मज्झिम निकाय
39. महा-अस्सपुर-सुत्तन्त
एक समय भगवान् अंग (देश) में अंगवालों के अश्वपुर नामक नगर में विहरते थे।
तब भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त!” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने यह कहा—
“भिक्षुओं! ‘श्रमण’, ‘श्रमण’ कह लोग तुम्हारा नाम धरते है। तुम भी ‘तुम कौन हो?’—यह पूछने पर ‘श्रमण (है)’—उत्तर देते हो। भिक्षुओ! तुम्हारी यह संज्ञा होते हुये, तुम्हारी वह प्रतिज्ञा होते हुये, तुम्हे सीख लेनी चाहिये—‘जो श्रमण बनाने वाले धर्म हैं, जो ब्राह्मण बनाने वाले धर्म हैं, उन्हें लेकर हम बतेंगे; इस प्रकार हमारी संज्ञा (= नाम) सच्ची होगी, हमारी प्रतिज्ञा यथार्थ होगी। और जिन (गृहस्थों) के (दिये) अन्न, वस्त्र, निवास, रोग में पथ्य-औषध हम उपभोग करते हैं, उनका वह हम पर किया उपकार भी महाफलदायक, =महाआनुशंस्य होगा। हमारी यह प्रब्रज्या (= संन्यास) भी अ-बंध्या=सफला=स-उदया होगी’।
“भिक्षुओ! कोन से धर्म श्रमण बनाने वाले हैं, ब्राह्मण बनाने वाले है?—हम लज्जा और संकोच वाले बनेंगे—यह भिक्षुओ! तुम्हे सीखना चाहिये। शायद भिक्षुओ! तुम्हे ऐसा हो—‘हम लज्जा-संकोच (= ही, अपत्रपा) वाले हैं; इतना बस है। श्रमण-पन (= श्रामण्य) का अर्थ हमें मिल गया। (इससे) आगे हमारे लिये कुछ करणीय नहीं है’—मत इतने से सन्तोष कर लेना।
“भिक्षुओ! तुम्हें कहता हूँ, तुम्हे समझाता हूँ; मत श्रमणपन की कामना (शेष) रखते, आगे करणीय बाकी रहने के कारण, श्रमणपन का अर्थ तुमसे निकल जाये। क्या है भिक्षुओ! आगे करणीय?—भिक्षुओ! तुम्हे ऐसा सीखना चाहिये—‘हमारा कायिक आचार परिशुद्ध होगा, उत्तान=खुला होगा, वह छिद्र (= दोष) युक्त और ढँका न होगा। उस कायिक आचार के शुद्ध होने से न हम अपने लिये अभिमान करेंगे, न दूसरे को नीच कहेंगे’। शायद भिक्षुओ! तुम्हें ऐस हो—‘हम लज्जा-संकोच वाले हैं, हमारा कायिक आचार परिशुद्ध है। इतना काफी है ॰’—मत इतने से सन्तोष कर लेना।
“भिक्षुओ! तुम्हे कहता हूँ, तुम्हे समझाता हूँ ॰। क्या है भिक्षुओ! आगे करणीय?—भिक्षुओं! तुम्हें ऐसा सीखना चाहिये—‘हमारा वाचिक आचार परिशुद्ध होगा ॰। शायद भिक्षुओ! तुम्हे ऐसा हो—‘हम लज्जा-संकोच वाले है। हमारा कायिक आचार परिशुद्ध है।
हमारा वाचिक आचार परिशुद्ध है। इतना काफी है ॰’—मत इतने से सन्तोष कर लेना।
“भिक्षुओ! ॰—‘हमारा मानसिक आचार (= आचरण=कर्म) परिशुद्ध होगा ॰। ॰।
“॰—‘हमारी जीविका परिशुद्ध होगी ॰। ॰।
