र होते है, माता ऋतुमती होती है; किन्तु, गंधर्व उपस्थित नहीं होता , तो भी गर्भ-धारण नहीं होता। जब माता-पिता एकत्र होते है, माता ऋतुमती होती है, और गंधर्व उपस्थित होता है; इस प्रकार तीनों के एकत्रित होने से गर्भ-धारण होता है। तब उस गरू-भार-वाले गर्भ को बडे संशय के साथ माता कोख में नौ या दस मास धारण करती है। फिर उस गरू मार वाले गर्भ को बडे संशय के साथ माता नौ या दस मास के बाद जनती है। तब उस जात (= सन्तान) को भिक्षुओ! माता अपने ही लोहित से पोसती है। भिक्षुओ! आर्यों के मत में यह लोहित (= खून) ही है, जो कि यह माता का दूध है।

“तब भिक्षुओ! वह कुमार बडा होने पर, इन्द्रियों के परिपक्व होने पर जो वह बच्चों के खिलौने हैं, जैसे कि-वंकक (= वंका), घटिक (= घडिया), मोक्खचिक (= मुँह का लट्टू), चिंगुलक (= चिंगुलिया), पात्र-आढक (= तराजू का खिलौना), रथक (= खिलौने की गाडी), धनुक (= धनुही)—उनसे खेलता है।

“तब भिक्षुओ! वह कुमार (और) बडा होने पर, इन्द्रियों के परिपक्व होने पर, संयुक्त संलिप्त हो, पाँच (प्रकार के) काम-गुणों, (= विषय-भोगों)—चक्षु से विज्ञेय इष्ट (= अभिलषित) कान्त (= कमनीय), मनोज्ञ, प्रिय, कामनायुक्त, रंजनीय रूपों; श्रोत से विज्ञेय ॰ शब्दों; घ्राण से विज्ञेय ॰ गंधों; जिह्वा से विज्ञेय ॰ रसो; काया से विज्ञेय ॰ स्पर्शो—को सेवन करता है। वह चक्षु (= आँख) से प्रिय रूपों को देखकर राग-युक्त होता है, अ-प्रिय रूपों को देखकर द्वेष-युक्त होता है। कायिक स्मृति (= होश) को न कायम रख छोटे चित्त से विहरता है। (वह) उस चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति (= मुक्ति) का ठीक से ज्ञान नहीं करता; जिससे कि उसकी सारी बुराइयाँ=अकुशल-धर्म निरूद्ध हो जायें। वह इस प्रकार अनुरोध (= राग), विरोध में पडा, सुखमय दुःखमय न-सुख-न-दुखमय—जिस किसी वेदना को वेदन (= अनुभव) करता है; उसका वह अभिवादन करना है, अभिवादन करता है, अवगाहन करता है। इस प्रकार अभिनन्दन करते, अभिवादन करते, अवगाहन करते रहते उसे नन्दी (= तृष्णा) उत्पन्न होती है। वेदनाओं के विषय में यह नन्दी है, (यही) उसका उपादान है, उसके उपादान के कारण भव होता है, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरामरण, शोक, रोना-काँदना, दुःख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है। इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध की उत्पत्ति=समुदय, होता है। वह श्रोत्र से प्रिय शब्दों को सुन कर ॰ ॰ घ्राण से प्रिय गंध को सूँघ कर ॰। ॰ जिह्वा से प्रिय रसों को चख कर ॰। ॰ काया से प्रिय स्प्रष्टव्यों को छू कर ॰। ॰ मन से प्रिय धर्मो को जानकर ॰। इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध की उत्पत्ति होती है।

