मज्झिम निकाय
4. भयभेरव-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
तब जानुस्सोणि ब्राह्मण, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जा कर भगवान् से ..यथायोग्य (कुशल प्रश्न पुछ) एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर जानुस्सोणि ब्राह्मण ने भगवान् से यह कहा—
“हे गौतम! जो यह (सारे) कुल-पुत्र आप गौतम को (नेता) मान, श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रब्रजित (= सन्यासी) हुये है; आप गौतम उनके अग्रगामी हैं, ॰ बहु-उपकारी हैं, ॰ उपदेष्टा है; यह जनसमुदाय आप गौतम के देखे (मार्ग) का अनुगमन करता है।”
“ऐसा ही है, ब्राह्मण! ऐसा ही है, ब्राह्मण! जो यह कुल-पुत्र मुझे (नेता) मानकर ॰।”
“हे गौतम! कठिन है अरण्य वन-खंड, और सूनी कुटियाँ (= शयनासन); दुष्कर है एकान्त रमण (= प्रविवेक); समाधि न प्राप्त होने पर अभिरमण न करने वाले भिक्षु के मन को, अकेला पा (यह) वन मानो हर लेते हैं।”
“ऐसा ही है, ब्राह्मण! ऐसा ही है, ब्राह्मण! कठिन है अरण्य ॰। ब्राह्मण! सम्बोधि (= परमज्ञान) प्राप्त होने से पहिले, बुद्ध न होने के वक्त, जब मै बोधिसत्व (ही था), तो मुझे भी ऐसा होता था-‘कठिन है अरण्य ॰।
“तब, ब्राह्मण! मेरे (मन मे) ऐसा हुआ-जो कोई अशुद्ध कायिक कर्म से युक्त श्रमण (= संन्यासी) ब्राह्मण अरण्य, वनखण्ड, और सूनी कुटियों का सेवन करते है; अशुद्ध कायिक कर्म के दोष के कारण, वह आप श्रमण-ब्राह्मण बुरे भय-भेरव (= भय और भीषणता) का आह्वान करते हैं; (लेकिन) मै तो अशुद्ध कायिक कर्म से युक्त हो अरण्य ॰ सेवन नहीं कर रहा हूँ। मेरे कायिक कर्म (= कर्मान्त) परिशुद्ध हैं, जो परिशुद्ध कायिक कर्म वाले आर्य अरण्य ॰ सेवन करते हैं, मैं उनमे से एक हूँ। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध कायिक कर्म के भाव को देखकर, मुझे अरण्य में विहार करने का और भी अधिक पल्लोस (= उत्साह) हुआ।
“तब, ब्राह्मण! मेरे (मन मे) ऐसा हुआ-जो कोई अशुद्ध वाचिक कर्म वाले श्रमण-ब्राह्मण अरण्य मे ॰। ॰ अशुद्ध मानसिक कर्म वाले श्रमण ब्राह्मण ॰। ॰ अशुद्ध आजीविका वाले श्रमण-ब्राह्मण अरण्य मे ॰। (लेकिन) मै तो अशुद्ध आजीविका से युक्त हो अरण्य ॰ सेवन नहीं कर रहा हूँ ॰।॰। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध आजीविका (= रोज़ी) की विद्यमानता को देखकर, मुझे अरण्य में विहार करने का और भी अधिक उत्साह हुआ।
“तब, ब्राह्मण! मेरे (मन में) ऐसा हुआ-जो श्रमण ब्राह्मण लोभी काम (-वासनाओं) में तीव्र राग रखने वाले (हो) अरण्य मे ॰। (लेकिन) मैं तो लोभी और कामों में तीव्र राग रखने वाला न हो अरण्य में ॰। ॰। ब्राह्मण! अपने भीतर इस निर्लोभिता (= अन्-अभिध्यालुता) को देख॰।
“तब ब्राह्मण! ॰ हिंसायुक्त चित्तवाले और मन में दुष्ट संकल्प रखने वाले ॰। ॰।
“तब ब्राह्मण! ॰ स्त्यान (= शारीरिक आलस्य)—मृद्ध (= मानसिक आलस्य) से प्रेरित हो ॰। ॰।
“तब ब्राह्मण! ॰ उद्धत और अशान्त चित्तवाले हो ॰। ॰।
“॰ लोभी, कांक्षावाले और संशयालु (= विचिकित्सी) हो ॰। ॰। ॰।
“॰ अपना उत्कर्ष (चाहने) वाले तथा दूसरे को निन्दने वाले हो ॰। ॰।
“॰ जड और भीरू प्रकृति वाले हो ॰। ॰।
“॰ लाभ, सत्कार और प्रशंसा की चाहना करते ॰। ॰।
“॰ आलसी उद्योग हीन हो ॰। ॰।
“॰ नष्ट स्मृति और सुझ (= सम्पजान) से वचित हो ॰। ॰।
“॰ व्यग्र (-चित्त) और विभ्रान्त-चित्त हो ॰। ॰।
“॰ दुष्प्रज्ञ भेड-गूंगे (जैसे) हो ॰। ॰।
