मज्झिम निकाय

58. अभयराजकुमार-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् राजगृह में वेणुवन कलन्दक-निवाप में विहार करते थे।

तब अभय-राजकुमार जहाँ निगंठ नात-पुत्त थे, वहाँ गया। जाकर निगंठ नात-पुत्त को अभिवादनकर एक ओर बैठा। एक ओर बैठे अभय-राजकुमार से निगंठ नात-पुत्त ने कहा—

“आ, राजकुमार! श्रमण गौतम के साथ वाद (= शास्त्रार्थ) कर। इससे तेरा सुयश (= कल्याणकीर्ति शब्द) फैलेगा—‘अभय राजकुमार ने इतने महर्द्धिक=इतने महानुभाव श्रमण गौतम के साथ वाद रोपा’।”

“किस प्रकार से भन्ते! मै इतने महानुभाव श्रमण गौतम के साथ वाद रोपूँगा?”

“आ तू राजकुमार! जहाँ श्रमण गौतम है, वहाँ जा। जाकर श्रमण गौतम से ऐसा कह—‘क्यों भन्ते! तथागत ऐसा वचन बोल सकते हैं, जो दूसरों को अ-प्रिय=अ-प्रनाप हो’। यदि ऐसा पूछने पर श्रमण गौतम तुझे कहे—‘राजकुमार! बोल सकते हैं ॰।’ तब उसे तुम यह बोलना—‘तो फिर भन्ते! पृथग्जन (= अज्ञ संसारी जीव) से (तथागत का) क्या भेद हुआ, पृथग्जन भी वैसा वचन बोल सकता है ॰‘? यदि ऐसा पूछने पर तुझे श्रमण गौतम कहे—‘राजकुमार! ॰ नहीं बोल सकते है।’ तब तुम उसे बोलना—‘तो भन्ते! आपने देवदत्त के लिये भविष्यद्वाणी क्यों की है—‘देवदत्त अपायिक (= दुर्गति में जाने वाला) है, देवदत्त नैरयिक (= नरकगामी) है, देवदत्त कल्पस्थ (= कल्पभर नरक में रहने वाला) है, देवदत्त अचिकित्स्य (= लाइलाज) है’। आपके इस वचन से देवदत्त कुपित=असंतुष्ट हुआ।’ राजकुमार! (इस प्रकार) दोनों ओर के प्रश्न पूछने पर श्रमण गौतम न उगिल सकेगा, न निगल सकेगा। जैसे कि पुरूष कठ में लोहे की बंसी (= श्रृंगाटक) लगी हो, वह न निगल सके न उगल सके; ऐसे ही ॰।”

“अच्छा भन्ते!” कह अभय राजकुमार आसन से उठ, निगंठ नात-पुत्त को अभिवादन कर, दक्षिणाकर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् को अभिवादन कर, एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुये अभव राजकुमार सूर्य (= समय) देखकर सोचा—‘आज भगवान् से वाद रोपने का समय नहीं है। कल अपने घर पर भगवान् के साथ वाद करूँगा।’ (और) भगवान् से कहा—

“भन्ते! भगवान् अपने सहित चार आदमियों का कल को मेरा भोजन स्वीकार करें।”

भगवान् ने मौन से स्वीकार किया। तब अभय राजकुार भगवान् की स्वीकृति जान, भगवान् को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर चला गया।

उस रात के बीतने पर भगवान् पूर्वाह्न समय पहिन कर पात्रचीवर ले, जहाँ अभय राजकुमार का घर था, वहाँ गये। जाकर बिछे आसन पर बैठे। अभय राजकुमार ने भगवान् को उत्तम खाद्य भोज्य से अपने हाथ से तृप्त किया, पूर्ण किया। तब अभय राजकुमार, भगवान् के भोजन कर, पात्र से हाथ हटा लेने पर, एक नीचा आसन ले, एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुये, अभय राजकुमार ने भगवान् से कहा—

“क्या भन्ते! तथागत ऐसा वचन बोल सकते है, जो दूसरे को अ-प्रिय=अ-मनाप हो।”

“राजकुमार! यह एकांश से (= सर्वथा=बिना अपवाद् के) नहीं (= कहा जा सकता)।”

“भन्ते! नाश हो गये निगंठ।”

“राजकुमार! क्या तू ऐसे बोल रहा है—‘भन्ते! नाश हो गये निगंठ?”

