मज्झिम निकाय
5. अनङ्गण-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन मे विहार करते थे।
वहाँ आयुष्मान् सारिपुत्र ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“आवुसो! भिक्षुओ!”
“आवुस”—(कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र को उत्तर दिया।
आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा—
“आवुसो! लोक मे चार (प्रकार के) पुग्दल (= व्यक्ति) विद्यमान है। कौन से चार?—(1) आवुसो! एक व्यक्ति अगण-(= चित्तमल)-सहित होता हुआ भी, मेरे भीतर अंगण है, इसे ठीक से नहीं जानता। (2) यहाँ कोई व्यक्ति अंगण-सहित होता हुआ, मेरे भीतर अंगण है, इसे ठीक से जानता है। (3) यहाँ कोई व्यक्ति अंगण-रहित होता हुआ, मेरे भीतर अंगण नहीं है, इसे ठीक से नहीं जानता है। (4) यहाँ कोई व्यक्ति अंगण-रहित होता हुआ, मेरे भीतर अंगण नहीं है, इसे ठीक से जानता है।
“आवुसो! इनमे से जो वह व्यक्ति अंगण सहित होता हुआ भी, मेरे भीतर अंगण है—इसे ठीक से नहीं जानता, वह इन अंगण सहित दोनों व्यक्तियों में हीन (= नीच) पुरूष कहा जाता है। और आवुसो! उनमे से जो वह व्यक्ति अंगण-सहित होता हुआ, मेरे भीतर अंगण है-इसे ठीक से जानता है, वह इन अंगण सहित दोनों व्यक्तियों मे श्रेष्ठ पुरूष कहा जाता है। आवुसो! वहाँ जो वह व्यक्ति अंगण रहित होता हुआ, मेरे भीतर अंगण नहीं है—इसे ठीक से नहीं जानता, वह इन अंगणरहित दोनों व्यक्तियों मे हीन (= नीच)-पुरूष कहा जाता है। और आवुसो! ॰ अंगण-रहित होता हुआ, ॰ इसे ठीक से जानता है, वह ॰ श्रेष्ठ पुरूष कहा जाता है।”
ऐसा कहने पर आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने आयुष्मान् सारिपुत्र से यह कहा—“आवुस सारिपुत्र! क्या हेतु है, क्या कारण है, जो अंगण-सहित होते हुये इन दोनों व्यक्तियों मे एक कहा जाता है हीन पुरूष, और एक कहा जाता है श्रेष्ठ पुरूष। और आवुस सारिपुत्र! ॰ क्या कारण है, जो अंगण-रहित होते हुये उन दोनों व्यक्तियों मे से एक कहा जाता है हीन पुरूष, और एक कहा जाता है श्रेष्ठ पुरूष?
“आवुस! वहाँ जो वह व्यक्ति अंगणसहित होता भी ॰ ठीक से नहीं जानता; उससे आशा होगी, कि वह उस अंगण (= चित्त-मल) के विनाश के लिये न प्रयत्न करेगा, न उद्योग करेगा, न वीर्यारम्भ (= प्रयत्न) करेगा, वह राम-युक्त, द्वेप-युक्त, मोह-युक्त, अंगण-युक्त, भलिन-चित्त ही मृत्यु को प्राप्त करेगा। जैसे आवुस! कांसे की थाली (= कंसपाती) रज और मल से लिप्त (ही) दूकान से या कसेरे के घर से लाई जाये, (और) मालिक न उसका उपयोग करें, न पर्यवदापन (= साफ) करें, (तथा) कचरे में उसे डाल दें। इस प्रकार आवुस! वह कांसे की थाली, कालान्तर मे और भी, अधिक कलूटी, मलगृहीत हो जायेगी (न)?”
“हाँ, आवुस!”
