मज्झिम निकाय
54. पोतलिय-सुत्तन्त
एक समय भगवान् अंगुत्तराप (देश) के अंगुत्तरापो के आपण नामक निगम (= कस्बे) में विहार करते थे।
तब भगवान् पूर्वाह्न समय (चीवर) पहिनकर पात्र-चीवर ले, भिक्षा-चार के लिये, आपण में प्रविष्ट हुये। आपण में पिंड-चार करके पिंड-पात (= भोजन)-समाप्त कर, एक वन-खंड में दिन के विहार के लिये गये। भीतर जाकर दिन के विहार के लिये एक वृक्ष के नीचे बैठे। पोतलिय गृह-पति भी निवासन (= पोशाक) प्रावरण (= चादर) पहिने, छाता जूता धारण किये, जंघा-विहार (= चहल-कदमी) के लिये टहलता, जहाँ वह वनखंड था वहाँ गया। वनखंड मंे घुसकर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ पहूँचा। जाकर भगवान् के साथ…संमोदन कर…(ओर) एक ओर खडा हो गया। एक ओर खडे हुये पोतलिय गृह-पति को भगवान् ने यह कहा—
“गृहपति! आसन विद्यमान है, यदि चाहते हो, तो बैठो।”
ऐसा कहने पर पोतलिय गृह-पति—“गृहपति (= गृहस्थ, वैश्य) कहकर मुझे श्रमण गौतम पुकारता है’—कुपित और अ-सन्तुष्ट हो चुप रहा।
दूसरी बार भी ॰। ॰। तीसरी बार भी ॰।
तब पोतलिय गृहपति ने—‘गृहपति कहकर ॰’—कुपित और असन्तुष्ट हो भगवान् से कहा—
“भो गौतम! तुम्हे यह उचित नहीं, तुम्हे यह योग्य नहीं, जो मुझे गृहपति कहकर पुकारते हो।”
“गृहपति! तेरे वही आकार हैं, वही लिंग हैं; वही निमित्त (= लिंग) हैं, जैसे कि गृहपति के।”
“चूँकि भो गौतम! मैंने सारे कर्मान्त (= खेती) छोड दिये, सारे व्यवहार (= व्यापार, वाणिज्य) समाप्त कर दिये। भो गौतम! मेरे पास जो धन, धान्य, रजत (= चाँदी), जातरूप (= सोना) था, सब पुत्रों को तर्का दे दिया! सो मैं (खेती आदि में) न ताकीद करने वाला, न कटु कहने वाला हूँ; सिर्फ खाने पहिरने भर से वास्ता रखने वाला (हो), विहरता हूँ।”
“गृहपति! तू जिस प्रकार व्यवहार उच्छेद को कहता है। आर्यो के विनय में व्यवहार-उच्छेद, (इससे) दूसरी ही प्रकार होता है।”
“तो भन्ते! आर्य-विनय मैं व्यवहार-उच्छेद कैसे होता है? अच्छा! भन्ते! भगवान् मुझे उस प्रकार का धर्म-उपदेश करें; जैसे कि आर्य-विनय में व्यवहार-उच्छेद होता है।”
“तो गृहपति! सुनों, अच्छी तरह मन में करो; कहता हूँ।”
“अच्छा भन्ते!”—पोतलिय गृह-पति ने भगवान् से कहा। भगवान् ने कहा—
“गृहपति! आर्य-विनय (= आर्य-धर्म, आर्य-नियम) में यह आठ धर्म व्यवहार-उच्छेद करने के लिये हैं। कौन से आठ?—(1) अ-प्राणातिपात (= अहिंसा) के लिये, प्राणातिपात छोडना चाहिये। (2) दिया लेने (= दिन्नादन) के लिये, अ-दिन्नादान (= चोरी, न दिया लेना) छोडना चाहिये। (3) सत्य बोलने के लिये, मृषावाद छोडना चाहिये। (4) अ-पिशुन-वचन (= न चुगली करने) के लिये, पिशुन-वचन छोडना चाहिये। (5) अ-गृद्ध-लोभ (= निर्लोम) के लिये गृद्ध-लोभ छोडना चाहिये। (6) अ-निन्दा-दोष के लिये, निन्दा छोडनी चाहिये। (7) अ-क्रोध उपायास (परेशानी) के लिये क्रोध-उपयास छोडना चाहिये। (8) अन्-अतिमान के लिये, अतिमान (= अभिमान) को छोडना चाहिये। गृहपति! संक्षिप्त से कहे, विस्तार से न विभाजित किये, यह आठ धर्म, आर्य-विनय में व्यवहार-उच्छेद करने के लिये हैं।”
