मज्झिम निकाय

51. कन्दरक-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् बडे भारी भिक्षु-संघ के साथ चम्पा में गग्गरा-पुष्करिणी के तीर विहार करते थे।

तब हाथीवान् का पुत्र पेस्स और कन्दरक परिब्राजक जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर ॰ पेस्स भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया, और कन्दरक परिब्राजक भगवान् के साथ कुशल प्रश्न पूँछ एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे कन्दरक परिब्राजक चुपचाप बैठे भिक्षु-संघ को देखकर भगवान् ने यह कहा—

“आश्चर्य! भो गौतम! अदभूत!! भो गौतम! आप गौतम ने कैसे अच्छी तरह भिक्षु-संघ को बनाया है। हे गौतम! अतीत-काल में भी जो अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध हुये, उन भगवानों ने भी इतने ही मात्र अच्छी तरह भिक्षु-संघ को प्रतिपन्न किया (= बनाया) होगा; जैसा कि इस वक्त आप गौतम ने अच्छी तरह भिक्षु-संघ को प्रतिपन्न किया है। भो गौतम! भविष्य-काल में भी जो अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध होंगे ॰।”

“ऐसा ही है, कन्दरक! ऐसा ही है, कन्दरक! जो कोई कन्दरक! अतीत काल में अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध हुये ॰। ॰ भविष्य-काल में अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध होंगे ॰। कन्दरक! इस भिक्षु-संघ में क्षीणास्रव, (ब्रह्मचर्य-)वास समाप्त, कृत-कृत्य, भारमुक्त, सत्य-अर्थ-प्राप्त, भव-बंधन-मुक्त, सम्यग् ज्ञान द्वारा मुक्त अर्हत् भी है। कन्दरक! इस भिक्षु-संघ में निरन्तर शील (-युक्त), निरन्तर (सु-)वृत्ति (-युक्त), सन्तोषी, सन्तोष-वृत्ति-युक्त शैक्ष्य (= सीखने वाले) भी हैं, जो कि चारों स्मृति-प्रस्थानों में स्थित-चित्त हो विहरते हैं। कौन से चार (स्मृति-प्रस्थानों) में?—॰ धर्मो में धर्मानुपश्यी ॰।

ऐसा कहने पर ॰ पेस्स ने भगवान् से यह कहा—

“आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! भगवान् ने भन्ते! प्राणियों की विशुद्धि के लिये, शोक-पीडा हटाने के लिये, दुःख=दौर्मनस्य मिटाने के लिये, न्याय (= परमज्ञान) की प्राप्ति के लिये, निर्वाण के साक्षात्कार के लिये, इन चार स्मृति-प्रस्थानों को कितनी अच्छी तरह बतलाया है। श्वेतवस्त्रधारी हम गृही भी समय समय पर, इन चार स्मृति-प्रस्थानों में चित्त को सुप्रतिष्ठित कर विहरते है। भन्ते! हम काया में ॰ काय-अनुपश्यी विहरते हैं ॰ धर्मों में धर्मानुपश्यी विहरते हैं। आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! इतनी मनुष्यों की गहनता (= दुरूह) (होने पर भी) इतने मनुष्यों के कसट (= मैल), इतनी मनुष्यों की शठता होने पर भी, भन्ते! भगवान् प्राणियों के हिताहित को देखते है। भन्ते! मनुष्य गहन हैं; भन्ते! जो पशु हैं वह उत्तान (= खूले, सरल) हैं। भन्ते! मैं हाथी के स्वभाव को जानता हूँ, चम्पा में जितने समय में वह (= हाथी) गमन-आगमन करेगा, (अपनी) सभी शठता, कुटिलता, वक्रता=विह्यता को प्रकट कर देगा। किन्तु, भन्ते! हमारे दास=प्रेष्य या कर्मकर हैं, (वह) काया से दूसरा ही करते हैं, वचन से दूसरा कहते हैं और उनके चित्त में और ही होता है। आश्चर्य! भन्ते! अद्भूत!! भन्ते! मनुष्यों की इतनी गहनता ॰ जो पशु हैं, वह उत्तान हैं।”