“ऐसे ही आवुस! जो वह व्यक्ति अंगण-सहित होता भी ॰ ठीक से नहीं जानता, उससे आशा होगी॰ मलिन चित्त ही मृृत्यु को प्राप्त करेगा। आवुस! उनमें जो वह व्यक्ति अंगण-सहित होता ॰ ठीक से जानता है, उससे आशा होगी, कि वह उस अंगण के विनाश के लिये प्रयत्न ॰, उद्योग ॰, वीर्यारम्भ करेगा; वह राम-रहित, द्वेप-रहित, मोह-रहित, अंगण-रहित निर्मल-चित्त हो मृत्यु को प्राप्त होगा। जैसे आवुस! रज और मल से लिप्त कांसे की थाली दूकान से या कसेरे के घर से लाई जाये, और मालिक उसका उपयोग करे, साफ करें, और कचरे में न डालें। इस प्रकार आवुस! वह कांसे की थाली कालान्तर में अधिक परिशुद्ध (तथा अधिक) निर्मल हो जायेगी (न)?”
“हाँ, आवुस!”
“ऐसे ही आवुस! जो वह व्यक्ति अंगण-सहित होते ॰ हुये ठीक से जानता है, उससे आशा होगी॰ निर्मल चित्त हो मृृत्यु को प्राप्त करेगा। आवुस! वहाँ जो वह व्यक्ति अंगण-रहित होता हुआ, मेरे भीतर अंगण नहीं है—इसे ठीक से नहीं जानता, उससे उम्मीद होगी, (कि) वह शुभ-निमित्त (= वस्तु के एक तरफा सौन्दर्य की ओर अधिक झुकाव) को मन मे करेगा, शुभ-निमित्त के मन मे करने से उसके चित्त में राग चिपट जायेगा, (इस प्रकार) वह राग-द्वेष-मोह-सहित, अंगण (= राग, द्वेष, मोह यह तीन चित्त मल)-सहित, (और) मलिन-चित्त (हो) मृत्यु को प्राप्त होगा। जैसे आवुस! (कोई) परिशुद्ध और निर्मल कांसे की थाली दूकान से लाई जाये, उसे मालिक न उपभोग करें, न साफ रक्खें (बल्कि) कचरे मे डाल दे। इस प्रकार आवुस! वह कांसे की थाली कालान्तर मे और भी अधिक कलूटी, मल-गृहीत हो जायेगी (न)?”
“हाँ, आवुस!”
“ऐसे ही आवुस! ॰ ॰। आवुस! उनमें जो वह व्यक्ति अंगण-रहित होता ठीक से जानता है, उससे आशा होगी, (कि) वह शुभ-निमित्त को मन मे करेगा, शुभ-निमित्त के मन मे न करने से, राग उसके चित्त में न चिपटेगा, (इस प्रकार) वह राग-द्वेष-मोह-रहित, अंगणरहित (एव) निर्मल-चित्त (रह) मृत्यु को प्राप्त होगा। जैसे आवुस! (कोई) परिशुद्ध और निर्मल कांसे की थाली दूकान से ॰ लाई जाये, (और) मालिक उसका उपयोग करें, साफ रखें (और उसे) कचरे मे न डाले। इस प्रकार आवुस! वह कंस-पाती कालान्तर मे और भी अधिक परिशुद्ध और निर्मल हो जायेगी (न)?”
“हाँ, आवुस!”
“ऐसे ही आवुस! ॰ ॰ । आवुस मोग्गलान! यह हेतु है, यह कारण है, जो अंगण-सहित होते हुये उन दोनो व्यक्तियों मे ॰1। यह हेतु है ॰ जो अंगणरहित होते हुये भी उन दोनों व्यक्तियो में ॰1।”
“आवुस! ‘अंगण, अंगण’ कहा जाता है। आवुस! यह अंगण किस (चीज) का नाम है?”