“भन्ते! भगवान् ने जो मुझे विस्तार से न विभाजित किये, संक्षिप्त से, आठ धर्म ॰ कहै। अच्छा हो भन्ते! (यदि) भगवान् अनुकम्पाकर (उन्हें) विस्तार से विभाजित करें।”
“तो गृहपति! सुनों, अच्छी तरह मन में करों, कहता हूँ।”
“अच्छा भन्ते!”—पोतलिय गृहपति ने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् बोले—“गृहपति! ‘अ-प्राणातिपात के लिये प्राणातिपात छोडना चाहिये, ‘ यह जो कहा, किस कारण सेस कहा?—गृहपति! आर्य-श्रावक ऐसा सोचता है—‘जिन संयोजनो के कारण मुझे प्राणातिपाती होना है, उन्हीं संयोजनो को छोडने क लिये, उच्छेद के लिये मैं लगा हूँ, और मैं ही प्राणातिपाती हो गया। प्राणातिपात के कारण, आत्मा (= अपना चित्त) भी मुझे धिक्कारता है। प्राणातिपात के कारण, विज्ञ लोग भी जानकर धिक्कारते है। प्राणातिपात के कारण, काया छोडने पर, मरने के बाद, दुर्गति भी होनी है। यही संयोजन (= बंधन) है, यही नीवरण (= ढक्कन) है, जो कि प्राणातिपात के कारण उत्पन्न होने वाले विघात-परिदाह (= द्वेष-जलन) और आस्रव (= चित्त-दोष) प्राणातिपात से विरत को नहीं उत्पन्न होते। ‘अ-प्राणातिपात के लिये, प्राणातिपात छोडना चाहिये’ यह जो कहा, वह इसी कारण से कहा।
“दिन्नादान के लिये अदिन्नादान छोडना चाहिये, यह जो कहा, किस कारण से कहा?—गृहपति! आर्य-श्रावक ऐसा सोचता है, जिन संयोजनों के हेतु मुझे अदिन्नादायी (= बिना दिया लेने वाला) होना है, उन्हीं संयोजनों के छोडने के लिये, उच्छेद करने के लिये, मैं लगा हुआ हूँ; और मैं ही अ-दिन्नादायी हो गया! अ-दिन्नादान के कारण आत्मा भी मुझे धिक्कारता है। अ-दिन्नादान के कारण विज्ञ लोग भी जानकर धिक्कारते हैं। अ-दिन्नादान के कारण काया छोडने पर, मरने के बाद दुर्गती भी होनी है। यही संयोजन है, यही नीवरण है, जो कि यह अ-दिन्नादान। अ-दिन्नादान के कारण विघात (= पीडा) परिदाह (= जलन) (और) आस्रव उत्पन्न होते हैं; अ-दिन्नादानविरत को ॰ नहीं होते। ‘दिन्नादान के लिये अ-दिन्नादान छोडना चाहिये’ यह जो कहा, वह इसी कारण कहा।
“अ-पिशुन-वचन के लिये ॰।
“अ-गृद्ध-लोभ के लिये ॰।
“अ-निन्दा-रोष के लिये ॰।
“अ-क्रोध-उपायास के लिये ॰।
“अन्-अतिमान के लिये ॰।
“गृहपति आर्य-विनय में यह आठ! संक्षिप्त कहे, विस्तार से विभाजित, व्यवहार-उच्छेद करने वाले हैं।…(किंतु इनसे) सर्वथा सब कुछ व्यवहार का उच्छेद नहीं होता।”
“तो कैसे भन्ते! आर्य-विनय में…सर्वथा सब कुछ व्यवहार-उच्छेद होता है? अच्छा हो भन्ते! भगवान् मुझे वैसे धर्म का उपदेश करें, जैसे कि आर्यविनय में…सर्वथा सब कुछ व्यवहार का उच्छेद होता है?”