“ब्राह्मण! तब मेरे (मन मे) ऐसा हुआ-जो वह सन्मानित (= अभिज्ञात) = अभिलक्षित रातियाँ हैं, (जैसे कि) पक्ष की चतुर्दशी (= अमावास्या), पूर्णमासी (= पंचदशी) और अष्टमी की रातें; वैसी रातो मे, जो वह भयप्रद रोमांचकारक आराम-चैत्य1, वन-चैत्य, वृक्ष-चैत्य हैं, वैसे शयनासनो (= वासस्थानों) मे? विहार करूँ, शायद तब (कुछ) भय-भेरव देखूँ। तब, ब्राह्मण! दूसरे समय ॰ सम्मानित ॰ रातों मे॰ वैसे शयनासनों में विहार करने लगा। तब, ब्राह्मण! वैसे विहरते (समय) मेरे पास (जब कोई) मृग आता था, या मोर काठ गिरा देता था, या हवा पल्लवों को फरफराती; तो मेरे (मन में) होता—जरूर, यह वही भय-भेरव आ रहा है। तब, ब्राह्मण! मेरे (मन में) यह होता—क्यों मैं दूसरे में भय की आकांक्षा से विहर रहा हूँ? क्यों न मै जिस जिस अवस्था में रहते, जैसे मेरे पास वह भय-भेरव आता है, वैसी वैसी अवस्था में रहते उस भय-भेरव को हटाऊँ। जब, ब्राह्मण! टहलते हुये मेरे पास वह भय-भेरव आता, तब मैं ब्राह्मण! न खडा हो जाता, न बैठता, न लेटता; टहलते हुए ही उस भय-भेरव को हटाता। जब ॰ खड़े हुये रहते मेरे पास वह भय-भेरव आता ॰। ॰ बैठे रहते ॰। ॰। ॰ लेटे रहते ॰। ॰।
“ब्राह्मण! कोई कोई ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं, (जो) रात होने पर भी (उसे) दिन अनुभव करते है, दिन होने पर भी (उसे) रात अनुभव करते है। इसे मैं उन श्रमण-ब्राह्मणों के लिये संमोह (भ्लचदवजप्रंजपवद) का विहार कहता हूँ। मैं तो ब्राह्मण! रात होने पर (उसे) रात ही अनुभव करता हूँ, और दिन होने पर दिन ॰। जिसके बारें में ब्राह्मण! यथार्थ में कहते वक्त कहना चाहिये—लोक में बहुत जनो के हितार्थ, बहुत जनों के सुखार्थ, लोकानुकम्पार्थ, देव-मनुष्यो के अर्थ-हित-सुख के लिये सम्मोह-रहित पुरूष उत्पन्न हुआ है। सो वह यथार्थ में कहते वक्त मेरे लिये ही कहना होगा—लोक में ॰।
“ब्राह्मण! मैने न दबने वाला वीर्य (= उद्योग) आरम्भ किया था, (उस समय) मेरी अभुषित स्मृति जागृत थी, (मेरा) शान्त काय अव्यग्र (= असारद्ध) था, समाधिनिष्ठचित्त एकाग्र था। (1) सो मैं ब्राह्मण! कामों से रहित बुरी बातों (= अकुशलधर्मो) से रहित, विवेक से उत्पन्न स-वितर्क और स-विचार प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। (2) (फिर) वितर्क और विचार के शान्त होने पर भीतरी शांत तथा चित्त की एकाग्रता वाले वितर्करहित विचाररहित प्रीति-सुखवाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। (3) (फिर) प्रीति से विरक्त हो, उपेक्षक बन स्मृति-संप्रजन्य (= होश और अनुभव) से युक्त हो शरीर से सुख अनुभव करते, जिसे कि आर्य उपेक्षक, स्मृतिवान् सुख-विहारी कहते हैं; उस तृतीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। (4) (फिर) सुख और दुःख के परित्याग से सौमनस्य (= चित्तोल्लास) और दौर्मनस्य (= चित्तसंताप) के पहिले ही अस्त हो जाने से, सुख-दुःख-रहित—जिसमे उपेक्षा से स्मृति की शुद्धि हो जाती है, उस चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा।
(1) “सो इस प्रकार चित्त के एकाग्र, परिशुद्ध=पर्यवदात, अंगण-रहित=उपक्लेश (= मल)-रहित, मृदुभूत=कार्योपयोगी, स्थिर=अचलता प्राप्त (और) समाधियुक्त हो जाने पर, पूर्व जन्मों की स्मृति के ज्ञान (= पूर्वनिवासानुस्मृति) के लिये मैने चित्त को झुकाया। फिर मै अनेक पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा, जैसे कि एक जन्म को भी, दो जन्म को भी, तीन.., चार.., पाँच.., दस.., बीस.., तीस.., चालीस.., पचास.., सौ.., हजार.., सौ हजार….. अनेक संवर्त (= प्रलय) कल्पों को भी, अनेक विवर्त (= सृष्टि-) कल्पों को भी, अनेक संवर्त विवत्र्त-कल्पों को (भी) स्मरण करने लगा—(तब मै) अमुक स्थान पर इस नाम ..गौत्र ..वर्ण ..आहारवाला अमुक प्रकार के सुख दुःख को अनुभव करता इतनी आयु तक रहा। वहाँ से च्युत हो अमुक स्थान मे उत्पन्न हुआ। वहाँ भी इस नाम ..गौत्र ॰। फिर वहाँ से च्युत हो (अब) यहाँ उत्पन्न हुआ—इस प्रकार आकार और उद्देश्य के सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा। “ब्राह्मण! इस प्रकार प्रमाद रहित, तत्पर (तथा) आत्मसंयमयुक्त विहरते हुये, रात के पहिले याम में मुझे यह पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ।