“आवुस! पाप कों (= खराबियों), बुराइयों (= अकुशलों) और इच्छा की परतंत्रताओं का नाम (ही) यह अंगण है, (क). हो सकता है, आवुस! कि यहाँ एक भिक्षु के (मन में) इच्छा उत्पन्न हो—’मैं, अपराध (= आपत्ति) करूँ, (लेकिन) मेरे बारे मे भिक्षु न जानें कि इसने आपत्ति की है।’ हो सकता है, आवुस! कि उस भिक्षु के बारे में (दूसरे) भिक्षु जान जाये—’इसने आपत्ति की है।’ फिर वह (भिक्षु)—’(सारे) भिक्षु मेरे बारे में जानते हैं, कि मैंने अपराध किया है’—यह (सोच), कुपित होवे, अप्रतीत (= नाराज) होवे। आवुस! यह जो कोप है, यह जो अ-प्रत्यय (= नाराजगी) है, दोनों ही अंगण है। (ख). हो सकता है आवुस! कि यहाँ एक भिक्षु के (मन में) इच्छा उत्पन्न हो—’मैं अपराध करूँ, (लेकिन) भिक्षु मुझे अकेले में दोषी ठहरावें, संघ में नहीं।’ हो सकता है, आवुस! कि भिक्षु, उस भिक्षु को संघ के बीच में अपराधी ठहरावें, अकेले में नहीं। फिर वह (भिक्षु)—’भिक्षु मुझे संघ के बीच में अपराधी ठहराते हैं, अकेले मे नहीं’—यह (सोच) कुपित होवे ॰। यह जो कोप है ॰। (ग). हो सकता है आवुस! ॰—’मैं अपराध करूँ, (किन्तु) सप्रतिपुद्गल (= बराबर का व्यक्ति) मुझे दोषी ठहरावे, अ-प्रतिपुद्गल नहीं!’ ॰। (घ). ॰—“शास्ता (= बुद्ध) मुझे ही पूछ पूछ कर भिक्षुओं को धर्मोपदेश करें, दूसरे भिक्षु को पूछ पूछ कर भिक्षुओं को धर्मोपदेश न करें।’ हो सकता है, आवुस! कि शास्ता दूसरे भिक्षु को पूछ पूछ कर भिक्षुओं को धर्मोपदेश करें, उस भिक्षु को पूछ पूछ कर नही ॰। फिर वह (भिक्षु)—’शास्ता, मुझे पूछ पूछ कर भिक्षुओं को धर्मोपदेश नहीं करते, दूसरे भिक्षुको पूछ पूछ कर ॰ करते है’—यह (सोच) कुपित होवे ॰। ॰। (ङ). ॰—’अहो! मुझे ही आगे करके भिक्षु गाँव में भोजन के लिये प्रविष्ट होवें, दूसरे भिक्षु को आगे करके नहीं…। ॰। (च). ॰—’अहो! भोजन के समय मुझे ही अग्र (= प्रथम)-आसन, अग्र-उदक, अग्र-पिंड (= प्रथम परोसा) मिले, दूसरे भिक्षु को नहीं…। ॰। (छ). ॰—’अहो! भोजन समाप्त हो जाने पर, मैं ही (अन्नदाता के दान के पुण्य का) अनुमोदन करूँ, दूसरा भिक्षु नहीं…। ॰। (ज). ॰—’अहो! मैं ही आराम (= आश्रम) में आये भिक्षुओं को धर्मोपदेश करूँ, दूसरा भिक्षु नहीं…। ॰। ॰।—’अहो! मै ही आराम में आईं भिक्षुणियो को ॰। ॰। ॰ आराम में आये उपासकों को ॰। ॰। ॰ आराम में आई उपासिकाओं को धर्मोपदेश करूँ, दूसरा भिक्षु नहीं…। ॰। (झ). ॰—’अहो! भिक्षु मेरा ही सत्कार=गुरूकार, मान और पूजा करें, दूसरे का नहीं…। ॰। ॰ भिक्षुणियाँ ॰ उपासक ॰। ॰। ॰ उपासिकायें मेरा ही सत्कार ॰ करें, दूसरे का नहीं…। ॰।