“तो गृहपति! सुनों, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूँ।”
“अच्छा भन्ते!” ॰। ॰।
“गृहपति! जैसे भूख से अति-दुर्बल कुक्कुर गो-घातक के सूना (= मांस काटने के पीढ़े) के पास खडा हो। चतुर गो-घातक या गोघातक का अन्तेवासी उसको मांस-रहित लोहू में सनी…हड्डी फेंक दे। तो क्या मानते हो, गृहपति! क्या वह कुक्कुर उस हड्डी को खाकर, भूख की दूर्बलता को हटा सकता है?”
“नहीं, भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“भन्ते! वह लोहू में चुपडी मांस-रहित हड्डी है। वह कुक्कुर केवल परेशानी=पीड़ा का ही भागी होगा।”
“ऐसे ही गृहपति! आर्य-श्रावक सोचता है—हड्डी (असिसूना) के समान…भगवान् ने भोगों को ‘बहुत दुःख’ बहुत परेशानी वाला कहा है, इनमें बहुत सी बुराइयाँ है। अतः इसको यथार्थ से, अच्छी तरह प्रज्ञा से, देखकर, जो यह अनेकता वाली अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड, जो यह एकान्तता वाली एकान्त में लगी (उपेक्षा) है, जिसमें लोक के आमिष (= विष) के उपादान (= ग्रहण, स्वीकार) सर्वथा ही टूट जाते हैं; उसी उपेक्षा की भावना करता है।
“जैसे गृहपति! गिद्ध, कौवा या चील्ह माँस के टुकडे को लेकर उड़े, उसको गिद्ध भी, कौवे भी, चील्ह भी पीछे उड उडकर नोचं, खसोटें। तो क्या मानता है, गृहपति! वह गिद्ध कौवे या चील्ह, यदि शीघ्र ही उस माँस के टुकडे को न छोड दे, तो क्या वह उसके कारण मरण को या मरणान्त दुःख को पावेंगे न?”
“ऐसा ही, भन्ते!”
“ऐसे ही, गृहपति! आर्य-श्रावक सोचता है—भगवान् ने मांस के टुकडें मांस-पेशी की भाँति कामों को बहुत दुःखवाले बहुत परेशानी वाले कहा है; इनमें बहुत सी बुराइयाँ हैं। इस प्रकार इसको अच्छी तरह प्रज्ञा से देखकर, जो यह अनेकता की, अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड, जो यह एकान्तता की एकान्त में लगी उपेक्षा है; जिसमें लोकामिष के उपादान (= ग्रहण) सर्वथा ही उच्छिन्न हो जाते हैं; उसी उपेक्षा की भावना करता है।
“जैसे गृहपति! पुरूष तृण की उल्का (= मशाल, लुकारी) को ले, हवा के रूख जाये। तो क्या मानते हो, गृहपति! यदि वह पुरूष शीघ्र ही उस तृण-उल्का को न छोड दे तो (क्या) वह तृण-उल्का उसके हथेली को (न) जला देगी, या बाँह को (न) जला देगी, या दूसरे अंग प्रत्यंग को न जला देगी…?”
“ऐसा ही, भन्ते!”
“ऐसे ही, गृहपति! आर्य-श्रावक सोचता है—तृण-उल्का की भाँति बहुत दुःखवाले बहुत परेशानी वाले ॰ हैं ॰। ॰।
“जैसे कि गृहपति! धूम-रहित, अर्चि (= लौ)-रहित अंगारका (= भउर, अग्नि-चूर्ण) हो। तब जीवन-इच्छुक, मरण-अनिच्छुक, सुख-इच्छुक, दुःख-अनिच्छुक पुरूष आवे; उसको दो बलवान् पुरूष अनेक बाहुओं से पकडकर अंगारका में डाल दे। तो क्या मानते हो गृहपति! क्या वह पुरूष इस प्रकार चिता ही में शरीर को (नहीं) डालेगा?”
