मज्झिम निकाय
40. चूल-अस्सपुर-सुत्तन्त
एक समय भगवान् अंग (देश) में अंगो के कस्बे अश्वपुर में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त!” कह उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया। भगवान् ने कहा—
“भिक्षुओ! ‘श्रमण’ ‘श्रमण’ लोग नाम धरते है। तुम लोग भी, ‘तुम कौन हो’—पूछने पर ‘(हम) श्रमण हैं’ उत्तर देते हो। ऐसी संज्ञा ऐसी प्रतिज्ञावाले तुम लोगों को वह सीखना चाहिये—‘जो वह श्रमण को सच करने वाला मार्ग है, हम उस मार्ग पर आरूढ़ होंगे, इस प्रकार यह हमारी संज्ञा सच होगी, हमारी प्रतिज्ञा (= दावा) यथार्थ होगी। (और) जिनके (दिये) चीवर (= वस्त्र), पिंड-वात (= भिक्षा), शयनासन (= निवास), ग्लान-प्रत्यय-भैषज्य (= रोगी के औषधि-पथ्य) सामग्री का हम उपभोग करते हैं। उनके (किये) हमारे प्रति वह (दान-) कार्य भी महाफलवाले महामाहात्म्य वाले होंगे; और हमारी भी यह प्रब्रज्या निर्मल सफल=सउदय होगी।’
“भिक्षुओं! भिक्षु श्रमा को सच करने वाले मार्ग (= श्रमण-सामीची प्रतिपदा) पर कैसे आरूढ़ नहीं होता?—भिक्षुओ! जिस कसी अभिध्यालु (= लोभी) भिक्षु की अभिध्या नष्ट नहीं होती, द्रोह-सहित चित्त वाले (= व्यापन्नचित्त) का ध्यापाद (= द्रोह) नष्ट नहीं हुआ रहता, क्रोधी का क्रोध ॰, पाखंडी (= उपनाही) का पाखंड ॰, मर्षी का कलंक (= आमर्ष=अमरख) ॰, पलासी (= प्रदाशी=निष्ठुर) का पलास ॰, ईष्र्यालु की ईष्र्या ॰ मत्सरी का मत्सर (= कृपणता) ॰, शठ की शठता ॰, मायावी (= वंचक) की माया ॰, पापेच्छु (= बद-नीयत) की पापेच्छा ॰, मिथ्या-दृष्टि (= झुठे सिद्धान्त वाले) की मिथ्या दृष्टि (= झूठी धारणा) नष्ट नहीं हुई रहती। वह इन श्रमण—‘मलों=श्रमण-दोषों=श्रमण-कसटों, अपाय को ले जाने वाले, दुर्गति को अनुभव कराने वाले कारणों के अ-विनाश से ‘श्रमण-सामीचि-प्रतिपद् पर आरूढ़ नहीं हुआ, ‘ (ऐसा) मैं कहता हूँ। जैसे भिक्षुओ! मटज नामक…तेज, दुधारा आयुध (= हथियार) संघाटी (= साधु के वस्त्रों) से ढँका लिपटा हो; उसके ही समान भिक्षुओ! मैं इस भिक्षु की प्रब्रज्या कहता हूँ।
“भिक्षुओं! मैं संघाटी (= भिक्षु’—वस्त्र) वाले के संघाटी-धारण मात्र से, श्रमणता (= श्रामण्य) नहीं कहता। अचेलक (= वस्त्र-रहित) के नंगे रहने मात्र से श्रामण्य (= साधुपन) नहीं कहता। भिक्षुओ! रजोजल्लिक (= कीचड-वासी साधु) की रजोजल्लिकता मात्र से श्रामण्य नहीं कहता।…उदकावरोहक (= जल-वासी) के जलवास मात्र से ॰। ॰ वृक्षमूलिक (= सदा वृक्ष के नीचे रहनेवाले) के वृक्ष के नीचे वास मात्र से ॰। ॰ अध्यवकाशिक (= चैडे में रहने वाले) ॰। ॰ उब्मट्ठक (= सदा खडे रहने वाले) ॰। ॰ पर्याय-भक्तिक (= बीच बीच में निराहार रह, भोजन करने वाले) ॰। ॰ मंत्र-अध्यायक (= वेद-पाठी) के मंत्र-अध्ययन मात्र से मैं श्रामण्य नहीं कहता। ॰ जटिल्लक के जटा-धारण मात्र से ॰।
“भिक्षुओ! यदि संघाटिका के संघाटी-धारण मात्र से, अभिध्यालुका लोभ हट जाता, ॰ व्यापाद हट जाता, ॰ क्रोध ॰, व उपनाह ॰, ॰ मर्ष ॰, ॰ पलास ॰, ॰ ईष्र्या ॰, ॰ मात्सर्य ॰, ॰ शठता ॰, ॰ माया ॰, ॰ पापेच्छा ॰, मिथ्या-दृष्टि की मिथ्या-दृष्टि हट जाती; तो उ सको मित्र-अमात्य जाति-बन्धु पैदा होते ही, संघाटिक बना देते, संघाटिकता का ही उपदेश करते—‘आ भद्रमुख! तू संघाटिक हो जा। संघाटिक होने पर संघाटी-धारण मात्र से, तुझ अभिध्यालुका लोभ नष्ट हो जायेगा। ॰। मिथ्या-दृष्टि की मिथ्या-दृष्टि नष्ट हो जायेगी।’ क्योंकि भिक्षुओ! मैं किसी किसी संघाटिक को भी अभिध्यालु, व्यापन्न-चित्त, क्रोधी, उपनाही, मर्षी, पलासी, ईष्र्यालु, भत्सरी, शठ, मायावी, पापेच्छु, मिथ्या-दृष्टि देखता हूँ, इसलिये संघाटिक के संघाटी-धारण मात्र से श्रामण्य नहीं कहता।