(2) “सो इस प्रकार चित्त के समाहित (= एकाग्र), परिशुद्ध=पर्यवदात o होने पर प्राणियो के च्युति (= मृत्यु) और उत्पत्ति के ज्ञान के लिये चित्त को झुकाया। सो मैं अ-मानुष, विशुद्ध, दिव्य चक्षु से अच्छे बुरे, सुवर्ण-दुर्वर्ण, सुगतिवाले, दुर्गतिवाले प्राणियो को मरते उत्पन्न होते देखने लगा, कर्मानुसार गति को प्राप्त होते प्राणियो को पहिचानने लगा—यह आप प्राणधारी (लोग) कायिक दुराचार से युक्त, वाचिका दुराचार से युक्त, मानसिक दुराचार से युक्त, आर्यो के निन्दक, मिथ्यामत-रखने वाले, (= मिथ्या-दृष्टि), मिथ्या-दृष्टि (से प्रे्ररित) कर्म को करने वाले थे। वह काया छोड़ने पर मरने के बाद अपाय=दुर्गति, पतन, नर्क (= निरय) मे प्राप्त हुये हैं। यह आप प्राणधारी (लोग) कायिक, वाचिक, मानसिक सदाचार (= सुचरित) से युक्त, आर्यो के अ-निन्दक सम्यग्-दृष्टिक (= सच्चे सिद्धान्त वाले), सम्यग्-दृष्टि-संबंधी कर्म को करने वाले (थे); वह काया छोडने पर मरने के बाद सुगति, स्वर्गलोक को प्राप्त हुये हैं। इस प्रकार अ-मानुष, अशुद्ध दिव्य चक्षु से ॰। “ब्राह्मण! ॰ रात के मध्यम याम में यह मुझे दूसरी विद्या प्राप्त हुई ॰।
(3) “॰ ॰ आस्रवो के क्षय के ज्ञान के लिये चित्त को झुकाया। फिर मैंने—’यह दुःख है’ इसे यथार्थ से जान लिया, ‘यह दुःख-समुदय (= दुःख का कारण) है’॰, ‘यह दुःख-निरोध है’ ॰, ‘यह दुःख-निरोध-गामिनी प्रतिपद् है’ इसे यथार्थ से जान लिया। ‘यह आस्रव है’ ॰, ‘यह आस्रव-समुदय है’ ॰, ‘यह आस्रव-निरोध है’ ॰, ‘यह आस्रव-निरोध-गामिनी प्रतिपद् है’ ॰। सो इस प्रकार देखते, इस प्रकार जानते मेरा चित्त काम (= काम-वासना रूपी)-आस्रवो से मुक्त हो गया, ॰ भव (= जन्म ले लेने के लोभ रूपी) आस्रवों से ॰, अ-विद्या-आस्रवों से मुक्त हो गया। छुट (= विमुक्त हो) जाने पर ‘छूट गया’ ऐसा ज्ञान हुआ। ‘जन्म खतम हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, करना था सो कर लिया, अब यहाँ करने के लिये कुछ (शेष) नहीं है’—इसे जान लिया। “ब्राह्मण! ॰ रात के अन्तिम याम मे यह मुझे तीसरी विद्या प्राप्त हुई ॰।
“ब्राह्मण! शायद तेरे (मन मे) ऐसा हो—’आत भी श्रमण गौतम अ-वीतराग, अ-वीतद्वेष, अ-वीतमोह है, इसीलिये अरण्य, वनखंड तथा सूनी कुटिया का सेवन करता है’। ब्राह्मण! इसे इस प्रकार नहीं देखना चाहिये। ब्राह्मण! दो वातों के लिये मै अरण्य ॰ सेवन करता हँू—(1) इसी शरीर में सुख विहार के ख्याल से; और (2) आने वाली जनता पर अनुकम्पा के लिये (जिसमे) मेरा अनुगमन कर वह भी सुफल-भागी हो।”
“आप गौतम द्वारा आने वाली जनता अनुकम्पित सी है, जो कि आप गौतम सम्यक् संबुद्धने अनुकपा की। आश्चर्य! भो गौतम! आश्चर्य! भो गौतम! जैसे औधे को सीधा कर दे, ढँके को उघाड दे, भूले को रास्ता बतला दे, अंधकार मे तेल का प्रदीप रख दे—जिसमे कि आँख वाले रूप् को देखें; ऐसे ही आप गौतम ने अनेक प्रकार (= पर्याय) से धर्म को प्रकाशित किया; यह मैं भगवान् गौतम की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघ की भी। आप गौतम आज से मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।”