“॰—‘हम इन्द्रियों में संयम रक्खेंगे। चक्ष से रूप को देखकर निमित्तग्राही, अनुव्यंजनग्राही नहीं होंगे। चक्षु’—इन्द्रियों में संयम न करके विहरने वाले (व्यक्ति में) अभिध्या (= लोभ) दौर्मनस्य (= दुर्भनता), (आदि) बुराइयाँ=अकुशल-धर्म आपठते है। (इसलिये) उसके संयम मंे तत्पर होंगे। चक्षु-इन्द्रिय की रक्षा करेंगे=चक्षु इन्द्रिय का संवर करेंगंे। श्रोत्र से शब्द सुन ॰। घ्राण गंध सूँघ ॰। जिह्वा रस चख ॰। काया से स्प्रष्टव्य (वस्तु) को छू ॰ं मन से धर्म को जान ॰। शायद भिक्षुओ! तुम्हें ऐस हो ॰।
“॰—‘हम भोजन में मात्रा (= परिमाण) का ख्याल रक्खेंगे। ठीक से जानकर, न दब (= मस्ती) के लिये, न मद के लिये, न मंडन के लिए न विभूषण के लिये; (बल्कि) जितना इस काया की स्थिति के लिये, गुजारे के लिये, पीडा को रोकने के लिये, और ब्रह्मचर्य की सहायता के लिये (आवश्यक है, उतना ही) आहार ग्रहण करेंगे। इस प्रकार पुरानी वेदना (= भोग) को नाश करेंगे, और नई वेदना को नहीं उत्पन्न करेंगे; हमारी (शरीर-) यात्रा भी चलेगी, निर्दोषपन भी रहेगा, सुखपूर्वक विहार होवेगा ॰। शायद ॰। ॰।
“॰—‘जागरण में तत्पर रहेंगे। दिन में टहलने, बैठने, या आचरणीय धर्मो द्वारा चित्त को शोधित करेंगे। रात के प्रथम याम में टहलने, बैठने, या (अन्य) आचरणीय धर्मो के द्वारा चित्त को शोभित करेंगे। रात के मध्यम (बिचले) याम में पैर पर पैर रखकर, स्मृति-संप्रजन्य के साथ उत्थान का ख्याल मन में रख दाहिनी कर्वट सिह-शय्या करके (सोयेंगे)। रात के अन्तिम याम में उठकर टहलने, बैठने या (अन्य) आचरणीय धर्मो से चित्त को शुद्ध करेंगे ॰। शायद ॰।
“॰—‘स्मृति और संप्रजन्य से युक्त रहेंगे। आने जाने में संप्रजन्ययुक्त, संप्रजानकारी (= होश कर करने वाला) ॰ बोलने-चुप रहने में संप्रजानकारी होगे ॰। शायद ॰।
“॰—‘यहाँ भिक्षुओ! भिक्षु एकान्त में—अरण्य ॰ चित्त को विचिकित्सा (= संदेह) से शुद्ध करता है।
“जैसे भिक्षुओ! (कोई) पुरूष ऋण लेकर कर्मान्त (= खेती) में लगावे। उसका कर्मान्त ठीक उतरे। सो वह अपने पुराने ऋण के धन को दे डाले; और दारा (= भार्या) के भरण-पोषण के लिये भी (उसके पास कुछ) बच रहे। तब उसको ऐसा हो—‘मैंने पहिले ऋण लेकर कर्मान्त में लगाया। मेरा कर्मान्त ठीक उतरा। सो मैंने अपनु पुराने ऋण के धन को दे डाला; और दारा के भरण-पोषण के लिये भी बच रहा है’। सो उसके कारण उसे प्रसन्नता हो, सन्तोष हो।
“जैसे भिक्षुओ! (केाई) पुरूष भारी बीमारी से पीडित हो, रोगी हो। उसे भोजन (= भक्त) अच्छा न लगता हो, और न उसके शरीर में बल की मात्रा हो। वह दूसरे समय उस बीमारी से मुक्त हो जाये, उसे भोजन भी अच्छा लगने लगे, तथा उसके शरीर में बल की मात्रा भी आ जाये। तब उसको ऐसा हो—‘मैं पहिले भारी बीमारी से पीडित था, रोगी था ॰। सो मैं उस बीमारी से मुक्त हो गया हूँ, मुझे भोजन भी अच्छा लगता है, और मेरे शरीर में बल की मात्रा भी आ गई है’। सो उसके कारण उसे प्रसन्नता हो, सन्तोष हो।