“भन्ते! मैं जहाँ निगंठ नात-पुत्त है, वहाँ गया था। जाकर निगंठ नात-पुत्त को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे मुझे निगंठ नात-पुुत्त ने कहा—‘आ राजकुमार! ॰’ ॰। इसी प्रकार राजकुमार! दुधारा प्रश्न पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा, न निगल सकेगा।”

उस समय अभय राजकुमार की गोद में, एक छोटा मन्द, उत्तान सोने लायक (= बहुत ही छोटा) बच्चा, बैठा था। तब भगवान् ने अभय राजकुमार से कहा—

“तो क्या मानता है राजकुमार! क्या तेरे या दाई के प्रमाद (= गफलत) से यदि यह कुमार मुख में काठ या ढेला डाल ले, तो तू इसको क्या करेगा?”

“निकाल लूँगा, भन्ते! यदि भन्ते! मैं पहिले ही न निकाल सका, तो बायें हाथ से सीस पकडकर, दाहिने हाथ से अँगुली टेढ़ीकर, खून-सहित भी निकाल लूँगा।”

“सो किसलिये?”

“भन्ते! मुझे कुमार (= बच्चे) पर दया है।”

“ऐसे ही, राजकुमार! (1) तथागत जिस वचन को अभूत=अ-तथ्य, अन्-अर्थ-युक्त (= व्यर्थ) जानत हैं, और वह दूसरेां को अ-प्रिय, अ-मनाप है, उस वचन को तथागत नहीं बोलते। (2) तथागत जिस वचन को भूत=तथ्य अनर्थक जानते हैं, और वह दूसरों को अ-प्रिय=अ-मनाप है; उस वचन को तथागत नहीं बोलते। (3) तथागत जिस वचन को भूत=तथ्य सार्थक जानते है। कालज्ञ (= काल जानने पर) तथागत उस वचन को बोलते है। (4) तथागत जिस वचन को अभूत=अतथ्य तथा अनर्थक जानते हैं, और वह दूसरों को प्रिय और मनाप है, उस वचन को भी तथागत नहीं बोलते। (5) जिस वचन को तथागत भूत=तथ्य (= सच) =सार्थक जानते हैं, और वह यदि दूसरों को प्रिय=मनाप होती है, कालज्ञ तथागत उस वचन को बोलते है। सो किसलिये?—राजकुमार! तथागत को प्राणियों पर दया है।”

“भन्ते! जो यह क्षत्रिय-पंडित, ब्राह्मण-पंडित, गृहपति-पंडित, श्रमण-पंडित, प्रश्न तैयारकर तथागत के पास आकर पूछते है। भन्ते! क्या भगवान् पहिले ही से चित्त में सोचे रहते हैं—‘जो मुझे ऐसा आकर पूछेंगे, उनके ऐसा पूछने पर, मैं ऐसा उत्तर दूँगा?”

“तो राजकुमार! तुझे ही यहाँ पूछता हूँ, जैसे तुझे जँचे, वैसे इसका उत्तर देना। तो राजकुमार! क्या तू रथ के अंग-प्रत्यंगो में चतुर है ?”

“हाँ, भन्ते! मैं रथ के अंग-प्रत्यंग में चतुर हूँ।”

“तो राजकुमार! जो तेरे पास आकर यह पूछें—‘यह रथ का कौनसा अंग-प्रत्यंग है?’ तो क्या तू पहिले ही से यह सोचे रहता है—जो मुझे आकर ऐसा पूछेंगे, उनके ऐसा पूछने पर, मैं ऐसा उत्तर दूँगा। अथवा मुकाम ही पर यह तुझे भासित होता है?”

“भन्ते! मैं रथिक हूँ, रथ के अंग-प्रत्यंग का मैं प्रसिद्ध (जानकार), चतुर हूँ। रथ के सभी अंग-प्रत्यंग मुझे सुविदित है। (अतः) उसी क्षण (= स्थानशः) मुझे यह भासित होगा।”

“ऐसे ही राजकुमार! जो वह क्षत्रिय-पंडित, ॰ श्रमण-पंडित प्रश्न तय्यार कर, तथागत के पास आकर पूछते हैं। उसी क्षण वह तथागत को भासित होता है। सो किस हेतु?—राजकुमार! तथागत की धर्मधातु (= मन का विषय) अच्छी तरह सध गई है; जिस धर्म-धातु के अच्छी तरह सधी होने से, उसी क्षण (वह) तथागत को भासित होता है।”

ऐसा कहने पर अभय राजकुमार ने भगवान् से कहा—

“आश्चर्य! भन्ते!! अद्भूत! भन्ते!! ॰ आज से भगवान् मुझे अंजलि-बद्ध शरणागत उपासक धारण करें।”