“हाँ भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“भन्ते! उस पुरूष को मालूम है, यदि मैं इन अंगारकाओं में गिरूँगा, तो उसके कारण मरूँगा या मरणांत दुःख को पाऊँगा।”
“ऐसे ही गृहपति! आर्य-श्रावक यह सोचता है—अंगारका की भाँति दुःखद ॰। इसमें बहुत बुराइयाँ है। ॰।
“जैसे गृह-पति! पुरूष आराम की रमणीयता-युक्त, वन-रमणीयता-युक्त, भूमि-रमणीयता-युक्त, पुष्करिणी-रमणीयता-युक्त स्वप्न को देखें। सो जागने पर कुछ न देखे। ऐसे ही गृहपति! आर्य-श्रावक यह सोचता है—भगवान् ने स्वप्न-समान (= स्वप्नोपम) बहुत दुःखद ॰ कहा है। ॰।
“जैसे कि गृह-पति! (किसी) पुरूष (के पास) मँगनी के भोग, यान या पुरूष के उत्तम मणि-कुढल हों। वह ॰ उन मंगनी के भोगों के साथ…बाजार में जाये। उसको देखकर आदमी कहे—कैसा भोग-संपन्न पुरूष है! भोगी लोग ऐसे ही भोग का उपभोग करते हैं!! सो उसके मालिक (= स्वामी) ॰ जहाँ देखें वहाँ कनात लगावें। तो क्या मानते हो, गृहपति! क्या उस पुरूष को दूसरा (भाव समझना) युक्त है?”
“हाँ, भन्ते!”
“सो किस हेतु?”
“(क्योंकि जेवरो के) मालिक कनात घेर देते है।”
“ऐसे ही गृहपति! आर्य-श्रावक ऐसा सोचता है—मँगनी की चीज़ के समान (= याचित-कूपम) ॰ कहा है। ॰।
“जैसे गृहपति! ग्राम या निगम से अ-दूर, भारी वन-खण्ड हो। वहाँ फल-संपन्न=उत्पन्न फल वृक्ष हो; कोई फल भूमि पर न गिरा हो। तब फल-इच्छुक, फल-गवेषक=फल-खोजी पुरूष घुमते हुये आवे। वह उस वन के भीतर जाकर, उस फल-संपन्न ॰ वृक्ष को देखे। उसको यह हो—यह वृक्ष फल-सम्पन्न ॰ है, कोई फल भूमि पर नहीं गिरा है; मैं वृक्ष पर चढना जानता हूँ। क्यों न मैं चढकर इच्छा-भर खाऊँ, और फाँड (= उच्छंग, उत्संग) भर ले चलूँ। तब दूसरा फल-इच्छुक, फल-गवेषी=फलखोजी, पुरूष घूमता हुआ तेज कुल्हाडा लिये उस वन खण्ड के भीतर जाकर, उस वृक्ष को देखे। उसको ऐसा हो—यह वृक्ष फल-सम्पन्न ॰ हैं, मै। वृक्ष पर चढना नहीं जानता; क्यों न इस वृक्ष को जड से काटकर इच्छा भर खाऊँ और फाँड भर ले चलूँ। वह उस वृक्ष को जड से काटे। तो क्या मानते हो, गृहपति! वह जो पुरूष पेड पर पहिले चढा था, यदि जल्दी ही न उतर आये, तो (क्या) वचह गिरता हुआ वृक्ष उसके हाथ को (न) तोड देगा, पैर को (न) तोड देगा, या दूसरे अंग-प्रत्यंग को (न) तोड देगा? वह उसके कारण क्या मरण को (न) प्राप्त होगा, या मरणान्त दुःख को (न) प्राप्त होगा?”