“भिक्षुओ! यदि अचेलक की अचेलकता-मात्र से ॰। ॰ रजोजल्लिक की रजोजल्लिकता मात्र से ॰। ॰ उदकावरोक के उदकावरोहण मात्र से ॰। ॰ वृक्ष-मूलिक की वृक्ष-मूलिकता मात्र से ॰। ॰ अध्यवकाशिक ॰। ॰ उब्मट्ठिक ॰। ॰ पर्याय-भक्तिक ॰। ॰ मंत्र-अध्यापक ॰। ॰ जटिल के जटा-धारण मात्र से ॰ अभिध्या ॰—॰ मिथ्या-दृष्टि नष्ट होती ॰।
“भिक्षुओ! भिक्षु श्रमण-सामीची-प्रतिपद् (= सच्चा श्रमण बनाने वाले मार्ग) पर कैसे मार्गारूढ होता है?—भिक्षुओ? जिस किसी अभिध्यालु भिक्षु की अभिध्या (= लोभ) नष्ट होती है, ॰—॰ मिथ्यादृष्टि नष्ट होती है; (वह) इन श्रमण-मलों ॰ के विनाश से श्रमण-सामीची-प्रतिपद् पर मार्गारूढ़ कहता हूँ। (फिर) वह इन सभी पापक अ-कुशल धर्मों से, अपने को विशुद्ध देखता है, अपने को विमुक्त देखता है। (फिर) इन सभी पापक ॰ धर्मा से अपने को विशुद्ध ॰ विमुक्त देखने वाले उस (पुरूष) को, प्रमोद उत्पन्न होता है। प्रमुदित को प्रीति उत्पन्न होती हे। प्रतिमान् की काया स्थिर होती है। स्थिर-शरीर सुख अनुभव करता है। सुखित का चित्त समाहित (= एकाग्र) होता हे। वह (1) मैत्रीयुक्त चित्त से एकदिशा को प्लावितकर विहरता है, और दूसरी दिशा ॰, और तीसरी ॰, और चैथी ॰ इसी प्रकार ऊपर, नीचे, तीर्छे, सबकी इच्छा से सबके अर्थ, सभी लोक को विपुल, महान् अ-प्रमाण, अ-वैर, द्वेष-रहित मैत्री-पूर्ण चित्त से प्लावित कर विहरता है। (2) करूणा-युक्त चित्त से ॰। (3) मुदिता-युक्त चित्त से ॰। (4) उपेक्षा-युक्त चित्त से ॰।
“जैसे भिक्षुओ! स्वच्छ, मधुर, शीतल, जलवाली रमणीय सुन्दर घाटों वाली पुष्करणीय हो। यदि पूर्व दिशा से भी धाम में तपा (= धर्म-अभितप्त)=धर्म-परेत, थका, तृषित=पिपासित पुरूष आवे; वह उस पुष्करिणी में उतर कर उदक-पिपासा को दूर करे, घाम के ताप को दूर करे। पश्चिम-दिशा से भी ॰। उत्तर-दिशा से भी ॰। दक्षिण-दिशा से भी ॰। जहाँ कहीं से भी ॰। ऐसे ही भिक्षुओ! यदि क्षत्रिय-कुल से घर से बेघर प्रब्रजित होवे, और वह तथागत के उपदेश किये धर्म को प्राप्तकर, इस प्रकार मैत्री, करूणा, मुदिता, उपेक्षा की भावना करें, (तो वह) आध्यात्मिक शांति को प्राप्त करता है। आध्यात्मिक शान्ति (= उपशम) से ही ‘श्रमण-सावीची-प्रतिपद् पर आरूढ़ है’ कहता हूँ। ॰ यदि ब्राह्मण-कुल से ॰। ॰ यदि वैश्यकुल से ॰। ॰ जिस किसी कुल से भी घर से बेघर प्रब्रजित ॰।
“क्षत्रिय-कुल से भी घर से बेघर प्रब्रजित हो। और वह आस्रवों (= चित्त-दोषों) के क्षय से, आस्रव-रहित चित्त-विमुक्ति प्रज्ञा-विमुक्ति को, इसी जन्म में स्वयं जान कर=साक्षात् कर=प्राप्त कर विहरता है। आस्रवों के क्षय से श्रमण होता है। ब्राह्मण-कुल से भी ॰। वैश्य-कुल से भी ॰। शूद्र-कुल से भी ॰। जिस किसी कुल से भी ॰।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण को अनुमोदित किया।
(4—इति महायमक-वग्ग 1।4)