“यह ऐसा ही है पेस्स! यह ऐसा ही है पेस्स! जो मनुष्य गहन है, पशु उत्तान हैं। पेस्स! लोक में यह चार (प्रकार) के पुद्गल (= पुरूष) होते हैं। कौन से चार?—पेस्स! (1) यहाँ कोई पुद्गल आत्मंतप—अपने को संताप देने वाले कामों में लगा होता है; (2)…कोई पुदग्ल परंतप—पर को संताप देने वाले उद्योगों में लगा होता है; (3)…कोई पुद्गल आत्मंतप-परंतप होता है—अपने को सन्ताप देने वाले उद्योगों मे भी लगा होता, पर को सन्ताप देने वाले उद्योगों में भी लगा होता है; (4)…कोई पुद्गल न आत्मंतप-न-परंतप होता है—(वह) न अपने को सन्ताप देने वाले उद्योगों मे लगा होता, न पर को सन्ताप देने वाले उद्योगों में लगा होता है। अन्-आत्मंतप-अ-परंतप हो, वह शांत, सुखी, शीतल (-स्वभाव), सुख-अनुभवी, ब्रह्मभूत (= विशुद्ध) आत्मा से विहरता है। पेस्स! इन चार पुद्गलो में कौनसा तेरे चित्त को पसन्द आता है?”

“भन्ते! जो यह आत्मंतप ॰ पुद्गल है, वह मेरे चित्त को पसन्द नहीं है। जो यह परंतप ॰ पुद्गल है, वह भी ॰ पसन्द नहीं है। जो यह आत्मंतप-परंतप ॰ पुद्गल है, वह भी पसन्द नहीं है। जो यह अन्-आत्मंतप-अ-परंतप ॰ पुद्गल है, वह ॰ मुझे पसन्द है।”

“पेस्स! क्यों यह तीन पुद्गल तेरे चित्त को पसन्द नहीं हैं?”

“भन्ते! जो आत्मंतप ॰ पुद्गल है, वह सुखेच्छुक, दुःख-प्रतिकूल हो अपने को आतापित परितापित करता है, इसलिये भन्ते! यह पुद्गल मेरे चित्त को पसन्द नहीं आता। जो वह भन्ते! परंतप ॰ पुद्गल है, वह सुखेच्छुक दुःख-प्रतिकूल दूसरे को आतापित परितापित करता है। इसलिये भन्ते! यह पुद्गल ॰। जो वह भन्ते! आत्मंतप-परंतप ॰ पुद्गल है। वह सुखेच्छुक, दुःख-प्रतिकूल अपने को और दूसरे को ॰। जो यह भन्ते! ॰ अन्-आत्मंतप-अ-परंतप ॰ पुद्गल ॰ ब्रह्मभूत-आत्मा से विहरता है; यह सुखेच्छु दु ख-प्रतिकूल हो अपने और पर के चित्त को नहीं तपाता, न सन्ताप देता, इसलिये भन्ते! यह पुद्गल मेेरे चित्त को पसन्द आता है। हन्त! भन्ते! अब हम जाते हैं; बहुकत्य-बहुकरणीय हैं हम, भन्ते!”

“जिसका पेस्स! तू समय समझता है, (वैसा कर)।”

तब हाथीवान् का पुत्र पेस्स भगवान् के भाषण को अभिनंदित अनुमोदित कर आसन से उठ, भगवान् को अभिवादन कर प्रदक्षिण कर चला गया।

तब पेस्स के जाने के थोड़े ही समय बाद भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—

“भिक्षुओं! पेस्स पंडित है। महाप्रज्ञ हे भिक्षुओ! पेस्स! यदि भिक्षुओ! पेस्स मुहूर्त भर और बैठता, जितने में कि मैं इन चारों पुद्गलों को विस्तार से विभाजित करता, (तो वह) बडे़ अर्थ से युक्त हो जाता। परन्तु, इतने से भी भिक्षुओ! पेस्स बड़े अर्थ से युक्त है।”