“भिक्षुओं! यहाँ लोक में तथागत, अर्हत्, सम्यक्-संबुद्ध, विद्या-आचरण-युक्त, सुगत, लोक-विद्, पुरूषों के अनुपम-चाबुक-सवार, देवताओं-और-मनुष्यों के उपदेष्टा भगवान् बुद्ध उत्पन्न होते है। वह ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक सहित इस लोक को, देव-मनुष्य-सहित श्रमण-ब्राह्मण-युक्त (सभी) प्रजा को स्वयं समझ कर=साक्षात्कार कर (धर्म को) बतलाते हैं। वह आदि में कल्याण(-कारी), मध्य में कल्याण(-कारी), अन्त में कल्याण(-कारी) धर्म को अर्थ-सहित=व्यंजन-सहित उपदेशते है। वह केवल (= मिश्रण-रहित) परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करते हे। उस धर्म को गृहपति या गृहपति का पुत्र, या और किसी छोटे कुल में उत्पन्न (पुरूष) सुनता है। वह उस धर्म को सुनकर तथागत के विषय में श्रद्धा लाभ करता है। वह उस श्रद्धा-लाभ से संयुक्त हो सोचता है—‘गृह-वास जंजाल है, मैल का मार्ग है। प्रब्रज्या (= संन्यास) मैदान (सा खुला स्थान) है। इस नितान्त सर्वथा-परिपूर्ण, सर्वथा-परिशुद्ध, खरादे शख जैसे (उज्वल) ब्रह्मचर्य का पालन घर में रहते सुकर नहीं है। क्यों न मैं सिर-दाढी मुँडाकर, काषाय वस्त्र पहन, घर से बेघर हो प्रब्रजित हो जाऊँ?’ सो वह दूसरे समय अपनी अल्प भोग-राशि को या महा-भोग-राशि को अल्प-ज्ञाति-मंडल को या महा-जाति-मंडल को छोड; सिर-दाढी मुँडा, काषाय वस्त्र पहिन घर से बेघर हो प्रब्रजित (= संन्यासी) होता है।

“वह इस प्रकार प्रब्रजित हो, भिक्षुओं की शिक्षा, समान-जीविका को प्राप्त हो, प्राणातिपात छोड, प्राणिहिंसा से विरत होता है। दंड-त्यागी, शस्त्र-त्यागी, लज्जालु, दयालु, सर्व प्राणियों, सारे प्राणि-भूतों का हित और अनुकंपक हो विहरता है। अ-दिन्नादन (= चोरी) छोड, दिन्नादयी (= दिये का लेने वाला), दिये का चाहने वाला, …पवित्रात्मा हो विहरता है। अ-ब्रह्मचर्य को छोड ब्रह्मचारी हो, ग्राम्य-धर्म मैथुन से विरत हो, आर-चारी (= दूर रहने वाला) होता है। मृषावाद को छोड, मृषावाद से विरत हो, सत्यवादी सत्य-संघ, लोक का अ-विसंवादक=विश्वास-पासत्र…होता है। पिशुन-वचन (= चुगली) छोड, पिशुन-वचन से विरत होता है—इन्हें फोडने के लिये यहाँ से सुनकर वहाँ करने वाला नहीं होता; या उन्हें फोडने के लिये वहाँ से सुनकर यहाँ कहने वाला नहीं होता। (वह तो) फूटों को मिलाने वाला, मिले हुओं को न फोडने वाला, एकता में प्रसन्न, एकता में रत, एकता में आनन्दित हो, एकता करने वाली वाणी का बोलने वाला होता है। कटुवचन छोड कटु-वचन से विरत होता है। जो वह वाणी..कर्ण-सुखा, पे्रमणीया, हृदयंगमा, सम्य, बहुजन-कान्ता=बहुजन-मनापा है; वैसी वाणी का बोलने वाला होता हे। प्रलाप को छोड प्रलाप से विरत होता है। समय देखकर बोलने वाला, यथार्थवादी=अर्थ-वादी, धर्म-वादी, विनय-वादी हो, तात्पर्य-युक्त, फल-युक्त, सार्थक, सारयुक्त वाणी का बोलने वाला होता है।