“हाँ, भन्ते!”
“ऐसे ही गृह-पति! आर्य-श्रावक सोचता है—वृक्ष-फल-समान कामों को ॰ कहा है; इनमें बहुत सी बुराइयाँ (= आदि-नव) हैं। इस प्रकार इसको यथार्थतः अच्छी प्रकार, प्रज्ञा से देखकर, जो यह अनेकता-वाली अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड; जो यह एकांत की एकांत में लगी उपेक्षा है, जिसमें लोक-आमिष का उपादान (= ग्रहण) सर्वथा ही उच्छिन्न हो जाता है, उसी उपेक्षा की भावना करता है।
“सो वह गृहपति! आर्य-श्रावक इसी अनुपम (= अनुसार) उपेक्षा, स्मृति की पारिशुद्धि (= स्मरण को शुद्धि करने वाली उपेक्षा) को पाकर, अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों (= पूर्व जन्मों) को स्मरण करता है;—जैंसे कि एक जन्म भी, दो जन्म भी, तीन जन्म भी ॰ इस प्रकार आकार-साहित उद्देश (= नाम)-सहित, अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करता है।
“सो वह गृहपति! आर्य-श्रावक इसी अनुपम उपेक्षा स्मृति-पारिशुद्धि को पाकर, वि-शुद्ध अ-मानुष दिव्य-चक्षु से, मरते उत्पन्न होते, नीच-ऊँच, सुवर्ण-दुर्वर्ण, सुगत-दुर्गत ॰ कर्मानुसार (फल को) प्राप्त, प्राणियों को जानता है।
“सो वह गृह-पति! आर्य-श्रावक इसी अनुपम उपेक्षा स्मृति-पारिशुद्धि को पाकर, इसी जन्म में आस्रवों (= चित्त-दोषों) के क्षय से, अन्-आस्रव चित्त-विमुक्ति को जानकर, प्राप्तकर, विहरता है। गृहपति! आर्य-विनय में इस प्रकार…सर्वथा सभी कुछ सब व्यवहार का उच्छेद होता है। तो क्या मानता है, गृह-पति! जिस प्रकार आर्य-विनय में सर्वथा सभी कुछ व्यवहार-उच्छेद होता है, क्या तू वैसा व्यवहार-समुच्छेद अपने में देखता है?”
“भन्ते! कहाँ मैं और कहाँ आर्य-विनय में…व्यवहार-समुच्छेद!! भन्ते! पहिले अन्आजानीय अन्य-तैर्थिक (= पंथाई) परिब्राजकों को, हम आजानीय (= परिशुद्ध, शुद्धजाति के) समझते थे, अनाजानीय होतों को आजानीयका भोजन कराते थे, अन्-आजानीय होतो को आजानीय स्थान पर स्थापित करते थे। आजानीय भिक्षुओं को अन्-आजानीय समझते थे, आजानीय होतो को अन्-आजानीय भोजन कराते थे, आजानीय होतो को अन्-आजानीय स्थान पर रखते थे। भन्ते! अब हम अन्-आजानीय होते अन्य-तैर्थिक परिब्राजकों को अन्-आजानीय जानेंगे, ॰ अन्-आजानीय भोजन करायेंगे, ॰ अन् आजानीय स्थान पर स्थापित करेंगे। भन्ते! अब हम आजानीय होते भिक्षुओं को आजानीय समझेंगे, ॰ आजानीय भोजन करायेंगें, ॰ आजानीय स्थान पर रक्खेंगे। अहो! भन्ते! भगवान् ने मुझे श्रमणों में श्रमण-प्रेम पैदा कर दिया, श्रमणों (= साधुओं) में श्रमण-प्रसाद (= श्रमणों के प्रति प्रसन्नता), ॰ श्रमण-गौरव ॰। आश्चर्य! भन्ते! आश्चर्य! भन्ते! ॰ आज से भगवान् मुझे अंजलि-बद्ध शरणागत उपासक धारण करें।”