“इसी का भगवान्! समय है, इसी का सुगत! काल है; कि भगवान् इन चारों पुद्गलों को विस्तार से विभाजित करें। भगवान् से सुनकर भिक्षु धारण करेंगे।”

“तो भिक्षुओं! सुनों, अच्छी तरह मन में करों, कहता हूँ।”

“अच्छा, भन्ते!”— (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओं! कौनसा पुद्गल आत्मंतप-अपने को संताप देने वाले कामों में लग्न है?—भिक्षुओ! यहाँ कोइ पुद्गल अचेलक (= नंगा) ॰ ऐसे अनेक प्रकार से काया के आयातन सन्तापन के व्यापार में लग्न हो विहरता है। भिक्षुओ! यह पुद्गल आत्मंतप ॰ कहा जाता है।

“भिक्षुओ! कौनसा पुद्गल पंरतप ॰ है?—भिक्षुओ! यहाँ कोई पुद्गल औरभ्रिक (= भेड मारने वाला), शूकरिक, शाकुन्तिक, मार्गविक (= मृग मारने वाला), रूद्र, मत्स्य-घातक, चोर, चोरघातक, बन्धनागारिक (= जेलर) और जो दूसरे भी क्रुर व्यवसाय हैं (उनका करने वाला होता है)। भिक्षुओ! यह पुद्गल परन्तप ॰ कहा जाता है।

“भिक्षुओं! कौनसा पुद्गल आत्मंतप-परंतप ॰ है?—भिक्षुओं! यहाँ कोई पुरूष मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा होता है या महाशाल (= महाधनी) ब्राह्मण होता है। वह नगर के पूर्व द्वार पर नये संस्थागार (= यज्ञशाला) को बनवा दाढ़ी-मूँछ-मुँडा वर-अजिन धारण कर घी तेल से शरीर को चुपड, मृग के सींग से पीठ को खुजलाते हुये (अपनी) महिपी (= पटरानी) और ब्राह्मण पुरोहित के साथ संस्थागार में प्रवेश करता है। वह वहाँ गोबर से लिपी नंगी भूमि पर शय्या करता है। समान रूप के बच्छेवाली एक (ही) गाय के एक स्तन के दूध से राजा गुजारा करता है; जो दूसरे स्तन में दूध है, उससे महिषी गुजारा करती हैं; जो तीसरे स्तन में दूध है, उससे ब्राह्मण पुरोहित ॰; जो चैथे स्तन में दूध है, उससे अग्नि में हवन करता है; शेष बचे से बछडा॰। वह (यजमान) ऐसा कहता है—यज्ञ के लिये इतने बैल मारे जायें, ॰ बछडे॰, ॰ इतनी बछियाँ ॰, ॰ इतनी बकरियाँ ॰, ॰ इतनी भेडें, ॰, ॰ इतने वृक्ष काटे जायें, वेदी (= वर्हिष) के लिये इतना कुश काटा जाये। जो इसके ढास=पे्रष्य या कर्मकर होते हैं, वह भी दंड से तर्जित, भयभीत अश्रुमुख होते कामों को करते हैं। भिक्षुओ! यह कहा जाता है आत्मंतप-परंतप ॰ पुद्गल।

“भिक्षुओं! कौनसा पुद्गल अन्-आत्मंतप-अ-परंतप ॰ है?—भिक्षुओ! यहाँ (लोक में) तथागत ॰ उत्पन्न होते हैं ॰ चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहरता है।

“सो वह इस प्रकार चित्त के ‘एकाग्र, परिशुद्ध ॰ अब यहाँ करने के लिये कुछ शेष नहीं हैं’—यह जान लेता है। भिक्षुओ! यह कहा जाता है अन्-आत्मंतप-अ-परंतप ॰ पुद्गल ॰।”

भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण को अभिनंदित किया।