“वह बीज-समुदाय, भूत-समुदाय के विनाश से विरत होता है। एकाहारी, रात को उपरत-विकाल (= मध्याह्नोत्तर)-भोजन से विरत होता है। माला, गंध, विलेपन के धारण, मंडन, विभूषण से विरत होता है। उच्च-शयन और महाशयन से विरत होता है। सोना चाँदी लेने से विरत होता है। कच्चा अनाज लेने से विरत होता है। कच्चा मांस लेने से विरत होता है। स्त्री-कुमारी ॰, दासी-दास ॰, भेड-बकरी ॰, मुर्गी-सुअर ॰, हाथी-गाय ॰, घोडा-घोडी ॰, खेत-घर लेने से विरत होता है। दूत बन कर जाने से विरत होता है। क्रय-विक्रय करने से विरत होता है। तराजू की ठगी, कांसे की ठगी, मान (= मन, सेर आदि तोल) की ठगी से विरत होता है। घूस, वंचना, जाल-साजी, कुटिल-योग ॰। छेदन, बध, बंधन, छापा मारने, ग्राम आदि के विनाश करने, डाका डालने से विरत होता है।

“वह शरीर के वस्त्र, और पेट के खाने से सन्तुष्ट रहता है। वह जहाँ जहाँ जाता है (अपना सामान) लिये ही जाता है; जैसे कि पक्षी जहाँ कहीं उडता है, अपने पक्ष-मार के साथ ही उडता है। इसी प्रकार भिक्षु शरीर के वस्त्र, और पेट के खाने से सन्तुष्ट रहता है। ॰। वह इस प्रकार आर्य (= निर्दोष) शील-स्कंध (= सदाचार-समूह) से युक्त हो; अपने भीरत निर्मल सुख को अनुभव करता है।

“वह आँख से रूप को देखकर, निमित्त (= आकृति आदि) और अनुव्यंजन (= चिन्ह) का ग्रहण करने वाला नहीं होता। चूँकि चक्षु इन्द्रिय को अ-रक्षित रख विहरने वाले को, राग, द्वेष, बुराइयाँ=अ-कुशल धर्म उत्पन्न होते है; इसलिये वह उसे सुरक्षित र, खता है; चक्षु-इन्द्रिय की रक्षा करता है= चक्षु-इन्द्रिय में संवर ग्रहण करता है। वह श्रोत्र से शब्द सुनकर निमित्त और अनुव्यंजन का ग्रहण करने वाला नहीं होता ॰। घ्राण से गंध ग्रहण कर ॰। जिह्वा से रस ग्रहण कर ॰। काया से स्पर्श ग्रहण कर ॰। मन से धर्म ग्रहण कर ॰। इस प्रकार वह आर्य इन्द्रिय-संवर से युक्त हो, अपने भीतर निर्मल सुख को अनुभव करता है।

“वह आने-जाने में, जानकर करने वाला (= संप्रजन्य-युक्त) होता है। अवलोकन-विलोक में संप्रजन्य-युक्त होता है। समेटने-फैलाने में ॰, संघाटी-पात्र-चीवर के धारण करने में ॰, खानपान, भोजन-आस्वादन में ॰। मल-मूत्र विसर्जन में ॰, जाते-खडे होते, बैठते, सोते-जागते, बोलते चुप रहते ॰। इस प्रकार वह आर्य स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो, अपने में निर्मल सुख को अनुभव करता है।

“वह इस आर्य-शील-स्कंध से युक्त, इस आर्य इन्द्रिय-संवर से युक्त, इस आर्य स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो, एकान्त में—अरण्य, वृक्ष-काया, पर्वत, कन्दरा, गिरि-गुहा, श्मशान, वन-प्रान्त, खुले मैदान, या पुआल के गंज में—वास करता है। वह भोजन के बार…आसन मार कर, काया को सीधा रख, स्मृति को सन्मुखा ठहरा कर बैठता है। वह लोक में (1) अभिध्या (= लोभ) को छोड, अभिध्या-रहित चित्त वाला हो विहरता है; चित्त को अभिध्या से शुद्ध करता है। (2) व्यापाद (= द्रोह)-दोष को छोड कर, व्यापाद-रहित चित्त-वाला हो, सारे प्राणियों का हितानुकम्पी हो विहरता है; व्यापाद के दोष से चित्त को शुद्ध करता है। (3) स्त्यान-मृद्ध (= शारीरिक मानसिक आलस्य) को छोड स्त्यान-मृद्ध-रहित हो, आलोक-संज्ञा वाला (= रोशन-ख्याल) हो, स्मृति और संप्रजन्य (= होश) से युक्त हो विहरता है ॰। (4) औद्धत्य-कौकृत्य (= उद्धतपने और हिचकिचाहट) को छोड, अनुद्धत भीतर से शान्त हो विहरता है ॰। (5) विचिकित्सा (= सन्देह) को छोड, विचिकित्सा-रहित हो, निस्संकोच भलाइयों में (लग्न) हो विहरता है; विचिकित्सा से चित्त को शुद्ध करता है।