(ञ). ॰—’अहो! मैं ही उत्तम चीवरों (= वस्त्रों) का पाने वाला होऊँ…;…उत्तम भिक्षान्नों का…;…उत्तम वास स्थानों का…;…रोगियों के उत्तम पथ्य-औषध की चीजो का पाने वाला होऊँ, दूसरा भिक्षु नहीं…। ॰। आवुस! इन्हीं पाल कों=बुराइयों (ओर) इच्छा की परतंत्रताओ का नाम अंगण है। आवुस! जिस किसी भिक्षु के यह पापक=बुराइयाँ, इच्छा की परतंत्रतायें अविनष्ट दिखाई पडती हैं, सुनाई देती हैं; चाहे वह बनवासी, एकान्त कुटी निवासी, भिक्षान्नभोजी (= पिंडपाती), बिना-ठहरे-भिक्षाचारी, पांसुकूलिक (= फेंके चिथडों को सीकर पहनने वाला), (और) रूक्षचीवरधारी ही क्यों न हो, (किन्तु) स-ब्रह्मचारी (= एक व्रत के व्रती) उसका सत्कार=गुरूकार, मान, पूजा नहीं करते। सो किस लिये?—वह देखते और सुनते हैं, कि उस आयुष्मान् की वह ॰ बुराइयाँ ॰ नष्ट नहीं हुई। जैसे आवुस! एकए परिशुद्ध, निर्मल काँसे की थाली दूकार या कसेरे के घर से लाई गई हो। (फिर) मालिक उसमें मुर्दे साँप, मुर्दे कुत्ते, या मुर्दे मनुष्य (के मांस को) भरकर, दूसरी कांसे की थाली से ढाँक कर बाजार (आपण=दूकान) में रख दें। उसे देखकर लोग कहे—’अहो! यह क्या चमचमाता हुआ रक्खा है?’ फिर उसे उठाकर देखें। उसे देखते ही उनके (मन में) घृणा, प्रतिकूलता जुगुप्सा उत्पन्न हो जाये। भूखों को, भी खाने की इच्छा न हो, पेटभरों की तो बात ही क्या? इसी प्रकार आवुस! जिस किसी भिक्षु की वह बुराइयाँ ॰ नष्ट नहीं हुई ॰, तो चाहे वह बनवासी ॰ ही क्यों न हो, ॰। आवुस! जिस किसी भिक्षु की वह ॰ बुराइयाँ ॰ नष्ट हो गई है; तो चाहे वह ग्राम में रहने वाला, निमंत्रण खानेवाला, , गृहस्थो (के दिये नये) चीवरों को पहिनने वाला ही क्यों न हो, तो भी स-ब्रह्मचारी उसका सत्कार=पूजा करते है। सो किस लिये?—वह देखते और सुनते है, कि इस आयुष्मान् की वह॰, बुराइयाँ ॰ नष्ट हो गई है। जैसे, आवुस! एक स्वच्छ निर्मल काँसे की थाली दूकान या कसेरे के घर से लाई गई हो। (फिर) मालिक उसमें साफ किये शाली के चावल को अनेक प्रकार के सूप (= दाल आदि तियँन) और व्यंजन के साथ सजाकर एक दूसरी कंसपाती से ढाँककर बाजार में रख दें। उसे देखकर लोग कहे-’अहो! यह क्या चमचमाता रक्खा है!’ फिर उसे उठाकर खोल कर देखें। उसे देखते ही उनके (मन मे) प्रसन्नता, अनुकूलता और अ-जुगुप्सा उत्पन्न हो जाये। पेटभरे को भी खाने की इच्छा हो आये, भूखों की तो बात ही क्या? इसी प्रकार आवुस! जिस किसी भिक्षु की वह ॰ बुराइयाँ ॰ नष्ट हो गई हैं ॰। ॰।”
ऐसा कहने पर आयुष्मान् मौद्गल्यायन (= मोग्गलान) ने आयुष्मान् सारिपुत्र (= सारिपुत्र) को यह कहा—“आवुस सारिपुत्र! (इसी संबंध मे) मुझे एक उपमा (= दृष्टान्त) सूझ रही है।”
“उसे कहो, आवुस मौद्गाल्यायन!”