“जैसे भिक्षुओ! (कोई) पुरूष बन्धनागार में बँधा हो। वह दूसरे समय सकुशल बिना हानि के उस बंधन से मुक्त होवे; और उसके भोगों (= धन) की कुछ हानि न हो। तब उसको ऐसा हो—‘मैं पहिले बंधनागार में बँधा था ॰। ॰।
“॰ जैसे भिक्षुओ! (कोई) पुरूष अ-स्वाधीन, पराधीन जहाँ चाहे तहाँ (न जा सकने वाला) दास हो। वह दूसरे समय उस दासता से मुक्त हो, स्वाधीन, अ-पराधीन, भोगयोग्य जहाँ चाहे तहाँ जाने वाला हो। उसको ऐसा हो—॰। ॰।
“जैसे भिक्षुओ! (कोई) धनवान् भोगवान् पुरूष कान्तार (= रेगिस्तान) के रास्ते में जा रहा हो। सो दूसरे समय सकुशल, बिना हानि के उस कान्तार को पार हो आये, और उसके भोगों (= धन) की भी कोई हानि न होवे। उसको ऐसा हो—॰। ॰।
“ऐसे ही भिक्षुओ! भिक्षु ऋण के समान, रोग के समान, बंधनागार के समान, दासता के समान (और) कान्तार-मार्ग के समान इन न-छूटे (अभिध्या आदि) पाँच नीवरणों को अपने में समझता है। इन पाँच नीवरणों के छूट जाने पर अपने भीतर वह ऋण-मुक्ति, रोग-मुक्ति, बंधन-मुक्ति, स्वतंत्रता, (और) क्षेमयुक्त भूमि जैसा समझता है।
“वह इन पाँच नीवरणों को चित्त से हटा, उपक्लेशों को जान, उनके दुर्खल करने के लिये काम (= विषयों) से अलग हो, बुराइयों से अलग हो ॰ प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। वह इसी काया को विवेक (= एकान्त-चिन्तन) से उत्पन्न प्रीति-सुख से परिपूर्ण, निमग्न=संमग्न, सिक्त करता है। उसकी सारी काया का कुछ भी (भाग) विवेकज प्रीति-सुख से वंचित नहीं रहता। जैसे भिक्षुओ! चतुर नहापक (= नहलाने वाला) या नहापक का शागिर्द काँसे की थाली में स्नान-चूर्ण डालकर पानी का छींटा दे दे मिलावे। सो वह स्नेह (= गीलापन, नमी) से अनुगत, स्नेह से परिगत भीतर बाहर स्नेह से तर, न-पिघलने-वाली स्नान-पिंडी हो जाये। ऐसे ही भिक्षुओ! भिक्षु इसी काया को विवेक से उत्पन्न ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु ॰ द्वितीय-ध्यान ॰। ॰ उसकी काया का कुछ भी (भाग) समाधिज प्रीतिसुख से अलिप्त नहीं रहता। जैसे भिक्षुओ! (कोई) उदक-हृद (= जलाशय) (पाताल) फूटे जल वाला हो। उसमें न पूर्व दिशा से जल के आने का मार्ग हो, न पश्चिम दिशा से ॰, न उत्तर दिशा से ॰, न दक्षिण दिशा से जल के आने का मार्ग हो। देव (= वृष्टि) भी समय-समय पर (उसमें) अच्छी प्रकार धारा का प्रवेश न कराता हो। तो भी उसी उदक-हृद से शीतल जलधारा फूटकर उस उदक्हृद को शीतल जल से परिषिक्त, ससिक्त, परिपूर्ण=सम्पूर्ण करे; चारों ओर उस उदकहृद का कुछ भी (भाग) शीतल जल से अ-लिप्त न हो। ऐसे ही भिक्षुओ! ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु ॰ तृतीय ध्यान ॰। वह इसी काया को निष्प्रीतिक सुख से अभिष्यन्दित, परिष्यन्दित, परिपूर्ण, तर करता है। उसकी काया का कुछ भी (भाग) निष्प्रीतिक सुख से अलिप्त नहीं रहता। जैसे, भिक्षुओ! उत्पल-समूह, पद्म-समूह, या पुण्डरीक-समूह में, कोई कोई उत्पल, पद्म या पुण्डरीक उदक मे ंउत्पन्न उदक में संवर्द्धित उदक से ऊपर से न निकल उदक में निमग्न हुये ही पोषित हों। वह मूल से अग्र भाग तक शीतल जल से अभिषिक्त, परिषिक्त परपूर्ण, और तर हों; उनका कुछ भी (भाग) शीतल जल से अ-लिप्त न हो। ऐसे ही भिक्षुओ! ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु ॰ चतुर्थ-ध्यान ॰। वह इसी काया को परिशुद्ध, उज्वल चित्त से व्याप्त कर आसीन होता है। उसकी काया का कुछ भी भाग परिशुद्ध उज्वल चित्त से अ-व्याप्त नहीं होता। जैसे, भिक्षुओ! (कोई) पुरूष श्वेत वस्त्र से सिर तक ढाँक कर बैठा हो; उसकी सारी काया का कोई भी (भाग) श्वेत वस्त्र से बिना ढँका न हो। ऐसे ही भिक्षुओ! ॰।
“वह इस प्रकार चित्त के एकाग्र ॰ होने पर पूर्व जन्मों की स्मृति के ज्ञान के लिये चित्त को झुकाता है। फिर वह।—इस प्रकार आकार, उद्देश्य सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगता है।
“वह इस प्रकार चित्त के एकाग्र ॰ होने पर ॰। ॰ अ-मानपुर, विशुद्ध, दिव्य-चक्षु से ॰ प्राणियों को पहचानता है।
“वह इस प्रकार ॰ आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिये चित्त को झुकाता है। फिर वह—‘यह दुःख है’—इसे यथार्थ से जानता है ॰ ‘अब यहाँ (करने) के लिये कुछठ (शेष) नहीं है’—इसे जान लेता है।
“भिक्षुओ! यह (ऊपर वर्णित) भिक्षु श्रमण भी कहा जाता है, ब्राह्मण भी, स्नातक भी, वेदगू भी, श्रोत्रिय भी, आर्य भी, अर्हत् भी (कहा जाता है)।
“भिक्षुओ! कैसे भिक्षु श्रमण होता है?—इसके मलिन करने वाले, पुनर्जन्म देने वाले, मयप्रद, दुःख-विपाक वाले, भविष्य में जन्म-जरा-मरण में ढालने वाले, अकुशल-धर्म=बुराइयाँ शमन (= समन=श्रमण) हो गई हैं। इस प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु श्रमण (= समन) होता है।
“भिक्षुओ! कैसे भिक्षु ब्राह्मण होता हैत्र—इसकी ॰ बुराइयाँ यहा दी गई (= वाहित हो गई) हैं”। ॰।
“॰ स्नातक ॰?—इसकी ॰ बुराइयाँ धुल गई (= नहात) हैं। ॰।
“॰ वेदगू ॰?—इसकी ॰ बुराइयाँ विदित हैं। ॰।
“॰ श्रोत्रिय ॰?—इसकी ॰ बुराइयाँ निकल गई (= नि-स्सुत) हैं। ॰।
“॰ आर्य ॰?—इससे ॰ बुराइयाँ दूर (= आरक) होती हैं। ॰।
“॰ अर्हत् ॰?—इससे ॰ बुराइयाँ दूर (= आरक) होती है। ॰।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण को अभिनंदित किया।