“वह इन (अभिध्या आदि) पाँच नीवरणों को चित्त से हटा, उपक्लेशों (= चित्त-मलों) को जान, उनके दुर्बल करने के लिये, काम (= विषयों) से अलग हो, बुराइयों से अलग हो, विवेक से उत्पन्न एवं वितके-विचार-युक्त प्रीति-सुख-वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्षुओ! वह वितर्क और विचार के शान्त होने पर, भीतर की प्रसन्नता=चित्त की एकाग्रता को प्राप्त कर, वितर्क-विचार-रहित, समाधि से उत्पन्न प्रीति-सुखवाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्षुओ! वह प्रीति और विराग से उपेक्षा वाला हो, स्मृति और संप्रजन्य से युक्त हो, काया से सुख अनुभव करता विहरता है। जिस (से युक्त) को कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिमान् और सुख विहारी कहते है; ऐसे तृतीय ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्षुओ! वह सुख और दुःख के विनाश से, सोमनस्य (= चित्त-तुष्टि) और दौर्मनस्य (= चित्त की असंतुष्टि) के पूर्व ही अस्त हो जाने से, दुःख-सुख-रहित ओर उपेक्षक हो, स्मृति की शुद्धता से युक्त चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहरता है।

“वह चक्षु से रूप को देखकर, प्रिय रूप में राग-युक्त नहीं होता; अ-प्रिय रूप में द्वेष-युक्त नहीं होता; विशाल चित्त के साथ कायिक स्मृति को कायम रखकर विहरता है। (वह) उस चित्त की विमुक्ति (= मुक्ति) और प्रज्ञा की विमुक्ति को ठीक से जानता है; जिसमें कि उसकी सारी बुराइयाँ=अकुशल-धर्म निरूद्ध हो जाते हैं। वह इस प्रकार अनुरोध विरोध से रहित हो, सुखमय, दुःखमय, न-सुख-न-दुःख-मय—जिस किसी वेदना को अनुभव करता है;……उसका वह अभिनंदन नहीं करता, अभिवादन नहीं करता, (उसमें) अवगाहन कर नहीं स्थित होता। इस प्रकार अभिनंदन न करते, अभिवादन न करते, अवगाहन न करते, जो वेदना विषयक नन्दी (= तृष्णा) है, वह उसकी निरूद्ध (= नष्ट) हो जाती है। उस नन्दी के निरोध उपादान (= रागयुक्त ग्रहण) का निरोध होता है। उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जाति (= जन्म) का निरोध, जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक, रोने-काँदने, दुःख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी का निरोध होता हे। इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध (= दुःख-पुंज) का निरोध होता है। श्रोत्र से शब्द सुन कर ॰। घ्राण से गंध सूँघ कर ॰। जिह्वा से रस को चख कर ॰। काया से स्प्रष्टव्य (स्पर्श वस्तु) को छू कर ॰। मन से धर्म को जान कर प्रिय धर्मो में राग-युक्त नहीं होता, अ-प्रिय धर्मों में द्वेष-युक्त नहीं होता ॰। इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध का निरोध होता है।

“भिक्षुओ! मेरे संक्षेप से कहे इस तृष्णा-संक्षय-विमुक्ति (= तृष्णा के विनाश से होने वाली मुक्ति) को धारण करो; केवट्टपुत्त साति भिक्षु को तृष्णा के महाजाल=तृष्णा के महा-संघाट में फँसा (जानो)।”

भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।