“आवुस! एक समय मै राजगृह, गिरिव्रज में निहार कर रहा था। तब मैं पूर्वाह्न के समय (वस्त्र) पहिन, (भिक्षा-)पात्र और चीवर लेकर राजगृह में भिक्षाटन के लिये प्रविष्ट हुआ। उस समय सामिति यानकारपुत्र, रथ के (चक्के की) पुट्ठी को गढ़ रहा था, और उसके पास भूत-पूर्व थानकार-वंशिक पंगुपुत्त आजीवक1 उपस्थित था। तब ॰ पंगुपुत्त आजीवक के चित्त मे ऐसा वितर्क उत्पन्न हुआ—अहो! (अच्छा हो जो) यह सामिति यानकार-पुत्त इस पुट्ठी के इस बंक (= टेढ़ापन) =इस जिह्य, इस दोष को गढ डाले, और इस प्रकार यह पुट्ठी (= नेमि) बंक-जिह्य-दोष से रहित हो, ठीक सार में प्रतिष्ठित हो जाये। आवुस! जैसा जैसा ॰ पंगुपुत्त आजीवक के चित्त में वितर्क होता था, वैसा ही वैसा सामिति यानकारपुत्त उस पुट्ठी बंक ॰ को गढ़ता था। तब आवुस! ॰ पंगुपुत्त आजीवक प्रसन्न चित्त हो बोल उठा—’हृदय से (मेरे) हृदय की (बात) को जानकर मानो गढ़ रहा है’। ऐसे ही आवुस! जो पुद्गल (= व्यक्ति) अश्रद्धालु है, जो (धर्म मे) श्रद्धा से नहीं बल्कि जीविका के लिये घर से बेघर बन प्रब्रजित हुये है, जो कि शठ, मायावी, पाखंढी (= केटुभी), उद्धत, अभिमानी (= उन्नल), चपल, मुखर, असंयतभाषी, असंयत-इन्द्रिय, भोजन की मात्रा को न जानने वाले, जागरण में न तत्पर, श्रामण्य (= संन्यास के आदर्श) की पर्वाह न करने वाले, भिक्षुओं की शिक्षा के प्रति तीव्र आदर न रखने वाले, जोडने बटोरने वाले, भागने में अग्रगामी, एकान्त चिन्तन में धुरा (= जुआ) फेंक देने वाले, आलसी (= कुसीती), अनुद्योगी, सुषित-स्मृति, बेसमझ, विभ्रान्त-चित्त, दुष्प्रज्ञ, गुँगे-भेड जैसे (पुरूष) है; इस उपदेश द्वारा उनके हृदय को हृदय से जान कर मानो आयुष्मान् सारिपुत्र गढ़ रहे है। और जो कुलपुत्र श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रब्रजित हुये है, जो कि अ-शठ, अ-मायावी, पाखड-रहित, अनुद्धत, अन्-अभिमानी, अ-चपल, अ-मुखर संयत-भाषी, संयत-इन्द्रिय, भोजन की मात्रा जाननेवाले, जागरण में तत्पर, श्रामण्य का ख्याल रखने वाले, शिक्षा के प्रति तीव्र आदर भाव रखने, वाले, न जोडने बटोरने वाले, भागने में जुआ फेंक देने वाले, एकान्त-चिन्तन (= प्रविवेक) में अग्रगामी, निरालस, उद्योगी, संयमी (= पहितत्ता), स्मृति-संयुक्त, समझदार, समाहित=एकाग्रचित्त, प्रज्ञावान्, गूँगे-और-भेड से नहीं है, वह आयुष्मान् सारिपुत्र के इस धर्मोपदेश को सुनकर मानो वचन और मन से पान कर रहे हैं, आहार कर रहे हैं। क्या खूब? (आपने) सब्रह्मचारियो को बुराइयों से उठाकर भलाइयों में स्थापित कर दिया। जैसे, आवुस! शौकिन अल्पवयस्क तरूण स्त्री या पुरूष शिर से स्नान कर, कमल की माला, या जूही की माला, या मोगरे (= अतिमुक्तका) की माला को पा दोनों हाथों से उसे ग्रहण कर, (अपने) उत्तम-अंग=शिर पर रक्खे; इसी प्रकार आवुस! जो कुल-पुत्र श्रद्धापूर्वक घर से प्रब्रजित हुये है॰ गूँगे—और-भेड़ से नहीं है; वह, आयुष्मान् सारिपुत्र के इस धर्मोपदेश को सुनकर मानो वचन और मन से पानकर रहे हैं ॰।”
इस प्रकार दोनों महानागों (= महावीरों) ने एक दूसरे के सुभापित का अनुमोदन किया।